बांका हिमाचल : गिरिपार की सवा सौ पंचायतों में मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली
देवभूमि हिमाचल के जिला सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र की करीब सवा सौ पंचायतों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। ये पर्व दिवाली के एक माह बाद अमावस्या को पारंपरिक तरीके के साथ मनाया जाता है। यहां इसे ‘मशराली’ के नाम से जाना जाता है। गिरिपार के अतिरिक्त शिमला जिला के कुछ गांव, उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र एवं कुल्लू जिला के निरमंड में भी बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। दरअसल, गिरिपार क्षेत्र में किवदंती है कि यहां भगवान श्री राम के अयोध्या पहुंचने की खबर एक महीना देरी से मिली थी। इसके चलते यहाँ के लोग एक महीना बाद दिवाली का पर्व मनाते है जिसे आम भाषा में बूढी दिवाली कहा जाता हैं। हालांकि यहाँ मुख्य दिवाली भी धूमधाम से मनाया जाती है। इन क्षेत्रों में बलिराज के दहन की प्रथा भी है। विशेषकर कौरव वंशज के लोगों द्वारा अमावस्या की आधी रात में पूरे गांव की मशाल के साथ परिक्रमा करके एक भव्य जुलूस निकाला जाता है और बाद में गांव के सामूहिक स्थल पर एकत्रित घास, फूस तथा मक्की के टांडे में अग्नि देकर बलिराज दहन की परंपरा निभाई जाती है। वहीँ पांडव वंशज के लोग ब्रह्म मुहूर्त में बलिराज का दहन करते हैं। मान्यता है कि अमावस्या की रात को मशाल जुलूस निकालने से क्षेत्र में नकारात्मक शक्तियों का प्रवेश नहीं होता और गांव में समृद्धि के द्वार खुलते है।
बनते है विशेष व्यंजन, नृृत्य करके होता है जश्न:
बूढ़ी दिवाली के उपलक्ष्य पर ग्रामीण पारंपरिक व्यंजन बनाने के अतिरिक्त आपस में सूखे व्यंजन मूड़ा, चिड़वा, शाकुली, अखरोट वितरित करके दिवाली की शुभकामनाएं देते हैं। दिवाली के दिन उड़द भिगोकर, पीसकर, नमक मसाले मिलाकर आटे के गोले के बीच भरकर पहले तवे पर रोटी की तरह सेंका जाता है फिर सरसों के तेल में फ्राई कर देसी घी के साथ खाया जाता है। इसके बाद 4 से 5 दिनों तक नाच गाना और दावतों का दौर चलता है। परिवारों में औरतें विशेष तरह के पारंपरिक व्यंजन तैयार करती हैं। सिर्फ बूढ़ी दिवाली के अवसर पर बनाए जाने वाले गेहूं की नमकीन यानी मूड़ा और पापड़ सभी अतिथियों को विशेष तौर पर परोसा जाता है। इसके अतिरिक्त स्थानीय ग्रामीण द्वारा हारूल गीतों की ताल पर लोक नृत्य होता है। ग्रामीण इस त्यौहार पर अपनी बेटियों और बहनों को विशेष रूप से आमंत्रित करते हैं। ग्रामीण परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ साथ हुड़क नृृत्य करके जश्न मनाते हैं। कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है जबकि कुछ गांव में अर्ध रात्रि के समय एक समुदाय के लोगों द्वारा बुड़ियात नृत्य करके देव परंपरा को निभाया जाता है।
क्यों मनाते हैं एक माह बाद दिवाली !
दिवाली मनाने के बाद पहाड़ में बूढ़ी दीवाली मनाने के पीछे लोगों के अपने अपने तर्क हैं। जनजाति क्षेत्र के बड़े-बुजुर्गों की माने तो पहाड़ के सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की सूचना देर से मिलने के कारण लोग एक माह बाद पहाड़ी बूढ़ी दिवाली मनाते हैं। वहीं कुछ लोगों का मत है कि दिवाली के वक्त लोग खेतीबाड़ी के कामकाज में बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं जिस कारण वह इसके ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली का जश्न परंपरागत तरीके से मनाते हैं। वहीं, कुछ बुजुर्गों की मानें तो, जब जौनसार व जौनपुर क्षेत्र सिरमौर राजा के अधीन था, तो उस समय राजा की पुत्री दिवाली के दिन मर गई थी। इसके चलते पूरे राज्य में एक माह का शोक मनाया गया था. उसके ठीक एक माह बाद लोगों ने उसी दिन दिवाली मनाई। इस दौरान पहले दिन छोटी दिवाली, दूसरे दिन रणदयाला, तीसरे दिन बड़ी दिवाली, चौथे दिन बिरुड़ी व पांचवें दिन जंदौई मेले के साथ दीवाली पर्व का समापन होता है।