डॉ वाईएस परमार के खिलाफ चुनाव लड़ने वाली बॉलीवुड अभिनेत्री
कलावती लाल, वो फिल्म अभिनेत्री जिसका जीवन भी किसी बॉलीवुड फिल्म की पटकथा से कम नहीं रहा। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" जिनके जीवन का सिद्धांत रहा और आखिरी सांस तक जिन्होंने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया। सिल्वर स्क्रीन से लेकर राजनीति तक और महिला सशक्तिकरण से लेकर गौ सेवा तक, कलावती की बहुरंगी जीवन यात्रा अद्धभुत और अकल्पनीय रही है। दिलचस्प बात ये है कि कलावती लाल का ताल्लुख हिमाचल प्रदेश के सोलन से है, यहीं जन्मी, यहीं अधिकांश जीवन बीता और यहीं जीवन की सांझ हुई। पर आज ये नाम गुमनाम है। जो सिल्वर स्क्रीन की शान थी आज की पीढ़ी उनके नाम से भी अपरिचित है।
साल था 1952 का। डॉ वाईएस परमार अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे। उन्होंने अपने गृह जिला सिरमौर की पच्छाद सीट से ताल ठोकी थी। ये वो दौर था जब हिमाचल प्रदेश अपने गठन की प्रक्रिया से गुजर रहा था और बीतते वक्त के साथ-साथ प्रदेश का स्वरुप भी बदल रहा था। इसमें डॉ वाईएस परमार अहम किरदार निभा रहे थे। वे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के करीबी भी थे। लिहाजा ये लगभग तय था कि चुनाव के बाद यदि कांग्रेस सत्तासीन हुई तो डॉ परमार ही मुख्यमंत्री होंगे। कांग्रेस के अतिरिक्त किसान मजदूर प्रजा पार्टी और भारतीय जन संघ ही इस चुनाव में हिस्सा लेने वाले प्रमुख राजनीतिक दल थे। किंतु दोनों दलों ने डॉ परमार के विरुद्ध प्रत्याशी नहीं उतारा और उन्हें वॉक ओवर मिलना लगभग तय था। उसी वक्त सोलन में रहने वाली एक महिला ने निर्णय लिया कि वे डॉ परमार का मुकाबला करेंगी। ये वो दौर था जब प्रदेश की साक्षरता दर करीब 7 प्रतिशत थी, जबकि महिला साक्षरता दर तो तकरीबन 2 प्रतिशत ही थी। उस दौर के पुरुष प्रधान समाज में सियासत में एक महिला की भागीदारी किसी अचम्भे से कम नहीं थी। बावजूद इसके एक महिला ठान चुकी थी कि वह हिमाचल के निर्माण में अपना योगदान देगी। ये महिला थी अछूत कन्या और फैशनेबल इंडिया जैसी फिल्मों में अभिनय कर चुकी सिने जगत की नायिका कलावती लाल। सिनेमा की दुनिया में उनका नाम पुष्पा देवी था। भारत -पाकिस्तान विभाजन के बाद कलावती लाल 1947 में अपने पति कर्नल रामलाल के साथ सोलन आयी। शहर के फॉरेस्ट रोड स्थित ग्रीन फील्ड कोठी ही उनका आशियाना था। दरअसल 1930 के दशक में कलावती की उच्च शिक्षा लाहौर में हुई थी जहाँ वो कामरेड मुहम्मद सादिक और फ़रीदा बेदी के संपर्क में आई थी। तभी से उनकी विचारधारा भी वामपंथी हो गई थी। हालांकि उस दौर को गुजरे करीब दो दशक बीत चुके थे लेकिन वामपंथ विचारधारा की लौ अभी बुझी नहीं थी। खेर, चुनाव हुआ और वही नतीजा आया जो अपेक्षित था। कलावती लाल प्रदेश के निर्माता डॉ वाईएस परमार से चुनाव हार गई।
जब पिता को कहा, ये जुर्म है आपको जेल भिजवा दूंगी...
कभी - कभी एक विचार भी विचारधारा बन जाता है, यह कहावत कलावती लाल पर सही बैठती है। कलावती का जन्म जिला सोलन के चायल के समीप स्थित एक छोटे से गांव हिन्नर में लक्ष्मी देवी व ठाकुर कालू राम (मनसा राम) के घर 1909 में हुआ। आर्य समाज विचारधारा से प्रभावित पिता बच्चों को अच्छी तालीम देने में प्रयासरत रहे, लेकिन वह भी उस समय की सामाजिक व्यवस्था से अछूते न थे। उन्होंने कलावती का विवाह करने का निर्णय लिया, लेकिन नन्ही बेटी को यह मंजूर न था। उन्होंने पिता से कहा," नाबालिक की शादी करना ज़ुर्म है यदि आपने ऐसा किया तो मैं आपको जेल भिजवा दूंगी।" इस बात पर दोनों में झगड़ा हुआ बेटी को घर से निकाल दिया गया, वह गांव के मंदिर में रहने लगी, छोटी उम्र में भी वह घबराई नहीं क्योंकि सामाजिक कुरीतियों से लड़ने का विचार अब एक विचारधारा बनने की दिशा ले चुका था। मामा महाशय सहीराम उन्हें फागु ले गए। कलावती ने वहीं गुरुकुल से शिक्षा पूरी की और उन्हें आगामी पढ़ाई के लिए लाहौर भेज दिया गया। 1931 में में बीए पास की, अब वह अपने अंदर छुपी प्रतिभा व शक्ति को पहचान गई थी और निरंतर अविचलित हुए बगैर कर्म पथ पर बढ़ती गई।
देविका रानी ने दिलवाया फिल्मों में काम :
कलावती को नाटक कला और अंग्रेज़ी में रूची थी। यही शौक उन्हें शांति निकेतन कलकत्ता ले गया। वहां इनकी मुलाकात बॉलीवुड की जानी - मानी अदाकारा देविका रानी से हुई। उनके माध्यम से वह बॉम्बे पहुँची और उन्होंने पर्दे को ही अपने विचारों की लड़ाई का माध्यम बनाने का निर्णय लिया। इसी सोच को आगे ले जाने के लिए 1935 में फिल्म 'अछूत कन्या ' में एक रोल अदा किया। उन्होंने छ: फ़िल्मों में काम किया।
शिमला के सिनेमा घर में लगी फिल्म और बवाल मच गया...
कलावती लाल की भतीजी उर्मिल ठाकुर के अनुसार कलावती बताया करती थी कि, "1937 में बनी फ़िल्म फैशनबल इंडिया ने तो जैसे मेरे जीवन की दशा और दिशा ही बदल दी। यह फ़िल्म शिमला के सिनेमा घर में लगी, जिसकी सूचना पिता को मिली तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था। उन्हें बॉम्बे से वापिस बुला लिया गया। उस दौर में लड़कियों का गाना बजाना सामाजिक कुरीतियों में शामिल थी। ऐसी लड़कियों को न तो सम्मान की दृष्टि से देखा जाता और न ही कोई उनसे शादी करने को तैयार होता, क्योंकि केवल तुरी-तुरन लोग ही नाच गाने का काम कर सकते थे। "
इस तरह एक विचारधारा पिता के निराशाजनक व्यवहार के कारण गाँव के माहौल में क़ैद होकर रह गई, लेकिन जिनमें तूफ़ान से लड़ने की हिम्मत और ऊँचाइयों को छूने का हौसला हो उन्हें कौन रोक सकता है। शिक्षा की तिजोरी और इरादों की मज़बूती ने एक बार फिर उनका साथ दिया। कलावती ने वेदों का अध्ययन किया था व संस्कृत उनकी प्रिय भाषाओं में से एक थी, किसी तरह से माता व पिता से आज्ञा लेकर वह लाहौर पहुंची और आर्य संस्कृत कॉलेज पट्टी अमृतसर में बतौर संस्कृत की अध्यापिका काम आरम्भ किया। किन्तु फ़िल्मिस्तान की पहचान उनके पीछे कॉलेज तक पंहुच गई, और विवश्तापूर्वक कलावती को इस्तीफ़ा देना पड़ा। इस बात का उन्हें दु:ख तो हुआ लेकिन यह मुश्किल उनके सपनों और इरादों से बड़ी नहीं थी।
धन्वंतरी मोहमद सादिक़ व फ़रीदा बेदी से थी प्रभावित
संस्कृत कॉलेज से इस्तीफे के बाद कलावती के गाइड प्रोफ़ेसर नन्दराम की मदद से जल्द उन्हें ऑल इंडिया रेडियो लाहौर में नाटक कलाकार की नौकरी मिल गई। इस बीच वर्ष 1940 में कलावती ने जब कर्नल रामलाल को अपना जीवन साथी बनाने का निर्णय लिया तो पिता ने सहर्ष स्वीकार किया। कर्नल रामलाल कलावती से काफी प्रभावित थे और उन्होंने कलावती से शादी का इजहार किया, जिसे कलावती और उनके परिवार ने स्वीकार कर लिया।
सोलन में चलाई किसान कन्या पाठशाला ..
कलावती अपने पति के साथ सोलन आ गई जहाँ उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। दरअसल कर्नल रामलाल का पुश्तैनी गहरा जम्मू में था पर उस दौर में जम्मू का हालत ठीक नहीं थे, तो लाल दम्पति ने सोलन में बसने का निर्णय लिया। कलावती शिक्षा की अहमियत को खूब समझती थी, वह अपने भाईयों को भी लड़कियों को शिक्षित करने के लिए उत्साहित करती थी। पूरे इलाक़े में शिक्षा के प्रसार हेतु उन्होंने अपने पैतृक गाँव हिन्नर में किसान कन्या पाठशाला आरम्भ की जिसके लिए उन्होंने दस हज़ार रूपए अपनी निजी आय से दिए। महाशय सहीरामजी का कलावती के जीवन में बहुत बड़ा सहयोग रहा।
अंतिम सांस तक गौसेवा करती रही कलावती :
कलावती ने सोलन में अपने निवास स्थान पर एक डेरी फ़ार्म चलाने का निर्णय लिया था। वह जरसी, सिंधी और हॉल्स्टन नस्ल की गायें ख़रीदकर लाई, उन गायों की सेवा आख़री सांस तक करती रही और उनकी बेहतर नस्ल को गाँव के लोगों व अन्य गऊ पालकों को देती रही। उनकी भतीजी उर्मिल बताती है " बुआ जी के पास करीब 20 गाय थी जिनकी सेवा में वो जुटी रहती थी। वे हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में आयोजित होने वाली कई प्रतियोगिताओं में भी अपनी गायों को लेकर जाती थी और उनकी गाय अक्सर विजेता बनती थी।"
कलावती लाल नारी कल्याण के कार्य भी करती रही। समाज में नारी का स्थान व स्थिति उन्हें चिन्तित करते थे। वह महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ खड़ी होती, जरूरतमंदों को अपने घर पर आश्रय देती और क़ानूनी तौर पर उन्हें न्याय दिलाने में सहायता करती।
कलावती को 1982 में अपने पति कर्नल साहिब के देहान्त से गहरा सदमा पंहुचा लेकिन वह टूटी नहीं, हारी नहीं, उसी जज़्बे से बेजुबानों, पार्टी व सम्पूर्ण समाज के लिए काम करती रही। वह दिन भर गऊओं की सेवा व घर के कार्य करती, शाम को पार्टी के लिए अख़बार बेचती, रात को लालटेन की रोशनी में गऊओं के लिए घास काटती। जीवन के सफ़र को विराम देते हुए 5 जून 2002 को उन्होंने इस संसार से विदा ली। कलावती लाल अपने आप में एक संस्था थी, उनके जज्बे, जीवन और जीने की कला को शत-शत प्रणाम...
( स्व. कलावती लाल की जीवन यात्रा पर आधारित ये लेख उनकी भतीजी उर्मिल ठाकुर और कलावती लाल के करीबी रहे कुल राकेश पंत के साथ हुई विशेष बातचीत के आधार पर लिखा गया है। उर्मिल ठाकुर द्वारा लिखे गए एक लेख का कुछ भाग इस कहानी में उन्हीं के शब्दों में सम्मिलित किया गया है। )