एक था राजा', पर क्या रानी का दौर आएगा ?

'एक था राजा', स्व वीरभद्र सिंह को समर्पित ये उस खबर की कटिंग है जिसे प्रतिभा सिंह ने बीते दिनों सोशल मीडिया पर शेयर किया था। पर अब बदले राजनीतिक समीकरणों में खबर भी बदल गई है और हेडलाइन भी। सियासी चश्मे से देखे तो अब खबर और हैडलाइन दोनों कुछ इस तरह है, 'एक था राजा, पर क्या रानी का दौर आएगा ? ' वीरभद्र सिंह हिमाचल की सियासत के भी राजा थे और अब उनकी राजनैतिक विरासत को संभालने के लिए नज़रें उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह पर टिकी है। वीरभद्र सिंह के निष्ठावान और समर्थक खुलकर अब प्रतिभा सिंह को मजबूत करते दिख रहे है। कयास लग रहे है कि उपचुनाव से प्रतिभा सियासी कमबैक करेगी और समर्थकों का प्रयास है कि वीरभद्र सिंह के बाद जो स्थान रिक्त है उसे परिवार के भीतर से ही भरा जा सके। हालांकि लोकतंत्र में कौन किसका स्थान भरता है ये जनता ही तय करती है। प्रतिभा सिंह करीब तीन साल बाद सोशल मीडिया पर फिर सक्रिय हुई है। ये तय माना जा रहा है कि सोशल मीडिया की तरह ही वे राजनीति में भी अब सक्रिय होने जा रही है और उपचुनाव भी लड़ेगी। परिवार भी इसके संकेत दे चुका है। माहिर मानते है कि परिवार की राजनीतिक विरासत को आगे ले जाने के लिए प्रतिभा सिंह का कमबैक करना मजबूरी भी है। यूं तो वीरभद्र सिंह के पुत्र विक्रमादित्य सिंह भी राजनीति में है और वर्तमान में शिमला ग्रामीण से विधायक भी, पर न विक्रमादित्य सिंह के पास अधिक तजुर्बा है और न ही फिलवक्त उनसे शह और मात की राजनीति में उनसे उनके पिता समान अपेक्षा की जा सकती है। ऐसे में जानकार विक्रमादित्य सिंह के पांव मजबूत करने के लिहाज से भी उनकी माता प्रतिभा सिंह का सक्रिय होना बेहद जरूरी मान रहे है।
कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति की बात करें तो 6 दशक की राजनीति में वीरभद्र सिंह के आगे कभी कोई नहीं ठहरा। कई नेताओं के अरमानों पर वीरभद्र सिंह पानी फेरते रहे। उनके सियासी कद के आगे विरोधियों की तमाम आवाजें दब कर रह गई। पर अब वीरभद्र सिंह नहीं रहे और ऐसे में दबी रही आवाजें भी खूब बुलंद होगी। पार्टी के भीतर व्यापक फेरबदल तय दिख रहा है और ऐसे में वीरभद्र सिंह के परिवार के लिए आगे की राह बेहद मुश्किल होनी है। विक्रमादित्य सिंह की बात करें तो अब तक उनकी सबसे बड़ी ताकत ये ही रही है कि वे वीरभद्र सिंह के पुत्र है, वर्तमान में भी वे सहानुभूति की लहर पर सवार है, पर राजनीति की मैराथन में अब उन्हें हर कदम पर अपनी काबिलियत सिद्ध करनी होगी। हालांकि बतौर विधायक वे बेहतर ही दिखे है पर अब उनसे उम्मीद कहीं ज्यादा होने वाली है। ऐसे में उनकी माता प्रतिभा सिंह भी यदि सक्रिय राजनीति में रहती है तो निसंदेह विक्रमादित्य की जमीन ठोस होगी। 1962 में वीरभद्र सिंह पहली बार सांसद बने थे, तब से अब तक बुशहर रियासत की सियासत में भरपूर भागीदारी रही है। सिर्फ आपातकाल के दौरान 1977 से 1980 तक ही ऐसा वक्त आया है जब बुशहर रियासत से कोई संसद या विधानसभा में न रहा हो। इन तीन वर्षों को छोड़ कर खुद वीरभद्र सिंह किसी न किसी सदन का हिस्सा रहे है। वहीं उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह भी मंडी सीट से दो बार सांसद रही है।
होली लॉज का सियासी रसूख बरकरार रखना चुनौती
कहते है ना, मन के लड्डू छोटे क्यों, छोटे हैं तो फीके क्यों ? स्व वीरभद्र सिंह के समर्थक और निष्ठावान इसी प्रयास में है कि प्रतिभा सिंह सक्रिय राजनीति में जबरदस्त कमबैक करें और 2022 आते -आते प्रदेश कांग्रेस की राजनीति को टेकओवर कर ले। कुछ समर्थक तो अभी से प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री के तौर पर उनके नाम को हवा देने में लगे है। पर प्रदेश कांग्रेस में आधा दर्जन से अधिक ऐसे कद्दावर नेता है जो दशकों से निरंतर पार्टी के लिए काम कर रहे है। उनकी जमीनी पकड़ बेशक वीरभद्र सिंह के मुकाबले नहीं है पर इतनी भी ढीली नहीं है कि सियासत का केंद्र अब भी होली लॉज ही बना रहे। इन नेताओं की पकड़ इतनी ढीली भी नहीं लगती कि स्व वीरभद्र सिंह के नाम पर ही उनका परिवार राजनीति के क्षितिज पर पहुंच जाएं। यानी होली लॉज का तिलिस्म बरकरार रखना भी चुनौती होगा। बहरहाल अभी नज़रें होली लॉज पर टिकी है ,पर होली लॉज का सियासी रसूख बरकरार रहता है या नहीं, ये देखना अब दिलचस्प होगा। परिवार के साथ वीरभद्र सिंह का नाम तो है, पर अब राह बेहद मुश्किल होगी। निसंदेह आने वाला वक्त वीरभद्र सिंह के परिवार का जमकर इम्तिहान लेगा और यहाँ से भविष्य की दिशा और दशा भी तय होगी।