कांग्रेस का विरोध, हिंदुत्व का एजेंडा ..बालासाहेब का नाम ही काफी था
- क्या कभी वापस मजबूत हो पाएंगे उद्धव ठाकरे ?
60 के दशक में मुंबई में बड़े कारोबार पर गुजरातियों का कब्जा था, जबकि छोटे कारोबार में दक्षिण भारतीयों और मुस्लिमों की धाक थी। मुंबई में ज्यादातर मराठी, गुजराती और दक्षिण भारतियों के यहाँ काम करते थे। उसी दौर में मुंबई की सियासत में एंट्री हुई एक कार्टूनिस्ट की। 'मराठी मानुस' का नारा बुलंद हुआ और देखते ही देखते 1966 में शिवसेना का गठन हो गया। मुंबई में मराठी बोलने वाले स्थानीय लोगों को नौकरियों में तरजीह दिए जाने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हो गया। दक्षिण भारतीयों के खिलाफ बाकायदा ‘पुंगी बजाओ और लुंगी हटाओ' अभियान चलाया गया। धीरे-धीरे मुंबई के हर इलाके में स्थानीय दबंग युवा शिवसेना में शामिल होने लगे। मुंबई को एक गॉडफादर मिल चुका था। ये किसी फिल्म की पटकथा नहीं है, ये कहानी है बालसाहेब ठाकरे की।
मुंबई में दंगों के बाद बाला साहेब ठाकरे का जिक्र हर तरफ था। 1995 में इसी पर मशहूर फिल्मकार मणिरत्नम ने ‘बॉम्बे’ नाम की फिल्म बनाई। फिल्म में शिव सैनिकों को मुसलमानों को मारते और लूटते हुए दिखाया था। फिल्म के अंत में बाल ठाकरे से मिलता एक कैरेक्टर इस हिंसा पर दुख प्रकट करते हुए दिखाई देता है। बाल ठाकरे ने इस फिल्म का विरोध किया और मुंबई में इसे रिलीज नहीं होने देने का एलान कर दिया। फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर अमिताभ बच्चन थे जो बालासाहेब ठाकरे के दोस्त थे। कहते है इस विषय पर ठाकरे को मनाने के लिए अमिताभ उनके पास गए। अमिताभ ने उनसे पूछा कि क्या शिव सैनिकों को दंगाइयों के रूप में दिखाना उन्हें बुरा लगा। ठाकरे का जवाब था, " बिल्कुल भी नहीं। मुझे जो बात बुरी लगी वो था दंगों पर ठाकरे के कैरेक्टर का दुख प्रकट करना। मैं कभी किसी चीज पर दुख नहीं प्रकट करता।" ये ही बालासाहेब का तरीका था और ऐसा ये ही उनका मिजाज। एक दौर में बालासाहेब का हर शब्द शिवसैनिकों के लिए ईश्वर के आदेश से कम नहीं होता था। कभी महाराष्ट्र की राजनीति में वही होता था जो ठाकरे कहते थे।
9 भाई-बहनों में सबसे बड़े बाला साहेब ठाकरे के पिता केशव सीताराम ठाकरे मुंबई को भारत की राजधानी बनवाना चाहते थे। बालासाहेब पैदा तो पुणे में हुए थे लेकिन उन्हें भी मुंबई से बेहद प्यार था। बालासाहेब ने अपने करियर की शुरुआत एक कार्टूनिस्ट के तौर पर की थी। फिर 1960 के दशक में बालासाहेब पूरी तरह से राजनीति में एक्टिव हो गए। इसी समय उन्होंने मार्मिक नाम से साप्ताहिक अखबार भी निकाला। फिर मराठी मानुस का नारा बुलंद कर मुंबई की सियासत में छा गए। मुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनाव में शिवसेना लगातार छाप छोड़ती रही। 1980 आते आते मुंबई में शिवसेना की धाक थी और महाराष्ट्र में भी पार्टी को पहचान मिल चुकी थी, हालांकि अब तक पार्टी को कोई बड़ी चुनावी सफलता नहीं मिली थी। इसके बाद ठाकरे ने कट्टर हिंदुत्व की आइडियोलॉजी अपनाई और शिवसेना को खूब समर्थन मिला।
मुंबई के विलेपार्ले विधानसभा सीट के लिए दिसंबर 1987 में हुए उप-चुनाव में पहली बार शिवसेना ने हिंदुत्व का आक्रामक प्रचार किया था। इस चुनाव में एक्टर मिथुन चक्रवर्ती और नाना पाटेकर ने शिवसेना के उम्मीदवार का प्रचार किया था। बालासाहेब ठाकरे ने हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगे और नतीजन चुनाव आयोग ने ठाकरे से 6 साल के लिए मतदान का अधिकार छीन लिया था। पर इसके बाद ठाकरे ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पार्टी राम जन्मभूमि आंदोलन में भी कूद गई और पुरे देश में शिवसेना का ग्राफ बढ़ा। इसी दौर में भाजपा भी मजबूत हो रही थी और शिवसेना और भाजपा साथ आ गए। 1990 के दशक में महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार बनी।
बालासाहेब ठाकरे अपने विवादित बयानों के लिए हमेशा चर्चा में रहे। कभी डेमोक्रेसी के खिलाफ बोले तो 2006 में शिवसेना के 40वें स्थापना दिवस पर बाल ठाकरे ने मुसलमानों को एंटी नेशनल बता दिया। कभी ठाकरे के इशारे पर कोई फिल्म रिलीज़ नहीं हुई तो कभी पाकिस्तान से मैच के विरोध में पिच खोद दी गई। ठाकरे अपनी शर्तों पर अपनी तरह की राजनीति करते रहे।
और पता चल गया रिमोट उनके हाथ में रहेगा ...
साल 1995 में महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा गठबंधन की सरकार बनी और मुख्यमंत्री बने मनोहर जोशी। जीत के जश्न में कुछ दिन बाद एक पार्टी हुई जिसमे चंद ही मेहमान बुलाए गए थे। पार्टी बिलकुल शांति से चल रही थी, तभी पार्टी में बाल ठाकरे पहुंचे। ठाकरे ने देखा, खाने का तो अच्छा ख़ासा इंतज़ाम है, लेकिन पीने को कुछ नहीं है और बिफरते हुए कारण पूछा तो पता चला कि सीएम की मौजूदगी में शराब पीना ठीक नहीं। ठाकरे तो ठाकरे थे, उन्होंने तुरंत एक शैम्पेन की बोतल मंगाई और सीएम कैमरामैन की नज़र से बचने के लिए वो एक कोने में जाकर बैठ गए। ये ठाकरे का तरीका था। उसी दिन से सबको पता चल गया, सत्ता पर चाहे कोई बैठे, रिमोट कंट्रोल बाल ठाकरे के हाथ में रहेगा।
इंदिरा गांधी थीं पसंदीदा काटूर्न कैरेक्टर
बतौर कार्टूनिस्ट बालासाहेब ठाकरे ने देश के कई दिग्गजों पर कार्टून बनाकर कई बड़े मुद्दे उठाए और सवाल भी किए, लेकिन राजनीति जगत में सबसे ज्यादा निशाना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर साधा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कामों पर सवाल उठाने में पीछे वो नहीं रहे। वे कांग्रेस की करनी और कथनी में कितना फर्क समझते थे, इसी बात को लेकर उन्होंने इंदिरा गांधी पर कई कार्टून बनाए। 1971 में कांग्रेस ने गरीबी हटाओ का नारा दिया तो उन्होंने कार्टून बनाया और लिखा इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया है, लेकिन उनका दौरा शाही था। 1975 में जब कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी से कांग्रेस का गठबंधन हुआ था तब बालासाहेब ने कार्टून के जरिए टिप्पणी की थी कि कश्मीरी गुलाब के कांटे लहूलुहान कर रहे है।
भतीजे को नहीं बेटे को सौपी विरासत
बालासाहेब ठाकरे के तीन बेटे है,बिंदुमाधव ठाकरे, जयदेव ठाकरे और उद्धव ठाकरे। बिंदुमाधव ठाकरे बालासाहेब के सबसे बड़े बेटे थे और उनका 1996 में पत्नी माधवी के साथ एक एक्सीडेंट में निधन हो गया था। वे राजनीति से दूर ही थे। इसी तरह जयदेव ठाकरे भी लाइमलाइट और सियासत दोनों से दूर ही रहे। जबकि सबसे छोटे उद्धव ठाकरे उनके राजनैतिक वारिस है। पर एक दौर में उनका सियासी कामकाज सँभालते थे उनके भतीजे राज ठाकरे। कहते है शिवसेना में बालासाहेब के बाद राज का ही रुतबा था और कार्यकर्त्ता भी उन्ही से जुड़े थे। पर बालसाहेब ने अपना राजनैतिक वारिस चुना उद्धव ठाकरे को और इसे से आहात होकर राज ठाकरे ने अपनी अलग पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली।
और कांग्रेस के साथ आ गए उद्धव ठाकरे...
17 नवंबर 2012 को बालासाहेब ठाकरे का निधन हो गया और पार्टी की कमान पूरी तरह उद्धव ठाकरे के हाथ में आ गई। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव और इसी साल के अंत में हुए विधानसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा गठबंधन ने चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। महाराष्ट्र में देवन्द्र फडणवीस सीएम बने और शिवसेना सरकार में शामिल रही। पर 2019 आते आते उद्धव ठाकरे के अरमान पंख फ़ैलाने लगे थे। एक वक्त पर बालासाहेब ठाकरे चाहते तो सीएम बन सकते थे लेकिन उन्होंने कभी ऐसा किया नहीं। 1995 में बाल ठाकरे ने जब बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई तो अपने करीबी नेता मनोहर जोशी को सीएम बनाया। इस दौरान बाल ठाकरे ने कहा था कि इस सरकार का रिमोट कंट्रोल मेरे हाथ में रहेगा। कहा जाता है कि बाला साहेब ठाकरे के समय महाराष्ट्र की राजनीति में वही होता था जो वह कहते थे। यदि सत्ता में बैठा व्यक्ति बाल ठाकरे की बात नहीं भी मानता था तो शिवसैनिक अपने तरीके से मनवा लेते थे, इसलिए वो कभी खुद सत्ता आसन पर नहीं बैठे। पर उद्धव ठाकरे की राय जुदा थी। नतीजन भाजपा से अलगाव के बाद शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली, उसी कांग्रेस के साथ जिसकी बालसाहेब ने ताउम्र आलोचना की। बाला साहेब ठाकरे ने साल 2004 में एक टीवी इंटरव्यू के दौरान कहा था, "मैं शिवसेना को कांग्रेस नहीं बनने दूंगा और अगर मुझे मालूम होगा कि ऐसा हो रहा है तो मैं अपनी दुकान बंद कर दूंगा।" पर उद्धव को कांग्रेस का साथ मंजूर था और आज भी है।
कांग्रेस से हाथ मिलकर उद्धव ठाकरे सीएम तो बन गए लेकिन शिवसेना के भीतर भी कुछ नेता इससे खुश नहीं थे। ढाई साल के बाद शिवसेना को इस फैसले का खामियाजा भुगतना पड़ा और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पार्टी के बड़े गुट ने विद्रोह कर दिया। उद्धव की सरकार गई, साथ ही शिवसेना भी दो फाड़ हो गई। शिंदे भाजपा के सहयोग से सीएम बने और आज बालासाहेब की बनी पार्टी का सिंबल भी उनके पास है। कांग्रेस के साथ जाना उद्धव की क्या सबसे बड़ी भूल थी, इसे लेकर सबके अपने मत हो सकते है लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि बालासाहेब होते तो शायद ऐसा कभी न करते, न करने देते।
कौन सी शिवसेना है बालासाहेब की शिवसेना ?
अब बालासाहेब की शिवसेना दो हिस्सों में बंटी है, पार्टी का सिंबल शिंदे गुट के पास है और वे ही असली शिवसेना होने का दावा करते है। उद्धव कमजोर दीखते है और उन्हें उम्मीद है की जनता उन्हें अगले चुनाव में फिर ताकत देगी। दिलचस्प बात ये है की जिस एनसीपी का उन्हें सहारा था वो खुद बंट चुकी है। अजित पवार अपने समर्थक विधायकों के साथ शिंदे सरकार में शामिल है और डिप्टी सीएम है। उनके चाचा शरद पवार, उद्धव ठाकरे की तरह ही पार्टी पर अधिकार की लड़ाई लड़ रहे है। अब कौन सी शिवसेना असली है और कौन सी नकली, ये जनता तय करेगी। इस बीच राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के साथ आने के कयास भी लगते रहे है। अब शिवसेना की सियासत क्या मोड़ लेती है ये 2024 के विधानसभा चुनाव के बाद ही सम्भवतः स्पष्ट होगा।
उलझे समीकरणों में उद्धव ठाकरे का इम्तिहान !
महाराष्ट्र की मौजूदा राजनैतिक स्थिति बेहद पेचीदा है। शिवसेना और एनसीपी जहाँ दो फाड़ हो चुके है, तो कांग्रेस की भूमिका सहयोगियों को आश्वासन देने से ज्यादा नहीं दिखती। शिवसेना का शिंदे गुट और एनसीपी का अजित पवार गुट भाजपा के साथ आ चुका है और तीनों मिलकर सरकार चला रहे है। शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट कमजोर दिख रहा है, तो शरद पवार के साथ भी अब पहले सी ताकत नहीं दिखती। अजित पवार के साथ कई दिग्गज भी उनका साथ छोड़ चुके है। वहीँ कई माहिर तो अब भी ये मैच फिक्स मानते है। ऐसी स्थिति में भाजपा निसंदेह अकेले दम पर भी सबसे मजबूत है। उधर कांग्रेस अभी भी मानो तमाशा देख रही है। करीब एक साल बाद राज्य में विधानसभा चुनाव होने है और कांग्रेस में चेहरा अशोक चव्हाण होंगे, पृथ्वीराज चव्हाण होंगे या कोई तीसरा, ये तय नहीं है। कांग्रेस, उद्धव ठाकरे और शरद पवार मिलकर चुनाव लड़ते भी है या नहीं, फिलहाल तो ये कहना भी जल्दबाजी है।
वहीँ भाजपा के साथ शिवसेना के शिंदे गुट और अजित पवार किस तरह सीटों का समझौता करते है, ये देखना भी दिलचस्प होगा। फिलवक्त भाजपा 'मेजर' होकर भी 'माइनर' भूमिका में है, पर क्या ये बलिदान भाजपा आगे भी देगी ?
बहरहाल महाराष्ट्र के राजनैतिक समीकरण बेहद उलझे हुए है और इनमें सबसे ज्यादा किसी की स्थिति नाजुक है तो वो है शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट। बालासाहेब की राजनैतिक विरासत को बचाये रखना उद्धव गुट के लिए बड़ी चुनौती है।