जब चीन युद्ध के उपरांत आक्रोशित हुए राष्ट्रकवि दिनकर

कवि जब बात करे तो बातों से फूल ही झड़ें ये ज़रूरी तो नहीं, कभी-कभी मन से उमड़ते क्रोध भाव की वर्षा भी तो हो सकती है एक कविता।
ऐसा ही क्रोध एक बार रामधारी सिंह दिनकर को भी आया। राष्ट्रकवि दिनकर ने खुद कहा
"एक राष्ट्रकवि को शायद इतना क्रोध शोभा न दे मगर, इतिहास में याद रखा जाएगा कि एक ऐसी स्थिति आई थी जब राष्ट्रकवि को भी इतना क्रोध आया था।"
आखिर ऐसी क्या स्तिथि थी भला कि इतने सुलझे हुए कवि दिनकर, इतना उलझ गए कि उन्होंने इस पर पूरा कविता संग्रह लिख दिया।
बात है 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध की, और बात है टूटते भरोसे और हौंसले की। चीन भारत की पीठ पर छुरा घोंपने का कार्य भारत तब भी कर रहा था और आज भी कर रहा है। भारत को चीन की ओर से हमला होने की आशंका भी नहीं थी जब यह हमला हुआ, और युद्ध के लिए तैयार न होने के कारण भारत यह युद्ध हार गया। इसी बात से क्रोधित राष्ट्रकवि दिनकर ने कविता संग्रह "परशुराम की प्रतीक्षा" लिखा। यह संग्रह 1963 में प्रकाशित हुआ।
दिनकर भारत चीन के बीच हुए समझौते व भारत के झुकने पर आहत थे। उनका मानना था कि इस हार से जन जन का खून खुलना चाहिए। दिनकर ने इस काव्य संग्रह के माध्यम से जन-जन तक आक्रोश का संकेत पहुंचाया। दिनकर यूँ तो जवाहरलाल नेहरू के करीब माने जाते थे परंतु उन्होंने कवि धर्म निभाते हुए उन पर भी तंज कस डाले। उन्होंने कहा-
"घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहां मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है।"
दिनकर को साहित्य के साथ-साथ देशप्रेम के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने 1957 से पहले कई विद्रोही कविताएं लिखी जिन्होंने आम जनता में आज़ादी के प्रति आक्रोश पैदा किया। ब्रिटिश शासन के दौरान उन्हें जेल भी हुई व उनके इसी देश प्रेम को देखते हुए उन्हें आज़ादी के बाद राष्ट्रकवि घोषित किया गया। भारत चीन के युद्ध में भारत की हार पर दिनकर बेहद क्रोधित हुए।
दिनकर को जन जन का कवि कहा जाता है क्योंकि उन्हें हर युग में हर वर्ग के लोगों ने पढ़ा। साफ स्पष्ट शब्दों में आम आदमी की आवाज़ को बड़े तख्तों तक पहुंचाने वाले राष्ट्रकवि दिनकर ने जनता कानून का भी समर्थन किया।
उन्होंने इस पर एक विद्रोही कविता लिखी जिसने समय के साथ नारे का रूप ले लिया व आज भी उसकी गूंज सुनाई पड़ती है। उन्होंने लिखा-
"सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।"
हिंदुस्तान के सिंहासनों व उनपर विराजमान शासकों पर प्रश्नचिन्ह तो अक़्सर उठते ही आए हैं, खैर वर्तमान स्थिति को देखते हुए दिनकर याद आ ही जाते हैं। दुनिया से विदा लेने के सालों बाद भी दिनकर ज़िंदा हैं चाहने वालों के दिलों में, साहित्य प्रेमियों की स्मृतियों में।