मंत्री बनकर हार गए थे रघुराज, अब सैजल पर उम्मीदों का बोझ

2007 का विधानसभा चुनाव चल रहा था, कसौली निर्वाचन क्षेत्र से वीरभद्र सरकार के पशुपालन मंत्री और पांच बार के विधायक रघुराज मैदान में थे और उनका मुकाबला था भाजपा के डॉ राजीव सैजल से। 36 साल के सैजल का ये पहला चुनाव था। पर कसौली की जनता ने रघुराज पर डॉ राजीव सैजल को वरीयता दी और डॉ सैजल चुनाव जीत गए। दिलचस्प बात ये है कि पहली बार कसौली का कोई नेता मंत्री बना था, रघुराज कसौली से पहले ऐसे नेता थे जिन्हे मंत्री पद मिला था, पर वह जनता की अपेक्षों पर खरे नहीं उतरे। माना जाता है कि मंत्री बनने के बाद लोगों की रघुराज से अपेक्षाएं काफी बढ़ गई थी और जब वो उन पर खरे नहीं उतरे तो जनता ने नए और कम अनुभवी डॉ राजीव सैजल पर वोटों का प्यार बरसाया। वहीँ डॉ राजीव सैजल तीन चुनाव लगातार जीतने के बाद अब प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री बन चुके है। जाहिर है डॉ सैजल से भी लोगों को खूब उम्मीद है और विशेषकर कोरोना काल में तो लोग अपने मंत्री विधायक से एक्सट्रा आर्डिनरी उम्मीद बांधे हुए है। अब 2022 के विधानसभा चुनाव में लगभग डेढ़ वर्ष बचा है, ऐसे में यकीनन कोरोना संकट के इस कठिन समय में स्वास्थ्य मंत्री डॉ सैजल के लिए अपने निर्वाचन क्षेत्र का सियासी स्वास्थ्य दुरुस्त रखना बेहद मुश्किल होने वाला है। जनता की उम्मीद टूटती है तो डॉ राजीव सैजल का सियासी तिलिस्म भी टूटना तय है।
बड़ी मुश्किल से पिछले डॉ चुनाव जीते है सैजल
2007 में अपने पहले चुनाव में डॉ राजीव सैजल ने 6374 वोट से शानदार जीत दर्ज की थी। पर अगले दोनों चुनाव में डॉ राजीव सैजल बमुश्किल अपनी सीट बचा पाए। 2012 में वे महज 24 वोट से जीते तो 2017 में अंतर 442 वोट का रहा। इन दोनों ही मौकों पर कांग्रेस की अंतर्कलह उनके लिए संजीवनी सिद्ध हुई।
सुल्तानपुरी अभी से चार्ज
बीते दो चुनाव में डॉ राजीव सैजल को कड़ी टक्कर देने वाले कांग्रेस नेता विनोद सुलतानपुरी अभी से 2022 के लिए चार्ज दिख रहे है। माना जाता है कि आम जनता से सुलतानपुरी की दुरी और कांग्रेस का भीतरघात पिछले चुनावों में उन पर भारी पड़ा, पर अब सुल्तानपुरी सक्रीय भी है और निरंतर लोगों के बीच भी। साथ ही कांग्रेस में उनके विरोधी खेमे का दमखम भी अब पहले जैसा नहीं दिखता।
कई नेताओं की हसरत मन में ही रह गई
1977 से अस्तित्व में आया कसौली निर्वाचन क्षेत्र हिमाचल प्रदेश के ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में से है जो हमेशा आरक्षित रहे है। ऐसे में कई कद्दावर नेताओं की विधायक-मंत्री बनने की हसरत कभी पूरी नहीं हुई। कुछ की उम्र संगठन की सेवा में बीत गई, तो कुछ को सत्ता सुख के नाम पर बोर्ड -निगमों में एडजस्ट कर दिया गया। ऐसे में माना जाता है कि सामान्य वर्ग के आने वाले कई नेताओं ने कई मौकों पर अपनी पार्टी प्रत्याशी की राह में ही कांटे डाले ताकि उनकी कुव्वत बनी रहे।