मनमोहक है काष्ठकुणी शैली में बने मंदिर
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देवभूमि हिमाचल में देवस्थानों की काष्ठ कला हर किसी को मोहित करती है। प्रदेश के जनजातीय जिलों और ग्रामीण क्षेत्रों में बने मंदिरों में लकड़ी पर की गई नक्काशी काफी अनूठी है। काष्ठकुणी शैली में बने मंदिर आज भी कला का बेजोड़ नमूना पेश करते हैं। ये मंदिर काष्ठ यानी लकड़ी के बने हैं, जिन पर आकर्षक कलाकृतियां उकेरी गई हैं। इनमें मुख्य तौर पर देवदार की लकड़ी का इस्तेमाल किया गया है। मंदिरों के अलावा कुछ दूसरी इमारतों में भी ऐसी कलाकृतियां बनाई गई हैं। काष्ठकुणी शैली मंदिर व इमारत की सुंदरता ही नहीं दर्शाती, अपितु इस के साथ धर्म, प्रेम, आस्था और इतिहास भी जुड़ा हुआ है। इस कला की खासियत यह भी है कि इसमें कुछ भी बनाते हुए लकड़ी को जोडऩे के लिए सिर्फ लकड़ी का ही इस्तेमाल होता है। इसमें कील आदि का इस्तेमाल नहीं होता। काष्ठकुणी से बने मकान की छत सही हो तो इस पर की नक्काशी एक हजार साल तक भी सुरक्षित रहती है। इसमें कोई दूसरा उत्पाद इस्तेमाल न होने के कारण खराब होने की आशंका कम रहती है।
प्रदेश में चील, देवदार, अखरोट आदि के पेड़ बहुतायत में देखने को मिलते है। यहां के मंदिरों की काष्ठकला प्रसिद्ध है। काष्ठ मंदिर की स्थानीय परंपरागत शैली में शिखर शैली का भी बड़े सुन्दर ढंग से मिश्रण हुआ है। ऐसे मंदिरों में तिकोनी ढलवां छत होती है। इन छतों में स्लेटों का नहीं बल्कि लकड़ी के तख्तों का प्रयोग हुआ है। इन छतों में ढलान अधिक रखी गई है। इन मंदिरों का निर्माण ऊँचे अधिष्ठान पर हुआ है। गर्भगृह पर ऊँचा विमान होता है। छत में भी लकड़ी के तख्तों का प्रयोग किया जाता है। आम तौर पर गर्भगृह के साथ ही सभामण्डप होता है जिसमें काष्ठ स्तम्भ का प्रयोग होता है। इन काष्ठ मंदिरों की अलग खासियत है कि इनके काष्ठ स्तम्भों, द्वारों, छज्जों, तख्तों और खिड़कियों, बालकनियों आदि पर काष्ठ की सुन्दर नक्काशी होती है। इसमें पौराणिक देवी-देवताओं के चित्रण पशु-पक्षी, फूल-पत्ते आदि अभिप्रायों का अंकन होता है। वहीं कहीं-कहीं काष्ठ पैनल पर डरावने चित्रों का अंकन होता है। माना जाता है कि इससे देवता की भक्ति का पता चलता है, जिसके प्रभाव से नकारात्मक शक्तियां भूत-प्रेत, डाकिनी, आदि सब दूर ही रहते हैं।
प्रदेश में चील, देवदार, अखरोट आदि के पेड़ बहुतायत में देखने को मिलते है। यहां के मंदिरों की काष्ठकला प्रसिद्ध है। काष्ठ मंदिर की स्थानीय परंपरागत शैली में शिखर शैली का भी बड़े सुन्दर ढंग से मिश्रण हुआ है। ऐसे मंदिरों में तिकोनी ढलवां छत होती है। इन छतों में स्लेटों का नहीं बल्कि लकड़ी के तख्तों का प्रयोग हुआ है। इन छतों में ढलान अधिक रखी गई है। इन मंदिरों का निर्माण ऊँचे अधिष्ठान पर हुआ है। गर्भगृह पर ऊँचा विमान होता है। छत में भी लकड़ी के तख्तों का प्रयोग किया जाता है। आम तौर पर गर्भगृह के साथ ही सभामण्डप होता है जिसमें काष्ठ स्तम्भ का प्रयोग होता है। इन काष्ठ मंदिरों की अलग खासियत है कि इनके काष्ठ स्तम्भों, द्वारों, छज्जों, तख्तों और खिड़कियों, बालकनियों आदि पर काष्ठ की सुन्दर नक्काशी होती है। इसमें पौराणिक देवी-देवताओं के चित्रण पशु-पक्षी, फूल-पत्ते आदि अभिप्रायों का अंकन होता है। वहीं कहीं-कहीं काष्ठ पैनल पर डरावने चित्रों का अंकन होता है। माना जाता है कि इससे देवता की भक्ति का पता चलता है, जिसके प्रभाव से नकारात्मक शक्तियां भूत-प्रेत, डाकिनी, आदि सब दूर ही रहते हैं।
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