हिमाचली दस्तकारों के हुनर का कोई तोड़ नहीं
हिमाचल विविधताओं का राज्य है। प्रदेश के बारह जिलो में पहन पोशाक से लेकर खानपान सब भिन्न है। हिमाचल प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहाँ हर कला को नजदीकी से देख सकते है। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण कई चुनौतियाँ सामने होते हुए भी यहाँ के कला प्रेमियों का मनोबल डगमगाता नहीं है। हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था और विकास में पर्यटन के साथ-साथ हस्तकरघा, और वस्त्र का भी बहुत बड़ा योगदान है। प्रदेश के कई दस्तकारों ने दशकों से हस्तशिल्प के समृद्ध रीति-रिवाजों को डिजाइन किया है, जो अद्वितीय हैं। यही वजह है कि उनके द्वारा बनाये गए उत्पादों की देश भर में डिमांड है। आइये जानते है हिमाचल के विभिन्न जिलों के मशहूर वस्त्र, कला और उनके इतिहास के बारे में...
**पश्मीना शॉल
पश्मीना शॉल की बुनाई में उपयोग किया जाने वाला ऊन लद्दाख में पाए जाने वाले पालतू चांगथांगी बकरियों से प्राप्त किया जाता है। बुनकरों द्वारा कच्चा पश्म को मध्यस्थों के माध्यम से खरीदा जाता है। इसके बाद कच्चे पश्म फाइबर को ठीक से साफ किया जाता है। तदोपरांत इस फाइबर को सुलझाते हैं और उसकी गुणवत्ता के आधार पर इसे अच्छी तरह से अलग करते हैं। फिर इसे हाथ से काता जाता है और ताने (कटाई की पिन )में स्थापित किया जाता है एवं हथकरघा पर रखा जाता है। इसके बाद तैयार धागे को हाथ से बुना जाता है और खूबसूरती से शानदार पश्मीना शॉल का निर्माण किया जाता है जो दुनिया भर में प्रसिद्ध है। पश्मीना शॉल बुनाई की यह कला हिमाचल में एक परंपरा के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चली आ रही है। पश्मीना शॉल ने दुनिया भर के लोगों का ध्यान आकर्षित किया है और यह पूरी दुनिया में सबसे अधिक मांग वाले शॉल में से एक बन गई है। इसकी उच्च मांग ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा दिया है।
**लिंगचे:
लिंगचे हिमाचल के जनजातीय क्षेत्र लाहुल स्पीति क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध है। यह एक प्रकार का शॉल है लेकिन इसकी लम्बाई ज्यादा बड़ी नहीं होती है। लिंगचे हाथ से बुनी हुई शॉल है जिसे स्थानीय रूप से कंधे पर लपेटने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह हिमाचल प्रदेश में पहाड़ी स्पीति की ग्रामीण महिलाओं द्वारा हाथ से करघे पर बुना जाता है। इसमें बुद्धिज्म से जुड़े हुए डिजाइंस देखने को मिलता है।
**हिमाचली कालीन
गलीचे और कालीन हिमाचल प्रदेश के हस्तशिल्प का एक महत्वपूर्ण तत्व हैं। हिमाचल में ऊन से बनी विभिन्न वस्तुएँ होम डेकोर में इस्तेमाल की जाती है। इनमें कालीन बेहद प्रसिद्ध है। ये कालीन सुंदर और असाधारण डिजाइनों के साथ सूक्ष्म रंगों, विभिन्न आकारों में बुनकरों द्वारा बनाया जाता हैं। डिजाइन से भरपूर ये कालीन बनावट में टिकाऊ होते हैं। कालीन को विभिन्न प्रकार के रूपांकनों से सजाया जाता है। इसमें ड्रैगन, हिंदू संस्कृति से प्रेरित स्वस्तिक, पुष्प, प्रकृति आधारित पैटर्न या तिब्बती पक्षी जिन्हें डाक, जीरा, ड्रेगन और बिजली के देवता आदि को धागों से डिजाइंस बना कर कालीन को खूबसूरती दी जाती है। सिरमौर जिले के पांवटा ब्लॉक के भूपपुर, पुरुवाला, सतौन और कंसन के विभिन्न गांवों में बड़ी संख्या में तिब्बती शिल्पकार ऊनी कालीन बुनते हैं। इसे बनाने के लिए बकरी के बाल और भेड़ की ऊन का उपयोग किया जाता है।
**हिमाचली पट्टू
हिमाचली टोपियों को हिमाचलियों का ताज कहा जाता है। हिमाचल टोपी स्थानीय लोगों की पोशाक,परिधान और वस्त्रों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन टोपी को तैयार करने के लिए जिस कपड़े का इस्तेमाल होता है उसे हिमाचल में पट्टू कहा जाता है। इसे हथकरघे पर बुना जाता है। पट्टी के कपड़े का उपयोग आमतौर पर बंद गले के कोट, पैंट, पायजामा, जैकेट बनाने के लिए किया जाता है। इसका इस्तेमाल स्थानीय लोग चोला यानी मेल गाउन बनाने में भी करते हैं। यह मेमने के पहले कतरन से प्राप्त ऊन से बनाया जाता है।
**लोइया
सिरमौर की समृद्ध संस्कृति एवं सभ्यता का परिचायक लोईया प्रदेश ही नहीं देश-विदेश में भी काफी प्रसिद्ध है। लोईया सिरमौर के ट्रांस गिरि क्षेत्र की पहचान और पारंपरिक वेशभूषा है, जिसे विशेषकर सर्दियों के दौरान इस क्षेत्र के लोग शौक से पहनते हैं। वही सिरमौर जिला में सामाजिक कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि को सम्मान के तौर पर लोईया भेंट करने की परंपरा आज भी जारी है।
लोईया कश्मीर में पहने जाने वाली फेरन से मिलता जुलता है, लेकिन उसमें बाजू होते हैं। ग्रामीण लोईये का उपयोग कई प्रकार से करते हैं। उन्हें इससे सर्दियों में ठंड से राहत मिलती है और किसान बागवान जब कोई बोझ पीठ में उठाते हैं तो पीठ पर इसका दबाव भी कम पड़ता है। पारंपरिक तौर पर सर्दियों के मौसम में वस्त्रों के ऊपर पहना जाने वाला लोईया ऊन का बना होता है। आजकल यह अन्य ऊनी व सूती मिश्रित पट्टियों का भी बनाया जा रहा है। भेड़-बकरियों के पेशे से जुड़े अधिकांश लोग ऊन को स्वयं काता करते हैं और ग्रामीण स्तर पर ही स्थानीय बुनकरों से नौ ईंच चौड़ी पट्टी बुनवाई जाती है। उन पट्टियों को जोड़कर ही लोईया बनाया जाता है।
**चम्बा की चप्पल
चमड़े पर जरी और रेशम के धागे से महीन कारीगरी से तैयार चंबा चप्पल का डंका देश-विदेश में बजता है। चंबा चप्पल का इतिहास 500 साल पुराना बताया जाता है। जनश्रुति के अनुसार 16वीं शताब्दी में चंबा के राजा की पत्नी के दहेज में कारीगर चंबा लाए गए थे। ये कारीगर राज परिवार के लोगों के लिए चंबा चप्पल बनाते थे। समय के साथ-साथ कारीगर चंबा चप्पल लोगों के लिए भी बनाने और बेचने लगे। चंबा चप्पल के संरक्षण के लिए सरकार ने इसकी जीआई टैगिंग हासिल कर ली है। अब यह ऑनलाइन शॉपिंग प्लेटफार्म पर भी उपलब्ध है। लुप्त हो रही इस कला को बचाने के लिए आज भी लगभग सैंकड़ो कारीगर प्रयासरत हैं।
**चम्बा का रुमाल :
चंबा रुमाल अपनी अद्भुत कला और शानदार कशीदाकारी के लिए जाना जाता है। चंबा रुमाल की कारीगरी मलमल, सिल्क और कॉटन के कपड़ों पर की जाती है। श्री कृष्णलीला को बहुत ही सुंदर ढंग से रुमाल के ऊपर दोनों तरफ कढ़ाई करके उकेरा जाता है। महाभारत युद्ध, गीत गोविंद से लेकर कई मनमोहक दृश्यों को इसमें बड़ी संजीदगी के साथ बनाया जाता है। रुमाल बनाने में दो सप्ताह से दो महीने का समय लग जाता है। कीमत अधिक होने के कारण चंबा रुमाल को बेचना मुश्किल होता है। कहा जाता है कि 18वीं सदी में चंबा रुमाल तैयार करने का काम अधिक था। राजा उमेद सिंह (1748-64) ने कारीगरों को प्रोत्साहन दिया था। 1911 में दिल्ली दरबार में चंबा के राजा भूरी सिंह ने ब्रिटेन के राजा को चंबा रुमाल तोहफे में दिया था। 1965 में पहली बार चंबा रुमाल बनाने वाली महेश्वरी देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। चंबा रुमाल का विकास राजा राज सिंह और रानी सारदा के समय सर्वाधिक हुआ। चंबा रुमाल को प्रोत्साहित करने के लिए चंबा के राजा उमेद सिंह ने रंगमहल की नींव रखी। चंबा रुमाल पर कुरुक्षेत्र युद्ध की लघु कृति जो विक्टोरिया अल्बर्ट संग्रहालय लंदन में सुरक्षित हैं। चंबा के शासक गोपाल सिंह ने 1873 ई. में ब्रिटिश सरकार को ये भेंट किया था।
**कुल्लू के पूल
कुल्लू का हस्तशिल्प दुनिया भर में प्रसिद्ध है। यहां की टोपी, शॉल, मफलर और जुराबों का हर कोई दीवाना है। कुछ समय से यहां की पारंपरिक पूलों की ओर भी लोग एकाएक आकर्षित हुए हैं। कुल्लू की स्थानीय बोली में इन चप्पलों को पूलें कहा जाता है। ये चप्पल आरामदेह होने के साथ-साथ पवित्र भी हैं। मंडी-कुल्लू में पूलों को भांग के रेशे के साथ-साथ जड़ी बूटियों से तैयार किया जाता है। भांग के पत्ते के तने के साथ ही ब्यूल के रेशों का भी इसे बनाने में इस्तेमाल होता है। इन्हें पवित्र माना जाता है। इन्हें पहनकर देव स्थल के भीतर जाने में कोई पाबंदी नहीं होती। इसी खासियत को जानकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुल्लू की पूलों को काशी विश्वनाथ के पुजारियों, सेवादारों और सुरक्षाकर्मियों के लिए खड़ाऊ का बेहतरीन विकल्प माना। एक पूल का जोड़ा बनाने में तीन से चार दिन का समय लग जाता है।
**नुमधा
नुमधा गद्दे का स्थानीय नाम है, जो ऊन को बुनने के बजाय उसे फेल्ट कर बनाया जाता है। यह कम गुणवत्ता वाले ऊन को थोड़ी मात्रा में कपास के साथ मिलाकर तैयार किया जाता है। नमधा आमतौर पर सादे होते हैं या कशीदाकारी रंगीन डिजाइनों से सजाए जाते हैं। ये गद्दे 1.82 x 0.91 मीटर या 3.65 x 3.04 मीटर के विभिन्न आकारों में आते हैं। नुमधा की कीमत उसके आकार, ऊन की गुणवत्ता और पैटर्न पर निर्भर करती है।
**गुदमा
गुड़मा स्थानीय लोगों द्वारा बनाई जाने वाली भारी कंबल को कहा जाता है, जिसे विशेष रूप से कुल्लू, किन्नौर और लाहुल स्पीति और पांगी घाटी में बुना जाता है। यह ऊन से बना होता है जिसमें लंबे रेशे होते हैं। गुड़मा को प्राकृतिक ऊनी रंगों में बुना जाता है और लाल या काले रंग की सजावट के साथ तैयार किया जाता है।