निर्णायक मोड़ पर गहलोत - पायलट की अदावत
जेठ के महीने में तपते राजस्थान में सियासत भी खूब गरमाई हुई है। इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने है और सत्ताधारी कांग्रेस का भीतरी सियासी पारा रिकॉर्ड तोड़ रहा है। कभी गहलोत के को-पायलट रहे सचिन पायलट अपनी ही सरकार की किरकिरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। उधर, गहलोत भी हमेशा की तरह अपने चिर परिचित अंदाज में सियासी बिसात जमाने में लगे है। पांच साल से खींची आ रही दोनों नेताओं के बीच की अदावत शायद अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुकी है। संभवतः पायलट और कांग्रेस की राह जुदा होने का समय अब आ चुका है।
राजस्थान कांग्रेस का पिछले पांच साल का सियासी घटनाक्रम किसी सस्पेंस थ्रिलर से कम नहीं रहा है। 2018 में सचिन पायलट के सियासी अरमान क्रैश कर अशोक गहलोत राजस्थान के मुख्यमंत्री बने थे और साबित किया था कि उन्हें 'सियासत का जादूगर' क्यों कहा जाता है। दरअसल 2013 में कांग्रेस के चुनाव हारने के बाद से वो सचिन पायलट ही थे जो राजस्थान में बतौर अध्यक्ष कांग्रेस की वापसी की जमीन तैयार करते रहे। वहीँ गहलोत बतौर राष्ट्रीय महासचिव केंद्र में सक्रिय थे। पर 2018 का विधानसभा चुनाव नजदीक आते -आते गहलोत राजस्थान लौटे और इसी के साथ ये लगभग तय था कि पायलट के हाथ खाली रहने वाले है। नतीजे आएं तो जो कांग्रेस डेढ़ सौ सीट का दावा कर रही थी वो 99 पर अटक गई जो बहुमत से दो कम था। पायलट के कई करीबी चुनाव हारे और चुनकर आएं विधायकों में गहलोत समर्थकों का बहुमत था। वहीं बाहरी समर्थन से सरकार बनानी भी थी और पांच साल चलानी भी थी, सो लाजमी था कि अनुभवी गहलोत को ही कमान मिले। हुआ भी ऐसा ही, गहलोत सीएम बने और पायलट डिप्टी सीएम।
सचिन पायलट को डिप्टी सीएम का पद दिल से मंजूर नहीं था, ये तो सर्वविदित है। उधर गहलोत के अपने तेवर, अपना तरीका है। भविष्य की झलक शपथ ग्रहण में ही दिख गई थी जब डिप्टी सीएम के लिए सीएम के बगल में अलग से कुर्सी लगवानी पड़ी। आखिर, खींची तलवारें कब तक मयान में रहती, आहिस्ता -आहिस्ता तल्खियों की झलकियां दिखने लगी और स्पष्ट हो गया कि राजस्थान कांग्रेस में सबकुछ ठीक नहीं है।
साल था 2020 और मार्च महीने में सचिन पायलट के दोस्त ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी का दामन थाम चुके थे और मध्य प्रदेश में भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था। गहलोत भी इस बात को समझ रहे थे कि भाजपा का अगला निशाना वे ही होंगे। जून में राजस्थान में 3 राज्यसभा सीटों का चुनाव था और अशोक गहलोत को दगाबाजी का डर था, इसलिए 19 जून को चुनाव से करीब एक सप्ताह पहले ही विधायकों की बाड़ेबंदी कर दी गई थी। इसके साथ ही गहलोत ने इशारों इशारों में सचिन पायलट पर निशाना- साधना शुरू कर दिया था। गहलोत आक्रामक होते गए और विधायकों की खरीद-फरोख्त मामले में राजस्थान पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप ने कई निर्दलीय विधायकों के साथ ही डिप्टी सीएम सचिन पायलट को भी नोटिस भेजा। कहा गया कि अशोक गहलोत के इशारों पर सचिन पायलट को नोटिस भेजा गया है, हालांकि खुद गहलोत को भी नोटिस मिला था। इसके बाद पायलट और उनके साथी विधायक शिकायत लेकर दिल्ली पहुंच गए और इसी नोटिस को वजह बताकर बगावत कर दी।
सत्ता के उड़न खटोले को उड़ाने की इच्छा लिए पायलट अपने समर्थक विधायकों के साथ मानेसर के एक रिज़ॉर्ट में शिफ्ट हो गए। बताया गया उनके साथ 25 विधायक थे और पायलट ने अशोक गहलोत सरकार के अल्पमत में आ जाने का ऐलान कर दिया। उधर भाजपा पूरा तमाशा देख रही थी और मौके की तलाश में थी। पर गहलोत को यूँ ही सियासत का जादूगर नहीं कहा जाता। दरअसल खतरे को भांपते हुए गहलोत पहले ही अपनी रणनीति पक्का करने में जुटे थे और कभी भी बैकफुट पर नहीं दिखे। पायलट खेमे से कुछ विधायक को गहलोत ले ही आएं, बसपा के 6 और अन्य छोटे दलों के विधायकों के अलावा निर्दलीय भी गहलोत ने पहले ही साध रखे थे। सीएम आवास पर 13 जुलाई को विधायक दल की बैठक बुलाई गई और मौजूदा विधायकों की संख्या करीब 106 बताई गई जो बहुमत से 5 ज्यादा थी। इसके बाद पायलट गुट के तीन विधायक भी गहलोत के साथ हो लिए और पायलट के पास कुछ नहीं बचा। गहलोत ने अपने सियासी दाव पेंचों को साधते हुए सरकार बचा ली। उधर, सचिन पायलट को भी कांग्रेस आलाकमान मनाने में कामयाब हो गया और पायलट लौट आएं लेकिन कमजोर होकर। उनके पास न डिप्टी सीएम का पद रहा और न प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का।
सरकार और संगठन, दोनों में बैकफुट पर चल रहे सचिन पायलट की उम्मीद 2022 के अंत में फिर जगी। दरअसल, अशोक गहलोत कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के लिए गांधी परिवार की पसंद थे। माना जा रहा था कि गहलोत सीएम का पद छोड़ पार्टी की कमान संभालेंगे, पर गहलोत का इरादा सीएम की कुर्सी छोड़ने का नहीं था। खासतौर से पायलट के लिए छोड़ने का तो बिलकुल नहीं था। गहलोत ने खुलकर कहा कि जिसने सरकार गिराने की साजिश की वो विधायकों को मंजूर नहीं है। आलाकमान सीएम पद पर पायलट को सेट करना चाह रहा था, पर गहलोत के मन में कुछ और ही चल रहा था।
नए राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनाव की गहमागहमी के बीच पार्टी आलाकमान ने जयपुर में विधायक दल की बैठक बुलाई ताकि नए मुख्यमंत्री के नाम पर सहमति बन सके। माना जाता है कि आलाकमान पायलट को कमान देने का मन बना चुका था लेकिन गहलोत को ये मंजूर नहीं था। बैठक में गहलोत समर्थित विधायक नहीं पहुंचे और ये गहलोत का आलाकामन को सन्देश था कि पायलट नहीं चलेंगे। आलाकामन भी गहलोत के आगे बेबस हुआ और गहलोत सीएम पद पर बने रहे। हालांकि राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए उनकी जगह मालिकार्जुन खरगे को बढ़ाया गया।
अब बीते कुछ दिनों से फिर राजस्थान कांग्रेस में खींचतान चरम पर है। पायलट अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है। पायलट भी जानते हैं कि इस बार बगावत का नतीजा काफी अलग हो सकता है। सचिन पायलट, गहलोत सरकार पर भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने का आरोप लगाते हुए सरकार को घेर रहे हैं। वे विशेषकर वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत के बीच मिलीभगत के आरोप लगा रहे है। पायलट अपनी ही सरकार के खिलाफ यात्रा निकाल रहे है। यानी पानी सर से ऊपर उठता दिख रहा है और जानकार मान रहे है कि उन्हें पार्टी से निष्कासित भी किया जा सकता है। शायद पायलट खुद ऐसा चाहते हों ताकि उन्हें सहानुभूति मिल सके। उधर गहलोत खेमे का कहना है कि सचिन पायलट छोटी छोटी बातों पर रुठ जाते हैं, वह नाखून कटवा कर शहीद बनने की कोशिश कर रहे हैं। इस बीच निगाहें टिकी है आलाकमान पर। ये देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी आलाकमान किस तरह इस समस्या का हल निकालता है।
उलझे सियासी समीकरण, क्या होगा अगला कदम ?
अगर पायलट और कांग्रेस की राह अलग होती है तो उनका अगला ठिकाना क्या होगा, इसे लेकर भी कयासबाजी हो रही है। दरअसल, राजस्थान भाजपा में भी कई गुट है और पायलट इनमें से एक वसुंधरा राजे के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोले हुए है। ऐसे में पायलट का भाजपा में जाना मुश्किल लगता है बशर्ते वसुंधरा भाजपा में पूरी तरह दरकिनार हो जाएँ। पर वसुंधरा की जमीनी पकड़ को देखते हुए भाजपा के लिए ऐसा करना आत्मघाती हो सकता है। उधर, बीते दिनों वसुंधरा को उनकी सरकार बचाने में सहायक बताकर गहलोत पहले ही बड़ा सियासी दांव चल चुके है जिसने सबको कंफ्यूज किया हुआ है। ऐसे में जब तक भाजपा आलाकमान अपना मन न बना ले, कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा।
वहीँ सचिन पायलट के सामने अपनी अलग पार्टी बनाने का विकल्प भी है और माहिर मान रहे है कि पायलट इसी नीति पर आगे बढ़ेंगे। यदि पायलट जाते है और कांग्रेस में बड़ी टूट होती है तो निसंदेह गहलोत की सत्ता वापसी मुश्किल होगी। वहीँ भाजपा के लिए भी पायलट शायद ऐसी स्थिति में जायदा फायदेमंद हो।