हिमाचल प्रदेश में जब भी कर्ज की बात होती है, तो शांता सरकार का जिक्र जरूर होता है। बेशक बतौर मुख्यमंत्री शांता कुमार अपनी दोनों पारियां पूरी न कर सके हों, लेकिन जब भी कुर्सी छोड़ी, प्रदेश की माली हालत पहले से बेहतर थी। क्या था शांता कुमार का इकॉनमी विज़न, आइए आपको बताते हैं। शांता कुमार बताते हैं कि आपातकाल के दौरान 19 महीने तक जेल में रहने के बाद, जब 1977 में वे पहली बार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तो प्रदेश पर लगभग 50 करोड़ का ओवरड्राफ्ट था। मगर जब शांता ने कुर्सी छोड़ी, तो प्रदेश कर्ज़ मुक्त हो चुका था। शांता कहते हैं कि प्रदेश को कर्ज़ मुक्त करने की शुरुआत उन्होंने खुद से की। फिजूलखर्ची कम की, अपने दफ्तर में टेबल पर रखे चार फोन में से दो कटवा दिए। प्रदेश भर के दफ्तरों में अधिकारियों के अनावश्यक टेलीफोन कटवाए। मुख्यमंत्री के साथ चलने वाला गाड़ियों का काफिला बंद करवा दिया। अफसरों को आदेश दिए गए कि मुख्यमंत्री की अगवानी करने के लिए दूसरे जिलों में डीसी और एसपी नहीं आएंगे। शनिवार और रविवार को अफसरों द्वारा सरकारी गाड़ियों का प्रयोग बंद करवाया गया। ये छोटे-छोटे खर्च कम करके, बतौर मुख्यमंत्री पहले ही साल उन्होंने 40 करोड़ बचाए। उस समय यह बड़ी राशि थी। यह पैसा बचाकर पीने के पानी पर लगाया गया। हर घर में नल पहुंचाए गए। शांता कुमार कहते हैं कि 1992 में जब वे सीएम पद से हटे, तब हिमाचल सरकार पर एक रुपये का भी कर्ज़ नहीं था। हिमाचल में साधन बढ़ाने के लिए पनबिजली योजना को निजी भागीदारी में लाया गया। सभी योजनाओं में सरकार को 12 प्रतिशत रॉयल्टी दिलाई गई। कभी विरोधी उनकी इस सोच पर हंसते थे, लेकिन अब हर साल इससे सरकार को हजारों करोड़ रुपये की आय होती है। सुक्खू सरकार को भी शांता यह नसीहत दे चुके हैं कि हवा में उड़ने से ज्यादा, अगर सड़कों पर चला जाए, तो प्रदेश पर कर्ज़ कम हो सकता है। शांता का कहना है कि अगर मुख्यमंत्री सरकार को अपना घर समझकर चलाएंगे, तो बचत होगी ही।
मंदिरों से पैसा मांगना, कितना गलत कितना सही? आदेश नहीं आग्रह: फिर क्यों बरपा हंगामा? पिछले कुछ दिनों से हिमाचल प्रदेश में इस बात को लेकर खूब बवाल मच रहा है कि प्रदेश सरकार की नज़र मंदिरों के चढ़ावे पर है। सरकार पर धुआंधार आरोप लग रहे हैं। विपक्ष कह रहा है कि सुक्खू सरकार मंदिरों के सोने-चांदी और पैसों से अपनी सरकार को बचाना और चलाना चाहती है। प्रदेश सरकार की मंशा मंदिरों के चढ़ावे से सरकारी खज़ाना भरने की है। विपक्ष कह रहा है कि जो पार्टी सनातन का विरोध करती है, वह मंदिरों से पैसा कैसे ले सकती है? प्रदेश की खराब आर्थिक हालत पर भी खूब टिप्पणियां हो रही हैं। एक तरफ विपक्ष सरकार पर हमले बोल रहा है तो वहीं सरकार इस दावे को सिरे से खारिज कर रही है। उपमुख्यमंत्री कह रहे हैं कि मंदिरों से सरकार चलाने के लिए कोई पैसा न अब तक लिया गया, न आगे लिया जाएगा। मंत्री हर्षवर्धन चौहान का भी यही कहना है कि सरकार चलाने के लिए पैसा नहीं मांगा गया। अन्य मंत्रियों के भी कुछ ऐसे ही विचार हैं। तो फिर बात आखिर है क्या? सुक्खू सरकार ने प्रदेश के मंदिरों को एक आधिकारिक पत्र जारी किया है, जिसमें 'मुख्यमंत्री सुख आश्रय योजना' और 'मुख्यमंत्री सुख शिक्षा योजना' के लिए योगदान देने का अनुरोध किया गया है। यह पत्र भाषा एवं संस्कृति विभाग के सचिव राकेश कंवर द्वारा जारी किया गया है, जो कि मंदिरों के प्रशासनिक प्रमुख (चीफ कमिश्नर) भी हैं। पत्र के मुताबिक, हिमाचल के 10 जिलों के मंदिरों से इन योजनाओं में अंशदान की अपील की गई है। यानी यह बिल्कुल सच है कि सरकार ने अपनी योजनाओं के लिए मंदिरों से पैसा मांगा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह गलत है? सवाल यह भी है कि क्या कोई राज्य सरकार मंदिर ट्रस्ट से मिलने वाले पैसे को सरकारी योजनाओं पर खर्च कर सकती है? बता दें कि कानूनी रूप से राज्य सरकार को अपनी विकास योजनाओं के लिए मंदिरों से धन लेने का कोई अधिकार नहीं है, लेकिन समाज कल्याण से जुड़ी योजनाओं के लिए योगदान मांगना गलत नहीं कहा जा सकता। 'मुख्यमंत्री सुख आश्रय योजना' और 'मुख्यमंत्री सुख शिक्षा योजना' समाज के कमजोर वर्गों के लिए शुरू की गई कल्याणकारी योजनाएं हैं। सुख आश्रय योजना के तहत सरकार ने बिना माता-पिता के बच्चों को गोद लिया है, जिनकी देखभाल का जिम्मा अब सरकार के कंधों पर है। इसी तरह से सरकार ने विधवाओं, निराश्रित महिलाओं, तलाकशुदा महिलाओं और विकलांग माता-पिता के बच्चों की शिक्षा और कल्याण के लिए मंदिरों से योगदान मांगा है। अगर मंदिर के चढ़ावे का इस्तेमाल किसी अनाथ बच्चे की शिक्षा में हो तो क्या वह गलत होगा? वहीं, चिट्ठी को गौर से देखें तो इन योजनाओं के योगदान के लिए कहीं पर भी आदेशों का ज़िक्र नहीं है। सरकार की तरफ से केवल कल्याण की इन योजनाओं में योगदान देने के लिए मंदिरों से अंशदान की अपील की गई है। यह आग्रह है, आदेश नहीं। अब यह मंदिर ट्रस्ट पर निर्भर करता है कि वे इन योजनाओं में सहयोग करते हैं या नहीं। वैसे भी मंदिर पहले भी धन की उपलब्धता के हिसाब से समाज कल्याण के कार्य करते आए हैं। मंदिर गरीब बेटियों की शादियों, अस्पताल निर्माण और गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए हमेशा सहयोग करते रहे हैं। ऐसे में इस तरह की कल्याणकारी योजनाओं के लिए मंदिरों से अंशदान के लिए आग्रह करना गलत नहीं है, बशर्ते सरकार इसे वहीं इस्तेमाल करे, जहां के लिए यह पैसा मांगा जा रहा है। जयराम ठाकुर ने इस मसले पर कहा कि अगर प्रदेश पर कभी आपदा का संकट आए, कोई बड़ी घटना या दुर्घटना हो जाए या फिर कोई महामारी फैल जाए, तो ऐसी स्थिति में मंदिरों और ट्रस्टों से मदद ली जा सकती है। लेकिन प्रदेश में अभी ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है। एक लेटर और भी वायरल हो रहा है जो अगस्त 2018 का है l इसमें हिमाचल प्रदेश सरकार के भाषा, कला और संस्कृति विभाग द्वारा यह आदेश दिए गए हैं कि मंदिर ट्रस्ट की कुल आय का 15% भाग गौशालाओं के लिए उपयोग किया जाए। यदि किसी जिले के मंदिर अपनी स्वयं की गौशाला नहीं चला रहे हैं, तो यह धनराशि उनके आसपास की पंजीकृत गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) द्वारा संचालित गौशालाओं को आवंटित की जा सकती है। इसके अलावा, यदि इस 15% राशि में से कोई भी शेष बचती है, तो सरकार की जांच और जरूरत के आकलन के बाद इसे अन्य पात्र गौशालाओं को अनुदान के रूप में दिया जा सकता है। इस मामले का निष्कर्ष सीधा नहीं, बल्कि दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। सरकार ने मंदिरों से धन जबरन नहीं लिया, बल्कि कल्याणकारी योजनाओं के लिए सहयोग की अपील की है, जो पूरी तरह स्वैच्छिक है। विपक्ष इसे सरकार की आर्थिक बदहाली और धार्मिक भावनाओं से जोड़कर देख रहा है, जबकि सरकार इसे सामाजिक कल्याण का प्रयास बता रही है।
** किसी एक की भी नाराज़गी पड़ सकती है भारी ** पाटिल की रिपोर्ट पर क्या होगा आलाकमान का फरमान? हिमाचल कांग्रेस... दूर से एक दिखने वाली यह नदी असल में तीन धाराओं में विभाजित है। ये तीन धाराएं बह तो एक ही दिशा में रही हैं, मगर एक नहीं हैं। पहली धारा है मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और उनके खासमखास नेताओं की, जिन्हें प्यार से "फ्रेंड्स लॉबी" भी कहा जाता है। दूसरी धारा है हॉली लॉज—जहाँ प्रतिभा सिंह और विक्रमादित्य सिंह समेत वीरभद्र सिंह के वे वफादार बसे हैं, जिनकी निष्ठा तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आज भी अडिग है। और तीसरी धारा—डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री और उनके युवा साथी... जो धीरे-धीरे समझने की कोशिश कर रहे हैं कि सत्ता की इस बंटी-बंटाई गंगा में उनकी नैया किस ओर खेनी है। अब प्रदेश में भाजपा के सामने कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक प्रवाह बनाए रखने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि इन गुटों में संतुलन बना रहे—और ज़रूरी यह भी है कि यही संतुलन हाल ही में बनाई जा रही संगठन की कार्यकारिणी में भी दिखे। इस कार्यकारिणी का जो भी स्वरूप बनकर आएगा, उसमें इन तीनों में से किसी एक की भी नाराजगी भारी पड़ सकती है, और शायद इसीलिए कांग्रेस संगठन का गठन जितना आसान दिख रहा है, उतना है नहीं। यही एक कारण है कि कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल ने सिर्फ सबके साथ नहीं, बल्कि अलग-अलग भी मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष के साथ बैठकें की हैं। अब पाटिल की रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस आलाकमान यह संतुलन कैसे बैठाता है, इंतज़ार इसी का है। देखा जाए तो सत्ता में आने के बाद से ही यह हिमाचल कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या रही है। पहले मुख्यमंत्री पद को लेकर इन तीनों गुटों में संघर्ष रहा, फिर मंत्रियों की कुर्सी को लेकर। हालाँकि, मंत्रियों की कुर्सियां अधिकतम उसी ओर गईं जिधर मुख्यमंत्री की... खैर, जीते हुए विधायकों की संख्या भी उधर ही अधिक थी, तो मामला जायज लगा। फिर जब सीपीएस के पदों पर नियुक्तियां की गईं, तो संतुलन थोड़ा और बैठ गया। मगर क्या सब संतुष्ट थे? नहीं, बिल्कुल नहीं। कुछ ही दिनों में पार्टी में तालमेल की कमी उभर आई। मंत्री पद से चूक गए पार्टी के वरिष्ठ नेता भी नाराज़गी ज़ाहिर करने लगे और वे कार्यकर्ता भी, जो बोर्ड-निगमों के पदों पर अपनी एडजस्टमेंट चाहते थे। खूब हो-हल्ला हुआ, पर जब बात न बनी तो इनमें से कुछ पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए। जैसे-तैसे सरकार बची... और फिर जो बच गए, उन्हें खुश करने की कोशिश की गई। एक-दो पद और बांटे गए, मगर अधिकतम चाहवानों के हाथ तो आज भी खाली हैं... ख़ास तौर पर कार्यकर्ताओं के... और ये कार्यकर्ता आज भी अपने खेमों के वरिष्ठ नेताओं की ओर तक रहे हैं। फिर कुछ दिनों बाद तो सीपीएस के पद भी चले गए, तो संतुलन और डगमगा गया। यानी मोटे तौर पर कहा जाए तो सरकार में पूरी तरह संतुलन नहीं बैठा l हालांकि, अब बारी संगठन की है। अगर यहाँ भी किसी एक का पलड़ा भारी रहा, तो ज़रा सोचिए कि कांग्रेस का क्या होगा। खैर, कांग्रेस की समस्या महज़ ये तीन गुट और कार्यकर्ताओं की नाराज़गी ही नहीं, वे वरिष्ठ नेता भी हैं, जो हाशिए पर हैं। वरिष्ठ नेता जैसे—आशा कुमारी, कौल सिंह ठाकुर और राम लाल ठाकुर। ये नेता विधायक न बन सके और इसीलिए सरकार से भी दूर हैं, मगर क्या पार्टी इन्हें संगठन में भी जगह नहीं देगी? कांग्रेस चाहे भी तो ऐसा करना उसके लिए आसान नहीं। ये नेता चुनाव भले ही हारे हों, मगर इनके क्षेत्रों में इनकी पकड़ पर कोई सवाल नहीं l न ही इनका कोई विकल्प कांग्रेस के पास है। न चाहते हुए भी पार्टी को इन्हें एडजस्ट करना होगा। एडजस्टमेंट की उम्मीद तो कांग्रेस के फ्रंटल संगठनों के उन अध्यक्षों को भी है, जो विपक्ष में रहते कांग्रेस के मज़बूत स्तंभ बने रहे। बहरहाल, दो दिनों के मंथन के बाद फीडबैक की रिपोर्ट पार्टी की नवनियुक्त प्रभारी रजनी पाटिल दिल्ली में हाईकमान को सौंप चुकी हैं। सूत्रों की मानें तो पाटिल अपनी ओर से पूरा आश्वासन देकर गई हैं कि तीनों गुटों में संतुलन भी बैठाया जाएगा और कार्यकर्ताओं व वरिष्ठ नेताओं की नाराज़गी भी दूर होगी। क्षेत्रीय संतुलन भी बैठाया जाएगा और जातीय भी, कार्यकारिणी छोटी भी होगी और संतुलित भी। अब इंतज़ार है उनकी रिपोर्ट पर आलाकमान की प्रतिक्रिया का। यह निर्णय न केवल संगठन की भावी रणनीति तय करेगा, बल्कि हिमाचल में कांग्रेस की राजनीतिक स्थिति को भी मज़बूत या कमज़ोर करेगा। कांग्रेस यदि सही संतुलन साधने में सफल होती है, तो वह भाजपा को सशक्त चुनौती देगी, और अगर नहीं होती, तो भाजपा से बड़ी चुनौती कांग्रेस के लिए आंतरिक असंतोष ही रहेगा।
मंत्रिमंडल फेरबदल की चर्चा के बीच चौधरी चंद्र कुमार भी दिखा चुके है पार्टी को आईना ! नीरज भारती की लम्बे वक्त बाद टूटी चुप्पी, अपनी ही सरकार से खफा ! काफी वक्त चुप्पी साधने के बाद बीते दिनों पूर्व सीपीएस नीरज भारती फिर बोले है और अपनी ही सरकार के खिलाफ बोले है। उसी सरकार के खिलाफ जिसमें उनके पिता चौधरी खुद मंत्री है। हालाँकि माहिर मान रहे है कि असल खबर ये नहीं है कि नीरज फिर बोले, या कितना और क्या-क्या बोले है । खबर दरअसल ये है कि उनसे पहले चौधरी चंद्र कुमार खुद बोले और अब उनके बेटे नीरज बोल रहे है। अब जब पिता-पुत्र दोनों कांग्रेस के हालातों पर टिपण्णी कर रहे है, तो ज़ाहिर है की इसके सियासी मायने भी गहरे हैं। देखा जाए तो मंत्री चौधरी चंद्र कुमार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता है, उन्होंने पूरी जिंदगी कांग्रेस में खपाई है और बीते दिनों पार्टी की स्थिति को लेकर छलका उनका दर्द भी समझा जा सकता है। वहीँ उनके पुत्र भी अपनी ही पार्टी की सरकार से खफा है। एक मलाल ये है कि अपनी ही सरकार में कार्यकर्ताओं के काम नहीं हो रहे और दूसरा ये की मंत्री की बिना कंसेंट के उनके ही क्षेत्र में तबादले हो रहे है। वैसे इन दोनों ने जो भी कहा है वो निसंदेह कांग्रेस की वास्विकता है, पर वास्विकता तो ये भी है कि आईना दिखाने वाले कांग्रेस को रास कम ही आते है। बहरहाल मंत्रिमंडल फेरबदल की चर्चा के बीच पिता -पुत्र की ये नसीहत और नाराजगी क्या रंग लाएगी, ये देखना रोचक होगा। खासतौर से सरकार के दो मंत्री अस्सी पार है जिनमें से एक चंद्र कुमार भी है। हालांकि चौधरी चंद्र कुमार कांग्रेस का सबसे बड़ा ओबीसी चेहरा है, पर ये नए दौर की सियासत है, न जाने कब, क्या हो जाए।
क्या BJP को मिलेगी पहली महिला अध्यक्ष, चर्चा में वसुंधरा राजे का नाम ! बीजेपी को जल्द नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिलना है। नए अध्यक्ष को लेकर अटकलें जारी है। क्षेत्रीय और जातीय समीकरणों के लिहाज से तो कयास लग ही रहे है, लेकिन इस बीच बड़ा सवाल ये भी है कि क्या बीजेपी की कमान किसी महिला को भी मिल सकती है। बीजेपी के 45 साल के इतिहास में अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर जगत प्रकाश नड्डा तक 11 नेता अध्यक्ष पद की कुर्सी तक पहुंचे है, लेकिन इनमें एक भी महिला नहीं है। तो क्या इस बार ये इन्तजार खत्म होगा, इस पर निगाह टिकी हुई है। दरअसल अटकलें हैं कि 2029 में लोकसभा चुनावों से पहले संसद और राज्य विधानसभाओं में 33 फीसदी महिला आरक्षण कोटा लागू होने की संभावना के मद्देनजर किसी महिला को बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो यह पहली बार होगा जब किसी महिला को पार्टी की कमान सौंपी जाएगी। बीजेपी के नए अध्यक्ष के चुनाव को लेकर चल रही दौड़ में राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे की चर्चा सबसे तेज है। माना जा रहा है कि बीजेपी वसुंधरा राजे को पहली महिला अध्यक्ष बनाकर नया संदेश दे सकती है।दिल्ली में महिला सीएम के बाद महिला बीजेपी अध्यक्ष की चर्चा भी जमकर हो रही है। माहिर मानते है कि राजस्थान विधानसभा चुनाव और नए सीएम के तौर पर भजनलाल शर्मा की ताजपोशी के बाद से सियासी हलको में वसुंधरा राजे की नाराजगी की खबर सामने आ रही थी। किन्तु बीते कुछ समय में वसुंधरा राजे की राजनीतिक सक्रियता और लगातार पीएम मोदी की तारीफ से यह लग रहा है कि उनका केंद्रीय संगठन से तालमेल अब मजबूत है। साथ ही वसुंधरा राजे को आरएसएस की भी पसंद माना जाता है। ऐसे में यदि बीजेपी किसी महिला को अध्यक्ष बनाती है तो वसुंधरा राजे के नाम पर मुहर लग सकती है।
भाजपा अध्यक्ष पद की दौड़ में कांगड़ा के कई नेता अगर जयराम बने अध्यक्ष तो नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी आ सकती है हिस्से साल था 1986, जब कांगड़ा से कोई नेता आखिरी बार भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बना। वो नेता थे शांता कुमार जो 1990 तक इस पद पर रहे। इसके बाद 1990 में कांगड़ा से आखिरी मर्तबा मुख्यमंत्री भी शांता कुमार ही बने। अर्सा बीत गया लेकिन उसके बाद से कांगड़ा के किसी नेता पर भाजपा आलाकमान मेहरबान नहीं हुआ। जो कांगड़ा सत्ता के लिए जरूरी है, जो सियासी तौर पर सबसे वजनदार जिला है, उसी जिला पर भाजपा आलाकमान की इनायत नहीं हुई। अब फिर भाजपा को नया प्रदेश अध्यक्ष मिलना है और चर्चा है कि क्या 35 साल बाद अब संगठन की कमान कांगड़ा के किसी नेता को मिलेगी ? सुर्ख़ियों में कई नाम भी बने हुए है, मसलन सांसद राजीव भारद्वाज, विपिन सिंह परमार, बिक्रम ठाकुर और राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी। इस बीच एक नया फार्मूला भी सामने आया है। दरअसल अटकलें ये भी है कि जयराम ठाकुर का अगला प्रदेश अध्यक्ष बनना तय है और कांगड़ा के हिस्से आ सकती है नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी। ऐसा होता है तो विपिन सिंह परमार या बिक्रम ठाकुर में से किसी एक नेता को नेता प्रतिपक्ष बनाया जा सकता है। बहरहाल फिलहाल सब अटकलें है। वैसे भी आज के दौर की भाजपा में अक्सर आलाकमान की मंशा का इल्म किसी को नहीं होता। पर फिलवक्त कांगड़ा फिर उम्मीद से है। अब हिस्से में कुछ आता है या फिर कांगड़ा के हाथ खाली रहते है, इस पर निगाह रहने वाली है।
चर्चा आम, बिंदल की जगह अध्यक्ष होंगे जयराम खिलाफ : संगठन की कुंद धार, रुष्ट नेताओं की खुलकर ललकार पक्ष : पूरा कार्यकाल न मिलना, दोनों कार्यकाल में कुल ढाई साल भी नहीं मिले जल्द हिमाचल भाजपा को नया अध्यक्ष मिलना है और चर्चा आम है कि बतौर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल के रिपीट होने की संभावना अब बेहद कम है है। यदि ऐसा होता है तो ये व्यक्तिगत तौर बिंदल के लिए बड़ा सेट बैक होगा। रोलर कॉस्टर सा चल रहे बिंदल के राजनैतिक सफर में ये एक बड़ी ढलान होगा। दरअसल बिंदल 2022 का विधानसभा चुनाव भी हारे थे, ऐसे में जाहिर है सदन के भीतर भी उन्हें कोई ज़िम्मा नहीं मिलेगा। वहीं, माहिर मानते है कि यदि ऐसा हुआ तो मौटे तौर पर बिंदल फिर नाहन तक सिमित दिख सकते है। दरअसल बीजेपी अध्यक्ष पद की दौड़ में खुद नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर का नाम आने के बाद वर्तमान अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल की दावेदारी अब कमजोर मानी जा रही है। 2021 के उपचुनाव से ही भाजपा लगातार प्रदेश में हारती आ रही है और इसका बड़ा कारण संगठन की कुंद धार है। चुनाव दर चुनाव प्रदेश संगठन बगावत थामने में नाकाम रहा है, और ये ही हार का एक बड़ा कारण भी रहा है। हालांकि 2022 का चुनाव बिंदल के नेतृत्व में नहीं लड़ा गया था, उनकी ताजपोशी अप्रैल 2023 में हुई है। पर वर्तमान हालात की भी बात करें तो खफा नेता खुलकर पार्टी को ललकार रहे है, समानांतर संगठन बनाने की बात कह रहे है, पर इन पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं दिखती। भाजपा का संगठन एक किस्म से बेबस दिख रहा है। इसी तरह अगर प्रदेश सरकार को घेरने की बात करे तो फ्रंट फुट पर भी जयराम ही दिखते है और प्रभावी भी जयराम ही है। संगठन के अधिकांश आला नेता अधिकांश मौकों पर बेअसर से लगते है। इसमें कोई संशय नहीं है कि प्रदेश स्तर पर भी भाजपा संगठन की सर्जरी की जरुरत दिखती है। ऐसे में मुमकिन है कि आलाकमान जयराम को ही संगठन का सरदार बना दे और कमोबेश पूरी टीम बिंदल बदल दी जाए। हालाँकि एक पक्ष ये भी है कि बिंदल को दोनों कार्यकाल में कुल ढाई साल भी नहीं मिले है। अगर जयराम पर मुहर नहीं लगती है तो ये फैक्टर उनके पक्ष में जा सकता है। 2017 से उतार चढ़ाव भरा रहा बिंदल का सफर बिंदल के राजनैतिक करियर पर निगाह डाले तो लगातार पांचवी बार विधायक बनने के बाद वे 2017 में सीएम पद के दावेदार थे, लेकिन तब उन्हें कैबिनेट में भी जगह नहीं दी गई थी। बिंदल को विधानसभा अध्यक्ष बना कर एडजस्ट किया गया था, लेकिन करीब दो साल बाद वे भाजपा अध्यक्ष बनने में कामयाब रहे। फिर कोरोना काल में लगे आरोपों के बाद करीब पांच महीने बाद ही उन्हें इस्तीफा देने पड़ा। इस बीच पार्टी ने उन्हें अर्की उपचुनाव और सोलन नगर निगम चुनाव का जिम्मा तो दिया, लेकिन बिंदल पार्टी को जीत नहीं दिला सके। बिंदल को सबसे बड़ा सेट बैक 2022 के विधानसभा चुनाव में लगा जब वे खुद हार गए।पर इसके बाद अप्रत्याशित तौर पर अप्रैल 2023 में वे फिर अध्यक्ष पद पाने में कामयाब रहे। तब से अब तक उनके कार्यकाल में पार्टी ने नौ में से छ उपचुआव हारे है और लोकसभा चुनाव में भी पार्टी का वोट शेयर गिरा है। ऐसे में परफॉरमेंस के पैरामीटर पर भी बिंदल छाप नहीं छोड़ पाए है, हालांकि उन्हें ज्यादा समय नहीं मिला है। एक और बात बिंदल के विरुद्ध जाती है, वो है उन पर लगते रहे आरोप। हालांकि उन पर लगा कोई आरोप कभी सिद्ध नहीं हुआ, वे हमेशा बरी हुए है। किन्तु राजनैतिक विरोधी उन पर लगातार निशाना साधते रहे है। विशेषकर बीते कुछ वक्त में खुद सीएम सुखविंद्र सिंह सुक्खू ने बिंदल पर खूब चुटकी ली है।
हिमाचल प्रदेश के गलोड़ में लंदन निवासी नेडली ने प्रदीप शर्मा संग शादी के बंधन में बंधकर एक नया सफर शुरू किया। लंजियाना के रहने वाले प्रदीप कुमार शर्मा, पुत्र जगन नाथ शर्मा, और नेडली पिछले चार वर्षों से एक-दूसरे को जानते थे। दोनों की शादी पारंपरिक हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार धूमधाम से संपन्न हुई। प्रदीप और नेडली लंदन में नौकरी करते थे, लेकिन वर्तमान में प्रदीप हांगकांग में अपना व्यवसाय चला रहे हैं। हालांकि, उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा है। कुछ वर्ष पहले एक सड़क दुर्घटना में प्रदीप की माता और उनकी इकलौती बहन की दुखद मौत हो गई थी। उस कठिन समय के बाद अब परिवार में यह खुशी का अवसर आया, जिसे सभी ने हर्षोल्लास के साथ मनाया। शादी समारोह में परिवार, रिश्तेदारों और गांव वालों ने मिलकर खूब नाच-गाना किया और नवविवाहित जोड़े को आशीर्वाद दिया। नेडली के माता-पिता और अन्य परिजन भी इस शुभ अवसर पर उपस्थित रहे। उन्होंने हिमाचली संस्कृति और हिंदू रीति-रिवाजों की खूब सराहना की। अब नेडली के परिवार के सदस्य कुछ दिनों तक हिमाचल प्रदेश में ही रुकेंगे और देवभूमि की शांत वादियों का आनंद लेंगे। शादी समारोह के दौरान गांववालों और मेहमानों में नवविवाहित जोड़े के साथ फोटो खिंचवाने और उनकी एक झलक पाने की होड़ लगी रही। प्रदीप और नेडली की जोड़ी को सभी ने ढेरों शुभकामनाएं दीं।
**क्या बिंदल को जाना होगा? नेता प्रतिपक्ष का पद कांगड़ा के हिस्से? हिमाचल भाजपा का चेहरा जयराम ठाकुर हैं—इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन क्या अब वे प्रदेश अध्यक्ष की कमान भी संभालेंगे? यह सवाल हिमाचल की सियासत में चर्चा का केंद्र बना हुआ है। लंबे समय से भाजपा के संभावित प्रदेश अध्यक्षों की कई नामों की सूची सियासी गलियारों में घूम रही थी। कोई कह रहा था कि डॉ. राजीव बिंदल को एक्सटेंशन मिलेगा, कोई कांगड़ा लॉबी की पैरवी कर रहा था, तो किसी को नड्डा के करीबी को इस पद पर देखने की उम्मीद थी। लेकिन अब इस दौड़ में नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर का नाम भी शामिल हो गया है। कुछ समय पहले तक उनकी दावेदारी पर चर्चा नहीं हो रही थी, लेकिन हालिया घटनाक्रमों ने समीकरण पूरी तरह बदल दिए हैं। हाल ही में भाजपा हाईकमान ने जयराम ठाकुर और डॉ. राजीव बिंदल को दिल्ली बुलाया, जहां उनकी मुलाकात भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से हुई। इससे पहले, दोनों नेता केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से भी अलग-अलग मिले थे। इन बैठकों के बाद से ही अटकलें तेज हो गई हैं कि भाजपा आलाकमान संगठन में बड़े बदलाव की तैयारी कर रहा है और 2027 विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए जयराम ठाकुर का नाम आगे आ सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, भाजपा अभी जयराम को प्रदेश अध्यक्ष बना सकती है, जिससे उन्हें संगठन पर पूरी पकड़ बनाने का मौका मिलेगा, और फिर 2027 चुनाव में उन्हें मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश किया जा सकता है। हाल के दिनों में जयराम ही हिमाचल में पार्टी का नेतृत्व करते नजर आए हैं—सरकार पर हमलावर भी वही होते हैं और पार्टी के भीतर समीकरण साधने की भूमिका भी वही निभाते हैं। अगर जयराम ठाकुर प्रदेश अध्यक्ष बनते हैं, तो इससे कई अन्य राजनीतिक समीकरण भी बदल सकते हैं। सबसे बड़ा बदलाव नेता प्रतिपक्ष के पद को लेकर होगा, जो स्वाभाविक रूप से खाली हो जाएगा। ऐसे में कांगड़ा से किसी नेता को इस पद पर बिठाया जा सकता है। विपिन परमार और बिक्रम ठाकुर जैसे नाम इस दौड़ में आगे हो सकते हैं, जबकि सतपाल सत्ती भी मजबूत दावेदार माने जा रहे हैं। बहरहाल, भाजपा हाईकमान का फैसला जो भी हो, लेकिन इतना तय है कि हिमाचल की सियासत में यह बदलाव नए राजनीतिक संकेत लेकर आएगा। अब देखना यह होगा कि प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर कौन बैठता है और उसके बाद पार्टी में शक्ति संतुलन किस दिशा में जाता है।
तारीख थी 8 अगस्त 1996... पंडित सुखराम का नाम टेलीकॉम घोटाले में सामने आया था। सीबीआई ने सुखराम, टेलीकॉम विभाग की अधिकारी रुनू घोष, और हरियाणा स्थित कंपनी हरियाणा टेलीकॉम लिमिटेड के मालिक देवेंद्र सिंह चौधरी के खिलाफ मामला दर्ज किया था। 16 अगस्त को सीबीआई की एक टीम उनके दिल्ली के सफदरजंग स्थित आवास पर पहुंची और छापेमारी की। उस वक्त पंडित सुखराम के घर से 2.45 करोड़ रुपये बरामद हुए थे। इसके अलावा, सीबीआई की एक टीम ने सुखराम के हिमाचल प्रदेश के मंडी स्थित बंगले पर भी छापेमारी की थी, जहां से 1.16 करोड़ रुपये मिले थे। पैसे दो संदूकों और 22 सूटकेस में रखे गए थे, जिनमें से अधिकांश सूटकेस पूजा वाले कमरे में थे। सुखराम यह नहीं बता पाए कि इन पैसों का वैध स्रोत क्या था। 80 के दशक में बोफोर्स घोटाले के चलते सत्ता खोने वाली कांग्रेस 90 के दशक में टेलीकॉम घोटाले के कारण फिर विवादों में आ गई। नरसिम्हा राव सरकार में सुखराम के संचार मंत्री रहते हुए यह घोटाला हुआ। इस घोटाले ने न सिर्फ कांग्रेस सरकार को हिला दिया, बल्कि पंडित सुखराम को मंत्री पद और कांग्रेस पार्टी दोनों से हाथ धोना पड़ा। यह घोटाला उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय बन गया। इस 5 करोड़ 91 लाख के घोटाले के कारण विपक्षी भाजपा ने 1996 में 10 दिनों तक संसद नहीं चलने दी थी। सीबीआई की जांच में सामने आया कि केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए हरियाणा टेलीकॉम लिमिटेड (एचटीएल) नामक एक निजी कंपनी को 30 करोड़ रुपये का ठेका दिया, जिसमें 3.5 लाख कंडक्टर किलोमीटर पॉलीथीन इंसुलेटेड जेली फिल्ड (PIJF) केबल की आपूर्ति शामिल थी। इस ठेके के बदले, सुखराम ने एचटीएल के अध्यक्ष देवेंद्र सिंह चौधरी से 3 लाख रुपये की रिश्वत ली। सुनवाई के दौरान सुखराम ने अदालत में दलील दी कि उनके आवास से बरामद राशि कांग्रेस पार्टी की थी। उन्होंने दावा किया कि यह पैसा जम्मू-कश्मीर में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी फंड के रूप में इस्तेमाल किया जाना था। हालांकि, तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने सीबीआई की पूछताछ में बरामद राशि को पार्टी फंड का हिस्सा मानने से इनकार कर दिया था। इस केस में 16 साल बाद 19 नवंबर 2011 को सीबीआई अदालत ने पंडित सुखराम को पांच साल की सजा सुनाई।
लगभग 45 साल के अपने अब तक के इतिहास में बीजेपी ने हिमाचल प्रदेश में दस विधानसभा चुनाव लड़े हैं और चार बार सरकार बनाई है। हिमाचल प्रदेश की ऐसी कोई विधानसभा सीट नहीं जिसे बीजेपी फ़तेह न कर सकी हो सिवाय रामपुर के। दरअसल, रामपुर स्व. राजा वीरभद्र सिंह का क्षेत्र है। बुशहर रियासत का गढ़ है। हालांकि यह निर्वाचन हल्का आरक्षित होने के चलते वीरभद्र परिवार यहां से चुनाव नहीं लड़ता। पर चुनाव कोई भी लड़े, वोट राज परिवार के नाम पर ही डलता है। इसलिए कांग्रेस उम्मीदवार भी राजपरिवार की पसंद का होता है। 2022 के चुनाव में यहां से कांग्रेस ने चौथी बार सीटिंग विधायक नंदलाल को मैदान में उतारा था, जबकि बीजेपी ने युवा चेहरे कौल नेगी को मौका दिया था। दिलचस्प बात यह है कि नंदलाल की जीत का अंतर घटकर 600 से भी कम था। यानी कांग्रेस हारते-हारते बची थी। बहरहाल, अगले विधानसभा चुनाव में भी यहां वीरभद्र सिंह परिवार का तिलिस्म देखने को मिलेगा या बीजेपी इस अभेद किले को ध्वस्त कर देगी, यह देखना दिलचस्प होगा।
**चारों लोकसभा सीट पर मिली थी हार **मंडी से वीरभद्र सिंह भी हारे थे 1977 का साल भारतीय राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत का प्रतीक था। देश में दो साल तक चले आपातकाल के बाद, जनता ने सत्ता की कुर्सी हिला दी थी। पूरे भारत में बदलाव की आंधी चल रही थी, और हिमाचल प्रदेश भी इससे अछूता नहीं रहा। चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल (भालोद) ने हिमाचल की चारों लोकसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। यह फैसला तब शायद साहसिक लगा होगा, क्योंकि हिमाचल में कांग्रेस की मजबूत पकड़ थी। लेकिन जनता का मिज़ाज बदल चुका था। इस बार लोग किसी नए विकल्प की तलाश में थे, और भारतीय लोकदल ने वह विकल्प बनकर खुद को प्रस्तुत किया। चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले थे। हिमाचल की चारों सीटों पर भारतीय लोकदल के उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी, और कांग्रेस पूरी तरह पराजित हो गई थी। सबसे बड़ा झटका मंडी लोकसभा सीट से आया, जहां लोकदल के प्रत्याशी गंगा सिंह ने वीरभद्र सिंह को 35,505 वोटों के अंतर से हरा दिया। वीरभद्र सिंह, जो कांग्रेस के एक मजबूत नेता माने जाते थे, इस हार से हैरान रह गए। कांगड़ा सीट से दुर्गा चंद ने कांग्रेस के विक्रम चंद को 39,005 वोटों से शिकस्त दी। हमीरपुर में रणजीत सिंह ने नारायण चंद को 50,122 वोटों से हराया। और सबसे बड़ी जीत बालक राम के नाम रही, जिन्होंने 87,472 वोटों से जालम सिंह को पराजित किया और 64.63% वोट हासिल किए। इस ऐतिहासिक चुनाव में भारतीय लोकदल ने 57.19% वोट शेयर के साथ चारों सीटें जीत लीं, जबकि कांग्रेस सिर्फ 38.58% वोटों तक सिमट गई। हालांकि इस चुनाव के बाद, भारतीय लोकदल का जनता दल में विलय हो गया। यह वही जनता दल था, जिसने पूरे देश में इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर किया था। लेकिन राजनीति में स्थिरता कब रहती है? ये जनता दल भी टूट गया और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का गठन हुआ। इसके बाद चौधरी चरण सिंह ने भारतीय लोकदल को दोबारा अलग किया, लेकिन हिमाचल में 1977 जैसी सफलता फिर कभी हाथ नहीं लगी।
कमरा नंबर 202, सचिवालय का यह कमरा वह कमरा है जिसका नाम सुनते ही मंत्री भागे-भागे फिरते हैं। अब इस कमरे से जुड़ा इतिहास ही कुछ ऐसा है कि डरना तो बनता है। दरअसल, कमरा नंबर 202 में बैठने वाला हर मंत्री चुनाव हारता है, ऐसा हम नहीं, इतिहास के पन्नों में दर्ज चुनावी परिणाम कहते हैं। पिछले चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो इस कमरे में मंत्री बनने पर जगत प्रकाश नड्डा, आशा कुमारी, नरेंद्र बरागटा और सुधीर शर्मा भी बैठे हैं और ये सभी तत्कालीन मंत्री रहते हुए अगला चुनाव हार गए। साल 1998 से 2003 तक तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री एवं भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा इस कमरे में बैठे, फिर नड्डा 2003 का चुनाव हार गए। फिर वीरभद्र सरकार में मंत्री रही आशा कुमारी 2007 का विधानसभा चुनाव हार गईं। 2007 में प्रदेश में फिर धूमल सरकार बनी और नरेंद्र बरागटा कैबिनेट मंत्री बने और इसी कमरे में बैठे। बरागटा भी 2012 का चुनाव हार गए। इसके बाद वीरभद्र सरकार में शहरी विकास मंत्री रहे सुधीर शर्मा भी इस कमरे में बैठे और 2017 का विधानसभा चुनाव हार गए। हालांकि उस वक्त सुधीर शर्मा बार-बार यही कहते थे कि यह सब कुछ अंधविश्वास है, ऐसा कुछ नहीं होगा, मगर हुआ तो वह जो सोचा न था। वहीं पिछली जयराम सरकार में मंत्री रहे डॉ. रामलाल मारकंडा भी चुनाव हारे हैं, जो इसी कमरा नंबर 202 में बैठते थे। इस कमरे का इतिहास अब तक बरकरार है। इस बार राजेश धर्माणी को यह कमरा दिया गया था, मगर वह इस कमरे में बैठे ही नहीं। अब इसे अंधविश्वास कह लीजिए या फिर कुछ और, मगर धर्माणी ने कोई रिस्क नहीं लिया।
यूं ही नहीं कहते 'राजा'... महिला ने किराया मांगा तो वीरभद्र सिंह ने उसे हेलीकॉप्टर में चंबा पहुंचाया
पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीरभद्र सिंह को यूं ही 'राजा' नहीं कहा जाता था। वे सच में हिमाचल प्रदेश की जनता के दिलों पर राज करते थे। जनता के प्रति उनकी सच्ची निष्ठा के कई किस्से हैं, जो यह साबित करते हैं कि वीरभद्र सिंह सबसे अलग थे। एक ऐसा ही दिल छू लेने वाला किस्सा आज भी लोगों के दिलों में ताजा है। यह घटना कई साल पहले फरवरी महीने की एक सर्द सुबह की है। हिमाचल प्रदेश में उस समय कड़ाके की ठंड पड़ रही थी, खासकर गरीबों के लिए यह मौसम और भी कठिन था। इसी बीच, एक गरीब महिला अमरो देई, जो चंबा से शिमला पहुंची थी, वीरभद्र सिंह से मिलने आई। अमरो देई वही महिला थी, जिसे वीरभद्र सिंह ने ही स्कूल में जलवाहक की नौकरी दिलवाई थी। अब, उसकी समस्या यह थी कि स्कूल के कुछ लोग उसे तंग कर रहे थे और उसने अपना स्कूल बदलवाने का निर्णय लिया था। अपनी समस्या का समाधान ढूंढने के लिए वह शिमला आई थी, और उसे उम्मीद थी कि 'राजा साहब' ही उसकी मदद करेंगे। वीरभद्र सिंह ने पहले महिला की समस्या हल की और फिर उससे पूछा कि अब वह कहां जाना चाहती है। अमरो देई ने कहा कि उसे चुवाड़ी जाना है, लेकिन उसके पास यात्रा के लिए पैसे नहीं हैं। वीरभद्र सिंह ने उसे एक हजार रुपये दिए और कहा, "चिंता मत करो, तुम मेरे साथ चल सकती हो। मैं भी चंबा जा रहा हूं, रास्ते में तुम्हें चुवाड़ी छोड़ दूंगा।" महिला ने हैरान होकर पूछा, "क्या आप बस से जा रहे हैं?" वीरभद्र सिंह मुस्कराए और बोले, "नहीं, मैं हेलीकॉप्टर में जा रहा हूं और तुम भी मेरे साथ हेलीकॉप्टर में बैठोगी।" फिर क्या था, वीरभद्र सिंह का एक शब्द किसी आधिकारिक आदेश से कम नहीं था। महिला को मुख्यमंत्री के काफिले के साथ होली लॉज से अनाडेल हेलीपैड तक लाया गया, और वह हेलीकॉप्टर से मुख्यमंत्री के साथ चंबा के लिए रवाना हुई। हेलीकॉप्टर सिंहुता में लैंड हुआ, जिसके बाद वीरभद्र सिंह ने निर्देश दिए कि महिला को काफिले की गाड़ी में बैठाकर चुवाड़ी छोड़ दिया जाए। इस तरह, महिला का घर लौटने का खर्च भी बच गया, और जो पैसे उसके पास नहीं थे, वह भी वीरभद्र सिंह ने खुद दिए। इसके अलावा, स्कूल में उसकी समस्या का समाधान भी वीरभद्र सिंह ने एक फोन कॉल पर कर दिया।
कहते हैं, हिमाचल की सत्ता पर काबिज होने के लिए कर्मचारी वोट बेहद ज़रूरी हैं। आज भी सरकारें कर्मचारियों को खुश करने की कोशिश में रहती हैं। मगर क्या आप जानते हैं? हिमाचल के एक मुख्यमंत्री ऐसे भी थे, जिन्होंने बिना वोट बैंक की परवाह किए कर्मचारियों से सीधे पंगा ले लिया था और बाद में उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ा। हम बात कर रहे हैं हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार की। 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने निजी क्षेत्र को प्रदेश में हाइड्रो प्रोजेक्ट लगाने की अनुमति दी थी। तब किन्नौर में एक हाइड्रो प्लांट स्थापित हुआ, लेकिन यह सरकारी कर्मचारियों को रास नहीं आया। विरोध बढ़ा, चर्चाएं हुईं, मगर जब सरकार टस से मस नहीं हुई, तो कर्मचारियों ने हड़ताल का बिगुल बजा दिया। सरकारी दफ्तर सूने पड़ गए, फाइलें धूल खाने लगीं, और हड़ताल आग की तरह फैल गई। लेकिन शांता कुमार भी अपने सिद्धांतों के पक्के थे। उन्होंने साफ ऐलान कर दिया—"नो वर्क, नो पे!" यानी जो काम नहीं करेगा, उसे वेतन नहीं मिलेगा। कर्मचारियों को लगा कि सरकार झुकेगी, मगर शांता अपने फैसले पर अडिग रहे। 29 दिन चली इस हड़ताल का वेतन कर्मचारियों को नहीं दिया गया। साथ ही, इस दौरान करीब 350 कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया गया। सरकार और कर्मचारियों की इस तनातनी का असर अगले चुनाव में दिखा। कर्मचारियों ने इसे अपनी हार-जीत की लड़ाई बना लिया। जब वोटिंग हुई, तो बूथों पर उनका गुस्सा साफ नजर आया। नतीजे आए, और स्पष्ट हो गया कि कर्मचारियों ने हिसाब चुकता कर दिया था—शांता कुमार को सत्ता से बाहर कर दिया गया। खुद शांता कुमार दो सीटों से चुनाव लड़े थे और दोनों ही हार गए।
हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार का जीवन सिर्फ राजनीति ही नहीं, बल्कि प्रेम की अनूठी कहानी के लिए भी याद किया जाता है। 1974 में, 65 साल की उम्र में, उन्होंने 55 साल की राज्यसभा सांसद सत्यवती डांग से शादी रचाई। खास बात ये थी कि इस शादी में उनके बच्चे और पोते भी शामिल हुए और बारात मुख्यमंत्री आवास 'ओक ओवर' से निकली। डॉ. परमार अपनी पहली पत्नी चंद्रावती के निधन के बाद अकेले थे, जबकि सत्यवती डांग भी पति की असमय मृत्यु के बाद अकेली थीं। दोनों का प्रेम चर्चा में था, लेकिन परमार शादी को तैयार नहीं थे। उनके बड़े बेटे लव परमार के लगातार कहने पर आखिरकार वे मान गए। यह शादी सिर्फ दो दिलों का मिलन नहीं थी, बल्कि समाज की रूढ़ियों को तोड़ने का साहसिक कदम भी थी। शादी के सात साल बाद 1981 में डॉ. परमार का निधन हो गया, और सत्यवती डांग अमेरिका चली गईं। जीवन के अंतिम दिनों में वे शिमला लौटीं और 2010 में दुनिया को अलविदा कह गईं। आज भी हिमाचल इन दोनों नेताओं के शाश्वत प्रेम को पवित्रता के साथ याद करता है।
प्रदेश अध्यक्ष पद को लेकर कांग्रेस में हलचल दिल्ली में कांग्रेस नेताओं की आलाकमान से लगातार बैठकें जारी हैं और हर बैठक के महत्व को सियासी माहिर अपने-अपने दृष्टिकोण से देख रहे हैं। फिलहाल मुख्यमंत्री के अलावा प्रियंका गांधी और कांग्रेस की नवनियुक्त प्रभारी रजनी पाटिल के साथ लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह की बैठक चर्चा का विषय बनी हुई है। कल शाम विक्रमादित्य प्रियंका गांधी से मिले और आज रजनी पाटिल से। अटकलें हैं कि उन्होंने प्रियंका से प्रदेश अध्यक्ष के कार्यकाल को बढ़ाने की मांग की। वक्त की नज़ाकत को समझा जाए तो शायद इस वक्त यह होली लॉज के लिए बेहद ज़रूरी भी है। दरअसल, अप्रैल 2025 में प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह का तीन साल का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। जाहिर है, प्रदेश कांग्रेस के अन्य गुट इस पद पर अपने करीबियों को बैठाने की जद्दोजहद में हैं। सूत्रों की माने तो सीएम के करीबी संजय अवस्थी भी प्रदेश अध्यक्ष पद कि दौड़ में है। हालाँकि अगर अवस्थी कि ताजपोशी होती है सत्ता और संगठन एक ही हाथ में होंगे, और इसे लेकर पार्टी आलाकमान राज़ी होगा या नहीं, यह बड़ा सवाल है। खैर, इनके अलावा मंडी से कांग्रेस के एकमात्र विधायक चंद्रशेखर का नाम भी चर्चा में है। जाहिर है, इस सियासी परिप्रेक्ष्य में आज से दो साल पहले मुख्यमंत्री का पद छोड़कर प्रदेश अध्यक्ष और मंत्री पद पर संतुष्ट हो जाने वाला होली लॉज अब शायद प्रदेश अध्यक्ष पद भी छोड़ने को तैयार नहीं है। होली लॉज स्थिति यथावत बनाए रखना चाहता है। हालांकि, अंतिम निर्णय कांग्रेस आलाकमान को ही लेना है, और यह देखने वाली बात होगी कि वे कैसे संतुलन सुनिश्चित करता हैं। तो कुल मिलाकर बात यह है कि आने वाले कुछ दिनों में कांग्रेस के भीतर वर्चस्व की जंग एक बार फिर सार्वजनिक हो सकती है।
वीरभद्र सिंह की चेतावनी के आगे कांग्रेस आलाकमान को झुकना पड़ा ! 2012 के चुनाव में कांग्रेस आलाकमान को दी स्पष्ट चेतावनी ! 'मैं ढोलक बजाऊंगा और मेरी सेना नृत्य करेगी' – शिमला की प्रेस कॉन्फ्रेंस में इन्हीं शब्दों के साथ वीरभद्र सिंह ने दिल्ली दरबार को स्पष्ट चेतावनी दे डाली थी कि सीएम तो वे ही होंगे, चाहे पार्टी कोई भी हो। फिर आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया, और वे छठी बार सीएम बने। दरअसल, 2012 विधानसभा चुनाव के वक्त वीरभद्र सिंह की आयु 78 के पार थी। केंद्र सरकार में मंत्री बनने के बाद कांग्रेस में भी कई नेता सीएम की कुर्सी पर नजर गड़ाए बैठे थे। पर वीरभद्र सिंह ने चुनाव से पहले मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और हिमाचल लौट आए। हालांकि, तब आलाकमान वीरभद्र के हाथ कांग्रेस की कमान सौंपने के लिए राजी नहीं था। पिछले कई वर्षों से प्रदेश में कांग्रेस की जड़ें मजबूत कर रहे कौल सिंह ठाकुर और आलाकमान के करीबी सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। मगर फिर वीरभद्र सिंह ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी। आलाकमान झुका, कांग्रेस ने उन्हीं के चेहरे पर चुनाव लड़ा और जीत भी हासिल की।
1990 से 2007 तक हर चुनाव में बदली निष्ठा, पर कभी नहीं हारे 1990 की शांता लहर में हिमाचल प्रदेश की इस विधानसभा सीट से एक निर्दलीय उम्मीदवार जीता। फिर 1993 में कांग्रेस जीती, 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस, 2003 में लोकतांत्रिक मोर्चा और 2007 में भाजपा। यह विधानसभा सीट है जिला मंडी की धर्मपुर निर्वाचन और पांच अलग-अलग सिंबल से चुनाव जीतने वाले नेता थे महेंद्र सिंह ठाकुर। हालांकि, इसके बाद ठाकुर बीजेपी में टिके रहे और 2012 और 2017 में भी चुनाव जीते। शायद ही कोई और नेता ऐसा हो, जिसने अपने राजनीतिक जीवन के सात चुनाव में से पांच चुनाव लगातार अलग-अलग सिंबल पर लड़ा और जीता हो। 1990 से 2003 तक हर बार महेंद्र सिंह ठाकुर की राजनीतिक निष्ठा बदली, पर बावजूद इसके वे जीतते रहे। दल बेशक बदलते रहे, लेकिन जनता का भरोसा महेंद्र सिंह पर बरकरार रहा। जो प्यार धर्मपुर की जनता ने महेंद्र सिंह ठाकुर को दिया, वह पिछले चुनाव में उनके पुत्र रजत ठाकुर को नहीं मिला। महेंद्र सिंह ठाकुर के चुनावी राजनीति छोड़ने के बाद बीजेपी ने उनकी इच्छा मुताबिक 2022 में उनके बेटे रजत को टिकट दिया था, लेकिन वे चुनाव हार गए। दिलचस्प बात यह है कि 2022 में मंडी की सिर्फ धर्मपुर सीट पर ही बीजेपी को शिकस्त मिली।
मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू एक बार फिर दिल्ली गए हैं,और एक बार फिर निकल आया है कयासों का वह पिटारा जो अक्सर आलाकमान से चर्चा की संभावनाओं पर हिमाचल की सियासत के गलियारों में घूमने लगता है। क्या खाली पड़ी मंत्रिमंडल की कुर्सी भरने पर आलाकमान से कोई चर्चा होगी? क्या कांग्रेस की धक्के से चल रही संगठन के गठन की प्रक्रिया में कोई तेजी आएगी? क्या कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष पद को लेकर किसी बदलाव की संभावना है? CM सुक्खू दिल्ली में केंद्रीय मंत्रियों और कांग्रेस के आला नेताओं से मीटिंग करेंगे और वे हिमाचल की नव नियुक्त कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल से भी मुलाकात करेंगे। बस यही कारण है कि इस दौरे से प्रदेश की सियासी हलचल बढ़ी हुई है। आपको याद करा दें कि सरकार के दो साल हो गए हैं, मगर अब तक हिमाचल कैबिनेट में मंत्री का एक पद खाली है। इस मंत्री पद की रेस में कई नेता हैं, जैसे अर्की से विधायक संजय अवस्थी, कुल्लू से सुंदर सिंह ठाकुर, ज्वालाजी से संजय रत्न और पालमपुर से आशीष बुटेल। मगर यह पद कब और किसकी झोली में जाएगा, बस यही तय होना है। इसी तरह 100 दिन से भी ज्यादा समय से प्रदेश में कांग्रेस का संगठन भंग है। इस सुस्ती पर खुद कैबिनेट मंत्री ही संगठन को पैरालाइज्ड बता चुके हैं, मगर अब तक इस प्रक्रिया में कोई तेजी नहीं आई। वहीं, हिमाचल कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह का भी तीन साल का कार्यकाल अप्रैल 2025 में पूरा होने जा रहा है, इसलिए अध्यक्ष पद को लेकर हलचल तेज है। अब देखना होगा कि इस दौरे में इन सब मसलों को लेकर कोई बड़ा अपडेट आता है या यह महज कयास ही रह जाएंगे।
एक के पिता सांसद रहे, तो एक के दादा सीएम एक विधायक का बेटा भी विधायक रहा मौजूदा सीएम सहित पांच मुख्यमंत्रियों के परिवार राजनीति में परिवारवाद से निकले कई नेता चुनाव हारे, वरना आंकड़ा और ज्यादा होता हिमाचल प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डा. वाईएस परमार से लेकर मौजूदा मुख्यमंत्री सुखविंद्र सिंह सुक्खू तक, हिमाचल की सियासत के कई ऐसे बड़े नाम है जिनके परिवारजन राजनीति में सक्रीय है। फेहरिस्त बहुत लम्बी है; ठाकुर रामलाल, वीरभद्र सिंह, प्रो प्रेम कुमार धूमल, पंडित सुखराम, पंडित संतराम, सत महाजन, केडी सुल्तानपुरी जैसे कई दिग्गजों के परिवार सियासत में है। कोई केंद्र में मंत्री है तो कोई प्रदेश में, इसमें भाजपाई भी है और कांग्रेसी भी। दिलचस्प बात ये है की अब तक सात व्यक्ति ही हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर पहुंचे है। इन सात में से पांच के परिवार भी सियासत में है। प्रथम मुख्यमंत्री रहे डा. वाईएस परमार के बेटे कुश परमार नाहन से विधायक रहे है। अब तीसरी पीढ़ी भी सियासत में है। प्रदेश के दूसरे मुख्यमंत्री रहे ठाकुर रामलाल के पोते रोहित ठाकुर वर्तमान सरकार में कैबिनेट मंत्री है। 6 बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह का परिवार भी सियासत में सक्रीय है। उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह तीन बार सांसद रही हैं और पीसीसी चीफ भी। वहीँ उनके पुत्र विक्रमादित्य सिंह वर्तमान सरकार में मंत्री भी है। इसी तरह दो बार प्रदेश में मुख्यमंत्री रहे प्रो प्रेम कुमार धूमल के पुत्र अनुराग ठाकुर पांचवी बार सांसद है और मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री भी रह चुके है। वहीँ मौजूदा मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू की पत्नी भी देहरा से विधायक है। मौजूदा विधानसभा में 40 विधायक कांग्रेस के है और 28 भाजपा के। इनमें से भाजपा के दो विधायक अनिल शर्मा और सुधीर शर्मा ही ऐसे है, जिनके पिता भी विधायक रहे है। हालांकि भाजपा के टिकट वितरण में परिवारवाद से कोई परहेज नहीं रहा है, चाहे वो 2022 का चुनाव हो या उपचुनाव, लेकिन उनमे से अधिकांश प्रत्याशी उम्मीदवार चुनाव हार गए। इस फेहरिस्त में रजत ठाकुर, गोविन्द सिंह ठाकुर, रवि ठाकुर जैसे नाम है जो वंशवाद से निकले है। बात कांग्रेस की करें तो मौजूदा 40 में से 11 विधायकों के पिता भी विधायक रहे है। इनमे नीरज नैयर, भवानी पठानिया, यादविंद्र गोमा, आरएस बाली, आशीष बुटेल, भुवनेश्वर गौर, विवेक शर्मा , विनय कुमार , हर्षवर्धन सिंह , विक्रमादित्य सिंह और जगत सिंह नेगी शामिल है। वहीँ मंत्री रोहित ठाकुर के दादा ठाकुर राम लाल प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके है। इसी तरह वर्तमान में देहरा से विधायक कमलेश ठाकुर के तो पति ही मुख्यमंत्री है। कसौली विधायक विनोद सुल्तानपुरी के पिता केडी सुल्तानपुरी भी 6 बार सांसद रहे है। तो मंत्री चौधरी चंद्र कुमार के बेटे नीरज भारती भी विधायक रह चुके है।
बिना जनसभा किए ही कोटली से लौट आए थे तत्कालीन सीएम वीरभद्र सिंह साल था 1997, प्रदेश की सत्ता पर वीरभद्र सिंह काबिज थे और पंडित सुखराम हिमाचल विकास कांग्रेस बना चुके थे। उस दौर में वीरभद्र सिंह और पंडित सुखराम के बीच टकराव चरम पर था। बताया जाता है कि विधानसभा चुनावों से कुछ दिन पहले ही मंडी के कोटली में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के काफिले को रोक लिया गया था। दरअसल, कोटली में पंडित सुखराम समर्थकों का जमावड़ा था। स्थानीय लोग गुस्से और रोष से भरे हुए थे। कहा जाता है कि कुछ लोगों ने मुख्यमंत्री की कार को निशाना तक बनाने की कोशिश की थी। पंडित सुखराम के पक्ष में लोग सड़कों पर थे, जिसके बाद माहौल देखकर वीरभद्र सिंह कोटली से लौट आए। इस वाकये को याद करते हुए अनिल शर्मा बताते हैं कि— "उस वक्त पंडित सुखराम और हम नई पार्टी बना रहे थे और कोटली में हमारी नई पार्टी का कार्यक्रम था। मुख्यमंत्री का वहां कोई आयोजन नहीं था, बल्कि वह तो बस वहां से होते हुए कहीं और किसी अन्य कार्यक्रम में जा रहे थे। जैसे ही हमारे समर्थकों को मालूम पड़ा कि वीरभद्र सिंह आए हैं, तो हमारे समर्थकों ने उनका घेराव कर उन्हें रोक दिया। फिर मैं खुद वहां पहुंचा, अपने समर्थकों को समझाया और उन्हें वहां से जाने दिया।" अनिल कहते हैं कि, "वीरभद्र सिंह हमारे क्षेत्र में थे, हमारे मेहमान थे, उन्हें नहीं रोका जाना चाहिए था, मगर समर्थकों ने ऐसा किया।"
हिमाचल में विधायकों की पेंशन को लेकर अक्सर चर्चाएं होती रहती हैं। आज प्रदेश में पूर्व विधायकों को करीब 85 हजार रुपये पेंशन मिलती है, मगर जब यह व्यवस्था शुरू हुई थी, तब पेंशन की रकम सिर्फ 300 रुपये थी। लेकिन क्या आप जानते हैं, इस पेंशन की शुरुआत कैसे हुई ? इसके पीछे की कहानी बेहद दिलचस्प है— बात साल 1974 की है। हिमाचल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार हमीरपुर में एक मेले के उद्घाटन के लिए पहुंचे थे। गर्मियों की चटक धूप के बीच मेला अपने रंग में था—दुकानों पर भीड़ थी। मुख्यमंत्री परमार, अन्य गणमान्य व्यक्तियों के साथ दुकानों का अवलोकन कर रहे थे। तभी, उनकी नज़र एक चूड़ियों की दुकान पर पड़ी। दुकान में बैठे व्यक्ति को देखते ही वह ठिठक गए। यह कोई आम दुकानदार नहीं था, यह अमर सिंह चौधरी थे, जो 1967 से 1972 तक जनसंघ के टिकट पर मेवा (अब भोरंज) विधानसभा क्षेत्र के विधायक रह चुके थे। मुख्यमंत्री परमार ने चौंकते हुए पूछा, "अमर सिंह जी, आप यहां? यह दुकान?" अमर सिंह चौधरी हल्के से मुस्कुराए, फिर बोले, "क्या करें डॉक्टर साहब, अब विधायक नहीं हूं, तो गुजारा करने के लिए कुछ तो करना होगा। परिवार पालना है, इसलिए मेलों में दुकानदारी करता हूं।" यह सुनते ही परमार साहब का चेहरा गंभीर हो गया। हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने प्रदेश को खड़ा करने में अपना जीवन लगा दिया था, और अब उनके सामने एक पूर्व विधायक, जिसने जनता की सेवा की थी, आर्थिक तंगी में चूड़ियां बेचने को मजबूर था। मेला खत्म हुआ, पर यह दृश्य डॉ. परमार के दिलो-दिमाग में घर कर गया। शिमला लौटते ही उन्होंने अगली कैबिनेट बैठक में यह मुद्दा उठाया। चर्चा के बाद फैसला हुआ, अब प्रदेश के पूर्व विधायकों को 300 रुपये मासिक पेंशन दी जाएगी, ताकि वे सम्मानजनक जीवन जी सकें। इस एक फैसले से हिमाचल में विधायकों की पेंशन की नींव पड़ गई, और धीरे-धीरे समय के साथ यह व्यवस्था मजबूत होती चली गई। खास बात यह है कि अमर सिंह चौधरी का राजनीतिक सफर यहीं खत्म नहीं हुआ। इस घटना के कुछ सालों बाद, वह 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर फिर से विधायक बने और 1980 तक हिमाचल विधानसभा में रहे। हालांकि, अब विधायकों को कोई ऐसी समस्या नहीं है l पेंशन तो मिलती ही है, साथ ही विधायकों का टेलीफोन भत्ता भी 15 हजार रुपये है।
6 नवम्बर से न प्रदेश कार्यकारिणी और न जिला व ब्लॉक अध्यक्ष ! दिग्गज नेताओं को भी खल रही आलाकमान की लेट लतीफी, उठने लगी आवाजें ! दिन-ब-दिन आक्रामक होती दिख रही बीजेपी और कांग्रेस बेसंगठन ! अलबत्ता, सन्नाटा चौधरी चंद्र कुमार ने भंग कर दिया हो, लेकिन कांग्रेस आलाकमान की निद्रा अभी भी नहीं टूटी। सौ दिन से ज्यादा हो गए हैं हिमाचल में कांग्रेस के संगठन को भंग हुए, मगर आलाकमान अब भी किसी जल्दबाजी में नहीं दिख रहा। शायद हिमाचल में सरकार होने की तसल्ली के आगे संगठन की गैरमौजूदगी पार्टी को खल ही नहीं रही। कांग्रेस की इस हाल-ए-हालत पर गोपाल दास नीरज की कुछ पंक्तियाँ मौजूं हैं ....हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे ...कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे ...... आलाकमान का यही सुस्त रवैया बरकरार रहा तो डर है हिमाचल में भी कांग्रेस के हिस्से रह जाएगा सिर्फ गुबार। करीब 140 साल पुरानी कांग्रेस आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। ताजा दौर की बात करें तो महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली में पार्टी को शर्मनाक हार मिली है। 16 साल से केंद्र की सत्ता से पार्टी दूर है और अब ले-देकर महज तीन राज्यों में पार्टी की सरकार है, जिनमें से एक हिमाचल प्रदेश है। हैरत की बात यह है कि इस हिमाचल प्रदेश में भी पिछले सौ दिन से पार्टी का संगठन नहीं है। 6 नवंबर को पार्टी आलाकमान ने पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह के अलावा समस्त प्रदेश कार्यकारिणी तथा सभी जिला और ब्लॉक इकाइयाँ भंग कर दी थीं और तब से नई कार्यकारिणी का इंतजार बना हुआ है। पार्टी मुख्यालय में सन्नाटा पसरा है और पार्टी के बड़े चेहरे भी अब इस लेट-लतीफी पर आवाज बुलंद करने लगे हैं। कांग्रेस हिमाचल में संगठन की नियुक्तियों के लिए नया फार्मूला इस्तेमाल कर रही है। इसके मुताबिक अब प्रदेश अध्यक्ष को मर्जी की टीम नहीं मिलेगी, बल्कि ऑब्जर्वर की रिपोर्ट के आधार पर संगठन में ताजपोशी होगी। संगठन भंग करने के बाद आलाकमान ने सभी 12 जिलों और चारों संसदीय क्षेत्रों में पर्यवेक्षक नियुक्त किए हैं, ताकि जमीनी फीडबैक मिल सके। ये पर्यवेक्षक अपनी रिपोर्ट आलाकमान को सौंप चुके हैं, बावजूद इसके नई कार्यकारिणी का गठन नहीं हुआ है। अब आलाकमान की इस लेट-लतीफी से पार्टी का आम वर्कर जरूर मायूस दिख रहा है। अब बात करते हैं कांग्रेस के असल मर्ज की। सर्वविदित है कि हिमाचल कांग्रेस में कई गुट हैं, लेकिन मोटे तौर पर सुक्खू गुट और होली लॉज कैंप के अलावा मुकेश अग्निहोत्री की अपनी एक अलग लॉबी दिखती है। हालांकि, अग्निहोत्री बेहद संतुलित ढंग से सियासत करते दिखे हैं, लेकिन जाहिर है वे भी अपने समर्थकों को संगठन के अहम ओहदों पर एडजस्ट करना चाहेंगे। आलाकमान भी इससे अवगत है और पार्टी के जहन में हरियाणा भी होगा, जहाँ गुटबाजी कांग्रेस को ले बैठी। हरियाणा में अर्से से पार्टी संगठन तक नहीं बना पा रही है। ऐसे में लाजमी है आलाकमान भी फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाए और संतुलन सुनिश्चित करे। वहीं दूसरी ओर, प्रदेश भाजपा ने 18 लाख नए सदस्य बनाने के साथ-साथ नए ब्लॉक और जिला अध्यक्ष चुन लिए हैं। नई ऊर्जा से लबरेज बीजेपी, कांग्रेस सरकार को हर मुद्दे पर जोरदार ढंग से घेर रही है। मगर सरकार को डिफेंड करने के लिए कांग्रेस के पास कोई पदाधिकारी नहीं बचा। संगठन की मजबूती किसी भी राजनीतिक दल की असली ताकत होती है, और अगर कांग्रेस इसे नजरअंदाज करती रही, तो हिमाचल में उसकी पकड़ और भी कमजोर होगी।
हिमाचल सरकार में मंत्री चौधरी चंद्र कुमार ने आज खुद ही तस्लीम कर लिया कि हिमाचल में कांग्रेस संगठन पिछले कुछ दिनों से पैरालाइज़्ड है... मगर कांग्रेस आलाकमान के पास शायद हिमाचल की सुध लेने तक का समय नहीं... आज से करीब तीन महीने पहले कांग्रेस संगठन की कार्यकारिणी भंग कर दी गई थी। तब से लेकर अब तक हिमाचल कांग्रेस बिना संगठन के है। संगठन के नाम पर कुछ बचा है तो वह है कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह। सिर्फ उन्हें पद से नहीं हटाया गया। मगर वह सेनापति किस काम का जिसकी सेना ही न हो। बस यही कारण है कि अब कांग्रेस के भीतर भी इस बात को लेकर असंतोष के स्वर बुलंद होने लगे हैं... वैसे ही जैसे आज कृषि मंत्री चंद्र कुमार ने किए। वैसे बता दें कि इस बार संगठन की नियुक्तियों के लिए कांग्रेस नया फ़ॉर्मूला इस्तेमाल कर रही है। ऑब्ज़र्वर नियुक्त किए गए थे और इन्हीं की रिपोर्ट के आधार पर संगठन में ताजपोशी होनी है। बताया जा रहा है कि फ़ीडबैक जा चुका है लेकिन आलाकमान की दिल्ली चुनाव में व्यस्तता के कारण संगठन के गठन में विलंब हो रहा था... पर दिल्ली में तो कांग्रेस तीसरी बार भी अपना खाता तक नहीं खोल सकी... दिल्ली में पार्टी की ऐतिहासिक हार पर भी चंद्र कुमार ने खुलकर अपना पक्ष रखा l इसमें कोई दो राय नहीं कि मंत्री चौधरी चंद्र कुमार ने आज अपनी पार्टी के लिए जो कहा है, वही हकीकत है... चंद्र कुमार ने सीधे तौर पर पार्टी की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं... उन्होंने पार्टी को आइना दिखाया है... उम्मीद है कि यह सुगबुगाहट कांग्रेस आलाकमान के कानों तक पहुंचेगी और जल्द ही दिल्ली चुनाव की थकान मिटाकर पार्टी आलाकमान हिमाचल में संगठन के बारे में कुछ सोचेगा l
एक नेता महज़ 26 वोट से चुनाव हार गया... हार नहीं मानी और इस नतीजे को हाईकोर्ट में चुनौती दे डाली... वहां राहत नहीं मिली तो सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया... 2 साल की लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव रद्द कर दिया और दोबारा चुनाव के आदेश दिए... मगर इस बार पार्टी ने उस नेता का ही टिकट काट दिया... इसे ही तो सियासत कहते हैं। साल 2000 में भाजपा नेता और पूर्व मंत्री महेंद्र नाथ सोफत के साथ जो हुआ, वह किसी भी नेता के लिए किसी डरावने सपने से कम नहीं। दरअसल, सोफत साल 1998 के विधानसभा चुनाव में सोलन विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के प्रत्याशी थे। वहीं, कांग्रेस ने कृष्णा मोहिनी को चुनावी रण में उतारा था। मुकाबला बेहद रोमांचक था। मतगणना के बाद पहले भाजपा प्रत्याशी महेंद्र नाथ सोफत को महज़ एक वोट से विजयी घोषित कर दिया गया। लेकिन यह जीत चंद मिनटों की ही मेहमान निकली। कांग्रेस प्रत्याशी कृष्णा मोहिनी ने तुरंत आवेदन दिया और फिर रिकाउंटिंग हुई। इस बार नतीजा पलट गया—अब सोफत हार गए और कृष्णा मोहिनी महज़ 26 वोट से जीत गईं। महेंद्र नाथ सोफत इस हार को स्वीकार नहीं कर पाए। उन्होंने पहले हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में अनियमितताओं को स्वीकार करते हुए फिर से चुनाव करवाने का आदेश दिया। सोफत ने इसे अपनी जीत समझा। लेकिन कहानी में एक और मोड़ था। भाजपा ने 2000 में हुए सोलन उपचुनाव के लिए प्रत्याशी ही बदल दिया। दरअसल, जब तक सोफत यह मुकदमा जीते, तब तक प्रदेश की राजनीति में सब कुछ बदल चुका था। अब प्रदेश की सियासत में शांता कुमार नहीं बल्कि धूमल का दौर था। तो महेंद्र नाथ सोफत की जगह डॉ. राजीव बिंदल को टिकट दे दिया गया। कहा जाता है कि बिंदल को कभी खुद सोफत राजनीति में लेकर आए थे। यानी गुरु गुड़ रह गया और चेला शक्कर हो गया... इस तरह सोफत भाजपा में ठिकाने लगा दिए गए और हिमाचल की सियासत में बिंदल की एंट्री हुई... जो आज भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं।
बहुत कम लोगों को मालूम है कि हिमाचल प्रदेश के छह बार मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह भी एक बार विधानसभा चुनाव हार गए थे। 1990 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। यही नहीं, खुद वीरभद्र सिंह भी जुब्बल-कोटखाई से चुनाव हार गए। लेकिन इसके बावजूद वे विधानसभा पहुंचे। कैसे? आइए जानते हैं... इस चुनाव में वीरभद्र सिंह ने एक नहीं, बल्कि दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ा—शिमला जिले के रोहड़ू और जुब्बल-कोटखाई। इसे हार का डर कहें या अपनी लोकप्रियता पर भरोसा, लेकिन यह हिमाचल प्रदेश की राजनीति का दिलचस्प दौर था। रोहड़ू सीट पर वीरभद्र सिंह ने एकतरफा जीत दर्ज की, लेकिन जुब्बल-कोटखाई में उन्हें मात्र 1500 वोटों से हार का सामना करना पड़ा। दिलचस्प बात ये है की वीरभद्र सिंह को हराने वाले कोई और नहीं, बल्कि पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल थे—वही ठाकुर रामलाल, जिन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाकर वीरभद्र सिंह पहली बार सीएम बने थे। दरअसल, मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद ठाकुर रामलाल को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया था, जिससे वे प्रदेश की राजनीति से दूर हो गए। समय के साथ ठाकुर रामलाल और कांग्रेस के बीच दूरियां बढ़ीं और उन्होंने जनता दल का दामन थाम लिया। 1990 में जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ते हुए ठाकुर रामलाल ने जुब्बल-कोटखाई से वीरभद्र सिंह को हराया। इसी चुनाव में मुख्यमंत्री पद के दूसरे दावेदार शांता कुमार ने भी दो सीटों से चुनाव लड़ा—सुलह और पालमपुर। दिलचस्प बात यह रही कि वे दोनों सीटों से चुनाव जीत गए।
हिमाचल प्रदेश की राजनीति में कई दिलचस्प शख्सियतें हुई हैं, लेकिन इन मंत्री जी का अंदाज बिल्कुल अलग था। ये मंत्री फाइलों पर महज दस्तखत नहीं करते थे, बल्कि अपना स्पष्ट निर्णय भी लिखते थे। हम बात कर रहे हैं यशवंत सिंह परमार की सरकार में मंत्री रहे हरिदास की। हरिदास न सिर्फ अपनी सादगी बल्कि अपने अनोखे फैसलों के लिए भी मशहूर थे। हरिदास अगर किसी प्रस्ताव से सहमत होते, तो लिखते— "मान गया हरिदास", और यदि असहमत होते, तो दो टूक जवाब देते— "नहीं मानता हरिदास"! हरिदास ज़्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं थे, मगर उनका विज़न कमाल का था। उनकी समझ सिर्फ प्रशासन तक सीमित नहीं थी, वे ज़मीन से जुड़े नेता थे। जब उन्हें पता चला कि बिलासपुर और उसके आसपास की मिट्टी में कुछ खास है, तो वे उसका एक ढेला उठाकर विधानसभा पहुँच गए। विधानसभा का माहौल हमेशा की तरह गर्म था। जब हरिदास ने अपनी बात रखनी शुरू की, तो कई लोग मुस्कुराने लगे। उन्होंने मिट्टी का वह ढेला दिखाकर कहा, "इसकी जांच होनी चाहिए। मुझे लगता है कि यह साधारण मिट्टी नहीं है, इसका व्यावसायिक इस्तेमाल हो सकता है!" कुछ विधायकों ने ठहाके लगाए, कुछ ने मजाक में कहा, "मंत्री जी, अब आप मिट्टी में भी संभावनाएँ ढूँढने लगे?" लेकिन हरिदास बिना विचलित हुए अपनी बात पर अडिग रहे। हरिदास की जिद पर आखिरकार मिट्टी की जांच करवाई गई। जब रिपोर्ट आई, तो सभी चौंक गए। यह मिट्टी उच्च गुणवत्ता वाले सीमेंट निर्माण के लिए उपयुक्त थी! जल्द ही इस खोज ने उद्योगपतियों का ध्यान आकर्षित किया। देखते ही देखते बिलासपुर और उसके आसपास के इलाकों में बड़े-बड़े सीमेंट प्लांट लगने लगे। बरमाणा में एसीसी सीमेंट प्लांट और दाड़लाघाट में अंबुजा सीमेंट प्लांट स्थापित हुए, जिससे न केवल हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली, बल्कि हजारों लोगों को रोजगार भी मिला। वही लोग, जो कभी ठाकुर हरिदास की खिल्ली उड़ाते थे, अब उनकी दूरदृष्टि की तारीफ कर रहे थे।
हिमाचल कांग्रेस की तरफ से सीएम सुखविंद्र सिंह सुक्खू बीते दिनों दिल्ली पहुंचे थे और उन्होंने ही प्रचार की रस्म-ए-अदायगी भी की। सीएम सुक्खू स्टार प्रचारकों की लिस्ट में भी थे, जाहिर है इसी के चलते उनका जाना जरूरी था, सो हाजिरी भर दी गई। पर दिल्ली में हिमाचल के अन्य नेताओं की जरूरत कांग्रेस आलाकमान को महसूस ही नहीं हुई। दूसरी तरफ बीजेपी ने हिमाचल के कई नेताओं की दिल्ली में दौड़ लगाए रखी। यूं तो बीजेपी राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और दिल्ली के संगठन मंत्री पवन राणा भी हिमाचल से हैं, पर बीजेपी ने हिमाचल के कई नेताओं को दिल्ली में तैनात किया। सांसद अनुराग ठाकुर, सांसद इंदु गोस्वामी और सांसद सुरेश कश्यप के अलावा विधायक हंसराज, विनोद कुमार और प्रकाश राणा खास पूरे चुनाव में दिल्ली में डटे रहे। चेतन बरागटा को भी दिल्ली में विशेष जिम्मा मिला, जो लगातार दिल्ली में डटे हुए हैं। दरअसल, दिल्ली की कई सीटों पर हिमाचल के लोग निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। कई विधानसभा हलकों में बड़ी संख्या में हिमाचल प्रदेश के लोग रहते हैं, जो केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों, निजी क्षेत्र और अन्य सेवाओं में कार्यरत हैं। इसके अलावा, कई युवा दिल्ली में पढ़ाई और नौकरी के चलते स्थायी रूप से यहीं बस गए हैं। विशेषकर बुराड़ी, मयूर विहार, उत्तम नगर, बदरपुर, संगम विहार, मोती नगर, कोंडली, रोहिणी, आदर्श नगर, जंगपुरा, शाहदरा, नजफगढ़ और विकासपुरी हलकों में हिमाचली वोटर बेहद महत्वपूर्ण हैं। यही कारण है कि इस बार बीजेपी ने मिशन दिल्ली के लिए विशेष 'हिमाचल प्लान' के तहत प्रचार किया। दूसरी तरफ कांग्रेस मानो दिल्ली में जीत के लिए आश्वस्त है, शायद इसलिए न तो पार्टी ने रणनीति बनाने में ज्यादा हाथ-पांव मारे और न अपने नेताओं को ज्यादा कष्ट दिया।
'येन केन प्रकारेण' बीजेपी जीतना चाहेगी तीनों दिग्गजों की सीटें कांग्रेस के संदीप दीक्षित और अलका लाम्बा ने भी बना दिया है चुनाव ! ये चुनाव नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजिए, एक आग का दरियाँ है और डूब के जाना है। कुछ ऐसी ही स्थिति इस बार दिल्ली में आम आदमी पार्टी की नज़र आ रही है। इस बार दिल्ली में आप की राह आसान नहीं है और दिलचस्प बात ये है कि पार्टी के तीनों मुख्य चहेरे, यानी सीएम आतिशी, पूर्व व प्रोजेक्टेड सीएम अरविन्द केजरीवाल और पूर्व डिप्टी व प्रोजेक्टेड डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया भी अपनी -अपनी सीटों पर फंसे देख रहे है । इन तीनों दिग्गजों की सीटों पर इस बार मुकाबला टक्कर का है। 'येन केन प्रकारेण' बीजेपी इन सीटों को जीतना चाहती है और जमीनी स्तर पर इसका असर दिख भी रहा है। सिलसिलेवार बात करें तो नई दिल्ली से, अरविन्द केजरीवाल के सामने बीजेपी और कांग्रेस, दोनों ने पूर्व मुख्यमंत्रियों के पुत्रों को मैदान में उतारा है। बीजेपी से पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा है तो दूसरी तरफ कांग्रेस से पूर्व सीएम शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित। ये दोनों ही दो -दो मर्तबा सांसद भी रहे है और दोनों ने ही पूरी ताकत झोंकी है। ऐसे में इस सीट पर केजरीवाल की राह आसान जरा भी नहीं है। वहीं कालका जी सीट में भी आतिशी और भाजपा प्रत्याशी रमेश बिधूड़ी तो आमने-सामने थे ही, लेकिन इस सीट पर अब कांग्रेस प्रत्याशी अलका लाम्बा भी मजबूती से लड़ रही है। यहाँ भी मुकाबला त्रिकोणीय है और माहिर भविष्यवाणी करने से बचते दिख रहे है। बात मनीष सिसोदिया की करें तो इस बार आप ने उन की सीट बदल दी है और उन्हें पटपड़गंज की जगह जंगपुरा से मैदान में उतारा है। इस सीट पर बीजेपी के तरविंदर सिंह तो बेहद मजबूती के साथ चुनाव लड़ ही रहे है, कांग्रेस के फरहाद सूरी को भी हल्का नहीं लिया जा सकता। माहिर मान रहे है कि सूरी इस सीट पर सिसोदिया संकट में है। चर्चा सिसोदिया की पटपड़गंज सीट की भी करते है जहाँ से इस बार आप ने अवध ओझा को मैदान में उतारा है। यहाँ मुख्य रूप से यहाँ मुकाबला अवध ओझा और बीजेपी से रविंद्र नेगी के बीच माना जा रहा है। पिछले चुनाव में भी नेगी ने सिसोदिया को कड़ी टक्कर दी थी और इस बार भी ओझा यहाँ उलझे दिखे है। बहरहाल कल मतदान है और आठ फरवरी को नतीजा सामने होगा। अब आप के ये तीन दिग्गज इस चुनावी अग्नि परीक्षा को पास करते है या नहीं, ये जनता तय करेगी।
**क्या संगठन की सरदारी को हो रही है प्रेशर पॉलिटिक्स ? **लगातार बगावत थामने में नाकाम हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा ! वीरेंद्र कँवर, रमेश चंद ध्वाला, डॉ राम लाल मारकंडा, राजेश ठाकुर, बलदेव शर्मा, प्रवीण शर्मा, कृपाल परमार, तेजवंत नेगी, ये फेहरिस्त लम्बी है। इन नेताओं में से कुछ पूर्व विधायक रहे कुछ तो मंत्री भी रहे......मगर अधिकांश धूमल गुट से माने जाते है। कोई अब भी भाजपा में है तो कोई बागी हो चुका है। कोई खुलकर नाराजगी व्यक्त कर रहा है, कोई अनुशासन की सीमा में रहकर, तो किसी का मौन भी बहुत कुछ बयां कर रहा है। ये सब, या इनमें से कुछ भी एकसाथ आ जाये तो क्या होगा ? क्या इनका साथ आना मुमकिन है ? कहते है जो सोचा जा सकता है वो सियासत में किया जा सकता है। गजब सियासत है और गजब है हिमाचल में भाजपा का हाल ! 2022 के विधानसभा चुनाव में एक तिहाई सीटों पर भाजपा के बागी चुनाव लड़े और हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा जाती हुई सत्ता को तकते रह गए। फिर 2024 में भाजपा का मिशन लोटस भी हिमाचल में फेल हो गया। तब नेताओं के अतिउत्साह और उतावलेपन को लेकर भी सवाल उठे। तीन निर्दलीयों से इस्तीफा क्यों दिलवाया गया ये अब भी रहस्य बना हुआ है। उपचुनाव हुए तो भाजपा के दो नेता कांग्रेस से लड़कर विधानसभा पहुंच गए, तो तीन ने बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़ा। नतीजन 9 में से 6 सीटों पर हार मिली और एक सीट पर तो जमानत तक नहीं बची। नए नए पार्टी में आये नौ नेता चुनाव लड़ रहे थे और वर्षों पुराने निष्ठावान मुँह तक रहे थे। इतना होने पर भी सत्ता मिल जाती, तो कुछ और बात होती ..मगर भाजपा के हिस्से आई सिर्फ तोहमत और कार्यकर्ताओं की हताशा ! अब मंडल नियुक्तियों में उपेक्षा के आरोप लगते हुए पूर्व मंत्री रमेश चंद ध्वाला ने तेवर दिखाएँ है, नाराज कार्यकर्ताओं की सभा बुलाई है। तीसरे मोर्चे के संकेत देते हुए ध्वाला भाजपा की चिंता बढ़ाते दिख रहे है। संभव है ध्वाला भाजपा के तमाम नाराज नेताओं को एकसाथ लाने की मुहीम में जुटेंगे और यदि ऐसा कर पाए, तो भाजपा में नया बखेड़ा तय है। विशेषकर उन हलकों में जहां भाजपा ने आयातित नेताओं को पुराने निष्ठावानों पर तवज्जो दी है। हालांकि उनके साथ कौन हाथ मिलाता है और कौन इस सब के बाद भी भाजपा में डटा रहता है ये बाद की बात है। वैसे इसको लेकर एक सुगबुगाहट और भी है। एक वर्ग इसे प्रेशर पॉलिटिक्स का पैंतरा भी मानता है, ताकि संगठन की सरदारी उसी गुट के हिस्से आएं जो उपेक्षा का दर्द बयां कर रहा है। क्या ऐसा हो सकता है, ये सियासत है यहाँ कुछ भी मुमकिन है !
1980 में भाजपा के गठन के बाद से हिमाचल में अब तक 13 नेता प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचे है।सतपाल सिंह सत्ती सबसे अधिक दस साल तक भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे, तो खीमीराम शर्मा को सबसे कम कार्यकाल मिला। हालांकि सबसे छोटा कार्यकाल डॉ राजीव बिंदल के नाम है जो वर्तमान में दुरसी बार अध्यक्ष है। साल 2020 में उनका पहला कार्यकाल महज 186 दिन का रहा था। तब कोरोना काल में हुए घोटाले में उनका नाम उछाला और नैतिकता के आधार पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। सिलसिलेवार बात करें तो हिमाचल भाजपा के पहले प्रदेश अध्यक्ष बने ठाकुर गंगाराम जो मंडी से ताल्लुक रखते थे। वे 1984 तक अध्यक्ष रहे। इसके बाद शिमला संसदीय हलके के अर्की से सम्बन्ध रखने वाले नगीनचंद पाल भाजपा के अध्यक्ष बने, और 1986 तक पद पर रहे। 1986 में शांता कुमार हिमाचल भाजपा के अध्यक्ष बने और 1990 का विधानसभा चुनाव भी उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया। शांता कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद कुल्लू के महेश्वर सिंह प्रदेश अध्यक्ष बने और 1993 तक इस पद पर रहे। पर 1993 में भाजपा की शर्मनाक हार के बाद महेश्वर की विदाई हो गई और एंट्री हुई प्रो प्रेम कुमार धूमल की। उनके नेतृत्व में ही भाजपा ने 1998 के विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनाई और धूमल सीएम बने। फिर सुरेश चंदेल दो साल तक प्रदेश अध्यक्ष रहे और साल 2000 से लेकर 2003 तक जयकिशन शर्मा ने प्रदेश अध्यक्ष का पद संभाला। धूमल, सुरेश चंदेल और जयकिशन शर्मा, तीनों ही हमीरपुर संसदीय हलके से थे। साल 2003 में सुरेश भारद्वाज भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बने और 2007 तक इस पद पर रहे। भारद्वाज के बाद दो साल एक लिए जयराम ठाकुर और फिर 2009 से 2010 खीमीराम शर्मा ने पार्टी की कमान संभाली। 2010 में भाजपा अध्यक्ष पद पर सतपाल सिंह सत्ती की ताजपोशी हुई और वे दस साल लगातार अध्यक्ष रहे। सबसे अधिक वक्त तक अध्यक्ष रहने का रिकॉर्ड अब भी सत्ती के नाम है। सत्ती की विदाई के बाद डॉ राजीव बिंदल की ताजपोशी हुई लेकिन कोरोना काल में घोटाले के आरोप के बाद बिंदल को महज 186 दिन बाद ही नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देना पड़ा। ये हिमाचल में किसी भी भाजपा अध्यक्ष का सबसे छोटा कार्यकाल है। बिंदल के बाद सुरेश कश्यप को कमान सौपी गई और अप्रैल 2023 तक कश्यप पार्टी अध्यक्ष रहे। इसके बाद बिंदल की दोबारा बतौर अध्यक्ष एंट्री हुई। अब बिंदल को पार्टी फिर मौका देती है या नहीं, ये सवाल बना हुआ है।
क्या संगठन की सरदारी को हो रही है प्रेशर पॉलिटिक्स? लगातार बगावत थामने में नाकाम हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा! वीरेंद्र कँवर, रमेश चंद ध्वाला, डॉ राम लाल मारकंडा, राजेश ठाकुर, बलदेव शर्मा, प्रवीण शर्मा, कृपाल परमार, तेजवंत नेगी, ये फेहरिस्त लंबी है। इन नेताओं में से कुछ पूर्व विधायक रहे, कुछ तो मंत्री भी रहे... मगर अधिकांश धूमल गुट से माने जाते हैं। कोई अब भी भाजपा में है तो कोई बागी हो चुका है। कोई खुलकर नाराजगी व्यक्त कर रहा है, कोई अनुशासन की सीमा में रहकर, तो किसी का मौन भी बहुत कुछ बयां कर रहा है। ये सब, या इनमें से कुछ भी एकसाथ आ जाए तो क्या होगा? क्या इनका साथ आना मुमकिन है? कहते हैं, जो सोचा जा सकता है, वो सियासत में किया जा सकता है। गजब सियासत है और गजब है हिमाचल में भाजपा का हाल! 2022 के विधानसभा चुनाव में एक तिहाई सीटों पर भाजपा के बागी चुनाव लड़े और हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा जाती हुई सत्ता को तकते रह गए। फिर 2024 में भाजपा का मिशन लोटस भी हिमाचल में फेल हो गया। तब नेताओं के अतिउत्साह और उतावलेपन को लेकर भी सवाल उठे। तीन निर्दलीय से इस्तीफा क्यों दिलवाया गया, ये अब भी रहस्य बना हुआ है। उपचुनाव हुए तो भाजपा के दो नेता कांग्रेस से लड़कर विधानसभा पहुंचे, तो तीन ने बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़ा। नतीजतन 9 में से 6 सीटों पर हार मिली और एक सीट पर तो जमानत तक नहीं बची। नए-नए पार्टी में आए नौ नेता चुनाव लड़ रहे थे और वर्षों पुराने निष्ठावान मुँह तक रहे थे। इतना होने पर भी सत्ता मिल जाती, तो कुछ और बात होती... मगर भाजपा के हिस्से आई सिर्फ तोहमत और कार्यकर्ताओं की हताशा! अब मंडल नियुक्तियों में उपेक्षा के आरोप लगते हुए पूर्व मंत्री रमेश चंद ध्वाला ने तेवर दिखाए हैं, नाराज कार्यकर्ताओं की सभा बुलाई है। तीसरे मोर्चे के संकेत देते हुए ध्वाला भाजपा की चिंता बढ़ाते दिख रहे हैं। संभव है ध्वाला भाजपा के तमाम नाराज नेताओं को एकसाथ लाने की मुहिम में जुटेंगे और यदि ऐसा कर पाए, तो भाजपा में नया बखेड़ा तय है। विशेषकर उन हलकों में, जहाँ भाजपा ने आयातित नेताओं को पुराने निष्ठावानों पर तवज्जो दी है। हालांकि, उनके साथ कौन हाथ मिलाता है और कौन इस सब के बाद भी भाजपा में डटा रहता है, ये बाद की बात है। वैसे इसको लेकर एक सुगबुगाहट और भी है। एक वर्ग इसे प्रेशर पॉलिटिक्स का पैंतरा भी मानता है, ताकि संगठन की सरदारी उसी गुट के हिस्से आए, जो उपेक्षा का दर्द बयां कर रहा है। क्या ऐसा हो सकता है? ये सियासत है, यहाँ कुछ भी मुमकिन है!
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की एक पोस्ट पर विवाद खड़ा हो गया है, जिसके बाद उनके खिलाफ दक्षिण कोलकाता के भवानीपुर थाने में एफआईआर दर्ज कराई गई है। यह विवाद 23 जनवरी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर किए गए एक ट्वीट को लेकर उत्पन्न हुआ। राहुल गांधी ने इस पोस्ट में नेताजी की मौत की तारीख का जिक्र किया था, जो कई लोगों के अनुसार विवादास्पद था। राहुल गांधी के इस बयान को लेकर अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने कड़ी आपत्ति जताई और एफआईआर दर्ज कराने की मांग की। इसके बाद संगठन के कार्यकर्ताओं ने कोलकाता के एल्गिन रोड स्थित नेताजी के पैतृक घर के पास प्रदर्शन भी किया, जिसमें उन्होंने राहुल गांधी के बयान को लेकर अपना विरोध जताया। हिंदू महासभा के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रचूड़ गोस्वामी ने आरोप लगाया कि राहुल गांधी और उनके परिवार ने हमेशा नेताजी की विरासत को नजरअंदाज किया है। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी की यह पोस्ट नेताजी के बारे में गलत जानकारी देने की एक और कोशिश है, जिसे देश के लोग स्वीकार नहीं करेंगे। यह विवाद और गहरा हुआ जब राहुल गांधी ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर 18 अगस्त 1945 को नेताजी की मौत की तारीख बताई। हालांकि, नेताजी की मृत्यु की सही तारीख को लेकर कई सवाल हैं, क्योंकि इस संबंध में अब तक कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल सका है। इस विवाद के बाद, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक, तृणमूल कांग्रेस और भाजपा जैसे राजनीतिक दलों ने भी राहुल गांधी के बयान की आलोचना की है। जानिए क्या है पूरा मामला यह विवाद इस सप्ताह के शुरुआत में हुआ था, जब राहुल गांधी ने अपने एक्स अकाउंट पर एक पोस्ट में नेताजी की मृत्यु की तारीख 18 अगस्त 1945 बताई। यह वही तारीख थी जब नेताजी का विमान ताइहोकू (जो अब ताइपे में है) में दुर्घटनाग्रस्त हुआ था। हालांकि, नेताजी की मृत्यु की सही तारीख की कभी भी पुष्टि नहीं हो पाई और उनके गायब होने के बाद बने आयोगों ने भी इसकी पुष्टि नहीं की। ऐसे में राहुल गांधी नेताजी की मृत्यु की तारीख कैसे तय कर सकते है।
कहा , मित्रों को इक्कठा करके बताएँगे राजनीति क्या होती है तो कांगड़ा में बढ़ सकती है भाजपा की मुश्किलें भाजपा से खफा पूर्व मंत्री एवं विधायक रमेश चंद ध्वाला कांगड़ा में गरजने की हुंकार भर रहे है। ध्वाला तीसरे मोर्चे का या यूँ कहे भाजपा विरोधी मोर्चे का संकेत दे रहे है। भाजपा को खुली चुनौती दे रहे है की मित्रों को इक्कठा करके बताएँगे, राजनीति क्या होती है। दरअसल, कांगड़ा में भाजपा के नाराज नेताओं में अकेले ध्वाला नहीं है, और भी कई नेता है जो हाशिये पर है। ये फहरिस्त लम्बी है। कुछ समय पूर्व भी इन नेताओं के एक होने की चर्चा थी, और अब फिर ध्वाला ने इन कयासों को हवा दे दी है। सूत्रों की माने तो इस फेहरिस्त में ध्वाला के अलावा कई वरिष्ठ नेता और पूर्व विधायक बताये जा रहे है। यदि ऐसा होता है तो कांगड़ा में भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती है। एक दौर था जब रमेश चंद ध्वाला हिमाचल भाजपा के लिए नायक थे। 1998 में धूमल सरकार बनाने में उनकी भूमिका भला कौन भूल सकता है। पर ये ही ध्वाला बीते करीब सात साल से भाजपा से खफा- खफा है। दरअसल जयराम ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने के बाद ध्वाला को कैबिनेट में एंट्री नहीं मिली थी। इसके बाद से ही ध्वाला की टीस दिखने लगी थी। फिर पूर्व में संगठन मंत्री रहे पवन राणा के साथ उनकी सियासी खींचतान भी खूब सुर्खियों में रही। हालांकि धूमल गुट के असर के चलते 2022 में उन्हें टिकट तो मिल गया, लेकिन चुनाव हारने के बाद भाजपा में ध्वाला साइडलाइन ही दिखे है। विशेषकर होशियार सिंह की भाजपा में एंट्री और फिर उपचुनाव में होशियार को ही टिकट दिए जाने के बाद ये खाई बढ़ती दिखी है। इस बीच भाजपा संगठन में भी नई नियुक्तियां हुई है और पार्टी ने ज्वालामुखी और देहरा, दोनों ही हलकों में उनके समर्थकों को तरजीह नहीं दी है। बहरहाल, रमेश चंद ध्वाला भाजपा पर भड़ास भी निकाल रहे है और अपनी ही पार्टी को चुनौती भी दे रहे है। निशाने पर कौन कौन है, ये सब जानते है। ध्वाला राजनीति के माहिर खिलाड़ी है और सियासी शतरंज के सभी दांव पेंचों से भली भांति वाकिफ भी। सियासत का उनका अपना अलग सलीका है, बेबाक सलीका। इसलिए, वो बगैर नापे तोले उपेक्षा का दर्द भी बयां कर रहे है, अपना योगदान भी स्मरण करवा रहे है, पार्टी को आइना भी दिखा रहे है और अपनी जमीनी कुव्वत का अहसास भी करवा रहे है। आप ध्वाला को पसंद करें या नापसंद करे लेकिन खारिज नहीं कर सकते। आज भी ध्वाला हिमाचल की राजनीति में बड़ा ओबीसी चेहरा है विशेषकर कांगड़ा में और कई सीटों पर प्रभाव रखते है।देहरा और ज्वालामुखी में तो उनका सीधा असर दीखता है। ऐसे में उनकी टीस भाजपा के लिए जरा भी मुफीद नहीं है। हालांकि संगठन की नई नियुक्तियों में भाजपा का जातीय डैमेज कण्ट्रोल दीखता है, फिर भी उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। सवा तीन साल में भाजपा को मिली हार पर हार हिमाचल में भाजपा के लिए बीते तीन साल में कुछ भी अच्छा नहीं घटा है। विधानसभा चुनाव हो या उपचुनाव, पार्टी को मिली है सिर्फ हार पर हार। बीते तीन सवा तीन साल में पार्टी ने सत्ता तो गवाईं ही है, पार्टी विधानसभा के एक बारह में से सिर्फ तीन उपचुनाव ही जीत सकी है। इस पर पूर्व कांग्रेसी और निर्दलीयों के पार्टी में आने के बाद एक और खेमा बनने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में कार्यकर्त्ता का मनोबल टूटना लाजमी है। अब अगर अगर कांगड़ा में भाजपा से रूठे नेताओं का अलग मोर्चा बनता है तो तय मानिये इसकी भरपाई भाजपा के मुश्किल होगी।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व सांसद प्रतिभा सिंह ने भाजपा नेताओं की आलोचना करते हुए कहा कि वे प्रदेश के जनमत का अपमान कर रहे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रदेश के लोगों ने कांग्रेस को पूर्ण बहुमत देकर सरकार चुनी है, ऐसे में भाजपा का विरोध प्रदर्शन कांग्रेस सरकार के खिलाफ जनमत का अपमान है। प्रतिभा सिंह ने कहा कि कांग्रेस सरकार ने अपने दो साल के कार्यकाल में पांच प्रमुख गारंटियों को पूरा किया है, और बाकी गारंटियों को भी चरणबद्ध तरीके से पूरा किया जाएगा। उन्होंने मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री के नेतृत्व में सरकार द्वारा किए गए कार्यों की सराहना की और कहा कि सरकार अच्छे कामों के साथ प्रदेश में विकास को आगे बढ़ा रही है। उन्होंने आगामी बिलासपुर रैली को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि इस रैली में कांग्रेस सरकार अपने दो साल का लेखा-जोखा जनता के सामने रखेगी और आगामी योजनाओं का खाका भी प्रस्तुत करेगी। इसके अलावा, उन्होंने भाजपा को निशाने पर लेते हुए कहा कि प्रदेश का विकास भाजपा को रास नहीं आ रहा है, यही वजह है कि वह अनावश्यक बयानबाजी कर रही है और लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रही है। प्रतिभा सिंह ने कहा कि भाजपा की आक्रोश रैलियां पूरी तरह से असफल हो रही हैं, क्योंकि इन्हें कोई जन समर्थन नहीं मिल रहा है। उन्होंने भाजपा से अपील की कि वह अपने राजनैतिक हितों के लिए प्रदेश के विकास में बाधा न डाले। कांग्रेस सरकार, जो केंद्र से कोई विशेष सहयोग न मिलने के बावजूद सीमित संसाधनों से प्रदेश के विकास को गति दे रही है, अपने कार्यकाल को सफलता पूर्वक पूरा करेगी और अपने सभी वादों को पूरा करेगी।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बड़ा ऐलान कर दिया है. उन्होंने अगले दो दिन में सीएम के पद से इस्तीफा देने की घोषणा की है. उन्होंने कहा कि अगले दो दिन में विधायक दल की बैठक होगी और नए मुख्यमंत्री का चयन किया जाएगा. अगला सीएम भी आम आदमी पार्टी से ही कोई होगा. सीएम अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं और जनता को संबोधित करते हुए कहा, "जब तक जनता की अदालत में जीत नहीं जाता हूं, तब तक मैं सीएम नहीं बनूंगा. मैं चाहता हूं कि दिल्ली का चुनाव नवंबर में हो. जनता वोट देकर जिताए, उसके बाद मैं सीएम की कुर्सी पर बैठूंगा." 'ना झुकेंगे ना रुकेंगे और ना बिकेंगे'- CM केजरीवाल आप कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा, "जनता के आशीर्वाद से बीजेपी के सारे षड्यंत्र का मुकाबला करने की ताकत रखते हैं. बीजेपी के आगे हम ना झुकेंगे, ना रुकेंगे और ना बिकेंगे. आज दिल्ली के लिए कितना कुछ कर पाए क्योंकि हम ईमानदार हैं. आज ये (बीजेपी) हमारी ईमानदारी से डरते हैं क्योंकि ये ईमानदार नहीं है." मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आगे कहा, "मैं 'पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा' इस खेल का हिस्सा बनने नहीं आया था. दो दिन बाद मैं CM पद से इस्तीफा दे दूंगा. कानून की अदालत से मुझे इंसाफ मिला, अब जनता की अदालत मुझे इंसाफ देगी." 'हमारे बड़े-बड़े दुश्मन हैं' सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा कि उन्हें वॉर्निंग दी गई कि अगर दूसरी बार लेटर लिखा तो जेल में फैमिली से मुलाकत बंद कर दी जाएगी. सीएम ने कहा, "हमारे बड़े-बड़े दुश्मन हैं. सत्येंद्र जैन और अमानतुल्ला खान भी जल्द बाहर आएंगे. हम लोगों के ऊपर भगवान भोलेनाथ का हाथ है, उनका आशीर्वाद साथ रहता है." अरविंद केजरीवाल ने कहा कि वे जनता के बीच जाएंगे औऱ जनता की अदालत उनके मुख्यमंत्री होने या न होने का फैसला करेगी। आम आदमी पार्टी की रैली को संबोधित करते हुए केजरीवाल ने कहा कि वे जनता के बीच जाएंगे। वे जनता से पूछेंगे कि आप मुझे ईमानदार मानते हो भ्रष्ट। जनता के फैसले के बाद ही वे आगे कोई निर्णय करेंगे।
**संशोधन कर सभी 6 पूर्व कांग्रेसी विधायकों की मौजूदा टर्म की पेंशन बंद करने की कवायद में जुटी सरकार **बगैर पेंशन रह जायेंगे एक बार के विधायक चैतन्य और देवेंद्र भुट्टो मुख़ालिफ़त से मिरी शख़्सियत सँवरती है मैं दुश्मनों का बड़ा एहतिराम करता हूँ 6 पूर्व कांग्रेसी विधायकों की मुखालफत के बावजूद सरकार बचाकर सीएम सुक्खू ने अपनी शख़्सियत तो संवार ली लेकिन इन नेताओं पर कोई एहतिराम करने का उनका इरादा नहीं है. तथाकथित मिशन लोटस के तहत सरकार गिराने की साजिश की जांच से तो उक्त सभी 6 और तीन पूर्व निर्दलीय विधयक गुजर ही रहे है, मगर अब सुक्खू सरकार ने कांग्रेस के 6 पूर्व विधयाकों की पेंशन बंदी की तैयारी भी कर ली है. दरअसल, मंगलवार को सदन में विधानसभा सदस्यों के भत्ते एवं पेंशन अधिनियम 1971 में संशोधन का प्रावधान लाया गया और आज संभवतः ये पास भी हो जाएगा. 68 सदस्यों वाली हिमाचल विधानसभा में कांग्रेस के 40 विधायक है, ऐसे में इस संशोधन बिल को पास करने में सत्तारूढ़ दल को कोई परेशानी नहीं होगी. फिर मंजूरी के लिए इसे राज्यपाल के पास भेजा जायेगा और उनकी मंजूरी मिलते ही ये कानून का रूप ले लेगा. अयोग्य घोषित विधायकों की पेंशन बंद करने का यह देश में ऐसा पहला कानून होगा. दरअसल, राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के 6 पूर्व विधायकों ने क्रॉस वोट किया था, जिसके चलते बहुमत होने के बावजूद सत्तारूढ़ कांग्रेस के प्रत्याशी अभिषेक मनु सिंघवी चुनाव हार गए थे. सुक्खू सरकार की जमकर किरकिरी तो हुई ही थी, सरकार पर भी संकट मंडराने लगा था. क्रॉस वोट के बाद इन 6 विधायकों पर पार्टी व्हिप के उल्लंघन के आरोप भी लगे और विधानसभा अध्यक्ष ने इन्हे संविधान की अनुसूची 10 के तहत अयोग्य घोषित कर दिया. उक्त सभी 6 विधायक फिर विधिवत रूप से भाजपाई हो गए और उपचुनाव में भाजपा का टिकट भी ले आएं. किन्तु इनमें से सिर्फ दो, सुधीर शर्मा और इंद्र दत्त लखनपाल ही वापस जीतकर विधानसभा पहुंचे. राजेंद्र राणा, रवि ठाकुर , देवन्द्र भुट्टो और चैतन्य शर्मा चुनाव हार गए. अब सुक्खू सरकार मन बना चुकी है कि विधानसभा सदस्यों के भत्ते एवं पेंशन अधिनियम में संशोधन कर इन सभी 6 विधायकों की मौजूदा टर्म की न सिर्फ पेंशन बंद कर दी जाएँ बल्कि इन के द्वारा अब तक ली गई रकम की रिकवरी भी हो. ऐसे में 2022 में पहली बारे चुने गए चैतन्य शर्मा और देवन्द्र भुट्टों की पेंशन बंद हो जाएगी, जबकि अन्य चार पूर्व कांग्रेसी विधायकों की मौजूदा टर्म की पेंशन बंद होगी. वहीँ, तीन अन्य पूर्व निर्दलीय विधायक इसके दायरे में नहीं आएंगे.
**विधानसभा अध्यक्ष ने तीनों के इस्तीफे किए स्वीकार हिमाचल प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष कुलदीप सिंह पठानिया ने तीन निर्दलीय विधायकों होशियार सिंह, केएल ठाकुर और आशीष शर्मा के इस्तीफे स्वीकार कर दिए हैं। सोमवार को पत्रकारों से बातचीत में विधानसभा अध्यक्ष ने इसकी जानकारी दी। पठानिया ने कहा कि होशियार सिंह, केएल ठाकुर और आशीष शर्मा से ने 22 मार्च को विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था। 23 मार्च को तीनों भाजपा में शामिल हो गए थे। इस संबंध में दल-बदल विरोधी कानून तहत जगत नेगी की याचिका मिली थी और विधानसभा ने भी अपनी ओर से जांच की। जांच के बाद अब तीनों के इस्तीफे स्वीकार कर दिए हैं और आज से तीनों विधानसभा के सदस्य नहीं रहे। पठानिया ने कहा कि हालांकि, दल-बदल विरोधी कानून के तहत मिली याचिका की अंतिम सुनवाई अभी होनी है। उधर, निर्दलियों के इस्तीफे स्वीकार होने के बाद खाली हुई देहरा, नालागढ़ और हमीरपुर विधानसभा सीटों पर उपचुनाव का रास्ता भी साफ हो गया है।
हिमाचल हाईकोर्ट में आज सरकार को गिराने के लिए षड़यंत्र रचने के केस में सुनवाई हुई। इस दौरान हाईकोर्ट ने गगरेट से कांग्रेस के बागी विधायक चैतन्य शर्मा के पिता राकेश शर्मा और हमीरपुर से इंडिपेंडेंट MLA आशीष शर्मा की अग्रिम जमानत 26 अप्रैल तक बढ़ा दी है। राकेश शर्मा और आशीष शर्मा ने केस को वापस लेने के लिए भी याचिका दायर की है। कोर्ट ने आशीष शर्मा और राकेश शर्मा की पिटीशन का सरकार से भी 26 अप्रैल तक जवाब मांगा है। बता दें कि कांग्रेस के बागी पूर्व MLA चैतन्य शर्मा के पिता उत्तराखंड सरकार से रिटायर मुख्य सचिव है। कांग्रेस विधायक संजय अवस्थी और भुवनेश्वर गौड़ ने बालूगंज थाना में एफआईआर कराई है। इसमें आशीष शर्मा और राकेश शर्मा पर सरकार गिराने के लिए षड़यंत्र रचने का आरोप है। इसी मामले में दोनों ने हिमाचल हाईकोर्ट से अग्रिम जमानत ले रखी है। आज इनकी अग्रिम जमानत 26 अप्रैल तक बढ़ाई गई है। इन पर आरोप है कि इन्होंने राज्यसभा चुनाव में सरकार गिरने के लिए षड्यंत्र रचा और विधायकों की खरीद-फरोख्त भी की। आशीष शर्मा और राकेश शर्मा पर करोड़ों रुपए के लेन-देन के आरोप लगाए हैं हालांकि अब तक ये आरोप साबित नहीं हो पाए है ।
कहा, 4 फरवरी तक होंगे 'गांव चलो अभियान' के तहत कार्यक्रम लोकसभा चुनावों को लेकर कार्यकर्ताओं को दिए चुनावी टिप्स प्रदेश भर के 7 हजार 990 पोलिंग बूथों पर पार्टी नेतृत्व पहुंचाने का काम करेगी बीजेपी प्रदेश में भाजपा ने लोकसभा चुनावों को लेकर तैयारियां करना शुरू कर दी हैं। इसी को लेकर पार्टी पदाधिकारियों को चुनावों के लिए टिप्स देने के लिए हमीरपुर में प्रदेश किसान मोर्चा पदाधिकारियों की बैठक का आयोजन किया गया। जिसमें भाजपा के द्वारा गांव चलो अभियान के तहत जनसंपर्क करने के लिए रणनीति बनाई गई। बैठक के दौरान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ. राजीव बिंदल ने शिरकत की। इस अवसर पर भाजपा पार्टी के मंडल अध्यक्ष, किसान मोर्चा के पदाधिकारी, पन्ना प्रमुखों के द्वारा ठोस रणनीति बनाई जा रही है। उक्त अभियान 4 फरवरी तक पूरे प्रदेश भर में पार्टी के द्वारा चलाया जा रहा है। बिंदल ने कहा कि प्रदेश भर के सभी बूथों पर पार्टी का नेतृत्व पहुंचे। इसी के चलते भाजपा गांव चलो अभियान शुरू किया है। जिसके तहत प्रदेश भर के सात हजार 990 पोलिंग बूथों पर पार्टी नेतृत्व पहुंचने के लिए काम किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि 4 फरवरी तक प्रदेश भर में अभियान के तहत बैठकों का आयोजन किया जा रहा है। बिंदल ने कांग्रेस सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि कांग्रेस के मंत्री झूठ बोलते हैं और प्रदेश में कांग्रेस सरकार का 13 माह का कार्यकाल पूरी तरह से विफल रहा है। उन्होंने कहा कि एक भी काम प्रदेश सरकार ने जनहितैषी नहीं किया है और अपनी नालायकी की ठीकरा केंद सरकार पर फोड़ने में लगे हुए हैं। बिंदल ने कहा कि कांग्रेस सरकार झूठों की सरकार है और केंद्र से पैसों को लेने का हिसाब तक नहीं देते हैं। बिंदल ने पूछा कि आपदा के दौरान कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व कहां रहा है, वहीं बीजेपी के कई बड़े नेता हिमाचल आए हैं और अरबों करोड़ रुपये हिमाचल को दिए हैं। बिंदल ने कहा कि जेडीयू भाजपा का नेचुरल एलायड है और नितीश कुमार भााजपा के साथ अटल के समय से जुड़े हुए हैं । उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी ही भविष्य में देश को संभाल सकते हैं, ऐसे दृष्टिकोण से नीतीश कुमार फिर से भाजपा के साथ हैं ।
अयोध्या के राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम से कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने दूरी बनाई है। कांग्रेस का राम मंदिर में न जाने को लेकर कहना है कि यह चुनावी, राजनीतिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस का कार्यक्रम है। कांग्रेस का कहना है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी ने 22 जनवरी के कार्यक्रम को पूरी तरह से राजनीतिक और 'नरेंद्र मोदी फंक्शन' बना दिया है। यह चुनावी कार्यक्रम है और इसके जरिए चुनावी माहौल तैयार किया जा रहा है। जाहिर है राजनैतिक चश्मे से देखे तो राम मंदिर निर्माण का श्रेय बीजेपी को जाता है और बीजेपी भी इस भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। उधर, कांग्रेस को कहीं न कहीं अंदाजा है कि लोगों में दिख रहा उत्साह अगर वोट में तब्दील हुआ तो उसकी राह मुश्किल होगी। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस के पास फिलहाल कोई चारा नहीं है। हालांकि माहिर मान रहे है कि 22 जनवरी के बाद विपक्ष के कई बड़े चेहरे अयोध्या में शीश नवाते दिखेंगे। विदित रहे कि कांग्रेस सांसद और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के साथ-साथ सोनिया गांधी को भी राम मंदिर आने का न्योता दिया गया था। इसके साथ-साथ लोकसभा सांसद अधीर रंजन चौधरी को भी बुलावा भेजा गया था। हालांकि, तीनों ने समारोह में नहीं जाने का फैसला लिया है। कांग्रेस ने भाजपा पर इस समारोह को राजनीतिक रंग देने के आरोप लगाए हैं। पार्टी ने मुहूर्त पर सवाल खड़ा करने वाले शंकराचार्य के बयान को आधार बनाकर 22 जनवरी को होने वाली प्राण प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े किए हैं। पार्टी का कहना है कि समारोह राष्ट्रीय एकजुटता के लिए होना चाहिए। अयोध्या न जाने का फैसला लेने वाले कद्दावर नेताओं में शरद पवार का नाम भी शामिल है। उन्होंने कहा है कि 22 जनवरी के समारोह में अयोध्या में काफी भीड़ होगी। ऐसे में वे मंदिर निर्माण पूरा होने के बाद रामलला के दर्शन करेंगे। सपा चीफ अखिलेश यादव और दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल भी आयोजन में शामिल नहीं हो आरहे हैं। पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव भी आयोजन में न जाने का निर्णय लिया हैं। इनके अलावा वाम दल के महासचिव सीताराम येचुरी सहित कई लेफ्ट के नेताओं ने भी आयोजन से दूरी बनाई है। बीजेपी का तंज, कहीं जनता फिर कांग्रेस का बहिष्कार न कर दें ! केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का कहना हैं कि, " कांग्रेस ने नए संसद भवन और प्रधानमंत्री के संबोधन का बहिष्कार किया और लोगों ने उनका बहिष्कार कर दिया। अब उन्हें लगता है कि वे प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार कर सकते हैं लेकिन हो सकता है कि लोग उनका फिर से बहिष्कार कर दें। कांग्रेस और उसके गठबंधन सहयोगियों ने भगवान राम के अस्तित्व को नकारने और हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। विपक्ष के नेता बयान दे रहे हैं और प्राण प्रतिष्ठा समारोह से दूरी बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें भगवान राम के सामने आखिरकार आत्मसमर्पण करना होगा। कई कांग्रेस नेता पूर्व पार्टी प्रमुख राहुल गांधी की बात नहीं मान रहे और अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल हो रहे हैं।"
2024 के चुनावी भवसागर को पार करने के लिए भाजपा राम नाम की नौका पर सवार दिख रही है। भाजपा के सियासी उदय में राम नाम सदा साहरा रहा है। राम नाम लेकर ही भारतीय जनता पार्टी फर्श से अर्श तक पहुंच गई। 1984 में भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा था और महज 2 सीटों पर सिमट गई थी। वहीँ भाजपा आज देश की 300 से ज्यादा लोकसभा सीटों पर राज करती है। अब लोकसभा चुनाव दस्तक दे चुके है और इस बीच अयोध्या में श्री राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठता के चलते देश में राम लहर चली है और माहिर मान रहे है भाजपा को इसका सियासी लाभ होना तय है। यूँ तो भाजपा 1986 में लालकृष्ण आडवाणी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद से ही हिन्दुत्त्व और राममंदिर के मुद्दे पर आक्रमक हो गई थी लेकिन औपचारिक तौर पर पार्टी ने राममंदिर बनाने का संकल्प लिया 1989 में हुई पालमपुर की राष्ट्रीय कार्यसमिति बैठक में। इन 35 सालों में भगवा दल ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सर्वविदित है कि भारतीय जनता पार्टी के अतीत का संघर्ष लंबा है, जिसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जनसंघ से लेकर अटल बिहारी वाजपाई और लालकृष्ण आडवाणी का संघर्ष रहा है। शून्य से शिखर तक पहुंचने वाली भाजपा का सियासी सफर काफी कठिनाइयों वाला रहा है, लेकिन हर बार भाजपा के लिए राम नाम एक सहारा बना है। जाहिर है मौजूदा वक्त में भी राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठता आयोजन ने देश का सियासी माहौल भी प्रभावित किया है। देश राम रंग में सराबोर हैं और राजनैतिक चश्मे से देखे तो भाजपा भी इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। दरअसल, ये गलत भी नहीं है क्यों कि राजनैतिक फ्रंट पर राम मंदिर निर्माण के संघर्ष की अगुआई भी भाजपा ने ही की है, सो श्रेय लेना राजनैतिक लिहाज से गलत भी नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा 'हिंदू नवजागरण काल' को एक बड़े मुद्दे के रूप में पेश करेगी और राम मंदिर इसका प्रतीक बनेगा। अब इसका कितना लाभ चुनाव में भाजपा को मिलेगा ये तो नतीजे तय करेंगे, पर निसंदेह राम मंदिर के जरिये बीजेपी ने देश के 80 प्रतिशत मतदाताओं को प्रभावित जरूर किया है। दो वादे पुरे, समान नागरिक सहिंता शेष भाजपा के तीन बड़े लक्ष्य रहे है, धारा 370 हटाना, राम मंदिर बनाना और समान नागरिक सहिंता लागू करना। ये कहना गलत नहीं होगा कि इन्हीं तीन वादों की बिसात पर भाजपा का काडर मजबूत हुआ। पार्टी ने हमेशा इन तीन विषयों पर खुलकर अपना पक्ष भी रखा और अपना वादा भी दोहराया। इनमें से भाजपा दो वादे पुरे कर चुकी है, कश्मीर से धारा 370 हटाई जा चुकी है और अब राम मंदिर का निर्माण भी हो गया है। अब सिर्फ समान नागरिक सहिंता लागू करने का भाजपा का वादा अधूरा है और पार्टी इसे लागू करने की प्रतिबद्धता दोहरा रही है। 400 सीट जीतने का लक्ष्य भाजपा को उम्मीद है कि राम लहर के बीच वो आगामी चुनाव में 400 सीट का लक्ष्य हासिल करेगी। पार्टी राम मंदिर के अलावा लाभार्थी वोट और महिला आरक्षण की बिसात पर ऐतिहासिक बहुमत हासिल करना चाहती है। हालहीं में हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा को हिंदुत्व एजेंडा का लाभ मिला है जिसके बाद पार्टी का जोश हाई है।
90 साल के शांता कुमार को याद है एक -एक बात बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद एक विधायक ले आया था ईंट का टुकड़ा ! अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए बीजेपी ने पोलिटिकल फ्रंट पर लम्बी लड़ाई लड़ी है। यूँ तो 1986 में लाल कृष्ण आडवाणी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद से ही बीजेपी राम मंदिर आंदोलन में कूद पड़ी थी लेकिन राम मंदिर बनाने का प्रस्ताव बीजेपी ने पास किया था जून 1989 में और जगह थी पालमपुर। उस वक्त बीजेपी राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक पालमपुर में हुई और मेजबानी की तब के प्रदेश अध्यक्ष शांता कुमार ने। इसके बाद राम मंदिर निर्माण भाजपा की प्रतिबद्धता बना गया और आंदोलन को राजनैतिक ताकत मिल गई। बीजेपी के इस संकल्प का पालमपुर साक्षी है और आज 35 साल बीत जाने के बाद भी 90 वर्षीय शांता कुमार को राम मंदिर निर्माण के इस अहम पड़ाव की हर बात बखूबी याद है। उस वक्त बीजेपी राष्ट्रीय कार्यसमिति में 100 से अधिक सदस्य थे, कांगड़ा में हवाई कनेक्टिविटी नहीं थी, पालमपुर भी आज की माफिक सुविधाएँ भी नहीं थी। नेताओं को पठानकोट से पालमपुर लाया गया, उनके रहने सहित अन्य सभी आवश्यक प्रबंध किये गए। आखिरकार कार्यसमिति की बैठक में राममंदिर बनाने का संकल्प लिया गया और पालमपुर बीजेपी के उस ऐतिहासिक निर्णय का साक्षी बना। दिलचस्प बात ये है कि तब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और सीएम थे वीरभद्र सिंह। शांता कुमार कहते है कि जब पार्टी आलाकमान ने पालमपुर में राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक आयोजित करने की बात कही तो एक बार तो उन्हें लगा कि ये कैसे होगा। पर फिर ठान लिया और हो गया। उन्होंने तब वीरभद्र सिंह से बात की और वीरभद्र सिंह ने पूर्ण सहयोग का वादा किया और निभाया भी। जून 1989 में पालमपुर में हुई बीजेपी राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में राममंदिर निर्माण का प्रस्ताव पास हुआ था। तब बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने बैठक में राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव रखा था। स्वाभाविक है बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं में इस विषय को लेकर पहले ही एकराय बन चुकी थी। उस बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी ने सबसे पहले आडवाणी एक प्रस्ताव का समर्थन किया था। शांता कुमार बताते है कि तब अटल बिहारी वाजपेयी खड़े हुए और सबके पहले आडवाणी के प्रस्ताव का समर्थन किया। इसके बाद अटल जी ने कहा " इससे बड़ा दुर्भाग्य कोई नहीं हो सकता कि प्रभु श्री राम का मंदिर 500 साल से नहीं बन सका। अब इस काम का जिम्मा भारतीय जनता पार्टी ने उठाया है और हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक मंदिर नहीं बन जाता। " 1989 में पालमपुर में बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा है। दरअसल बैठक में हिस्सा लेने ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया भी पहुंची थी। राजमाता तब पालमपुर के सेशंस हाउस में ठहरी थी। इस बीच 4 जून 1989 को रविवार था। राजमाता सिंधिया ने बीजेपी के एक कार्यकर्त्ता से पूछा कि क्या यहाँ टीवी नहीं है क्या ? जवाब मिला, "नहीं"? फिर उनका अगला सवाल था कि क्या शांता कुमार जी के घर होगा ? जवाब आया, "हाँ"। राजमाता ने कहा कि फिर चलो शांता कुमार जी के घर, मुझे महाभारत देखनी है। इसके बाद वे पैदल ही शांता कुमार के घर पहुंची और वहां महाभारत का एपिसोड देखा। तब शांता कुमार कुमार के घर में ही तमाम दिग्गज नेताओं के लिए कांगड़ी धाम का आयोजन किया गया था , वो भी कांगड़ी अंदाज में। 1990 के दशक की शुरुआत में देश में राम जन्मभूमि आंदोलन चरम पर था। लाखों कारसेवक अयोध्या पहुंचे थे। हिमाचल प्रदेश में शांता कुमार प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बना चुके थे और हिमाचल से भी काफी संख्या में कारसेवक अयोध्या पहुंचे। शांता कुमार कुमार बताते है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिमाचल के एक विधायक ईंटे का टुकड़ा लेकर आएं थे। बहरहाल , करोड़ों राम भक्तों का इन्तजार खतम हो गया है। श्री राम का वनवास खत्म हो गया है। राम जन्भूमि आंदोलन में पालमपुर में बीजेपी कार्यसमिति की बैठक एक अहम पड़ाव है। पालमपुर भी उत्सव के लिए तैयार है। 22 जनवरी के दिन पालमपुर नगरी भी अयोध्या होगी।
तीनों दिग्गजों को नहीं मिला है कोई अहम जिम्मा तीनों का रुख साफ, सभी को कद के मुताबिक मिले पद सुधीर शर्मा, राजेंद्र राणा और कुलदीप राठौर...हिमाचल प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस के तीन विधायक, तीनों दिग्गज और तीनों हाशिये पर। सत्ता मिलने से पहले तीनों का मंत्रिपद मानो तय था, पर सियासत की फितरत ही कुछ ऐसी होती है, जो लगता है वो होता नहीं। सत्ता तो आई पर समीकरण कुछ यूँ बने और उलझे कि ये तीनों दिग्गज भी उलझ कर रह गए। इन तीनों का असंतोष भी सामने आता रहा है, किसी का मीडिया बयानों में, किसी का सोशल मीडिया पर तो किसी का इशारों-इशारों में। दिलचस्प बात ये है कि इनका असंतोष तो कांग्रेस के लिए चिंता का सबब है ही, इनकी खमोशी भी पार्टी को असहज करने वाली है। इनके कदम सुक्खू सरकार की चाल से नहीं मिले तो लोकसभा चुनाव में भी इसका खामियाजा तय मानिये। बहरहाल अंदर की खबर ये है कि इन तीनों नेताओं को साधने के लिए दिल्ली में विशेष रूप से मंथन हुआ है। हालांकि तीनों का रुख साफ है, कद के मुताबिक पद मिले। बहरहाल इन तीनों ही नेताओं को भले ही अब तक सत्ता में कोई अहम जिम्मा या भागीदारी न मिली हो, लेकिन सच ये है कि इन्हें दरकिनार भी नहीं किया जा सकता। कम से कम पार्टी आलाकमान ये जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं दीखता। माहिर मानते है कि ऐसे में मुमकिन है कि बीच का कोई रास्ता निकाल कर पार्टी आलाकमान संभावित डैमेज को कण्ट्रोल करने हेतु हस्तक्षेप करें। चार बार के विधायक और पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा जिला कांगड़ा में पार्टी का बड़ा चेहरा है। पूर्व की वीरभद्र सरकार में सुधीर मंत्री थे और उन्हें वीरभद्र सिंह का सबसे करीबी माना जाता था। कहते है तब उनकी रज़ा में ही वीरभद्र सिंह की रज़ा होती थी। ये सुधीर का ही सियासी बल था कि तब चाहे नगर निगम की लड़ाई हो, स्मार्ट सिटी या फिर धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने का निर्णय, धर्मशाला हर जगह बाजी मार गया। तब कुछ माहिर तो उन्हें कांग्रेस में वीरभद्र सिंह का उत्तराधिकारी भी कहने लगे थे। फिर सियासी गृह चाल कुछ यूँ बदली कि पंडित जी अलग थलग से हो गए। बीते दिनों देर रात सीएम सुक्खू, सुधीर से मिलने उनके घर पहुंचे थे, जिसके बाद कयास लग रहे है कि उन्हें कोई अहम ज़िम्मा मिल सकता है। इसमें पीसीसी चीफ का पद भी शामिल है। हालांकि एक खबर ये भी है कि आलाकमान के दरबार में उन्हें लोकसभा चुनाव लड़वाने की पैरवी की जा रही है। कहा जा रहा है की सुधीर ही सबसे मजबूत चेहरा है। अब आलाकमान सुधीर को चुनाव लड़ने का फरमान सुनाता है या प्रदेश में सुधीर के कद मुताबिक भूमिका उनके लिए तैयार की जाती है, ये देखना रोचक होगा। राजेंद्र राणा वो नेता है जिन्होंने 2017 में भाजपा के सीएम कैंडिडेट को हराया था। 2022 में भी धूमल परिवार ने पूरी ताकत झोंकी लेकिन राणा जीतने में कामयाब रहे। बावजूद इसके राणा को अब तक उचित सियासी अधिमान नहीं मिला है। कहने को वे कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष भी है लेकिन संगठन में भी उनकी भूमिका क्या और कितनी है, ये सर्वविदित है। हालांकि वे हौली लॉज के करीबी है और वो ही पहले ऐसे बड़े नेता थे जिन्होंने खुलकर प्रतिभा सिंह को सीएम बनाने की वकालत की थी। बहरहाल अब राणा की कैबिनेट में एंट्री की सम्भावना न के बराबर है। हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से सीएम, डिप्टी सीएम और एक मंत्री राजेश धर्माणी है और यहाँ से एक और एंट्री मुश्किल होगी। ऐसे में राणा को कहाँ और कैसे एडजस्ट किया जाता है, ये देखना दिलचस्प होगा। वहीँ खबर ये है कि आलकमान के समक्ष सुधीर की तरह ही राणा को भी लोकसभा चुनाव के लिए दमदार बताया जा रहा है। हालांकि राणा की रूचि इसमें नहीं दिखती। कुलदीप राठौर पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष है और आलाकमान के करीबी भी है। राठौर वो नेता है जो खुलकर कहते रहे है कि सत्ता दिलवाने वालों की उपेक्षा हो रही है। जिला शिमला से ही तीन मंत्री है, ऐसे में राठौर का ठौर भी जाहिर है कैबिनेट में नहीं होगा। पर राठौर की बेबाकी और स्पष्टवादिता प्रदेश सरकार को असजह जरूर करती रही है। बताया जा रहा है की राठौर भी आलाकमान के समक्ष अपनी बात रख चुके है और अब निर्णय आलाकमान को लेना है। सिर्फ एक रिक्त पद, ठाकुर भी दावेदार ! सुक्खू कैबिनेट में एक पद खाली है और इन तीन नेताओं के साथ -साथ कुल्लू विधायक सूंदर सिंह ठाकुर भी दावेदार है। मंडी संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक मंत्री है और ऐसे में क्षेत्रीय संतुलन के लिहाज से सूंदर ठाकुर का दावा भी मजबूत है। हालांकि सूंदर ठाकुर को सीपीएस बनाया गया था लेकिन ये पद कब तक रहेगा, ये कोर्ट ने तय करना है। वहीँ सूंदर ठाकुर भी सीपीएस को मिली गाड़ी लौटकर चुप रहकर भी काफी कुछ कह चुके है।
आम तौर पर एकमुश्त पड़ने वाला गद्दी वोट कांगड़ा संसदीय क्षेत्र की सियासत में निर्णायक भूमिका निभाता है। गद्दी समुदाय की एकता इनकी सियासी ताकत का असल कारण है और ये ही वजह है कि कोई भी दल इन्हें नजर अंदाज़ नहीं करता। विशेषकर भाजपा गद्दी चेहरों पर दांव खेलती आई है और सीटिंग सांसद किशन कपूर लम्बे वक्त से प्रोमिनेन्ट गद्दी फेस है। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में जिला चम्बा के चार और जिला कांगड़ा के 13 विधानसभा क्षेत्र आते है। इस संसदीय क्षेत्र की 17 में से कम से कम 11 सीटों पर गद्दी फैक्टर हावी रहता है। इनमें चम्बा सदर, डलहौज़ी, चुराह, भटियात, धर्मशाला, बैजनाथ, पालमपुर, शाहपुर, ज्वाली, नूरपुर और इंदौरा शामिल है। माना जाता है कि गद्दी समुदाय का वोट मौटे तौर पर विभाजित नहीं होता। ऐसे में सियासी गणित के लिहाज से राजनैतिक दल गद्दी चेहरे को सेफ बेट मानते है, विशेषकर भाजपा। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने धर्मशाला के विधायक और तब की जयराम सरकार में मंत्री किशन कपूर को कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया था और कपूर ने रिकॉर्ड जीत दर्ज कर इतिहास रच दिया था। अब फिर लोकसभा चुनाव का काउंट डाउन शुरू हो चुका है और टिकट की कयासबाजी भी। किशन कपूर टिकट के मिशन पर है लेकिन उन्हें टिकट मिलता है या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। पर माहिर मान रहे है कि संभव है भाजपा यदि किशन कपूर का टिकट काटती है तो अगला उम्मीदवार भी गद्दी समुदाय से ही हो। दावेदारों की फेहरिस्त में जो नाम प्रमुख है उनमें एक है त्रिलोक कपूर जो भाजपा प्रदेश महामंत्री भी है और दूसरे नेता है विशाल नेहरिया। इस सूची में एक तीसरे नाम का जिक्र भी जरूरी है और वो है चुराह विधायक हंसराज। बतौर भाजपा प्रदेश महामंत्री त्रिलोक कपूर का ये दूसरा टर्म है। पर साथ ही त्रिलोक कपूर के खाते में पालमपुर विधानसभा सीट की हार भी दर्ज है। विधानसभा चुनाव में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को 17 में से सिर्फ 5 सीट पर जीत मिली थी। यानी त्रिलोक कपूर के सियासी खाते में जमा से ज्यादा घटाव है। पर कपूर का लम्बा अनुभव और आलाकमान की गुड बुक्स में उनकी उपस्थिति उनका दावा मजबूत करते है। चुराह विधायक और पूर्व विधानसभा स्पीकर हंसराज की बात करें तो वे निसंदेह तेजतर्रार नेता तो है ही, पर उनका चम्बा से होना उनके लिए फायदे का सौदा भी हो सकता है तो रुकावट भी। जनजातीय क्षेत्र से उम्मीदवार देकर भाजपा बड़ा सन्देश भी दे सकती है, तो जिला कांगड़ा की नाराजगी का डर चम्बा की उम्मीदवारी में रोड़ा भी है। साथ ही यदि हंसराज उम्मीदवार होते है और जीत जाते है तो भाजपा को विधानसभा उपचुनाव का सामना भी करना पड़ेगा। ऐसे में उनकी उम्मीदवारी पर पार्टी को काफी सियासी गणित लगनी पड़ेगी। तीसरा नाम है विशाल नेहरिया का। 2019 के धर्मशाला उपचुनाव में भाजपा ने उनको उम्मीदवार बनाया और नेहरिया ने शानदार जीत दर्ज की। इसके बाद 2022 में उनका टिकट काट दिया गया लेकिन नेहरिया समर्थकों की नाराजगी के बावजूद पार्टी लाइन से बाहर नहीं गए। ये फैक्टर उनके पक्ष में जा सकता है। नेहरिया युवा नेता है और माहिर मान रहे है कि भाजपा अधिक से अधिक युवाओं को टिकट देने की नीति पर आगे बढ़ेंगी। ऐसे में इस मापदंड पर भी नेहरिया फिट बैठते है। बहरहाल ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या सीटिंग सांसद किशन कपूर फिर टिकट लाने में कामयाब होंगे ? और किशन कपूर नहीं तो क्या भाजपा गद्दी समुदाय से ही प्रत्याशी देती है या नहीं। फिलवक्त सब सियासी अटकलें है और अटकलों का क्या। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से भाजपा में कम से कम एक दर्जन टिकट के चाहवान है।
भाजपा में टिकट चाहवानों की कतार, कांग्रेस में नेता कतरा रहे ! उम्मीदवार का चयन कांग्रेस के लिए चुनौती, भाजपा को भी बरतनी होगी सावधानी एक तरफ कतार लगी है और एक ओर मानो सब कतरा से रहे है। लोकसभा चुनाव की रुत में ये ही मिजाज -ए-कांगड़ा है। भाजपा में टिकट के चाहवानों की लम्बी कतार है, उधर कांग्रेस में टालमटाल की स्थिति बनती दिख रही है। हालांकि सन्नाटा दोनों ही खेमो में है, भाजपा में चाहवानों की वाणी पर अनुशासन का ताला है तो कांग्रेस में एक किस्म से चाहवान ही नहीं दिख रहे। विशेषकर हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद से ही स्थिति बदल सी गई है। इस पर राम मंदिर फैक्टर का भी असर दिखने लगा है। हालांकि सियासी मौसम भी पहाड़ों के मौसम की तरह ही होता है, कब बदल जाएँ पता नहीं लगता। पर फिलहाल कांगड़ा में कांग्रेस की मुश्किलें निसंदेह भाजपा से अधिक है। यूँ तो चुनाव लोकसभा का है और राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाना है। पर प्रदेश के सियासी मसलों को इससे पूरी तरह इतर नहीं किया जा सकता। प्रदेश में कांग्रेस सत्तासीन है और कांगड़ा संसदीय क्षेत्र को एक साल बाद प्रदेश कैबिनेट में दूसरा मंत्री पद मिला है। अब भी एक मंत्री पद की कमी कांगड़ा को खल रही है। ये कांग्रेस के सियासी सुकून में बड़ा खलल भी डाल रही है। इस पर कांगड़ा में कांग्रेस खेमो में बंटी है, ये भी सर्वविदित है। हालांकि खेमेबाजी भाजपा में भी बेशुमार है। कभी तस्वीरों के जरिये तो भी सांझी पत्रकार वार्ताओं में इसकी झलक दिखती रही है। विधानसभा चुनाव में भाजपा की शिकस्त का एक बड़ा कारण भी इसी गुटबाजी को माना जाता है। पर लोकसभा चुनाव पीएम मोदी के चेहरे पर होगा और ये कहना गलत नहीं है कि पीएम मोदी के चेहरे के आगे बाकी सभी फैक्टर बौने हो जाते है। फिर भी भाजपा के पास यहाँ चूक की कोई गुंजाईश नहीं दिखती। इतिहाज गवाह है कि इसी कांगड़ा से सीटिंग सीएम भी विधानसभा चुनाव हारे है, सो जाहिर है कांगड़ा को 'फॉर ग्रांटेड' नहीं लिया जा सकता। माहिर मान रहे है कि भाजपा को भी चेहरे के चयन में सावधानी बरतनी होगी। भाजपा का गढ़ रहा है कांगड़ा भाजपा के गठन के बाद से दस लोकसभा चुनाव हुए है जिनमें से सात बार कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को जीत मिली है। यूँ तो भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव 1984 में लड़ा था लेकिन पार्टी की जड़े जमी 1989 में। तब राम मंदिर आंदोलन प्रखर था और आंदोलन की तरह ही भाजपा भी तेजी से बढ़ती जा रही थी। इसी बीच 1989 में शांता कुमार पहली बार संसद की दहलीज लांघने में कामयाब हुए। तब से कांगड़ा में भाजपा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। कांग्रेस सिर्फ दो मर्तबा जीती, 1996 में सत महाजन और 2004 में चौधरी चंद्र कुमार ही कांग्रेस को जीत दिला सके। उम्मीदवार बदला, वोट शेयर बढ़ा ! कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा लगतार तीन चुनाव जीत चुकी है। दिलचस्प बात ये है कि पिछले तीन चुनाव में भाजपा ने हर बार चेहरा बदला है और हर बार जीती है। इससे भी दिलचस्प तथ्य ये है कि हर बार भाजपा के वोट प्रतिशत में भारी बढ़ोतरी हुई है। 2009 में भाजपा के उम्मीदवार थे डॉ राजन सुशांत और उन्हें 48.69 प्रतिशत वोट मिले थे। फिर 2014 में शांता कुमार ने चुनाव लड़ा और उन्हें लगभग 57 प्रतिशत वोट मिले। वहीँ 2019 में भाजपा ने किशन कपूर को उम्मीदवार बनाया और उन्होंने रिकॉर्ड 72 प्रतिशत वोट बटोरे। किशन कपूर ने रचा था इतिहास 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र पर किशन कपूर ने 72.02 प्रतिशत मत हासिल कर इतिहास बना दिया था। तब कपूर को 7,25,218 वोट पड़े थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी पवन काजल को 2,47,595 मतों पर ही सिमटना पड़ा था। कांगड़ा हलके की दिलचस्प बात यह रही थी कि प्रदेश में सबसे अधिक नोटा का इस्तेमाल भी यहीं हुआ। तब 11,327 मतदाताओं ने नोटा दबाया था। वहीँ बहुजन समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी डॉ. केहर सिंह को 0.88 प्रतिशत वोट हासिल हुए, जबकि नोटा 1.12 % था। 2004 के बाद नहीं जीती कांग्रेस कांग्रेस को आखिरी बार 2004 में कांगड़ा संसदीय सीट पर जीत मिली थी और तब उम्मीदवार थे चौधरी चंद्र कुमार। इसके बाद से कांग्रेस लगातार तीन चुनाव हार चुकी है। आगामी लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की राह आसान नहीं दिखती। सही उम्मीदवार का चयन और अंतर्कलह और असंतोष पर लगाम ही कांग्रेस को टक्कर में ला सकता है। बहरहाल कांग्रेस के सामने सबसे पहली चुनौती असंतोष को साधना है। । विधानसभा चुनाव में लगा था भाजपा को झटका कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में जिला चम्बा के 4 और जिला कांगड़ा के 13 विधानसभा क्षेत्र आते है। जिला चम्बा के चम्बा सदर, भटियात, चुराह और डलहौज़ी कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में आते है, जबकि भरमौर मंडी संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। वहीँ जिला कांगड़ा के फतेहपुर, नूरपुर, इंदोरा, ज्वाली, धर्मशाला, शाहपुर, कांगड़ा, नगरोटा, पालमपुर, सुलह, जयसिंहपुर, बैजनाथ और ज्वालामुखी विधानसभा हलके कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के अधीन आते है । 2022 में हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को झटका लगा था। भाजपा को 17 में से सिर्फ पांच सीटों पर ही जीत मिली थी। हारने वालों में दो कैबिनेट मंत्री और प्रदेश महामंत्री भी शामिल थे। तब असंतोष और गलत टिकट आवंटन हार के कारण बने थे और जाहिर है भाजपा को लोकसभा चुनाव इसे साधना होगा। श्री राम मंदिर का पालमपुर कनेक्शन 1989 के पालमपुर अधिवेशन के बाद बीजेपी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा श्री राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी को की जाएगी। हिंदुस्तान के कई राजनैतिक दलों ने राम मंदिर निर्माण की लम्बी लड़ाई लड़ी है, जिनमें भारतीय जनता पार्टी प्रमुख है। वो बीजेपी का राम मंदिर आंदोलन ही था जिसने देश की राजनीति की धारा को ही पलट दिया। राम मंदिर आंदोलन की बिसात पर मजबूत हुई। बीजेपी आज केंद्र में सत्तासीन है और मंदिर आंदोलन से निकले कई नेता संसद में बैठकर देश की नीतियां निर्धारित कर रहे हैं। राम मंदिर बनाने का संघर्ष लम्बा है, और इस संघर्ष में हिमाचल प्रदेश का पालमपुर भी बेहद ख़ास स्थान रखता है। 1989 में जिला कांगड़ा के पालमपुर में बीजेपी का अधिवेशन हुआ था। इस अधिवेशन में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, विजयाराजे सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी समेत पार्टी के तमाम बड़े नेता पालमपुर में थे। इसी अधिवेशन में अयोध्या में भगवान् श्री राम के भव्य मंदिर निर्माण के साथ साथ भारतीय जनता पार्टी के स्वर्णिम भविष्य की पटकथा लिखी गई और भाजपा ने मंदिर निर्माण का प्रस्ताव पास किया। इस तरह इस ऐतिहासिक घटनाक्रम का पालमपुर साक्षी बना। इस तीन दिवसीय अधिवेशन में राम मंदिर निर्माण को लेकर पार्टी ने मंथन किया और तय हुआ कि अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा। 11 जून, 1989 को राम मंदिर के निर्माण का प्रस्ताव तैयार किया गया। इसी दिन लालकृष्ण आडवाणी ने सबकी सहमति से राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव रखा था। पालमपुर में हुई इस बैठक के सूत्रधार थे पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार जो उस समय प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष थे और उन्हें ही उस ऐतिहासिक बैठक की पूरी व्यवस्था करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वह राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य भी थे, इसलिए उस ऐतिहासिक प्रस्ताव के पारित होने और सारी व्यवस्था के वह भी साक्षी हैं। क्या होगी सुधीर की भूमिका ? जिला कांगड़ा में सुधीर शर्मा कांग्रेस का बड़ा नाम है। सुधीर धर्मशाला से विधायक है और पूर्व की वीरभद्र सरकार में मंत्री रह चुके है। इस बार भी उन्हें मंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था लेकिन अब तक ऐसा नहीं हुआ। चार बार के विधायक सुधीर शर्मा सुक्खू राज में मंत्री पद से महरूम है, पर पंडित जी का सियासी रसूख कुछ ऐसा है कि उन्हें किनारे करके भी दरकिनार नहीं किया जा सकता। हाल ही में सीएम सुक्खू उनसे मिलने देर रात उनके आवास पर पहुंचे थे, तो अंतर्कलह की स्थिति को भांप आलाकमान ने उन्हें तमाम मंत्रियों सहित बैठक के लिए दिल्ली से बुलावा भेजा । इस बैठक का निष्कर्ष क्या निकला ये तो अब तक स्पष्ट नहीं है लेकिन माहिर मान रहे है कि सुधीर के लिए कोई भूमिका तय कर ली गई है। एक कयास है कि सुधीर कांगड़ा से कांग्रेस के उम्मीदवार होंगे और दिल्ली में इसी को लेकर चर्चा हुई है। वहीँ अटकले ये भी है कि सुधीर शर्मा को संगठन की कमान देकर साधा जा सकता है। यदि ऐसा हुआ तो सुधीर के साथ -साथ कांगड़ा का सियासी वजन भी बढ़ेगा। बहरहाल सब अटकलें है और सुधीर के हिस्से में क्या आता है और कब आता है, ये देखना रोचक होगा।
शिमला संसदीय क्षेत्र में कार्यकर्ताओं में जान फूंक गए नड्डा हिमाचल में कोई चूक नहीं चाहेंगे नड्डा : भारतीय जनता पार्टी का आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर उन प्रदेशों में ज्यादा फोकस है, जहां गैर भाजपा दलों की सरकार है। हिमाचल की सत्ता पर कांग्रेस काबिज है, ऐसे में भाजपा लोकसभा चुनाव को लेकर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहेगी। भाजपा ने हिमाचल में लोकसभा चुनाव का उद्घोष कर दिया है। भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के दौरे के साथ ही लोकसभा चुनाव का शंखनाद हो गया है। इसके आरंभ के लिए नड्डा ने शिमला संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले सोलन को चुना। दरअसल 2022 के विधानसभा चुनाव में शिमला संसदीय क्षेत्र में ही भाजपा सबसे कमजोर साबित हुई थी। विधानसभा चुनाव में संसदीय क्षेत्र की 17 में से महज तीन सीट पर पार्टी को जीत मिली थी। जाहिर है ऐसे में पार्टी अब कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। खुद नड्डा ने सोलन में रोड शो किया और फिर जनसभा को सम्बोधित कर चुनावी हुंकार भरी। इसके उपरांत शिमला पहुंचे नड्डा ने भाजपा कोर ग्रुप की बैठक भी ली। सोलन में हुए नड्डा के रोड शो में विशेषकर सोलन और सिरमौर से भारी भीड़ उमड़ी। सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का भी भरपूर जलवा दिखा। हाटी फैक्टर का असर भी इस आयोजन में दिखा। विशेषकर हाटी बेल्ट से काफी संख्या में लोग नड्डा के इस्तेकबाल को पहुंचे। जाहिर है भाजपा ने बेहद रणनीतिक तरीके से हाटी फैक्टर को भुनाने की तैयारी की है और इसका चुनावी लाभ भी पार्टी को मिल सकता है। सम्भवतः बेवजह टिकट न बदले भाजपा ! लोकसभा चुनाव के लिए दावेदारी का सिलसिला भी शुरू हो गया है। शिमला संसदीय क्षेत्र से सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का दावा एक बार फिर मजबूत है। नड्डा के दौर में भी कश्यप की पकड़ की झलक दिखी। कश्यप के अलावा पच्छाद विधायक रीना कश्यप का नाम भी चर्चा में है। हालांकि माहिर मान रहे है कि अगर तमाम सर्वे ठीक आते है तो भाजपा बेवजह टिकट नहीं बदलेगी। शिमला संसदीय क्षेत्र में हाटी फैक्टर से भी भाजपा को बड़ी उम्मीद है और वोटर्स के बीच इसका श्रेय भी काफी हद तक सुरेश कश्यप को जाता दिख रहा है।
14 जनवरी को मणिपुर से शुरू होगी भारत जोड़ो न्याय यात्रा 15 राज्य, 357 लोकसभा सीटें और कांग्रेस के सिर्फ 14 सांसद। सत्ता और कांग्रेस के बीच ये ही बड़ा फर्क है। ये ही जहन में रखते हुए कांग्रेस ने राहुल गाँधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा का रूट तय किया है। हालांकि यात्रा उक्त 15 राज्यों की सिर्फ 100 लोकसभा सीटों से गुजरेगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में इन 357 में से कांग्रेस के खाते में सिर्फ 14 सीटें आई थी। जहाँ गठबंधन था वहां सहयोगी भी कुछ ख़ास नहीं कर सके थे। दरअसल कांग्रेस का मानना है कि भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल गाँधी की छवि को बदला, राहुल गाँधी की लोकप्रियता में इजाफा हुआ है और कांग्रेस की कर्णाटक और तेलंगाना में जीत के पीछे भी भारत जोड़ो यात्रा एक अहम वजह है। ये ही कारण है कि लोकसभा चुनाव से पहले अब कांग्रेस फिर एक यात्रा निकालने जा रही है। मकसद साफ है, राहुल सड़क पर उतरेंगे, 100 लोकसभा सीटें और 337 विधानसभा सीटों को पैदल नापेंगे, जनसंवाद भी होगा और कार्यकर्ताओं में जोश भी आएगा। बहरहाल क्या और कितना होगा, ये लोकसभा चुनाव के नतीजे तय करेंगे पर कांग्रेस आगामी चुनाव में सब कुछ झोंकने को तैयार है। यात्रा 14 जनवरी को मणिपुर की राजधानी इंफाल से शुरू होकर 20 मार्च को मुंबई में समाप्त होगी। राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के तहत 67 दिनों में 6713 किमी का सफर तय करेंगे। यह यात्रा 15 राज्यों के 110 जिले से होकर गुजरेगी और इसके अन्तर्गत 100 लोकसभा सीटें और 337 विधानसभा सीटें आएगी। यात्रा का सबसे लंबा चरण उत्तर प्रदेश में होगा जहां राज्य के 20 जिलों को कवर करने के लिए 11 दिन आवंटित किए गए हैं। 80 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों वाले उत्तर प्रदेश में, सबसे पुरानी पार्टी को पिछले चुनावों में कांग्रेस के एक लोकसभा सांसद के साथ कोई सीट नहीं मिली थी। सोनिया गांधी यूपी की रायबरेली सीट से एकमात्र कांग्रेस सांसद हैं। वहीँ यात्रा बिहार के सात जिलों और झारखंड के 13 जिलों से भी गुजरेगी, राहुल गांधी की यात्रा बिहार और झारखण्ड में क्रमशः 425 किमी और 804 किमी की दूरी तय करेगी। भारत जोड़ो न्याय यात्रा मणिपुर, नागालैंड, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और अंत में महाराष्ट्र राज्यों से होकर गुजरेगी। विदित रहे कि इससे पहले राहुल गांधी ने 7 सितंबर 2022 से 30 जनवरी 2023 तक भारत जोड़ो यात्रा की थी। 145 दिनों की यात्रा तमिलनाडु के कन्याकुमारी से शुरू होकर जम्मू-कश्मीर में खत्म हुई थी। तब राहुल ने 3570 किलोमीटर की यात्रा में 12 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों को कवर किया था। जहाँ सत्ता में, वहां यात्रा नहीं दिलचस्प बात ये है कि जिन तीन राज्यों में कांग्रेस के सीएम है वहां ये यात्रा नहीं पहुंचेगी। यात्रा कर्णाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश से नहीं गुजरेगी। संभवतः यहाँ कांग्रेस ने पूरी तरह लोकसभा चुनाव का जिम्मा स्थानीय नेतृत्व को देने का निर्णय ले लिया है। शायद पार्टी को लगता है कि इन तीन राज्यों में पार्टी की स्थिति बेहतर है।
'येन-केन-प्रकारेण'..जैसे भी हो कांग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव में बेहतर करना होगा। 138 साल पुरानी देश की सबसे बुजुर्ग राजनैतिक पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है और इसलिए पार्टी अब अपने सबसे बड़े योद्धाओं को भी चुनावी मैदान में उतार सकती है। बीत दिनों हुई एआईसीसी की बैठक में पार्टी ने सबसे दमदार नेताओं को चुनाव लड़वाने का निर्णय लिया है। ऐसे में कई पूर्व मुख्यमंत्री तो चुनाव लड़ते दिख ही सकते है, संभव है कई राज्यों में सीटिंग विधायक और मंत्री भी लोकसभा चुनाव के मैदान में उतार दिए जाएँ। कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ तो अशोक गहलोत, भूपेश बघेल, कमलनाथ सहित कई दिग्गज मैदान में होंगे। वहीँ सूत्रों की माने तो पार्टी विभिन्न क्षेत्रों से सम्बंधित कई लोकप्रिय चेहरों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति पर भी आगे बढ़ रही है। योजना परवान चढ़ी तो कई सेलब्रिटी भी कांग्रेस से चुनाव लड़ते दिख सकते है। सूत्रों की माने तो कांग्रेस की रणनीति जल्द से जल्द कई सीटों पर उम्मीदवार घोषित करने की है, ठीक वैसे ही जैसा भाजपा ने मध्य प्रदेश में किया था। मुमकिन है जो चेहर तय है उनकी घोषणा पार्टी फरवरी में ही कर दें। अशोक गहलोत सहित कई नेता पार्टी पटल पर ये सुझाव रख चुके है ताकि प्रत्याशियों को ज्यादा से ज्यादा समय मिल सके। हिमाचल में मंत्री लड़ेंगे चुनाव ? कांग्रेस 'करो या मरो' के जज्बे के साथ चुनावी मैदान में उतरना चाहती है और ऐसे में मुमकिन है कि हिमाचल में भी कई बड़े चेहरे चुनावी मैदान में हो। सिर्फ विधायक ही नहीं मंत्री भी चुनावी मैदान में उतारे जा सकते है। इसे लेकर कयासबाजी का सिलसिला जारी है। कांगड़ा से चौधरी चंद्र कुमार और शिमला से कर्नल धनीराम शांडिल के नाम की अटकलें तो है ही, हमीरपुर से उप मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री का नाम भी सियासी गलियारों में चर्चा का विषय है। हालांकि फिलहाल ये सब अटकलें है।