पांवटा साहिब में भाजपा के तीन बागी उम्मीदवारों के मैदान में होने से क्या निवर्तमान ऊर्जा मंत्री बेहतर कर पाएंगे, इस सवाल पर आठ दिसंबर को आये नतीजों ने विराम लगा दिया है। सुखराम चौधरी ने तमाम कयासों को गलत साबित करते हुए बड़े मार्जिन से चुनाव जीता। जयराम सरकार में कैबिनेट मंत्री सुखराम चौधरी इस सीट से छठी बार भाजपा टिकट के साथ मैदान में थे। चौधरी ने 1998 में हार के साथ शुरुआत की थी लेकिन इसके बाद 2003 और 2007 में वे जीते। तब इस सीट का नाम पौंटा दून था, फिर 2008 में परिसीमन के बाद यह सीट पौंटा साहिब हो गयी। 2012 में उन्हें फिर हार का सामना करना पड़ा लेकिन 2017 में वे फिर जीते। इसके बाद वर्ष 2020 में हुए जयराम कैबिनेट के विस्तार में उन्हें मंत्री पद भी मिल गया। सुखराम चौधरी इस बार जीत का चौका लगाने के फ़िराक में थे और वे सफल भी हुए। सुखराम चौधरी ने 8596 मतों से जीत हासिल की। उधर, कांग्रेस ने फिर इस सीट से किरनेश जंग को मैदान में उतारा। किरनेश पहली बार 2003 में लोकतान्त्रिक मोर्चा के टिकट पर चुनाव लड़े थे लेकिन हार गए थे। फिर 2007 में कांग्रेस के टिकट पर हारे। 2012 में कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया लेकिन वे निर्दलीय चुनाव जीतने में कामयाब रहे। पर 2017 में कांग्रेस टिकट पर फिर हार गए। ऐसे में इस बार कांग्रेस से उनके टिकट को लेकर संशय बना हुआ था लेकिन आखिरकार उन्हें पार्टी ने टिकट दे दिया। ये किरनेश जंग का पांचवा चुनाव था और उनके खाते में सिर्फ एक जीत है। स्वाभाविक है ऐसे में उनके लिए इस बार जीत हासिल करना बेहद जरूरी था लेकिन वे इस बार भी चुनाव हार गए। अब निसंदेह हार के बढ़ते क्रम से किरनेश जंग की राह बेहद मुश्किल होने वाली है। खेर, निवर्तमान ऊर्जा मंत्री के जीतने से पांवटा साहिब में भाजपा फिर पावर में आ गयी है
आख़िरकार कसौली विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस ने 15 वर्षों के बाद वापसी कर ही ली। बीते तीन चुनावों की तरह इस बार भी कसौली सीट पर कांटे की टक्कर देखने को मिली। इस बार निवर्तमान स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल के साथ भाजपा की पूरी टीम जीत का चौका लगाने के लिए मैदान में थे, तो दूसरी तरफ कांग्रेस और विनोद सुल्तानपुरी जीत का सूखा खत्म करने के लिए जदोजहद करते दिखे। डॉ राजीव सैजल खुद जीत को लेकर आश्वस्त थे लेकिन कांग्रेस के प्रत्याशी विनोद सुल्तानपुरी ने इस बार चुनाव जीत कर निवर्तमान स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल के सियासी चौका लगाने के फ़िराक पर पानी फेर दिया और 6768 मतों से जीत हासिल कर ली। अतीत पर गौर करें तो कसौली निर्वाचन क्षेत्र लम्बे अर्से तक कांग्रेस का गढ़ रहा। 1982 से 2003 तक हुए 6 विधानसभा चुनावों में से पांच कांग्रेस ने जीते और पांचों बार प्रत्याशी थे रघुराज। सिर्फ 1990 की शांता लहर में एक मौका ऐसा आया जब रघुराज भाजपा के सत्यपाल कम्बोज से चुनाव हारे। 2003 में प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार बनी और वीरभद्र सरकार में रघुराज मंत्री बने। मंत्री बनने के बाद कसौली के लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ी और शायद इसी का खामियाजा रघुराज को 2007 में उठाना पड़ा, जब वे चुनाव हार गए। इसके बाद राजीव सैजल ने जीत की हैट्रिक लगाकर जयराम सरकार में मंत्री पद भी हासिल किया। वर्ष 2012 में कांग्रेस ने चेहरा बदला और युवा विनोद सुल्तानपुरी को यहां से अपना प्रत्याशी बनाया। दो युवा नेताओं के बीच इस चुनाव में कांटेदार टक्कर हुई और हार व जीत का मार्जिन भी काफी करीबी रहा। राजीव सैजल ने विनोद सुल्तानपुरी को मात्र 24 मतों से शिकस्त दी। वर्ष 2017 में कांग्रेस व भाजपा दोनों दलों ने एक बार फिर इन्हीं दोनों प्रत्याशियों को चुनावी रण में उतार दिया। इस बार भी दोनों के बीच कांटे की टक्कर देखने को मिली। हालांकि डा. सहजल ने वर्ष 2012 के मार्जिन व अपनी स्थिति को थोड़ा बेहतर करते हुए 442 मतों से जीत प्राप्त की। लगातार दो चुनावों में मामूली अंतर से हार का मुंह देख रहे कांग्रेस के विनोद सुल्तानपुरी के लिए वर्ष 2022 का चुनाव उनके राजनीतिक करियर के लिए काफी महत्वपूर्ण था। कांग्रेस के टिकट चाहवानों को दरकिनार करते हुए विनोद सुल्तानपुरी एक बार फिर पार्टी टिकट पाने में कामयाब रहे। भाजपा ने भी जीत की हैट्रिक लगा चुके डा. राजीव सैजल पर ही दांव खेला। तीसरी बार विनोद सुल्तानपुरी और राजीव सैजल चुनावी मैदान में आमने सामने थे। नतीजन भाजपा के 15 सालों के तिलिस्म को तोड़ते हुए विनोद सुल्तानपुरी ने कसौली में वापसी करवाई।
रामपुर निर्वाचन क्षेत्र कांग्रेस का अभेद गढ़ रहा है। देश में आपातकाल के बाद हुए 1977 के चुनाव को छोड़ दिया जाएं, तो यहां हमेशा कांग्रेस का परचम लहराया है। वहीं भाजपा की बात करें तो 1980 में पार्टी की स्थापना के बाद से 9 चुनाव हुए है, लेकिन पार्टी को कभी यहां जीत का सुख नहीं मिला। पर बीते कुछ चुनाव के नतीजों पर नजर डाले तो कांग्रेस और वीरभद्र परिवार के इस गढ़ में पार्टी की जीत का अंतर कम जरूर हुआ है। 1990 की शांता लहर में भी कांग्रेस के सिंघीराम यहाँ से 11856 वोट से जीते थे, लेकिन 2017 आते -आते ये अंतर 4037 वोटों का रह गया। 1993 में कांग्रेस यहाँ 14478 वोट से जीती तो 1998 में जीत का अंतर 14565 वोट था। जबकि 2003 के चुनाव में ये अंतर बढ़कर 17247 हो गया। तीनों मर्तबा यहाँ से सिंघी राम ही पार्टी प्रत्याशी थे। 2007 में कांग्रेस ने यहाँ से प्रत्याशी बदला और नंदलाल को मैदान में उतारा। नंदलाल को जीत तो मिली लेकिन अंतर घटकर 6470 वोट का रह गया। 2012 में नंदलाल 9471 वोट से जीते तो 2017 में अंतर 4037 वोट का रहा। इस बार भाजपा ने रामपुर विधानसभा क्षेत्र में टिकट बदल युवा चेहरे कौल सिंह नेगी को मैदान में उतारा था जबकि कांग्रेस ने भारी विरोध के बावजूद वर्तमान विधायक नंदलाल पर ही दांव खेला। नंदलाल को लेकर क्षेत्र में एंटी इंकम्बेंसी दिखी है, मगर उनके प्रचार का ज़िम्मा खुद राज परिवार ने संभाला था। उधर कौल नेगी ने भी प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। कौल नेगी इस सीट पर कमल तो नहीं खिला पाए लेकिन कांग्रेस के प्रत्याशी को जबरदस्त टक्कर दे कर जीत के अंतर को न के बराबर साबित किया। इस चुनाव में नन्द लाल मात्र 567 वोट से जीत दर्ज कर गए।
जिला कांगड़ा प्रदेश की सियासत का रास्ता प्रशस्त करता है और कांगड़ा के नूरपुर विधानसभा क्षेत्र में सियासी पारा हमेशा से हाई रहा है। नूरपुर भाजपा के तेजतर्रार नेता राकेश पठानिया का क्षेत्र है। बावजूद इसके इस बार चुनाव से पहले ही भाजपा में काफी उठापठक और अंतर्कलह देखने को मिली। दरअसल भाजपा के जिला महामंत्री रणवीर सिंह निक्का चुनाव से पहले ही काफी सक्रिय दिखे और लगातार टिकट की मांग करते आये। निक्का ने यह तक ऐलान कर दिया था कि यदि पार्टी टिकट नहीं देती है तो वे निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे। निक्का ने विभिन्न रैली और आयोजनों में उनके साथ जन समर्थन का बेहतर प्रदर्शन किया। शायद पार्टी निक्का के शक्ति प्रदर्शन से भांप चुकी थी कि निक्का अगर बागी लड़ते है तो भाजपा को इसका नुकसान होगा। नतीजन भाजपा ने रणवीर सिंह निक्का को टिकट दिया और राकेश पठानिया को फतेहपुर भेज दिया। निक्का ने बेहतरीन तरीके से चुनाव लड़ा और बड़े मार्जिन के अंतर् से कांग्रेस के प्रत्याशी अजय महाजन को हरा दिया। हालाँकि नूरपुर सीट पर तो निक्का का सिक्का चला लेकिन राकेश पठानिया फतेहपुर सीट पर चुनाव हार गए। उधर, नूरपुर निर्वाचन क्षेत्र में पिछले चार चुनाव के नतीजों पर गौर फरमाएं तो यहाँ की जनता ने हर पांच वर्ष में बदलाव किया है। 2003 के विधानसभा चुनाव में सत महाजन ने कांग्रेस को इस सीट पर जीत दिलाई। 2007 के विधानसभा चुनाव में राकेश पठानिया आज़ाद उमीदवार के रूप में मैदान में उतरे और जीत का परचम लहराया। 2012 में कांग्रेस ने अजय महाजन पर दांव खेला और जनता ने कांग्रेस पार्टी पर विश्वास जताया। 2017 के विधानसभा चुनाव में राकेश पठानिया भाजपा में शामिल हुए और इस सीट पर भाजपा की जीत हुई। इस बार कांग्रेस ने फिर अजय महाजन को टिकट दिया था जबकि भाजपा ने निक्का को चुनावी मैदान में उतार था। इस चुनाव में नूरपुर में रणवीर सिंह निक्का ने जीत दर्ज की है और पहली बार विधानसभा पहुंचे, जबकि अजय महाजन विजय प्राप्त नहीं कर सके।
जिला किन्नौर में इस बार भी विधानसभा चुनाव में भरपूर रोमांच देखने को मिला। पहले दिन से ही कांग्रेस और भाजपा दोनों तरफ जमकर खींचतान दिखी। कांग्रेस में जहाँ सीटिंग विधायक और वरिष्ठ नेता जगत सिंह नेगी का टिकट अंतिम समय तक लटका रहा, तो भाजपा ने पूर्व विधायक तेजवंत नेगी का टिकट काटकर युवा सूरत नेगी को मैदान में उतारा। खफा होकर तेजवंत भी चुनावी समर में कूद गए और इस मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया। नतीजन, भाजपा के बगावत का फायदा कांग्रेस प्रत्याशी जगत सिंह नेगी को मिला और जगत नेगी हैट्रिक लगाने में कामयाब रहे। जगत सिंह नेगी को 20696 मत मिले और भाजपा प्रत्याशी सूरत नेगी को 13732 वोट प्राप्त हुए जबकि भाजपा के बागी तेजवंत नेगी ने 8574 मत लेकर भाजपा को डैमेज किया। किन्नौर के चुनावी इतिहास पर नज़र डाले तो अब तक सिर्फ ठाकुर सेन नेगी (तेते जी) ही जीत की हैट्रिक लगा सके है। ठाकुर सेन नेगी 1967 से 1982 तक लगातार चार चुनाव जीते। दिलचस्प बात ये है कि वे तीन बार निर्दलीय और एक बार लोकराज पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते। फिर वे भाजपा में शामिल हो गए और एक बार 1990 में भाजपा टिकट से भी जीतने में कामयाब हुए। ठाकुर सेन नेगी के अलावा जगत सिंह नेगी ही इकलौते ऐसे नेता है जो हैट्रिक लगाने में सफल हुए है।
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद सुरेश कश्यप के संसदीय क्षेत्र में भाजपा को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है। संसदीय क्षेत्र की 17 सीटों में से भाजपा को सिर्फ 3 पर जीत मिली। इन 17 में से 13 पर कांग्रेस को विजय मिली तो एक पर निर्दलीय को। प्रदेश के चारों संसदीय क्षेत्रों में से शिमला संसदीय क्षेत्र में पार्टी सबसे कमजोर रही। शिमला संसदीय क्षेत्र में जिला सोलन की पांच सीटें आती है और ये सभी पांच सीटें भाजपा हारी है। इनमें से कसौली और दून सीट पर 2017 में भाजपा जीती थी, लेकिन ये दो सीटें भी भाजपा हार गई। इनमें कसौली सीट से मंत्री राजीव सैजल को शिकस्त मिली है। वहीं सोलन सीट पर भाजपा लगातार तीसरी बार हारी है। अर्की और नालागढ़ में तो भाजपा तीसरे स्थान पर रही है। नालागढ़ में भाजपा के बागी केएल ठाकुर ने जीत दर्ज की है। इस तरह संसदीय क्षेत्र के तहत जिला सिरमौर की सभी पांच सीटें आती है। यहाँ भी भाजपा को सिर्फ दो सीटें मिली है, जबकि तीन पर कांग्रेस का कब्ज़ा रहा। ये सुरेश कश्यप का गृह जिला है। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने नाहन, पच्छाद और पावंटा साहिब सीट जीती थी और कांग्रेस को शिलाई और रेणुकाजी में विजय मिली थी। इस बार भाजपा पच्छाद और पावंटा साहिब सीट पर कब्ज़ा रखने में तो कामयाब यही लेकिन नाहन सीट हार गई। नाहन से पार्टी के दिग्गज नेता और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल को शिकस्त मिली है। वहीं रेणुकाजी और शिलाई सीट पर कांग्रेस का कब्ज़ा बरकरार रहा। संसदीय क्षेत्र शिमला के तहत जिला शिमला की सात सीटें आती है। जिला की रामपुर के अतिरिक्त सभी सीटें शिमला संसदीय क्षेत्र में ही आती है। इनमें से 6 पर कांग्रेस को जीत मिली है और सिर्फ एक सीट भाजपा के खाते में गई है। वहीं 2017 की बात करें तो भाजपा शिमला शहरी, जुब्बल कोटखाई और चौपाल में जीती थी, पर इस बार सिर्फ चौपाल सीट ही भाजपा के खाते में आई। वहीं शिमला ग्रामीण, कसुम्पटी, और रोहड़ू सीट पर कांग्रेस का कब्ज़ा बरकरार रहा। ठियोग सीट सीपीआईएम के कब्जे में थी, जिस पर इस बार कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर जीते है। दो मंत्री और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष हारे शिमला संसदीय क्षेत्र से जयराम कैबिनेट में तीन मंत्री थे, सुरेश भारद्वाज, डॉ राजीव सैजल और सुखराम चौधरी। इनमें से सिर्फ सुखराम चौधरी को ही जीत मिली है। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल भी नाहन से चुनाव हार गए। वहीं हाटी फैक्टर का लाभ भी भाजपा को ज्यादा मिलता नहीं दिखा। हाटी बाहुल शिलाई और रेणुका जी सीट पर कांग्रेस को ही जीत मिली। दो सीटों पर कांग्रेस की बगावत ने बचाया अगर पच्छाद और चौपाल सीट पर कांग्रेस के बागी उम्मीदवार मैदान में नहीं होते तो इन दोनों सीटों पर भी भाजपा की जीत मुश्किल हो सकती थी। एक किस्म से कांग्रेस की बगावत भाजपा के लिए संजीवनी सिद्ध हुई। ये भी बता दें कि नालागढ़ में कांग्रेस के सीटिंग विधायक को पार्टी में लेकर चुनाव लड़वाने का फैसला भी पार्टी को उल्टा पड़ा है।
विधानसभा चुनाव के नतीजे तस्दीक करते है कि जयराम सरकार को उनके मंत्रियों का प्रदर्शन ले बैठा। खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इस बार सबसे बड़ी जीत दर्ज की और उनके गृह जिला मंडी में भी पार्टी का शानदार प्रदर्शन जारी रहा। किन्तु जयराम ठाकुर के अलावा उनकी कैबिनेट में मंत्री रहे बिक्रम ठाकुर और सुखराम चौधरी ही चुनाव जीत पाए है। कुल नौ मंत्रियों की सीट पर भाजपा हारी है और आठ मंत्री चुनाव हारे है। चुनाव हारने वाले मंत्रियों में सुरेश भारद्वाज, डॉ रामलाल मारकंडा, वीरेंद्र कंवर, गोविंद सिंह ठाकुर, राकेश पठानिया, डॉ. राजीव सैजल, सरवीण चौधरी और राजेंद्र गर्ग शामिल हैं। इनके अलावा जयराम कैबिनेट में जल शक्ति मंत्री रहे महेंद्र सिंह ठाकुर की सीट से उनके पुत्र रजत ठाकुर भी चुनाव हार गए। जाहिर है अगर ये मंत्री भी सरकार के मुखिया जयराम ठाकुर जैसा प्रदर्शन कर पाते तो संभवतः हिमाचल प्रदेश में रिवाज बदल गया होता। गौरतलब है कि जयराम ठाकुर के अलावा मंत्रिमंडल में शामिल 11 चेहरों में से इस बार पार्टी ने 10 को फिर मैदान में उतारा था। पर इनमें से दो मंत्रियों की सीट पार्टी ने बदल दी थी। ये मंत्री थे सुरेश भारद्वाज और राकेश पठानिया। ये फैसला उल्टा पड़ा और ये दोनों ही बड़े अंतर से चुनाव हारे। इसके अलावा डॉ रामलाल मारकंडा, वीरेंद्र कंवर, गोविंद सिंह ठाकुर, डॉ. राजीव सैजल, सरवीण चौधरी और राजेंद्र गर्ग भी चुनाव हारे। सिर्फ बिक्रम ठाकुर और सुखराम चौधरी ही चुनाव जीते सके। वहीं मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर अपनी सीट धर्मपुर से अपने पुत्र रजत ठाकुर के लिए टिकट चाहते थे और पार्टी ने रजत को ही टिकट दिया। दिलचस्प बात ये है कि इस सीट पर महेंद्र सिंह लगातार सात चुनाव जीत चुके थे लेकिन उनके बेटे को टिकट देना पार्टी को उल्टा पड़ गया। क्या एंटी इंकम्बेंसी नहीं भांप पाई भाजपा ? मंत्रियों की हार के बाद भाजपा के टिकट आवंटन को लेकर भी सवाल उठ रहे है। अगर मंत्रियों की हार के अंतर पर निगाह डाले तो वीरेंद्र कँवर 7579 वोट, राजेंद्र गर्ग 5611 वोट, सुरेश भारद्वाज 8655 वोट, राकेश पठानिया 7354 वोट, डॉ राजीव सैजल 6768 और सरवीण चौधरी 12243 के बड़े अंतर से चुनाव हारे। ये अंतर इन मंत्रियों के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी को दर्शाता है। मंत्री गोविंद ठाकुर 2957 और डॉ रामलाल मारकंडा 1616 के अंतर से हारे। सवाल ये है कि क्या भाजपा इस एंटी इंकम्बेंसी को भांप नहीं पाई। भाजपा के गढ़ को किया 32 साल बाद ध्वस्त कुटलैहड़ ऐसा विधानसभा क्षेत्र है जो पिछले 32 वर्षों से भाजपा का अभेद्य दुर्ग रहा है, लेकिन इस चुनाव में पहले दिन से ही यहाँ भाजपा को कांग्रेस से कड़ी चुनौती देखने को मिली। इस बार फिर इस सीट से भाजपा ने वीरेंद्र कंवर को प्रत्याशी बनाया था, जो लगातार 4 बार के विधायक थे और जयराम सरकार में ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री रहे। उनके मुकाबले में कांग्रेस ने देवेंद्र कुमार भुट्टो को चुनावी रण में उतारा था। कांग्रेस कार्यकर्ताओं को देवेंद्र कुमार भुट्टो से चुनाव में करिश्मे की आस थी। कांग्रेस के प्रत्याशी ने प्रदेश के मुद्दों और स्थानीय समस्याओं को जमकर भुनाया। नतीजन कांग्रेस प्रत्याशी देवेंद्र कुमार भुट्टो ने मंत्री वीरेंद्र कंवर को 7579 मतों के बड़े अंतर से हराया। देवेंद्र कुमार ने शुरू से ही बढ़त बना ली,जिसे भाजपा प्रत्याशी अंत तक तोड़ नही पाए। देवेंद्र कुमार को कुल 66808 मतों में से 36636 मत पड़े,जबकि वीरेंद्र कंवर को 29057 मत मिले। शिक्षा मंत्री के हैट्रिक लगाने का सपना टूटा जयराम कैबिनेट में शिक्षा मंत्री रहे गोविन्द सिंह ठाकुर के टिकट को लेकर किन्तु-परन्तु की स्थिति पहले दिन से ही देखने को नहीं मिली थी। क्या इस सीट पर गोविन्द सिंह ठाकुर बेहतर कर पाएंगे, ये सवाल खूब उठे। सवाल उठना लाजमी था, पिछले साल हुए मंडी संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में भी गोविंद ठाकुर यहाँ पार्टी की साख नहीं बचा पाए थे। उस उपचुनाव में मनाली से भाजपा प्रत्याशी को लीड नहीं मिल पाई थी। जाहिर है ऐसे में उठ रहे सवालों पर विराम लगाने के लिए गोविन्द सिंह ठाकुर को मनाली सीट पर जीत हासिल करने का दबाव था, लेकिन उनके हैट्रिक लगाने के इस स्वप्न को कांग्रेस के भुवनेश्वर गौड़ ने तोड़ दिया और मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर चुनाव हार गए। भुवनेश्वर गौड़ परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई मनाली सीट से जीतने वाले कांग्रेस के पहले विधायक बने हैं। सोलन में भाजपा शून्य, स्वास्थ्य मंत्री भी हारे सोलन के पांच सीटों में से सोलन सदर, अर्की, दून और कसौली सीट पर कांग्रेस का हाथ भारी पड़ा जबकि नालागढ़ सीट पर निर्दलीय ने चुनाव जीता है। कसौली सीट पर स्वास्थ्य मंत्री डॉ. राजीव सैजल को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। वे यहां से लगातार 3 विधानसभा चुनाव जीत चुके थे। इस बार वे सियासी चौका लगाने को लेकर आश्वस्त थे किन्तु उन्हें इस सीट से तीसरी बार में कांग्रेस के उम्मीदवार विनोद सुल्तानपुरी ने स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल चुनाव को 6768 मतों से हराया। वन मंत्री नहीं कर पाए फ़तेहपुर को फ़तेह फतेहपुर विधानसभा सीट पर भाजपा को टिकट बदलना भारी पड़ गया और फतेहपुर की जनता ने भाजपा के कद्दावर मंत्री राकेश पठानिया चुनाव हार गए। राकेश पठानिया इससे पहले नूरपुर सीट से चुनाव लड़ते आये है और इस बार भाजपा ने उनका टिकट बदल कर उन्हें फतेहपुर भेजा था। चुनाव जीतने के लिए उन्होंने पूरी ताकत झोंकी लेकिन वे विफल हुए और कांग्रेस के भवानी सिंह पठानिया ने जीत अपने नाम कर ली। उपचुनाव के बाद कांग्रेस के प्राइम फेस बने रहे भवानी सिंह पठानिया यहां से लगातार दूसरी बार विधायक चुने गए हैं। कांग्रेस के भवानी सिंह को 32452 वोट मिले, जबकि भाजपा के राकेश पठानिया को 25884 वोट हासिल हुए। मंत्री सरवीण को नहीं मिला शाहपुर का साथ शाहपुर सीट को भाजपा का गढ़ माना जाता है। इस सीट पर तीन दशक से भाजपा की सरवीण चौधरी का वर्चस्व रहा। भाजपा की सरवीण चौधरी 2007 से लगातार चुनाव जीतती आ रही हैं। किन्तु इस विधानसभा चुनाव में जयराम कैबिनेट में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय संभाल रही सरवीण चौधरी अपनी सीट नहीं बचा पाई। इस बार कांग्रेस के केवल सिंह पठानिया ने कमल खिलने नहीं दिया। केवल सिंह को जहां 35862 वोट मिले हैं, वहीं, भाजपा की सरवीण चौधरी को 23931 वोट ही हासिल हुए। कुसुम्पटी सीट पर हार गए भारद्वाज कसुम्पटी विधानसभा सीट कांग्रेस का गढ़ रहा है। यहां से कांग्रेस पिछले 15 साल से जीत दर्ज करती आ रही है। इस बार भी कांग्रेस ने सिटींग एमएलए अनिरुद्ध सिंह को चुनावी मैदान में उतारा था जबकि भाजपा ने मंत्री सुरेश भरद्वाज को शिमला शहरी से टिकट न देकर कुसुम्पटी भेजा था। भाजपा को उम्मीद थी कि टिकट के फेरबदल से कुसुम्पटी सीट भाजपा के झोली में आएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस बार भी बड़े मार्जन के साथ अनिरुद्ध सिंह ने यहां से जीत दर्ज की। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस के अनिरुद्ध सिंह 9800 वोटों से जीते थे और इस बार उन्होंने 8431 वोटों से जीत हासिल की। घुमारवीं में मंत्री राजेंदर गर्ग चुनाव हारे जिला बिलासपुर की घुमारवीं विधानसभा सीट पर खाद्य आपूर्ति मंत्री राजेंदर गर्ग को कांग्रेस के राजेश धर्माणी ने हराया। गर्ग करीब साढ़े पांच हजार के अंतर से चुनाव हारे। गर्ग की टिकट को लेकर भी सवाल उठते रहे और माना जा रहा था कि एंटी इंकम्बेंसी भांपते हुए पार्टी किसी नए चेहरे को मैदान में उतारेगी, किन्तु ऐसा हुआ नहीं और पार्टी ने राजेंद्र गर्ग को ही टिकट दिया। लाहौल स्पीति से तकनीकी शिक्षा मंत्री भी हारे लाहौल स्पीति में तकनीकी शिक्षा मंत्री डॉ रामलाल ठाकुर भाजपा प्रत्याशी के तौर पर तीसरी दफा चुनावी मैदान में थे और जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे थे। उनके हैट्रिक लगाने की उम्मीदों पर कांग्रेस प्रत्याशी रवि ठाकुर ने पानी फेर दिया और 1616 मतों से कांग्रेस उम्मीदवार रवि ठाकुर ने मंत्री को पराजित किया है। इस क्षेत्र में मंडी संसदीय उपचुनाव में भी भाजपा पिछड़ी थी।
बेशक जयराम ठाकुर रिवाज न बदल सके हो लेकिन मंडी तो जयराम ठाकुर की ही रही है। जिला मंडी की 9 सीटों पर भाजपा का कब्जा दिखाता है कि मंडी वालों ने जयराम ठाकुर के नाम पर वोट दिया है। सिर्फ धर्मपुर को छोड़कर हर सीट भाजपा की झोली में गई है। जो दम खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपने जिला में दिखाया अगर ऐसा ही मंत्री भी कर पाते तो सम्भवतः रिवाज भी बदल जाता। बहरहाल जयराम ठाकुर ने साबित कर दिखाया कि मंडी उन्हीं की है। 2017 के विधानसभा चुनाव में जिला मंडी की 9 सीटें भाजपा की झोली में गई थी, जबकि एक सीट जोगिन्दरनगर पर निर्दलीय विधायक प्रकाश राणा जीते थे। राणा पांच साल भाजपा के एसोसिएट विधायक रहे और चुनाव से कुछ वक्त पहले भाजपा में आ गए। इस तरह सभी दस सीटें भाजपा की ही रही थी। वहीं इस बार भी भाजपा ने नौ सीटें जीतकर साबित कर दिया कि मंडी में पार्टी का वर्चस्व कायम है। 2017 के बाद से अगर जिला मंडी में भाजपा के प्रदर्शन पर निगाह डाले तो हर मौके पर पार्टी हावी रही है। पंचायती राज और स्थानीय निकाय चुनाव के बाद पार्टी ने मंडी नगर निगम चुनाव में एकतरफा जीत हासिल की। इसके बाद पिछले वर्ष के अंत में हुए मंडी संसदीय उपचुनाव के नतीजे पर अगर निगाह डाले तो संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाली जिला की नौ में से आठ सीटों पर भाजपा को लीड मिली थी। तब अन्य क्षेत्रों से मिली जीत ही प्रतिभा सिंह की जीत का कारण बनी। यानी 2017 से कांग्रेस लगातार जिला मंडी में हारती आ रही है। इस बार के चुनाव की अगर बात करें तो मंडी में वरिष्ठ कांग्रेस नेता ठाकुर कौल सिंह ने खुद को एक किस्म से मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ा। शायद वे मान कर चल रहे थे कि वे तो चुनाव जीत ही रहे है, उनके नाम पर बाकी सीटों पर भी कांग्रेस को फायदा होगा। पर नतीजों ने वहम तोड़ दिया है। खुद कौल सिंह चुनाव हार गए। उनकी पुत्री चंपा ठाकुर भी चुनाव हारी। कांग्रेस से हारने वाले बड़े नेताओं में जिला अध्यक्ष और पूर्व मंत्री प्रकाश चौधरी और पूर्व सीपीएस सोहन लाल भी शामिल है। मंडी में ओपीएस का मुद्दा भी हावी था, पर मंडी वालों में मतदान करते वक्त जयराम ठाकुर के चेहरे को सबसे ज्यादा तवज्जो दी। ये रहे परिणाम : सराज : रिकॉर्ड अंतर से जीते जयराम सराज में खुद सीटिंग सीएम जयराम ठाकुर मैदान में थे और उनकी जीत को लेकर किसी के मन में कोई संशय नहीं था। जयराम कितने अंतर से जीतेंगे, इसी पर सबकी निगाहें टिकी थी। जयराम ठाकुर ने रिकॉर्ड 38183 वोट के अंतर से जीत दर्ज की। मंडी सदर : यहाँ पंडित सुखराम परिवार अपराजित मंडी सदर सीट पर पंडित सुखराम के परिवार का कब्जा बरकरार रहा। एक बार फिर इस सीट पर भाजपा प्रत्याशी अनिल शर्मा ने जीत दर्ज की है। उनका मुकाबला ठाकुर कौल सिंह की बेटी चंपा ठाकुर से था लेकिन अनिल शर्मा दस हज़ार से भी ज्यादा मार्जन से जीते। इस सीट पर पंडित सुखराम का परिवार अपराजित है। सुंदरनगर : बगावत भी नहीं रोक पाई जम्वाल को इस सीट पर भाजपा के प्रदेश महामंत्री राकेश जम्वाल ने लगातार दूसरी जीत दर्ज की। भाजपा के बागी प्रत्याशी अभिषेक ठाकुर के मैदान में होने के बावजूद जम्वाल आठ हज़ार से ज्यादा अंतर से जीते। यहाँ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सोहनलाल को हार का सामना करना पड़ा। द्रंग : मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, विधायक भी नहीं बन पाएं द्रंग से ठाकुर कौल सिंह की हार ने बता दिया कि जिला मंडी में कांग्रेस किस कदर कमजोर है। कौल सिंह वरिष्ठता और अनुभव का राग अलापते हुए सीएम पद पर दावेदारी जताते रह गए और जनता ने उन्हें लगातार दूसरी बार विधानसभा भी नहीं पहुंचने दिया। उन्हें भाजपा के पूर्ण चंद ठाकुर ने 618 वोट से पराजित किया। बल्ह : चौधरी की लगातार दूसरी हार बल्ह से पूर्व मंत्री और कांग्रेस के जिला अध्यक्ष प्रकाश चौधरी लगातार दूसरी बार हारे। इस बार भी उन्हें भाजपा के इन्द्र सिंह ने हराया। चौधरी 1307 वोट से हार गए। जोगिन्दर नगर : फिर जीत गए राणा पिछली बार निर्दलीय चुनाव जीते प्रकाश राणा इस बार यहाँ से भाजपा टिकट पर चुनाव लड़े और 4339 वोट से जीते। यहाँ माना जा रहा था कि ठाकुर गुलाब सिंह को टिकट न देने के चलते दिख रहे रोष का खमियाजा भाजपा को भुगतना पड़ सकता है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कांग्रेस ने यहाँ से सुरेंद्र पाल को टिकट दिया था। सरकाघाट : कमल खिलने से नहीं रोक पाएं पवन जानकार मान रहे थे कि इस बार सरकाघाट सीट पर कांग्रेस वापसी कर सकती है। पार्टी प्रत्याशी पवन कुमार ने दमखम से चुनाव भी लड़ा था लेकिन वे 1807 वोट से हार गए। यहाँ भाजपा ने नए चेहरे दिलीप ठाकुर को मैदान में उतारा था। करसोग : दस हजार से अधिक अंतर से जीते दीप राज इस सीट से भाजपा ने सीटिंग विधायक हीरालाल का टिकट काटकर दीप राज को मैदान में उतारा था। उधर, कांग्रेस ने दिग्गज नेता मनसा राम के पुत्र महेश राज पर दांव खेला। यहाँ दीप राज ने दस हज़ार से ज्यादा अंतर से शानदार जीत दर्ज की। नाचन : संसदीय उपचुनाव का नतीजा नहीं दोहरा पाई कांग्रेस मंडी संसदीय उपचुनाव में नाचन जिला मंडी का इकलौता ऐसा निर्वाचन क्षेत्र था जहाँ कांग्रेस को लीड मिली थी। बावजूद इसके भाजपा ने सीटिंग विधायक विनोद कुमार पर भरोसा जताया और वे भरोसे पर खरा भी उतरे। विनोद ने 8956 वोट से कांग्रेस के नरेश कुमार को हराया। धर्मपुर : सिर्फ यहाँ ही जीती कांग्रेस इस सीट पर 1990 से लगातार महेंद्र सिंह ही जीते, चाहे पार्टी कोई भी हो। यहाँ आखिरी बार 1993 में कांग्रेस जीती थी और तब महेंद्र सिंह ही पार्टी प्रत्याशी थे। इस बार यहाँ भाजपा ने महेंद्र सिंह की जगह उनके बेटे रजत ठाकुर को मैदान में उतारा ,लेकिन रजत कांग्रेस के चंद्रशेखर से 3026 वोट के अंतर से हार गए। बदलाव और बगावत के बावजूद जीती भाजपा भाजपा ने जिला मंडी में चार सीटिंग विधायकों को इस बार टिकट नहीं दिया। बदलाव के बावजूद तीन जीतने में कामयाब रहे। सिर्फ महेंद्र सिंह की सीट धर्मपुर में भाजपा हारी। वहीं मंडी सदर और सुंदरनगर सीट पर भाजपा बगावत के बावजूद जीत दर्ज करने में कामयाब रही।
केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर निसंदेह हिमाचल का वो चेहरा है जिसे देश-विदेश में भी लोग न सिर्फ पहचानते है, बल्कि पसंद भी करते है। वर्तमान में मोदी सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तथा युवा एवं खेल मंत्रालय का भार संभाल रहे 48 वर्षीय अनुराग ठाकुर हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से चौथी बार सांसद है। 2019 में जब मोदी सरकार दूसरी बार सत्ता में लौटी तो अनुराग ठाकुर को वित्त राज्य मंत्री बनाया गया था। फिर जुलाई 2021 में उनका कद बढ़ा और वे केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बन गए। हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर में जन्में और पले बढ़े अनुराग ठाकुर के पिता प्रो. प्रेम कुमार धूमल दो बार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे है। पर इसका मतलब ये नहीं है कि अनुराग आसानी से सियासत में स्थापित हो गए। उन्होंने एक आम कार्यकर्ता की तरह वर्षों संगठन में काम किया और हर मौके पर खुद को साबित भी किया। 2010 में वे भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और लगातार तीन टर्म तक इस पद पर रहे। संभवतः वे भाजयुमो में अब तक के सबसे लोकप्रिय अध्यक्ष रहे है। क्रिकेट की सियासत में भी अनुराग ठाकुर की खासी दिलचस्पी रही है। साल 2000 में अनुराग हिमाचल प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष बने और चार बार इस पद पर रहे। प्रदेश में धर्मशाला स्टेडियम उन्हीं की देन है। इसी बीच मई 2016 में अनुराग ठाकुर बीसीसीआई के प्रेजिडेंट भी बने लेकिन लोढ़ा कमिटी की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बाद उन्हें ये पद छोड़ना पड़ा। बहरहाल भाजपा समर्थकों का एक बड़ा तबका ये चाहता है कि अनुराग प्रदेश की कमान संभाले। उधर बार-बार अनुराग ठाकुर दोहराते रहे है कि वे केंद्र में खुश है और फिलवक्त प्रदेश की सियासत में एंट्री का उनका कोई इरादा नहीं है। पर हिमाचल की सियासत से अनुराग को अलग नहीं रखा जा सकता। वैसे भी जानकार मान रहे है कि आठ दिसंबर को रिवाज नहीं बदला तो भाजपा में बहुत कुछ बदलना है। ऐसे में मुमकिन है कि 2027 आते-आते समीरपुर से शिमला का सियासी मार्ग फिर प्रशस्त हो जाएँ। पर अनुराग ठाकुर केंद्र की राजनीति का भी बड़ा नाम है। वर्तमान में कैबिनेट मंत्री है। अनुराग पार्टी के उन चुनिंदा चेहरों में से एक है जो अक्सर कैमरे के आगे आकर सरकार की बात रखते है। अनुराग ठाकुर हिमाचल प्रदेश के उन गिने चुने नेताओं में से है जिनकी पहचान देश के हर कोने में है। ऐसे में अगर अनुराग केंद्र में भी जमे रहते है तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनमें सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की क्षमता है।
भारतीय जनता पार्टी दुनिया का सबसे बड़ा राजनैतिक दल हैं और इस पार्टी की कमान भी एक हिमाचली नेता के हाथ में हैं। केंद्रीय मंत्री रहे जगत प्रकाश नड्डा वर्तमान में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। उनका जन्म बिहार में हुआ और प्रारंभिक शिक्षा भी, पर जड़े हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर से जुड़ी है। उनका राजनैतिक सफर भी हिमाचल प्रदेश से ही परवान चढ़ा। भाजपा के कद्दावर नेताओं में गिने जाने वाले नड्डा का ने अपने सियासी सफर की शुरूआत साल 1975 में जेपी आंदोलन से की थी। देश के सबसे बड़े आंदोलनों में गिने जाने वाले इस आंदोलन में नड्डा भी शामिल हुए थे। इस आंदोलन में हिस्सा लेने के बाद जेपी नड्डा बिहार की भाजपा की स्टूडेंट विंग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हो गए थे। जेपी नड्डा ने 1977 में अपने कॉलेज में छात्रसंघ का चुनाव लड़ा था और जीत दर्ज कर वो पटना यूनिवर्सिटी के सचिव बन गए। फिर पटना यूनिवर्सिटी से स्नातक होने के बाद नड्डा ने हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में लॉ की पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान उन्होंने हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में भी छात्रसंघ का चुनाव लड़ा और उसमें जीत दर्ज की। भाजपा द्वारा नड्डा को वर्ष 1991 में अखिल भारतीय जनता युवा मोर्चा का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया गया था। इसके बाद आया वर्ष 1993, जब जेपी नड्डा ने हिमाचल प्रदेश विधानसभा की बिलासपुर सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। इसके बाद उन्हें राज्य विधानसभा में विपक्ष का नेता चुना गया था। नड्डा ने वर्ष 1998 और साल 2007 में इस सीट से फिर जीत दर्ज की। इस दौरान उन्हें प्रदेश कैबिनेट में भी जगह दी गई। उन्हें वर्ष 1998 में हिमाचल प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया और वर्ष 2007 में वो वन पर्यावरण और संसदीय मामलों के मंत्री रहे। अपने राजनीतिक करियर में नड्डा जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, केरल, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के प्रभारी भी रहे है। साल 2012 में पार्टी ने उन्हें हिमाचल प्रदेश की तरफ से राज्यसभा में भेजा था। इसके बाद भाजपा में नड्डा का कद लगातार बढ़ता चला गया। वे मोदी सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी रहे। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद उन्हें पार्टी का कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया। इसके बाद 20 जनवरी 2020 को उन्हें भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया। आगामी 20 जनवरी को उनका कार्यकाल पूरा हो रहा है लेकिन माना जा रहा कि 2024 के लोकसभा चुनाव तक वे ही पार्टी के अध्यक्ष बने रह सकते है।
प्रदेश की सियासत में नारी शक्ति का असर कभी फीका नहीं रहा। हालाँकि हिमाचल के सियासी क्षितिज पर बेहद कम महिलाएं अब तक अपना नाम चमकाने में कामयाब रही और शायद इसका बड़ा कारण ये है कि प्रदेश के प्रमुख राजनैतिक दलों ने कभी महिलाओं पर ज्यादा भरोसा जताया ही नहीं। पर कई चेहरे ऐसे है जिनके बगैर हिमाचल की सियासी कहानी अधूरी हैं। कई महिलाएं न सिर्फ विधानसभा में जनता की आवाज बनी, बल्कि मंत्री भी रही। देश की प्रथम स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर भी हिमाचल प्रदेश से ही सांसद थी। वहीं प्रदेश की सियासत में एक मौका ऐसा भी आया जब वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्या स्टोक्स मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गई। दरअसल वर्ष 2003 में हिमाचल की सत्ता में कांग्रेस की वापसी हुई थी। 1998 के विधानसभा चुनाव में पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस ने वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट के अरमान पर पानी फेर दिया था, फिर जब 2003 में मुख्यमंत्री चुनने की बारी आई तो ठियोग विधायक और कांग्रेस की तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष विद्या स्टोक्स से वीरभद्र सिंह को चुनौती मिली। प्रदेश में माहौल बना की शायद मैडम स्टोक्स सोनिया गांधी से अपनी नज़दीकी के बूते सीएम बनने में कामयाब हो जाए। बताया जाता है कि तब मैडम स्टोक्स ने दिल्ली दरबार में विधायकों के समर्थन का दावा भी पेश कर दिया था। विद्या दिल्ली में थी और वीरभद्र सिंह ने शिमला में अपना तिलिस्म साबित कर दिया। दरअसल तभी शिमला में वीरभद्र सिंह ने मीडिया के सामने अपने 22 विधायकों की परेड करा कर अपनी ताकत और कुव्वत का अहसास आलाकमान को करवा दिया। इसके बाद जो परेड में शामिल नहीं हुए उनमें से भी अधिकांश होलीलॉज दरबार में पहुंच गए। सो वीरभद्र सिंह पांचवी बार मुख्यमंत्री बन गए और प्रदेश को महिला सीएम मिलने का इंतज़ार खत्म नहीं हो सका। इस बार हुए चुनाव में अगर प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनती है तो दो महिलाएं सीएम पद की दौड़ में है। पहली है प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह और दूसरा नाम है वरिष्ठ कांग्रेस नेता आशा कुमारी का। बहरहाल महिला सीएम का इन्तजार इस बार भी खत्म होगा या नहीं, ये तो आगामी कुछ दिनों में ही पता चलेगा। आठ बार विधायक बनी विद्या स्ट्रोक्स वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्या स्टोक्स कांग्रेस से आठ बार विधायक चुनी गई। उनका रिकॉर्ड कोई दूसरी महिला नेता नहीं तोड़ पाई है। स्ट्रोक्स पहली बार 1974 में विधायक बनी थी। वह विधानसभा की अध्यक्ष भी रही है और नेता विपक्ष भी बनी। स्ट्रोक्स 1974, 1982, 1985, 1990,1998, 2003, 2007 व 2012 में विधायक रही। 1998 में जीती थी सबसे अधिक 6 महिलाएं हिमाचल प्रदेश के इतिहास पर नज़र डाले तो 1998 के विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक 6 महिलाओं ने जीत दर्ज की। इस चुनाव में कांग्रेस की विप्लव ठाकुर, मेजर कृष्णा मोहिनी, विद्या स्ट्रोक्स, आशा कुमारी और भाजपा की उर्मिल ठाकुर और सरवीण चौधरी ने जीत दर्ज की। हालांकि बाद में भाजपा नेता महेंद्र नाथ सोफत की याचिका पर सोलन का चुनाव सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द घोषित कर दिया गया जहाँ से पहले मेजर कृष्णा मोहिनी को विजेता घोषित किया गया था। वहीं 1998 में परागपुर में हुए उप चुनाव में निर्मला देवी ने जीत दर्ज की। सरला शर्मा से सरवीण चौधरी तक प्रदेश में 1972 में पहली बार सरला शर्मा मंत्री बनी। फिर 1977 में श्यामा शर्मा मंत्री रही। उसके बाद आशा कुमारी, विप्लव ठाकुर, चंद्रेश कुमारी, विद्या स्टोक्स मंत्री रही। वहीं जयराम सरकार में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री सरवीण चौधरी इससे पहले धूमल सरकार में भी मंत्री रह चुकी है। सिर्फ तीन महिलाएं पहुंची लोकसभा लोकसभा की बात करें तो वर्ष 1952 में राजकुमारी अमृत कौर प्रदेश की पहली महिला सांसद बनी। इसके बाद चंद्रेश कुमारी वर्ष 1984 में कांगड़ा से सांसद चुनी गई। वहीं प्रतिभा सिंह मंडी सीट से तीसरी बार लोकसभा सांसद है। वे वर्ष 2004 और 2013 के उप चुनाव में भी विजेता रही थी। 1956 में लीला देवी बनी थी राज्यसभा सांसद अपर हाउस राज्यसभा की बात करें तो आज तक हिमाचल प्रदेश की कुल 7 महिलाएं राज्यसभा में पहुँच सकी है। सबसे पहले वर्ष 1956 में कांग्रेस नेता लीला देवी राज्यसभा के लिए चुनी गई। इसके बाद 1968 में सत्यावती डांग, 1980 में उषा मल्होत्रा, 1996 में चंद्रेश कुमारी, 2006 व 2014 में विप्लव ठाकुर को कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश से राज्यसभा भेजा। वहीं भाजपा से 2010 में बिमला कश्यप व 2020 में वर्तमान राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी राज्यसभा पहुंची।
हिमाचल प्रदेश में अगली सरकार चुनने के लिए 12 नवंबर को मतदान हो चुका है। आठ दिसंबर को नतीजा भी सामने होगा और तब तक दोनों ही मुख्य राजनीतिक दल अपनी जीत का दावा कर रहे है। भाजपा रिवाज बदलने की बात दोहरा रही है, तो कांग्रेस तख़्त और ताज बदलने की। रिवाज बदला तो ये तय है कि अगले मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ही होंगे, पर सवाल ये है कि यदि तख्त पलटा तो मुख्यमंत्री का ताज किसके सिर होगा ? मतदान के बाद कांग्रेस के तमाम बड़े नेता दो तिहाई बहुमत के साथ सत्ता वापसी का दावा कर रहे है। इस दावे के पीछे कई कारण है, मसलन माना जा रहा है कि पुरानी पेंशन और महंगाई जैसे मुद्दे कांग्रेस के पक्ष में गए है। इसके अलावा पार्टी का टिकट आवंटन भी बेहतर दिखा है और सीमित बगावत भी कांग्रेस के दावे को और बल दे रही है। ऐसे में कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तो कांग्रेस के सत्ता वापसी के दावे में दम दिख रहा है। बहरहाल, सवाल ये ही है कि अगर प्रदेश में तख्त पलटा तो ताज किसके सिर सजेगा ? 1985 से लेकर 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनावों में वीरभद्र सिंह ही कांग्रेस का मुख्य चेहरा रहे। हालांकि उनके रहते भी कांग्रेस में सीएम पद को लेकर कई मर्तबा संशय रहा है, लेकिन हर बार वीरभद्र इस दौड़ में इक्कीस रहे। 1993 में पंडित सुखराम, 2003 में विद्या स्टोक्स और 2012 में ठाकुर कौल सिंह के अरमानों पर वीरभद्र सिंह ने पानी फेरा। अब वीरभद्र सिंह नहीं रहे है और इस बार यदि कांग्रेस सत्ता में लौटी तो किसके अरमान पूरे होते है और किसके अरमानों पर पानी फिरता है, ये देखना रोचक होगा। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस में कई चेहरे ऐसे है जिनका नाम भावी सीएम को तौर पर चर्चा में है। कई नेताओं के समर्थक मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें प्रोजेक्ट कर रहे है, तो कई नेता वरिष्ठता और अनुभव के आधार पर अपना दावा आगे रख रहे है। जबकि कई मुख्य दावेदार अब तक बिलकुल शांत है और संभवतः आंकड़ों को अपने पक्ष में करने में जुटे है। दरअसल, बाजी वहीं मारेगा जिसके पास आलाकमान के आशीर्वाद के साथ समर्थक विधायकों का संख्याबल भी होगा। ऐसे में कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई तो मुख्यमंत्री पद के लिए रोचक मुकाबला देखने को मिल सकता है। पार्टी में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की बात करें तो प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह, चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, वरिष्ठ नेता कौल सिंह ठाकुर, रामलाल ठाकुर और आशा कुमारी वो प्रमुख नाम है जिनके समर्थक खुलकर उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे है। इनके अलावा एक और नाम समर्थकों द्वारा जमकर प्रोजेक्ट किया जा रहा है, वो है युवा नेता विक्रमादित्य सिंह। हालांकि ये वर्तमान स्थिति में व्यवहारिक नहीं लगता, पर इससे विक्रमादित्य की लोकप्रियता का अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है। इनके अलावा आलाकमान के अपनी नजदीकी के बूते कर्नल धनीराम शांडिल भी रेस में बताये जा रहे है। समर्थक हर्षवर्धन चौहान और चौधरी चंद्र कुमार के नाम को भी आगे कर रहे है। यहां जिक्र सबका जरूरी है क्यों कि ये वो ही कांग्रेस है जिसने वरिष्ठ नेताओं को किनारे कर, तमाम कयासों को गलत साबित करते हुए पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया था। प्रतिभा सिंह : विस चुनाव नहीं लड़ा, पर दावा कम नहीं हिमाचल प्रदेश को कभी महिला मुख्यमंत्री नहीं मिली है। अब तक 6 पुरुषों को ही मुख्यमंत्री बनने का गौरव मिला है। ऐसे में इस बार सुगबुगाहट है कि क्या प्रदेश को पहली महिला मुख्यमंत्री मिलेगी ? ऐसे में निसंदेह प्रतिभा सिंह एक बेहद मजबूत दावेदार है। पार्टी आलाकमान को भी वीरभद्र सिंह के नाम के असर का बखूबी अंदाजा है और उपचुनाव के नतीजों में इसका असर भी दिख चुका है। इस बार भी चुनाव सामग्री में जिस तरह स्व वीरभद्र सिंह के नाम का इस्तेमाल किया गया है वो 'वीरभद्र ब्रांड' में आलाकमान के भरोसे को दर्शाता है। वहीं मंडी संसदीय उपचुनाव जीतकर प्रतिभा सिंह भी अपनी काबिलियत सिद्ध कर चुकी है। इसके बाद उन्हें प्रदेश संगठन की कमान भी दी गई। हालांकि प्रतिभा सिंह ने खुद विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा है, बावजूद इसके बतौर मुख्यमंत्री प्रतिभा सिंह का दावा कम नहीं है। वैसे अब तक न तो प्रतिभा सिंह ने खुलकर सीएम पद के लिए अपनी दावेदारी आगे रखी है और न ही खुलकर इंकार किया है। वे 'वेट एंड वॉच' की नीति पर आगे बढ़ रही है। हालांकि होलीलॉज कैंप के कुछ नेता जरूर उनकी दावेदारी जताते रहे है। बहरहाल प्रतिभा सिंह मुख्यमंत्री बने या न बने लेकिन होलीलॉज के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। सुखविंद्र सिंह सुक्खू : दावे को कमतर आंकना भूल सुखविंद्र सिंह सुक्खू वो नेता है जो अपनी शर्तों पर सियासत करते आएं है। जो नेता वीरभद्र सिंह से टकराते हुए खुद की सियासी जमीन तैयार कर ले, उसके दावे को कमतर आंकना किसी के लिए भी बड़ी भूल सिद्ध हो सकता है। सुक्खू कांग्रेस प्रचार समिति के अध्यक्ष भी है और अगर पार्टी सत्ता में लौटी तो श्रेय उनको भी जायेगा। आलाकमान से उनकी नजदीकी भी जगजागीर है। सीएम बनने के सवाल पर सुखविंद्र सिंह सुक्खू एक मंजे हुए नेता की तरह जवाब देते आ रहे है। मतदान से पहले वे एक ही बात दोहरा रहे थे, कि पहले विधायक बनना होगा। अब मतदान के बाद सुक्खू साफ़ कह रह है कि चुने हुए विधायक सीएम तय करेंगे। दरअसल सुक्खू के जिन समर्थकों को इस बार टिकट मिला है, माना जा रहा उनमें से अधिकांश अपनी-अपनी सीटों पर अच्छा कर रहे है। इसके अलावा ये ही मुमकिन है कि होलीलॉज कैंप के बाहर के कई अन्य नेता भी खुद का दावा कमजोर पड़ने पर अपने समर्थकों सहित सुक्खू का साथ दे सकते है। यानी सुक्खू संख्याबल के मामले में भी कम नहीं माने जा सकते। ठाकुर कौल सिंह: वरिष्ठता और अनुभव की बिसात पर दावा करीब पांच दशक लम्बे अपने राजनीतिक सफर में कौल सिंह ठाकुर ने पंचायत समिति से लेकर कैबिनेट मंत्री तक का फासला तय किया है। वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे है और कांग्रेस ने निष्ठावान सिपाही है। जानकार मानते है कि अगर मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में सहमति नहीं बनती है तो कौल सिंह ठाकुर वो नाम है जिसपर वरिष्ठता का हवाला देकर सहमति बनाई जा सकती है। होलीलॉज से भी कौल सिंह ठाकुर के सम्बन्ध अब बेहतर दिख रहे है, ऐसे में उन्हें इसका लाभ मिल सकता है। हालांकि कुछ लोग मानते है कि ठाकुर कौल सिंह की राह में जी 23 गुट को उनका समर्थन आड़े आ सकता है। पर इससे वे पहले ही मुकर चुके है। यहां एक फैक्टर और काम कर सकता है, वो होगा जिला मंडी में कांग्रेस का प्रदर्शन। दरअसल 2017 के चुनाव में मंडी में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला था। ऐसे में अगर इस बार कांग्रेस अच्छा करती है तो ठाकुर कौल सिंह इसका क्रेडिट लेने में पीछे नहीं हटेंगे। मुकेश अग्निहोत्री : ये भी पकड़ सकते है ओकओवर का रास्ता नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री कांग्रेस के तेज तर्रार नेताओं में से हैं, जो 5 साल भाजपा सरकार को विधानसभा के भीतर से लेकर बाहर तक घेरते रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई तो बड़ा सवाल था कि आखिर सदन में कांग्रेस की अगुवाई कौन करेगा ? निगाहें उम्रदराज वीरभद्र सिंह पर थी और उन्होंने अपना भरोसा जताया मुकेश अग्निहोत्री पर। सदन में मुकेश अग्निहोत्री ने दमदार तरीके से न सिर्फ कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया बल्कि हर मुमकिन मौके पर जयराम सरकार को भी जमकर घेरा। अब यदि कांग्रेस सत्ता में वापसी करती है तो सीएम पद के दावेदारों में मुकेश अग्निहोत्री भी शामिल है। अग्निहोत्री होलीलॉज कैंप के माने जाते है और वीरभद्र सिंह के बाद होलीलॉज निष्ठावान विधायकों के लिए खासी अहमियत रखते है। ऐसे में माहिर मानते है कि होलीलॉज और मुकेश के बीच सीएम को लेकर एक राय दिख सकती है, चेहरा चाहे कोई भी हो। आशा कुमारी : ये रानी भी है सीएम पद की दौड़ में डलहौजी सीट से फिर एक बार किस्मत आजमा रही आशा कुमारी भी सीएम पद की दौड़ में है। आशा कुमारी दो बार प्रदेश में मंत्री रही है। केंद्र में भी उनका अच्छा रसूख है। वे पंजाब की प्रभारी भी रह चुकी है और पार्टी आलाकमान के नजदीक मानी जाती है। अब आशा कुमारी न सिर्फ सातवीं बार विधायक बनने के पथ पर है, बल्कि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने की स्थिति में सीएम पद की दावेदार भी है। अलबत्ता आशा कुमारी ने अपनी दावेदारी को लेकर कभी कुछ नहीं कहा है लेकिन समर्थक उन्हें भी बतौर भावी सीएम प्रोजेक्ट कर रहे है। आशा भी मुकेश अग्निहोत्री की तरह होलीलॉज की करीबी रही है और वीभद्र सिंह के निधन के बाद बदले समीकरणों में दमदार दिख रही है। ये दिग्गज भी है दौड़ में पांच बार के विधायक राम लाल ठाकुर भी सीएम पद के दावेदारों में शुमार है। उन्हें 10 जनपथ का करीबी भी माना जाता है। अपने जमाने के जाने माने कबड्डी खिलाड़ी रहे राम लाल ठाकुर सियासी मैदान के भी मंजे हुए खिलाड़ी है। इस बार रामलाल ठाकुर चुनाव जीते तो छठी बार विधायक बनेंगे। वहीं दो बार सांसद रहने वाले कर्नल धनीराम शांडिल इस बार सोलन सीट से हैट्रिक लगाने के इरादे से मैदान में है। कर्नल भी गाँधी परिवार के करीबी है। हिमाचल में एससी समुदाय से कोई नेता कभी मुख्यमंत्री नहीं बना, ऐसे में कर्नल एक विकल्प हो सकते है। एक अन्य दावेदार हर्षवर्धन चौहान भी माने जा रहे है। हर्षवर्धन के खाते में शिलाई से पांच जीत दर्ज है और इस बार वे भी छठी जीत के इरादे से चुनावी मैदान में उतरे है। उनके पिता गुमान सिंह चौहान भी शिलाई से चार बार विधायक रहे है। इस बार हाटी फैक्टर के बावजूद अगर हर्षवर्धन चौहान जीत जाते है, तो जाहिर है उनका दावा भी मजबूत होगा।
कॉलेज में छात्रों को पढ़ाते-पढ़ाते न जाने कब सियासत ने प्रोफेसर साहब को अपनी तरफ खींच लिया। एक दिन पंजाब में अपनी नौकरी छोड़ी और अपने प्रदेश हिमाचल वापस लौट आएं। शुरुआत की भाजपा के एक आम कार्यकर्त्ता के तौर पर, और देखते ही देखते प्रदेश में सत्ता के शीर्ष तक पहुंच गए। हिमाचल प्रदेश की सियासत में प्रो प्रेमकुमार धूमल किसी परिचय के मोहताज नहीं है। वे पहले ऐसे गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री है जिन्होंने पूरे पांच साल सरकार चलाई, वो भी दो बार। वे इकलौते ऐसे नेता है जिन्होंने पांच साल हिमाचल प्रदेश में गठबंधन सरकार चलाकर दिखाई। इसलिए उन्हें सियासत का प्रोफेसर भी कहा जाता है। करीब दो दशक तक हिमाचल में भाजपा का सर्वमान्य चेहरा रहे प्रो धूमल बेशक इस बार चुनावी मैदान में नहीं उतरे है, पर अब भी उनका सियासी रसूख बरकरार है। बढ़ती उम्र का कुछ असर सेहत पर भी दिखता है, पर ताव और तेवर, दोनों कायम है। आज भी हिमाचल भाजपा में प्रो प्रेमकुमार धूमल की लोकप्रियता, उनकी कार्यशैली और उनकी जमीनी पकड़ का कोई विकल्प नहीं दिखता। दरअसल विकल्प हो भी नहीं सकता, धूमल तो आखिर कोई और हो भी नहीं सकता। 1990 में प्रचंड बहुमत के साथ प्रदेश की सत्ता में लौटी भाजपा के सितारे 1993 के विधानसभा चुनाव के बाद गर्दिश में थे। तब दो बार मुख्यमंत्री रहे शांता कुमार सहित पार्टी के बड़े - बड़े दिग्गज चुनाव हार गए थे और भाजपा महज आठ सीटों पर सिमट कर रह गई थी। चुनाव के बाद पार्टी के एक और दिग्गज नेता जगदेव चंद का निधन हो गया और विधायकों की संख्या रह गई सात। तब हालात ऐसे बने कि पहली बार विधानसभा में पहुंचे जगत प्रकाश नड्डा को विपक्ष का नेता बनाया गया। इस पर वीरभद्र सिंह फिर मुख्यमंत्री बन चुके थे और प्रदेश में कांग्रेस का प्रभाव फिर तेजी से बढ़ रह था। इस हार के बाद पहली बार प्रदेश में शांता कुमार के खिलाफ भाजपा के भीतर से आवाज उठने लगी थी। 1998 का चुनाव आते -आते भाजपा में बहुत कुछ बदल चुका था और प्रदेश के समीकरण भी। नरेंद्र मोदी प्रदेश के प्रभारी थे, जो इस बात को समझ चुके थे कि 'नो वर्क नो पे' वाले सीएम रहे शांता कुमार के नाम पर फिर चुनाव लड़ना और जीतना बेहद मुश्किल है। पर मोदी के दिमाग में सत्ता वापसी का सारा प्लान मानो फिट था और इस प्लान का केंद्र थे प्रो प्रेम कुमार धूमल। दरअसल प्रो प्रेम कुमार धूमल तब मोदी के करीबी हो गए और प्रदेश की राजनीति में भी उनका ठीक ठाक कद था। मोदी को भी उनकी क्षमता का अहसास हो चुका था। सो, मोदी ने पार्टी आलाकमान को मनाया और चुनाव से पहले ही धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। पार्टी का दांव ठीक पड़ा और भाजपा सत्ता में लौटी। पर सरकार बनाना इतना आसान नहीं था। 1998 में प्रदेश की तीन सीटों पर भारी बर्फबारी के कारण पहले चरण में चुनाव नहीं हुए थे। 65 में से कांग्रेस 31 सीटों पर जीती थी और बीजेपी 29। जबकि भाजपा के एक बागी रमेश धवाला निर्दलीय चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। पंडित सुखराम की नई पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस के पास भी चार विधायक थे। वहीं नतीजों के बाद बीजेपी के एक विधायक का हार्ट अटैक से निधन हो गया था। ऐसे में किसी दल के पास बहुमत का आंकड़ा नहीं था। उधर, पंडित सुखराम के समर्थन से भाजपा 33 का आंकड़ा तो छू रही थी लेकिन एक विधायक के निधन ने उसका खेल बिगाड़ दिया था। सो सारी गणित आकर टिकी निर्दलीय रमेश धवाला पर। धवाला ने बीजेपी को समर्थन देने के लिए शर्त रख दी कि प्रेम कुमार धूमल के बदले शांता कुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाएं। पर भाजपा इसके लिए तैयार नहीं थी। फिर काफी सियासी उथल पुथल हुई और आखिरकार प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी। ये प्रदेश की पहली ऐसी गठबंधन सरकार थी जो पूरे पांच साल चली। इसके बाद हुए तीन सीटों के चुनाव और एक उपचुनाव में से तीन पर भाजपा जीती और एक पर हिमाचल विकास कांग्रेस। यानी निर्दलीय पर से तो निर्भरता खत्म हो गई थी पर पंडित सुखराम जैसे मंजे हुए नेता के साथ पांच साल गठबंधन सरकार चलाना आसान नहीं था। इसके बदले सुखराम के पांचो विधायकों को मंत्री बनाना पड़ा। भाजपा के कई नेता, खासतौर से शांता गुट के कई नेता अब भी इसे गलत करार देते है। इसके बाद से करीब दो दशक तक हिमाचल प्रदेश में प्रो प्रेम कुमार धूमल ही सर्वमान्य नेता रहे। 2003 के विधानसभा चुनाव में प्रो धूमल एक बार फिर भाजपा के सीएम फेस थे लेकिन भाजपा सत्ता में वापसी नहीं कर पाई। इसके बाद उनके नेतृत्व में 2007 का चुनाव लड़ा गया जिसमें भाजपा ने फिर सत्ता कब्जाई और धूमल दूसरी बार सीएम बने। दूसरी बार वे एक जनवरी 2008 से 25 दिसंबर 2012 तक हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। 2017 में भाजपा को जिताया पर खुद चुनाव हार गए धूमल हिमाचल प्रदेश में 2017 विधानसभा चुनाव का प्रचार चरम पर था। कांग्रेस मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही थी, पर भाजपा ने चुनाव से दस दिन पहले तक सीएम फेस घोषित नहीं किया था। भाजपा की सारी राजनीति धूमल बनाम नड्डा के नाम के कयासों के इर्द गिर्द घूम रही थी। इसका असर भी दिख रह था। भाजपा का कंफ्यूज कार्यकर्ता वीरभद्र के आगे कुछ हल्का दिख रहा था। 9 नवंबर को वोटिंग होनी थी और 30 अक्टूबर तक भाजपा ने सीएम फेस की घोषणा नहीं की थी। कांग्रेस भी भाजपा को बिना दूल्हे की बारात कहकर खूब चुटकी ले रही थी। माना जाता है कि तब प्रो प्रेम कुमार धूमल भाजपा आलाकमान की एकमात्र पसंद नहीं थे, लेकिन वीरभद्र की कांग्रेस को टक्कर देने वाला कोई और दिख भी नहीं रहा था। सो, सारे गुणा भाग करके आखिरकार 30 अक्टूबर को पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने सिरमौर के पच्छाद में हुई रैली के दौरान प्रो प्रेम कुमार धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। धूमल के नाम की घोषणा होते ही मानो भाजपा में जान सी आ गई, देखते-देखते समीकरण बदले और भाजपा ने बेहद मजबूती से चुनाव लड़ा। 18 दिसंबर को जब नतीजे आये तो भाजपा ने 44 सीटों पर जीत दर्ज कर सत्ता में शानदार वापसी की। पर इन 44 सीटों में सुजानपुर की सीट नहीं थी, इन 44 सीटों में प्रो प्रेम कुमार धूमल की सीट नहीं थी। भाजपा तो जीत गई थी, पर भाजपा को जिताने वाले धूमल खुद चुनाव हार बैठे। अगले मुख्यमंत्री बने जयराम ठाकुर। इसके बाद हिमाचल भाजपा की सियासत ठीक उसी तरह बदलना शुरू हुई जैसे 1998 के बाद होता दिखा था। इस बार नहीं है चुनावी मैदान में भले ही धूमल साल 2017 का चुनाव हार गए थे मगर उनके समर्थकों को आस थी की इस बार धूमल दोबारा चुनाव लड़ेंगे और प्रदेश में अगर भाजपा की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री भी होंगे। लेकिन चुनाव से पहले दिल्ली में हुई भाजपा प्रदेश चुनाव समिति की बैठक के बाद सियासी गलियारों में चर्चा आम हुई कि प्रो धूमल चुनाव नहीं लड़ रहे है। अगले दिन इसका औपचारिक ऐलान भी हो गया। ये प्रदेश के हज़ारों धूमल निष्ठावान कार्यकर्ताओं के लिए झटका था। बाद में कहा गया कि धूमल साहब खुद चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे और पहले ही ऐसा मन बना चुके थे। साल 2022 का चुनाव वो चुनाव है जिसमें कई दशकों बाद न धूमल मैदान में है और न वीरभद्र सिंह। माहिर मानते है कि प्रो धूमल का चुनाव न लड़ना इस चुनाव का टर्निंग पॉइंट साबित हो सकता है और नतीजों के बाद इस पर मुहर लग सकती है। दरअसल धूमल ऐसे नेता है जिनका प्रभाव प्रदेश की सभी 68 सीटों पर है और अगर वे चुनाव लड़ते तो समर्थकों में आस रहती। उनके मैदान में न होने से उनके समर्थक निश्चित तौर पर निराश जरूर हुए है। बने सड़कों वाले मुख्यमंत्री जब प्रो धूमल पहली बार सीएम बने तो केंद्र में एनडीए की सरकार थी और प्रधानमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी। उस दौर में देशभर में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के माध्यम से सड़कों का जाल बिछाया गया था और हिमाचल भी इससे अछूता नहीं रहा। पहाड़ी राज्य होने के चलते हिमाचल में ये ये कार्य आसान नहीं था लेकिन धूमल सरकार ने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी। इसलिए धूमल सड़क वाले मुख्यमंत्री के तौर पर भी जाने जाते है। दोनों बेटों ने चमकाया नाम प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल के दो बेटे है। केंद्र सरकार में खेल, युवा मामलों, सूचना और प्रसारण मंत्री और हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद अनुराग ठाकुर धूमल के बड़े बेटे है और बीसीसीआई के कोषाध्यक्ष अरुण धूमल के छोटे बेटे है। अनुराग ठाकुर के रूप में धूमल के निष्ठावान भविष्य का मुख्यमंत्री भी देखते है। हालांकि अनुराग का कद केंद्र की सियासत में भी तेजी से बढ़ा रहा है और क्या वे प्रदेश की सियासत में लौटेंगे, ये देखना रोचक होगा। कॉलेज में प्रवक्ता थे, नौकरी छोड़ चुनी राजनीति प्रेम कुमार धूमल का जन्म 10 अप्रैल 1944 को हमीरपुर जिले के समीरपुर गांव में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा मिडिल स्कूल भगवाड़ा में हुई और मैट्रिक हमीरपुर के डीएवी हाई स्कूल टौणी देवी से। 1970 में इन्होंने दोआबा कॉलेज जालंधर में एमए इंग्लिश में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। इसके बाद पंजाब यूनिवर्सिटी के जालंधर स्थित कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में कार्य किया और बाद दोआबा कॉलेज जालंधर चले गए। नौकरी करते हुए उन्होंने एलएलबी भी की। इसी के साथ धूमल कई सामजिक संगठनों के साथ भी जुड़े रहे। राजनीति में प्रो धूमल का कद रातों रात नहीं बढ़ा था और यूँ ही कोई धूमल बन भी नहीं सकता। सियासत में आने के लिए धूमल ने प्रोफेसर की नौकरी छोड़ी और शुरुआत की भाजपा के युवा संगठन से। 1980-82 में धूमल भाजयुमो के प्रदेश सचिव रहे। पर चर्चा में आये 1989 में जब उन्होंने हमीरपुर संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में जीत दर्ज की और लोकसभा पहुँच गए। इससे पहले 1984 का चुनाव वे हार चुके थे। इसके बाद 1993-98 में वो हिमाचल प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष रहे। इस बीच 1996 के लोकसभा चुनाव में भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
कोई उन्हें 'एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर' मानता है, तो कोई कमजोर मुख्यमंत्री, लेकिन जयराम ठाकुर को लेकर एक बात सब मानते है, वो है उनकी मेहनत और सरलता जिसकी बदौलत छात्र राजनीति के नारे लगाते -लगाते जयराम हिमाचल प्रदेश की सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे है। 2017 में जब भाजपा के सीएम फेस प्रो प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए तो सबसे बड़ा सवाल ये ही था कि अब मुख्यमंत्री कौन होगा ? सवाल था कि क्या पार्टी धूमल को ही मौका देगी, या कोई और मुख्यमंत्री होगा। भाजपा में कई चाहवान थे और जयराम ठाकुर के अलावा जगत प्रकाश नड्डा, महेंद्र सिंह ठाकुर, सुरेश भारद्वाज, डॉ राजीव बिंदल के नाम को लेकर भी चर्चा थी। उधर धूमल गुट के कई निष्ठावान विधायक उनके लिए अपनी सीट छोड़ने की पेशकश कर चुके थे। जीत कर आएं 44 विधायकों में से आधे से अधिक धूमल के साथ बताये जा रहे थे। फिर तमाम चिंतन -मंथन के बाद आलाकमान ने जयराम ठाकुर के नाम की घोषणा की। ऐसा नहीं है कि जयराम सिर्फ इसलिए सीएम बने क्यों कि धूमल चुनाव हार गए थे। सीएम पद के तो कई दावेदार थे, जयराम ही क्यों ? जयराम ठाकुर के राजनीतिक सफर पर निगाह डालें तो इसका जवाब भी मिल जाता है। एक समय में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के पिता बढ़ई का काम किया करते थे। आर्थिक स्थिति माली थी लेकिन उन्होंने जयराम ठाकुर की शिक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी। जयराम ठाकुर ने मंडी से बीए पास किया और मास्टर्स की पढ़ाई के लिए पंजाब यूनिवर्सिटी का रुख किया। इसी दौरान वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हो गए। इस तरह छात्र राजनीति से उनका राजनीतिक सफर शुरु हो चुका था। जयराम ठाकुर वर्ष 1986 में एबीवीपी के संयुक्त प्रदेश सचिव बने। वर्ष 1989 से 93 तक जम्मू-कश्मीर में संगठन में कार्य किया। वर्ष 1993 से 1995 तक वह भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा के प्रदेश सचिव व प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। अपने कामकाज से वे संघ के भी करीबी हो गए। वर्ष 1998 में वह पहली बार चच्योट से विधायक चुने गए। वर्ष 2000 से 2003 तक वह जिला मंडी भाजपा अध्यक्ष रहे और 2003 से २००५ तक भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे। इसके बाद 2003 तथा 2007 में चच्योट विधानसभा सीट से लगातार जीत हासिल करते रहे। वर्ष 2007 में उन्होंने भाजपा के अध्यक्ष के तौर पर चुनावों में जीत दर्ज न करने का मिथक को तोड़ते हुए लगातार तीसरी जीत हासिल की और धूमल सरकार में पंचायती राज मंत्री बने। परिसीमन के बाद उन्होंने 2012 में सिराज से चुनाव लड़ा और जीते और ये सिलसिला 2017 में भी जारी रहा। हिमाचल प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में जयराम ठाकुर को उनके अच्छे प्रदर्शन का इनाम मिला। उन्होंने खुद की विधानसभा सीट पर तो शानदार जीत दर्ज की ही, जिला मंडी के अंतर्गत आने वाली 10 विधानसभा सीटों में से बीजेपी को 9 सीटें मिली। इस बढ़िया प्रदर्शन का श्रेय भी जयराम ठाकुर को दिया गया। इसी वजह से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। 2017 में मुख्यमंत्री बनने के बाद जयराम ठाकुर की चुनौतियां कम नहीं रही। उन्होंने धूमल का स्थान लिया था तो स्वाभाविक है चुनौतियां कम होनी भी नहीं थी। पर आहिस्ता -आहिस्ता जयराम ठाकुर रंग में आते गए और खुद को साबित भी किया। माहिर उनकी ताजपोशी के बाद से ही मानते रहे कि पार्टी के भीतर उनकी मुखालफत जैसी स्थिति बन सकती है, पर ऐसा एक भी मौका नहीं आया। इस बीच भाजपा पार्टी ने पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप किया और फिर धर्मशाला और पच्छाद का उपचुनाव भी जीता। स्थानीय निकाय चुनाव में भी पार्टी का पलड़ा भारी रहा। पर 2021 में पार्टी सिंबल पर हुए चार नगर निगम चुनाव में से दो में भाजपा को हार मिली। फिर 2021 के अंत में हुए मंडी संसदीय उपचुनाव और तीन विधानसभा उपचुनाव में भी पार्टी हारी और जयराम की मुश्किलों में इजाफा होना शुरू हुआ। इसके बाद तो कयास लगने लगे कि आलाकमान सीएम फेस भी बदल सकता है। पर जयराम ने इसका जवाब ये कहकर दिया कि 'मैं हूँ और मैं ही रहूँगा। हुआ भी ऐसा ही। न सिर्फ जयराम ठाकुर की कुर्सी तब बची रही बल्कि आलाकमान ने उनके चेहरे पर ही हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया। अब इस बार जयराम ठाकुर ने हिमाचल प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का रिवाज बदलने का नारा दिया है। अगर जयराम ठाकुर रिवाज बदल देते है तो वे वीरभद्र सिंह के बाद ऐसा करने वाले पहले मुख्यमंत्री होंगे। कॉलेज के टी स्टॉल पर बैठकर बनाते थे रणनीति हिमाचल के सीएम बने जयराम ठाकुर की सादगी के किस्से आज भी वल्लभ कॉलेज मंडी के गलियारों में गूंजते हैं, खासकर कैंटीन में। यह कैंटीन कॉलेज के बिलकुल साथ सटा मामू टी-स्टाल था। यहां एबीवीपी का छात्र नेता होते हुए दिन भर साथियों के साथ जयराम ठाकुर सियासी चर्चा करते थे। उनकी सादगी और ईमानदारी का हर कोई प्रशंसक था। वे जब जरूरत पड़े तो मामू टी स्टाल का गल्ला संभालने से भी पीछे नहीं रहते। जब मुख्यमंत्री पद के लिए जयराम के नाम पर मुहर लगी तो पूरे मंडी में माहौल उत्सव सा था। मुख्यमंत्री बनने के बाद जयराम ठाकुर मामू टी स्टाल गए और उनका आशीर्वाद लिया। पहली बार चुनाव लड़ने को नहीं थे पैसे जयराम ठाकुर समृद्ध आर्थिक पृष्ठभूमि से नहीं थे। 1993 में जयराम ठाकुर ने प्रदेश की चुनावी राजनीति में एंट्री हुई। उन्हें चच्योट विधानसभा से टिकट दिया गया। वही भारतीय जनता पार्टी के टिकट मिलने से जयराम ठाकुर तो खुश थे, लेकिन परिवार में पिता और मां नाराज थी। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इस वजह से पिता नहीं चाहते थे कि वह चुनाव लड़े, फिर भी जयराम ठाकुर ने हिम्मत नहीं हारी और चुनावी मैदान में उतरे। इस चुनाव में हालांकि उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। जयराम ठाकुर ने चुनाव में 1998 में जीत का स्वाद चखा। उन्हें इसी विधानसभा सीट से फिर टिकट मिला जिसमें वह जीत दर्ज की। संघ प्रचारकों के सम्मेलन में मिले दो दिल हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का निजी जीवन खुली किताब है, लेकिन उनकी पत्नी डॉ. साधना और उनके मिलने की कहानी दिलचस्प है। जयराम ठाकुर और उनकी पत्नी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से गहरा नाता रहा है। डॉ साधना मूल रूप से कर्नाटक की रहने वाली हैं, लेकिन बाद में वह कनार्टक से जयपुर शिफ्ट हो गई थी। जयराम ठाकुर का ससुराल जयपुर के झोटवाड़ा में है। नब्बे के दशक में जम्मू में आयोजित संघ प्रचारकों के सम्मेलन में जयराम की मुलाकात राजस्थान की प्रचारक डॉ. साधना से हुई। यहीं पर जयराम ठाकुर की उनकी पत्नी से जान-पहचान बनी और बाद में दोनों ने शादी करने का फैसला किया और 1995 में दोनों की शादी हुई। डा. साधना पेशे से डॉक्टर हैं और अपने पति की कामयाबी में इनका भी अहम योगदान है। डा. साधना ने घर को तो बखूबी संभाला ही, साथ में अपनी पति के हर कार्य में उनका साथ दिया और हर समय एक मजबूत ढाल की तरह उनके साथ खड़ी रही। हालांकि जब जयराम ठाकुर की शादी हुई उस वक्त जय राम ठाकुर पहला चुनाव हारे हुए थे और राजनीति में अभी उनकी नई-नई पहचान ही बन रही थी। साधना ठाकुर के पिता श्रीनाथ राव भी आरएसएस नेता रहे हैं। कर्मचारियों के विरोध का करना पड़ा सामना बतौर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपने कार्यकाल में हर वर्ग का ख्याल रखा, लेकिन कर्मचारियों का विरोध भी उन्हें खूब सहना पड़ा। 2017 में जब भाजपा की सरकार बनी तो कर्मचारियों को उम्मीद थी की पुरानी पेंशन बहाली के लिए प्रदेश सरकार कुछ कदम उठाएगी। परन्तु सत्ता में आने के बाद जब कोई बदलाव होता नहीं दिखा तो शुरुआत हुई उस संघर्ष की जो आगे चल कर प्रदेश के कर्मचारियों सबसे बड़े आंदोलन में तब्दील हो गया। पुरानी पेंशन को लेकर ये आंदोलन रातों रात खड़ा नहीं हुआ। पहले कई बार पेन डाउन स्ट्राइक हुई और फिर कर्मचारी सड़क पर उतर आएं। मामला विधानसभा घेराव तक पहुंच गया। कभी भारी संख्या में कर्मचारी धर्मशाला पहुंचे तो कभी शिमला, पेंशन व्रत हुए, पेंशन संकल्प रैली हुई, पेंशन अधिकार रैली हुई। कर्मचारियों के इन प्रदर्शनों में उमड़ा जनसैलाब स्पष्ट संकेत देता रहा था कि कर्मचारी मानने को तैयार नहीं थे। मगर सरकार हर बार आर्थिक परिस्थितियों का हवाला देती रही। कर्मचारियों का ये संघर्ष बहुत कम समय में एक आंदोलन में बदल गया। कर्मचारी संगठनों ने खूब हल्ला बोला और सीएम जयराम ठाकुर के लिए " जोइया मामा शुनदा नहीं" के नारे तक लगे। सरकार द्वारा 2009 की अधिसूचना लागू कर प्रदेश के कर्मचारियों को मनाने का भी प्रयास भी हुआ, मगर कर्मचारी पुरानी पेंशन बहाली की मांग पर अड़े रहे। पुरानी पेंशन बहाली को लेकर इस चुनाव में कर्मचारियों ने 'वोट फॉर ओपीएस' अभियान चलाया, जो भाजपा के जी का जंजाल बनता दिख रहा है। अफसरशाही पर पकड़ को लेकर उठते रहे सवाल जयराम ठाकुर पर अफसरशाही पर पकड़ को लेकर अक्सर सवाल उठे है। विरोधी इसे लेकर जयराम ठाकुर को कमजोर मुख्यमंत्री साबित करने में जुटे रहे। दरसअल अपने इस कार्यकाल में जयराम सरकार ने कई मर्तबा अपने फैसले बदले। इसके अलावा कई क्षेत्रों में मंत्रियों की बैठकों में अधिकारीयों की अनुपस्थिति चर्चा में रही, तो कभी किसी मीटिंग में अधिकारी और मंत्री के बीच खींचतान की ख़बरें बाहर आई। पर जयराम ठाकुर ने कई मौकों पर अफसरशाही पर पकड़ को लेकर अपना पक्ष रखा। वे कहते रहे है कि लताड़ लगाकर काम करवाना उनका तरीका नहीं है, प्यार से भी काम होता है।
हिमाचल की सियासत के चाणक्य पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री पंडित सुखराम अलबत्ता कभी प्रदेश के मुख्यमंत्री तो नहीं बन सके, लेकिन वे अपने आप में हिमाचल की सियासत का एक अध्याय थे। पंडित जी सिर्फ सियासत के चाणक्य ही नहीं बल्कि किंग मेकर भी कहे जाते थे। वो पंडित सुखराम ही थे जिनकी बदौलत 1998 में वीरभद्र सिंह दूसरी बार सरकार रिपीट करने में असफल रहे और प्रो प्रेम कुमार धूमल पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। पर बदले में पंडित जी ने अपने सभी पांच विधायकों के लिए मंत्री पद लिया। पंडित सुखराम प्रदेश के वो एकमात्र नेता थे जिन्होंने अपने दम पर प्रदेश में तीसरी पार्टी बनाकर भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े राजनैतिक दलों को दिन में तारे दिखाए। बतौर केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम ने जो काम हिमाचल के विकास या खास तौर पर मंडी के लिए किये, उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। पंडित सुखराम का जन्म 27 जुलाई 1927 को हिमाचल के कोटली गांव में रहने वाले एक गरीब परिवार में हुआ था। पंडित जी ने दिल्ली लॉ स्कूल से वकालत की और फिर अपने करियर की शुरुआत बतौर सरकारी कर्मचारी की। उन्होंने 1953 में नगर पालिका मंडी में बतौर सचिव अपनी सेवाएं दी। इसके बाद 1962 में मंडी सदर से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते। 1967 में इन्हें कांग्रेस पार्टी का टिकट मिला और फिर से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। इसके बाद पंडित सुखराम ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पंडित सुखराम के परिवार ने मंडी सदर विधानसभा क्षेत्र से जब भी चुनाव लड़ा, हर बार जीत हासिल की। सर्वविदित है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम की तमन्ना थी कि वे बतौर मुख्यमंत्री हिमाचल प्रदेश की भागदौड़ संभाले। पर वीरभद्र सिंह के होते ऐसा हो न सका। कई ऐसे मौके भी आए जब पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। पहला मौका आया साल 1983 में। तत्कालीन मुख्यमंत्री ठाकुर राम लाल का नाम टिम्बर घोटाले में आया तो पार्टी आलाकमान ने उनसे इस्तीफा ले लिया। नए मुख्यमंत्री के नाम को लेकर कयास लग रहे थे और इनमें से एक प्रमुख नाम था पंडित सुखराम का जो ठाकुर राम लाल की कैबिनेट में मंत्री भी थे। पर इंदिरा गांधी का आशीर्वाद मिला वीरभद्र सिंह को जो उस वक्त केंद्र में सियासत कर रहे थे। इस तरह वीरभद्र सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने और पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। 1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ होने के बाद वीरभद्र सिंह के नेतृत्व को लेकर सवाल उठ रहे थे। 1993 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी। कहते ही तब 20 से अधिक विधायक पंडित सुखराम के पक्ष में थे लेकिन जिला मंडी के ही कुछ नेता उनकी राह का रोड़ा बने और तीसरी बार वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने। इस तरह फिर पंडित जी मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। इसके बाद 1996 में पंडित सुखराम का नाम टेलीकॉम घोटाले में सामने आया था। सीबीआई ने सुखराम, रुनु घोष और हैदराबाद स्थित एडवांस रेडियो फॉर्म कंपनी के मालिक पर केस दर्ज कर लिया था। सीबीआई की एक टीम उनके आवास पर छापेमारी की थी और पैसा बरामद किया था। नरसिम्हा राव सरकार में सुखराम के संचार मंत्री रहते हुए ये घोटाला हुआ। इस घोटाले ने न सिर्फ कांग्रेस की सरकार को हिला दिया बल्कि पंडित सुखराम को मंत्री पद और कांग्रेस पार्टी का साथ, दोनों ही खोने पड़े। ये घोटाला पंडित सुखराम के जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय बनकर रह गया। इसके बाद ही पंडित सुखराम ने अपनी पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई। केंद्र की सियासत में रहा रसूख केंद्र की सियासत में भी पंडित सुखराम बड़ा नाम थे। सांसद रहते उन्होंने केंद्र में विभिन्न मंत्रालयों का कार्यभार संभाल। 1984 में सुखराम ने कांग्रेस पार्टी के टिकट पर पहला लोकसभा चुनाव लड़ा और प्रचंड जीत के साथ संसद पहुंचे। 1989 के लोकसभा चुनावों में उन्हें भाजपा के महेश्वर सिंह से हार का सामना करना पड़ा। 1991 के लोकसभा चुनावों में सुखराम ने महेश्वर सिंह को हराकर फिर से संसद में कदम रखा। 1996 में सुखराम फिर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। उन्होंने खाद्य, नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले राज्य मंत्री के रूप में कार्य किया। सुखराम पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में टेलीकॉम मिनिस्टर भी रहे। उन्हें भारत में संचार क्रांति का जनक भी कहा जाता है। वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट पर फेरा था पानी 1993 में कांग्रेस की सत्ता वापसी के बाद पंडित सुखराम भी सीएम पद के दावेदार थे, लेकिन वीरभद्र सिंह के आगे उनका दावा टिका नहीं। फिर अगला चुनाव आते-आते पंडित जी कांग्रेस छोड़ चुके थे और 1998 के विधानसभा चुनाव में पंडित सुखराम ने अपनी पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई जिसने वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट के अरमान पर पानी फेर दिया था। तब पंडित जी ने भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाई थी। 2017 में दिया कांग्रेस को झटका पंडित सुखराम ने 2003 में अपना आखिरी विधानसभा का चुनाव लड़ा और इसके बाद कांग्रेस में वापस भी लौट आएं। फिर उन्होंने 2007 में सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। 2012 में उनके बेटे अनिल शर्मा ने सदर से चुनाव लड़ा और वीरभद्र सरकार में मंत्री बने। इसके बाद से सुखराम परिवार वर्ष 2017 तक कांग्रेस में रहा। पर पंडित जी चुनाव से पूर्व सपरिवार भाजपा में शामिल हो गए। उनके इस सियासी पेंतरे ने ऐसी हवा बिगाड़ी कि कांग्रेस का जिला मंडी में खाता भी नहीं खुला। पर पंडित सुखराम का अपने पोते आश्रय शर्मा को सियासत में स्थापित होते देखना चाहते थे। पोते को सांसद बनाने की चाहत में ही पंडित जी 2019 में वापस कांग्रेस में आएं। आश्रय को टिकट भी मिला लेकिन जीत नहीं मिल सकी। वहीं उनके बेटे अनिल शर्मा भाजपा में ही रहे। इसी वर्ष मई में पंडित सुखराम ने दुनिया को अलविदा कह दिया और उनके निधन के बाद उनके परिवार ने भाजपा में रहने का निर्णय लिया। मंडी ने हमेशा साथ दिया, इस बार परिवार का इम्तिहान ! इसे मंडी वालों का पंडित सुखराम के प्रति स्नेह ही कहेंगे कि उन्होंने या उनके पुत्र अनिल शर्मा ने चाहे किसी भी सिंबल पर चुनाव क्यों न लड़ा हो, मंडी वालों ने हमेशा साथ दिया। पहली बार बतौर निर्दलीय चुनाव जीतने वाले पंडित सुखराम लम्बे वक्त तक कांग्रेस में रहे और हमेशा विधानसभा चुनाव जीते। इसके बाद जब 1998 में उन्होंने हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई तो भी मंडी ने उनका साथ दिया। 2017 में जब पंडित जी और उनका परिवार भाजपाई हो गए तो भी मंडी वालों का साथ उन्हें मिला। अब उनके निधन के बाद उनके बेटे अनिल शर्मा ने भाजपा टिकट से मंडी सदर सीट से चुनाव लड़ा है और इस बार ये देखना रोचक होगा कि क्या मंडी पंडित जी के निधन के बाद भी उनके परिवार का साथ देगी।
वो 14 फरवरी 1980 का दिन था। शिमला सर्दी की लहर में थरथरा रहा था। एक माह पहले दिल्ली की सत्ता में कांग्रेस वापस लौटी थी। उसके बाद से ही पूरे देश में नेताओं के दल-बदल से सरकारें गिरने का सिलसिला भी शुरू हो चुका था। हिमाचल प्रदेश में भी जनता पार्टी के विधायकों में भगदड़ मची हुई थी। प्रतिदिन एक-एक, दो-दो करके विधायक पार्टी को छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो रहे थे। 14 फरवरी तक शांता कुमार के 22 विधायक ठाकुर रामलाल के खेमे में जा चुके थे और शांता कुमार समझ चुके थे कि अब हाथ पैर मारने का फायदा नहीं है। सो उन्होंने अपना इस्तीफा राज्यपाल अमीरुद्दीन खां को दे दिया। अपने कार्यालय से उन्होंने अपनी पत्नी को फ़ोन किया, उन्हें बुलाया और दोनों सिनेमा देखने चले गए। फिल्म थी जुगनू। इस्तीफा देकर फिल्म देखने जाने वाला मुख्यमंत्री हिन्दुस्तान के इतिहास में शायद ही दूसरा कोई हो। दूसरा कोई हो भी नहीं सकता, शांता सिर्फ एक ही हो सकते है। हिमाचल के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनने का खिताब शांता कुमार के नाम है, इसी के साथ शांता कुमार प्रदेश के एकलौते ब्राह्मण मुख्यमंत्री भी है। कांग्रेस के एकछत्र राज को तोड़ जनता पार्टी की सरकार बनाने में शांता कुमार का बड़ा हाथ था। अपने उसूलों, और नियमों पर चलने वाले शांता भगवत गीता और स्वामी विवेकानंद को अपने जीवन का आधार मानते है। इन्हीं आदर्शों पर चलते हुए शांता ताउम्र राजनीति करते रहे। शांता कुमार का जन्म 12 सितंबर 1934 को जगन्नाथ शर्मा और कौशल्या देवी के घर हुआ। पंडित के घर पैदा होने वाले शांता कुमार को आज हिमाचल के अलावा पूरा देश जानता है। शांता कुमार ने जेबीटी की पढ़ाई की और उसके बाद एक स्कूल में टीचिंग का काम करने लगे। लेकिन जल्द ही टीचिंग से उनका मोहभंग हो गया। वो दिल्ली चले गए और वहां संघ के साथ काम करने लगे। हालांकि उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी और ओपन यूनिवर्सिटी से वकालत की डिग्री हासिल की। शांता के राजनीतिक करियर का आगाज वर्ष 1964 में हुआ। शांता ने पंचायत चुनाव लड़ा और पंच बन गए। ये बस शुरुआत थी। वर्ष 1967 आया और शांता ने जिला कांगड़ा के पालमपुर से अपना पहला चुनाव लड़ा लेकिन चुनाव हार गए। पर इसके बाद धीरे-धीरे शांता विपक्ष का चेहरा बनते गए। 1972 का साल आया और शांता एक बार फिर विधानसभा चुनाव के रण में उतरे। इस बार क्षेत्र था जिला कांगड़ा का खेरा। इस मर्तबा शांता चुनाव जीत गए और विधानसभा में विपक्ष की आवाज़ के तौर पर उनकी पहचान स्थापित हो गई। फिर इंदिरा गांधी सरकार ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू किया। इमरजेंसी लगी तो राजनैतिक हालात बदल गए और शांता कुमार को भी नाहन जेल में बंद कर दिया गया, जहाँ उनका साहित्यकार अवतार देखने को मिला। जेल में रहते हुए शांता कुमार ने कई उपन्यास लिखे, जिसका श्रेय वे कांग्रेस को देते है। 21 महीने तक लगे इस आपातकाल को 21 मार्च 1977 को खत्म किया गया था। इसके बाद हिमाचल में विधानसभा का चौथा चुनाव हुआ। कई मायनों में साल 1977 का ये विधानसभा चुनाव खास बन गया। इस चुनाव में सूबे में जनता पार्टी ने बढ़त बनाई थी और शांता कुमार मुख्यमंत्री बने। ये वो चुनाव था जब प्रदेश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार आई थी और तब खुद के अपने एक वोट की बदौलत शांता कुमार ने सीएम बनकर इतिहास रचा था। दरअसल 1977 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश में जनता पार्टी को 53 सीटें मिली थी। जबकि कांग्रेस को महज 9 सीट मिली थी। उस चुनाव में 6 निर्दलीय भी जीते थे और सभी ने जनता पार्टी को समर्थन दिया। इस तरह कुल विधायकों का आंकड़ा पहुंच गया 59। चुनाव के बाद बारी आई मुख्यमंत्री चुनने की। सीएम पद के लिए शांता कुमार का मुकाबला हमीरपुर के लोकसभा सदस्य ठाकुर रणजीत सिंह से था। सीएम पद के लिए एक गुट ने सांसद रणजीत सिंह का नाम आगे किया, तो दूसरे ने शांता कुमार के नाम का प्रस्ताव रखा। दोनों गुट सीएम पद पर समझौता करने को तैयार नहीं थे। ऐसे में वोटिंग ही इकलौता रास्ता रह गया था। शांता कुमार के अलावा कुल 58 विधायक थे और जब वोटिंग हुई तो इनमें से 29 ने शांता कुमार का समर्थन किया और 29 ने रणजीत सिंह का। इसके बाद जो हुआ वो इतिहास है। तब अपने ही वोट से शांता कुमार के समर्थक विधायकों का आंकड़ा 30 पहुंचा और इस तरह वे पहली बार मुख्यमंत्री बने। बतौर मुख्यमंत्री अपने पहले कार्यकाल में शांता कुमार ने कई महत्वपूर्ण कार्य किये। अन्तोदय योजना के जरिये उन्होंने गरीबों के बीच अपनी पैठ बनाई। गांव- गांव तक पानी के हैंडपंप पहुंचाए और पानी वाला मुख्यमंत्री कहलाये। सब कुछ ठीक चल रहा था, मगर 1977 में प्रचंड बहुमत के साथ बनी शांता कुमार की सरकार करीब तीन साल बाद अल्पमत में आ गई। फरवरी 1980 में जनता पार्टी के 22 विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी। इसका ज़िक्र शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा निज पथ का अविचल पंथी में भी किया है , शांता कहते है कि "एक एक करके विधायक जनता पार्टी का साथ छोड़ कर कांग्रेस में जा रहे थे। मैं अपने एक पत्रकार मित्र को रोज फोन पर यूं पूछता था, ‘आज का स्कोर...?’ उसके पास पार्टी छोड़ने वालों के संबंध में जो समाचार होता था, वह मुझे बता देता था। मुझे स्पष्ट दिख रहा था कि अब सरकार नहीं टिकेगी। जिन कारणों से और जिस तरीके से विधायक पार्टी छोड़ रहे थे, उसका कोई इलाज हमारे पास नहीं था। मैं चुपचाप तमाशा देख रहा था। कुछ मित्र नाराज होते कि मैं सरकार बचाने के लिए प्रयत्न नहीं कर रहा हूं। जैसे एक डूबते जहाज का कैप्टन चुपचाप बैठा धीरे-धीरे डूबते जहाज को देखता है, ठीक वैसी ही स्थिति मेरी भी थी।" दरअसल तब दल बदल कानून नहीं हुआ करता था। सो ठाकुर रामलाल की जोड़ तोड़ के आगे शांता कुमार के उसूल नहीं टिके। शांता कुमार ने भी इस्तीफा दिया और फिल्म देखने चले गए। बताते है कि अगले दिन लाल कृष्ण आडवाणी ने शांता कुमार को फोन किया और पूछा कौन सी फिल्म देखी। शांता ने जवाब दिया जुगनू, साथ ही फिल्म का रिव्यू भी दे दिया। बोले, 'बहुत अच्छी फिल्म है आप भी देखकर आइये।' शांता ने अपनी आत्मकथा में इस बात का भी ज़िक्र किया है कि तब उनके पास भी सियासी जोड़ तोड़ के लिए धनबल जैसी चीज़ों का प्रस्ताव था, मगर शांता अपने आदर्शवाद पर टिके रहे और उन्होंने इस्तीफा देना बेहतर समझा। भाजपा को हिमाचल में किया खड़ा वर्ष 1980 में ही भारतीय जनता पार्टी का गठन भी हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, भैरों सिंह शेखावत के साथ शांता कुमार भी उस दौर में पार्टी में मुख्य चेहरों में शुमार थे। इसके बाद 10 वर्षों तक शांता कुमार ने भाजपा को हिमाचल में खड़ा करने का काम किया। पार्टी के गठन के बाद 1982 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में ही भाजपा को 29 सीटें मिली थी, जो कांग्रेस से महज दो सीटें कम थी। 1989 में शांता कुमार संसद भी पहुंचे और उसके बाद 1990 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का सीएम फेस रहे। चुनाव में भाजपा को प्रचंड जीत मिली और शांता एक बार फिर मुख्यमंत्री शांता हो गए। दिसंबर 1992 में बाबरी कांड के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने शांता की सरकार को बर्खास्त कर दिया जिसके बाद 1993 में फिर चुनाव हुए।1990 में जिस भाजपा को प्रचंड जीत मिली थी वो 1993 में मजह 8 सीटों पर सिमट कर रह गई। खुद शांता कुमार भी चुनाव हार गए। हार का कारण ये नहीं था कि उन्होंने काम नहीं किया, बल्कि शांता अपने काम की वजह से ही हारे। कांग्रेस के रोटी-कपडा- मकान के घिसे पीटे नारे को लोगों ने शांता के आत्मनिर्भर हिमाचल के नारे पर तरजीह दी। तब उनकी हार का कारण था कर्मचारियों की नाराज़गी। भारी पड़ा 'नो वर्क नो पे' का फरमान हिमाचल में आज भी सत्ता का रास्ता कर्मचारियों के वोट तय करते है। 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद शांता कुमार ने बतौर मुख्यमंत्री निजी क्षेत्र को प्रदेश में हाइड्रो प्रोजेक्ट लगाने की अनुमति दी थी। तब किन्नौर में एक हाइड्रो प्लांट लगा था। इसी के विरोध में सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। शांता भी उसूलों के पक्के थे सो 'नो वर्क नो पे' का फ़रमान जारी कर दिया। 29 दिन चली इस हड़ताल का पैसा कर्मचारियों को नहीं दिया गया। साथ ही इस दौरान करीब 350 कर्मचारियों को उन्होंने बर्खास्त कर दिया। सो जब अगला चुनाव आया तो कर्मचारियों ने भी शांता कुमार से बराबर बदला लिया। शांता की देन है पानी की रॉयल्टी हिमाचल प्रदेश को हर वर्ष करीब दो हजार करोड़ रुपये पानी की रॉयल्टी से मिलते है। ये शांता कुमार की ही देन है। जब पहली बार उन्होंने विधानसभा में इस मुद्दे को उठाया था तो विपक्ष ने जमकर खिल्ली उड़ाई थी। पर कांग्रेस की केंद्र सरकार को ये बात समझ आ गई और हिमाचल को उसका हक मिला। इसका जिक्र भी शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा में किया है। मोदी की पसंद नहीं थे शांता 1993 चुनाव की हार के बाद शांता कुमार प्रदेश की सियासत में वापसी नहीं कर सके।1998 चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी हिमाचल के प्रभारी थे और माना जाता है उनसे शांता की बनती नहीं थी। मोदी की पसंद प्रो प्रेम कुमार धूमल थे और चुनाव से पहले भाजपा ने धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। इसके बाद पंडित सुखराम के समर्थन से धूमल ने पांच वर्ष सत्ता सुख भोगा। शांता कुमार और नरेंद्र मोदी के बीच हमेशा एक लकीर रही है। गोधरा दंगों के बाद शांता कुमार ने नरेंद्र मोदी के बारे में कहा था कि अगर मैं गुजरात का मुख्यमंत्री होता तो त्यागपत्र दे देता। पत्नी संतोष शैलजा ने निभाया हर कदम पर साथ कहते है शांता कुमार के शांता कुमार होने में उनकी धर्मपत्नी संतोष शैलजा की भूमिका भी कम नहीं रही है। संतोष शैलजा शांता कुमार के हर निर्णय में उनके साथ रही। अमृतसर में जन्मी संतोष शैलजा ने अपनी मां को नहीं देखा था। मौसियों ने पाला पोसा और वह दिल्ली के डीएवी स्कूल में पढ़ाने लगी। वहीं शांता कुमार भी पढ़ाते थे। नजदीकी और समझ बढ़ी तो संबंध स्थायी हो गया। हिमाचल प्रदेश लौटे तो यहां की संस्कृति को ऐसे आत्मसात किया कि शांता के पैतृक गांव गढ़ के बुजुर्ग भी कहने लगे, 'लगता नहीं कि बहू बाहर से आई है। ' शांता कुमार राजनीति में आए, आपातकाल में जेल गए तो संतोष शैलजा ने अध्यापन जारी रखते हुए माता-पिता दोनों भूमिकाओं में बच्चों की परवरिश की। वे खुद भी राजनीति में आ सकती थी लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं। अपनी आत्मकथा में भी शांता ने इसका जिक्र किया है। जब अनुरोध था, अवसर था, उन्होंने तब भी राजनीति में आने से इनकार किया। आत्मकथा में लिखा, भाजपा भी सिद्धांतों से समझौते करने लगी है शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा "निजपथ का अविचल पंथी" लिखी है जिसमें उन्होंने न सिर्फ अपने जीवन के बल्कि राजनीति के भी कई राज खोले है। पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा के माध्यम से भाजपा को भी बड़ी नसीहत दी है। उनका मानना है कि धीरे-धीरे सत्ता की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी भी समझौते करने लगी है। राजनीति के प्रदूषण का प्रभाव भाजपा पर भी पड़ना शुरू हो गया है। इस प्रदूषण से उस युग के उनके जैसे थोड़े से बचे हुए नेता बहुत व्यथित होते हैं। शांता ने ये भी लिखा कि "पार्टी के एक पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष ने तो मुझे यहां तक कहा था कि यह वह पार्टी ही नहीं है, जिसमें हम थे, इसलिए व्यथित मत हुआ करो।" उन्होंने आत्मकथा में लिखा, " पूरी राजनीति लगभग भटक चुकी है। अब तो सत्ता प्राप्ति के लिए और विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए दंगे तक करवाए जाते हैं। दल-बदल में नेताओं का क्रय-विक्रय होता है और पता नहीं क्या कुछ किया जाता है। पूरे देश की भ्रष्ट होती हुई इस राजनीति में आशा की एकमात्र अंतिम किरण भाजपा भी यदि भटक गई तो फिर देश का भविष्य कैसा होगा। भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक आधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) है। एक समय था जब संघ के प्रमुख नेता इस बात पर ध्यान करते थे कि पार्टी मूल्यों की राजनीति से कहीं समझौता न कर ले। धीरे-धीरे संघ का यह मार्गदर्शन कम होता जा रहा है। मैं इस सारी स्थिति से चिंतित हूं। "
वीरभद्र सिंह, वो वटवृक्ष है जिनकी छाया में हिमाचल कांग्रेस का सूर्य सदा उदयमान रहा। वो राजा जिसके सियासी कौशल के आगे बड़े -बड़े नतमस्तक हुए। अर्से से हिमाचल में कांग्रेस का मतलब वीरभद्र सिंह ही रहा है। उनका निवास होलीलॉज अर्से से सियासत का केंद्र बिंदु रहा और आज उनके जाने के बाद भी है। उनके कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने वीरभद्र मॉडल को आगे रखकर चुनाव लड़ा है। अखबारों में कांग्रेस के प्रचार का सबसे बड़ा विज्ञापन अब भी वीरभद्र सिंह का दिखा है। निसंदेह हिमाचल प्रदेश की सियासत में वीरभद्र सिंह सबसे बड़ा नाम है। उनका राजनैतिक सफर भी इसकी तस्दीक करता है। 1982 में वीरभद्र सिंह ने पहली बार प्रदेश की सत्ता संभाली थी और 2012 में छठी बार सीएम पद की शपथ ली। 2017 तक वीरभद्र सिंह सीएम रहे और इस दरमियान कई नेताओं का वक्त आया और चला गया, पर वीरभद्र सिंह का तो मानो दौर चल रहा था। वीरभद्र 59 साल के राजनीतिक जीवन में 6 बार मुख्यमंत्री, तीन बार केंद्रीय मंत्री और पांच बार सांसद रहे और जब तक आखिरी सांस ली हिमाचल कांग्रेस में वीरभद्र का ही दबदबा रहा। अलबत्ता जब वे अस्पताल में मौत से संघर्ष करते रहे, तब भी उनका होना मात्र ही निष्ठावान कांग्रेसियों को ऊर्जा देता रहा। वीरभद्र सिंह का रुतबा इतना ऊंचा रहा है कि पार्टी के बड़े नेता भी मुखर होकर उनका विरोध नहीं कर पाए। वे सर्वमान्य नेता बने रहे, अपनों के लिए भी और विरोधियों के लिए भी। शिमला का बिशप कॉटन स्कूल हिमाचल का ही नहीं अपितु देश के प्रतिष्ठित स्कूलों में शुमार है। उस दौर में जब रामपुर- बुशहर रियासत के राजकुमार वीरभद्र ने बिशप कॉटन स्कूल में दाखिला लिया था तो किसी ने नहीं सोचा होगा कि स्कूल का नाम उस शख्सियत से जुड़ने जा रहा है जो आगे चलकर 6 बार हिमाचल का सीएम बनेगा। स्कूल पास आउट करने के बाद वीरभद्र ने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में हिस्ट्री होनोर्स में बीए और एमए की। हसरत थी हिस्ट्री का प्रोफेसर बन छात्रों को पढ़ाने की। पर देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था और वीरभद्र सिंह राजनीति में आ गए। जो वीरभद्र छात्रों को इतिहास पढ़ाना चाहते थे, उन्होंने खुद इतिहास बना दिया। सबसे अधिक समय तक हिमाचल का सीएम रहने का रिकॉर्ड वीरभद्र सिंह के ही नाम है। वे करीब 22 वर्ष और कुल 6 बार हिमाचल के सीएम रहे है। 1962 में हुई चुनावी राजनीति में एंट्री प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की प्रेरणा से उन्होंने राजनीति में आने का निर्णय लिया था। नेहरू की बेटी और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी भी तब वीरभद्र से खासी प्रभावित थी। इंदिरा के कहने पर 1959 में वीरभद्र सिंह दिल्ली से हिमाचल लौटे और लोगों के बीच जाकर उनके लिए काम करना शुरू किया। वीरभद्र का ताल्लुक तो रामपुर- बुशहर रियासत से था, लेकिन जल्द ही वे शिमला क्षेत्र में कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा बन गए। नतीजन 1962 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें महासू ( वर्तमान शिमला ) सीट से उम्मीदवार बनाया। 28 वर्ष के वीरभद्र आसानी से चुनाव जीत गए और पहली मर्तबा लोकसभा पहुंचे। इसके बाद 1967 और 1972 में वीरभद्र मंडी से चुनाव लड़ लोकसभा पहुंचे। हालांकि इमरजेंसी के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में वीरभद्र को हार का मुँह देखना पड़ा। पर उन्होंने अपनी निष्ठा नहीं बदली और इंदिरा गांधी के वफादार बने रहे। 1980 में फिर चुनाव हुए और वीरभद्र सिंह एक बार फिर जीत कर लोकसभा पहुँच गए। 1982 में इंदिरा सरकार में उन्हें उद्योग राज्य मंत्री भी बना दिया गया। 1983 में हुई हिमाचल की सियासत में एंट्री वीरभद्र वर्ष 1962 से चुनावी राजनीति में है पर हिमाचल प्रदेश की सियासत में उनका आगमन हुआ वर्ष 1983 में। वर्ष 1983 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे ठाकुर रामलाल। तब वीरभद्र केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार में मंत्री थे। तभी टिंबर घोटाले के आरोप के चलते ठाकुर रामलाल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और पार्टी हाईकमान ने भरोसा जताया वीरभद्र सिंह पर। इसके बाद से हिमाचल प्रदेश की सियासत वीरभद्र सिंह के इर्द गिर्द घूमती रही। 1985 में वीरभद्र ने करवा दिया रिपीट 1985 आते -आते कांग्रेस के भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। टिम्बर घोटाले के आरोपों के बीच 1983 में ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो चुके थे। इसके बाद 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में कांग्रेस को लेकर सहानुभूति थी और लोकसभा चुनाव में पार्टी को इसका भरपूर लाभ मिला था। वीरभद्र सिंह भी स्थिति को भांप चुके थे और सियासी लाभ के लिए उन्होंने समय से पहले 1985 में ही चुनाव करवा दिए। कांग्रेस को इसका लाभ मिला और पार्टी 58 सीट जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। ये आखिरी बार था जब प्रदेश में कोई सरकार रिपीट हुई। 1993 में फिर की वापसी 1990 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। खुद वीरभद्र सिंह भी जुब्बल कोटखाई से चुनाव हार गए थे। ऐसा लगने लगा था कि शायद ही वीरभद्र इसके बाद कभी सीएम बने। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि तब पंडित सुखराम और विद्या स्ट्रोक्स का भी हिमाचल और कांग्रेस में खासा दबदबा था। पर जो आसानी से हार मान ले, वो वीरभद्र सिंह नहीं बनते। हार के बाद वीरभद्र ने संगठन में अपनी जड़ें और मजबूत की और विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बने रहे। शांता सरकार की गिरती लोकप्रियता को भी उन्होंने जमकर भुनाया। 1993 में शांता सरकार गिरने के बाद जब चुनाव हुए तो वीरभद्र सिंह तीसरी बार प्रदेश के सीएम बने। 1998 में भी कांग्रेस प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई, लेकिन पंडित सुखराम के सहयोग से सरकार भाजपा की बनी। 2003 में फिर वीरभद्र सिंह की वापसी हुई और वे दिसंबर 2007 तक हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे। 2007 में सत्ता से बाहर होने के बाद वीरभद्र सिंह ने केंद्र का रुख किया और 2009 से 2012 तक केंद्र में मंत्री रहे। 2012 में कई नेताओं के मंसूबों पर फेरा पानी 2012 विधानसभा चुनाव के वक्त वीरभद्र सिंह की आयु 78 के पार थी। केंद्र में मंत्री होने के चलते शायद ही किसी को वीरभद्र के लौटने की उम्मीद रही हो। कांग्रेस में भी कई चाहवान सीएम की कुर्सी पर आंखें गड़ाए बैठे थे। पर वीरभद्र को तो अभी दिल्ली से शिमला वापस लौटना था। चुनाव से पहले वीरभद्र ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और हिमाचल लौट आये। हालांकि तब आलाकमान वीरभद्र के हाथ कांग्रेस की कमान सौंपने के लिए राजी नहीं था। पिछले कई साल से प्रदेश में कांग्रेस की जड़ें मज़बूत कर रहे कौल सिंह ठाकुर और आलाकमान के करीबी सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। मगर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर वीरभद्र ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी, 'मैं ढोलक बजाऊंगा और सेना नृत्य करेगी।' वीरभद्र ने दिल्ली दरबार को स्पष्ट कर दिया था कि सीएम तो वे ही होंगे, चाहे पार्टी कोई भी हो।आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और वे छठी बार सीएम बने। 83 की उम्र में कांग्रेस ने बनाया सीएम फेस साल था 2017 का। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका था। भाजपा में सीएम फेस को लेकर दुविधा थी और अंतिम क्षण तक पार्टी सीएम फेस घोषित करने से बचती रही। उधर, कांग्रेस के सामने कोई दुविधा नहीं थी। 83 वर्ष के वीरभद्र सिंह पार्टी के सीएम कैंडिडेट थे और अकेले भाजपा से लोहा ले रहे थे। संभवतः इससे पहले और इसके बाद भी इतने उम्रदराज नेता को हिंदुस्तान में कभी भी, किसी भी चुनाव में सीएम फेस घोषित नहीं किया गया। दिलचस्प बात ये है कि इस निर्णय को लेकर शायद ही कांग्रेस आलाकमान के मन में कोई दुविधा रही हो। खेर, कांग्रेस चुनाव हार गई पर हिमाचल में वीरभद्र का जलवा उनकी अंतिम सांस तक बरकरार रहा। पीएम इंदिरा गांधी से विवाह की अनुमति लेने गए वीरभद्र सिंह का विवाह दो बार हुआ। 20 साल की उम्र में जुब्बल की राजकुमारी रतन कुमारी से उनकी पहली शादी हुई। किन्तु कुछ वर्षों बाद ही रतन कुमारी का देहांत हो गया। इसके बाद 1985 में उन्होंने प्रतिभा सिंह से शादी की। प्रतिभा सिंह से वीरभद्र सिंह की शादी का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। दरअसल वीरभद्र सिंह की पहली पत्नी के निधन के बाद वीरभद्र की माता उनसे दूसरी शादी करने के लिए कहा करती थी, लेकिन वीरभद्र काफी सालों तक नहीं माने। काफी मनाने के बाद जब वीरभद्र माने तो सहमति प्रतिभा सिंह के नाम पर बनी। उस वक्त वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री थे तो वीरभद्र सिंह पीएम इंदिरा गांधी से भी मिलने गए और उनसे से भी इसकी आज्ञा ली। हालाँकि तब इंदिरा ने उनसे कहा था की ये आपका निजी जीवन है इसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं। सिर्फ यही नहीं वीरभद्र ने उस ज़माने में प्रतिभा से भी उनकी इच्छा पूछी थी। दरससल प्रतिभा सिंह, वीरभद्र सिंह से उम्र में काफी छोटी थी। ऐसे में वीरभद्र नहीं चाहते थे कि उनकी इच्छा के खिलाफ कुछ भी हो। प्रतिभा भी राजी हुई तो फिर बिना किसी शोर के काफी सादे तरीके से शादी हुई। कहते है जिस दिन वीरभद्र की शादी हुई उस दिन भी वे मुख्यमंत्री कार्यालय में काम कर रहे थे। आज प्रतिभा सिंह कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष है और उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह शिमला ग्रामीण से विधायक। कई नेताओं के अरमान कुचले अपनी सियासी पारी में वीरभद्र सिंह न सिर्फ दूसरे राजनीतिक दलों से लोहा लिया बल्कि पार्टी के भीतर भी अपना तिलिस्म बरकरार रखा। वो उन अपवादों में शामिल है जिन्होंने आलाकमान की हां में हां नहीं मिलाई बल्कि जिनकी ताकत के आगे कई मौकों पर आलाकमान भी झुका। वीरभद्र की सियासी महारथ के आगे कई दिग्गज नेताओं का सीएम बनने का अरमान आजीवन अधूरा रहा जिनमें राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले पंडित सुखराम और विद्या स्टोक्स भी शामिल है। 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले भी वीरभद्र सिंह ने केंद्र से वापसी कर प्रदेश की सियासत का रुख किया और न सिर्फ भाजपा की बाजी पलट दी अपितु पार्टी के भीतर भी कई नेताओं के अरमान कुचल दिए। सर्वमान्य : चार निर्वाचन क्षेत्रों से जीते हिमाचल की सियासत में यदि कोई ऐसा नेता है जिसका वर्चस्व पूरे प्रदेश में दिखा तो वे थे वीरभद्र सिंह। उनकी जमीनी पकड़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे चार निर्वाचन क्षेत्रों से विधायक रहे। जुब्बल -कोटखाई से उनकी शुरुआत हुई, फिर रोहड़ू को अपना गढ़ बनाया, तदोपरांत शिमला ग्रामीण से जीतकर विधानसभा पहुंचे और अपने अंतिम चुनाव में अर्की से जीतकर अपनी लोकप्रियता का लोहा मनवाया। हिमाचल में उन जैसा सर्वमान्य नेता निसंदेह कोई नहीं हुआ।
हिमाचल का ये नेता जब भी मुख्यमंत्री बना, अपनी सियासी तिकड़म से बना। एक बार अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता डॉ यशवंत सिंह परमार को हटाकर सीएम पद कब्जाया, तो अगली बार शांता कुमार की जनता पार्टी के विधायकों को अपनी तरफ मिला लिया और कुर्सी हथिया ली। तीसरे मौके पर बहुमत नहीं था, तो निर्दलीयों को साध कर अपनी राजनीतिक कुशलता साबित कर दी। हम बात कर रहे है ठाकुर रामलाल की। वही ठाकुर राम लाल जो 1957 से 1998 तक 9 बार जुब्बल कोटखाई से विधायक चुने गए। उन्हें विरोधियों ने देवदार के पेड़ खाने वाला सीएम तक कहा। फिर ये ही ठाकुर रामलाल जब आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बने तो विरोधियों ने उन्हें लोकतंत्र खाने वाला राज्यपाल कहा। ठाकुर रामलाल ही वो नेता थे जिन्होंने 18 साल सीएम रहे डॉ यशवंत सिंह परमार की राजनीतिक विदाई का ताना बाना बुना और उन्हें हिमाचल का तिकड़मबाज सीएम कहा गया। ठाकुर को हिमाचल प्रदेश में जोड़ तोड़ की राजनीति का जनक कहा जाता है। पहली बार रामलाल ने ही सूबे में राजनीतिक दांव-पेंच दिखाया था और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। साल 1957 में पहली बार ठाकुर रामलाल जुब्बल कोटखाई से विधायक बने। ठाकुर साहब 9 बार विधानसभा पहुंचे और हर बार उन्होंने जुब्बल कोटखाई का प्रतिनिधित्व किया। रामलाल ने हर बार बड़े अंतर से चुनाव में जीत हासिल की। साल 1977 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ लहर थी और कई दिग्गज चुनाव हार गए थे। उस वक्त भी ठाकुर रामलाल ने जुब्बल कोटखाई से 60 फीसदी से ज्यादा वोट पाकर जीत हासिल की थी। 28 जनवरी 1977 को हिमाचल निर्माता और पहले मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार इस्तीफा दे देते है। इसे डॉ परमार की समझ कहे या ठाकुर राम लाल की पॉलिटिकल मैनेजमेंट, कि खुद डॉ परमार पार्टी आलाकमान का रुख भांपते हुए ठाकुर रामलाल के नाम का प्रस्ताव देते है। उसी दिन शाम को ठाकुर रामलाल पहली बार हिमाचल के सीएम पद की शपथ लेते है। ऐसा अकस्मात नहीं हुआ था। दरअसल इससे करीब एक सप्ताह पहले ठाकुर रामलाल 22 विधायकों की परेड प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष करवा चुके थे। वैसे भी इमरजेंसी के दौरान ठाकुर रामलाल संजय गांधी के करीबी हो चुके थे। रामलाल, डॉ परमार की कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री थे और उन्होंने संजय के नसबंदी अभियान को अपने क्षेत्र में पूरे जोर- शोर के साथ चलाया था। इसका लाभ भी उन्हें मिला। इस तरह ठाकुर रामलाल पहली बार मुख्यमंत्री बने। पर करीब तीन माह बाद ही प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया और बतौर मुख्यमंत्री उनका पहला टर्म समाप्त हुआ। आपातकाल के बाद देश में कांग्रेस विरोधी लहर थी और हिमाचल भी इससे अछूता नहीं रहा। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। प्रचंड बहुमत के साथ जनता पार्टी की सरकार बनी और शांता कुमार अगले मुख्यमंत्री बने। पर शांता भी सत्ता का सुख ज्यादा नहीं भोग पाए। फरवरी 1980 में ठाकुर रामलाल ने एक बार फिर अपनी तिकड़मबाजी दिखाई और शांता कुमार के 22 विधायक ठाकुर रामलाल के साथ हो लिए। रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी और ठाकुर रामलाल फिर मुख्यमंत्री बन गए। 1982 में फिर चुनाव हुए और हिमाचल में पहली बार किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस को 31 सीटें मिली जो बहुमत से चार कम थी और 6 निर्दलीय विधायक भी चुन कर आये थे। तब तक भाजपा का गठन भी हो चुका था और भाजपा भी शांता कुमार की अगुवाई में सरकार बनाने की जद्दोजहद में जुट गई। तब भाजपा को 29 सीटें मिली थी और दो सीटें जनता पार्टी ने जीती थी। नतीजन सारा दारोमदार निर्दलीय विधायकों पर था। तब एक बार फिर ठाकुर रामलाल की राजनीतिक करामात कांग्रेस के काम आई और 5 निर्दलीय विधायकों के समर्थन से रामलाल तीसरी बार हिमाचल के मुख्यमंत्री बने। एक गुमनाम पत्र ने गिरा दी कुर्सी सीएम ठाकुर रामलाल के लिए सब कुछ ठीक चल रहा था। इसी बीच जनवरी 1983 में हिमाचल प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश को एक गुमनाम पत्र मिलता है। पत्र में लिखा गया था कि ठाकुर रामलाल के दामाद पद्म सिंह, बेटे जगदीश और उनके मित्र मस्तराम द्वारा जुब्बल-कोटखाई व चौपाल इलाके में सरकारी भूमि से देवदार की लकड़ी काटी जा रही है, जिसकी कीमत करोड़ों में है। न्यायाधीश ने जांच बैठाई, जिसके बाद ठाकुर रामलाल पर खुले तौर पर टिम्बर घोटाले के आरोप लगने लगे। शायद ठाकुर रामलाल इस स्थिति को भी संभाल लेते लेकिन उनसे एक और चूक हो गई जिसका खामियाजा उन्हें सीएम की कुर्सी गंवा कर चुकाना पड़ा। दरअसल ठाकुर रामलाल ने दिल्ली में पत्रकार वार्ता कर ये कह दिया कि उन्हें राजीव गांधी ने आश्वासन दिया है कि उन्हें टिम्बर घोटाले को लेकर परेशान नहीं किया जायेगा। इसके बाद राजीव गांधी पर आरोप लगने लगे कि वे भ्रष्टाचार के आरोपी का बचाव कर रहे है। नतीजन ठाकुर रामलाल को इस्तीफा देना पड़ा। दिलचस्प बात ये रही कि जिस तरह डॉ यशवंत सिंह परमार ने इस्तीफा देकर ठाकुर रामलाल का नाम प्रस्तावित किया था, उसी तरह ठाकुर रामलाल को इस्तीफा देकर वीरभद्र सिंह के नाम का प्रस्ताव देना पड़ा। राज्यपाल बनकर भी रहे विवादों में ठाकुर रामलाल के बतौर मुख्यमंत्री सफर पर तो वीरभद्र सिंह के सत्ता संभालने के बाद ही विराम लग गया था, किन्तु अभी तो ठाकुर रामलाल पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगना बाकी था। कांग्रेस ने रामलाल को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाकर भेज दिया था। आंध्र में 1983 में चुनाव हुए थे जिसमें एन टी रामाराव मुख्यमंत्री बने थे। इसी दौरान अगस्त 1983 में एन टी रामाराव उपचार के लिए विदेश चले गए। ठाकुर रामलाल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा अभी बाकी थी, सो रामलाल ने कांग्रेस नेता विजय भास्कर राव को बिना विधायकों की परेड के ही सीएम बना दिया। वे इंदिरा के दरबार में अपनी कुव्वत बढ़ाना चाहते थे, पर हुआ उल्टा। एनटी रामाराव वापस वतन लौटे और व्हील चेयर पर बैठ दिल्ली में 181 विधायकों के साथ जुलूस निकाला। कांग्रेस की जमकर थू-थू हुई और रातों रात ठाकुर रामलाल के स्थान पर शंकर दयाल शर्मा को राज्यपाल बना दिया गया। इसके बाद रामलाल ने कांग्रेस छोड़ी, वापस भी आये पर स्थापित नहीं हो पाए। वीरभद्र को चुनाव हराने वाला नेता हिमाचल की सियासत में वीरभद्र सिंह से बड़े कद का नेता शायद ही दूसरा कोई हो। वीरभद्र अपने राजनीतिक जीवन में सिर्फ एक चुनाव हारे है और उनको हराने वाले थे ठाकुर रामलाल। जब ठाकुर रामलाल को आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के पद से हटाया गया तो वो हिमाचल प्रदेश की सियासत में लौटे। उन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया और जनता दल का दामन थाम लिया। साल 1990 के विधानसभा चुनाव में ठाकुर ने जुब्बल कोटखाई से पर्चा भरा। उनके खिलाफ कांग्रेस ने दिग्गज नेता और सीटिंग सीएम वीरभद्र सिंह मैदान में उतरे। उस विधानसभा चुनाव में ठाकुर रामलाल ने वीरभद्र सिंह को चुनाव हराकर साबित कर दिया था कि उस क्षेत्र में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं हुआ। दिलचस्प बात ये है कि सीएम बनने के बाद वीरभद्र सिंह इसी सीट से 1983 का उपचुनाव जीते थे और 1985 में इसी सीट से जीतकर दूसरी बार सीएम बने थे। विरासत को संभाल रहे रोहित ठाकुर 1990 के चुनाव के बाद ठाकुर रामलाल कांग्रेस में वापस लौट आएं। वे 1993 और 1998 का विधानसभा चुनाव फिर जुब्बल कोटखाई सीट से लड़े और जीते भी। साल 2002 में ठाकुर रामलाल का निधन हो गया। उनकी राजनीतिक विरासत को अब उनके पोते रोहित ठाकुर संभाल रहे है। 2003 हुए चुनाव में रोहित ठाकुर पहली बार जुब्बल कोटखाई विधानसभा क्षेत्र से मैदान में उतरे और चुनाव जीते भी। पर साल 2007 का चुनाव रोहित ठाकुर भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र बरागटा से हार गए। साल 2012 में रोहित ने नरेंद्र बरागटा को फिर हराया लेकिन साल 2017 में बाजी पलटी और नरेंद्र बरागटा फिर रोहित ठाकुर को हराकर विधानसभा पहुंचे। हालांकि नरेंद्र बरागटा के स्वर्गवास के बाद पिछले साल हुए उपचुनाव में रोहित ठाकुर ने एक बार फिर जीत दर्ज की। इस बार भी रोहित ठाकुर ने ही जुब्बल कोटखाई से चुनाव लड़ा है।
25 जनवरी 1971, कड़कड़ाती ठंड के बावजूद शिमला का रिज मैदान लोगों से खचाखच भरा था। बर्फ के फाहे गिर रहे थे, मगर जनता अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं थी। इंतजार था देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का। इंतजार था हिमाचल प्रदेश के भारतीय गणराज्य के 18वां राज्य बनने का। ठंड थी, तो लगा शायद मैडम आज न पहुँच पाए। पर जोश इतना कि लोग इंतज़ार करते रहे और आखिरकार मैडम प्राइम मिनिस्टर आई भी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी वहां पहुंची और बर्फ के फाहों के बीच हिमाचल प्रदेश के पूर्ण राज्यत्व की घोषणा राजधानी शिमला के रिज मैदान के टका बैंच से की। हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने के लिए एक शख्स ने कड़ी मेहनत की थी। ये वो इंसान था जो अंग्रेज़ो से भी लड़ा और अपने ही देश के रियासती शासकों से भी। हम बात कर रहे है हिमाचल प्रदेश के निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार की। कहते है अगर डॉक्टर परमार न होते तो हिमाचल, हिमाचल न होता। डा. परमार ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने प्रदेश का इतिहास ही नहीं भूगोल भी बदल कर रख दिया था। इसका जीता जागता प्रमाण पूर्ण राज्य के रूप में प्रदेशवासियों के सामने है। वो परमार ही थी जिनके बूते प्रदेश की सीमाओं को और बड़ा कर दिया गया था, वो भी उस वक्त जब प्रदेश को पंजाब में मिलाने की पुरजोर बात चल रही थी। अंग्रेजों और रियासती शासन के खिलाफ मुखर रहने वाले डॉ. परमार पहाड़ और पहाड़ियों के हितों के लिए भी हमेशा संजीदगी के साथ सक्रिय रहे। बात चाहे हिमाचल के गठन की हो या फिर पूर्ण राज्यत्व का दर्जा दिलाने की, उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। कहते है सियासत महाठगिनी है, ये कब किस ओर पलट जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। डॉ परमार के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 28 जनवरी 1977 के दिन सियासत का पहिया घूमा और प्रदेश निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार को बतौर मुख्यमंत्री अपना त्याग पत्र देना पड़ा। जो शख्स चंद मिनटों पहले मुख्यमंत्री था, जिसने हिमाचल के निर्माण में अमिट योगदान दिया था, या यूँ कहे कि जिसकी वजह से हिमाचल का गठन संभव हो पाया था वो प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं रहे। इसके बाद यशवंत सिंह परमार शिमला बस स्टैंड पहुंचे, वहां खड़ी सिरमौर जाने वाली एचआरटीसी की बस में बैठे, टिकट लिया और अपने गांव बागथन के लिए रवाना हो गए। 18 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद इस्तीफा देकर बस से वापस घर लौटने वाला सीएम, शायद ही हिन्दुस्तान में दूसरा कोई होगा। डॉ यशवंत सिंह परमार की ईमानदारी का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा, कि उनके अंतिम समय में उनके बैंक खाते में महज 563 रुपये और 30 पैसे थे। प्रदेश निर्माण करने वाले मुख्यमंत्री ने न तो खुद के लिए कोई मकान बनवाया, न कोई वाहन खरीदा और न ही अपने पद और ताकत का गलत इस्तेमाल कर अपने परिवार के किसी व्यक्ति या रिश्तेदार की नौकरी लगवाई। जज की नौकरी त्यागी और प्रजामण्डल आंदोलन में हुए शामिल रजवाड़ा शाही के दौर में सिरमौर रियासत के राजा के वरिष्ठ सचिव हुआ करते थे शिवानंद सिंह भंडारी। उन्हीं भंडारी के घर चार अगस्त 1906 को एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम खुद राजा द्वारा यशवंत सिंह रखा गया। उनका जन्म बागथन क्षेत्र के चन्हालग गांव में हुआ था। यह गांव अब ग्राम पंचायत लानाबांका के तहत आता है। बचपन से ही यशवंत पढ़ाई में तेज थे। डॉ. परमार की माता का नाम लक्ष्मी देवी था। कहते है कि लोक संस्कृति और पारंपरिक खानपान के प्रति डॉ. यशवंत सिंह परमार का विशेष लगाव रहा तो यह उनकी मां से मिले संस्कार की बदौलत संभव हुआ। डॉ. परमार की शुरुआती शिक्षा शमशेर हाई स्कूल नाहन से हुई। क्षेत्र में उच्च शिक्षा के लिए कोई कॉलेज नहीं था, तो उन्होंने लाहौर के फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज दाखिला लिया। 1928 में बीए ऑनर्स किया। पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से डिग्री लेने के बाद उन्होंने कैनिंग कॉलेज लखनऊ में प्रवेश लिया। लखनऊ के इस कॉलेज से समाज शास्त्र में एमए किया। इसके बाद उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी की डिग्री हासिल की। साथ ही डॉक्ट्रेट भी की। डॉक्ट्रेट का विषय था 'द सोशल एंड इकोनॉमिक बैक ग्राउंड ऑफ द हिमालयन पॉलिएड्री', यानी बहुपति प्रथा। खेर, शिक्षा पूर्ण करने के बाद परमार वापस अपने गृह क्षेत्र सिरमौर आ गए, जहां उन्हें सिरमौर रियासत में बतौर न्यायाधीश नियुक्त किया गया। 1937 से 1940 तक परमार जिला एवं सत्र न्यायाधीश के रूप में कार्यभार संभालते रहे। वर्ष 1941 में डॉ. परमार ने राज्य की सेवाओं से इस्तीफा दे दिया। दरअसल सिरमौर रियासत के सब-जज और बाद में जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद पर पदोन्नति मिलने के बावजूद परमार ने गलत को गलत कहने से गुरेज़ नहीं किया। परमार ने रियासत के विरुद्ध ही एक क्रांतिकारी एवं निर्भीक निर्णय पारित किया जिसके कारण 1941 में सात वर्ष के लिए उन्हें निष्कासित कर दिया गया। ये वो दौर था जब ब्रिटिश हुकूमत के दिन ढलने लगे थे और आज़ादी का आंदोलन प्रखर हो रहा था। परमार भी आजादी के मतवालों के संपर्क में आ गए। इस दौरान शिमला हिल स्टेट्स प्रजामंडल का भी गठन हुआ, जिसमें परमार भी सक्रिय रूप से शामिल हो गए। आखिरकार 15 अगस्त 1947 को हिन्दुस्तान स्वतंत्र हो गया, किन्तु पहाड़ी रियासतों का हिन्दुस्तान में विलय नहीं हुआ। पंजाब हिल स्टेट के तहत पड़ने वाली पाँच बड़ी रियासतों-चम्बा, मंडी, बिलासपुर, सिरमौर और सुकेत के अलावा शिमला हिल स्टेट के नाम से जानी जाने वाली 27 छोटी रियासतों में गुलामी का अंधकार छाया रहा। परमार हमेशा चाहते थे कि इन रियासतों का भी विलय हो। यह उनकी दूरदर्शी सोच ओर अथक प्रयासों का ही परिणाम था कि 26 जनवरी 1948 को शिमला में आयोजित हुई सार्वजनिक सभा में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रीय नेतृत्व से अनुरोध किया गया कि यहां की सभी पहाड़ी रियासतों को इकट्ठा करके, एक नए राज्य का गठन किया जाए। इसलिए कहलाते है प्रदेश निर्माता 28 जनवरी 1948 को सोलन के दरबार हॉल में 28 रियासतों के राजाओं की बैठक हुई जिसमें सभी ने पर्वतीय इलाकों को रियासती मंडल बनाने का प्रस्ताव पारित कर इसे 'हिमाचल' का नाम अनुमोदित किया गया। हालांकि डॉ परमार प्रदेश का 'हिमालयन एस्टेट' नाम रखना चाहते थे, किन्तु बघाट रियासत के राजा दुर्गा सिंह व अन्य कुछ राजा 'हिमाचल' नाम पर अड़ गए, जिसके बाद प्रदेश का नाम हिमाचल प्रदेश रखा गया। ये नाम पंडित दिवाकर दत्त शास्त्री द्वारा सुझाया गया था। बैठक के प्रजा मंडल का प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल से मिला और आखिरकार 15 अप्रैल, 1948 को 30 रियासतों को मिलाकर हिमाचल राज्य का गठन हुआ। तब इसे मंडी, महासू, चंबा और सिरमौर चार जिलों में बांट कर प्रशासनिक कार्यभार एक मुख्य आयुक्त को सौंपा गया। बाद में इसे 'सी' केटेगरी राज्य बनाया गया। पर डॉ परमार का सपना अभी अधूरा था। डॉ. परमार हिमाचल को पूर्ण राज्य बनाना चाहते थे, जिसके लिए अब वह अपने साथियों के साथ राजनीतिक संघर्ष में जुट गए। 1977 तक रहे सीएम देश के पहले आम चुनाव के साथ ही वर्ष 1952 में प्रदेश का पहला चुनाव हुआ, जिसके बाद डॉ परमार प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने और वर्ष 1977 तक मुख्यमंत्री रहे। मुख्यमंत्री बनने के बाद डॉ. परमार ने हिमाचल के चहुँमुखी विकास के लिए रात-दिन एक कर दिया। उठते-बैठते, सोते-जागते उन्हें इस पर्वतीय क्षेत्र को आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित करने के साथ ही इसे एक सुदृढ़ रूप-आकार देने की धुन सवार रहती थी। इसी क्रम में उन्हें अपने ही प्रदेश के चम्बा जिला और महासू जिले के सोलन क्षेत्र में जाने के लिए दूसरे प्रदेश से होकर जाने की मजबूरी बहुत पीड़ा देती थी। इसके अतिरिक्त वे पंजाब के कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल, स्पीति, शिमला तथा हिन्दीभाषी पर्वतीय क्षेत्रों के अपूर्ण विकास के प्रति भी अत्यधिक चिन्तित रहते थे। जहाँ चाह हो वहाँ राह न निकले, यह नहीं हो सकता। फलस्वरूप 1965 में हिमाचल तथा पंजाब के पर्वतीय क्षेत्रों का एकीकरण करते हुए पंजाब राज्य पुनर्गठन का प्रस्ताव लाया गया, लेकिन पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र को हिमाचल में शामिल किये जाने के विरुद्ध थे। अंततः पंजाब राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर 1 नवंबर, 1966 को पंजाब राज्य का पुनर्गठन हुआ। इसके अनुसार पंजाब के कांगड़ा, कुल्लू, शिमला और लाहौल-स्पीति जिलों के साथ ही अंबाला जिले का नालागढ़ उप-मंडल, जिला होशियारपुर की ऊना तहसील का कुछ भाग और जिला गुरुदासपुर के डलहौजी व बकलोह क्षेत्र को हिमाचल में शामिल कर दिया गया। इस बीच नवंबर 1966 में पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों का भी हिमाचल में विलय हुआ और वर्तमान हिमाचल का गठन हुआ। आखिरकार 25 जनवरी,1971 का दिन आया और डॉ परमार का स्वप्न पूरा हुआ। तब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थी और उस दिन काफी बर्फबारी हो रही थी। इंदिरा गांधी बर्फबारी के बीच शिमला के रिज मैदान पहुंची और हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करने की घोषणा की। डॉ. परमार 18 साल तक मुख्यमंत्री रहे। इस दौरान उन्होंने प्रदेश के विकास के लिए काफी काम किया। हिमाचल में सड़कों का जाल बिछाने का श्रेय यशवंत परमार को ही जाता है। वो सड़कों को पहाड़ की भाग्य रेखा कहते थे। इसके अलावा भी कई ऐसे काम किए जो हिमाचल के विकास और निर्माण में सहायक हुए। हिमाचलियों के हितों की रक्षा के लिए लागू की 118 आजकल धारा 118 को लेकर हिमाचल में खूब बवाल मचा है। धारा 118 डॉ परमार की ही देन है। डॉक्टर परमार से कुछ ऐसे लोग मिले थे, जिन्होंने अपनी जमीन बेच दी थी और बाद में वे उन्हीं लोगों के यहां नौकर बन गए थे। इसके चलते उन्हें डर था कि अन्य राज्यों के धनवान लोग हिमाचल में भूस्वामी बन जाएंगे और हिमाचल प्रदेश के भोले भाले लोग अपनी जमीन खो देंगे। इसलिए 1972 में हिमाचल प्रदेश में एक विशेष कानून बनाया गया था, ताकि ऐसा न हो। हिमाचल प्रदेश टेनंसी एंड लैंड रिफॉर्म्स एक्ट 1972 में एक विशेष प्रावधान किया गया ताकि हिमाचलियों के हित सुरक्षित रहें। इस एक्ट के 11वें अध्याय ‘कंट्रोल ऑन ट्रांसफर ऑफ लैंड’ में आने वाली धारा 118 के तहत ‘गैर-कृषकों को जमीन हस्तांतरित करने पर रोक’ है। सिर्फ तीन प्राथमिकताएं, सड़क , सड़क और सड़क डॉ. यशवंत सिंह परमार दूरदर्शी व्यक्तित्व के धनी थे। मुख्यमंत्री रहते उनसे जब केंद्र सरकार ने पूछा कि हिमाचल के लिए उनकी तीन प्राथमिकताएं क्या-क्या हैं तो वह बोले-सड़क, सड़क और सड़क। परमार मानते थे कि जब तक राज्य के गांवों की कनेक्टिविटी नहीं होगी, तब तक यहां पर विकास संभव नहीं है। सड़कें ही पहाड़ी राज्य में लाइफलाइन है और विकास के लिए पहली जरूरत भी। संजय गांधी की राजनीति में फिट नहीं बैठे डॉ परमार डॉ यशवंत सिंह परमार प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के करीबी थे। किन्तु कहा जाता है संजय गाँधी की राजनीति में वे फिट नहीं बैठे। वहीं इमरजेंसी के दौरान ठाकुर रामलाल संजय के करीबी हो गए, ऐसा इसलिए भी था क्योंकि संजय के नसबंदी अभियान में ठाकुर रामलाल ने बढ़चढ़ कर योगदान दिया था। इमरजेंसी हटने के बाद ठाकुर रामलाल ने अपने समर्थक विधायकों की परेड दिल्ली दरबार में करवा दी। इसके बाद डॉ परमार भी समझ गए कि अब बतौर मुख्यमंत्री उनका सफर समाप्त हो चुका है और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। 2 मई 1981 को डॉ परमार ने अपनी अंतिम सांस ली। राजनीतिक सफर पर एक नजर 1946 में डॉ. परमार हिमाचल हिल्स स्टेटस रिजनल कॉउन्सिल के प्रधान चुने गए। 1947 में ग्रुपिंग एंड अमलेमेशन कमेटी के सदस्य व प्रजामंडल सिरमौर के प्रधान रहे। उन्होंने सुकेत आंदोलन में बढ़-चढक़र हिस्सा लिया और प्रमुख कार्यों में से एक रहे। 1948 से 1950 तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे। 1950 में हिमाचल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने। अपने सक्षम नेतृत्व के बल पर 31 रियासतों को समाप्त कर हिमाचल राज्य की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो आज पहाड़ी राज्यों का आदर्श बनने की ओर अग्रसर है। डॉ. परमार 1952 में प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने। 1956 में वे संसद सदस्य के रूप में निर्वाचित हुए। 1962 में दोबारा प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 24 जनवरी, 1977 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया। इसके चार वर्ष पश्चात 2 मई, 1981 को हिमाचल के सिरमौर डॉ. परमार ने दुनिया को अलविदा कह दिया। लेखक भी थे परमार राजनीति के अलावा डॉ. परमार को साहित्य में दिलचस्पी थी। वो न सिर्फ़ किताबें पढ़ना पसंद करते थे, बल्कि ख़ुद भी एक लेखक थे। उन्होंने अपने जीवन में 8 किताबें लिखी। इनमें पालियेन्डरी इन द हिमालयाज, हिमाचल पालियेन्डरी इटस शेप एण्ड स्टेटस, हिमाचल प्रदेश केस फार स्टेटहुड और हिमाचल प्रदेश एरिया एण्ड लैंग्वेजेज जैसी नामक शोध आधारित पुस्तकें भी शामिल है। वह पर्यावरण प्रेमी थे। एक भाषण मे उन्होंने कहा था .. "वन हमारी बहुत बड़ी संपदा है, सरमाया है। इनकी हिफाजत हर हिमाचली को हर हाल में करनी है, नंगे पहाड़ों को हमें हरियाली की चादर ओढ़ाने का संकल्प लेना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को एक पौधा लगाना होगा और पौधे ऐसे हो, जो पशुओं को चारा दे, उनसे बालन मिले और बड़े होकर इमारती लकड़ी के साथ आमदनी भी दे। वानिकी से पूरे प्रदेश मे संपन्नता आएगी।" ये है परमार का सत्यानंद स्टोक्स से कनेक्शन डॉ यशवंत सिंह परमार ने दो शादियां की। 26 जनवरी 1924 को चंद्रावती चौहान से उनका विवाह हुआ। उनके चार पुत्र है, जितेंद्र सिंह परमार, जयपाल सिंह परमार, लव परमार और कुश परमार थे। कुश परमार नाहन से विधायक रह चुके हैं। 1969 में चंद्रावती का निधन हो गया। इसके बाद वर्ष 1974 में डॉ यशवंत सिंह परमार ने सत्यवती डांग से दूसरी शादी की। सत्यवती हिमाचल में सेब लाने वाले सत्यानंद स्टोक्स की बेटी थी। वे भी विवाहिता थी और पहली शादी से उन्हें दो बेटियां थी। सत्यवती डांग भी कांग्रेस में सक्रिय थी और वे राज्यसभा सांसद भी रही है।
सिर्फ चार संसदीय सीटों वाले हिमाचल प्रदेश में सियासत हमेशा किंग साइज रही है। देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर इसी हिमाचल प्रदेश से सांसद थी। आपातकाल के बाद 1977 में इसी हिमाचल प्रदेश में प्रचंड बहुमत के साथ जनता पार्टी की सरकार बनी थी, जो 1980 में दल बदल की भेंट चढ़ गई। 1992 में हिमाचल भी उन चार राज्यों में शामिल था, जहाँ 6 दिसंबर को हुए बाबरी विध्वंस के बाद कानून व्यवस्था का हवाला देकर सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया था। यानी हिमाचल प्रदेश की सियासत में हमेशा रोमांच भरपूर रहा है। हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का गौरव अब तक 6 लोगों को मिला है। पहले मुख्यमंत्री डॉ वाईएस परमार जिला सिरमौर से थे। ठाकुर रामलाल और वीरभद्र सिंह जिला शिमला से, शांता कुमार जिला कांगड़ा से, प्रेम कुमार धूमल हमीरपुर से और जयराम ठाकुर जिला मंडी से है। यानी प्रदेश के पांच जिलों को अब तक सीएम पद मिला है। अब 2022 के विधानसभा चुनाव हो चुके है और आठ दिसम्बर को ये तय होगा कि अगली सरकार किसकी बनेगी। यदि प्रदेश में भाजपा सरकार रिपीट करती है तो ये तय है कि अगले मुख्यमंत्री भी जयराम ठाकुर ही होंगे। वहीं अगर कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई तो सीएम पद के दावेदारों की फेहरिस्त लंबी है। कांग्रेस से अब तक सीएम रहे तीनों दिग्गज नेता अब इस दुनिया में नहीं है, सो ये तय है कि कांग्रेस सरकार बनी तो प्रदेश को बतौर सीएम नया चेहरा मिलेगा। हिमाचल प्रदेश में आखिरी बार 1985 में सरकार रिपीट हुई थी और वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने थे। उनके बाद कोई रिपीट नहीं कर पाया। हालांकि 1998 में वीरभद्र सिंह ने फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली थी लेकिन बहुमत न होने के चलते उनको इस्तीफा देना पड़ा। प्रदेश में दो बार राष्ट्रपति शासन भी लगा है, एक बार 1977 में और एक बार 1992 में। 1977 में शांता कुमार के नेतृत्व में पहली बार गठबंधन सरकार बनी लेकिन पांच साल चली नहीं। 1990 में भी भाजपा और जनता पार्टी गठबंधन की सरकार बनी, पर वो भी पांच साल नहीं चली। फिर 1998 में बनी भाजपा -हिमाचल विकास कांग्रेस की सरकार वो पहली गठबंधन सरकार है जो पांच साल चल सकी। हिमाचल प्रदेश के इतिहास पर निगाह डालें तो आजादी के बाद 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल अस्तित्व में आया। 26 जनवरी 1950 को हिमाचल को पार्ट सी स्टेट का दर्जा मिला। तब देश में दस पार्ट सी स्टेट थे जिनमें हिमाचल प्रदेश और बिलासपुर, दोनों शामिल थे। फिर 1 जुलाई 1954 को बिलासपुर हिमाचल का हिस्सा बना। इसके बाद 1 नवंबर 1956 को हिमाचल को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। तदोपरांत 1 नवंबर 1966 को पंजाब के कई हिस्से कांगड़ा समेत हिमाचल में शामिल हुए। 18 दिसंबर 1970 को हिमाचल प्रदेश एक्ट पास किया गया और आखिरकार 25 जनवरी 1971 को हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। पार्ट सी स्टेट बनने के बाद 1952 से 1957 तक यशवंत सिंह परमार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। हालाँकि इस बीच हिमाचल प्रदेश नवंबर 1956 में टेरिटोरियल काउंसिल बन चुका था। 1957 में हुए चुनाव में कांग्रेस फिर बहुमत के साथ लौटी और ठाकुर करम सिंह टेरिटोरियल काउंसिल के चेयरमैन चुने गए। 1962 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस विजयी रही और यशवंत सिंह परमार मुख्यमंत्री बने। 1967 में हुए अगले चुनाव में भी ये कर्म जारी रहा। 1972 का चुनाव आते -आते हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल चुका था और उस चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर विजयी रही और यशवंत सिंह परमार मुख्यमंत्री बने। 1977 में बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार 1977 के विधानसभा चुनाव से पहले हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का एकछत्र राज था। 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 53 सीटें जीती थी और यशवंत सिंह परमार फिर मुख्यमंत्री बने थे। हालांकि 1977 आते -आते हालात बदल चुके थे। देश में लगे आपातकाल के बाद कांग्रेस को लेकर पूरे देश में गुस्सा था और हिमाचल प्रदेश भी इससे अछूता नहीं था। वहीँ चुनाव से कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस ने यशवंत सिंह परमार को हटाकर ठाकुर रामलाल को मुख्यमंत्री बना दिया था। तब तक प्रदेश में शांता कुमार की अगुवाई में जनता पार्टी भी अपने पाँव मजबूत कर चुकी थी। नतीजन विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी को 53 सीटें मिली, जबकि कांग्रेस को महज 9। उस चुनाव में 6 निर्दलीय जीते थे। चुनाव के बाद शांता कुमार और रणजीत सिंह को बराबर विधायकों का समर्थन प्राप्त था और तब अपने ही वोट से शांता कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने। 1980 में अल्पमत में आ गई शांता सरकार 1977 में प्रचंड बहुमत के साथ बनी शांता कुमार की सरकार करीब तीन साल बाद अल्पमत में आ गई। तब जनता पार्टी के 22 विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी। ठाकुर रामलाल की जोड़ तोड़ के आगे शांता कुमार ने इस्तीफा दिया और फिल्म देखने चले गए। फिल्म का नाम था जुगनू। तब दल बदल कानून नहीं हुआ करता था। इस तरह 1980 में कांग्रेस सत्ता में लौटी और ठाकुर रामलाल दूसरी बार सीएम बने। पहले ही चुनाव में टक्कर दे गई भाजपा 1982 के चुनाव से पहले भाजपा का गठन हो चुका था। जनसंघ और आरएसएस विचारधारा के अधिकांश नेता अब भाजपा का चेहरा थे , जिनमें शांता कुमार भी शामिल थे। 1982 के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा में जबरदस्त टक्कर देखने को मिली। कांग्रेस ने उस चुनाव में 31 सीटें जीती जबकि भाजपा को 29 सीट मिली। जनता पार्टी 2 पर सिमट गई और 6 निर्दलीय विधायकों के हाथ में सत्ता की चाबी आ गई। ठाकुर रामलाल का गुणा भाग फिर काम कर गया और सत्ता कांग्रेस के पास ही रही। 1985 में वीरभद्र ने करवा दिया रिपीट 1985 आते -आते कांग्रेस के भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। टिम्बर घोटाले के आरोपों के बीच 1983 में ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो चुके थे। इसके बाद 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में कांग्रेस को लेकर सहानुभूति थी और लोकसभा चुनाव में पार्टी को इसका भरपूर लाभ मिला था। वीरभद्र सिंह भी स्थिति को भांप चुके थे और सियासी लाभ के लिए उन्होंने समय से पहले 1985 में ही चुनाव करवा दिए। कांग्रेस को इसका लाभ मिला और पार्टी 58 सीट जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। ये आखिरी बार था जब प्रदेश में कोई सरकार रिपीट हुई। 1990 में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई भाजपा 1990 आते -आते भाजपा मजबूत हो चुकी थी और प्रदेश में वीरभद्र सरकार को लेकर एंटी इंकम्बेंसी व्याप्त थी। देश में राम मंदिर आंदोलन के स्वर भी उठ रहे थे। तब प्रदेश में भाजपा ने जनता पार्टी के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा और इस गठबंधन को प्रचंड जीत मिली। भाजपा गठबंधन 57 सीटें जीतने में कामयाब रहा, जबकि कांग्रेस को महज 9 सीटें मिली। चुनाव के बाद शांता कुमार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। हालांकि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने तब भाजपा शासित चार राज्यों की सरकारों को कानून व्यवस्था का हवाला देकर बर्खास्त कर दिया था, जिसमे शांता कुमार की सरकार भी थी। 1993 में कर्मचारी लहर भाजपा पर पड़ी भारी 1993 में कांग्रेस के लिए सत्ता की राह आसान थी। दरअसल मुख्यमंत्री रहते हुए शांता कुमार ने 'नो वर्क नो पे' का फरमान जारी कर प्रदेश के कर्मचारियों से पन्गा ले लिया था। जैसा अपेक्षित था कर्मचारी लहर में भाजपा टिक नहीं सकी और उसे महज आठ सीटों से संतोष करना पड़ा। खुद शांता कुमार चुनाव हार गए। उधर कांग्रेस को 52 सीटें मिली थी। तब पंडित सुखराम भी मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे, लेकिन वीरभद्र सिंह के सियासी तिलिस्म के आगे उनका अरमान पूरा नहीं हुआ। हिमाचल के इतिहास का सबसे रोचक चुनाव 1998 में वीरभद्र सिंह सत्ता वापसी को लेकर आश्वस्त थे और इसलिए उन्होंने समय से कुछ पहले ही चुनाव करवा दिए। उधर, तब तक पंडित सुखराम और कांग्रेस की राह भी अलग हो चुकी थी और पंडित सुखराम अपनी अलग पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन कर चुके थे। पंडित जी को कम आंकना ही शायद वीरभद्र सिंह की भूल थी। जब नतीजा आया तो पंडित सुखराम किंग मेकर की भूमिका में थे। तब तीन सीटों पर भारी बर्फबारी के कारण चुनाव नहीं हुए थे। कांग्रेस 31 सीटों पर जीती थी और बीजेपी 29। बीजेपी के एक विधायक का हार्ट अटैक से निधन हो गया था। भाजपा के एक बागी रमेश धवाला निर्दलीय चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे और हिमाचल विकास कांग्रेस के पास चार विधायक थे। बहुमत का आंकड़ा 33 था और कांग्रेस के पास 31 विधायक थे। उधर पंडित सुखराम के समर्थन से भाजपा 33 का आंकड़ा को छू रही थी लेकिन एक विधायक के निधन ने उसका खेल बिगाड़ दिया था। सो सारी गणित आकर टिकी निर्दलीय रमेश धवाला पर। धवाला ने बीजेपी को समर्थन देने के लिए शर्त रख दी कि प्रेम कुमार धूमल के बदले शांता कुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाएं। कहानी में ट्विस्ट अभी बाकी था। कहते है रमेश धवाला जब शिमला की तरफ आ रहे थे तो उनका एक तरह से अपहरण हो गया। फिर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में धवाला ने बताया कि वे वीरभद्र सिंह को अपना समर्थन देते हैं और उन्होंने एक और विधायक के समर्थन का दावा किया। इसके बाद वीरभद्र सिंह ने तत्कालीन राज्यपाल रमा देवी के पास जाकर सरकार बनाने का दावा पेश किया और रात के 2 बजे विधायकों की परेड हुई और वीरभद्र सिंह चौथी बार सीएम बन गए। वीरभद्र सिंह ने जैसे -तैसे सरकार बना तो ली लेकिन सरकार चली नहीं। तब रमेश धवाला को मंत्री पद भी दिया गया और कहते है धवाला को मुख्यमंत्री आवास में रखा गया था। तब भाजपा के प्रभारी थे नरेंद्र मोदी। कहते है धवाला को सीएम हाउस के एक कर्मचारी के जरिये सन्देश भेजा गया और सचिवालय जाते वक्त धवाला गाड़ी के उतर कर भाजपा खेमे में चले गए। सब कुछ तय रणनीति के अनुसार फिल्मी अंदाज में हुआ। इसके बाद भाजपा ने सरकार बनने का दावा पेश किया। राज्यपाल ने पहले तो बीजेपी को मना कर दिया, पर कुछ दिन बाद जब दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो राज्यपाल ने खुद प्रेम कुमार धूमल को फोन किया और सरकार बनाने को आमंत्रित किया। 12 मार्च 1998 को विधानसभा का सत्र बुलाया गया जिसमें रमेश धवाला और हिमाचल विकास कांग्रेस के सभी विधायक भी आए। वीरभद्र सिंह भी समझ चुके थे कि बाजी उनके हाथ से जा चुकी है। जब बहुमत साबित करने की बात आई तो उससे पहले ही वीरभद्र सिंह ने इस्तीफा दे दिया। इस तरह राज्य में प्रेम कुमार धूमल की सरकार बन गई। मौसम साफ होने के बाद प्रदेश की तीन सीटों पर चुनाव हुआ और एक सीट पर उपचुनाव। इनमें से तीन सीटें भाजपा जीती और एक हिमाचल विकास कांग्रेस। ऐसे में कांग्रेस की रही -सही उम्मीद भी खत्म हो गई। 2003 : मैडम दिल्ली में थी, शिमला में विधायकों की परेड हो गई 2003 आते -आते प्रदेश के सियासी समीकरण बदल चुके थे। प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर थी और हिमाचल विकास कांग्रेस और भाजपा के बीच भी दूरियां दिखने लगी थी। उस चुनाव में कांग्रेस 43 सीटें जीतकर सत्ता में लौटी जबकि 16 सीटों पर सिमट कर रह गई। पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस 49 सीटों पर चुनाव तो लड़ी लेकिन सिर्फ मंडी सदर सीट पर उसे जीत मिली थी। इस तरह कांग्रेस आसानी से सत्ता में लौटी। दिलचस्प बात ये है कि तब 1993 की तरह ही एक बार फिर कांग्रेस में सीएम पद को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी। माना जाता है तब विद्या स्टोक्स पार्टी आलाकमान के करीब थी और नतीजों के बाद सीएम पद के लिए लॉबिंग भी शुरू कर चुकी थी। प्रदेश में माहौल बना कि शायद मैडम स्टोक्स सोनिया गांधी से अपनी नज़दीकी के बूते सीएम बनने में कामयाब हो जाएं। बताया जाता है कि तब मैडम स्टोक्स ने दिल्ली दरबार में विधायकों के समर्थन का दावा भी पेश कर दिया था। विद्या दिल्ली में थी और इधर वीरभद्र सिंह ने शिमला में अपना तिलिस्म साबित कर दिया। दरअसल तभी शिमला में वीरभद्र सिंह ने मीडिया के सामने अपने 22 विधायकों की परेड करा कर अपनी ताकत और कुव्वत का अहसास आलाकमान को करवा दिया। इसके बाद जो परेड में शामिल नहीं हुए उनमे से भी अधिकांश होलीलॉज दरबार में पहुंच गए। सो वीरभद्र सिंह पांचवी बार मुख्यमंत्री बन गए और प्रदेश को महिला सीएम मिलने का इंतज़ार खत्म नहीं हो सका। 2007 में भी कायम रहा परिवर्तन का रिवाज 2007 के विधानसभा चुनाव में भी प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का रिवाज बरकरार रहा। भाजपा तब प्रो प्रेम कुमार धूमल के चेहरे पर चुनाव लड़ी तो कांग्रेस वीरभद्र सिंह के। सत्ता में आने पर दोनों ही तरफ सीएम फेस को लेकर कोई संशय नहीं था। तब सत्ता मिली भाजपा को और पार्टी 41 सीटें जीतने में कामयाब रही। वहीं कांग्रेस 23 सीटें ही जीत सकी। उस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी भी दमखम से लड़ी। 67 सीटों पर चुनाव लड़ बहुजन समाज पार्टी ने सात प्रतिशत से ज्यादा वोट लिए। हालांकि पार्टी को सिर्फ एक सीट मिली, पर कई सीटों पर पार्टी ने कांग्रेस का खेल जरूर खराब किया। इस तरह प्रेम कुमार धूमल दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। इसके बाद 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह ने एक बार फिर केंद्र की सियासत का रुख किया। वीरभद्र सिंह मंडी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़े और सांसद बन गए। इसके बाद उन्हें केंद्र में मंत्री पद भी मिला। इस तरह रिकॉर्ड छठी बार सीएम बने वीरभद्र सिंह 2012 का चुनाव आते -आते वीरभद्र सिंह केंद्र से मंत्री पद त्याग कर प्रदेश में लौट आएं थे। जाहिर है वीरभद्र सिंह की नजर फिर सीएम पद पर थी। उधर कांग्रेस में काफी कुछ बदल चुका था। ठाकुर कौल सिंह मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे और प्रदेश में कांग्रेस की अगुवाई कर रहे थे। माना जाता है कांग्रेस आलाकमान भी बदलाव के मूड में था। पर वीरभद्र सिंह हार मानने वाले नहीं थे। इस खींचतान का असर कांग्रेस के प्रचार अभियान में भी दिख रहा था। फिर चुनाव से कुछ दिन पहले देखने को मिला वीरभद्र सिंह का मास्टर स्ट्रोक। शिमला में पत्रकार वार्ता कर वीरभद्र सिंह ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी। उन्होंने कहा सोनिया गांधी चाहे तो सात दिन में कांग्रेस की स्थिति बेहतर हो सकती है। तब वीरभद्र सिंह ने कहा था 'मैं ढोलक बजाऊंगा और सेना नृत्य करेगी।' इशारा साफ था और आलाकमान भी समझ गया। आखिरकार आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और वे छठी बार सीएम बने। तब कांग्रेस 36 सीटें जीतने में कामयाब रही। 2012 के बाद से ही देश का राजनीतिक परिदृश्य भी बदलने लगा। हालांकि 2013 में हुए मंडी संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह जीत गई लेकिन 2014 की मोदी लहर में कांग्रेस लोकसभा की सभी चार सीटें हारी। भाजपा को तो जीता दिया पर धूमल हार गये 18 दिसंबर 2017 को हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आये और 44 सीटों के साथ भाजपा की सरकार बनी। पर पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के सीएम उम्मीदवार प्रो. प्रेम कुमार धूमल 1911 वोटों से परास्त हो गए। कहते है इस चुनाव में भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं थी, इसी के चलते 30 अक्टूबर को राजगढ़ की रैली में अमित शाह ने धूमल को सीएम फेस घोषित किया। धूमल ने भाजपा को तो जीता दिया लेकिन जनता ने धूमल को ही हरा दिया। इस चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के पांच मंत्री हारे थे। नतीजों के बाद आई मुख्यमंत्री चुनने की बारी। धूमल का दावा हार का बावजूद मजबूत था। कई विधायक उनके लिए अपनी सीट छोड़ने की पेशकश कर रहे थे। किन्तु भाजपा आलाकमान बदलाव चाहता था और मौका मिला जयराम ठाकुर को। पांच बार के विधायक और वरिष्ठ नेता जयराम ठाकुर को लेकर कोई विद्रोह नहीं हुआ। इसके बाद कैबिनेट चुनते वक्त भी धूमल की राय को कुछ तवज्जो मिली। पर आहिस्ता-आहिस्ता जयराम ठाकुर मजबूत होते गए और धूमल गुट की उपेक्षा की खबरें सामने आने लगी। बहरहाल प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो चुके है और आठ दिसम्बर को नतीजे सामने होंगे। अगली सरकार को लेकर अटकलों का दौर जारी है।1985 के बाद से चला आ रहा सत्ता परिवर्तन का रिवाज बदलता है या बरकरार रहता है, यह देखना रोचक होगा।
ऊर्जा मंत्री सुखराम चौधरी के निर्वाचन क्षेत्र पांवटा साहिब में क्या भाजपा पावर में रहेगी, इस पर सबकी निगाहें टिकी है। जयराम सरकार में कैबिनेट मंत्री सुखराम चौधरी इस सीट से छठी बार भाजपा टिकट के साथ मैदान में है। चौधरी ने 1998 में हार के साथ शुरुआत की थी लेकिन इसके बाद 2003 और 2007 में वे जीते। तब इस सीट का नाम पांवटा दून था, फिर 2008 में परिसीमन के बाद यह सीट पांवटा साहिब हो गयी। 2012 में उन्हें फिर हार का सामना करना पड़ा लेकिन 2017 में वे फिर जीते। इसके बाद वर्ष 2020 में हुए जयराम कैबिनेट के विस्तार में उन्हें मंत्री पद भी मिल गया। जाहिर है मंत्री पद के बाद लोगों की आशाएं भी उनसे बढ़ी है और इस बार इस सीट पर उनकी राह मुश्किल जरूर है। उधर, कांग्रेस ने फिर इस सीट से किरनेश जंग को मैदान में उतारा है। किरनेश पहली बार 2003 में लोकतान्त्रिक मोर्चा के टिकट पर चुनाव लड़े थे लेकिन हार गए थे। फिर 2007 में कांग्रेस के टिकट पर हारे। 2012 में कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया लेकिन वे निर्दलीय चुनाव जीतने में कामयाब रहे। पर 2017 में कांग्रेस टिकट पर फिर हार गए। ऐसे में इस बार कांग्रेस से उनके टिकट को लेकर संशय बना हुआ था लेकिन आखिरकार उन्हें पार्टी ने टिकट दे दिया। ये किरनेश जंग का पांचवा चुनाव है और उनके खाते में सिर्फ एक जीत है। स्वाभाविक है ऐसे में उनके लिए इस बार जीत बेहद जरूरी है। इस सीट पर आम आदमी के प्रत्याशी मनीष ठाकुर का जिक्र भी जरूरी है। मनीष युवा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे है और कांग्रेस छोड़कर आम आदमी पार्टी में शामिल हुए है। अब मनीष के होने से इस चुनाव में किसको कितना फर्क पड़ा है, ये विशेलषण का विषय जरूर है। अगर मनीष कांग्रेस के वोट में ज्यादा सेंध लगा गए है तो किरनेश की मुश्किलें बढ़ सकती है। निसंदेह मनीष ने भी दमखम से चुनाव लड़ा है और यहाँ उलटफेर की संभावना को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी के पूर्व महामंत्री मनीष तोमर, रोशन लाल चौधरी और सुनील कुमार चौधरी भी चुनावी मैदान में है। दिलचस्प बात ये है कि इस सीट से 9 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा है। अब बात करते है ग्राउंड रियलिटी की। इस निर्वाचन क्षेत्र में बाहती बिरादरी का खासा प्रभाव है। सुखराम चौधरी भी इसी बिरादरी से आते है। पर इस बार इसी बिरादरी से रोशन लाल चौधरी और सुनील कुमार चौधरी भी चुनावी मैदान में है और अगर ये सुखराम के वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब रहे है, तो यहाँ ऊर्जा मंत्री के लिए मुश्किल हो सकती है। भाजपा के पूर्व महामंत्री का चुनाव लड़ना भी उनके लिए चिंता का विषय जरूर रहा है। इस पर एंटी इंकम्बैंसी और ओपीएस जैसे मुद्दों का असर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बहरहाल पांवटा साहिब निर्वाचन क्षेत्र में मुकाबला कड़ा है और इस सीट पर कौन जीतता है , इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।
'गुरु गुड़ रहे चेला हो गए शक्कर', 2017 के विधानसभा चुनाव में नगरोटा बगवां निर्वाचन क्षेत्र में हाल ऐसा ही था। तब स्व. जीएस बाली के कभी समर्थक रहे अरुण कुमार 'कुक्का' ने चुनावी मैदान में बाली को पटकनी देकर अपना लोहा मनवाया था। दबंग नेता और वीरभद्र कैबिनेट में दमदार मंत्री रहे जीएस बाली इस तरह चुनाव हारेंगे, ये किसी ने नहीं सोचा था। पर तब चुनाव नजदीक आते -आते सियासी समीकरण कुछ ऐसे बदले कि बड़ा उलटफेर हो गया। कुक्का एक हजार वोट से जीते थे। इससे पहले वे 2012 में भी बाली के विरुद्ध चुनाव लड़े थे और तब वे करीब 2800 वोट से हारे थे। ये आंकड़ा बताता है कि नगरोटा बगवां की सियासी बैटल फील्ड में कुक्का को कमजोर योद्धा आंकना बड़ी भूल हो सकती है। अब आते है मौजूदा चुनाव पर। दिग्गज नेता जीएस बाली का पिछले वर्ष निधन हो गया था और उनके बाद उनकी सियासी विरासत को आगे बढ़ा रहे है उनके पुत्र आरएस बाली। वे पहले से ही सियासत में सक्रिय है और अब जीएस बाली के निधन के बाद उन्हीं को सीट से मैदान में उतरा गया है। आरएस बाली का मुकाबला उन्हीं अरुण कुमार कुक्का से है जिन्होंने पिछले चुनाव में उनके पिता को हराया था। क्षेत्र में उनको लेकर कुछ सहानुभूति भी दिखी है और स्व. जीएस बाली द्वारा करवाए गए विकास कार्यों का हिसाब किताब भी आरएस बाली को बखूबी याद है। ऐसे में वे दमदार तरीके से चुनाव लड़े है और जीत को लेकर आश्वस्त है। अब जनता ने इस बार आरएस बाली पर भरोसा जताया है या फिर भाजपा के अरुण कुमार 'कुक्का' पर भरोसा बरकरार रखा है, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। बहरहाल नतीजा आठ दिसंबर को आना है,लेकिन इतना तय है कि ये मुकाबले कांटे का है। यहाँ जीत -हार का अंतर एक बार फिर बेहद कम हो सकता है।
** द्रंग में ठाकुर कौल सिंह की निगाह नौवीं जीत पर प्रदेश में अगर कांग्रेस की सरकार बनती है तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा ? इसका जवाब तो वक्त ही देगा लेकिन फिलवक्त कई ऐसे नाम है जिनको लेकर कयासबाजी जारी है। मुख्यमंत्री पद के इन्हीं दावेदारों में शामिल है कौल सिंह ठाकुर जो लगातार अपनी वरिष्ठता और अनुभव को लेकर सीएम पद के लिए दावा ठोक रहे है। करीब 50 साल लम्बे राजनीतिक सफर में कौल सिंह ठाकुर ने पंचायत समिति से लेकर कैबिनेट मंत्री तक का फासला तय किया है। वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे है और कांग्रेस के निष्ठावान सिपाही भी है। ऐसे में जाहिर है उनका दाव कमजोर नहीं माना जा सकता। पर मुख्यमंत्री बनने से पहले कौल सिंह ठाकुर को विधायक बनना होगा। इस बार फिर कौल सिंह द्रंग विधानसभा सीट से मैदान में है और उनकी सीट पर सबकी निगाहें टिकी है। यूँ तो द्रंग विधानसभा सीट कौल सिंह ठाकुर का गढ़ मानी जाती है। कौल सिंह ठाकुर द्रंग से कुल आठ बार चुनाव जीते है और ये ही वजह है कि ये सीट कांग्रेस का अभेद दुर्ग बनी रही। कौल सिंह ठाकुर पहली बार 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते थे। इसके बाद वे कांग्रेस में शामिल हो गए। 1990 और 2017 के अलावा यहाँ हर बार कौल सिंह ठाकुर को ही जीत हासिल हुई है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कौल सिंह भाजपा प्रत्याशी जवाहर ठाकुर से चुनाव हार गए थे। दरअसल तब ठाकुर कौल सिंह के खिलाफ उनके ही करीबी रहे पूर्ण चंद ठाकुर ने कांग्रेस से बगावत करके चुनाव लड़ा था, जिसका फायदा यहाँ भाजपा को मिला। अब द्रंग सीट से कौल सिंह ठाकुर एक बार फिर मैदान में है। उनके खिलाफ भाजपा ने यहां अपने सिटींग विधायक का टिकट काट कर पूर्ण चंद ठाकुर को मैदान में उतारा है। अब भाजपा का ये फैसला कितना सही साबित होगा ये तो वक्त ही बताएगा। बहरहाल, कौल सिंह ठाकुर का क्षेत्र में अपना जनाधार है और एक किस्म से वे सीएम पद पर दावे के साथ चुनाव लड़े है। इस बार वे जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। अब यदि समीकरण पक्ष में रहे और कौल सिंह ठाकुर चुनाव जीत गए तो उनकी निगाह निश्चित तौर पर 2012 का अपना अधूरा सपना पूरा करने पर होगी।
इतिहास तस्दीक करता है कि प्रदेश में जिसकी सरकार बनती है वो ही पार्टी चंबा में भी बाजी मारती है। आंकड़ों पर निगाह डाले तो भाजपा के अस्तित्व में आने के बाद 1982 से 2017 तक हिमाचल प्रदेश में 9 विधानसभा चुनाव हुए है। इनमें से आठ बार प्रदेश में उसी दल या गठबंधन की सरकार बनी है जिसने जिला चंबा में बढ़त हासिल की है। सिर्फ 2012 का विधानसभा चुनाव अपवाद है, जब भाजपा ने चंबा में तीन सीटें जीती लेकिन प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी। पिछले चुनाव की बात करे तो भाजपा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए चार सीटें जीती थी, जबकि केवल एक सीट पर कांग्रेस को जीत मिली। इस बार जिला चम्बा के नतीजों पर सबकी निगाह रहने वाली है और इसके दो विशेष कारण है, पहला हर्ष महाजन और दूसरा कारण आशा कुमारी। वीरभद्र सिंह के करीबी रहे हर्ष महाजन की कुछ माह पूर्व ही बतौर प्रदेश कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष ताजपोशी हुई थी। पर किसी को भनक भी नहीं लगी और महाजन कांग्रेस के लिए रणनीति बनाते बनाते अचानक भाजपाई हो गए। उनका प्रभाव पुरे ज़िले में माना जाता है। ऐसे में उनके दल बदलने से किसको कितना नफा नुकसान होता है, ये देखना रोचक होगा। वहीं डलहौजी से कांग्रेस उम्मीदवार आशा कुमारी कांग्रेस सरकार आने की स्थिति में सीएम पद की दावेदार हो सकती है, इसके चलते भी चम्बा पर निगाह रहने वाली है। इस बार ये चेहरे मैदान में : वर्तमान चुनाव की बात करें तो इस बार चम्बा जिला में चार सीटिंग विधायकों में भाजपा ने दो के टिकट काटे है। भाजपा ने तीन पुराने उम्मीदवार मैदान में उतारे है। जबकि कांग्रेस ने चार पुराने प्रत्याशी उतारे है और एक नए चेहरे को मौका दिया है। अब देखना ये होगा कि क्या पिछली बार की तरह इस बार भी भाजपा चम्बा में अपने शानदार प्रदर्शन को बरकरार रख पाएगी या फिर कांग्रेस यहाँ बेहतर करेगी। हंसराज, पवन नय्यर, जिया लाल और विक्रम जरियाल, 2017 में जिला चम्बा से भाजपा टिकट पर जीत कर ये चार विधायक शिमला विधानसभा तक पहुंचे थे। पर इस बार इनमें से दो का रास्ता भाजपा ने टिकट आवंटन के साथ ही रोक दिया है। चुराह से हंसराज और भटियात से विक्रम जरियाल को तो भाजपा ने टिकट दिया, लेकिन चम्बा सदर से सीटिंग विधायक पवन नैय्यर और भरमौर से सीटिंग विधायक जियालाल का टिकट काट दिया। भरमौर से पार्टी ने डॉ जनकराज को मैदान में उतारा है तो सदर सीट पर नाटकीय घटनाक्रम के बाद निवर्तमान विधायक की पत्नी नीलम नय्यर को टिकट दिया है। यहां पार्टी ने पहले इंदिरा कपूर को टिकट दिया था लेकिन अंतिम समय में टिकट बदल दिया गया। इसके बाद इंदिरा कपूर ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। वहीँ डलहौजी से भाजपा ने एक बार फिर आशा कुमारी के खिलाफ डीएस ठाकुर को ही मैदान में उतारा है। उधर, कांग्रेस में डलहौज़ी से सीटिंग विधायक आशा कुमारी सहित 2017 के चार उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इनमें सदर सीट से नीरज नय्यर, भरमौर से ठाकुर सिंह भरमौरी, भटियात से कुलदीप सिंह पठानिया शामिल है। जबकि चुराह सीट से पार्टी ने यशवंत खन्ना को मौका दिया है। कर्मचारी फैक्टर का दिखा असर : ग्राउंड रिपोर्ट की बात करें तो चम्बा में कर्मचारियों की अच्छी तादाद है। यहां पुरानी पेंशन का मुद्दा भी हावी दिखा है। ऐसे में यहां नजदीकी मुकाबलों में कांग्रेस को एडवांटेज मिल सकता है।
** चुराह सीट पर इस बार कड़ा मुकाबला, कुछ भी मुमकिन ** यशवंत खन्ना ने दमदार तरीके से लड़ा है चुनाव दो बार चुराह से विधानसभा की राह पकड़ने वाले हंसराज क्या तीसरी बार विधानसभा पहुंच पाएंगे ? ये बढ़ा सवाल है। अक्सर चर्चा में रहने वाले विधानसभा उपाध्यक्ष और चुराह के सिटींग विधायक हंसराज को यहां से भाजपा ने एक बार फिर मैदान में तो उतार दिया, पर चुराह उन सीटों में से एक हो सकती है जहां इस बार बड़े चेहरे धराशाई हो सकते है। हालांकि यहां के क्षेत्रीय और जातीय समीकरण के लिहाज से हंसराज की जमीनी पकड़ को लेकर कोई संशय नहीं है, लेकिन यदि प्रदेश में सत्ता बदलाव के लिए मतदान हुआ है तो हंसराज भी इस लहर की चपेट में आ सकते है। परिसीमन बदलने से पहले चुराह विधानसभा सीट राजनगर के नाम से जानी जाती थी। इस सीट पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दलों को जनता ने बराबर का प्यार दिया है। ये वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री विद्याधर की सीट रही है और वे तीन बार यहां से विधायक रहे। उनके बाद उनके पुत्र सुरेंद्र भारद्वाज यहां से 2003 और 2007 में विधायक रहे। फिर परिसीमन बदलने के बाद राजनगर सीट का नाम हुआ चुराह और 2012 में हंसराज पहली दफा यहाँ मैदान में उतरे और जीते भी। 2017 में भी हंसराज ने ही रिपीट किया। दोनों मौकों पर उन्होंने सुरेंद्र भारद्वाज को हराया। इस बार हंसराज तीसरी बार भाजपा मैदान में है। उधर दो बार हार का मुँह देखने के बाद इस बार कांग्रेस ने यहां से चेहरा बदल दिया। इस बार कांग्रेस ने एक नए चेहरे यशवंत सिंह खन्ना को मैदान में उतारा है। यशवंत को सीटिंग विधायक के खिलाफ एंटी इंकम्बैंसी और ओपीएस जैसे मुद्दों से तो आशा है ही, लेकिन साथ ही उन्होंने चुनाव भी बेहद मजबूती से लड़ा है। निसंदेह इस बार चुराह में हंसराज की राह आसान नहीं होने जा रही। इस सीट पर बेहद कड़ा मुकाबला है और नतीजे आने का इंतज़ार जारी है।
** त्रिकोणीय मुकाबले में मोहन लाल ब्राक्टा जीत को लेकर आश्वस्त रोहड़ू विधानसभा सीट, वो सीट है जो वीरभद्र सिंह की कर्मभूमि के नाम से जानी जाती है। रोहड़ू सीट पर हमेशा वीरभद्र सिंह का प्रभाव रहा है। बीते चालीस वर्षों में भाजपा यहां सिर्फ एक बार जीती है, वो भी केवल 2009 के उपचुनाव में। आज भी इस सीट पर स्व वीरभद्र सिंह से बड़ा और असरदार कोई नाम नहीं दिखता। अब उनके बाद उनके परिवार के लिए भी रोहडू वालों के दिल में विशेष स्थान दिखता है। निसंदेह वीरभद्र फैक्टर अब भी रोहड़ू में बड़ा असर रखता है और कांग्रेस के मोहन लाल ब्राक्टा होलीलॉज के बेहद करीबी माने जाते है। ऐसे में जाहिर है कि इस बार भी वीरभद्र फैक्टर यहां ब्राक्टा के लिए संजीवनी साबित हो सकता है। भाजपा से शशि बाला एक बार फिर मैदान में है, लेकिन इस बार भी उनकी डगर कठिन नज़र आ रही है। उधर बतौर निर्दलीय मैदान में रहे राजेंद्र धीरटा की परफॉर्मेंस पर भी इस बार निगाह रहेगी। बड़ा दिलचस्प है रोहड़ू का इतिहास: रोहड़ू का इतिहास बड़ा दिलचस्प रहा है। यहां वीरभद्र सिंह ने 1990 से लेकर 2007 तक लगातार पांच बार जीत दर्ज की। इसके बाद ये सीट आरक्षित हो गई और वीरभद्र ने 2012 का चुनाव शिमला ग्रामीण से लड़ा। रोहड़ू विधानसभा क्षेत्र आरक्षित होने के बाद कांग्रेस ने यहां मोहन लाल ब्राक्टा को टिकट दिया और वे रिकार्ड मत लेकर जीते। 2017 में भी रोहड़ू से मोहन लाल ब्राक्टा की ही जीत हुई। बीते चालीस साल में भाजपा यहां सिर्फ एक बार जीती है, वो भी केवल 2009 के उपचुनाव में। दरअसल 2009 के लोकसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह मंडी से जीतकर सांसद बन गए और रोहड़ू में उपचुनाव हुआ। इस उपचुनाव में भाजपा में खुशीराम बालनाहटा विजयी रहे थे। उपचुनाव में उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी मनजीत सिंह ठाकुर को हराया था, पर उपचुनाव के दौरान लोगों से किए वादे भाजपा पूरा नहीं कर सकी और 2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले खुशी राम बालनाटाह तथा उनके समर्थकों ने भी भाजपा से किनारा कर लिया। अब इस बार फिर रोहड़ू में भाजपा की राह मुश्किल दिख रही है। मोहन लाल ब्राक्टा को लेकर क्षेत्र में कोई ख़ास एंटी इंकम्बेंसी भी नहीं दिखी है और यदि इस बार फिर वीरभद्र फैक्टर चलता है तो जाहिर है कि इसका सीधा लाभ ब्राक्टा को मिल सकता है। बहरहाल रोहड़ू में किसकी जीत होती है इसके लिए 8 दिसंबर का इंतजार है।
**त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा के सामने सीट बचाने की चुनौती इंदौरा वो सीट है जहाँ एक निर्दलीय उम्मीदवार ने भाजपा -कांग्रेस दोनों की धुकधुकी बढ़ाई हुई है। इस सीट से भाजपा के बागी मनोहर धीमान ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है और इसमें कोई संशय नहीं है कि इसका असर दोनों तरफ के परंपरागत वोट पर भी दिख सकता है। यानी यहाँ त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिला है। इंदौरा उन सीटों में से एक है जहाँ भाजपा ने इस बार भी महिला चेहरे को मैदान में उतारा है। भाजपा ने फिर मौजूदा विधायक रीता धीमान को टिकट दिया, हालाँकि भाजपा के इस फैसले के खिलाफ मनोहर धीमान ने मोर्चा खोल दिया और निर्दलीय मैदान में उतर गए। दरअसल इंदौरा में 2012 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय मनोहर लाल धीमान ने जीत हासिल की थी और दूसरे नंबर पर कांग्रेस उम्मीदवार कमल किशोर थे। जबकि तीसरे स्थान पर बीजेपी उम्मीदवार रीता धीमान रही थी। 2012 में जीत के बाद मनोहर लाल धीमान कांग्रेस के एसोसिएट विधायक रहे, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव के करीब 6 माह पूर्व मनोहर भाजपा में शामिल हो गए। तब मनोहर धीमान ने भाजपा से टिकट की मांग की थी, लेकिन भाजपा ने रीता धीमान पर ही दांव खेला। तब किसी तरह भाजपा ने मनोहर को मना लिया था। नतीजन कांग्रेस के कमल किशोर को हरा कर रीता धीमान ने इस सीट पर जीत दर्ज की। इस बार फिर भाजपा ने मनोहर को टिकट नहीं दिया लेकिन इस दफा पार्टी बगावत साधने में नाकामयाब रही और नाराज हो कर मनोहर धीमान भी बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे है। पिछ्ले दो चुनावों में अंतर्कलह के कारण कांग्रेस को इस सीट पर हार का सामना करना पड़ा है, जबकि इस बार अंतर्कलह और बगावत के मर्ज से भाजपा ग्रस्त दिखी है। रीता धीमान को लेकर क्षेत्र में एंटी इंकम्बैंसी भी दिखती रही है। अब बगावत के साथ -साथ एंटी इंकमबैंसी ने यहाँ भाजपा की परेशानी जरूर बढ़ाई है। इस बीच कांग्रेस की बात करे तो कांग्रेस ने भी इस बार टिकट बदल कर मलेंद्र राजन को मैदान में उतारा है। मलेंद्र राजन ने 2012 में निर्दलीय चुनाव लड़ा था, हालाँकि तब उनकी जमानत तक नहीं बच पाई थी। पर तब से अब तक निसंदेह मलेंद्र राजन इस क्षेत्र में मजबूत जरूर हुए है। उधर भाजपा की बगावत का लाभ भी कांग्रेस को मिल सकता है। बहरहाल इस त्रिकोणीय मुकाबले में किसी को कम नहीं आँका जा सकता। इंदौरा में कांग्रेस को भाजपा की बगावत से आस है, तो मनोहर को साहनुभूति से। ऐसे में क्या भाजपा इस सीट को बचा पायेगी, फिलवक्त ये बड़ा सवाल है।
** मुश्किल हो सकती है भाजपा और आप की राह 'प्रदेश का मुख्यमंत्री कैसा हो, सुक्खू भाई जैसा हो' ,चुनाव प्रचार के दौरान नादौन विधानसभा क्षेत्र में ये नारा खूब बुलंद रहा। इस बार सुखविंद्र सिंह सुक्खू के समर्थक उन्हें भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देख रहे है। नादौन में जहाँ भी सुक्खू प्रचार के लिए पहुंचे, समर्थक ये ही नारा दोहराते दिखे। इस बार कांग्रेस ने बेशक सामूहिक नेतृत्व में और बगैर सीएम फेस के चुनाव लड़ा है ,लेकिन इसमें कोई संशय नहीं है कि यदि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और नादौन विधानसभा सीट से सुखविंद्र सिंह सुक्खू चुनाव जीत कर आते है तो मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में सुक्खू का दावा बेहद मजबूत है। नादौन की सियासी फ़िज़ाओं में सुगबुगाहट तेज़ है कि मुमकिन है इस बार नादौन विधानसभा क्षेत्र को मुख्यमंत्री मिल जाएँ। ऐसे में जाहिर है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भावी सीएम फैक्टर का लाभ इस चुनाव में सुक्खू को मिला हो। नादौन के इतिहास की बात करें तो नादौन विधाभसभा सीट यूँ तो कांग्रेस का गढ़ रही है। यहां से नारायण चंद पराशर तीन बार विधायक रहे। नारायण चंद पराशर के बाद सुखविंद्र सिंह सुक्खू ने इस सीट पर राज किया है। 2003 से अब तक सुखविंद्र सिंह सुक्खू नादौन सीट पर तीन बार जीत चुके है, हालांकि 2012 के विधानसभा चुनाव में सुक्खू को 6750 मतों के अंतर से हार का सामना करना पड़ा था। पर फिर 2017 में सुक्खू ने जीत हासिल की। कांग्रेस में सुक्खू के अलावा कभी कोई अन्य चेहरा विकल्प के तौर पर नहीं उभरा। इस बीच भाजपा की बात करे तो एक बार फिर विजय अग्निहोत्री मैदान में है। अग्निहोत्री एक दफा सुक्खू को पटकनी भी दे चुके है और इस बार फिर मैदान में डटे हुए है। नादौन में भाजपा के लिए ऐसा भी कहा जाता है कि अगर यहां भाजपा एकजुट हो जाए तो शायद कांग्रेस की राह इतनी आसान न हो। अब भाजपा एकजुट है या नहीं ये तो आने वाला समय ही बताएगा। वहीँ इस बार आम आदमी पार्टी ने नादौन के सियासी समीकरण ज़रूर बदले है। दरअसल इस बार आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी शैंकी ठुकराल ने पुरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा है। अब देखना ये होगा कि शैंकी किसके वोट बैंक में कितनी सेंध लगाते है। नादौन में फिलवक्त सुक्खू जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त है। सुक्खू ने भावी सीएम के टैग के साथ चुनाव लड़ा है। ऐसे में जाहिर है इसका लाभ भी उन्हें मिलता दिख रहा है। बहरहाल, जनादेश ईवीएम में कैद है और सभी अपनी -अपनी जीत का दावा कर रहे है।
रिश्ते-नाते अपनी जगह है और सियासत अपनी जगह। कुछ ऐसा ही सूरत ए हाल सोलन सदर सीट का है। यहां चुनावी दंगल में इस बार भी ससुर दामाद आमने सामने है। कांग्रेस से डॉ कर्नल धनीराम शांडिल और भाजपा से डॉ राजेश कश्यप मैदान में है। गौरतलब है कि 2017 में भी मुख्य मुकाबला ससुर-दामाद के बीच ही देखने को मिला था तब ससुर ने दामाद को पटखनी दे कर जीत हासिल की थी जबकि इस बार दामाद जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। खैर जीत का ताज किसके सर सजता है ये तो नतीजे आने के बाद ही पता लगेगा। बहरहाल सोलन में इस बार कड़ा मुकाबला तय है। सोलन का इतिहास भी बेहद रोचक रहा है। वर्ष 2000 में सोलन विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव हुआ था। तब अप्रत्याशित तौर पर पूर्व मंत्री महेंद्र नाथ सोफत का टिकट काट कर भाजपा ने डॉ राजीव बिंदल को टिकट दिया था, और पहली बार बिंदल विधायक बने थे। इसके बाद डॉ बिंदल ने 2003 और 2007 में भी जीत दर्ज की। 2007 से 2012 तक बिंदल मंत्री भी रहे और सोलन की राजनीति में उनका खूब डंका बजा। लेकिन 2012 में सोलन सीट आरक्षित हो गई तो डॉ राजीव बिंदल नाहन चले गए। इसके बाद से सोलन में भाजपा दो चुनाव हार चुकी है और दोनों बार कांग्रेस के कर्नल धनीराम शांडिल विधायक बने। 2012 में उन्होंने भाजपा की कुमारी शीला को हराया, तो 2017 में अपने दामाद और भाजपा उम्मीदवार डॉ राजेश कश्यप को। इस बार फिर ससुर- दामाद में मुकाबला हुआ है और कांटे की टक्कर में कुछ भी मुमकिन है। यूं तो सोलन भाजपा में गुट विशेष और डॉ राजेश कश्यप के बीच के मतभेद जगजाहिर है, लेकिन इस बार बाहरी तौर पर पार्टी एकजुट दिखी है। अब अगर ज्यादा भीतरघात नहीं हुआ है तो भाजपा यहाँ जीत का सूखा समाप्त कर सकती है। यहाँ डॉ राजेश कश्यप के लगातार पांच साल फील्ड में सक्रिय रहने का लाभ भी भाजपा को मिल सकता है। उधर कांग्रेस की बात करे तो लगातार दो चुनाव जीतने के बाद कर्नल शांडिल इस बार जीत की हैट्रिक लगाने की तैयारी में है। ओपीएस और कर्नल की क्लीन इमेज के बूते पार्टी फिर जीत को लेकर आश्वस्त है।
**दून में हमेशा हाई रहता है सियासी पारा, इस बार का भी नजदीकी मुकाबला मैदानी और पहाड़ी इलाकों में बटी दून विधानसभा सीट पर हमेशा सियासी पारा हाई ही रहा है। ये ऐसी सीट है जहाँ अक्सर चुनावी मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होता रहा है। इस बार भी समीकरण कुछ ऐसे ही दिखे है। यहां भाजपा से वर्तमान विधायक परमजीत सिंह पम्मी और कांग्रेस के राम कुमार चौधरी आमने-सामने है। बीते तीन दशक में दून विधानसभा सीट की राजनीति बेहद दिलचस्प रही है। 1990 की शांता लहर में जनता दल के टिकट पर चौधरी लज्जा राम विधायक चुन कर आये थे। पर 1993 आते -आते चौधरी लज्जा राम ने पार्टी बदल ली और कांग्रेस का हाथ थाम लिया। इसके बाद 1993, 1998 और 2003 के विधानसभा चुनाव में चौधरी लज्जा राम यहाँ से विधायक रहे। पर इसके बाद से दून में हर बार बदलाव हुआ है। 2007 के चुनाव में चौधरी लज्जा राम को भाजपा की विनोद चंदेल ने परास्त कर इस सीट पर पहली बार कमल खिलाया। फिर आया 2012 का बेहद रोचक चुनाव। कांग्रेस ने चौधरी लज्जा राम के पुत्र राम कुमार चौधरी को मैदान में उतारा, तो वहीँ भाजपा ने विनोद चंदेल को ही टिकट थमाया। इस मुकाबले में जीत राम कुमार चौधरी की हुई, पर दिलचस्प बात ये रही कि भाजपा चौथे पायदान पर रही। दरअसल, कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों से बागी उम्मीदवार भी मैदान में थे। भाजपा के बागी दर्शन सिंह जहाँ 11 हज़ार से अधिक वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे, तो कांग्रेस के बागी परमजीत सिंह पम्मी भी 10 हज़ार से ज्यादा वोट ले गए और तीसरे स्थान पर रहे। इस बीच अगला चुनाव आते -आते समीकरण बदल गए। राम कुमार के रहते परमजीत सिंह पम्मी को कांग्रेस में भविष्य नहीं दिख रहा था, सो पम्मी ने भाजपा का दामन थाम लिया। जैसा अपेक्षित था 2017 में भाजपा ने पम्मी को मैदान में उतारा और कांग्रेस से एक बार फिर राम कुमार चौधरी मैदान में थे। इस मुकाबले में पम्मी ने जीत दर्ज की। अब फिर दून में ये दोनों आमने -सामने है। ये है वर्तमान स्थिति : मौजूदा चुनाव की बात करें तो मुख्य मुकाबला एक बार फिर राम कुमार चौधरी और परमजीत पम्मी के बीच दिख रहा है। पर इस बार पम्मी की राह कुछ मुश्किल जरूर हो सकती है। दरअसल इस क्षेत्र में भाजपा का एक खेमा पम्मी के खिलाफ दिखता रहा है। हालांकि पार्टी में बगावत तो नहीं हुई लेकिन भीतरघात की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है। उधर कांग्रेस के राम कुमार चौधरी करीब एक साल पहले से ही चुनावी मूड में दिखे है जिसका लाभ उन्हें मिल सकता है। इसके अलावा एंटी इंकमबैंसी और ओपीएस जैसे फैक्टर भी कांग्रेस की आस का बड़ा कारण है। बहरहाल नतीजा आठ दिसंबर को आएगा और तब तक कयासों का सिलिसला जारी रहने वाला है।
** कसौली के त्रिकोणीय मुकाबले में स्वास्थ्य मंत्री डॉ सैजल का असल इम्तिहान ** दमखम से लड़े है विनोद सुल्तानपुरी, 'करो या मरो' का चुनाव ** हरमेल धीमान ने दोनों तरफ लगाई है सेंध, रोचक है जंग 2007 का विधानसभा चुनाव चल रहा था और कसौली विधानसभा सीट से वीरभद्र सरकार के पशुपालन मंत्री और पांच बार के विधायक रघुराज मैदान में थे। उनका मुकाबला था भाजपा के डॉ राजीव सैजल से। 36 साल के सैजल का ये पहला चुनाव था। पर कसौली की जनता ने रघुराज पर डॉ राजीव सैजल को वरीयता दी और डॉ सैजल चुनाव जीत गए। दरअसल मंत्री बनने के बाद कसौली वालों की अपेक्षाएं रघुराज से बढ़ गई थी और इन्ही अपेक्षाओं का बोझ उन पर भारी पड़ा। तब जीत के साथ आगाज करने वाले डॉ सैजल अब तक जीत की हैट्रिक लगा चुके है और इस बार जीत का चौका लगाने के इरादे से मैदान में है। खास बात ये है कि इस बार डॉ राजीव सैजल भी मंत्री रहते हुए चुनाव लड़े है और उनसे भी जनता की बेशुमार अपेक्षाएं रही है। जाहिर है ऐसे में ये चुनाव डॉ राजीव सैजल के आसान बिल्कुल नहीं रहा है। सैजल ने दमखम के साथ चुनाव लड़ा है और ऐसे में अब देखना ये होगा कि क्या डॉ सैजल जनता का दिल चौथी बार जीत पाएं है। यूँ तो कसौली निर्वाचन क्षेत्र लम्बे अर्से तक कांग्रेस का गढ़ रहा है। 1982 से 2003 तक हुए 6 विधानसभा चुनावों में से पांच कांग्रेस ने जीते और पांचों बार प्रत्याशी थे रघुराज। सिर्फ 1990 की शांता लहर में एक मौका ऐसा आया जब रघुराज भाजपा के सत्यपाल कम्बोज से चुनाव हारे। इसके बाद 2007 से इस सीट पर सैजल ही जीतते आ रहे है और इस बार भी पार्टी ने उन्हीं पर भरोसा जताया है। उधर डॉ सैजल के विरुद्ध लगातार दो चुनाव मामूली अंतर से हारने वाले विनोद सुल्तानपुरी को कांग्रेस ने तीसरा मौका दिया है। जाहिर है ऐसे में विनोद के लिए ये 'करो या मरो' वाला चुनाव रहा है और इसकी झलक उनकी जमीनी मेहनत में भी दिखी है। पिछले दोनों ही मौकों पर कांग्रेस की अंतर्कलह सुल्तापुरी को भारी पड़ी थी लेकिन इस बार कांग्रेस भी मोटे तौर पर एकजुट दिखी है और चुनाव प्रबंधन भी बेहतर दिखा है। ऐसे में जाहिर है इस बार विनोद का दावा हल्का नहीं है। कसौली के चुनाव को इस बार त्रिकोणीय बनाया है हरमेल धीमान ने। कसौली भाजपा के वरिष्ठ नेता व भाजपा एससी मोर्चा के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष रहे हरमेल धीमान ने कुछ माह पूर्व भाजपा छोड़कर आम आदमी पार्टी का दामन थाम लिया था और आप प्रत्याशी के तौर पर दमखम से चुनाव लड़ा है। नतीजा जो भी रहे पर हरमेल धीमान इस चुनाव में बड़ा अंतर डाल गए है। जानकार मानते है कि हरमेल धीमान ने सिर्फ एकतरफ सेंध नहीं लगाई, बल्कि दोनों ओर फर्क डाला है। ऐसे में जाहिर है कसौली का चुनाव इस बार बेहद दिलचस्प है।
** भाजपा ने सुरेश भारद्वाज की जगह संजय सूद को दिया टिकट ** कांग्रेस में इस बार बागी नहीं, सीपीआईएम भी मैदान में शिमला शहरी विधानसभा क्षेत्र वर्तमान शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज का गढ़ रहा है। भारद्वाज इस क्षेत्र से चार बार चुनाव जीत चुके है। मगर इस बार भाजपा ने भारद्वाज का टिकट बदल कर उन्हें कसुम्पटी विधानसभा क्षेत्र भेज दिया। भारद्वाज ने कसुम्पटी से चुनाव लड़ा और शिमला शहरी से भाजपा ने एक नए चेहरे संजय सूद को मैदान में उतार दिया। एक चाय वाले यानी भाजपा प्रत्याशी संजय सूद के मैदान में होने से शिमला शहरी सीट के चर्चे प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश में हुए। वहीं कांग्रेस ने भी पिछली बार की अपनी गलती को सुधारा है और हरीश जनारथा को मैदान में उतारा है। जबकि इस बार माकपा ने इस विधानसभा क्षेत्र से टिकेंद्र पंवर को मैदान में उतारा है। 2017 में इस विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस ने आनंद शर्मा के करीबी हरभजन भज्जी को टिकट दिया था। इस बात से नाराज होकर वीरभद्र सिंह के करीबी रहे कांग्रेस नेता हरीश जनारथा ने बगावत की और निर्दलीय तौर पर मैदान में उतर गए। केवल हरीश जनारथा ही इस टिकट आवंटन से असंतुष्ट नहीं थे, बल्कि कई पार्षद ओर कांग्रेस के कई कार्यकर्त्ता भी उनके साथ खड़े हो गए थे। इसके अलावा माकपा की ओर से शिमला नगर पालिका के पूर्व महापौर संजय चौहान भी मैदान में थे। तब जीत बीजेपी प्रत्याशी सुरेश भारद्वाज की हुई, जबकि दूसरे स्थान पर निर्दलीय प्रत्याशी हरीश जनारथा रहे। सुरेश भारद्वाज को कुल 14,012 मत मिले, जबकि जनार्था को 12,109 मत मिले। तीसरे स्थान पर माकपा के संजय चौहान रहे थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी हरभजन सिंह भज्जी सिर्फ 2680 मत पाकर चौथे स्थान पर रहे थे। बीते चुनाव में यहां कांग्रेस अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाई थी, मगर इस बार हालत बदले हुए है। जीत की हैट्रिक लगा चुके है भारद्वाज : शिमला शहरी विधानसभा क्षेत्र में भाजपा का खासा प्रभाव दिखता रहा है। इस क्षेत्र में साल 1967 से 1982 तक चार बार दौलत राम विधायक रहे। इसके बाद 1985 में हुए चुनाव में इस सीट से कांग्रेस प्रत्याशी हरभजन सिंह भज्जी विधायक बने। साल 1990 में इस क्षेत्र से सुरेश भारद्वाज बतौर भाजपा प्रत्याशी पहली बार विधायक बने। साल 1993 में माकपा के तेज़तर्रार नेता राकेश सिंघा भी शिमला से विधायक रह चुके है। 1996 में हुए उपचुनाव में इस क्षेत्र में कांग्रेस की जीत हुई और आदर्श कुमार विधायक बने। इसके बाद 1998 में हुए चुनाव में भाजपा से नरेंद्र बरागटा की जीत हुई। साल 2003 में कांग्रेस ने एक बार फिर हरभजन सिंह भज्जी को टिकट दिया और वे ये चुनाव जीत गए। इसके बाद 2007 , 2012 और 2017 के चुनाव में लगातार भाजपा से सुरेश भारद्वाज ही विधायक चुन कर आते रहे है। मौजूदा चुनाव की बात करें तो यहां भाजपा ने नए उम्मीदवार संजय सूद को मैदान में उतारा है। सम्भवतः भाजपा को लगा हो कि सुरेश भारद्वाज के लिए क्षेत्र में एंटी इंकम्बैंसी है और इसी लिए पार्टी ने ये फेरबदल किया है। वहीं कांग्रेस ने हरीश जनारथा को मैदान में उतारा है जो लगातार सक्रीय रहे है। कांग्रेस से इस बार कोई बागी मैदान में नहीं है जिसका लाभ पार्टी को होता दिख रहा है। यहां सीपीआईएम भी मौजूदगी दर्ज करवाती दिख रही है। बहरहाल यहां हरीश जनारथा इस बार जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है।
** गोविन्द सिंह ठाकुर के लिए मुश्किल हो सकती है विधानसभा पहुंचने की डगर चुनाव को लेकर सबकी अपनी राय और अपने -अपने विश्लेषण है, लेकिन मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर के निर्वाचन क्षेत्र मनाली में इस बार भाजपा की स्थिति ज्यादा सहज नहीं होने वाली, इसके संकेत काफी वक्त पहले ही मिल गए थे। दरअसल, पिछले वर्ष हुए मंडी संसदीय उपचुनाव में इस क्षेत्र से मंत्री भाजपा को लीड नहीं दिला पाए थे। क्षेत्र में मंत्री को लेकर एंटी इंकम्बेंसी की झलक भी दिखती रही। ऐसे में माना जा रहा था कि भाजपा इस सीट पर कोई प्रयोग कर सकती है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भाजपा ने फिर एक बार मनाली से ट्राइड एंड टेस्टेड गोविंद ठाकुर को ही मैदान में उतारा है। अब सीट पर भाजपा के साथ -साथ गोविन्द सिंह ठाकुर की भी साख दांव पर लगी हुई है। बहरहाल, लगातार दो चुनाव जीत चुके गोविन्द सिंह ठाकुर जीत की हैट्रिक लगा पाते है या इस बार मनाली में परिवर्तन होता है, ये तो आठ दिसम्बर को ही तय होगा। मनाली विधानसभा सीट के अतीत पर निगाहें डाले तो, 2008 में परिसीमन बदलने के बाद कुल्लू से अलग होकर मनाली विधानसभा सीट अस्तित्व में आई। मनाली में अब तक कुल दो बार विधानसभा चुनाव हुए है और दोनों दफा यहाँ भाजपा का राज रहा। 2012 में कुल्लू के पूर्व विधायक रहे गोविंद सिंह ठाकुर ने मनाली विधानसभा सीट पर भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ा और तब कांग्रेस के भुवनेशवर गौड़ को हरा कर विधानसभा पहुंचे। फिर 2017 में गोविन्द सिंह ठाकुर ने कांग्रेस के हरिचंद शर्मा को हरा कर जीत दर्ज की। माना जाता है कि बीते दोनों चुनावों में यहाँ कांग्रेस की आपसी कलह के चलते भाजपा को लाभ पहुंचा। 2017 में जीतने के बाद ठाकुर को मंत्री पद भी मिल गया। जयराम कैबिनेट में पहले उन्हें वन, खेल व परिवहन जैसे महत्वपूर्ण विभाग सौंपे गए और फिर शिक्षा मंत्रालय उन्हें सौंपा गया। वे मंत्री बने तो जाहिर है उनसे लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ी। अब इन अपेक्षाओं पर वे खरा उतरे या नहीं, ये इस चुनाव के नतीजे तय करेंगे। उधर कांग्रेस से इस बार भुवनेश्वर गौड़ मैदान में है और कांग्रेस काफी हद तक एकजुटता से चुनाव लड़ती दिखी है। इस पर ओपीएस और एंटी इंकम्बेंसी का लाभ भी कांग्रेस को हो सकता है। जाहिर है ऐसे में इस मर्तबा गोविन्द सिंह ठाकुर के लिए विधानसभा की डगर कठिन है।
भाजपा का मास्टरस्ट्रोक या सबसे बड़ी भूल? आखिर क्यों बदला गया मंत्री सुरेश भारद्वाज का निर्वाचन क्षेत्र ? शिमला शहरी सीट पर जीत की हैट्रिक लगाने वाले भारद्वाज को आखिर कसुम्पटी क्यों भेजा गया ? क्या कसुम्पटी में पार्टी को दमदार चेहरे की थी दरकार, या फिर कुछ और है माजरा ? जब भाजपा ने प्रत्याशियों की सूची जारी की, तो दो मंत्रियों का टिकट बदल देना आसानी से किसी के गले से नहीं उतरा। जिन दो मंत्रियों के हलके बदले गए है उनमें मंत्री सुरेश भारद्वाज भी शामिल थे। शिमला शहरी सीट से सुरेश भारद्वाज चार बार विधायक रहे है पिछले तीन चुनाव भारद्वाज लगातार जीते है। सबसे पहले 1990 में भारद्वाज शिमला शहर से विधायक बने उसके बाद लगातार 2007 से 2017 तक भारद्वाज ने शिमला शहरी सीट पर राज किया। इसके बावजूद भी भाजपा ने भारद्वाज को कसुम्पटी ट्रांसफर कर दिया। कुछ लोग मानते है कि इस बदलाव का कारण कसुम्पटी में लगातार हार रही भारतीय जनता पार्टी को मजबूत करना है, तो कुछ का मानना है कि भारद्वाज को लेकर शिमला शहरी में पर्याप्त एंटी इंकम्बेंसी का अंदेशा भाजपा को था और इसलिए भाजपा ने यहाँ किसी नए चेहरे को उतारना वाजिब समझा। बहरहाल अब मतदान हो चुका है और अब कसुम्पटी में भारद्वाज का सीधा मुकाबला कांग्रेस के अनिरुद्ध सिंह से है। वही अनिरुद्ध सिंह जो इस बार जीत की हैट्रिक लगाने को आश्वस्त दिख रहे है और उनके समर्थक लगातार उन्हें मंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे है। अब कसुम्पटी में अनिरुद्ध सिंह जीत की हैट्रिक लगाते है या सुरेश भारद्वाज अपनी प्रतिष्ठा को बरकरार रख पाते है, ये तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। अतीत पर निगाह डालें तो कसुम्पटी में भाजपा के लिए राह आसान नहीं दिख रही है। आखिरी बार रूप दास कश्यप ने यहां 1998 में भाजपा को जीत दिलाई थी, लेकिन 2003 में रूप दास कश्यप करीब तीन हजार वोट के अंतर से हार गए। तब निर्दलीय सोहन लाल ने जीत दर्ज की थी। ये आखिरी मौका था जब भाजपा कुसुम्पटी में मुकाबले में दिखी। इसके बाद हुए तीन चुनाव में भाजपा तीन उम्मीदवार बदल चुकी है और तीनों बार पार्टी को शिकस्त ही मिली है। 2007 में पार्टी ने तरसेम भारती को टिकट दिया, लेकिन भारती करीब साढ़े सात हजार मतों के अंतर से हारे। 2012 में भाजपा ने प्रेम सिंह को और 2017 में विजय ज्योति को मैदान में उतारा और दोनों करीब दस हजार के अंतर से हारे। इन दोनों ही मौकों पर कांग्रेस के अनिरुद्ध सिंह का कसुम्पटी में शानदार प्रदर्शन रहा। लगातार 10 साल तक विधायक रहने के बाद भी अनिरुद्ध सिंह को लेकर कोई एंटी इंकम्बेंसी नहीं दिख रही है। कसुम्पटी में अनिरुद्ध सिंह का सरल स्वभाव लोगों को पसंद है और वे लगातार जनता के बीच भी रहे है। अनिरुद्ध ने इस बार भी चुनाव पूरे दमखम से लड़ा है और कांग्रेस इस क्षेत्र में सहज दिखाई दे रही है। उधर सुरेश भारद्वाज को लेकर विरोध के स्वर भी उठते रहे है। हालांकि समय रहते पार्टी द्वारा बगावत को तो साध लिया गया, लेकिन भीतरघात की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे में अब अगर कसुम्पटी में भाजपा बेहतर नहीं कर पाती है तो टिकट आवंटन को लेकर तो सवाल उठेंगे ही, साथ ही सुरेश भारद्वाज की साख भी यहां दांव पर लगी हुई है।
'प्रदेश का मुख्यमंत्री कैसा हो, सुक्खू भाई जैसा हो' ,चुनाव प्रचार के दौरान नादौन विधानसभा क्षेत्र में ये नारा खूब बुलंद रहा। इस बार सुखविंद्र सिंह सुक्खू के समर्थक उन्हें भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देख रहे है। नादौन में जहाँ भी सुक्खू प्रचार के लिए पहुंचे, समर्थक ये ही नारा दोहराते दिखे। इस बार कांग्रेस ने बेशक सामूहिक नेतृत्व में और बगैर सीएम फेस के चुनाव लड़ा है ,लेकिन इसमें कोई संशय नहीं है कि यदि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और नादौन विधानसभा सीट से सुखविंद्र सिंह सुक्खू चुनाव जीत कर आते है तो मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में सुक्खू का दावा बेहद मजबूत है। नादौन की सियासी फ़िज़ाओं में सुगबुगाहट तेज़ है कि मुमकिन है इस बार नादौन विधानसभा क्षेत्र को मुख्यमंत्री मिल जाएँ। ऐसे में जाहिर है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भावी सीएम फैक्टर का लाभ इस चुनाव में सुक्खू को मिला हो। नादौन के इतिहास की बात करें तो नादौन विधाभसभा सीट यूँ तो कांग्रेस का गढ़ रही है। यहां से नारायण चंद पराशर तीन बार विधायक रहे। नारायण चंद पराशर के बाद सुखविंद्र सिंह सुक्खू ने इस सीट पर राज किया है। 2003 से अब तक सुखविंद्र सिंह सुक्खू नादौन सीट पर तीन बार जीत चुके है, हालांकि 2012 के विधानसभा चुनाव में सुक्खू को 6750 मतों के अंतर से हार का सामना करना पड़ा था। पर फिर 2017 में सुक्खू ने जीत हासिल की। कांग्रेस में सुक्खू के अलावा कभी कोई अन्य चेहरा विकल्प के तौर पर नहीं उभरा। इस बीच भाजपा की बात करे तो एक बार फिर विजय अग्निहोत्री मैदान में है। अग्निहोत्री एक दफा सुक्खू को पटकनी भी दे चुके है और इस बार फिर मैदान में डटे हुए है। नादौन में भाजपा के लिए ऐसा भी कहा जाता है कि अगर यहां भाजपा एकजुट हो जाए तो शायद कांग्रेस की राह इतनी आसान न हो। अब भाजपा एकजुट है या नहीं ये तो आने वाला समय ही बताएगा। वहीँ इस बार आम आदमी पार्टी ने नादौन के सियासी समीकरण ज़रूर बदले है। दरअसल इस बार आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी शैंकी ठुकराल ने पुरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा है। अब देखना ये होगा कि शैंकी किसके वोट बैंक में कितनी सेंध लगाते है। नादौन में फिलवक्त सुक्खू जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त है। सुक्खू ने भावी सीएम के टैग के साथ चुनाव लड़ा है। ऐसे में जाहिर है इसका लाभ भी उन्हें मिलता दिख रहा है। बहरहाल, जनादेश ईवीएम में कैद है और सभी अपनी -अपनी जीत का दावा कर रहे है।
'कांग्रेस आ रही है' पार्टी के होर्डिंग्स और प्रचार सामग्री पर छापा ये नारा अब पार्टी के नेताओं की जुबां पर आ गया है और पुरे आत्मवश्वास के साथ पार्टी के तमाम बड़े नेता दो तिहाई बहुमत के साथ सत्ता वापसी का दावा कर रहे है। कांग्रेस के तमाम दिग्गज एक सुर में रिवाज बदलने का सियासी राग दोहरा रहे है। रिकॉर्ड मतदान और प्रदेश का सियासी इतिहास भी कांग्रेस के दावे को मजबूत करता है। इसके अलावा माहिर मानते है कि पुरानी पेंशन और महंगाई जैसे मुद्दे भी संभवतः कांग्रेस के पक्ष में गए है। बेहतर टिकट आवंटन और सीमित बगावत भी कांग्रेस के दावे को और बल दे रहे है। यानी कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तो कहा जा सकता है कि कांग्रेस आ सकती है। हालांकि, जनादेश आठ दिसंबर को आएगा और तब तक इन दावों और विश्लेषणों में कितना दम है, इसके लिए इंतजार करना होगा। बहरहाल, अगर कांग्रेस सात में आई तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा, ये फिलवक्त सबसे बड़ा और पेचीदा सवाल है। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस में एक से बढ़कर एक दिग्गज नेता है, सब सियासी महारथी और सब दावेदार। कम से कम आठ चेहरे ऐसे है जिनका नाम उनके समर्थक खुलकर मुख्यमंत्री के लिए प्रोजेक्ट कर रहे है। हालांकि ये तमाम नेता खुद शांत है और उम्मीद से विपरीत इस अनुशासन के लिए निसंदेह पार्टी बधाई की हकदार भी है। वरना वीरभद्र सिंह के निधन के बाद एक बड़ा वर्ग ये मानता था कि पार्टी में 'अपनी डफली अपना राग' की स्थिति खुलकर सामने आ जाएगी। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस को लेकर सबसे बड़ा सवाल ये था कि पार्टी किसके चेहरे पर चुनाव लड़ेगी। पर कांग्रेस ने सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने का निर्णय लिया और लड़ा भी। आगे भी ये एकजुटता और अनुशासन कायम रह पाता है या नहीं, ये तो समय के गर्भ में छिपा है पर चुनाव तक तो कांग्रेस ने कमाल कर के दिखा ही दिया। अब ज्यूँ ज्यूँ नतीजों का दिन नजदीक आ रहा है, पार्टी के भीतर की खलबली मचना स्वाभविक है। जाहिर है कई दिग्गज नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर निगाह गड़ाएं हुए है और अब पार्टी आलाकमान का आशीर्वाद और समर्थक विधायकों का संख्याबल ये तय करेगा कि किसके अरमान पूरे होते है। पार्टी में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की बात करें तो प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह, चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, वरिष्ठ नेता कौल सिंह ठाकुर, रामलाल ठाकुर और आशा कुमारी वो प्रमुख नाम है जिनके समर्थक खुलकर उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे है। इनके अलावा एक और नाम समर्थकों द्वारा जमकर प्रोजेक्ट किया जा रहा है, वो है युवा नेता विक्रमादित्य सिंह। हालांकि ये वर्तमान स्थिति में व्यावहारिक नहीं लगता, पर इससे विक्रमादित्य की लोकप्रियता का अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है। बहरहाल मौजूदा परिवेश में नजर डाले तो सीएम पद की दौड़ में शामिल इन नेताओं में से किसकी इच्छा पूरी होती है, ये समर्थक विधायकों का संख्याबल भी तय करेगा। पार्टी के भीतर इसे लेकर सिसायत जरूर चरम पर है, पर सुखद बात ये है कि पार्टी के भीतर की ये सियासत अनुशासन के दायरे में हो रही है। 5नए सियासी गठजोड़ संभव कांग्रेस के टिकट आवंटन पर निगाह डाले तो होलीलॉज के निष्ठावानों के अलावा सबसे ज्यादा टिकट सुक्खू कैंप को मिले है। दोनों तरफ के निष्ठवानो में से किसके कितने समर्थक जीतकर आते है, ये सीएम पद के चयन के लिहाज से महत्वपूर्ण होगा। इन दोनों के बीच ठाकुर कौल सिंह भी है जो जिला मंडी में कांग्रेस की प्रचंड जीत का दावा कर रहे है। कौल सिंह और होलीलॉज का सियासी गठजोड़ एक बार फिर मुमकिन है और ऐसे में प्रतिभा सिंह या ठाकुर कौल सिंह का दावा मजबूत हो सकता है। जानकार मान रहे है कि अगर प्रतिभा सिंह के नाम पर सहमति नहीं बनती है तो होलीलॉज, कौल सिंह ठाकुर के साथ जा सकता है। हालांकि ये सिर्फ कयास है। नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री भी होलीलॉज के करीबी रहे है, ऐसे में उनका नाम भी खारिज नहीं किया जा सकता। आशा कुमारी भी दावेदार है और संभवतः होलीलॉज कैंप के साथ ही आगे बढ़ रही है। उधर सुखविंद्र सिंह सुक्खू तो अपने समर्थकों के साथ मजबूत दिख ही रहे है। रामलाल ठाकुर और हर्षवर्धन चौहान जैसे अन्य नेता किस रणनीति पर आगे बढ़ते है, ये देखना भी रोचक होगा। क्या होलीलॉज के समानांतर एक और सियासी गठजोड़ होता है या नहीं, ये देखना दिलचस्प होने वाला है। क्या होलीलॉज निष्ठावानों की गिनती भी कम -ज्यादा होगी, इस पर भी निगाह टिकी है। कमतर नहीं दिख रहे सुक्खू अपनी शर्तों पर सियासत करते आएं सुखविंद्र सिंह सुक्खू के दावे को कमतर आंकना किसी के लिए भी बड़ी भूल सिद्ध हो सकता है। जो नेता वीरभद्र सिंह से टकराते हुए खुद की सियासी जमीन बचा ले, वो आसानी से हार कैसे मान सकता है। सुक्खू के जिन समर्थकों को टिकट मिला है उनमें से अधिकांश अपनी अपनी सीटों पर अच्छा करते दिख रहे है। इसके अलावा होलीलॉज कैंप के बाहर के कई अन्य नेता भी खुद का दावा कमजोर पड़ने पर अपने समर्थकों सहित सुक्खू का साथ दे सकते है। यानी सुक्खू संख्याबल के मामले में भी कम नहीं माने जा सकते। पार्टी आलाकमान के भी वे नजदीकी माने जाते है। 'प्रतिभा' की 'प्रतिभा' पर संशय नहीं हिमाचल प्रदेश को आज तक महिला मुख्यमंत्री नहीं मिली है और ऐसे में प्रतिभा सिंह एक मजबूत दावेदार है। पार्टी आलाकमान को वीरभद्र सिंह के नाम के असर का बखूभी इल्म है और उपचुनाव के नतीजों में इसका असर भी दिख चूका है। इस बार भी चुनाव सामग्री में जिस तरह वीरभद्र सिंह के नाम का इस्तेमाल किया गया है वो इसे साफ़ दर्शाता है। मंडी संसदीय उपचुनाव जीतकर प्रतिभा सिंह भी अपनी प्रतिभा दिखा चुकी है और शायद ये ही बतौर प्रदेश अध्यक्ष उनकी नियुक्ति का अहम् कारण बना। जानकार मानते है कि अब भी बतौर मुख्यमंत्री प्रतिभा सिंह का दावा मजबूत है। सबसे वरिष्ठ कौल सिंह ठाकुर करीब 50 साल लम्बे राजनीतिक सफर में कौल सिंह ठाकुर ने पंचायत समिति से लेकर कैबिनेट मंत्री तक का फासला तय किया है। वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे है और कांग्रेस ने निष्ठावान सिपाही है। जानकार मानते है कि अगर मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में सहमति नहीं बनती है तो कौल सिंह ठाकुर वो नाम है जिसपर वरिष्ठता का हवाल देकर आलाकमान सबको मना सकता है। होलीलॉज से भी कौल सिंह ठाकुर के सम्बंध बेहतर दिख रहे है, ऐसे में वरिष्ठता का लाभ उन्हें मिल सकता है। होलीलॉज के समर्थक पर टिकी मुकेश की दावेदारी मुकेश अग्निहोत्री ने नेता प्रतिपक्ष रहते हुए बीते पांच साल में जयराम सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मुकेश भी सीएम पद के प्रबल दावेदार है, हालांकि उनकी दावेदारी होलीलॉज के भरोसे ज्यादा टिकी दिखती है। दरअसल जिस तरह सुखविंद्र सिंह सुक्खू के अपने कई समर्थक और निष्ठावान चुनावी मैदान में है, उस तरह मुकेश अग्निहोत्री का अपना कोई अलग कैंप नहीं दिखता। ऐसे में क्या होलीलॉज उन्हें प्रोजेक्ट करता है, ये देखना रोचक होगा। संभवतः मुकेश होलीलॉज के साथ ही आगे बढ़ेंगे, लेकिन उनकी दावेदारी को हल्का नहीं लिया जा सकता। वे होलीलॉज की पसंद भी हो सकते है।
अप्रैल 1983 में कांग्रेस आलाकमान ने तत्कालीन मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र सिंह को हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया था। इसके बाद वीरभद्र सिंह के जीवित रहते जब भी कांग्रेस की सरकार बनी, सीएम वे ही बने। कुल 6 बार सीएम रहे वीरभद्र सिंह के निधन के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव हुए है और यदि कांग्रेस सरकार बनाती है तो सीएम कौन होगा, ये देखना रोचक होने वाला है। ऐसा नहीं है कि 6 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेना वीरभद्र सिंह के लिए आसान रहा हो। अपने सियासी तिलिस्म के बूते कई बार वीरभद्र सिंह ने हारी हुई बाजी पलट दी और साबित किया क्यों उनका कोई सानी नहीं रहा। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा के चुनाव 1987 में होने थे लेकिन वीरभद्र सिंह ने समय से पहले वर्ष 1985 में ही चुनाव करवा दिए। 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद पुरे देश में कांग्रेस के पक्ष में लहर थी जिसे वीरभद्र भाप गए थे और उनका ये निर्णय ठीक साबित हुआ। 1985 में वीरभद्र सिंह दूसरी बार सीएम बने। 1990 आते -आते प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर हावी थी और कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। इसके बाद बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद केंद्र सरकार ने हिमाचल सरकार को भी बर्खास्त कर दिया और 1993 में फिर चुनाव हुए। शांता सरकार से कर्मचारियों की नाराजगी के चलते कांग्रेस प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। इसके बाद सबसे बड़ा सवाल ये था की मुख्यमंत्री कौन होगा। दरअसल पंडित सुखराम भी सीएम पद के प्रबल दावेदार थे लेकिन वीरभद्र सिंह की सियासी गणित पंडितजी पर भारी पड़ी और वीरभद्र तीसरी बार सीएम बने। तब कौल सिंह ठाकुर ने वीरभद्र सिंह का साथ दिया था और ये टीस आज भी पंडितजी के परिवार की जुबां से छलक ही जाती है। 1993 में पंडित सुखराम सीएम बनते -बनते रह गए थे और ताउम्र सीएम नहीं बन पाएं। इसके बाद 1998 का चुनाव आया। तब वीरभद्र सिंह रिपीट को लेकर आश्वस्त थे। तब तक पंडित सुखराम और कांग्रेस की राह अलग हो चुकी थी और पंडित जी हिमाचल विकास कांग्रेस बना चुके थे। उस चुनाव में कांग्रेस और भाजपा में कांटे का मुकाबला हुआ लेकिन निर्दलीय जीते रमेश धवाला और पंडित सुखराम आखिरकार भाजपा के साथ गए और पांच साल भाजपा और हिमाचल विकास कांग्रेस की सरकार चली। दिलचस्प बात ये है कि वीरभद्र सिंह 1998 में सीएम पद की शपथ भी ले चुके थे लेकिन उन्हें सुखराम का साथ नहीं मिला और बहुमत न होने के चलते उन्हें कुछ ही दिनों में इस्तीफा देना पड़ा। 2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई लेकिन सीएम वीरभद्र सिंह ही होंगे ये तय नहीं था। नतीजे आने के बाद विद्या स्टोक्स भी दावेदारी की तैयारी में थी। कहते है मैडम स्टोक्स अपना दावा ठोकने दिल्ली चली गई थी। पर पीछे से शिमला में वीरभद्र ने बाजी पलट दी और मीडिया के सामने विधायकों की परेड कराकर उनके दावे पर पूर्ण विराम लगा दिया। इस तरह मैडम स्टोक्स को मात देकर वीरभद्र सिंह पांचवी बार सीएम बने। 2007 में कांग्रेस फिर सत्ता से बाहर हुई और 2012 में पार्टी ने फिर वीरभद्र सिंह के चेहरे पर चुनाव लड़ा और वीरभद्र सिंह छठी बार सीएम बने। 2012 में अपने ही अंदाज में चेताया था आलकमान को 2007 में सत्ता से बाहर होने के बाद वीरभद्र सिंह ने 2009 में लोकसभा चुनाव लड़ा और केंद्रीय मंत्री बन गए। पर 2011 में वे केंद्र से फिर प्रदेश की सियासत में लौट आएं। तब कांग्रेस कौल सिंह ठाकुर के नेतृत्व में आगे बढ़ती दिख रही थी और वीरभद्र सिंह को फेस घोषित करने से पार्टी बच रही थी। इसी दौरान चुनाव से चंद दिन पहले वीरभद्र सिंह ने शिमला में पत्रकार वार्ता कर कहा कि अगर सोनिया गाँधी चाहे तो वे फिर कांग्रेस को सत्ता में ला सकते है। तब वीरभद्र सिंह ने आलकमान को चेताते हुए कहा था 'मैं ढोलक बजाऊंगा और मेरी सेना नृत्य करेगी।' दबाव रंग लाया और आलाकमान ने वीरभद्र सिंह को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया। इसके बाद वे ही सीएम बने।
कांग्रेस के कई बड़े नेता अपनी अपनी सम्बंधित सीटों पर कांटे के मुकाबले में फंसे दिख रहे है। इनमें से कई तो मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी है। नजदीकी मुकाबले में इन सीटों पर कुछ भी संभव है, ऐसे में जाहिर है आठ दिसम्बर को कई नेताओं के अरमानो पर पानी फिर सकता है। डलहौज़ी सीट पर कांग्रेस की वरिष्ठ नेता आशा कुमारी और भाजपा के डीएस ठाकुर में कांटे का मुकाबला दिख रहा है। इस सीट पर सभी की निगाह टिकी है और यहाँ कुछ भी मुमकिन है। शायद ये ही कारण है कि चुनाव के दौरान आशा कुमारी ने अपनी सीट पर भी अधिकांश समय दिया। अन्य क्षेत्रों में आशा कुमारी प्रचार करती नहीं दिखी। इसी तरह सोलन सीट से कर्नल धनीराम शांडिल नजदीकी मुकाबले में फंसे दिख रहे है। उनका मुकाबला उनके दामाद और भाजपा प्रत्याशी डॉ राजेश कश्यप से है। दोनों के बीच 2017 में भी मुकाबला हुआ था, जिसे शांडिल ने महज 671 वोट के अंतर से जीता था। शिलाई में वरिष्ठ नेता हर्षवर्धन चौहान और बलदेव तोमर में मुकाबला है। यहाँ हाटी फैक्टर के सहारे भाजपा जीत की उम्मीद में है और यदि हाटी फैक्टर चला है तो हर्षवर्धन की मुश्किल बढ़ सकती है। वहीं कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर ठियोग से चुनाव लड़ रहे है और बहुकोणीय मुकाबले में फंसे दिख रहे है। यहाँ निर्दलीय इंदु वर्मा, सीपीआईएम के राकेश सिंघा और भाजपा के अजय श्याम मैदान में है। इस सीट पर कुलदीप का असल इम्तिहान है। वहीं नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री की सीट हरोली पर भी भाजपा ने पूरी ताकत लगा दी है। यहाँ से प्रो रामकुमार मैदान में है और भाजपा नियोजित रणनीति के तहत यहाँ चुनाव लड़ती दिखी है। हालांकि मुकेश ने पुरे दमखम से चुनाव लड़ा है। इस सीट पर कितना अंतर रहता है इस पर निगाह जरूर टिकी है।
क्या हिमाचल प्रदेश में भाजपा संगठन में सर्जेरी की दरकार है, ये वो सवाल है जो या तो आठ दिसंबर के बाद तूल पकड़ेगा या गायब हो जायेगा। दरअसल, पिछले साल हुए मंडी संसदीय उपचुनाव और तीन विधानसभा सीटों के उपचुनाव में करारी शिकस्त के बाद भाजपा संगठन को लेकर कई सवाल उठे थे। तब कयास लग रहे थे कि पार्टी चेहरा बदल सकती है और संगठन में भी बदलाव संभव है। मंथन हुआ, चिंतन हुए लेकिन बदलाव नहीं हुआ। सरकार का फेस जयराम ही रहे और संगठन सुरेश कश्यप के हाथों में ही रहा। तब बदलाव न करने का निर्णय सही था या नहीं, ये भी आठ दिसम्बर को तय होगा। जाहिर है नतीजे प्रतिकूल रहे तो जवाब उन लोगों को देना होगा जिनके भरोसे पार्टी रिवाज बदलने का दावा करती रही है। पूर्व अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती की जगह भाजपा ने 2019 के अंत में डॉ राजीव बिंदल को प्रदेश संगठन की कमान सौंपी थी। बिंदल ने चार्ज लेते ही कई नियुक्तियां की और भाजपा संगठन में उनकी कार्यशैली की छाप स्पष्ट दिखने लगी। इसके बाद कोरोना काल में हुए स्वास्थ्य घोटाले में बिंदल का नाम उछला तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। दिलचस्प बात ये है की स्वास्थ्य महकमा सीएम के पास था और इस्तीफा प्रदेश अध्यक्ष ने दिया। हालांकि इसके बाद बिंदल को क्लीन चिट मिली। बिंदल के स्थान पर सुरेश कश्यप को नया अध्यक्ष बनाया गया। तब तक पार्टी की परफॉरमेंस अव्वल थी। 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप कर चुकी थी और दो उपचुनाव भी जीत चुकी थी। पर सुरेश कश्यप के आने के बाद पार्टी सिंबल पर हुए चार नगर निगम चुनाव में से पार्टी को दो में हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद एक लोकसभा उपचुनाव और तीन विधानसभा उपचुनाव भी पार्टी हार गई। जाहिर है ऐसे में सवाल उठना तो लाजमी है। अब विधानसभा चुनाव के नतीजे भी यदि प्रतिकूल रहते है तो बतौर अध्यक्ष सुरेश कश्यप की परफॉरमेंस पर बात तो होगी ही। पर यदि भाजपा हिमाचल प्रदेश में रिवाज बदलने में कामयाब रही तो प्रदेश अध्यक्ष सुरेश कश्यप को भी इसका श्रेय मिलेगा। ऐसा हो पाया तो सुरेश कश्यप और जयराम ठाकुर मिलकर इतिहास रच देंगे। गजब का तालमेल, पक्ष में गया या नहीं ? डॉ राजीव बिंदल और सुरेश कश्यप दोनों का काम करने का तरीका अलग है। पर बिंदल ने अध्यक्ष रहते जो टीम नियुक्त की थी अमूमन उसी टीम के साथ कश्यप ने काम किया है। यानी अध्यक्ष तो बदला लेकिन भाजपा की टीम में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ। इसके अलावा आम तौर पर भाजपा में सरकार और संगठन दोनों अलग -अलग काम करते है, सामंजस्य होता है लेकिन दोनों स्वायत्त तरीके से काम करते है। पर सुरेश कश्यप के रहते सरकार और संगठन दोनों पर जयराम ठाकुर का ही पूर्ण प्रभाव दिखा। संगठन, सरकार की छाया बना दिखा। अब ये गजब का तालमेल भाजपा के पक्ष में गया या नहीं, ये नतीजे ही तय करेंगे। भीतरघात और बगावत ने बढ़ाई टेंशन ! भीतरघात की आशंका से झूझ रही भाजपा की चिंता कुछ वायरल ऑडियो भी बढ़ा रहे है। बीत दिनों एक पूर्व मंत्री का बताया जा रहा वायरल ऑडियो ये दर्शाने के लिए काफी है कि किस कदर पार्टी में अनुशासनहीनता है। हालांकि इसकी सत्यता की पुष्टि नहीं हुई है। इसके अलावा करीब एक तिहाई सीटों पर बागियों का होना भी ये बताता है कि पार्टी में किस हद तक अंसतोष की स्थिति है।
हिमाचल प्रदेश चुनाव के लिए मतदान संपन्न हो चूका है और प्रत्याशियों की किस्मत ईवीएम में कैद हो गई है। किसकी सरकार बनेगी और किसकी नहीं, इस सवाल के साथ-साथ एक और सवाल भी सियासी गलियारों में गूंज रहा है। ये सवाल है कि क्या इस बार सरकार बनाने में निर्दलीय अहम भूमिका निभाएंगे ? दरअसल, इस बार 412 प्रत्याशियों में से 99 प्रत्याशी बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। इन 99 निर्दलीयों में से मुख्य तौर पर करीब एक दर्जन चेहरों पर फिलवक्त दोनों मुख्य राजनैतिक दलों की निगाह टिकी है। निर्दलीयों की लम्बी फेहरिस्त में कम से कम एक दर्जन नाम ऐसे है जो अपने-अपने क्षेत्रों में चुनाव जीतने की स्थिति में दिखाई दे रहे है। इनमें से कितने जीतते है, ये तो आठ दिसम्बर को पता चलेगा, लेकिन इनमें से किसी को कम नहीं आँका जा सकता। दोनों पार्टियां यदि स्पष्ट बहुमत नहीं ले पातीं तो निर्दलीय चुनाव जीते नेता निश्चित तौर पर निर्णायक भूमिका में आ जाएंगे। बता दें की इस बार निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले बागियों में दो सीटिंग विधायक और 6 पूर्व विधायक शामिल है। पिछले चुनाव बतौर निर्दलीय जीत कर इस चुनाव से ठीक पहले भाजपा में शामिल हुए बने देहरा विधायक होशियार सिंह और भाजपा की ज्यादा नहीं बनी और उन्हें फिर निर्दलीय चुनाव लड़ना पड़ा। जबकि आनी से मौजूदा विधायक किशोरी लाल का टिकट भाजपा ने काटा तो वे भी निर्दलीय मैदान में उतर गए। इनके अलावा 6 पूर्व विधायकों ने भी निर्दलीय चुनाव लड़ा है। इनमें कांग्रेस से गंगूराम मुसाफिर, सुभाष मंगलेट, जगजीवन पाल का नाम शामिल है, तो भाजपा से तेजवंत नेगी, केएल ठाकुर और मनोहर धीमान बागी होकर चुनाव लड़ रहे है। जाहिर है निर्दलीय मैदान में उतरे इन आठ विधायकों और पूर्व विधायकों को कम नहीं आँका जा सकता। ये सभी वो चेहरे है जो फिर विधानसभा पहुंचने का दमखम रखते है। वहीं यदि कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे का मुकाबला होता है तो इनमें से जीतने वालों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो सकती है। इन आठ के अलावा कई निर्दलीय उम्मीदवार ऐसे है जो इस चुनाव में उलटफेर करने का दमखम रखते है। इनमें प्रमुख नाम है अर्की से राजेंद्र ठाकुर, हमीरपुर से आशीष शर्मा और ठियोग से इंदु वर्मा। राजेंद्र ठाकुर पूर्व कांग्रेसी है और अर्की उपचुनाव के दौरान उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी। अब राजेंद्र ठाकुर खुलकर कह रहे है कि अगर वे विधायक बने तो वे उसके साथ जायेंगे जिसकी सरकार बनेगी। वहीं आशीष शर्मा ने चुनाव के दौरान कांग्रेस ज्वाइन की और दो दिन में छोड़ भी दी। आशीष ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और हमीरपुर में उनका दावा मजबूत है। वहीँ ठियोग से इंदु वर्मा पुरे दमखम से चुनाव लड़ी है। बड़सर से भाजपा के बागी संजीव शर्मा और जसवां परागपुर से निर्दलीय कैप्टन संजय पराशर को भी कम नहीं आँका जा सकता। अभी से जुटे दोनों राजनैतिक दल आठ दिसम्बर को नतीजे आएंगे और उससे पहले दोनों मुख्य राजनैतिक दल निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले नेताओं से संपर्क में है ताकि जरुरत पड़ने पर उनको साथ लिया जा सके। हिमाचल प्रदेश की सियासी अतीत पर निगाह डाले तो 1998 में एक निर्दलीय विधायक के हाथ में सत्ता की चाबी थी। जाहिर है कि ऐसे में दोनों प्रमुख राजनैतिक दल अभी से उन संभावित निर्दलीय उम्मीदवारों को साधने में जुट गए है जो विधानसभा की दहलीज लांघ सकते है। तब ध्वाला बने थे भाजपा के लिए हीरो साल 1998 के चुनाव में भी एक निर्दलीय ने प्रदेश की सियासत की स्थिति बेहद दिलचस्प बना दी थी। तब भाजपा के लिए निर्दलीय उम्मीदवार रमेश ध्वाला हीरो बनकर उभरे थे। रमेश ध्वाला को भाजपा ने टिकट नहीं दिया था, वह बागी बनकर बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव जीते थे। इस चुनाव में न तो भाजपा को बहुमत मिला और न ही कांग्रेस को। सरकार बनाने की जोर आजमाइश जारी थी। ध्वाला ने बीजेपी को समर्थन देने के लिए शर्त रख दी कि प्रेम कुमार धूमल के बदले शांता कुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाए। पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस ने बीजेपी को समर्थन दे दिया था। इस तरह बीजेपी के साथ भी विधायकों की संख्या 32 हो गई। हालांकि वो अब भी बहुमत के आंकड़े से पीछे थी। अब ध्वाला बतौर निर्दलीय उम्मीदवार अपना समर्थन देने के लिए शिमला की ओर चल पड़े। कहते है की ध्वाला जैसे ही शिमला पहुंचे, उन्हें कांग्रेस नेताओं ने अपने कब्जे में ले लिया और उन्हें सीधे होली लॉज ले गए। वीरभद्र सिंह समेत तमाम नेताओं ने उन्हें कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए समर्थन देने का आग्रह किया। तमाम तरह के प्रलोभन भी दिए गए। कहा जाता है की धवला को डराया धमकाया भी गया था। ध्वाला ये सब खुद स्वीकार कर चुके हैं। फिर अचानक एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ध्वाला ने बताया कि वे वीरभद्र सिंह को अपना समर्थन देते हैं। उन्होंने एक और विधायक के समर्थन का दावा किया था। वीरभद्र सिंह ने तत्कालीन राज्यपाल रमा देवी के पास जाकर सरकार बनाने का दावा पेश किया। रात के 2 बजे विधायकों की परेड हुई और वीरभद्र सिंह की सरकार बन गई। रमेश ध्वाला को सरकार में मंत्री पद भी दिया गया। हालाँकि ये कहानी यहीं खत्म नहीं हुई, ध्वाला भाजपा के बागी थे और कांग्रेस को डर था की वे समर्थन वापस ले सकते है, इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री आवास में रखा गया था। कुछ दिनों बाद नरेंद्र मोदी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि रमेश ध्वाला को हम वापस लाएंगे और कांग्रेस की सरकार गिरेगी। कहा जाता है कि सीएम आवास में काम करने वाले एक कर्मचारी के ज़रिये नैपकिन पर रमेश धवाला के लिए एक संदेश लिखकर भेजा गया। फिर उसी कर्मचारी के जरिये ध्वाला ने भी मैसेज भेजा कि उन्हें सीएम आवास से निकाला जाए, तो वे बीजेपी के साथ आ जाएंगे। ध्वाला वहां से निकले और सीधे नरेंद्र मोदी के पास पहुंचे। फिर नरेंद्र मोदी ने राज्यपाल को फोन कर बताया कि सरकार का एक विधायक उन्हें समर्थन दे रहा है, इसलिए बीजेपी को सरकार बनाने के लिए बुलाया जाए। कहा जाता है की उस वक्त राज्यपाल ने बीजेपी को मना कर दिया। परन्तु कुछ समय बाद जब दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी। तब राज्यपाल ने खुद प्रेम कुमार धूमल को फोन किया कि आइए और सरकार बनाने का दावा पेश कीजिए। 12 मार्च 1998 को विधानसभा का सत्र बुलाया गया। रमेश ध्वाला और हिमाचल विकास कांग्रेस के सभी विधायक भी आए। दूसरी ओर वीरभद्र सिंह दावा करते रहे कि उनके पास अब भी रमेश ध्वाला का समर्थन है। अंत में जब बहुमत साबित करने की बात आई तो उससे पहले ही वीरभद्र सिंह ने इस्तीफा दे दिया और उनकी सरकार गिर गई।
थोड़े शिकवे भी है, कुछ शिकायत भी है, लेकिन नाराज़गी इस कदर नहीं दिखती कि साथ छोड़ दिया जाए। डॉ राजीव सैजल और कसौली में उनका साथ देते आ रहे लोगों के बीच का सम्बन्ध कुछ ऐसा ही दिख रहा है। यहाँ जीत की हैट्रिक लगा चुके डॉ राजीव सैजल अब जीत का चौका लगाना चाहते है और लगातार उनका जनसम्पर्क जारी है। सैजल स्वास्थ्य मंत्री है तो जाहिर है कि लोगों की अपेक्षाएं भी उनसे बढ़ी है, और सैजल ने उन पर खरा उतरने का प्रयास भी किया है। बावजूद इसके अगर कहीं कुछ ठसक है भी, तो डॉ राजीव सैजल के सामने आने से दूर हो जाती है। दरअसल डॉ सैजल न सिर्फ ईमानदार नेता के तौर पर जाने जाते है, बल्कि उनका सरल व्यक्तित्व उन्हें सीधे लोगों से जोड़ता है। बड़ों के पाँव छूकर सैजल जीत का आशीर्वाद ले रहे है तो छोटो को झप्पी डालकर अपना बनाने का हुनर उन्हें बखूबी आता है। ये ही कारण है कि इस बार भी चौथी बार मैदान में होने के बावजूद कसौली में उनका दावा दमदार है। कसौली के इतिहास पर निगाह डाले तो लम्बे समय तक इस सीट पर कांग्रेस का कज्बा रहा और 2007 में डॉ राजीव सैजल ने सीट कांग्रेस से छीनी। तब से अब तक सैजल ने यहाँ कांग्रेस को वापसी नहीं करने दी। हालांकि इस क्षेत्र में कांग्रेस का अच्छा काडर है, और पिछले डॉ चुनाव डॉ सैजल मामूली अंतर से जीते है, पर जीत तो आखिरकार जीत होती है। सैजल इस बार भी जीत को लेकर आश्वस्त है। सैजल साफ कहते है कि लगातार पंद्रह साल के बाद भी लोगों का उनसे कोई मोहभंग नहीं हुआ है। वे जितने सरल तब थे, उतने ही आज है और सदा ऐसे ही रहेंगे। कसौली कि जनता उनके लिए वोटर नहीं, उनका परिवार है। बहरहाल कसौली का दिल फिर से सैजल जीत पाते है या नहीं, ये तो आठ दिसंबर को ही पता चलेगा। पर नतीजा जो भी हो सैजल को यहाँ कम आंकना विरोधियों के लिए भूल सिद्ध हो सकती है। वैसे भी बीते चुनाव में अति आत्मविश्वास उनके विरोधियों को भारी पड़ा है।
दो बार सांसद, दो बार विधायक, वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे और कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य रहे कर्नल धनीराम शांडिल की गिनती उन चंद नेताओं में होती है जिनकी छवि पर कभी विरोधी भी सवाल नहीं उठा पाएं। अपनी ईमानदार छवि और सरल व्यक्तित्व के चलते बीते ढाई दशक में कर्नल ने हिमाचल प्रदेश की राजनीति में अपना एक ख़ास मुकाम बनाया है। कर्नल शांडिल उन नेताओं में से है जो बोलने में नहीं करने में यकीन रखते है। वीरभद्र सरकार में मंत्री रहते हुए कर्नल ने साढ़े चार सौ करोड़ से अधिक के कार्य सोलन में करवाएं थे। कर्नल धनीराम शांडिल एक बार फिर विधानसभा चुनाव के मैदान में है। सोलन सीट से वे लगातार दो चुनाव जीत चुके है और इस बार उनकी नज़र जीत की हैट्रिक पर है। सोलन सीट पर कांग्रेस लगातार तीन चुनाव हार चुकी थी, तब वर्ष 2012 में कर्नल ने यहाँ कांग्रेस की वापसी करवाई। इसके बाद उन्हें वीरभद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री का पद मिला। 2017 में भी कर्नल विजयी रहे। अब तीसरी बार वे सोलन से विधानसभा चुनाव लड़ रहे है। जानकार मानते है कि अगर शांडिल जीत दर्ज करते है और प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार बनती है तो उन्हें बेहद अहम जिम्मेदारी मिलना तय है। वहीँ उनके समर्थक उन्हें बतौर सीएम भी प्रोजेक्ट कर रहे है। कई जनसभाओं में उनके लिए नारेबाजी हो रही है। बहरहाल आठ दिसंबर को ये तय होगा कि कर्नल जीत की हैट्रिक लगा पाते है या नहीं, पर फिलहाल वे जोर शोर से प्रचार कर जनता के बीच जा रहे है। वे कांग्रेस मैनिफेस्टो कमेटी के चेयरमैन भी है सो जनता के बीच कांग्रेस के हर वादे पर अपनी बात रख रहे है। शांडिल का कहना है कि कांग्रेस घोषणा पत्र का हर वादा उनका वचन है, पार्टी पुरानी पेंशन भी बहाल करेगी और महिलाओं को सम्मान राशि भी मिलेगी।
पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल का अभेद किला रही जुब्बल कोटखाई सीट पर पिछले पांच चुनाव में कांग्रेस व भाजपा दोनों को जनता ने बराबर का प्यार दिया है। 2003 के विधानसभा चुनाव में ठाकुर रामलाल के पोते रोहित ठाकुर जीते, तो 2007 में पूर्व बागवानी मंत्री रहे नरेंद्र बरागटा ने इस सीट पर कब्ज़ा किया। 2012 के विधानसभा चुनाव में फिर जनता ने कांग्रेस के रोहित ठाकुर को जुब्बल कोटखाई की सीट पर विजय बनाया। जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र बरागटा ने जीत हासिल की। नरेंद्र बरागटा के निधन के बाद अक्टूबर 2021 में हुए उपचुनाव में रोहित ठाकुर को फिर जीत मिली। अब 2022 के विधानसभा चुनाव में भी ये सिलसिला बरकरार रहता है या नहीं, ये देखना रोचक होगा। वर्तमान स्थिति की बात करें तो कांग्रेस से रोहित ठाकुर मैदान में है और चेतन बरागटा भी भाजपा में वापसी कर चुके है। भाजपा ने वापसी के बाद चेतन पर ही दांव खेला है। इस बार माकपा से विशाल शांगटा भी मैदान में है। इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने श्रीकांत चौहान को मैदान में उतारा है। पिछली बार की तरह इस बार भी चेतन बरागटा अपने पिता स्वर्गीय नरेंद्र बरागटा के दिखाए रास्ते पर आगे बढ़ते हुए सेब और बागवान हित के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे है। चेतन जनता के बीच जा कर बागवानी और बागवानों के हितों की बात कह रहे है। निसंदेह चेतन के आने से भाजपा में भी चेतना लौट आई है और पिछले चुनाव में जमानत जब्त करवाने के बाद पार्टी में टोटल मेकओवर दिखा है। चेतन को लेकर कोई विरोध नहीं दिखता और ये तय है कि इस बार मुकाबला कांटे का होगा। उधर रोहित ठाकुर फिर जीत को लेकर आश्वस्त है लेकिन माकपा ने विशाल शांगटा को मैदान में उतार कर इस चुनाव को रोचक कर दिया है। यदि प्रदेश सरकार से खफा वोट में शांगटा सेंध लगाते है तो रोहित की मुश्किलें बढ़ सकती है। बहरहाल जुब्बल कोटखाई का चुनाव बेहद रोचक होता दिख रहा है। इस कांटे के मुकाबले में कौन जीतता है ये तो आठ दिसंबर को तय होगा लेकिन नतीजा जो भी हो चेतन की भाजपा में रंग जरूर लाएगी।
कसौली निर्वाचन क्षेत्र में इस बार कांटे का मुकाबला देखने को मिल रहा है। स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल के गढ़ में इस बार आम आदमी पार्टी भी अच्छा करता दिख रही है। पार्टी प्रत्याशी हरमेल धीमान का धुआंधार प्रचार अभियान जारी है। हर पंचायत, हर गांव तक हरमेल पहुंच रहे है और लोगों से सीधा संवाद स्थापित कर रहे है। हरमेल धीमान कसौली निर्वाचन क्षेत्र के जाने माने समाजसेवी है और लंबे वक्त से इस क्षेत्र में सक्रिय है। सैकड़ों सामाजिक आयोजनों में लम्बे वक्त से हरमेल धीमान सहयोग करते आ रहे है और उनकी छवि एक ऐसे व्यक्ति की है जो किसी को किसी काम के लिए ना नहीं करता। उनकी ये छवि इस चुनाव में उन्हें लाभ पंहुचा सकती है। बता दें कि हरमेल भाजपा छोड़कर आम आदमी पार्टी में शामिल हुए है। दिलचस्प बात ये है कि उनके साथ भाजपा से तो लोग है ही, काफी लोग कांग्रेस छोड़कर भी उनके साथ आप में शामिल हुए है। ऐसे में दोनों दलों से खफा लोगों के लिए हरमेल धीमान एक विकल्प है।
हिमाचल प्रदेश के बीते कई चुनावों पर निगाह डाले तो अक्सर बगावत का दंश भाजपा से ज्यादा कांग्रेस पर भारी पड़ता आया है। पर इस बार के विधानसभा चुनाव में बगावत ने भाजपा का सुकून उड़ाया हुआ है। प्रदेश में 68 विधानसभा सीटें है और एक चौथाई से भी ज्यादा सीटों पर भाजपा के बागी मैदान में है। ये आँकड़ा ये समझने के लिए काफी है कि भाजपा का चुनाव प्रबंधन हर बार की तरह सटीक नहीं रहा है। सवाल टिकट आवंटन पर भी उठ रहे है। बगावत की आग से पार्टी राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का गृह जिला भी अछूता नहीं है। ये हालत तब है जब पार्टी नामांकन वापसी की अंतिम तिथि तक कई उम्मीदवारों को मनाने में कामयाब रही, अन्यथा स्थिति और ज्यादा बिगड़ सकती थी। बहरहाल इस बगावत का चुनावी नतीजों पर क्या असर पड़ता है ये तो आठ दिसम्बर को ही पता चलेगा, पर फिलवक्त पार्टी डैमेज कंट्रोल कर रिवाज बदलने के अपने दावे पर कायम जरूर है। विदित रहे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी 5 नवंबर को सोलन और सुंदरनगर की जनसभाओं में ये कह चुके है कि प्रत्याशी को देख कर नहीं बल्कि कमल का फूल देखकर वोट करें। जाहिर है इसका असर भी नाराज समर्थकों-कार्यकर्ताओं पर पड़ सकता है। पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता मोर्चा संभाले हुए है और बगावत की आग के बावजूद भाजपा मिशन रिपीट का दावा कर रही है। बिलासपुर : सुभाष शर्मा भाजपा ने यहाँ से त्रिलोक जम्वाल को टिकट दिया है। सुभाष ठाकुर का टिकट काटा गया है। भाजपा सुभाष ठाकुर को मनाने में तो कामयाब रही, लेकिन टिकट के एक अन्य दावेदार सुभाष शर्मा निर्दलीय चुनाव लड़ रहे है। झंडूता : राजकुमार कौंडल भाजपा ने मौजूदा विधायक जीतराम कटवाल को ही फिर टिकट दिया है। नाराज होकर पूर्व विधायक रिखी राम कौंडल के बेटे राजकुमार कौंडल चुनावी मैदान में है। मंडी : प्रवीण शर्मा पंडित सुखराम के पुत्र और वर्तमान विधायक अनिल शर्मा मंडी सदर सीट से भाजपा उम्मीदवार है। वहीँ टिकट के दावेदार रहे प्रवीण शर्मा ने बगावत कर दी है। प्रवीण के साथ काफी नेता-कार्यकर्ता भी है जिससे भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती है। सुंदरनगर : अभिषेक ठाकुर पूर्व विधायक रूप सिंह के पुत्र अभिषेक यहाँ से भाजपा के बागी है। पार्टी ने फिर मौजूदा विधायक राकेश जम्वाल को टिकट दिया है। फतेहपुर : कृपाल परमार फतेहपुर फ़तेह करने की राह में भाजपा के लिए कृपाल परमार सबसे बड़ा रोड़ा है। भाजपा ने मंत्री और नूरपुर से मौजूदा विद्याक राकेश पठानिया को यहाँ से टिकट दिया है जिससे नाराज हकार पूर्व प्रत्याशी कृपाल परमार ने बगावत कर दी है। पिछले चार चुनाव भाजपा यहाँ से हारी है। इंदौरा : मनोहर धीमान 2017 में भाजपा ने तब निर्दलीय विधायक रहे मनोहर धीमान को पार्टी में शामिल तो किया लेकिन टिकट नहीं दिया। तब मनोहर धीमान को मना लिया गया लेकिन इस बार ऐसा नहीं हो पाया। पार्टी ने रीता धीमान को टिकट दिया है जिसके बाद मनोहर ने बगावत कर दी है। शाहपुर : पंकु कांगडिया मंत्री सरवीण चौधरी के खिलाफ युवा नेता पंकु कांगडिया ने बगावत कर दी है और चुनावी मैदान में है। एंटी इंकम्बैंसी के साथ -साथ बगावत ने शाहपुर में सरवीण की मुश्किलें निश्चित तौर पर बढ़ाई है और इस बार यहाँ दिलचस्प मुकाबला तय है। कांगड़ा : कुलभाष चौधरी कांग्रेस से भाजपा में आए पवन काजल के विरोध में यहाँ से कुलभाष चौधरी ने बगावत का एलान कर दिया और निर्दलीय मैदान में है। धर्मशाला : विपिन नेहरिया दल बदल कर भाजपा में पहुंचे राकेश चौधरी को पार्टी ने टिकट दिया, जबकि मौजूदा विधायक विशाल नेहरिया का टिकट काट दिया गया। विशाल नेहरिया तो बागी नहीं हुए लेकिन पार्टी के एक अन्य नेता विपिन नेहरिया ने बगावत का बिगुल फेंक दिया और चुनावी मैदान में है। देहरा : होशियार सिंह 2017 में बतौर निर्दलीय जीते होशियार सिंह कुछ माह पूर्व ही भाजपा में शामिल हुए लेकिन भाजपा ने उनका टिकट काट दिया। अब दोनों की राह फिर जुदा हो चुकी है और होशियार सिंह भी चुनाव लड़ रहे है। ख़ास बात ये है कि पार्टी ने यहाँ से ज्वालामुखी के विधायक रमेश धवाला को मैदान में उतारा है। नालागढ़ : केएल ठाकुर कांग्रेस से बीते दिनों भाजपा में आएं मौजूदा विधायक लखविंद्र राणा को यहाँ से पार्टी ने टिकट दिया है। इसके चलते पूर्व विधायक केएल ठाकुर ने बगावत कर दी और निर्दलीय चुनाव लड़ रहे है। ठाकुर बीते पांच साल लगातार सक्रिय रहे, बावजूद इसके पार्टी ने कांग्रेस से आएं लखविंदर राणा को टिकट दिया। खफा होकर कई कार्यकर्ता और समर्थक भी केएल के साथ हो लिए है। किन्नौर : तेजवंत नेगी भाजपा ने यहां से सूरत नेगी को टिकट दिया है। पूर्व विधायक तेजवंत नेगी पिछला चुनाव महज 120 वोट से हारे थे, बावजूद इसके उन्हें मौका नहीं मिला। खफा होकर तेजवंत ने बगावत कर दी। आनी : किशोरी लाल मौजूदा विधायक किशोरी लाल का टिकट यहाँ से भाजपा ने काटा है। अब किशोरी लाल निर्दलीय चुनाव लड़ रहे है। बंजार : हितेश्वर सिंह बंजार से भाजपा ने मौजूदा विधायक पर फिर से दाव खेला है। इसके बाद टिकट के चाहवान हितेश्वर सिंह ने बगावत का ऐलान कर दिया। हितेश्वर सिंह भाजपा के वरिष्ठ नेता महेश्वर सिंह के बेटे है। उनके बागी चुनाव लड़ने के चलते पार्टी ने कुल्लू सीट से महेश्वर सिंह का टिकट भी अंतिम समय में बदल दिया। कुल्लू : राम सिंह भाजपा ने अंतिम समय में महेश्वर सिंह का टिकट बदलकर नरोत्तम ठाकुर को दिया है। इसके बाद महेश्वर सिंह ने चुनाव लड़ने का ऐलान किया। पार्टी महेश्वर सिंह को मनाने में जुटी रही और मना भी लिया गया, लेकिन एक अन्य कद्दावर नेता राम सिंह मैदान में उतर गए और अब चुनाव लड़ रहे है। चम्बा सदर : इंदिरा कपूर यहाँ से पार्टी ने पहले इंदिरा कपूर को टिकट दिया लेकिन मौजूदा विधायक पवन नय्यर की नाराजगी के चलते अंतिम समय में उनकी पत्नी नीलम नय्यर को टिकट थमा दिया। इसके बाद इंदिरा कपूर अब निर्दलीय चुनाव लड़ रही है। हमीरपुर : नरेश दर्जी नरेश दर्जी हमीरपुर से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे है और माना जा रहा है कि वे भाजपा के वोटों में ज़्यादा सेंध लगा सकते है। दर्जी की मौजूदगी ने इस चुनाव को रोचक बना दिया है। बड़सर : संजीव शर्मा भाजपा ने बड़सर से पूर्व प्रत्याशी बलदेव शर्मा की पत्नी माया शर्मा को टिकट दिया है। दरअसल यहाँ से भाजपा नेता राकेश शर्मा बबली भी टिकट के उम्मीदवार थे, किन्तु कुछ समय पहले उनका दुखद निधन हो गया। उनके निधन के उपरांत उनके भाई और भाजपा नेता संजीव शर्मा ने टिकट पर दावा जताया, लेकिन पार्टी ने माया शर्मा को मौका दिया। भोरंज : पवन कुमार पवन कुमार पूर्व में भाजयुमो भोरंज के मीडिया प्रभारी रह चुके हैं, लेकिन भाजपा से टिकट न मिलने के कारण इस बार निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। पवन कुमार वर्तमान में समीरपुर वार्ड से जिला परिषद सदस्य हैं, इससे पूर्व भोरंज वार्ड से जिला परिषद सदस्य और दो बार अलग-अलग वार्डों से पंचायत समिति सदस्य निर्वाचित हो चुके हैं। पार्टी ने भोरंज से अनिल धीमान को टिकट दिया है।
पालमपुर सीट पर कांग्रेस का इतिहास मजबूत रहा है। यहां से चर्चित बुटेल परिवार के कैंडीडेट जीतते रहे हैं। इस सीट से बीजेपी ने सिर्फ तीन बार ही चुनाव में जीत हासिल की है और कांग्रेस का सात बार पालमपुर विधासभा क्षेत्र में कब्ज़ा रहा है। गौरतलब है कि इस सीट से बृज बिहारी लाल पांच बार विधायक चुने गए हैं। वहीं वर्ष 2017 में कांग्रेस ने आशीष बुटेल को यहाँ से मैदान में उतारा था और बीजेपी से इंदु गोस्वामी मैदान में थी। 2017 के चुनाव में आशीष बुटेल ने 4,324 वोटों से इंदू गोस्वामी को हराया था। अब एक बार फिर आशीष बुटेल मैदान में है और उनका मुकाबला भाजपा प्रत्याशी त्रिलोक कपूर से है। इस बार देखना दिलचस्व होगा की क्या एक बार फिर पालमपुर की जनता कांग्रेस पर भरोसा जताती है या यहां रिवाज़ बदलता है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिला कांगड़ा की ज्वालामुखी विधानसभा क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी रविंदर सिंह रवि के पक्ष में चुनावी जनसभा को संबोधित करने पहुंचे। इस दौरान कांग्रेस पर कड़ा प्रहार करते हुए सीएम योगी ने कहा कि देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आठ साल जो प्रगति हुई कांग्रेस उतना अपने 55 साल की सत्ता में नहीं कर पाई।उन्होंने कहा कि माफिया विकास के रास्ते का सबसे बड़ा अवरोधक (बैरियर) है। कांग्रेस ने हमेशा इसे पोषित किया। योगी ने कहा कि आजादी के अमृत महोत्सव काल में भारत उस ब्रिटेन को पछाड़कर दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना है जिसने कभी 200 साल तक हम पर राज किया था। उन्होंने कहा कि कांग्रेस की तरह झूठे वादे करने की हमारी आदत नहीं है। हमने जो भी वादे किए थे, उनको पूरा करके दिखाया है। जनता को गुमराह करके हम राजनीति नहीं करना चाहते। उन्होंने कहा कि हिमाचल की धरती ने इस देश को एक से एक बढक़र वीर सपूत दिए। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर देश को हिमाचल के सैनिकों की जरूरत पड़ जाए, तो हिमाचल के सैनिक पीछे नहीं हटेंगे। हिमाचल की राजनीति पर उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर कुछ केंद्र सरकार की, तो कुछ अपने स्तर पर योजनाएं चलाकर लोकप्रिय सीएम बन चुके हैं। महिलाओं के लिए टायलेट और हर घर में नल लगाकर पानी उपलब्ध करवा रहे हैं।
भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा धर्मपुर विधानसभा क्षेत्र में चुनावी जनसभा को सम्बोधित करने पहुंचे। इस दौरान उन्होंने कहा कि आज दुनिया में पीएम नरेंद्र मोदी के कारण देश की तस्वीर बदल गई है आज मोबाइल उत्पादन में भारत दूसरे नंबर पर है, स्टील उत्पादन में भारत दूसरे नंबर पर है, सौर ऊर्जा में हम पांचवें नंबर पर पहुंच गए हैं, ब्रिटेन को पछाड़ कर भारत पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। उन्होंने कहा कि आज न तो हरियाणा में कांग्रेस की सरकार है और न ही हिमाचल और पंजाब में। जेपी नड्डा ने कहा कि आज हिमाचल प्रदेश को बल्क ड्रग पार्क मिल रहा है। आने वाले समय में फार्मा में हिमाचल प्रदेश का बल्क ड्रग पार्क दुनिया के नक्शे पर देखा जाएगा। यही नहीं, यहां मेडिकल डिवाइस पार्क के साथ-साथ विकास के कई कार्य किए जा रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल गिहारी वाजपेयी ने हिमाचल इकोनॉमिक पैकेज दिया लेकिन 7 साल में कांग्रेस ने छीन लिया और कहा कि हरियाणा, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में हमारी सरकार है तो हिमाचल को हम अकेले नहीं दे सकते।
नेता प्रतिपक्ष और हरोली से कांग्रेस के प्रत्याशी मुकेश अग्निहोत्री ने बुधवार को अपने विधानसभा क्षेत्र में कई नुक्कड़ सभाओं को संबोधित करते हुए चुनाव प्रचार किया। इस मौके पर उन्होंने दावा किया कि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के नाम की सुनामी चल रही है और इसमें भाजपा पूरी तरह से मलियामेट होने वाली है। उन्होंने कहा कि 10 दिन बाद हिमाचल में मित्रां दा नाम ही चलेगा। इस मौके पर मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि आने वाली कांग्रेस सरकार की पहली कैबिनेट बैठक में कर्मचारियों को ओल्ड पेंशन स्कीम का अधिकार दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि सरकारी नौकरी करने के बाद बुढ़ापे में पुरानी पेंशन ही एकमात्र सहारा होती है लेकिन अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने इस सहारे को भी कर्मचारियों से छीन लिया था। मुकेश ने कहा कि भाजपा आने वाले दिनों में दृष्टि पत्र में भी ओल्ड पेंशन स्कीम देने की बात कह दी लेकिन अब कोई फायदा नहीं अब कांग्रेस ने पहले ही कर्मचारियों को पुरानी पेंशन स्कीम दे डाली है। नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि भाजपा गुंडागर्दी करते हुए चुनावी माहौल को अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रही है और इसके तहत उनके विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के घर में छापेमारी करवाई गई हैं। लेकिन भाजपा को यह याद रखना चाहिए कि इस तरह से चुनाव नहीं जीते जाते। उन्होंने अधिकारियों कर्मचारियों को भी दो टूक शब्दों में चेतावनी दी है, मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि 10 दिन के भीतर हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने जा रही है ऐसे में भाजपा की हिमायत करने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों को गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
हिमाचल में कांग्रेस प्रत्याशियों के खिलाफ प्रचार और पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल रहने वाले 8 नेताओं को कांग्रेस ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया है। कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने इन नेताओं को 6 साल के लिए निष्कासित किया है। इनमें आनी ब्लॉक कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष कैलाश शर्मा, जिला कांग्रेस कमेटी कुल्लू के महासचिव लोक राज ठाकुर, शेर सिंह ठाकुर व विजय कवंर, आनी से पंकज कुमार, शिमला शहरी से अभिषेक भरवालिया, सुलह से प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव सुनील कुमार व जसवां-परागपुर से मुकेश कुमार शामिल हैं। इससे पहले पार्टी प्रत्याशियों के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले 6 बागियों को 6 साल के लिए निष्कासित कर चुकी है। आने वाले दिनों में पार्टी प्रत्याशियों के खिलाफ प्रचार करने वाले कई नेताओं पर पार्टी अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकती है।