हिमाचल में भारी बारिश से हुए नुकसान का जायजा लेने के लिए केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी मंगलवार सुबह कुल्लू पहुंचे। भुंतर हवाई अड्डे में नितिन गडकरी के स्वागत के लिए बड़ी संख्या में लोग मौजूद रहे। इसके बाद गडकरी फोरलेन के निरीक्षण के लिए मनाली रवाना हुए। इस दौरान मुख्यमंत्री सुखविंद्र सिंह सुक्खू भी उनके साथ मौजूद रहे। मनाली पहुंचकर गडकरी ने भारी बारिश व बाढ़ से क्षतिग्रस्त हुए फोरलेन का निरीक्षण किया। इस दौरान वे बाढ़ प्रभावितों से भी मिले। ञ्जह्म्द्गठ्ठस्रद्बठ्ठद्द ङ्कद्बस्रद्गशह्य कुल्लू पहुंचने से पहले गडकरी ने मंडी में बाढ़ प्रभावित इलाकों और फोरलेन का हवाई निरीक्षण किया। इस दौरान उनके साथ मुख्यमंत्री सुखविंद्र सिंह सुक्खू के अलावा लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह व नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर भी मौजूद रहे। हेलिकाप्टर में विक्रमादित्य ने केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री व अन्य के साथ सेल्फी भी ली। बताया जा रहा है कि फोरलेन का निरीक्षण करने के बाद नितिन गडकरी नग्गर के बड़ागढ़ रिजॉर्ट में एनएचएआई के साथ बैठक करेंगे। बता दें, बीते दिनों में भारी बारिश, बाढ़ व बादल फटने से सबसे अधिक फोरलेन को नुकसान कुल्लू और मनाली में हुआ है। यहां पर कई स्थानों पर तो फोरलेन का नामोनिशान तक मिट गया है। बारिश और बाढ़ से कारण एनएचआई को भारी नुकसान हुआ है। इसी तरह कालका-शिमला फोरलेन को भी काफी नुकसान पहुंचा है।
संसद से संशोधित अनुसूचित जनजाति संशोधन विधेयक पारित होने के बाद हाटियों के हौसले सातवें आसमान पर है। जैसे ही राष्ट्रपति से संशोधित विधेयक पर स्वीकृति की मुहर लग जाती है वैसे ही यह मामला क्रियान्वित होने के लिए राज्य सरकार के पास आएगा। केंद्रीय हाटी समिति और हाटी विकास मंच पूर्व मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर से शिमला में मुलाकात करेंगे। उन्होंने कहा कि जयराम ठाकुर ने हाटी समुदाय की भावी पीढ़ियों के हितों की ना केवल चिंता की बल्कि इस मसले को केंद्र से हल करवाने के लिए गंभीर प्रयास किए थे। शिमला में पत्रकारों से बातचीत के दौरान मंच के पदाधिकारियों ने कहा की नरेंद्र मोदी सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण ही हाटी मामला सिरे चढ़ा। उन्होंने संसद से विधेयक पारित करवाने के लिए देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ,गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर, हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर , पूर्व विधायक बलदेव सिंह तोमर,,पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ,पूर्व सांसद वीरेंद्र कश्यप, मौजूदा सांसद सुरेश कश्यप समेत भाजपा के प्रदेश और राष्ट्रीय नेतृत्व का आभार जताया। उन्होंने जीत का श्रेय जनता के आंदोलन और आंदोलन के तमाम पुरोधा को दिया।उन्होंने कहा कि यह हाटी की जीत है, माटी की जीत है आधी आबादी महिलाओं की जीत है। यह युवाओं के जोश की जीत है और बुजुर्गों के होश की जीत है। उन्होंने केंद्रीय हाटी समिति के 1980 से लेकर रहे तमाम पदाधिकारियों मौजूदा पदाधिकारियों का भी आभार जताया। इसके अलावा शिलाई के पूर्व विधायक बलदेव तोमर के प्रयासों की भी विशेष सराहना की। उन्होंने महाखुंबलियों के माध्यम से आंदोलन में आए सभी लोगों अलग-अलग वर्गों के प्रतिनिधियों नंबरदार और जेलदारों ,पंचायती राज संस्थाओं के प्रतिनिधियों, कर्मचारियों ,सेवानिवृत्त कर्मियों का विशेष आभार जताया। उन्होंने केंद्रीय हाटी समिति की चंडीगढ़, सोलन, शिलाई, राजगढ़ , रोनहाट , पाओंटा, नाहन, हरिपुरधार,संगड़ाह, पझोता, कफोटा समेत तमाम इकाइयों और उनके पदाधिकारियों का भी आभार जताया। दांव पर रखा रोजगार शिमला इकाई के हाटी योद्धाओं ने अपने रोजगार की भी परवाह नहीं की। आंदोलन की खातिर उन्होंने अपने रोजगार, अपने कैरियर को दांव पर रखा। आंदोलन की मशाल को तार्किक अंत तक पहुंचाने तक जलाए रखा। हाटी समुदाय इनके योगदान को हमेशा याद रखेगा।हाटी विकास मंच के अध्यक्ष प्रदीप सिंह सिंगटा,मुख्य प्रवक्ता डॉ रमेश सिंगटा, महासचिव अतर सिंह तोमर प्रवक्ता जी एस तोमर, ठाकुर खजान सिंह ,मदन तोमर, कपिल चौहान, दलीप सिंगटा, काकू राम ठाकुर, मुकेश ठाकुर, नीतू चौहान, शूरवीर ठाकुर,अनुज शर्मा, दिनेश कुमार, भीम सूर्यवंशी, अमित चौहान, पिंकू बिरसांटा, विक्की ठाकुर, कपिल कपूर, विपिन पुंडीर, भीम सिंह, बलबीर राणा, दिनेश ठाकुर, दीपक नेगी, प्रताप मोहन चौहान खदराई कपिल शर्मा,,लाल सिंह, श्याम सिंह , खजान सिंह ठाकुर,सुशील, आशु चौहान, सुरजीत ठाकुर, अमन ठाकुर, राकेश शर्मा, सुरेश सिंह, जय ठाकुर ,ओमप्रकाश शर्मा, ओमप्रकाश ठाकुर, चंद्रमणि शर्मा, आत्माराम शर्मा, गोपाल ठाकुर, सचिन तोमर ,खजान ठाकुर, भरत पुंडीर ,दलीप सिंह तोमर, भीम सिंह तिलकान, कपिल शर्मा, सहित पवन शर्मा, रण सिंह ठाकुर, सतीश चौहान, दिनेश चौहान,सहित मंच के हाटी नेता उपस्थित रहे।
कहा-सेब उत्पादक क्षेत्रों में सड़क बहाली को दी जाएगी प्राथमिकता मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने आज यहां लोक निर्माण विभाग की बैठक की अध्यक्षता करते हुए अधिकारियों को राज्य के विभिन्न हिस्सों में भारी बारिश और भू-स्खलन के कारण क्षतिग्रस्त सड़कों की मरम्मत और शीघ्र बहाली सुनिश्चित करने के निर्देश दिए। उन्होंने दोहराया कि सेब उत्पादक क्षेत्रों की सड़कों की बहाली को प्राथमिकता दी जाएगी ताकि बागवानों की उपज को समय पर बाजार तक पहुंचाया जा सके। सुखविंदर सिंह सुक्खू ने आपदा प्रभावित सड़कों की शीघ्र बहाली के लिए 23 करोड़ रुपये और स्वीकृत किए हैं। उन्होंने कहा कि इस राशि में से पांच करोड़ रुपये यशवंत नगर से छैला तक की सड़क के मरम्मत कार्य पर खर्च किए जाएंगे। इसके अतिरिक्त, शिमला जिले के सेब उत्पादक क्षेत्रों के तहत लोक निर्माण विभाग के सात मण्डल में प्रत्येक को सड़कों की मरम्मत एवं बहाली के लिए एक-एक करोड़ रुपये प्रदान किए गए हैं। उन्होंने कहा कि उन लोक निर्माण विभाग मण्डलों को भी एक-एक करोड़ रुपये आबंटित किए गए हैं, जहां प्राकृतिक आपदा के कारण क्षति अधिक हुई है, जिनमें कुल्लू जिले के चार विकास खण्ड, सिरमौर जिले के शिलाई और राजगढ़ विकास खंड शामिल हैं। मुख्यमंत्री ने कहा कि शीघ्र ही वह चौपाल और जुब्बल-कोटखाई क्षेत्रों का दौरा करेंगे तथा इन क्षेत्रों में किए जा रहे मरम्मत कार्यों की समीक्षा करेंगे। उन्होंने लोक निर्माण विभाग के अधिकारियों को वाहनों की सुचारू आवाजाही सुनिश्चित करने के निर्देश देते हुए कहा कि सड़कों पर गिरा मलबा हटाने के लिए मशीनरी खरीदने से लेकर उसे प्रभावित क्षेत्रों में तैनात करने का कार्य समयबद्ध सुनिश्चित किया जाए। उन्होंने कहा कि सड़कों की मरम्मत के लिए राज्य सरकार धन की कोई कमी नहीं आने देगी। उन्होंने अधिकारियों को अग्रिम भुगतान के साथ लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृहों की ऑनलाइन बुकिंग प्रारम्भ करने को कहा साथ ही कहा कि जल शक्ति विभाग को भी इस प्रक्रिया का अनुसरण करना चाहिए। उन्होंने निर्माण कार्यों की अनुमानित लागत में बढ़ोतरी की प्रथा को रोकने पर बल देते हुए अधिकारियों को क्लॉज 10 सीसी को हटाने के भी निर्देश दिए। बैठक में शिक्षा मंत्री रोहित ठाकुर, लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह, मुख्य संसदीय सचिव संजय अवस्थी, विधायक चंद्रशेखर और चैतन्य शर्मा, प्रधान सचिव राजस्व ओंकार शर्मा, प्रधान सचिव लोक निर्माण विभाग भरत खेड़ा, सचिव वित्त अक्षय सूद, उपायुक्त शिमला आदित्य नेगी, प्रमुख अभियंता लोक निर्माण विभाग अजय गुप्ता एवं अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी उपस्थित थे।
"हमें पता है कि लोकसभा में हमारी कितनी संख्या है, लेकिन बात सिर्फ संख्या की नहीं है। ये अविश्वास प्रस्ताव मणिपुर में इंसाफ की लड़ाई का भी है। इस प्रस्ताव के जरिए हमने यह संदेश दिया है कि भले ही PM मोदी मणिपुर को भूल गए हैं, लेकिन इंडिया अलायंस दुख की घड़ी में उनके साथ खड़ा है । " 26 जुलाई को यह बात लोकसभा में कांग्रेस के उप-नेता गौरव गोगोई ने कही। लोकसभा में केंद्र सरकार के खिलाफ गौरव गोगोई के अविश्वास प्रस्ताव का 50 विपक्षी सासदों ने समर्थन किया। इसके बाद लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसका मतलब है कि मोदी सरकार के 9 साल के कार्यकाल में ये दूसरा मौका होगा जब उसे विपक्ष के भरोसे का टेस्ट देना होगा। इससे पहले 2018 में विपक्ष ने मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तंज कसते हुए कहा था, मैं आपको शुभकामनाएं देना चाहता हूं। आप इतनी मेहनत करो कि 2023 में आपको फिर से अविश्वास प्रस्ताव लाने का मौका मिले। यानि पीएम मोदी ने जो कहा था, वो अब सच हो गया है। विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया है। मणिपुर में हिंसा के मुद्दे पर केंद्र सरकार के खिलाफ पेश किये गए इस अविश्वास प्रस्ताव पर सवाल उठ रहे है। एक तरफ प्रचंड संख्याबल है, दूसरी तरफ विपक्ष के पास विधायकों की गिनती कम है। ऐसे में अविश्वास प्रस्ताव क्यों लाया गया? प्रस्ताव से किसे फायदा-नुकसान होगा? इन सवालों के जवाब जानने से पहले लोकसभा का गणित जानना जरूरी है। एनडीए के पास 331 सांसदों का संख्याबल है, तो विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के पास 144 सांसद हैं। इन दोनों खेमे से बाहर जो दल हैं, उनके पास 63 लोकसभा सांसद हैं। गिरना तय तो क्यों लाया विपक्ष? लोकसभा में मोदी सरकार के प्रचंड बहुमत के सामने प्रस्ताव का गिरना तय है। जब नतीजा पहले से पता है तो इस अविश्वास प्रस्ताव के पीछे का कारण क्या है? कांग्रेस सांसद अधीर रंजन चौधरी कहते हैं कि हर बार मुद्दा जीतने या हारने का नहीं होता है। हम ये अविश्वास प्रस्ताव इसलिए लाए हैं, क्योंकि प्रधानमंत्री जी सारे विपक्ष की चिंता को अनदेखी करते हुए हमारी मांग को ठुकरा रहे हैं। उन्होंने कहा, हमारी बहुत छोटी मांग है कि प्रधानमंत्री मणिपुर के मुद्दे पर सदन के अंदर छोटा सा बयान दें और मणिपुर के मुद्दे पर चर्चा हो। अविश्वास प्रस्ताव पेश करने वाले कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने कहा, 'इंडिया' गठबंधन के दलों के पास कितने सांसद हैं, इससे हम भलीभांति वाकिफ हैं। ये संख्या की बात नहीं, मकसद है कि संदेश जाना चाहिए कि भले ही प्रधानमंत्री मणिपुर को भूल चुके हैं, लेकिन आज इस मुश्किल समय में 'इंडिया' गठबंधन मणिपुर के साथ खड़ा है। विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव से क्या हासिल होगा? विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव की मंजूरी से उसे नैतिक जीत मिलेगी इस बहाने विपक्ष को मणिपुर हिंसा पर सरकार को घेरने का मौका मिलेगा। मणिपुर के बहाने विपक्ष महिला सुरक्षा के मुद्दे पर केंद्र को कटघरे में खड़ा कर पाएगा। अविश्वास प्रस्ताव मंजूर होने के बाद अब पीएम मोदी को मणिपुर हिंसा पर बयान देना पड़ेगा। अविश्वास प्रस्ताव होता क्या है, संविधान में कहां जिक्र, क्यों लाते हैं? लोकसभा देश के लोगों की नुमाइंदगी करता है। यहां जनता के चुने प्रतिनिधि बैठते हैं, इसलिए सरकार के पास इस सदन का विश्वास होना जरूरी है। इस सदन में बहुमत होने पर ही किसी सरकार को सत्ता में रहने का अधिकार है। अविश्वास प्रस्ताव लाने की वजह सरकार के पास लोकसभा में बहुमत है या नहीं, ये जांच करने के लिए अविश्वास प्रस्ताव का नियम बनाया गया है। किसी भी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकता है। इसे पास कराने के लिए लोकसभा में मौजूद और वोट करने वाले कुल सांसदों में से 50% से ज्यादा सांसदों के वोट की जरूरत होती है। भारतीय लोकतंत्र में इसे ब्रिटेन के वेस्टमिंस्टर मॉडल की संसदीय प्रणाली से लिया गया है। संसदीय प्रणाली के नियम-198 में इसका जिक्र किया गया है। अविश्वास प्रस्ताव लाने के 10 दिनों के अंदर चर्चा करके वोटिंग कराना जरूरी है। मंत्री परिषद के प्रमुख होने के नाते प्रधानमंत्री को लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान जवाब देना होता है। इस दौरान विपक्षी दलों के लगाए आरोप पर पीएम नरेंद्र मोदी को अपनी बात रखनी होगी। संसद के रिकॉर्ड के मुताबिक 2019 के बाद पीएम मोदी ने लोकसभा के कार्यकाल के दौरान कुल 7 बार डिबेट में हिस्सा लिया है। इनमें से पांच मौकों पर उन्होंने राष्ट्रपति के भाषण के बाद जवाब दिया। जबकि एक बार उन्होंने श्री राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट बनाए जाने को लेकर व दूसरी बार लोकसभा स्पीकर के तौर पर ओम बिड़ला के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान उन्होंने अपनी बात रखी है।
देर से ही सही मगर भाजपा ने अपना वादा पूरा कर दिखाया है। प्रदेश के हाटी समुदाय के लोगों को जनजातीय दर्जा मिल गया है। राजयसभा में हाटी जनजातीय संशोधन बिल पास हो चूका है अब महज़ राष्ट्रपति की मंज़ूरी बाकि है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हस्ताक्षर के बाद सिरमौर जिले के चार विधानसभा क्षेत्रों की 154 पंचायतों के दो लाख लोगों को उनका जनजातीय सांविधानिक अधिकार मिल जाएगा। हाटी समुदाय की जनजातीय दर्जे की ये मांग बरसो पुरानी है। दरअसल पूर्व में उत्तराखंड का जौनसार बावर क्षेत्र सिरमौर रियासत का ही एक भाग था। जौनसार बावर को 1967 में ही केंद्र सरकार ने जनजाति का दर्जा दे दिया था जबकि गिरिपार का हाटी समुदाय 1978 से अपनी मांगों को लेकर संघर्षरत रहे है। कई सरकारे आई और कई गई मगर हाटी समुदाय को सिर्फ आश्वासन ही मिलता रहा। अब लम्बे इंतज़ार के बाद उनकी ये मांग पूरी हो पाई है। बता दें की 2022 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले केंद्रीय कैबिनेट ने गिरिपार के हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने का एलान किया था। इसके बाद हाटी समुदाय में बेहद ख़ुशी थी और भाजपा को उम्मीद थी की इस वादे का खूब लाभ चुनाव में उन्हें मिलेगा। तय ज़रूर हुआ मगर चुनाव से पहले ये वादा पूरा नहीं हो पाया और लाभ की जगह अधूरे वादे का खामियाज़ा भाजपा को भुगतना पड़ा। सिरमौर जिले की 5 में से तीन सीटों पर भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। पार्टी को सिर्फ पांवटा साहिब और पच्छाद विधानसभा सीट पर जीत मिली जबकि नाहन, शिलाई, रेणुका जी सीट पर कोंग्रेस ने बाज़ी मारी। परिस्थितियां ऐसी बनी की पार्टी के वरिष्ठ नेता राजीव कुमार बिंदल भी चुनाव हार गए। हालांकि अब हाटी समुदाय से किया गया वादा भाजपा पूरा कर चुकी है तो लाज़मी है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को इसका लाभ ज़रूर मिल सकता है। हाटी समुदाय के लोगों को जनजातीय दर्जा मिलने से शिमला संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले पच्छाद की 33 पंचायतों और एक नगर पंचायत के 141 गांवों के लोगों को लाभ होगा। रेणुका जी में 44 पंचायतों के 122 गांवों के लोगों को लाभ होगा। शिलाई विधानसभा क्षेत्र में 58 पंचायतों के 95 गांवों केलोग इसमें शामिल होंगे। पांवटा में 18 पंचायतों के 31 गांवों के लोग इसमें शामिल होंगे। जिला सिरमौर के अलावा भी शिमला सांसदीय क्षेत्र के कई हिस्सों में हाटी समुदाय के लोग रहते है। ऐसे में जनजातीय दर्जा मिलने के बाद शिमला सांसदीय क्षेत्र कि कई विधानसभा सीटों पर इसका सीधा इम्पैक्ट पड़ सकता है। वर्तमान में शिमला संसदीय क्षेत्र से सुरेश कश्यप सांसद है और अब 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भी सुरेश कश्यप हाटी बिल पास होने का क्रेडिट ज़रूर लेना चाहेंगे। अब तक कई सरकारें आई और गई, लेकिन हाटी समुदाय को कोई भी सरकार जनजातीय दर्जा नहीं दिला पाई। जाहिर है ऐसे में भाजपा इस निर्णय का लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाली। हालांकि इस क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी कोण hoga ये अब तक स्पष्ट नहीं है। गिरिपार क्षेत्र को जनजातीय दर्जा तो मिल चूका है लेकिन एक वर्ग ऐसा भी रहा है जो इस फैसले के हक़ में नहीं था। दरअसल गिरिपार क्षेत्र के अनुसूचित जाति (एससी) के लोगों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा नहीं दिया जा रहा था। इस वर्ग के लोग इसके पक्ष में नहीं थे। एसटी में हाटी समुदाय के अन्य सभी लोग शामिल होंगे। एसटी दर्जे से सिरमौर जिले की 154 पंचायतें और 389 गांव कवर होंगे। इससे 1,59,716 लोग लाभान्वित होंगे, जबकि जिले के एससी के 90,446 लोग एसटी के दायरे में नहीं आएंगे। अब अगर अनुसूचित जाति के लोगों की नाराज़गी लोकसभा चुनाव में भी दिखती है तो जाहिर है कुछ हद तक इसका खामियाज़ा भी भाजपा को भुगतना पड़ सकता है।
हिमाचल प्रदेश में बारिश से आई आपदा ने खूब कहर बरपाया है । प्रदेश पर आसमान से बारिश कहर बनकर बरसी है जिससे पहले से आर्थिक तंगी का सामना कर रहे हिमाचल को लाखों का नुक्सान हुआ है। हर तरफ तबाही के निशान दिख रहे हैं। अब तक ये बारिश कई जाने ले चुकी है और सैकड़ो लोगों के आशियाने भी उजाड़ चुकी है। पिछले तीन दशकों में मानसून का ये सबसे भयावह रूप हिमाचल ने देखा है। ऐसे वक्त पर हिमाचल केंद्र से राहत की उम्मीद कर रहा है। प्रदेश को उम्मीद है कि आपदा की इस घड़ी में हिमाचल को अपना दूसरा घर कहने वाले प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी प्रदेश की सहायता करेंगे। हालांकि इस मसले पर प्रदेश में सियासत तेज़ हो रखी है। एक तरफ प्रदेश सरकार केंद्र से अब तक विशेष पैकेज न मिलने का आरोप लगा रही है तो वहीं विपक्ष प्रदेश सरकार को एहसान फरामोशी न करने की सलाह दे रहा है । मुख्यमंत्री अब तक कई बार स्पष्ट कर चुके है कि केंद्र सरकार से अब तक जो राहत मिली है वो केंद्र की ओर से प्रतिवर्ष सभी राज्यों को जुलाई और दिसम्बर माह में मिलती है। हिमाचल प्रदेश को भी 180-180 करोड़ की दोनों किश्ते दे दी गई हैं, जबकि आपदा से उपजी विशेष परिस्थितियों से राहत के लिए कोई धनराशि जारी नहीं की गई है। वहीँ नेता प्रतिपक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का कहना है कि केंद्र ने आपदा राहत के तहत प्रदेश को अग्रिम में राशि जारी की है। साथ ही एनडीआरएफ और सेना के हेलिकाप्टर को भी सहायता के लिए तैनात किया गया, केंद्र हिमाचल की हर संभव मदद कर रहा है मगर हिमाचल सरकार एहसान फरामोशी कर रही है। जयराम ठाकुर का कहना है कि हमने दूरभाष के माध्यम से और व्यक्तिगत जाकर केंद्रीय मंत्री अमित शाह राष्ट्रीय, अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा को हिमाचल में बाढ़ की स्थिति के बारे में अवगत करवाया है। जिसके उपरांत उन्होंने केंद्र सरकार के माध्यम से हिमाचल प्रदेश में एक 382 करोड़ की राहत राशि प्रदान की। एनडीआरएफ रेस्क्यू ऑपरेशन चलाए, जो टीम नुकसान का जायजा लेने के लिए नवंबर माह में आती है वह तुरंत आ गई और अपनी रिपोर्ट भी केंद्र को सौंपने वाली है। हालांकि, मुख्यमंत्री यह बयान देते हैं कि केंद्र से कोई मदद नहीं मिली है, यह झूठ है। कुल मिलाकर प्रदेश में आपदा के इस समय पर राहत राशि को लेकर पक्ष विपक्ष की आपसी रार साफ़ दिखाई दे रही है।
एनसीपी में बगावत के बाद अब चाचा शरद पवार और भतीजे अजित पवार के बीच पार्टी पर कब्जे की लड़ाई छिड़ चुकी है। 83 साल के शरद पवार मैदान में है और हुंकार भर रहे है कि इस बाजी को थोड़े समय में ही पलट कर रख देंगे। उधर अजित के साथ प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे शरद पवार के ख़ास सिपहसलहार भी है। जो लोग शरद पवार को जानते है, उनकी राजनीति समझते है, वो कहते है कि शरद पवार के सियासी पैंतरों को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। ये ही कारण है की अब भी कई माहिर और विरोधी कह रहे है कि साहेब दो नांव की सवारी कर रहे है। बहरहाल जो दिख रहा है वो ही अगर हो भी रहा है तो ये कहना गलत नहीं होगा कि अपने चाचा के दांव से ही अजित पवार अपने चाचा को चित करने निकले है। अब चाचा के पास इसका तोड़ है या नहीं, ये देखना दिलचस्प होने वाला है। " साल था 1977 का। आपातकाल के चलते कांग्रेस के भीतर भी विद्रोह था। कांग्रेस दो गुटों इंदिरा की कांग्रेस (आई) और रेड्डी की कांग्रेस (यू) में बंट गई थी। शरद पवार ने कांग्रेस (यू) चुनी और उसमें शामिल हो गए। अगले साल 1978 में जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव हुए तो दोनों कांग्रेस आमने -सामने थी। नतीजे आये तो जनता पार्टी कुल 288 में से 99 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, पर बहुमत से 46 सीटें पीछे रह गई। जबकि इंदिरा की कांग्रेस को 62 और रेड्डी कांग्रेस को 69 सीटें मिलीं। जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखते हुए कांग्रेस (आई) और कांग्रेस (यू) ने साथ मिलकर सरकार बनाई और मुख्यमंत्री बने वसंतदादा पाटिल। उस सरकार में नासिकराव तिरपुडे डिप्टी सीएम थे। उस सरकार में उद्योग मंत्री थे शरद पवार। गठबंधन मजबूती का था सो जाहिर है सरकार के बनने के साथ ही कई नेताओं में असंतोष भी बढ़ने लगा। सरकार बने करीब साढ़े चार महीने हो चुके थे और कहते है इसी बीच जुलाई 1978 में मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल ने शरद पवार को घर पर खाने के लिए बुलाया। शरद पवार सीएम आवास पहुंचे, कई मुद्दों पर चर्चा हुई और दोनों ने खाना खाया। जब पवार जाने लगे तो उन्होंने सीएम वसंतदादा पाटिल के सामने हाथ जोड़े और कहा- दादा अब मैं चलता हूं, कोई भूल चूक हो तो माफ करना। वसंत दादा पाटिल कुछ समझे नहीं। पवार उन्हें क्या कह गए थे शाम होते होते उन्हें इसका इल्म हुआ। राज्य सरकार में बगावत की खबरें सामने आने लगी थी। शरद पवार ने 40 विधायकों के साथ बगावत कर दी थी। तब देश में दल बदल कानून नहीं था। 38 साल के शरद पवार की महत्वाकांक्षा सीएम बनने की थी। उन्होंने अपनी 'सोशलिस्ट कांग्रेस' की ओर से जनता दल के साथ सरकार बनाने की पहल की।18 जुलाई 1978 में शरद पवार 38 साल की उम्र में 'प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक पार्टी' की सरकार बनने के साथ महाराष्ट्र के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने। हालांकि ये सरकार ज्यादा दिन नहीं चली और जनता पार्टी में फुट के बाद इंदिरा गांधी की सिफारिश पर डेढ़ साल बाद ही महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया। पवार की पहली सरकार बर्खास्त होने के बाद कई साल वे सत्ता से दूर रहे। 1980 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी कांग्रेस में सर्वेसर्वा हो गए। सरकार और संगठन दोनों की कमान राजीव संभल रहे थे। कहते है राजीव तो चाहते थे लेकिन तब महाराष्ट्र और कांग्रेस के कुछ नेता पवार की वापसी के खिलाफ थे। तब इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद देश में कांग्रेस की प्रचंड लहर थी, इसके बावजूद पवार 1984 में पहली बार बारामती से लोकसभा चुनाव लड़े और सांसद बने। साल 1986 में राजीव गांधी के कहने पर शरद पवार की कांग्रेस में घर वापसी हुई और वे महाराष्ट्र में फिर से सक्रिय हो गए। साल 1988 में राजीव गांधी ने तत्कालीन सीएम शंकरराव चव्हाण को अपने केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया और शरद पवार दूसरी बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने। ये दूसरा मौका था जब पवार ने अपना तिलिस्म दिखाया। साल 1995 आते-आते महाराष्ट्र में भाजपा -शिवसेना गठबंधन सरकार बन चुकी थी, जिसके बाद पवार ने एक बार फिर से केंद्र दिल्ली का रुख कर लिया। 1990 के दशक में देश में क्षेत्रीय दलों का दबदबा बढ़ने लगा था और ये गठबंधन सरकारों का दौर था। कहते है शरद पवार भी अब पीएम बनने के अरमान पाल चुके थे।1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन उसका पास संख्या बल नहीं था। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तब महज 13 दिन में गिर गई थी। उधर कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए तीसरे मोर्चे को समर्थन दिया। कांग्रेस के समर्थन से सरकारें बन रही थी और गिर रही थी। फिर 1998 और 1999 में भाजपा फिर सब बड़ी पार्टी बनी और सरकार भी भाजपा की ही बनी, पर ये गठबंधन सरकारें थी। शरद पवार राजनीति को देख रहे थे, समझ रहे थे। उधर सोनिया गांधी के सक्रिय राजनीति में आने का फैसला ले लिया था और कांग्रेस के अंदर का गणित भी बदल गया। कांग्रेस के अंदर मौजूद एक बड़े वर्ग की राय थी कि सोनिया को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। कहते है सोनिया के आने के बाद पवार समझ चुके थे कि अब उनका पीएम बनने का सपना पूरा नहीं होगा। ऐसे में शरद पवार ने सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा उठाया और पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ मिलकर 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई। कांग्रेस से पवार की यह दूसरी बगावत थी। अब अजित पवार ने अपने चाचा शरद पवार को उन्हीं के राजनैतिक दांव से पटकनी दी है । हालांकि अजित का साथ छोड़कर कई नेता तो अभी से शरद पवार की सरपरस्ती में वापस आ चुके है। अब भतीजे के इस दांव की काट क्या चाचा के पास है या शरद पवार की जमीन खिसक चुकी है, ये तो आने वाला वक्त ही बातयेगा।
* अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ मंडी सदर की कमान चंद्र कुमार को हिमाचल प्रदेश में प्रदेश के सबसे बड़े कर्मचारी संगठन अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ के चुनाव शुरू हो गए है। जानकारी के अनुसार 15 जुलाई तक पूरी ब्लाक स्तर पर चुनाव की प्रक्रिया पूरी की जाएगी. जबकि 31 जुलाई तक सभी जिलों को जिला स्तर पर नए कर्मचारी नेता मिल जाएंगे। अब तक अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ मंडी सदर की कमान चंद्र कुमार को सौंपी गई है। अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ प्रदेश में कर्मचारियों का सबसे बड़ा संगठन है और इस बार इस संगठन में टॉप तो बॉटम चुनाव करवाए जा रहे है। अंत में अध्यक्ष पद का चुनाव भी होना है जिसपर सबकी निगाहें टिकी हुई है। फिलवक्त NGO फेडरेशन के अध्यक्ष पद को लेकर प्रदीप ठाकुर मुख्य दावेदार माने जा रहे है, हालाँकि कई और नाम भी चर्चा में है। काफी लम्बे समय बाद ये संभव हो पाया है जब सरकार बनने के पहले साल में ही NGO फेडरेशन के चुनाव हो रहे है। पिछली कुछ सरकारों के समय इसमें काफी विलम्ब किया गया था।
केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्षी दल एकजुट हो रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में पूरे देश के विपक्षी दलों के नेता आज पटना में जुट रहे हैं। इस बिच विपक्ष की एकता बैठक से पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा, 'एकसाथ मिलकर हम बीजेपी को हराने जा रहे है। ' कर्नाटक में हम लोगों ने बीजेपी को हराया है। उन्होंने दावा किया कि तेलगांना, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ में कांग्रेस पार्टी की सरकार बनेगी। राहुल गांधी ने कहा, देश में दो विचारधाराओं की लड़ाई चल रही है एक हमारी भारत जोड़ो की और एक तरफ भाजपा की भारत तोड़ो विचारधारा की। बीजेपी हिंदुस्तान को तोड़ने का काम कर रही है। नफरत और हिंसा फैलाने का काम कर रही है और कांग्रेस पार्टी जोड़ने का काम कर रही है और मोहब्बत फैलाने का काम करते हैं। नफरत को नफरत से नहीं काटा जा सकता है, नफरत को मोहब्बत से ही काटा जा सकता है। - मल्लिकार्जुन खरगे बोले अगर बिहार जीत गए तो भारत जीत जाएंगे कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भी कांग्रेस कार्यालय पर कहा, इस कांग्रेस ऑफिस से जो भी नेता निकला वे देश के आजादी के लिए लड़ा। हमें गर्व है कि देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद इसी धरती से थे। अगर हम बिहार जीत गए तो सारे भारत में हम जीत जाएंगे.
भाजपा नेता एवं पूर्व मंत्री राजीव सहजल, पूर्व मंत्री गोविंद ठाकुर, पूर्व मंत्री वीरेंद्र कंवर और पूर्व विधानसभा उपाध्यक्ष एवं विधायक हंस राज ने कहा कि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की सरकार जो की सुखविन्द्र सुक्खू के नेतृत्व में चल रही है, अब क्षेत्रवाद फैलाने में जुट गई है। चंबा में हुए जघन्य हत्याकांड, बिगड़ती कानून व्यवस्था की तरफ से ध्यान भटकाने के लिए सरकार के मंत्री विरोधाभासी बयान देकर क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने में जुट गए हैं। पिछले सात महीने में प्रदेश की जनता को उम्मीदें थी कि प्रदेश की 22 लाख महिलाओं को हर महीने 1500 रू मिलेंगे, 5 लाख बेरोजगारों को नौकरियां मिलेगी लेकिन ऐसी सभी 10 गारंटियां कांग्रेस पार्टी की धराशाई हो गई। कांग्रेस पार्टी ने गारंटियां पूरी करने के बजाए दूसरों पर दोषारोपण करना शुरू कर दिया है। भाजपा नेताओं ने कहा कि मनोहर हत्याकांड के 18 दिन बीत जाने के बाद भी सरकार को फुर्सत नहीं मिली कि पीड़ित परिवार से मिलकर उन्हें मदद दी जाए और इलाकावासियों को सुरक्षी की गारंटी दी जाए। भाजपा ने कहा कि जो करने के काम थे वो इस कांग्रेस सरकार ने बंद कर दिए। 1000 सरकारी संस्थान बंद कर दिए और शिमला में सुक्खू सरकार के मंत्री क्षेत्रवाद का जहर घोलने में जुट गए हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार के मंत्री ही आपस में लट्ठम-लट्ठा हो रहे हैं या फिर जनता की आंख में धूल झोंक रहे हैं। भाजपा नेताओं ने कहा कि प्रदेश में क्षेत्रवाद का जहर किसी कीमत पर फैलाने नहीं दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि हिमाचल में सरकार के अंदर सरकार चल रही है। पूरे प्रदेश में जिस प्रकार से कांग्रेस का नेतृत्व कार्य कर रहा है उससे लगता है कि एक प्रदेश के कई मुखिया है।
कांग्रेस और भाजपा के बिच पोस्टर वॉर की ये तस्वीर तेज़ी से वायरल हो रही है। दरअसल बीते दिनों कांग्रेस ने अपने ट्विटर हैंडल पर अभिनेता मनोज बाजपेयी की फिल्म 'सिर्फ एक बंदा काफी है' से मिलता जुलता पोस्टर बनाया, जिसमें पीएम मोदी की तस्वीर के साथ लिखा था- "देश की बर्बादी के लिए सिर्फ एक बंदा ही काफी है"। जिसके जवाब में बीजेपी ने भी उससे मिलता जुलता पोस्टर ट्वीट किया, जिसमें लिखा था "9 साल सिर्फ सेवा नहीं समर्पण भी" और नीचे कांग्रेस के तंज पर जवाब में लिखा गया है- "बर्बादी के लिए सिर्फ एक बंदा ही काफी है..... बर्बादी परिवाद की। बर्बादी भ्रष्टाचार की। बर्बादी लुटेरों की बर्बादी आतंकवादी की। बर्बादी अलगाववाद की "
* महागठबंधन में दोनों का साथ होना मुश्किल 2024 में भाजपा से मुकाबले को महागठबंधन की मुहिम चली है। पर इस मुहिम में कांग्रेस और आप का साथ आना माहिरों को 'आग और पानी' के साथ आने जैसा लग रहा है। दरअसल, अब तक कांग्रेस की सियासी जमीन छीन कर ही आप की जमीन तैयार हुई है। केंद्र सरकार के अध्यादेश के खिलाफ दिल्ली में आप और कांग्रेस के बीच सियासी आंखमिचौली ही दिखी है, ऐसे में दोनों का गठबंधन बेहद मुश्किल है। बाकी सियासत में कुछ भी मुमकिन है। साल 2012 के अंत में आम आदमी पार्टी अस्तित्व में आई थी और दस साल में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पा चुकी है। दो राज्यों में आप की सरकार है - दिल्ली और पंजाब। खास बात ये है कि इन दोनों ही राज्यों में आप ने कांग्रेस को न सिर्फ सत्ता से बेदखल किया है बल्कि एक किस्म से उसकी जमीन ही कमजोर कर दी है। दिल्ली में कांग्रेस की पतली हालत किसी से छिपी नहीं है और वहां तो मुकाबला ही अब आप और भाजपा में दिखता है। वहीं पंजाब में पिछले साल विधानसभा चुनाव जीतने के बाद आप ने लोकसभा उपचुनाव जीतकर भी कांग्रेस को झटका दिया है। हालांकि पंजाब में अब भी मुकाबला आप और कांग्रेस के बीच ही है, लेकिन कांग्रेस निसंदेह पहले से खासी कमजोर है। कैप्टन अमरिंदर सिंह का विकल्प अब तक पार्टी के पास नहीं दिखता। पर पंजाब में भाजपा और अकाली दल भी कमजोर है और ये ही कांग्रेस के लिए राहत की बात है। विशेषकर अकाली दल के एनडीए से बाहर आने के बाद समीकरण बदल चुके है। यानी मुख्य मुकाबला आप और कांग्रेस के बीच हो सकता है। जाहिर है दोनों ही दल एक दूसरे के लिए सीटें नहीं छोड़ेंगे। ऐसे में इनके बीच गठबंधन की सम्भावना मुश्किल लगती है। केजरीवाल की मुहिम को कांग्रेस का समर्थन नहीं ! केंद्र सरकार द्वारा देश की राजधानी में अधिकारियों की ट्रांसफर पोस्टिंग को लेकर अध्यादेश लागू करने के बाद से दिल्ली में राजनीति चरम पर है। अध्यादेश के खिलाफ अरविंद केजरीवाल राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी एकता की मुहिम चला रहे हैं। इस मुद्दे पर कांग्रेस से सपोर्ट की भी मांग की थी, लेकिन अभी तक कांग्रेस ने उनके इस प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया है।
*एक मंच पर आएंगे राहुल-ममता-अखिलेश *जो राज्यों में आमने-सामने, क्या केंद्र में साथ आएंगे दिन मुकर्रर हुआ है 23 जून और जगह होगी पटना, नितीश के बुलावे पर विपक्ष का जमावड़ा होगा और तय होगा संभावित महगठबंधन का स्वरूप। कांग्रेस सहित तमाम भाजपा विरोधी दलों को न्यौता भेजा गया है और अब ये देखना रोचक होगा कि विपक्षी दलों के महागठबंधन की नितीश की हसरत पूरी होती है या नहीं। राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, इसकी झलक पटना में फिर देखने को मिल सकती है। सम्भवतः मंच पर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर खड़े बीजेपी विरोधी नेताओं की एक तस्वीर सामने आएगी जिसमें आपसी टकराव और मनमुटाव ढककर विपक्ष की एकता दिखाने का प्रयास होगा। माना जा रहा है कि इस बैठक में कांग्रेस और आप सहित देश की 15 से अधिक विपक्षी पार्टियां शिरकत करने वाली हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी के शामिल होने को लेकर चल रहा सस्पेंस भी अब खत्म हो गया है और वे भी इसमें शामिल होंगे। समाजवादी पार्टी भी इसमें शामिल होगी, और तृणमूल कांग्रेस भी। बताया जा रहा है उद्धव ठाकरे, शरद पवार, केजरीवाल, हेमंत सोरेन, स्टालिन भी इसमें शामिल होंगे। बैठक में लेफ्ट के नेता भी शामिल होंगे, जिनमें सीताराम येचुरी, डी राजा, दीपांकर भट्टाचार्य जैसे नाम शामिल हैं। हिंदुस्तान ने बहुत सारे विचित्र गठबंधन देखे हैं, लेकिन अगर ये सभी दल एक साथ आएं तो ये एक हाइब्रिड अलायंस होगा। जो दल राज्यों में एक दूसरे के शत्रु है वो लोकसभा के लिए गठबंधन करें, तो विचित्र तो होगा ही। मसलन कांग्रेस और आप का एक साथ आना हो या ममता और लेफ्ट का साथ, दोनों ही मुश्किल लगते है। फिर भी कोशिश तो हो ही रही है। हालाँकि 2019 में भी उत्तर प्रदेश में ऐसा ही विचित्र गठबंधन हुआ था जहां सपा - बसपा और कांग्रेस एक साथ आएं थे, यानी सियासत में कुछ भी मुमकिन है। बदलती रही है खुद नितीश की निष्ठा : महागठबंधन बनाने का प्रयास करने वाले नितीश कुमार खुद कई बार निष्ठा बदल चुके है। कभी भाजपा के साथ गए तो कभी भाजपा विरोधियों के साथ। ऐसे में नितीश कुमार क्या इस महागठबंधन की धुरी हो सकते है, ये बड़ा सवाल है।
सादगी पसंद नेता थे रफी अहमद किदवई जब मृत्यु हुई तो बैंक में भी वे अपने पीछे दो हजार चार सौ चौहत्तर रुपये ही छोड़ गए थे। कांग्रेस के एक उच्चविचार और सादगी पसंद नेता थे- रफी अहमद किदवई। देश की आजादी से अपने निधन तक वे केंद्र में मंत्री रहे, लेकिन उनके न रहने पर उनकी पत्नी और बच्चों को उत्तर प्रदेश में बाराबंकी के टूटे-फूटे पैतृक घर में वापस लौट जाना पड़ा। साइकिल से संसद आते-जाते थे आबिद अली पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल में श्रम मंत्री आबिद अली साइकिल से ही संसद आते-जाते थे। एक समय उनके पास कपड़ों का दूसरा जोड़ा भी नहीं था। रात में लुंगी पहनकर कपड़े धोते और सुखाकर उसे ही अगले दिन पहनकर संसद जाते थे। अपने लिए कभी कोई बंगला आवंटित नहीं कराया नौ बार सांसद रहे कम्युनिस्ट नेता इंद्रजीत गुप्त ने कभी अपने लिए कोई बंगला आवंटित नहीं कराया था और न ही उनकी अपनी गाड़ी थी। जहां भी जाते, ऑटो रिक्शे में बैठकर अथवा पैदल जाते। 200 रुपये में महीने भर का गुज़ारा करते थे हीरेन मुखर्जी हीरेन मुखर्जी भी नौ बार सांसद रहे। वे सारा वेतन और भत्ता पार्टी कोष में दे देते और 200 रुपये में महीने भर गुजारा करते थे। सांसद एचवी कामथ की कुल संपत्ति थी-एक झोले में दो जोड़ी कुर्ता पायजामा। हालांकि वे पूर्व आईसीएस भी थे। चुनाव क्षेत्र में बैलगाड़ी से दौरे करते थे भूपेंद्र नारायण समाजवादी सांसद भूपेंद्र नारायण मंडल यात्राओं के वक्त अपना सामान खुद अपने कंधे पर उठाते थे और चुनाव क्षेत्र में बैलगाड़ी से दौरे करते थे। सादगी के मिसाल थे भोलाराम पासवान शास्त्री कोई व्यक्ति एक बार नहीं बल्कि तीन तीन बार राज्य का मुख्यमंत्री रहा हो और उसका कोई ढंग का मकान न हो, गाड़ी न हो। बिहार के पूर्व सीएम भोलाराम पासवान ऐसे ही थे। आज भी उनका नाम ईमानदारी की मिसाल के तौर पर लिया जाता है। पूर्णिया के बैरगाछी में आज भी उनका घर मौजूद हैं जहां उनका परिवार रहता है। यह एक साधारण घर है जिसमें परिवारीजन छप्पर के नीचे रहते हैं।
एक साथ लड़े लोकसभा और विधानसभा चुनाव : उत्तर प्रदेश में हरदोई के दिग्गज नेता परमाई लाल ने 1989 में हरदोई लोकसभा और अहिरौरी विधानसभा क्षेत्र से एक साथ जोर आजमाया। मतदाता व किस्मत दोनों उनके साथ थे और वे दोनों सीटें जीत गए। फिर समस्या ये हुई कि वे विधानसभा में जायें या लोकसभा में? मित्रों से मशवरा करके उन्होंने लोकसभा की सदस्यता छोड़ दी और विधायक बनकर रहे। सोमनाथ चटर्जी : लोकसभा के अध्यक्ष के रूप कभी भुलाये नहीं जा सकते 4 जून, 2004 को 14वीं लोकसभा के अध्यक्ष के रूप में सोमनाथ चटजी का सर्वसम्मति से निर्वाचन एक इतिहास बन गया। लोकसभा के अध्यक्ष के रूप में सोमनाथ चटर्जी का निर्वाचन प्रस्ताव कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने रखा जिसे रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अनुमोदित किया। लोकसभा के 17 अन्य दलों ने भी सोमनाथ चटर्जी का नाम प्रस्तावित किया जिसका समर्थन अन्य दलों के नेताओं द्वारा किया गया। इसके बाद वह निर्विरोध अध्यक्ष निर्वाचित हुए। वर्ष 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौता विधेयक के विरोध में सीपीएम ने तत्कालीन मनमोहन सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। तब सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष थे। पार्टी ने उन्हें स्पीकर पद छोड़ देने के लिए कहा लेकिन वह नहीं माने। इसके बाद सीपीएम ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया। पर सोमनाथ चटर्जी ऐसे नेता था जिन्हें विरोधियों ने भी हमेशा अपना समझा। वे यूपीए के समर्थन से लोकसभा अध्यक्ष बने रहे। फिर 22 जुलाई 2008 को विश्वास मत के दौरान किए गए सभा के संचालन के लिए उनको देश के विभिन्न वर्गों के नागरिकों तथा विदेशों से काफी सराहना मिली। तमिलनाडु में 1996 के विधानसभा चुनावों में मोड़ा करोची में एक साथ 1,033 उम्मीदवार थे। इनके चुनाव के लिए बैलेट पेपर एक पुस्तिका के रूप में था। इंदिरा गांधी के विरोध में किया था एक राष्ट्रीय दल का गठन 1977 में हिंदी फिल्मों के जाने-माने अदाकार देवानंद ने इंदिरा गांधी के विरोध में एक राष्ट्रीय दल का गठन किया था। बाकायदा मुंबई के शिवाजी पार्क में एक शानदार रैली आयोजित की गई थी, जिसमें जाने-माने कानूनविद् नानी पालकीवाला और विजय लक्ष्मी पंडित भी उपस्थित हुए थे। किन्तु देवानंद की वह पार्टी कुछ ही वक्त में गुमनाम होकर रह गई। 1977 के आम चुनाव में उसका कोई भी उम्मीदवार मैदान में नहीं उतरा।
वो 28 जनवरी 1977 का दिन था, प्रदेश निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार बतौर मुख्यमंत्री अपना त्याग पत्र दे चुके थे। जो शख्स चंद मिनटों पहले मुख्यमंत्री था, जिसने हिमाचल के निर्माण में अमिट योगदान दिया था या यूँ कहे जिसकी वजह से हिमाचल का गठन संभव हो पाया था, वो यशवंत सिंह परमार शिमला बस स्टैंड पहुँच, वहां खड़ी सिरमौर जाने वाली एचआरटीसी की बस में बैठे, टिकट लिया और अपने गांव बागथन के लिए रवाना हो गए। इस्तीफा देकर बस से वापस घर लौटने वाला सीएम, शायद ही हिन्दुस्तान में दूसरा कोई होगा। डॉ यशवंत सिंह परमार की ईमानदारी का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा, कि उनके अंतिम समय में उनके बैंक खाते में महज 563 रुपये और 30 पैसे थे। प्रदेश निर्माण करने वाले मुख्यमंत्री ने न तो खुद के लिए कोई मकान नही बनवाया, न कोई वाहन खरीदा और न ही अपने पद और ताकत का गलत इस्तेमाल कर अपने परिवार के किसी व्यक्ति या रिश्तेदार की नौकरी लगवाई। 1977 तक रहे सीएम देश के पहले आम चुनाव के साथ ही वर्ष 1952 में प्रदेश का पहला चुनाव हुआ, जिसके बाद डॉ परमार प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने और वर्ष 1977 तक मुख्यमंत्री रहे। इस बीच नवंबर 1966 में पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों का भी हिमाचल में विलय हुआ और वर्तमान हिमाचल का गठन हुआ। आखिरकार 25 जनवरी,1971 का दिन आया और डॉ परमार का स्वप्न पूरा हुआ। तब इंदिरा गाँधी देश की प्रधानमंत्री थी और उस दिन काफी बर्फ़बारी हो रही थी। इंदिरा गांधी बर्फबारी के बीच शिमला के रिज मैदान पहुंची और हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करने की घोषणा की।
भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अपनी सादगी के लिए पहचाने जाते हैं। उनकी सादगी की कहानियां जगहाजिर हैं। प्रधानमंत्री बनने तक उनके पास न ही घर था और न कार। अपने ही बेटे का प्रमोशन तक रुकवा दिया था शास्त्री जी ने। लाल बहादुर शास्त्री इतने साधारण थे कि एक बार गृहमंत्री रहते हुए कार से उतरकर गन्ने का जूस पीने लग गये। पत्रकार कुलदीप नैयर की किताब ‘एक जिंदगी काफी नहीं‘ में जिक्र किया है कि "शास्त्री जी उन दिनों नेहरू मंत्रिमंडल से बाहर हो गए थे। मैं हमेशा की तरह शाम को उनके बंगले में गया, जहां अंधेरा छाया हुआ था। बस ड्राइंग रूम की लाइट जल रही थी। लाल बहादुर शास्त्री ड्राइंग रूम में अकेले बैठे अखबार पढ़ रहे थे। ऐसे में जब मैंने पूछा कि बाहर रोशनी क्यों नहीं थी तो उन्होंने जवाब दिया कि अब बिजली का बिल उन्हें खुद देना पड़ेगा और वे ज्यादा खर्च नहीं उठा सकते। लाल बहादुर शास्त्री जब सरकार से बाहर थे तो आलू महंगा होने के कारण उन्होंने उसे खाना छोड़ दिया था। साल 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने निजी इस्तेमाल के लिए एक फिएट कार खरीदी थी। यह कार उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से 5000 रुपये लोन लेकर खरीदी थी, लेकिन अफसोस, कार खरीदने के अगले साल ही 11 जनवरी 1966 को उनकी मृत्यु ताशकंद में हो गई थी। आज भी यह कार उनके दिल्ली स्थित निवास पर खड़ी है। पीएम लाल बहादुर शास्त्री ने कार का लोन जल्दी अप्रूव होने पर पंजाब नेशनल बैंक से कहा था कि यही सुविधा इसी तरह आम लोगों को भी मिलनी चाहिए। शास्त्री जी के निधन के बाद बैंक ने उनकी पत्नी को बकाया लोन चुकाने के लिए पत्र लिखा था। इस पर उनकी पत्नी ललिता देवी ने बाद में फैमिली पेंशन की मदद से बैंक का एक-एक रुपया चुकाया था।
गांधीवादी गुलजारी लाल नंदा दो बार भारत के कार्यवाहक-अंतरिम प्रधानमंत्री रहे। एक बार विदेश मंत्री भी बने थे। आजादी की लड़ाई में गांधी के अनन्य समर्थकों में शुमार नंदा को अपना अंतिम जीवन किराये के मकान में गुजारना पड़ा। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के रूप में 500 रुपये की पेंशन स्वीकृत हुई थी। उन्होंने इसे लेने से यह कह कर इनकार कर दिया था कि पेंशन के लिए उन्होंने लड़ाई नहीं लड़ी थी। बाद में मित्रों के समझाने पर कि किराये के मकान में रहते हैं तो किराया कहां से देंगे, उन्होंने पेंशन कबूल की थी। कहते है किराया बाकी रहने के कारण एक बार तो मकान मालिक ने उन्हें घर से निकाल भी दिया था। बाद में इसकी खबर अखबारों में छपी तो सरकारी अमला पहुंचा और मकान मालिक को पता चला कि उसने कितनी बड़ी भूल कर दी है। आज तो ऐसे नेता की कल्पना भी नहीं की जा सकती जो पीएम और केंद्रीय मंत्री रहने के बावजूद अपने लिए एक अदद घर नहीं बना सका और किराये के मकान में अपनी जिंदगी गुजार दी। दो बार भारत के कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे गुलजारीलाल नंदा सक्रिय राजनीति को अलविदा करने के बाद दिल्ली में किराए के मकान में रहते थे और उनके पास किराया भी नहीं होता था। जब वे किराया नहीं दे सके तो उनकी बेटी उन्हें अपने साथ अहमदाबाद ले गईं। गुलजारीलाल नंदा मुंबई विधानसभा के दो बार सदस्य रहे थे। पहली बार वह 1937 से 1939 तक और दूसरी बार 1947 से 1950 तक विधायक चुने गये थे। उनके जिम्मे श्रम एवं आवास मंत्रालय का कार्यभार था, तब मुंबई विधानसभा होती थी। 1947 में नंदा की देखरेख में ही इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना हुई। मुंबई सरकार में गुलजारीलाल नंदा के काम से प्रभावित होकर उन्हें कांग्रेस आलाकमान ने दिल्ली बुला लिया। फिर नंदा वह 1950-1951, 1952-1953 और 1960-1963 में भारत के योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे। भारत की पंचवर्षीय योजनाओं में उनका काफी योगदान माना जाता है। पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री भी रहे। गुलजारीलाल नंदा दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री भी रहे। पहली बार पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन पर और दूसरी बार लाल बहादुर शास्त्री के निधन पर उन्हें कार्यवाहक प्रधानमंत्री का दायित्व सौंपा गया था। उनका पहला कार्यकाल 27 मई 1964 से 9 जून, 1964 तक रहा। दूसरा कार्यकाल 11 जनवरी 1966 से 24 जनवरी 1966 तक रहा। गांधीवादी विचारधारा के नंदा पहले 5 आम चुनावों में लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। सिद्धांतवादी गुलजारीलाल नंदा अपनी ही पार्टी की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के देश में इमरजेंसी लगाने के फैसले से नाराज हो गए थे। तब वो रेलमंत्री थे। उन्होंने आपातकाल के बाद चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया। इंदिरा गांधी, राजा कर्ण सिंह समेत कई हस्तियां मनाने आईं, लेकिन वे फैसले पर अटल रहे। इसके बाद कभी चुनाव नहीं लड़ा। गुलजारीलाल नंदा ने कभी प्राइवेट काम में सरकारी गाड़ी प्रयोग नहीं की। वे कुरुक्षेत्र में नाभाहाउस के साधारण कमरों में ठहरते थे। परिवार गुजरात में ही था। सन् 1967 के बाद उनका अधिकांश समय कुरुक्षेत्र में गुजरा। वे गृहमंत्री थे तब एक बार दिल्ली निवास से उनकी बेटी डाॅ. पुष्पा यूनिवर्सिटी में फार्म भरने सरकारी गाड़ी में चली गईं। पता चलने पर नंदा खफा हुए। उन्होंने आठ मील गाड़ी आने-जाने का किराया बेटी की तरफ से खुद भरा। आज के दौर में तो ऐसी कल्पना करना भी बेहद मुश्किल है।
"....विपक्ष बीजेपी के खिलाफ अधिकांश एक उम्मीदवार उतारने की रणनीति बना रहा है। माना जा रहा है कि विपक्ष 475 लोकसभा सीटों पर बीजेपी के खिलाफ एक साझा उम्मीदवार उतारने की कोशिश में है। विपक्ष की मंशा साफ है कि वह अधिकांश सीटों पर एकजुट होकर भाजपा का सामना करें। हालांकि मौजूदा समय में ये ख़याली पुलाव ज्यादा है। दरअसल कांग्रेस के बिना ये संभव है नहीं और आम आदमी पार्टी जैसे दलों के साथ कांग्रेस के आने की सम्भावना कम है। जो दल राज्यों में एक दूसरे के खिलाफ तलवारें खींचे खड़े है वो केंद्र में भी एकसाथ आएं, ये व्यावहारिक नहीं लगता। छोटे दलों को ये भी डर है कि कांग्रेस के साथ आने से उनका वोट बैंक फिर कांग्रेस की तरफ खिसक सकता है, जो मोटे तौर पर उन्होंने कांग्रेस से ही छिटका है..." हर पार्टी के पास चुनाव लड़ने का समान अवसर होना लोकतंत्र की बुनियादी ज़रूरत है, लेकिन मौजूदा समय में साधन और कैडर के मामले में बीजेपी सभी दलों पर भारी दिखती है। इसी अंतर को पाटने की कोशिश में विपक्षी दल एक साथ आने लगे है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की बड़ी जीत से केंद्र की राजनीति में बीजेपी विरोधी दलों की हैसियत कम हुई है। तब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए को अकेले करीब 45 प्रतिशत वोट मिले थे। तब से अब तक स्थिति में बड़ा बदलाव होता नहीं दिख रहा। ऐसे में जाहिर है विपक्ष भी जानता है कि एकजुट होकर ही भाजपा का सामना किया जा सकता है। आगामी लोकसभा चुनाव में महज़ 10 महीने का वक्त बचा है और भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए इसी विपक्ष के करीब 55 फीसदी वोट को एकजुट करने की बात हो रही है, जिसके लिए विपक्षी दलों की कोशिश जारी है। कर्नाटक के हालिया विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ विपक्षी एकता की कोशिशों को नया बल मिला है। इसका ताज़ा उदाहरण नए संसद भवन के उद्घाटन को छिड़े विवाद में दिखा है। इस मुद्दे पर पहली बार विपक्ष एकजुट नज़र आया और ये कवायद अब आगे भी बढ़ती दिख रही है। वहीं प्रशासनिक सेवाओं पर दिल्ली सरकार के अधिकार को नहीं मानने से जुड़े अध्यादेश के खिलाफ विपक्षी दलों को लामबंद करने में भी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लगे हैं। इन दोनों मुद्दों पर जिस तरह से विपक्षी दल ने नरेंद्र मोदी सरकार को घेरा, उससे सियासी गलियारे में इस पर बहस और तेज हो गई है कि क्या 2024 में चुनाव से पहले बीजेपी के खिलाफ मजबूत विपक्षी गठबंधन बन सकता है। जिस विपक्षी गठबंधन की संभावना है, उसमें ज्यादातर वहीं दल शामिल हो सकते हैं, जिन्होंने संसद के नए भवन के उदघाटन समारोह का सामूहिक रूप से बहिष्कार करने की घोषणा की थी। इनमें मुख्य तौर पर 19 दल हैं, जिनमें कांग्रेस के साथ ही तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, जेडीयू, आरजेडी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, एनसीपी, शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे), सीपीएम और सीपीआई, राष्ट्रीय लोकदल और नेशनल कांफ्रेंस शामिल हैं। इनके अलावा इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस (मणि), रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, विदुथलाई चिरुथिगल काट्ची, मारुमलार्ची द्रविड मुन्नेत्र कड़गम शामिल हैं। निर्विवाद तौर पर इनमें से एकमात्र कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है, जिसका पैन इंडिया जनाधार है और बाकी विपक्षी दलों की पकड़ मौटे तौर पर राज्य विशेष तक ही सीमित है। कांग्रेस के अलावा टीएमसी पश्चिम बंगाल में, डीएमके तमिलनाडु में जेडीयू और आरजेडी बिहार में वहीं झामुमो झारखंड में प्रभावशाली है। समाजवादी पार्टी का प्रभाव उत्तर प्रदेश, एनसीपी और शिवसेना (ठाकरे गुट) का महाराष्ट्र, और नेशनल कांफ्रेंस का जम्मू-कश्मीर और राष्ट्रीय लोकदल का सीमित प्रभाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है। इनमें से आम आदमी पार्टी दो राज्यों पंजाब और दिल्ली में बेहद मजबूत स्थिति में है, वहीं गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में धीरे-धीरे जनाधार बनाने की कवायद में है। सीपीएम का प्रभाव केरल में सबसे ज्यादा रह गया है, जबकि पश्चिम बंगाल में भी उसके कैडर अभी भी मौजूद हैं। 19 दलों में से बाकी जो दल हैं उनका केरल और तमिलनाडु में छिटपुट प्रभाव है। क्या है विपक्ष का फॉर्मूला? गौरतलब है कि बीते एक माह में दो बार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से मुलाकात की है। कांग्रेस और सीएम नीतीश भी इस फार्मूला पर काम कर रहे हैं। अगले साल होने वाले चुनाव में विपक्ष साल 1974 का बिहार मॉडल लागू करना चाहता है। जिस तरह पूरा विपक्ष 1977 में कांग्रेस के खिलाफ हो गया था, वैसा ही कुछ अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में करने की कोशिश है। 1989 में राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ वीपी सिंह मॉडल को सभी विपक्षी दलों ने अपनाया था, जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है। इन दोनों चुनाव के दौरान विपक्ष ने एक सीट पर एक उम्मीदवार को उतारा था और सफलता हासिल हुई थी। हम इस बार के लोकसभा चुनाव में भी इसी रणनीति के तहत काम किया जा सकता है। विपक्ष की रणनीति : जिस सीट पर बीजेपी मजबूत स्थिति में दिखाई देगी, वहां पर सभी विपक्षी दल एक साथ मिलकर उसके (बीजेपी) खिलाफ उम्मीदवार उतारेंगे। अगर विपक्ष ऐसा करने में सफल रहे तो बीजेपी बेहद कम सीटों पर सिमट कर रह सकती है। इस रणनीति के तहत विपक्ष बिहार और महाराष्ट्र में मजबूत दिखाई दे रहा है। बिहार में जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस एकजुट है तो वहीं महाराष्ट्र में उद्धव वाली शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस एकजुट है। इन दोनों राज्यों में बीजेपी को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। बिहार और महाराष्ट्र में लोकसभा की क्रमश: 40 और 48 सीटें आती है। ऐसे में यदि विपक्ष यहां पर अपनी स्थिति मजबूत करता है तो इससे यूपी की भरपाई हो सकती है, क्योंकि यूपी में बीजेपी की स्थिति काफी ज्यादा मजबूत है। यहां लोकसभा की कुल 80 सीटें है। पश्चिम बंगाल में भी अगर ममता और कांग्रेस साथ आते है, तो कुछ लाभ स्वाभाविक है। क्या कहते हैं आंकड़े? 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को करीब 38 फ़ीसदी वोट के साथ 303 सीटें मिली थीं। वहीं दूसरे नंबर पर कांग्रेस रही थी, जिसे क़रीब 20 फ़ीसदी वोट और महज़ 52 सीटें मिली थी। इसमें ममता बनर्जी की टीएमसी को 4 फीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे और उसने 22 सीटें जीती थी। जबकि एनसीपी को देश भर में क़रीब डेढ़ फीसदी वोट मिले थे और उसके 5 सांसद जीते थे। वहीं शिवसेना 18, जेडीयू 16 और समाजवादी पार्टी 5 सीटें जीत सकी थी। इन चुनावों में एनडीए को बिहार की 40 में से 39 सीटें मिली थी, लेकिन अब जेडीयू और बीजेपी के अलग होने के बाद राज्य में राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदले नजर आते हैं। इसमें बीजेपी को 24 फीसदी वोट मिले थे, जबकि उसकी प्रमुख सहयोगी जेडीयू को क़रीब 22 फ़ीसदी और एलजेपी को 8 फीसदी वोट मिले थे। इन चुनावों में एलजेपी से दोगुना वोट पाने के बाद भी आरजेडी को एक भी सीट नहीं मिली थी, जबकि कांग्रेस को क़रीब 8 फीसदी वोट मिलने के बाद महज़ एक ही सीट मिल पाई थी। इन्हीं आंकड़ों में विपक्षी एकता की ज़रूरत भी छिपी है और इसी में नीतीश कुमार को एक उम्मीद भी दिखती है। बिहार में एलजेपी और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक जनता दल के अधिकतम वोट एनडीए के पास आने पर ये 35 फीसदी के क़रीब दिखता है। जबकि राज्य में महागठबंधन के पास 45 फीसदी से ज़्यादा वोट हैं। 1. बीजेपी बनाम कांग्रेस (161 सीटें ) 12 राज्य और 3 केंद्र शासित प्रदेश जिसमें 161 लोकसभा सीटें शामिल हैं, यहाँ बीजेपी और कांग्रेस के बीच मुख्य मुकाबला देखने को मिला था। 147 सीटें ऐसी जहां दोनों के बीच सीधा मुकाबला था। वहीं 12 सीटों पर क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दल को चुनौती देते दिखे। 2 सीटों पर क्षेत्रीय दलों के बीच ही मुकाबला था। इसमें मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, असम, छत्तीसगढ़, हरियाणा राज्य शामिल हैं। यहां बीजेपी को 147 सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस को 9 और अन्य के खाते में 5 सीट गई। 2.बीजेपी बनाम क्षेत्रीय दल (198 सीटें) यूपी, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, और ओडिशा, इन 5 राज्यों की 198 सीटों पर अधिकांश में बीजेपी और रीजनल पार्टी के बीच ही मुकाबला रहा। 154 सीटों पर सीधा बीजेपी और क्षेत्रीय दलों के बीच मुकाबला था। 25 सीटों पर कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के बीच मुकाबला था। 19 सीटों पर क्षेत्रीय दलों के बीच ही मुकाबला था। बंगाल की 42 सीटों में से 39 सीटों पर बीजेपी या तो पहले या दूसरे नंबर पर थी। पिछले चुनाव में बीजेपी को यहां 116 सीटों पर, कांग्रेस 6 और अन्य को 76 सीटों पर जीत मिली। 3.कांग्रेस बनाम क्षेत्रीय दल (25 सीटें ) 2019 के चुनाव में कांग्रेस केरल, लक्षद्वीप, नागालैंड, मेघालय और पुडुचेरी की 25 सीटों में से 20 पर पहले या दूसरे नंबर पर रही। यहां बीजेपी लड़ाई में भी नहीं दिखी। केरल की केवल एक सीट थी जहां बीजेपी को दूसरा स्थान हासिल हुआ था। यहां 17 सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली। वहीं अन्य को 8 सीटें मिलीं। 4.यहां कोई भी मार सकता है बाजी (93 सीटें ) 6 राज्य ऐसे हैं जहां की 93 सीटों पर सबके बीच मुकाबला देखा गया। 93 सीटों पर बीजेपी, कांग्रेस और क्षेत्रीय दल सभी मजबूत नजर आए। महाराष्ट्र इसका उदाहरण है जहां बीजेपी और कांग्रेस दोनों गठबंधन के साथ में हैं। यहां पिछले चुनाव में बीजेपी को 40, अन्य को 41 और कांग्रेस को 12 सीटों पर जीत हासिल हुई। 5.सिर्फ क्षेत्रीय पार्टी का ही दबदबा (66 सीटें ) तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मिजोरम और सिक्किम की 66 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां सिर्फ क्षेत्रीय दलों का ही दबदबा है। तमिलनाडु की 39 सीटों में से सिर्फ 12 सीटों पर ही कांग्रेस या बीजेपी का थोड़ा आधार है, वह भी गठबंधन के सहारे। यहां 58 सीटों पर अन्य और 8 सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली। बीजेपी का खाता भी नहीं खुला था। कई विपक्षी दल एकजुटता से रहेंगे बाहर ऐसे तो विपक्ष में और भी दल हैं, जिनकी पकड़ राज्य विशेष में है। इनमें बीजेडी का ओडिशा में, बसपा का यूपी में, वाईएसआर कांग्रेस का आंध्र प्रदेश में, बीआरएस का तेलंगाना में अच्छा-खासा प्रभाव है। जेडीएस का कर्नाटक के कुछ सीटों पर प्रभाव है। हालांकि नवीन पटनायक, मायावती, जगन मोहन रेड्डी, के. चंद्रशेखर राव, और एच डी कुमारस्वामी का फिलहाल जो रवैया है, उसके मुताबिक इन दलों के कांग्रेस की अगुवाई में बनने वाले किसी भी गठबंधन में शामिल होने की संभावना बेहद क्षीण है। ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटों पर जीत की संभावना के नजरिए से बीजेपी के लिए सबसे निर्णायक राज्यों में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, हरियाणा, उत्तराखंड, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और असम शामिल हैं।
कभी वीरभद्र सिंह के हनुमान कहे जाने वाले हर्ष महाजन को अब हिमाचल भाजपा ने कोर ग्रुप का सदस्य मनोनीत किया हैं। बीते साल हुए विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हर्ष महाजन भाजपाई हो गए थे। तब माना जा रहा था कि शायद चम्बा सदर सीट से भाजपा महाजन पर दांव खेल सकती है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अब बदली सियासी फ़िज़ा में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के आदेश पर हर्ष महाजन को भाजपा कोर ग्रुप का सदस्य बनाया गया हैं। ज़ाहिर है इस नियुक्ति के बाद भाजपा में हर्ष का सियासी कद बढ़ा है, साथ ही राजनीतिक गलियारों में सुगबुगाहट तेज़ हो चुकी है कि लोकसभा चुनाव में काँगड़ा संसदीय सीट से पार्टी हर्ष महाजन पर दांव खेल सकती है। हर्ष महाजन, स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के विशेष सलाहकार और रणनीतिकार रह चुके है। महाजन वीरभद्र सरकार में पशुपालन मंत्री भी रहे और फिर 2012 से 2017 तक कांग्रेस शासन में राज्य सहकारी बैंक के चेयरमैन भी। 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने हर्ष महाजन को प्रदेश कांग्रेस कमेटी का वर्किंग प्रेसिडेंट नियुक्त किया था। यानी कांग्रेस में रहते महाजन का सियासी कद लगातार बढ़ा ही है, लेकिन महाजन ने 2022 के चुनाव से ठीक पहले सबको चौंकाते हुए भाजपा का दामन थाम लिया था। महाजन के भाजपा में जाने से कयास लगाए जा रहे थे कि ये भाजपा का मास्टरस्ट्रोक हो सकता है, दरअसल महाजन का चम्बा में बेहतर होल्ड माना जाता है, जाहिर है भाजपा को महाजन से कुछ उम्मीद तो ज़रूर रही होगी। हालांकि नतीजे आने के बाद महाजन की चम्बा सदर सीट पर भी कांग्रेस का परचम लहराया। भाजपा को अब भी महाजन की सियासी कुव्वत का अहसास है, इसलिए हर्ष महाजन को अहम् पद दिया गया है। भाजपा की सत्ता से विदाई होने के बाद हर्ष महाजन भी कमोबेश दरकिनार से ही दिखे है, पर अब उन्हें भाजपा कोर ग्रुप का सदस्य बनाया गया हैं। यानी अब भाजपा के अहम निर्णय लेने में उनकी भूमिका भी अहम होने वाली है। लोकसभा चुनाव के लिहाज़ से भाजपा में कई बड़े बदलाव होने की चर्चा तेज़ है। प्रदेश में सत्ता गवाने के बाद भाजपा इस दफा कोई चूक नहीं करना चाहेगी। फिलवक्त प्रदेश की चारों लोकसभा सीटों पर भाजपा का कब्ज़ा है। काँगड़ा संसदीय सीट की बात करे तो यहाँ वर्तमान में किशन कपूर सांसद है, लेकिन विधानसभा चुनाव में इस संसदीय क्षेत्र में भाजपा का प्रदर्शन फीका रहा था। ऐसे में महाजन की नियुक्ति के बाद कयास लग रहे है कि क्या भाजपा इस दफा कांगड़ा संसदीय सीट पर चेहरा बदलने की रणनीति पर आगे बढ़ सकती है ? महाजन जिला चम्बा से आते है और जिला चंबा के चार निर्वाचन क्षेत्र काँगड़ा संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आते है। ऐसे में उनकी दावेदारी ख़ारिज नहीं की जा सकती। बहरहाल कयासों का सिलिसला जारी है।
देश में कई मौके ऐसे आएं है जब सरकारों ने अपने पक्ष में माहौल देखकर समय से पहले चुनाव करवा दिए। क्या आगामी लोकसभा चुनाव भी अपने तय वक्त से पहले हो सकते हैं, ये सवाल इन दिनों सियासी गलियारों में खूब गूंज रहा है। दरअसल, इसी साल के अंत में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने है। क्या मोदी सरकार इन्हीं के साथ लोकसभा चुनाव करवाने पर विचार कर रही है? क्या सरकार का नौ साल की उपलब्धियों के प्रचार में ताकत झोंकना इसका संकेत है? ये अहम सवाल है। 'सेवा सुशासन और गरीब कल्याण' के नारे के साथ भाजपा आक्रामक तरीके से मैदान में उतर चुकी है, मानो चुनाव की घोषणा हो चुकी हो। संभवतः सरकार और पार्टी के शीर्ष स्तर पर लोकसभा चुनावों को लेकर गंभीर मंथन हो रहा है। बीते 6 महीनो में हिमाचल प्रदेश और कर्णाटक में सत्ता से बेदखल हुई भाजपा निश्चित तौर पर आत्ममंथन जरूर कर रही होगी। हालांकि पूर्वोत्तर के नतीजों ने भाजपा को कुछ उत्साहित जरूर किया है। पर पार्टी को इस बात का भी इल्म है कि बीते कुछ समय में कांग्रेस पहले से ज्यादा नियोजित दिख रही है और एंटी इंकम्बैंसी को पूरी तरह खारिज करना भी गलत होगा। ये कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा कुछ असहज है। ऐसे में भाजपा के रणनीतिकारों को सोचने की जरुरत है। बताया जा रहा है कि लोकसभा चुनाव इसी साल नवंबर-दिसंबर में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ कराने का विचार हो रहा है। इसके पीछे एक तर्क ये हो सकता हैं कि विपक्ष अपनी तैयारी अगले साल मार्च-अप्रैल के हिसाब से कर रहा है और उसे समय नहीं मिलेगा। एक तर्क ये भी हैं कि अगर विधानसभा चुनावों में भाजपा को अनुकूल नतीजे नहीं मिले तो कार्यकर्ताओं का मनोबल कमजोर नहीं होगा, बल्कि अगर दोनों चुनाव साथ हो जाते हैं, तो पीएम मोदी की लोकप्रियता का लाभ राज्यों के चुनावों में भी होगा। मुद्दे भांप रही हैं भाजपा ! कांग्रेस और भाजपा, दोनों तरफ सियासी पैंतरेबाजी तेज हो चुकी है। अगला लोकसभा चुनाव अमीर बनाम गरीब, हिंदुत्व बनाम सामाजिक न्याय और बेतहाशा बढ़ी अमीरी के मुकाबले गरीबी रेखा के नीचे की आबादी में बढ़ोत्तरी जैसे मुद्दों के बीच देखने को मिल सकता हैं। जातीय जनगणना भी बड़ा मुद्दा बन सकती हैं। शायद भाजपा इसे समझ रही हैं और ऐसे में जल्द चुनाव से इंकार नहीं किया जा सकता। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का फीडबैक भी कारण ! मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से मिलने वाले फीड बैक भाजपा के लिए अच्छा नहीं बताया जा रहा है। राजस्थान में जरूर पार्टी अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट के झगड़े में लाभ तलश रही हैं लेकिन वसुंधरा राजे अगर नहीं साधी गई, तो मुश्किलें शायद भाजपा के लिए अधिक हो। उधर गहलोत सरकार की लोकलुभावन योजनाओं को भी खारिज नहीं किया जा सकता। इसी तरह बिहार, प. बंगाल और महाराष्ट्र में पिछले लोकसभा चुनावों के प्रदर्शन को न दोहरा पाने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।
कुछ किरदार ऐसे होते है जिन्हें आप पसंद करें या नहीं, लेकिन आप नकार नहीं सकते। इनकी अपनी शैली -अपना अंदाज इन्हें भीड़ से अलग लाकर खड़ा करता है। हिन्दुस्तान की सियासत में ऐसा ही एक किरदार है ममता बनर्जी। बंगाल की शेरनी, लोगों की 'दीदी' और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी साल 2011 से पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज है। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री हैं। वाम दलों को सत्ता को उखाड़कर बंगाल पर राज करने वाली दीदी एक मिसाल है। ममता बनर्जी के राजनीतिक सफर की कहानी बेहद रोचक है। महज 15 साल की कम उम्र में ही ममता राजनीति में उतर आईं थी। तब उन्होंने 15 साल की उम्र में जोगमाया देवी कॉलेज में छात्र परिषद यूनियन की स्थापना की थी जो कांग्रेस (आई) की स्टूडेंट विंग थी। इसने वाम दलों की ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन को हराया था। ये पश्चिम बंगाल में एक नए सूर्य के उदय होने का संकेत था। इसके बाद ममता ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1970 में कांग्रेस के साथ राजनैतिक सफर आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ता गया। 1975 में वे पश्चिम बंगाल में महिला कांग्रेस की जनरल सेक्रेटरी बनी। साल 1983 में प्रणब मुखर्जी की मुलाकात ममता बनर्जी से अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की बैठक के दौरान हुई थी। प्रणव दा ने उसी समय ममता में छुपी प्रतिभा को पहचान लिया था। ममता बनर्जी के लिए उनकी राजनीतिक जिंदगी का सबसे अहम पल उस समय तब आया जब कांग्रेस ने उन्हें लोकसभा चुनाव में उतारा। ये एक ऐसा फैसला था जिसने ममता बनर्जी की जिंदगी बदल दी। दरअसल उनका मुकाबला सीपीएम के सोमनाथ चटर्जी से था, जिन्हें हराना किसी भी नए राजनेता के लिए उस समय नामुमकिन ही माना जाता था। किन्तु ममता बनर्जी ने 1984 के चुनाव में जादवपुर लोकसभा सीट से उन्हें हराकर ये कर दिखाया और वो उस समय की सबसे युवा सांसद बनी। तब प्रणब मुखर्जी ने खुद उनके लिए कैंपेनिंग में हिस्सा लिया था लेकिन ममता बनर्जी की अपने चुनाव के लिए खुद की गई मेहनत को देखकर उन्होंने उसी समय कह दिया था कि ये लड़की आगे चलकर राजनीति के शिखर पर पहुंचेगी। उनकी बात सही साबित हुई और वो लड़की आज पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। ममता बनर्जी 1991 में वो दोबारा लोकसभा की सांसद बनी और इस बार उन्हें केंद्र सरकार में मानव संसाधन विकास जैसे महत्वपूर्ण विभाग में राज्यमंत्री भी बनाया गया। इसके बाद 1996 में ममता एक बार फिर सांसद बनी, लेकिन 1997 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी से नाता तोड़कर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। पार्टी गठन के शुरुआती दिनों में ममता बनर्जी तब बीजेपी के सबसे बड़े नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी की करीबी रही। इसके अलावा उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेलमंत्री के रूप में भी काम किया। 2002 में ममता बनर्जी ने रेलवे के नवीनीकरण की दिशा में बड़े फैसले लिए। ममता वामपंथी सरकार का पश्चिम बंगाल में खुला विरोध करती रही। सीपीएम के नेतृत्व वाली इस सरकार के मुखिया पहले ज्योति बसु और फिर बड़े वामपंथी नेता बुद्धदेव भट्टाचार्या थे। 2005 में भट्टाचार्य की सरकार के जबरन भूमि अधिग्रहण के फैसले का विरोध शुरू किया। इसके बाद सिंगूर और नंदीग्राम के हिस्सों में ममता बनर्जी ने सरकार की नीतियों के खिलाफ जमकर आंदोलन किए। 1998 में पार्टी के गठन के बाद 13 साल की अल्प यात्रा में ही 2011 में तृणमूल कांग्रेस पहली बार 34 वर्षीय सत्ता वाली वामपंथी सरकार को सत्ता से हटाने में कामयाब हो गई। 2016 और 2021 में भी वे सत्ता में वापस लौटी। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी का दल पश्चिम बंगाल का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनकर उभरा। टीएमसी ने 22 सातों पर जीत दर्ज की। मोदी विरोध के लिए ममता बनर्जी हमेशा बीजेपी के खिलाफ रही है। हालांकि ये वही ममता बनर्जी है, जो कि कभी एनडीए की सबसे प्रमुख सहयोगी रही थी। सीएए, एनआरसी, जीएसटी, नोटबंदी और किसान आंदोलन तक ममता ने मोदी सरकार के तमाम फैसले का विरोध किया हैं। बनी देश की पहली महिला रेल मंत्री लंबे समय तक कांग्रेस में अलग-अलग पदों पर कार्यरत होने के बाद साल 1998 में ममता बनर्जी ने अपनी अलग पार्टी बनाई थी। तब ममता एनडीए में शामिल हुई और अटल सरकार में 1999 में ममता देश की पहली महिला रेल मंत्री बनी। हालांकि यह सरकार कुछ ही समय में गिर गई। इसके बाद साल 2001 से 2003 तक ममता उद्योग मंत्रालय की सलाहकार समिति की सदस्य में रहीं थी। इसके बाद साल 2004 में ममता कोयला और खानों की की केंद्रीय पद पर काम किया। बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री लंबे समय तक राजनीति में अहम किरदार निभाने के बाद आखिरकार साल 20 मई 2011 को ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी, इसके बाद 19 मई 2016 को दोबारा चुनाव हुए, तब भी भारी जीत के साथ ममता दीदी मुख्यमंत्री के पद पर काबिज रहीं। इसके बाद साल 2021 में तीसरी बार मुख्यमंत्री पद के चुनाव हुए, तब भी भारी मतों के साथ ममता जीत गईं। आखिर क्यों ममता ने छोड़ी थी कांग्रेस? 1997 में ममता बनर्जी और सोनिया गांधी के बीच आखिर ऐसा हुआ था कि ममता ने कांग्रेस छोड़ अपनी पार्टी बना ली ? उस दौर में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस की बेहद लोकप्रिय युवा नेता थी। वामपंथियों के खिलाफ मज़बूती से अगर कांग्रेस का कोई नेता लड़ाई लड़ रहा था, तो वो थी ममता बनर्जी। कहते है लेफ्ट कार्यकर्ताओं के हमले में ममता की जान बाल -बाल बची थी, पर ममता झुकी नहीं। राजीव गांधी उन्हें खूब पसंद करते थे और ममता को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। फिर 1991 में राजीव गांधी की मौत के बाद जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने ममता को केंद्र में मंत्री बना दिया। पर ममता का मन तो बंगाल में था। 1992 में उन्होंने कांग्रेसी नेताओं के विरोध के बाद भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ा और हार गईं। फिर केंद्र में अपनी ही सरकार के टाडा कानून के विरोध में संसद में जमकर हंगामा किया और मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। ये शुरुआत थी ममता और कांग्रेस के बीच खाई की। 1995 के आखिर में उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया, और 1996 आते-आते कांग्रेस में ममता बनर्जी के दुश्मनों की एक लंबी फेहरिस्त हो गई थी। इसी बीच 1996 का कांग्रेस लोकसभा चुनाव हार चुकी थी और नरसिम्हा राव पर घोटाले के आरोप लगे थे। आरोप सिद्ध होने से पहले ही राव ने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की कुर्सी से इस्तीफा दे दिया था। सीताराम केसरी कांग्रेस के नए अध्यक्ष बन चुके थे और केंद्र में कांग्रेस देवगौड़ा के नेतृत्व की संयुक्त मोर्चा की सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी। इस बीच 1997 में ममता ने फिर से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने की कोशिश की, तब पश्चिम बंगाल में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे सोमेंद्र नाथ मित्रा। ममता बनर्जी और सोमेन मित्रा के बीच 36 का आंकड़ा था। ममता खुलकर कहती थी कि सोमेन मित्रा लेफ्ट के लिए ही काम करते हैं। इतना ही नहीं दीदी सोमेन मित्रा को तरबूज भी कहती थीं, क्योंकि तरबूज अंदर से लाल होता है और वामपंथी दलों की पहचान भी लाल रंग से होती है। बहरहाल प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव ममता बनर्जी 27 वोटों से हार गईं। ममता की हार के साथ ही बंगाल कांग्रेस के नेता दो धड़ों में बंट गए। नरम दल के नेताओं का नेतृत्व सोमेन मित्रा के हाथ में था, जबकि गरम दल का प्रतिनिधित्व ममता बनर्जी कर रही थी। उधर सीताराम केसरी और प्रधानमंत्री देवगौड़ा के बीच की तल्खी इतनी बढ़ गई कि कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। देवगौड़ा को इस्तीफा देना पड़ा और इससे ममता बनर्जी और नाराज हो गईं। ममता ने कहा कि जब कांग्रेसी समर्थक उनसे पूछेंगे कि एक सेक्युलर सरकार से समर्थन वापस क्यों लिया गया तो वो क्या जवाब देंगी। ममता का गुस्सा तब ज्यादा बढ़ गया जब एक हफ्ते के अंदर ही सीताराम केसरी ने फिर से संयुक्त मोर्चा की सरकार का समर्थन कर दिया। इस बीच सीताराम केसरी ने घोषणा कर दी कि कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन कोलकाता में होगा। तारीख तय हुई 8, 9 और 10 अगस्त 1997। उधर ममता बगावत का मन बना चुकी थी और उन्होंने तय किया कि 9 अगस्त को वो भी कोलकाता में एक बड़ी रैली करेंगी। तब ये तय हुआ था कि कोलकाता के ही अधिवेशन में सोनिया गांधी आधिकारिक तौर पर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करेंगी। जाहिर है ऐसे में कोलकाता का अधिवेशन कांग्रेस के लिए बेहद महत्वपूर्ण था। कांग्रेस नेताओं को लग रहा था कि सोनिया गांधी के आने से ममता की रैली पिट जाएगी। हालांकि ममता को रोकने की एक कोशिश की गई और जीतेंद्र प्रसाद और अहमद पटेल ने ममता को मनाने की कोशिश की। पर ममता नहीं मानी। दिलचस्प बात ये है कि जब कांग्रेसी नेताओं ने ममता से कहा कि रैली से सोनिया गांधी को बुरा लगेगा, तो ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी को भी अपनी रैली में बुलाने के लिए निमंत्रण भेज दिया। खेर कांग्रेस का अधिवेशन भी हुआ और ममता की रैली भी। ममता की रैली में करीब 3 लाख लोग जुटे, जो कांग्रेस अधिवेशन वाली जगह से महज 2 किलोमीटर दूर हो रही थी। ये संकेत था कि पश्चिम बंगाल में आने वाला समय ममता बनर्जी का होगा। उस रैली में ममता ने कहा था, अब इंदिरा जी नहीं हैं...राजीव जी नहीं हैं....तो अब कांग्रेस में बचा क्या है। भीड़ ने चिल्लाकर ममता का समर्थन किया। ममता ने कहा कि अब मैं कांग्रेस को दिखाउंगी कि कांग्रेस में निष्पक्ष चुनाव कैसे होते हैं। हालांकि तब ममता ने ये नहीं कहा था कि वो अपनी अलग पार्टी बनाएंगी, पर समझने वाले समझ चुके थे। ममता के साथ लोग थे, लिहाजा कांग्रेस ममता के आगे मजबूर थी। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष सीताराम केसरी ने कहा था- 'ममता मेरी बेटी की तरह हैं। उनको कांग्रेस से निकालने पर फायदा सीपीएम को ही होगा। वो भी उन्हीं ताकतों के खिलाफ लड़ रही हैं, जिनके खिलाफ मैं लड़ रहा हूं। वो जब भी मेरे पास आएंगी और किसी भी पद के लिए कहेंगी, मैं उन्हें दूंगा.' इस बीच सीताराम केसरी ने 29 नवंबर, 1997 को इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद कई कांग्रेसी नेता भी केसरी से खफा हो गए। तब खुद प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि सीताराम केसरी खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। केसरी से नाराज नेताओं ने सोनिया गांधी से कहा कि वो कांग्रेस का नेतृत्व करें और कांग्रेस में 'सोनिया लाओ, देश बचाओ' का नारा गूंजने लगा। इस बीच ममता बनर्जी ने नारा दिया, ,केसरी भगाओ, कांग्रेस बचाओ'। कहते है ममता बनर्जी खुलकर सोनिया गांधी के साथ खड़ी हो गईं। इस बीच 12 दिसंबर, 1997 को सोनिया ने ममता को दिल्ली बुलाया। कहते है ममता ने उनसे कहा कि उन्हें पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में लेना चाहिए, पर तब सोनिया ने खुद को विदेशी मूल का बताकर नेतृत्व से इन्कार कर दिया। तब सोनिया ने ममता और सोमेन मित्रा दोनों से कहा कि वो मिलकर बंगाल के लिए काम करें। उधर, ममता को उम्मीद थी कि सोनिया के हस्तक्षेप से चीजें उनके पक्ष में हो जाएंगी। सोनिया भी चाहती थी कि ममता कांग्रेस से अलग हो। इसके लिए सोनिया ने एआईसीसी के महासचिव ऑस्कर फर्नांडीज से एक नोट तैयार करने को कहा, जो पश्चिम बंगाल के प्रभारी भी थे। कहते है ऑस्कर फर्नांडीज ने नोट तैयार किया, लेकिन उन्होंने ममता से मुलाकात नहीं की। ममता उग्र हो गई और उन्होंने आरोप लगाया कि प्रणब मुखर्जी, प्रियरंजन दास मुंशी और सोमेन मित्रा ने ऑस्कर फर्नांडिस को इतना उलझा दिया कि ऑस्कर ममता से मिल ही नहीं सके। ममता ने मन बना लिया था की वो अपनी पार्टी बनाएगी। निर्वाचन आयोग से मुलाकात का वक्त भी तय कर लिया। तभी कांग्रेस से आश्वासन मिला कि वे अपनी मुलाकात को रद्द कर दें और अगले 24 घंटे इंतजार करें। ममता मान गईं और वे खुद निर्वाचन आयोग नहीं गई लेकिन उन्होंने दूसरे नेताओं के हाथ नई पार्टी बनाने के लिए ज़रूरी दस्तावेज निर्वाचन आयोग को भिजवा दिए थे। कहते है इस बात की जानकारी सिर्फ तीन लोगों को थी, खुद ममता बनर्जी, मुकुल रॉय और रतन मुखर्जी। फिर ममता और सोनिया की मुलाकात हुई और तय हुआ कि ममता बनर्जी बंगाल की चुनाव प्रभारी बनेंगी। कहते है इसके तहत ममता को आगामी लोकसभा चुनाव की जिम्मेदारी मिलनी थी और साथ ही लोकसभा की 42 में से 21 सीटों पर ममता अपनी पसंद के उम्मीदवार उतार सकती थीं। 19 दिसंबर की रात सोनिया गांधी ने ममता से मुलाकात की और आश्वासन के बाद ममता बनर्जी 20 दिसंबर को दिल्ली से कोलकाता के लिए निकल गईं। 21 दिसंबर को हैदराबाद में सीताराम केसरी ने घोषणा की कि ममता बनर्जी इलेक्शन कैंपेन कमिटी की कन्वेनर होंगी लेकिन वो सिर्फ प्रचार का काम देखेंगी। प्रत्याशियों के चयन में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। इसके बाद 22 दिसंबर को ममता बनर्जी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और घोषणा की कि वो और उनके समर्थक ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ेंगे। प्रेस कॉन्फ्रेंस खत्म भी नहीं हुई थी और खबर आई कि उन्हें कांग्रेस से छह साल के लिए बाहर कर दिया गया है। कांग्रेस के लोगों को लगा था कि ममता पार्टी नहीं बना पाई हैं और वो कांग्रेस के झांसे में आकर पार्टी बनाने से चूक गई हैं, लेकिन ऐसा नहीं था। पार्टी बन चुकी थी। बात जब सिंबल की आई तो निर्वाचन आयोग में बैठे-बैठे ममता ने कागज पर जोड़ा घास फूल बना दिया और इस तरह से 1 जनवरी, 1998 को नई पार्टी अस्तित्व में आई जिसका नाम हुआ ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस। राजीव का सम्मान, पर बेटे राहुल से दूरी ! कभी गांधी परिवार से ममता बनर्जी की खूब करीबी थी। ममता, सोनिया गांधी को साड़ी गिफ्ट किया करती थी। ये रिश्ते पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय से थे। दरअसल राजीव ने ही ममता को संसद की चौखट तक पहुंचाया। लेफ्ट के कार्यकर्ताओं से भिड़ंत में जब 1991 में उन्हें चोट आई तो राजीव ने ही उनके इलाज का खर्च उठाया। ममता भी सार्वजनिक तौर पर इस बात को स्वीकार करती है। फिर बीते कुछ सालों में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस की दूरियां इतनी कैसे बढ़ गईं, ये अहम सवाल है। ममता बनर्जी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मुरीद थी। उन्होंने राजीव को 'दिलों को जीतने वाला नेता' बताया था। यही नहीं जब उन्हें राजीव गांधी की हत्या की खबर मिली तो वह एक हफ्ते तक बंद कमरे में रोती रही थी। आत्मकथा में ममता बनर्जी लिखती हैं, 'मैं एक बार फिर पूरी तरह अनाथ हो गई थी, मेरे पिता की मौत के बाद यह दूसरी बार था। मैं खुद को एक कमरे में बंद रखती थी और रोती रहती थी।' ममता कहती हैं कि राजीव की मौत के इतने साल बाद भी वह उनकी मौजूदगी महसूस करती हैं। ममता ने अपनी आत्मकथा में लिखा, 'पूर्व प्रधानमंत्री और उनके परिवार के लिए उनके मन में हमेशा प्रबल भावनाएं हैं।' बावजूद इसके ममता भला राहुल पर आक्रमक क्यों है, ये समझना जरूरी है। दरअसल राहुल का झुकाव वाम दलों की तरफ रहा है और ये ही ममता से कांग्रेस की दूरी बढ़ने की सबसे बड़ी और पहली वजह है। राहुल खुलकर सीताराम येचुरी को अपना मार्गदर्शक बताते हैं। लेफ्ट को पसंद करने वाला कोई भी हो , वो टीएमसी का भी दुश्मन है। ममता इसके साथ कोई समझौता नहीं कर सकती हैं। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने वाम दलों के गठबंधन में शामिल होकर ममता के खिलाफ चुनाव लड़ा था। ऐसे में ममता भला कांग्रेस के साथ कैसे जाएँ ? वहीँ बंगाल में कांग्रेस के मुख्य फेस अधीर रंजन चौधरी को ममता का आलोचक माना जाता है। माना जाता है वो अधीर ही थे जिन्होंने सबसे पहले बंगाल चुनाव में राहुल गांधी को लेफ्ट के साथ गठजोड़ की सलाह दी थी। ये भी ममता की नाराजगी की वजह है।
एनसीपी के 25 वीन स्थापना दिवस दिवस पर जो हुआ वो पार्टी के इतिहास में दर्ज हो गया । कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करने को शरद पवार माइक पकड़ते है और चंद मिनटों में महाराष्ट्र की राजनीति में उफान आ जाता है। दरअसल शरद पवार पार्टी के दो कार्यकारी अध्यक्षों की घोषणा की गई - बेटी सुप्रिया सुले और छगन भुजबल। कोई जिम्मा देना तो दूर पुरे भाषण में एनसीपी के नंबर दो माने जाने वाले भतीजे अजित पवार का जिक्र तक नहीं करते। ये है शरद पवार और उनकी राजनीति का तरीका। पवार ने एक तीर से दो निशाने लगाने का काम किया है। शरद पवार ने अजित पवार को स्पष्ट संदेश दे दिया है कि एनसीपी में अब उनकी कोई ख़ास जगह नहीं बची है। दूसरा बेटी सुप्रिया सुले एनसीपी चीफ की अगली उत्तराधिकारी होगी, ये भी लगभग तय हो गया है। फिलहाल, अजित पवार के पास महाराष्ट्र विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी है। एनसीपी में दो कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने की खबर के बाद अजित पवार और उनके समर्थकों का क्या रुख रहता है, ये देखना दिलचस्प होगा। अजित अब एनसीपी में हाशिये पर है और आगे उनके पास अलग राह पकड़ना ही एक मात्र विकल्प दिख रहा है। अजित पवार खुद को कभी शरद पवार के उत्तराधिकारी के तौर पर देखते थे। हालांकि, पिछले कुछ समय से दोनों के बीच सब कुछ ठीक नहीं होने की खबरें आ रही थीं। बता दें कि अजित ने 2019 में भाजपा के साथ हाथ मिलाया था और देवेंद्र फडणवीस के साथ सुबह-सुबह शपथ ग्रहण समारोह में उपमुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। पर चाचा शरद पवार के सियासी तिलिस्म के आगे अजित के अरमान दो दिन में ढह गए थे। अजित को वापस लौटकर चाचा की शरण में आना पड़ा था और इसके बाद एनसीपी -कांग्रेस और शिवसेना गठबंधन की सरकार बनी। शरद पवार के मन में कुछ चल रहा है इसके संकेत पिछले महीने ही मिल गए थे जब उन्होंने पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ दिया था। तब उनके अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद जो भूचाल आया था, वह उनके इस्तीफा वापस लेने के बाद ही थमा था। ये एक तरह से सन्देश था कि शरद पवार ही एनसीपी है। माहिर मानते है कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि पार्टी में उनकी कुव्वत और पकड़ को लेकर किसी कोई शक ओ शुबा न रहे। दिलचस्प बात ये भी है कि शरद पवार के इस्तीफे के बाद अजित पवार ही एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने शरद पवार के इस्तीफे का समर्थन किया था और पार्टी के अन्य नेताओं को इसका सम्मान करने को कहा था। पर अजित के अरमान पुरे नहीं हुए और शरद पवार ने इस्तीफा वापस ले लिया। इसके बाद अजित पवार के भाजपा में शामिल होने की अटकलें लग रही थीं, हालांकि, अजित ने इन अटकलों को सिरे से खारिज करते रहे है। बहरहाल पिछले डेढ़ महीने में जिस तरह से एनसीपी में सब घटा है उससे ये तय है कि शरद पवार को सियासत का चाणक्य क्यों कहा जाता है।
NCP में शनिवार को बड़ा बदलाव किया गया। पार्टी प्रमुख शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल को नया कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया। शरद पवार के भतीजे अजीत पवार को कोई जिम्मेदारी नहीं दी गई है। शरद पवार ने यह ऐलान पार्टी के 25वें स्थापना दिवस पर किया। सुप्रिया को कार्यकारी अध्यक्ष के अलावा महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब राज्य का प्रभारी भी बनाया गया है। वहीं प्रफुल्ल पटेल को मध्य प्रदेश, राजस्थान और गोवा की जिम्मेदारी दी गई है। NCP नेता छगन भुजबल ने कहा, सुप्रिया सुले और प्रफुल्ल पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया है ताकि चुनाव का काम और राज्यसभा और लोकसभा का काम बांटा जा सके। चुनाव नजदीक होने के कारण उनके कंधों पर ज्यादा जिम्मेदारी सौंपी गई है। यह 2024 के लोकसभा चुनाव के काम को संभालने के लिए है। पवार ने छोड़ा था अध्यक्ष, 4 दिन बाद वापस लिया था फैसला इससे पहले 2 मई को NCP का अध्यक्ष पद छोड़ने वाले शरद पवार ने 4 दिन में ही अपना इस्तीफा वापस ले लिया था। उन्होंने 6 मई को प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, 'मैं पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं की भावनाओं का अपमान नहीं कर सकता। मैं कोर कमेटी में लिए गए फैसले का सम्मान करता हूं और अपना फैसला वापस लेता हूं। '
* हिमाचल और कर्नाटक से भाजपा को सबक लेने की जरुरत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में एक एडिटोरियल छपा है, इसे लिखा है प्रफुल्ल केतकर ने। ये कर्नाटक चुनाव नतीजों का विश्लेषण है और एक किस्म से 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर भाजपा को नसीहत भी। संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में बीजेपी से कहा गया कि है उसे आत्ममंथन की जरूरत है। पार्टी का बिना मजबूत आधार और क्षेत्रीय लीडरशिप के चुनाव जीतना आसान नहीं है। इसमें साफ़ लिखा गया है कि सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा और हिंदुत्व विचारधारा 2024 का रण जीतने के लिए काफी नहीं है। आगे इसमें कहा गया है कि विचारधारा और केंद्रीय नेतृत्व बीजेपी के सकारात्मक पहलू हो सकते हैं, पर ये भाजपा के लिए आत्ममंथन करने का वक्त है। एडिटोरियल में लिखा कि पीएम मोदी के सत्ता में आने के बाद ये पहली बार हुआ जब कर्नाटक चुनाव में बीजेपी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बचाव की मुद्रा में थी। बीते 6 महीनों में भाजपा सरकारों की दो राज्यों से विदाई हो चुकी है, दिसंबर में हिमाचल प्रदेश में सत्ता गवाईं और मई में कर्नाटक भी हाथ से गया। इन दोनों राज्यों में मिली हार का बड़ा कारण भाजपा का कमजोर स्थानीय नेतृत्व माना जा रहा है। भाजपा ने दोनों राज्यों में पीएम मोदी और केंद्र के मुद्दों पर चुनाव लड़ने की गलती करी, लेकिन जनता ने वोट स्थानीय मुद्दों और लीडरशिप पर दिया। नतीजन, भाजपा को हार मिली। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव से करीब एक साल पहले हुए चार उपचुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ़ हुआ था। बावजूद इसके भाजपा ने न तो सरकार में बैठे चेहरे बदले और न संगठन में बदलाव किया। विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी के धुआंधार प्रचार के बावजूद भाजपा हारी। जयराम सरकार के कई मंत्रियों के खिलाफ एंटी इंकम्बैंसी थी लेकिन भाजपा ने सबको मैदान में उतारा। एक मंत्री खुद इच्छुक नहीं थे तो उनके बेटे को मैदान में उतार दिया। इनमें से अधिकांश हार गए। अब 2024 के लोकसभा चुनाव में अगर भाजपा को बेहतर करना है तो हिमाचल से सबक लेकर कई चेहरे बदलने होंगे। वहीँ कर्नाटक चुनाव में भाजपा ने स्थानीय मुद्दों पर राष्ट्रीय मुद्दों को तरजीह दी। भ्रष्टाचार पर भी भाजपा बैकफुट पर दिखी। निसंदेह 2024 का चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जायेगा और पीएम मोदी ही फेस होंगे, लेकिन दो टर्म की एंटी इंकम्बैंसी भी भाजपा के खाते में होगी। ऐसे में स्थानीय नेतृत्व का मजबूत होना बेहद जरूरी होने वाला है। बेशक चुनाव लोकसभा का होगा लेकिन पूरी तरह स्थानीय मुद्दों को दरकिनार करना भाजपा को भारी पड़ सकता है। मौजूदा सांसदों का रिपोर्ट कार्ड देखकर ही भाजपा को प्रत्याशी तय करने होंगे। बहरहाल मोदी राज में पहली बार संघ के मुखपत्र में भाजपा को इस तरह नसीहत दी गई है। 2024 के लोकसभा चुनाव अगर समय पर होते है तो पार्टी को उससे पहले पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव लड़ने है। भाजपा को सुनिश्चित करना होगा कि हिमाचल और कर्नाटक की गलतियां न दोहराई जाएँ, विशेषकर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में। वहीँ पार्टी को अपनी चुनावी रणनीति पर भी फिर मंथन करने की जरुरत है।
सियासत में नारों का अहम किरदार होता हैं। कुछ नारे इतने बुलंद हो जाते हैं कि उनकी सहारे चुनाव लड़े भी जाते हैं और जीते भी। ये नारे अगर चल जाएँ तो हवा भी बदलते हैं और कार्यकर्ताओं को जोश से लबरेज भी करते है। नारों से ही राजनैतिक दलों की विचारधारा और मुद्दों का भी पता चलता है। आजादी के बाद से अब तक कई ऐसे नारे हैं जिन्होंने हिंदुस्तान की राजनीति में चाप छोड़ी हैं। कई नारे बेहद सफल रहे तो कई पूरी तरह विफल। आपको बताते हैं ऐसी ही चुनिंदा दस नारों के बारे में... "वाह रे नेहरू तेरी मौज, घर में हमला बाहर फौज" चीन युद्ध के बाद 1962 में तीसरे लोकसभा चुनाव में जनसंघ ने ये नारा दिया था। हालांकि कांग्रेस फिर सत्ता पर काबिज हुई। "गरीबी हटाओ" 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे को भुनाया था। इंदिरा को जबरदस्त समर्थन मिला और उन्होंने सत्ता में शानदार वापसी की। "इंदिरा हटाओ, देश बचाओ" जनता पार्टी ने आपातकाल में इंदिरा गाँधी के खिलाफ ये नारा दिया था। तब कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हुआ और खुद इंदिरा गाँधी भी चुनाव हार गई। "सबको देखा बारी-बारी, अबकी बार अटल बिहारी" 1998 में ये भाजपा का नारा था और भाजपा सबसे बड़ा दल बनी। चुनाव के बाद अटल बिहारी वाजपेयी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने। "इंडिया शाइनिंग" 2004 में लोकसभा चुनाव में ये भाजपा का नारा था। अटल जीत को लेकर आश्वस्त थे और केंद्र ने समय से पहले चुनाव करवा दिए। किन्तु जनादेश उलट आया। "कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ" 2004 में लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस का मुख्य नारा था। ये भाजपा के "इंडिया शाइनिंग" पर भारी पड़ा। "हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है" 2007 में उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने ये नारा दिया था। पहली बार बसपा को सवर्ण वोट भी मिले और मायावती सत्ता में लौटी। "अच्छे दिन आने वाले हैं" 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने ये नारा दिया था और इसका भरपूर असर दिखा। "हर हर मोदी, घर घर मोदी" 2014 के ही लोकसभा चुनाव में भाजपा ने ये नारा भी दिया था। नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता चरम पर थी और ये नारा बच्चे -बच्चे की जुबान पर। "चौकीदार चोर हैं" 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस ने ये नारा दिया था , लेकिन ये उल्टा पड़ा। चुनाव में कांग्रेस का सफाया हो गया और इस नारे को देने वाले राहुल गाँधी खुद अमेठी सीट से चुनाव हार गए।
**वर्तमान में सिर्फ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी है पद पर काबिज देश की राजनीति में महिलाओं ने भी अपना वर्चस्व दिखाया है। एक दौर में 'आयरन लेडी' इंदिरा गांधी न सिर्फ देश की सियासत का मुख्य चेहरा थी बल्कि प्रधानमंत्री रहते उनका लोहा पूरी दुनिया ने माना। सोनिया गांधी लम्बे वक्त तक कांग्रेस की कमान संभालती रही है। वहीँ वर्तमान में निर्मला सीतारमण देश की वित्त मंत्री है। देश को बेशक अब तक सिर्फ एक महिला प्रधानमंत्री मिली हो, लेकिन सैकड़ों नाम ऐसे है जो अन्य महत्पूर्ण पदों पर रहे। वहीँ कई महिलाएं ऐसी है जिन्होंने बतौर मुख्यमंत्री अपने राज्यों की कमान संभाली है। वर्तमान में ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री है और देश की सियासत का दमदार चेहरा। देश की सियासी अतीत पर निगाह डाले तो आजादी के बाद से अब तक भारत में कुल 16 महिला मुख्यमंत्री हुई हैं जिनमें शीला दीक्षित, राबड़ी देवी, जयललिता और सुषमा स्वराज जैसे नाम शामिल हैं। अब तक13 राज्यों को महिला मुख्यमंत्री मिल चुकी है जिनमें जम्मू व कश्मीर भी शामिलहै, जो अब केंद्र शासित प्रदेश है। वहीं उत्तर प्रदेश, दिल्ली व तमिलनाडु को दो - दो महिला मुख्यमंत्री मिली है। मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने वाली महिलाओं की बात करें तो इनमें से अधिकांश ऐसी है जो राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले परिवारों से आती है। ममता बनर्जी, सुषमा स्वराजऔर मायावती जैसे उदाहरण बेहद कम है। करीब दो दशक पहले एक के बाद एक लगातार कई राज्यों में महिला मुख्यमंत्रियों का आना एक शुभ संकेत था, तब शीला दीक्षित, मायावती, जयललिता, वसुंधरा राजे जैसी कई महिलाएं एक ही वक्त पर राज्यों की कमान संभाल रही थी। पर वर्तमान में ममता बनर्जी इकलौती ऐसी महिला है जो किसी राज्य की मुख्यमंत्री है। सुचेता कृपलानी : देश की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी वो पहली महिला थी जो भारत के किसी राज्य की मुख्यमंत्री बनी। 1963 में सुचेता को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था। 25, जून, 1908 में पंजाब के अंबाला में एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्मी सुचेता कृपलानी ने एक लेक्चरर के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की थी। सुचेता के पति आचार्य कृपलानी एक समाजवादी थे। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान ही सुचेता 1939 में नौकरी छोड़कर राजनीति में आईं थी। सुचेता उन चंद महिलाओं में शामिल थी जिन्होंने बापू के करीब रहकर देश की आज़ादी की नींव रखी थी। मुख्यमंत्री बनने से पहले वह लगातार दो बार लोकसभा के लिए चुनी गईं इसके अलावा 1946 में वह संविधान सभा की सदस्य भी चुनी गई थी। 1948 से 1960 तक वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की महासचिव थीं। उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद की मेंहदावल विधानसभा सीट से वर्ष 1962 में सुचेता कृपलानी ने कांग्रेस से चुनाव लड़ा था। यहीं से जीत कर वह विधानसभा में पहुंची तो उन्हें श्रम सामुदायिक विकास और उद्योग विभाग का कैबिनेट मंत्री बनाया गया था। उस समय मुख्यमंत्री के रूप में चंद्रभान गुप्ता की ताजपोशी हुई थी। पर एक राजनीतिक घटनाक्रम में मुख्यमंत्री पद से चंद्रभान गुप्ता को त्याग पत्र देना पड़ा इसके बाद सुचेता कृपलानी को सीएम चुना गया था। 1971 में सुचेता कृपलानी ने राजनीति से संन्यास ले लिया। संन्यास लेने के बाद वह अपने पति के साथ दिल्ली में ही रहने लगीं और अपनी समस्त चल अचल संपत्ति संसाधन लोक कल्याण समिति को दान कर दी। वर्ष 1974 में 70 वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। आज भी स्वच्छ राजनीति की जब बात होती है तो सुचेता कृपलानी का नाम लिया जाता है। नंदिनी सत्पथी : दो बार बनी उड़ीसा की मुख्यमंत्री नंदिनी सत्पथी का जन्म 9 जून, 1931 को उड़ीसा के कटक जिले में हुआ था। नंदिनी के पिता का नाम कालिंदी चरण पाणिग्रही था। भारत की प्रसिद्ध महिला राजनीतिज्ञ के साथ वह एक लेखिका भी थीं। 1939 में आठ वर्ष की उम्र में उन्हें यूनियन जैक को खींच कर उतारने और साथ ही कटक की दीवारों पर ब्रिटिश विरोधी पोस्टरों को हाथ से चिपकाने के लिए भी ब्रिटिश पुलिस द्वारा बेरहमी से पीटा गया था। नंदिनी स्नातोकत्तर करते हुए ही छात्र राजनीति से जुड़ गयी थी। 1972 में उन्हें उड़ीसा राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया। इसके बाद 1974 में वह फिर राज्य की मुखिया बनीं। 4 अगस्त 2006 को 75 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई। शशिकला काकोडकर : दो बार संभाली गोवा की कमान शशिकला काकोडकर का जन्म 7 जनवरी 1935 को पेरूम हुआ था। शशिकला काकोडकर के पिता का नाम दयानंद बंडोडकर था। दयानंद बंडोडकर गोवा के पहले मुख्यमंत्री थे। शशिकला अपने पिता दयानंद बंधोडकर के निधन के बाद 1973 में मुख्यमंत्री बनी थी, तब गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिला था। 1977 में वे दूसरी बार गोवा की मुख्यमंत्री बनी और 1979 तक मुख्यमंत्री रही। फिर 1979 में अपनी पार्टी के भीतर एक विभाजन के कारण इस पद से अपदस्थ हुई। 28 अक्टूबर 2016 में 81 वर्ष की आयु में शशिकला काकोडकर का निधन हुआ। सैयदा अनवरा तैमूर : देश की पहली मुस्लिम महिला मुख्यमंत्री सैयदा अनवरा तैमूर का जन्म 24 नवम्बर 1936 में हुआ था। सैयदा अनवरा तैमूर दिसंबर 1980 से लेकर जून 1981 तक असम की मुख्यमंत्री रही थी। सैयदा अनवरा तैमूर देश की पहली मुस्लिम महिला मुख्यमंत्री रही है। वह 1972, 1978, 1983 और 1991 में चार बार विधायक रह चुकी थी। इसके साथ ही 1988 में राज्यसभा की सदस्य भी थी। साल 2011 में कांग्रेस का साथ छोड़कर वह ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) में शामिल हो गई थीं। 28 सितम्बर 2020 को 84 वर्ष की आयु में सैयदा अनवरा तैमूर की मृत्यु हुई। जानकी रामचंद्रन : वो 23 दिन तक संभाली तमिलनाडु की कमान तमिलनाडु के राजनीतिक इतिहास में चार फ़िल्मी सितारे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे है जिनमे जानकी रामचंद्रन भी शामिल है। जानकी रामचंद्रन का जन्म 30 नवंबर 1923 को हुआ था और अपने फिल्मी करियर में उन्होंने 25 से ज्यादा फिल्मों में किरदार निभाया था। जानकी रामचंद्रन के दूसरे पति एमजी रामचंद्रन थे। एनजीआर और जानकी रामचंद्रन ने कई फिल्मों में साथ अभिनय भी किया। जानकी एमजीआर के सहारे राजनीति में आई और एनजीआर के निधन के बाद जानकी तमिलनाडु की मुख्यमंत्री भी बनी। 7 जनवरी 1988 से 30 जनवरी 1988 तक जानकी एआईएडीएमके से राज्य की पहली महिला सीएम बनी। हालांकि उनका कार्यकाल महज 23 दिनों का ही था।19 मई 1996 को उनका निधन हो गया था। जयललिता : कई बार तमिलनाडु की सीएम बनी जयललिता जयललिता का जन्म 24 फरवरी 1948 को एक 'अय्यर ब्राह्मण' परिवार में, मैसूर राज्य के मेलुरकोट गांव में हुआ था। 1982 में उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की।1984 से 1989 के दौरान तमिलनाडु से राज्यसभा के लिए राज्य का प्रतिनिधित्व किया।1991 से 1996, 2001, 2002 से 2006 तक और 2011 से 2014 तक जयललिता तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं। जयललिता राज्य की पहली निर्वाचित मुख्यमंत्री और राज्य की सबसे कम उम्र की मुख्यमंत्री रहीं। राजनीति में आने से पहले जयललिता अभिनेत्री थी और उन्होंने तमिल के अलावा तेलुगू, कन्नड़, हिंदी तथा एक अँग्रेजी फिल्म में भी काम किया। राजनीति में उनके समर्थक उन्हें अम्मा और पुरातची तलाईवी ('क्रांतिकारी नेता') कहकर बुलाते थे। 5 दिसम्बर 2016 को 68 वर्ष की आयु में जयललिता जयराम का निधन हुआ। मायावती : चार बार बनी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का जन्म 15 जनवरी 1956 को नई दिल्ली में ही हुआ। इनका पूरा नाम मायावती प्रभु दास है। इनके माता-पिता का नाम रामरती तथा प्रभु दयाल था। मायावती बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष है। दलित नेता मायावती को उत्तर प्रदेश की दूसरी महिला मुख्यमंत्री बनने का गौरव मिला। मुलायम सिंह यादव की सरकार के पतन के बाद 3 जून 1995 को मायावती भाजपा के सहयोग से उत्तर प्रदेश की दूसरी महिला मुख्यमंत्री बनीं।1995, 1997, 2002 और 2012 में मायावती ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की बागड़ोर संभाली है। राजनीति में आने से पहले मायावती एक शिक्षक थी। आज भी मायावती सक्रीय राजनीति में है और देश में दलित राजनीति का बड़ा चेहरा है। राजिंदर कौर भट्टल : पंजाब की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री राजिंदर कौर भट्टल एक भारतीय राजनीतिज्ञ और कांग्रेस की सदस्य हैं। राजिंदर कौर पंजाब की पूर्व मुख्यमंत्री और पंजाब में मुख्यमंत्री का पद संभालने वाली प्रथम और एकमात्र महिला हैं। राजिंदर कौर भट्टल का जन्म 30 सितंबर 1945 को अविभाजित पंजाब में लाहौर में हुआ था। उनके पिता का नाम हीरा सिंह भट्टल था। 1996 से फरवरी 1997 तक हरचरण सिंह बराड़ के इस्तीफा देने के बाद राजिंदर कौर ने मुख्यमंत्री का पद ग्रहण किया। 1992 के बाद से वह लगातार पांच बार लेहरा विधानसभा क्षेत्र से विधायक रही। राबड़ी देवी : पति जेल गए तो मुख्यमंत्री बन गई राबड़ी देवी ने राष्ट्रीय जनता दल के सदस्य के रूप में तीन बार बिहार की मुख्यमंत्री का पदभार संभाला है। वह एक पारंपरिक गृहिणी हैं। मुख्यमंत्री के तौर पर उनका पहला कार्यकाल केवल दो वर्ष का ही रहा लेकिन दूसरा कार्यकाल पुरे पांच वर्षों का रहा। राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री बनने की कहानी बेहद दिलचस्प है। जुलाई 1997 में चारा घोटाले मामले में उनके पति और बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हो गई, और तय हो गया कि लालू यादव को जेल जाना पड़ेगा व साथ ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भी देना पड़ेगा। यहीं से पटकथा लिखी गई बिहार के पहले महिला मुख्यमंत्री की। तारीख थी 25 जुलाई 1997 और लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। सुषमा स्वराज : भाजपा की पहली महिला मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज दिल्ली की पहली मुख्यमंत्री रही है। 1998 में जब अंदरूनी खींचतान के चलते भाजपा को लगा की दिल्ली में सरकार खतरे में है, तो भाजपा ने सरकार बचाने के लिए सुषमा स्वराज को दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री बनाया। पर प्याज संकट के कारण भाजपा विधानसभा चुनाव हार गई। तब बढ़ते प्याज के दाम दिल्ली चुनाव में बड़ा मुद्दा थे और उसी के चलते भजपा को हार का सामना करना पड़ा। बाद में जब पार्टी विधानसभा चुनावों में पार्टी हार गई तो सुषमा स्वराज राष्ट्रीय राजनीति में लौट आईं। सुषमा स्वराज के नाम कई अन्य विशेषताएं भी जुड़ी है। वे किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल की पहली महिला प्रवक्ता, भाजपा की पहली महिला मुख्यमंत्री, पहली केन्द्रीय कैबिनेट मंत्री, महासचिव, प्रवक्ता और नेता प्रतिपक्ष रही हैं। 67 साल की उम्र में अगस्त 2019 में उनका निधन हो गया। शीला दीक्षित : तीन बार रही दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित लगातार तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी। शीला दीक्षित का जन्म 31 मार्च 1938 को पंजाब के कपूरथला नगर में एक पंजाबी खत्री परिवार में हुआ था। बतौर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का दिल्ली में एक लंबा कार्यकाल रहा है। 1998 से 2013 तक लगातार 15 सालों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रही।1984 से 1989 तक शीला दीक्षित ने उत्तर प्रदेश की कन्नौज लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व भी किया था। 2014 में उन्हें केरल का राज्यपाल बनाया गया था लेकिन 2014 में उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया था। 20 जुलाई 2019 को राजनीति की लंबी पारी खेलने वाली शीला दीक्षित का दिल्ली में निधन हुआ था। उमा भारती : गिरफ्तारी वारंट जारी होने के बाद देना पड़ा इस्तीफा उमा भारती का जन्म 3 मई 1959 को एक लोधी राजपूत परिवार में हुआ। उमा भारती एक भारतीय नेता है और पूर्व में भारत की जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्री थी। उमा भारती मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री भी रह चुकी है। उमा भारती मध्य प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं। 2003 में उनके नेतृत्व में भाजपा ने चुनाव लड़ा और तीन-चौथाई बहुमत प्राप्त किया जिसके बाद वे मुख्यमंत्री बनीं। पर उनका कार्यकाल एक साल तक चला। हुबली दंगों के मामले में गिरफ्तारी वारंट जारी होने के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। वसुंधरा राजे : ग्वालियर राजघराने की ये बेटी बनी दो बार राजस्थान की सीएम वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री हैं। वसुंधरा राजे का जन्म 8 मार्च 1953 को मुंबई में हुआ। वसुंधरा राजे ने बतौर भाजपा की राष्ट्रीय सदस्य राजनीतिक पारी की शुरुआत की। 1985 में राजस्थान विधानसभा की सदस्य चुने जाने के बाद उन्हें भाजपा युवा मोर्चा, राजस्थान का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। पांच बार विधानसभा की सदस्य रही है। साथ ही पांच बार लोकसभा का चुनाव भी जीत चुकी हैं। वसुंधरा राजे दो बार मुख्यमंत्री रह चुकी है। वे 2003 से 2008 तक और 2013 से 2018 तक सीएम रही। वसुंधरा ग्वालियर राजघराने में जन्मी है और उनकी शादी धौलपुर राजघराने में हुई थी। वसुंधरा अब भी सक्रिय राजनीति में है। ममता बनर्जी : दीदी के आगे बंगाल में सब फेल ममता बनर्जी का जन्म 5 जनवरी 1955 में कोलकाता में हुआ था। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री और अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख हैं। 1984 में जाधवपुर से अपना पहला लोकसभा चुनाव जीतकर वे अपनी युवावस्था में कांग्रेस में शामिल हो गईं, उसी सीट को 1989 में उन्होंने खो दिया था और 1991 में फिर से जीत हासिल की। 2009 के आम चुनावों तक उन्होंने सीट को बरकरार रखा। इस बीच 1997 में उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की और केंद्र में दो बार रेल मंत्री बनीं। 2011 , 2016 व इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में वे प्रचंड बहुमत के साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री चुनी गईं। 2011 में उन्होंने दशकों पुराने वामपंथी शासन को बंगाल से उखाड़ फेंका था। पश्चिम बंगाल की राजनीति में ममता बनर्जी दीदी के नाम से प्रसिद्ध है। खास बात ये है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा ने ममता के खिलाफ पूरी ताकत झोंकी थी लेकिन उसे मुँह की खानी पड़ी। इस जीत के बाद ममता बनर्जी न सिर्फ बंगाल में बल्कि पुरे देश में विपक्ष का सबसे कद्दावर चेहरा बनकर उभरी है। महबूबा मुफ्ती : भाजपा के साथ मिलकर जम्मू कश्मीर में चलाई सरकार महबूबा मुफ़्ती का जन्म 22 मई 1959 को बिजबिहारा में हुआ। महबूबा मुफ्ती ने 1996 में विधानसभा चुनाव जीतकर राजनीति में कदम रखा। 2004 में अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र से संसद के निचले सदन के लिए चुने जाने से पहले लगातार दो बार कश्मीर के विधायक के रूप में कार्य किया। 2014 में फिर से वो सांसद बनीं। इसके बाद 2016 में अपने पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद वो जम्मू-कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी। उन्होंने दो साल तक सरकार चलाई, लेकिन 2018 में जब भाजपा ने समर्थन वापस लिया तो उनको इस्तीफा देना पड़ा। बहरहाल वर्तमान में जम्मू -कश्मीर एक केंद्र शासित प्रदेश है। धारा 370 हटाए जाने के बाद इसे केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था। अब तक यहां चुनाव नहीं हुए है। आनंदीबेन पटेल : मोदी पीएम बने तो आनंदीबेन सीएम बनी आनंदीबेन पटेल का जन्म गुजरात के मेहसाणा जिले के खरोद गांव में 21 नवम्बर 1941 को एक पाटीदार परिवार में हुआ था। उनका पूरा नाम आनंदीबेन जेठा भाई पटेल है। आनंदीबेन गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। वे वर्ष 2014 से 2016 तक गुजरात की मुख्यमंत्री रही। नरेंद्र मोदी जब देश के प्रधानमंत्री बने तो आनंदी बेन पटेल को गुजरात की सीएम का दायित्व सौंपा गया था। वर्तमान में वे उत्तर प्रदेश की राज्यपाल है और इससे पहले वे मध्य प्रदेश की राज्यपाल भी रह चुकी है। आनंदीबेन पटेल गुजरात की राजनीति में 'लौह महिला' के रूप में जानी जाती हैं।
राजीव गाँधी (20 अगस्त 1944 - 21 मई 1991) भारत के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के जीवन की कहानी किसी हिंदी नाटकीय फिल्म से कम नहीं रही। वैसे तो सत्य यह भी है कि राजनैतिक दुनिया किसी नाटक से कम नहीं। राजनीति में आने से पहले राजीव गाँधी इंडियन एयरलाइन्स में बतौर पायलट तैनात थे। राजीव की राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। पर पारिवारिक हालत और परिस्तिथि ऐसे बने कि राजीव कि न सिर्फ राजनीति में एंट्री हुई बल्कि वे देश के प्रधानमंत्री भी बन गए। दरअसल , इंदिरा गाँधी की राजनैतिक विरासत उनके छोटे पुत्र संजय गाँधी संभाल रहे थे। इंदिरा के बाद वे ही नंबर दो थे और ये तय था कि वे ही इंदिरा की राजनैतिक विरासत को संभालेंगे। पर पहले एक हादसे में संजय गाँधी का निधन हुआ और फिर 1984 में इंदिरा की हत्या कर दी गई। इंदिरा की हत्या के बाद सभी निगाहें राजीव गाँधी पर टिक गई। आखिरकार, हालात के चलते वे रातो-रात विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बन गए। विरासत में मिला कार्यकाल पूरा कर एक साल बाद फिर से चुनाव लड़ कर राजीव प्रचंड बहुमत से प्रधानमंत्री बने। राजीव का राजनैतिक कार्यकाल .... दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के सबसे युवा प्रधानमंत्री, राजीव पढ़े लिखे और सुलझे विचारों के थे, व जिस 21वीं सदी में हम रहते हैं, इसका सपना राजीव ने ही संजोया था। जानते है बतौर प्रधानमंत्री राजीव गाँधी द्वारा लिए गए उन तीन बड़े फैसलों के बारे में जिन्होंने हिंदुस्तान को एक नई दिशा दी। - राजीव भारत में कंप्यूटर क्रान्ति लेकर आये जिसके चलते, भारत में विकास की गति बढ़ी व लोगों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी आसान हुई। हालाँकि शुरूआती दौर में विपक्ष ने उनके इस निर्णय का जमकर विरोध किया, पर आगे चलकर पूरा हिंदुस्तान उन्ही के बताये रास्ते पर चला। आज की सरकारें भी डिजिटल इंडिया का नारा देती है जिसका आगाज़ बतौर प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने किया था। अगर राजीव नहीं होते तो भी कंप्यूटर क्रान्ति आती लेकिन शायद कुछ देर से। - देश में मतदान करनी की वेध आयु 21 वर्ष हुआ करती थी जिसे राजीव गाँधी ने घटाकर 18 वर्ष किया। - वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था भी राजीव गाँधी की सोच का ही नतीजा है। राजीव चाहते थे कि लोकतंत्र कि मजबूती के लिए सबसे निचले स्तर यानी पंचायत स्तर पर भी चुनाव हो। आगे चलकर पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में उनकी सोच को अमलीजामा पहनाया गया। दो बार प्रधानमंत्री रहे राजीव गाँधी 1989 में कांग्रेस के चुनाव हारने के बाद सत्ता से बाहर हुए। साल था 1991 का और दिन था 21 मई, राजीव गाँधी चेन्नई के पास श्रीपेरंबदूर में एक चुनावी रैली में पहुंचे थे। मगर मंच पर पहुंचने से पहले ही उन्हें एक सुसाइड बॉम्बर ने मार दिया। खबरों के मुताबिक राजीव गांधी के पास एक महिला उन्हें फूलों का हार पहनाने के लिए आती है और महिला जैसे ही राजीव गांधी के पांव छूने के लिए नीचे झुकती है, तभी वो अपनी कमर पर बांधे हुए विस्फोट से धमाका कर देती है। एक जानकारी के मुताबिक वहां मौजूद सिक्योरिटी वालों ने उस महिला को रोकने की कोशिश की थी लेकिन खुद राजीव गांधी इस महिला को उनके पास आने की इजाज़त दी थी। जांच में पता चला कि राजीव गांधी के कत्ल के पीछे लिट्टे ( LTTE ) का हाथ था, जो तमिल मिलीटेंट ग्रुप था। यह संगठन इतना ताकतवर था कि श्रीलंकाई सरकार इसके सामने बेबस थी। कहते है श्रीलंका से एक शांति समझौता करने से पहले राजीव गांधी ने भी LTTE के प्रमुख से बात की थी। इसी बीच राजीव गांधी को LTTE के खिलाफ कुछ एक्शन लेने पड़े, जिसकी वजह से LTTE ने इस घटना को अंजाम दिया। भारतीय राजनीति की सबसे खूबसूरत लव स्टोरी के नायक थे राजीव राजीव गाँधी की प्रेम कहानी एक खूबसूरत कल्पना की तरह शुरू हुई और एक दुखद मोड़ पर इसका अंत हुआ। राजीव जब इंग्लैंड में थे तो इटली की रहने वाली युवती, सोनिया मैनो को पहली नज़र में दिल दे बैठे। सोनिया, राजीव के ही कॉलेज में पढ़ती थी व राजीव ने उन्हें पहली बार कॉलेज की कैंटीन में देखा था। दोनों की जल्द ही दोस्ती हुई और दोस्ती एक खूबसूरत सपने की तरह प्यार में बदल गई। दोनो एक दूसरे को जीवन साथी के रूप में चुन चुके थे व जल्द ही अपने परिवारों को भी इसके बारे में बता दिया। कहते है कि मां इंदिरा चाहती थी कि राजीव की शादी बॉलीवुड के शोमैन राज कपूर की बेटी से हो। पर राजीव तो अपना दिल सोनिया को दे बैठे थे। राजीव के कहने पर इंदिरा, सोनिया से मिली व दोनों के फैसले का खुले मन से स्वागत किया। दोनों की शादी 1968 में हुई। राजीव से हुई इस पहली मुलाक़ात के बारे में सोनिया ने उनकी मृत्यु के बाद लिखे एक पत्र में कहा था " मैं भूल जाना चाहती हूँ उनका आखिरी चेहरा, और रेस्टोरेंट में हुई वो पहली मुलाक़ात, वो मुस्कान याद रखना चाहती हूँ।"
कभी वीरभद्र सिंह के हनुमान कहे जाने वाले हर्ष महाजन को अब हिमाचल भाजपा ने कोर ग्रुप का सदस्य मनोनीत किया हैं। विधानसभा चुनाव से पहले हर्ष महाजन भाजपाई हो गए थे। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा की मंजूरी के बाद भाजपा प्रदेशाध्यक्ष राजीव बिंदल ने हर्ष महाजन की नियुक्ति को लेकर आदेश जारी कर दिए हैं। हर्ष महाजन की इस तैनाती को पूरा चंबा जिला साधने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है। वहीँ चर्चा यह भी है कि कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से भाजपा हर्ष महाजन को लोकसभा प्रत्याशी भी बना सकती है। चंबा जिला के चार निर्वाचन क्षेत्र भी कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आते है। ऐसे में ये देखना रोचक होगा कि क्या भाजपा आगामी लोकसभा चुनाव में महाजन पर दांव खेलती है। बता दें कि हर्ष महाजन पिछले वर्ष हुए विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले तक प्रदेश कांग्रेस कमेटी के वर्किंग प्रेसिडेंट थे। पहले चुनाव से ठीक पहले उन्होंने सबको चौंकाते हुए भाजपा का दामन थाम लिया था। हालांकि भाजपा की सत्ता स्व विदाई हो गई और हर्ष महाजन भी कमोबेश दरकिनार से ही दिखे, अब उन्हें भाजपा कोर ग्रुप का सदस्य बनाया गया हैं। यानी अब भाजपा के अहम निर्णय लेने में उनकी भूमिका भी अहम होने वाली है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल वाजपेयी ने 1991 में कहा था, "अगर आज मैं जिंदा हूं तो राजीव गांधी की वजह से।" दरअसल भारतीय राजनीति में एक दौर ऐसा भी था जब विरोध के बावजूद नेता एक दूसरे का सम्मान करते थे, एक दूसरे की फ़िक्र करते थे, सहायता करते थे और उसका ढिंढोरा भी नहीं पिटते थे। मदद भी हो और सामने वाले का आत्मसम्मान भी बना रहे। ऐसे ही एक वाक्या है राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी से जुड़ा। जिस शालीनता के साथ राजीव गाँधी ने अटल बिहारी वाजपेयी की मदद की थी, उसकी मिसाल मुश्किल है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में कांग्रेस की आंधी थी और 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सामने विरोधी दल के बड़े बड़े बरगद उखड़ गये। अटल बिहारी वाजपेयी जो विपक्ष के सबसे लोकप्रिय नेता थे, वे खुद ग्वालियर से चुनाव हार गए। इस चुनाव में भाजपा के सिर्फ दो सांसद ही जीते थे। एक गुजरात से और दूसरे आंध्र प्रदेश से। पर इस हार से न तो अटल बिहारी वाजपेयी का कद कम हुआ और न ही और प्रधानमंत्री राजीव गांधी से उनके निजी रिश्तों पर कोई असर पड़ा। कुछ वक्त बाद अटल बिहारी वाजपेयी को किडनी संबंधी बीमारी से परेशान रहने लगी। बीमारी गंभीर थी और उस वक्त भारत में इसका उचित इलाज संभव न था। डॉक्टरों ने सलाह दी कि अमेरिका जा कर इलाज कराने की सलाह दी थी। पर अटल जी की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे अमेरिका जा कर अपना इलाज करवा ले। ये बात किसी तरह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मालूम हो गयी। एक दिन अटल उन्होंने बिहारी वाजपेयी को औपचारिक मुलाकात के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय आने के निमंत्रण दिया। वाजपेयी जी गये तो राजीव गांधी ने कहा, सरकार ने तय किया है कि आपके नेतृत्व में भारत का एक प्रतिनिधिमंडल संयुक्त राष्ट्र भेजा जाएँ। सरकार आपके अनुभव का फायदा उठाना चाहती है। इस सरकारी दौरे में आप अमेरिका में अपनी बीमारी का इलाज भी करा सकते हैं। इस तरह वाजपेयी अमेरिका गए और उन्होंने अपनी बीमारी का इलाज कराया, जिससे उनकी जान बच सकी। अपने जीवित रहते हुए राजीव गांधी ने कभी किसी दूसरे से इस मदद की चर्चा नहीं की। सब लोगों को ये ही लगा कि अटल जी बड़े नेता है और शानदार वक्ता भी , सो उनकी योग्यता के आधार पर संयुक्त राष्ट्र भेजा गया है। अटल जी भारत के वे पहले नेता थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दे कर देश का गौरव बढ़ाया था। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और अटल बिहारी वाजपेयी विपक्षी दल के नेता थे। भाजपा और कांग्रेस के बीच विरोध का रिश्ता था। राजीव गांधी चाहते तो वाजपेयी जी को मदद करने की बात सार्वजनिक कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अटल बिहारी वाजपेयी की जब तबीयत ठीक हो गयी तो उन्होंने एक पोस्टकार्ड लिख कर राजीव गांधी का आभार जताया था। ये राज शायद राज ही रह जाता, लेकिन 1991 में राजीव गांधी की हत्या ने अटल बिहारी वाजपेयी को विचलित कर दिया। तब उन्होंने राजीव गांधी की उदारता और विशिष्टता को बताने के लिए ये किस्सा बयां किया। राजनीति के दो परस्पर विरोधी, लेकिन दोनों एक दूसरे के प्रति उदार, दोनों के मन में एक दूसरे के लिए सम्मान, भारतीय राजनीति ने ऐसे नेता और ऐसा दौर भी देखा है।
अपमान और प्रतिशोध, यूपी में मायावती का राजनीतिक करियर भी लगभग जयललिता जैसा है। जयललिता 25 मार्च 1989 में सदन में हुई बदसलूकी के बाद 6 बार सीएम बनी, तो उत्तर प्रदेश में मायावती, 1993 में गेस्ट हाउस कांड के बाद दलितों की एकमात्र नेता बनकर उभरी। दरअसल, 1993 में सपा और बसपा की गठबंधन में सरकार बनने के बाद मुलायम सिंह सीएम थे। साल 1995 में जब बसपा ने गठबंधन से अपना नाता तोड़ा तो मुलायम सिंह के समर्थक आग बबूला हो गए। इसी बीच 2 जून को अचानक लखनऊ का गेस्ट हाउस घेर लिया गया जहां मायावती मौजूद थी। मायावती पर हमला हुआ, उन्हें जान से मारने की कोशिश हुई। इस बीच भाजपा ने बसपा को समर्थन देने का ऐलान किया और घटना के अगले ही दिन मायावती पहली दफा यूपी की सीएम कुर्सी पर विराजमान हुईं। 1993 में बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के लिए समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव और बीएसपी प्रमुख कांशीराम ने गठजोड़ किया था। तब उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश का हिस्सा था और कुल विधानसभा सीट थी 422। चुनाव पूर्व हुए गठबंधन में मुलायम सिंह 256 सीट पर लड़े और बीएसपी को 164 सीट दी थी। एसपी- बीएसपी गठबंधन की जीत हुई जिसमें एसपी को 109 और बीएसपी को 67 सीट मिली थी। मुलायम सिंह यादव बीएसपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बने, लेकिन आपसी मनमुटाव के चलते 2 जून, 1995 को बसपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। मुलायम सिंह की सरकार अल्पमत में आ गई और सरकार को बचाने के लिए जोड़-घटाव होने लगा लेकिन बात नहीं बनी। इसके बाद नाराज सपा के कार्यकर्ता और विधायक लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस पहुंच गए, जहां मायावती कमरा नंबर-1 में ठहरी हुई थी। तदोपरांत जो हुआ वह शायद ही कहीं हुआ होगा। मायावती पर गेस्ट हाउस में हमला हुआ था। उस वक्त मायावती अपने विधायकों के साथ बैठक कर रही थी, तभी कथित समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं की भीड़ ने अचानक गेस्ट हाउस पर हमला बोल दिया। बताया जाता है कि अपनी जान पर खेलकर बीजेपी विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी मौके पर पहुंचे और सपा विधायकों और समर्थकों को पीछे ढकेला। द्विवेदी की छवि भी दबंग नेता की थी। ब्रम्हदत्त द्विवेदी संघ के सेवक थे और उन्हें लाठी चलानी भी बखूबी आती थी इसलिए वो एक लाठी लेकर हथियारों से लैस गुंडों से भिड़ गए थे। ये कांड भारत की राजनीति के माथे पर कलंक है और यूपी की राजनीति में इसे गेस्ट हाउस कांड कहा जाता है। खुद मायावती ब्रम्हदत्त द्विवेदी को भाई कहती है और सार्वजनिक तौर पर कहती रही कि अपनी जान की परवाह किए बिना उन्होंने मायावती की जान बचाई थी। मायावती ने कभी उनके खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। पूरे राज्य में मायावती बीजेपी का विरोध करती रहीं, लेकिन फर्रुखाबाद में ब्रम्हदत्त द्विवेदी के लिए प्रचार करती थी।
देश की राजनीति में जब कोई नेता एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल होता है तो उसके लिए 'आया राम गया राम' वाले जुमले का इस्तेमाल होता है। राजनीति में इस कहावत की शुरुआत कैसे और कहां से हुई, इसका किस्सा भी बेहद रोचक है। कैसे दलबदलू नेताओं के लिए इस जुमले का इस्तेमाल होने लगा? इसका जवाब हरियाणा की राजनीति में छुपा है। साल था 1967 का और इस कहानी के मुख्य किरदार थे, उस समय के विधायक गया लाल। गया लाल हरियाणा के हसनपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक थे। गया लाल निर्दलीय विधायक चुनकर आए थे। 1967 में हरियाणा विधानसभा के लिए पहली बार चुनाव हुआ था और कुल 16 निर्दलीय विधायक जीतकर आए थे जिनमें गया लाल भी एक थे। उस समय हरियाणा विधानसभा में 81 सीटें थी।चुनाव नतीजे आने के बाद हरियाणा में तेजी से राजनीतिक घटनाक्रम बदले और गया लाल कांग्रेस में शामिल हो गए, लेकिन बाद में वे संय़ुक्त मोर्चा में वापस आ गए। नौ घंटे बाद उनका मन फिर बदला और गया लाल फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए। यानी गया लाल ने एक ही दिन में 3 बार अपनी पार्टी बदली थी। बाद में कांग्रेस नेता राव बीरेंद्र सिंह जब विधायक गया लाल को लेकर प्रेस वार्ता करने के लिए चंडीगढ़ पहुंचे तो उन्होंने पत्रकारों के सामने कहा कि ‘गया राम अब आया राम हैं।’ राव बीरेंद्र सिंह के इस बयान ने बाद में ‘आया राम गया राम’ कहावत का रूप ले लिया और देशभर में जब भी नेताओं के दल बदल की खबरें आई तो इसी कहावत का इस्तेमाल होने लगा। हरियाणा की पहली विधानसभा में ‘आया राम गया राम’ की रवायत ऐसी रही कि बाद में विधानसभा भंग कर राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा और 1968 में फिर से विधानसभा चुनाव हुए। इसके बाद 28 जून 1979 को भजन लाल हरियाणा नें जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री बने थे। 1980 में जब इंदिरा गांधी लोकसभा चुनाव जीत कर फिर से सत्ता में आई तो भजन लाल ने फिर पाला बदला और जनवरी 1980 में भजन लाल जनता पार्टी के सारे विधायकों को लेकर पूरे दल बल के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए। भजन लाल को इसलिए 'आया राम, गया राम' की रवायत का पुरोधा माना जाता है।
25 मार्च 1989 को तमिलनाडु विधानसभा में जो हुआ था वो भुलाया नहीं जा सकता। उस दिन एक महिला के स्वाभिमान और अस्तित्व पर हमला हुआ था। दरअसल तमिलनाडु विधानसभा में बजट पेश किया जा रहा था। जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके ने हाल के ही विधानसभा चुनाव में 27 सीटें जीती थीं और तमिलनाडु की विधानसभा को विपक्ष में एक महिला नेता मिली थी। डीएमके सरकार में थी और मुख्यमंत्री थे एम करुणानिधी। सदन में जैसे ही बजट भाषण पढ़ा जाना शुरू हुआ जयललिता और उनकी पार्टी के नेताओं ने विधानसभा में हंगामा शुरू कर दिया। इसी बीच अन्नाद्रमुक के किसी नेता ने करुणानिधी की तरफ फाइल फेंकी, जिससे उनका चश्मा गिरकर टूट गया। करुणानिधि पर हुए हमले का बदला लेने के लिए न केवल जयललिता का विरोध किया गया बल्कि हद पार की गई। हंगामा बढ़ता देख जयललिता सदन से बाहर जाने लगी, तभी एक मंत्री ने उन्हें बाहर जाने से रोका और उनकी साड़ी खींची, जिससे उनकी साड़ी फट गई और वो खुद भी जमीन पर गिर गईं। भरी सभा में उनकी साड़ी खींचकर, बाल नोचकर उन्हें चप्पल मारी। इस बीच उनके कंधे पर लगी सेफ्टी पिन खुल गई और चोट के कारण खून बहने लगा। फटी हुई साड़ी के साथ जयललिता विधानसभा से बाहर आ गईं। जयललिता ने सदन से निकलते हुए कसम खाई थी कि वो मुख्यमंत्री बनकर ही इस सदन में वापस आएंगी वरना कभी नहीं आएंगी। इसके दो साल बाद 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद चुनाव में जयललिता के नेतृत्व वाले एआईएडीएमके ने कांग्रेस से समझौता किया। दोनों दलों को तमिलनाडु के चुनाव में 234 में 225 पर जीत मिली। इसके बाद जयललिता तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बन गईं और उनकी कसम पूरी हुई। एक इंटरव्यू में जयललिता ने कहा था, “25 मार्च 1989 में विधानसभा में हुए हमले से ज्यादा मेरे लिए कुछ अपमानजनक नहीं है। मुख्यमंत्री करुणानिधि वहीं थे। उनकी दोनों पत्नियां भी वीआईपी बॉक्स में बैठकर देख रही थीं। उनके हर विधायक और मंत्री ने मुझे खींच-खींचकर शारीरिक शोषण किया। उनका हाथ जिस पर गया उन्होंने उसे खींचा चाहे कुर्सी हो, माइक हो या भारी ब्रास बेल्ट। अगर वह उस दिन सफल होते तो आज मैं जिंदा न होती। मेरे विधायकों ने उस दिन मुझे बचाया। उनमें से एक ने मेरी साड़ी भी खींची। उन्होंने मेरे बाल खींचे और कुछ तो नोच भी डाले। उन्होंने मुझ पर चप्पल फेंकी। कागज के बंडल फेंके। भारी किताबें मारी। उस दिन मैंने सदन को आँसुओं और गुस्से के साथ छोड़ा। मैंने कसम खाई कि जब तक ये आदमी मुख्यमंत्री बनकर सदन में होगा मैं यहाँ नहीं बैठूंगी और जब मैं उस सदन में दोबारा गई तो मैं चीफ मिनिस्टर थी। मैंने दो साल में अपनी कसम पूरी की।”
बात 1979 की है। शाम के करीब छह बज रहे थे और यूपी के इटावा इलाके के ऊसराहार पुलिस स्टेशन में करीब 75 साल का एक परेशान किसान धीमी चाल से थाना परिसर में दाखिल होता है। थाने में अकेला एक फटेहाल, मजबूर किसान, पुराना धोती कुर्ता पहने थाने में तैनात पुलिसकर्मियों से पूछता है, 'दरोगा साहब हैं।' जवाब मिला, वो तो नहीं है। वहां मौजूद एएसआई और अन्य पुलिसकर्मी पूछते हैं कि आप कौन हैं, यहां, क्यों आए हैं? जवाब में वो बुजुर्ग कहता है कि रपट लिखवानी है। पुलिस वालों ने कारण पूछा तो उसने कहा कि मेरी किसी ने जेब काट ली है, जेब में काफी पैसे थे। इस पर थाने में तैनात एएसआई कहता है कि ऐसे थोड़े रपट लिखा जाता है। बुजुर्ग कहता है कि मैं, मेरठ का रहने वाला हूं, खेती-किसानी करता हूं और यहां पर सस्ते में बैल खरीदने के लिए पैदल ही वहां से आया हूं। पता चला था यहां पर बैल सस्ते में मिलता है। जब यहां आया तो जेब फटी मिली जिसमें कई सौ रुपए थे। पॉकेटमार वो रुपए लेकर भाग गया। उस दौर में कई सौ रुपए का मतलब बहुत कुछ होता था। बुजुर्ग की बात सुनकर पुलिस वालों ने कहा कि तुम पहले ये बताओ मेरठ से चलकर इतनी दूर इटावा आए हो। कैसे मान लें जेबकतरों ने मार लिए पैसे, पैसा गिर गया हो तो, यह कैसे कहा जा सकता है। थाने में मौजूद पुलिसकर्मी ने कहा, हम ऐसे रपट नहीं लिखते। परेशान बुजुर्ग ने कहा कि मैं, घर वालों को क्या जवाब दूंगा। बड़ी मुश्किल से पैसे लेकर यहां आया था। इस पर पुलिसकर्मियों ने कहा कि समय बर्बाद मत करो और यहाँ से चले जाओ। किसान मिन्नत करता रहा और कुछ देर तक इंतजार करने के बाद फिर किसान ने रपट लिखने की गुहार लगाई, मगर सिपाही ने अनसुना कर दिया। आख़िरकार किसान निराश हो गया और उसके कदम थाने से बाहर की तरफ मुड़ गए। इतने में, थानेदार साहब भी वहां आ गए, और किसान की उम्मीद फिर बंध गई। किसान ने उनसे भी गुहार लगाई लेकिन वो भी रपट लिखने को तैयार नहीं हुए। परेशान होकर घर लौटने के इरादे से वो किसान थाने के गेट तक बाहर जा पहुंचा और वहीं पर खड़ा हो सोचने लगा। पर तभी थोड़ी देर बाद एक सिपाही को उस पर रहम आ गया। उस सिपाही ने पास आकर कहा, 'रपट लिखवा देंगे, पर खर्चा पानी लगेगा'। इस पर किसान ने पूछा, कितना लगेगा। बात सौ रुपए से शुरू हुई और 35 रुपए देने की बात पर रपट लिखने का सौदा हो गया। ये बात सिपाही ने जाकर सीनियर अफसर को बताई और अफसर ने रपट लिखवाने के लिए किसान को बुला लिया। रपट लिख ली गया और अंत में मुंशी ने किसान से पूछा, ‘बाबा हस्ताक्षर करोगे या अंगूठा लगाओगे। थानेदार के टेबल पर स्टैंप पैड और पेन दोनों रखा था। बुजुर्ग किसान ने कहा, हस्ताक्षर करूंगा। यह कहने के बाद उन्होंने पैन उठा लिया और साइन कर दिया और साथ ही टेबल पर रखे स्टैंप पैड को भी खींच लिया। मुंशी सोच में पड़ गया, जब हस्ताक्षर करेगा तो अंगूठा लगाने की स्याही का पैड क्यों उठा रहा है? किसान ने अपने हस्ताक्षर में नाम लिखा, ‘चौधरी चरण सिंह’ और मैले कुर्ते की जेब से मुहर निकाल कर कागज पर ठोंक दी, जिस पर लिखा था ‘प्रधानमंत्री, भारत सरकार।’ इसके बाद थाने में हड़कंप मच गया, आवेदन कॉपी पर पीएम की मुहर लगा देख पूरा का पूरा थाना सन्न था। कुछ ही देर में पीएम का काफिला भी वहां पहुंच गया। जिले के सभी आला अधिकारी धड़ाधड़ मौके पर पहुंचे और थाने के पुलिसकर्मियों सहित डीएम एसएसपी, एसपी, डीएसपी, अन्य पुलिसकर्मी, आईजी, डीआईजी सबके सकते में आ गए। सभी यह सोच रहे थे कि, अब क्या होगा? किसी को भनक नहीं थी कि पीएम चौधरी चरण सिंह खुद इस तरह थाने आकर औचक निरीक्षण करेंगे। पीएम चौधरी चरण सिंह ने उक्त थाने के सभी कर्मचारियों को सस्पेंड करने का आदेश दिया और चुपचाप रवाना हो गए। कौन थे चौधरी चरण सिंह चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसंबर 1902 को मेरठ जिले के बाबूगढ़ छावनी के निकट नूरपुर गांव में हुआ था। वे स्वतंत्रता सेनानी थे और 1940 में सत्याग्रह आंदोलन के दौरान जेल भी गए। 1952 में चौधरी चरण सिंह कांग्रेस सरकार में राजस्व मंत्री बने और किसान हित में जमींदारी उन्मूलन विधेयक पारित किया। फिर 1967 में वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और लेकिन1968 में उन्होंने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया। 1970 में वे फिर यूपी के सीएम बने। उसके बाद वो केंद्र सरकार में गृहमंत्री बने और उन्होंने मंडल और अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की। कांग्रेस से अलग होने के बाद वे 1977 की जनता पार्टी की सरकार में भी शामिल हुए। 28 जुलाई 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बने।
ये नेता जब सीएम बना तो टिम्बर घोटाला हुआ, राज्यपाल बना तो लोकतंत्र की हत्या कर दी हिमाचल का ये नेता जब मुख्यमंत्री बना तो उसे देवदार के पेड़ खाने वाला सीएम कहा गया। यहीं नेता जब राज्यपाल बना तो उसे लोकतंत्र खाने वाला राज्यपाल कहा गया। हम बात कर रहे है ठाकुर रामलाल की। वही ठाकुर रामलाल जो 1957 से 1998 तक 9 बार जुब्बल कोटखाई से विधायक चुने गए। वहीँ ठाकुर रामलाल जिन्होंने 18 साल सीएम रहे डॉ यशवंत सिंह परमार की राजनैतिक विदाई का ताना बाना बुना और वहीँ ठाकुर रामलाल जिन्हें हिमाचल का तिकड़मबाज सीएम कहा गया। संजय गाँधी की पसंद से बने पहली बार सीएम 28 जनवरी 1977 को हिमाचल निर्माता और पहले मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार इस्तीफा दे देते है। इसे डॉ परमार की समझ कहे या ठाकुर रामलाल की पोलिटिकल मैनेजमेंट, कि खुद डॉ परमार पार्टी आलाकमान का रुख भांपते हुए ठाकुर रामलाल के नाम का प्रस्ताव देते है। उसी दिन शाम को ठाकुर रामलाल पहली बार हिमाचल के सीएम पद की शपथ लेते है। ऐसा अकस्मात नहीं हुआ था। दरअसल इससे करीब एक सप्ताह पहले ठाकुर रामलाल 22 विधायकों की परेड प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के समक्ष करवा चुके थे। वैसे भी इमरजेंसी के दौरान ठाकुर रामलाल संजय गाँधी के करीबी हो चुके थे। रामलाल, डॉ परमार की कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री थे और उन्होंने संजय के नसबंदी अभियान को अपने क्षेत्र में पुरे जोर- शोर के साथ चलाया था। इसका लाभ भी उन्हें मिला। शांता को पता भी नहीं चला और उनके विधायक ठाकुर रामलाल के साथ हो लिए निर्दलीय विधायकों के सहारे बने तीसरी बार सीएम बतौर मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल का पहला कार्यकाल महज तीन माह का ही रहा। दरअसल इमर्जेन्सी के बाद हुए आम चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया और मोरारजी देसाई की सरकार ने कई प्रदेशों की सरकारें डिसमिस कर दी और चुनाव करवा दिए।हिमाचल भी इन्हीं राज्यों में से एक था। चुनाव हुए और शांता कुमार अगले मुख्यमंत्री बने। पर शांता भी सत्ता का सुख ज्यादा नहीं भोग पाए।फरवरी 1980 में ठाकुर रामलाल ने एक बार फिर अपनी तिगड़मबाज़ी दिखाई और शांता कुमार के 22 विधायक ठाकुर के साथ हो लिए। इस बीच मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई और इंदिरा की सत्ता में वापसी हुई। इंदिरा ने भी वहीँ किया जो मोरारजी ने किया था। हिमाचल सहित कई प्रदेशों की सरकारों को डिसमिस किया। 1982 में फिर चुनाव हुए और हिमाचल में पहली बार किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस को 31 सीटें मिली जो बहुमत से चार कम थी और 6 निर्दलीय विधायक भी चुन कर आये थे। और एक बार फिर ठाकुर रामलाल की राजनैतिक करामात कांग्रेस के काम आई और 5 निर्दलीय विधायकों के समर्थन से रामलाल तीसरी बार हिमाचल के मुख्यमंत्री बने। एक गुमनाम पत्र ने गिरा दी कुर्सी सीएम ठाकुर रामलाल के लिए सब कुछ ठीक चल रहा था। इसी बीच जनवरी 1983 में हिमाचल प्रदेश के मुख्य न्यायधीश को एक गुमनाम पत्र मिलता है। पत्र में लिखा गया था कि ठाकुर रामलाल के दामाद पदम् सिंह, बेटे जगदीश और उनके मित्र मस्तराम द्वारा जुब्बल-कोटखाई व चौपाल इलाके में सरकारी भूमि से देवदार की लकड़ी काटी जा रही है, जिसकी कीमत करोड़ों में है। न्यायधीश ने जांच बैठाई जिसके बाद ठाकुर रामलाल पर खुले तौर पर टिम्बर घोटाले के आरोप लगने लगे। शायद ठाकुर रामलाल इस स्थिति को भी संभाल लेते लेकिन उनसे एक और चूक हो गई जिसका खामियाजा उन्हें सीएम की कुर्सी गवाकर चुकाना पड़ा। दरअसल ठाकुर रामलाल ने दिल्ली में पत्रकार वार्ता कर ये कह दिया कि उन्हें राजीव गाँधी ने आश्वासन दिया है कि उन्हें टिम्बर घोटाले को लेकर परेशान नहीं किया जायेगा। इसके बाद राजीव गाँधी पर आरोप लगने लगे कि वे भ्रष्टाचार के आरोपी का बचाव कर रहे है। नतीजन ठाकुर रामलाल को इस्तीफा देना पड़ा। दिलचस्प बात ये रही कि जिस तरह डॉ यशवंत सिंह परमार ने इस्तीफा देकर ठाकुर रामलाल का नाम प्रतावित किया था, उसी तरह ठाकुर रामलाल को इस्तीफा देकर वीरभद्र सिंह के नाम का प्रस्ताव देना पड़ा। राज्यपाल बनकर की लोकतंत्र की हत्या ठाकुर रामलाल के बतौर मुख्यमंत्री सफर पर तो वीरभद्र सिंह के सत्ता सँभालने के बाद ही विराम लग गया था, किन्तु अभी तो ठाकुर रामलाल द्वारा लोकतंत्र की हत्या होना बाकी था। कांग्रेस ने रामलाल को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाकर भेज दिया था। आंध्र में 1983 में चुनाव हुए थे जिसमें एन टी रामाराव मुख्यमंत्री बने थे। इसी दौरान अगस्त 1983 में एन टी रामाराव उपचार के लिए विदेश चले गए। ठाकुर रामलाल की राजनैतिक महत्वकांशा अभी बाकी थी, सो रामलाल ने कांग्रेस नेता विजय भास्कर राव को बिना विधायकों की परेड के ही सीएम बना दिया। वे इंदिरा के दरबार में अपनी कुव्वत बढ़ाना चाहते थे, पर हुआ उल्टा। एनटी रामाराव वापस वतन लौटे और व्हील चेयर पर बैठ दिल्ली में 181 विधायकों के साथ जुलूस निकाला। कांग्रेस की जमकर थू-थू हुई और रातों रात ठाकुर रामलाल के स्थान पर शंकर दयाल शर्मा को राज्यपाल बना दिया गया। इसके बाद रामलाल ने कांग्रेस छोड़ी, वापस भी आये पर स्थापित नहीं हो पाए। वीरभद्र को चुनाव हराने वाला नेता वीरभद्र सिंह से बड़े कद का नेता शायद ही हिमाचल की राजनीति में दूसरा कोई हो। वीरभद्र अपने राजनैतिक जीवन में सिर्फ एक चुनाव हारे है। 1990 के विधानसभा चुनाव में ठाकुर रामलाल ने उन्हें जुब्बल कोटखाई से चुनाव हारकर साबित कर दिया था कि उस क्षेत्र में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं हुआ।
इन दिनों राहुल गांधी अपनी 'मोहब्बत की दुकान' अमेरिका में लगा रहे हैं। राहुल का अंदाज भी बदला है और सियासत का तौर तरीका भी। शायद ये ही कारण है कि राहुल के हर वार पर भाजपा पलटवार करने में जरा भी चूक नहीं कर रही। ये वो ही भाजपा है जो कल तक राहुल गांधी को 'पप्पू' बताती थी, पर आज उनके बयानों को लेकर गंभीर है। दरअसल इस बात को दबी जुबान विरोधी भी स्वीकार रहे है कि राहुल बदले -बदले से है। भारत जोड़ो यात्रा ने उनकी छवि भी बदली है और वो अब ज्यादा परिपक्व भी दिख रहे है। इस पर 'मोहब्बत की दुकान' की पंच लाइन का लाभ भी कांग्रेस को मिलता दिखा है। इसके जरिए कांग्रेस अल्प संख्यक समुदाय को साधने की रणनीति पर आगे बढ़ी है, जो कभी कभी उसकी सबसे बड़ी ताकत रहा है। अब पार्टी पूरी शिद्दत के साथ इस वोट बैंक को दोबारा अपने साथ लाने में जुटी है। कर्नाटक में पार्टी की कामयाबी के पीछे भी अल्पसंख्यक वर्गों के समर्थन को बड़ा कारण माना जाता है। अब 2024 में भी कांग्रेस इसी रणनीति पर आगे बढ़ती दिखती है। वहीँ अमेरिका में केरल की इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग से गठबंधन को लेकर राहुल ने कहा है कि मुस्लिम लीग पूरी तरह से सेक्युलर पार्टी है। कांग्रेस ये भी जानती है कि वह केवल मुस्लमान मतदाताओं के सहारे सत्ता में नहीं लौट सकती। यही कारण है कि राहुल गांधी अमेरिका में दलितों और सिखों के मुद्दे पर भी बोल रहे है। ये भी कांग्रेस के परंपरागत वोटर रहे हैं। राहुल का जातीय जनगणना के मुद्दे को मजबूती से उठाना इसी दिशा में बड़ा कदम है। संभव है कि कांग्रेस इस मुहिम को जल्द तेज करें। बहरहाल राहुल गाँधी ने अमेरिका से अपने ही अंदाज में भाजपा और पीएम मोदी पर वार किया है। कभी राहुल पीएम नरेंद्र मोदी को 'भगवान से भी ज्यादा जानकार' कह तंज कसते है, तो कभी देश की संस्थाओं पर सरकार का कब्जा होने जैसे आरोप जड़ रहे हैं। राहुल बीच कार्यक्रम में अपना फ़ोन निकालकर कहते है, 'हेलो मिस्टर मोदी', जासूसी के ये आरोप गंभीर है और राहुल को वो लाइमलाइट भी दे रहे है। बाकायदा अमेरिका में पत्रकार वार्ता करके राहुल बेबाकी से अपना पक्ष रख रहे है, बेरोजगारी और आर्थिक असमानता जैसे विषयों पर सरकार को घेर रहे है। निसंदेह कांग्रेस बीते कुछ वक्त से आम जनता से सीधे जुड़े मुद्दों के इर्दगिर्द आगे बढ़ी है, जो भाजपा के लिए परेशानी का सबब हो सकता है। कर्नाटक चुनाव भी इसका बड़ा उदाहरण है जहाँ कांग्रेस का भ्रष्टाचार का मुद्दा भाजपा के तमाम धार्मिक मुद्दों पर भारी पड़ा है। राहुल गाँधी ने अमेरिका से एक और बड़ा दावा किया है। राहुल ने कहा है कि 2024 के चुनाव नतीजे सबको चौंकाएंगे और भाजपा सत्ता से बाहर होगी। विपक्ष एकजुट हो रहा है और इस संबंध में काफी अच्छा काम हो रहा है। दरअसल कर्नाटक और उसके पहले हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में गैर भाजपाई वोटर्स ने एकजुट होकर परिवर्तन के लिए वोट किया हैं। यदि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस गठबंधन इसे दोहरा पाई तो नतीजे सच में चौंका सकते है। हालांकि डगर कठिन ही नहीं, बेहद कठिन है। उधर दस साल से केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा को महंगाई, बेरोजगारी, दस साल का एंटी इनकमबेंसी, महिला खिलाड़ियों के सम्मान सहित कई मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है। दस साल में पहली बार भाजपा को शायद कुछ परेशानी हुई हो। पर कांग्रेस की बदली रणनीति को भाजपा समझ रही है और राहुल गांधी को काउंटर करने के लिए दिग्गज नेताओं की फौज मैदान में है। राहुल के हर वार पर पलटवार हो रहा है और उनके बयानों को देश को बदनाम करने वाला बताया जा रहा हैं। जाहिर है भाजपा इसे देश के सम्मान से जोड़ने की रणनीति पर आगे बढ़ रही है। फिलवक्त कांग्रेस लोकसभा चुनाव से पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान विधानसभा चुनाव में अच्छा करना चाहेगी। वहीँ 2019 में करीब 200 लोकसभा सीटें ऐसी थी जहाँ लड़ाई कांग्रेस और भाजपा के बीच थी। करीब पौने दो सौ सीटों पर भाजपा और क्षेत्रीय दलों के बीच कड़ा मुकाबला था। इन पौने चार सौ सीटों पर अगर विपक्ष गठबंधन कर तालमेल के साथ लड़े, तो शायद कुछ बात बने। पर क्या गठबंधन होगा, इसी सवाल के जवाब में सम्भवतः भविष्य की राजनैतिक तस्वीर छिपी है। ब्रांड मोदी का जलवा और भाजपा अब भी इक्कीस .... बेशक कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आक्रामक चुनाव प्रचार के बावजूद भाजपा हारी हो, लेकिन इन वजह से मोदी फैक्टर की लोकप्रियता को खारिज नहीं किया जा सकता। जनता को पता था कि वह मुख्यमंत्री का चुनाव कर रही है, प्रधानमंत्री का नहीं। 2018 में भी इसी तरह भाजपा को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में शिकस्त मिली थी, पर जब लोकसभा चुनाव हुए तो भाजपा ने शानदार जीत दर्ज की । पीएम मोदी अभी भी भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा ब्रांड है और उनकी लोकप्रियता आम जनता के बीच अभी भी कायम है। भाजपा अपने गढ़ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, बिहार, झारखंड और पूर्वोत्तर के राज्यों में अभी भी बेहद मजबूत है। वहीँ 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने करीब 37 प्रतिशत वोटों के साथ 303 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि कांग्रेस को 20 प्रतिशत वोट भी नहीं मिले थे और पार्टी 52 पर सिमट गई थी। करीब 18 फीसदी वोटों का का यह अंतर लांघना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होने वाला।
राहुल गांधी इन दिनों अमेरिका के दौरे पर हैं। गुरुवार को राहुल वॉशिंगटन डीसी में पत्रकार वार्ता की। इस दौरान राहुल ने दावा किया कि 2024 के चुनाव नतीजे सबको चौंकाएंगे और भाजपा सत्ता से बाहर होगी। विपक्ष एकजुट हो रहा है। हम सभी विपक्षी पार्टियों से बात कर रहे हैं। इस संबंध में काफी अच्छा काम हो रहा है। वहीँ केरल में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग से गठबंधन को लेकर राहुल ने कहा कि मुस्लिम लीग पूरी तरह से सेक्युलर पार्टी है। अपनी सांसदी जाने के सवाल पर उन्होंने कहा कि मुझे 1947 के बाद मानहानि के मामले में सबसे बड़ी सजा मिली है। मैंने संसद में अडाणी को लेकर स्पीच दी थी, जिसकी वजह से मुझे डिस्क्वालिफाई कर दिया गया। राहुल गाँधी ने कहा किभारतीय तंत्र और व्यवस्थाएं बहुत मजबूत है, लेकिन इस सिस्टम को कमजोर कर दिया गया है। अगर लोकतांत्रिक तरीके से बातचीत की जाए, तो सारे मसले खुद सुलझ जाएंगे। राहुल ने कहा भारत में प्रेस की स्वतंत्रता कमजोर होती जा रही है और यह बात सभी जानते हैं। लोकतंत्र के लिए प्रेस की स्वतंत्रता और आलोचना को सुनना जरूरी है। भारत जोड़ो यात्रा का जिक्र करते हुए राहुल गाँधी ने कहा कि मैं जो भी सुनता हूं उस पर विश्वास नहीं करता। मैं कन्याकुमारी से कश्मीर तक घूमा हूं। लाखों भारतीयों से सीधे बात की है। मुझे वो लोग खुश नहीं लगे और वो बेरोजगारी, महंगाई से बहुत परेशान हैं। लोगों में गुस्सा है। देश में बढ़ती महंगाई और रिकॉर्ड बेरोजगारी के चलते अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। मैं गांधीवादी सोच के साथ बड़ा हुआ हूं, डरता नहीं हूँ : राहुल राहुल गाँधी ने कहा कि सभी भारतीयों के पास धार्मिक स्वतंत्रता होनी चाहिए। सभी भारतीय समुदायों के पास अभिव्यक्ति की आजादी होनी चाहिए। मैं बचपन से गांधीवादी सोच के साथ बड़ा हुआ हूं। मैं जान से मारने की धमकियों से नहीं डरता। आखिर सबको एक दिन मरना है। ये मैंने अपनी दादी और अपने पिता से सीखा है। ऐसी धमकियों से डरकर आप रुक नहीं जाते। रूस-यूक्रेन जंग पर भाजपा के साथ रूस और यूक्रेन जंग को लेकर कांग्रेस के रूस के लिए स्टैंड पर राहुल ने कहा कि रूस को लेकर जो भाजपा का रुख है, वैसा ही रुख कांग्रेस का होगा। उन्होंने कहा कि रूस और भारत के बीच जो रिश्ता है, उसे नकारा नहीं जा सकता है। BJP का पलटवार, कहा- ऐसा कहना राहुल की मजबूरी मुस्लिम लीग को लेकर राहुल के बयान पर बीजेपी ने पलटवार किया है। अमित मालवीय ने कहा- जिन्ना की मुस्लिम लीग पार्टी धार्मिक आधार पर भारत के बंटवारे के लिए जिम्मेदार थी। ये पार्टी राहुल के मुताबिक सेक्युलर पार्टी है। दरअसल ऐसा कहना राहुल की मजबूरी है।
राहुल गाँधी ने कहा कि हम पिछली सरकार में उसे लाना चाहते थे, लेकिन कुछ हमारे सहयोगी पार्टियां उस पर तैयार नहीं थीं। अगली सरकार में कांग्रेस इसे लाने के लिए कमिटेड हैं। राहुल ने कहा अगर हम महिलाओं को शक्ति देंगे, उन्हें पॉलिटिक्स में लाएंगे, बिजनेस में जगह देंगे तो वो अपने आप सशक्त होंगी। वन लैंगुएज, वन कल्चर, वन ट्रेडिशन, वन रिलिजन के सवाल पर राहुल गाँधी ने कहा कि अगर आप संविधान पढ़ेंगे तो यूनियन ऑफ स्टेट मिलेगा। हर राज्य की भाषा, कल्चर को सुरक्षा मिलनी चाहिए। बीजेपी और आरएसएस इस इंडिया को अटैक कर रहे हैं। मेरे हिसाब से मैं समझता हूं कि तमिल भाषा, तमिल लोगों के लिए एक भाषा से बढ़कर है। ये उनके लिए भाषा नहीं उनका कल्चर है उनके जीने का तरीका है। मैं कभी तमिल भाषा को थ्रेट नहीं होने दूंगा। तमिल भाषा को थ्रेट करना मतलब आडिया ऑफ इंडिया को थ्रेट करना है। किसी भी भाषा को थ्रेट करना भारत को थ्रेट करना है।
राहुल गांधी अमेरिका के दौरे पर पहुंचे हैं। इस दौरान राहुल ने सैन फ्रांसिस्को में भारतीय मूल के लोगों से मुलाकात कर उन्हें संबोधित किया। उन्होंने अपनी भारत जोड़ो यात्रा का जिक्र भी किया और देश की राजनीति पर भी बोले। राहुल ने भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस पर कड़ा प्रहार किया और कहा, राजनीति के लिए जिन संसाधनों की जरूरत पड़ती है उन्हें ये नियंत्रित कर रहे हैं। राहुल गाँधी ने इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा, 'देश में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें लगता है वो सब कुछ जानते हैं। भगवान से भी ज्यादा जानते हैं। वो भगवान के साथ बैठ सकते हैं और उन्हें भी समझा सकते हैं। मुझे लगता है हमारे देश के प्रधानमंत्री उनमें से एक हैं। मोदी जी को अगर भगवान के साथ बैठा दें तो वो भगवान को समझाना शुरू कर देंगे कि ब्रह्मांड कैसे काम करता है।' राहुल गांधी ने अपने संबोधन के बाद लोगों के सवालों के जवाब भी दिए। इस दौरान उन्होंने भारतीय जनता पार्टी पर तंज कसते हुए कहा, 'बीजेपी मीटिंग में ऐसा सवाल-जवाब का सिलसिला नहीं होता।' यात्रा में केवल कांग्रेस नहीं, पूरा भारत आगे बढ़ रहा था- राहुल गांधी राहुल गाँधी ने भारत जोड़ो यात्रा के अनुभव को लोगों के साथ शेयर करते हुए कहा, मैंने जब ये यात्रा शुरू थी तो 5-6 दिन बाद महसूस हुआ कि ये यात्रा आसान नहीं होगी। हजारों किलोमीटर की यात्रा को पैदल तय करना बेहद मुश्किल दिख रहा था। उन्होंने बताया, मैं, कांग्रेस कार्यकर्ता और समर्थक रोजाना 25 किलोमीटर की यात्रा तय कर रहे थे। तीन हफ्ते बाद मुझे लगा कि मैं अब थक नहीं रहा हूं।मैंने लोगों से भी पूछना छुरू किया कि क्या वो थकान महसूस कर रहे हैं? लेकिन किसी ने इसका जवाब हां में नहीं दिया। उन्होंने कहा, उस यात्रा में केवल कांग्रेस नहीं चल रही थी बल्कि पूरा भारत कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहा था।
साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर विपक्षी दल एक बार फिर इकट्ठे होते दिखाई देंगे। भाजपा को सत्ता से बाहर करने की चाह रखने वाले दलों के नेता पटना में एक बैठक करने वाले हैं। इस मीटिंग को जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) ने 12 जून को बुलाया है। इस बैठक में 24 विपक्षी दलों के शामिल होने की संभावना है। पार्टी के नेतृत्व ने पहले ही 18 दलों के साथ योजना पर चर्चा की है, शेष दलों से कुछ दिनों में विचार-विमर्श किया जाएगा। बताया जा रहा है कि विभिन्न दलों और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बीच लंबे समय तक बातचीत हुई है। पटना में 12 जून को होने वाले विपक्षी मीट में कम से कम 24 राजनीतिक दलों के शामिल होने की संभावना है। जेडीयू 18 दलों से चर्चा कर चुकी है, बाकी 6 दलों से बातचीत कुछ ही दिनों में हो जाएगी।
*कांगड़ा को मिल सकता है विलम्ब का मीठा फल सुक्खू कैबिनेट में अब तक जिला कांगड़ा को मनमाफिक अधिमान नहीं मिला है। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के लिहाज से भी देखे तो अब तक हिस्से में सिर्फ एक मंत्री पद आया है। हालांकि विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी, दो सीपीएस और कई कैबिनेट रैंक जरूर मिले है, लेकिन जो वजन मंत्री पद में है वो भला और कहाँ ? बहरहाल सवाल ये है कि जिस संसदीय क्षेत्र ने कांग्रेस की झोली में 17 में से 12 सीटें डाली, क्या सत्ता में आने के बाद कांग्रेस उसे हल्के में ले रही है, या इस इन्तजार का मीठा फल मिलने वाला है। माहिर तो ये ही मान रहे है कि जल्द कांगड़ा के इस विलम्ब की पूरी भरपाई होगी। ऐसा होना लाजमी भी है क्यों कि लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा एक साल का वक्त है और यहाँ हार की हैट्रिक लगा चुकी कांग्रेस कोई चूक नहीं करना चाहेगी। अलबत्ता कांगड़ा को मंत्री पद मिलने में कुछ देर जरूर हो रही है लेकिन खुद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का ये कहना कि वे भी कांगड़ा के ही है, उम्मीद की बड़ी वजह है। कांगड़ा को टूरिज्म कैपिटल बनाने का सीएम का विज़न हो या आईटी पार्क जैसे अधर में लटके प्रोजेक्ट्स में तेजी लाना, ये दर्शाता है कि सीएम सुक्खू कांगड़ा को लेकर किसी तरह की चूक करना नहीं चाहते। सीएम का नौ दिन का कांगड़ा दौरा भी इसकी तस्दीक करता है। सरकार के पिटारे में कांगड़ा के लिए न योजनाओं की कोई कमी नहीं दिखती। ये ही कारण है कि 2024 से पहले कांगड़ा में कांग्रेस जोश में है। इस बीच मंत्री पद भरने को लेकर फिर सुगबुगाहट तेज हुई है। माना जा रहा है कि कुल तीन रिक्त मंत्री पदों में से दो कांगड़ा के हिस्से आएंगे। इनमें एक ब्राह्मण हो सकता है और एक एससी। ऐसे में एक युवा राजपूत चेहरा भी डार्क हॉर्स है। बहरहाल अंदर की बात ये बताई जा रही है कि सब लगभग तय है और जल्द कांगड़ा को दो मंत्री पद मिलेंगे। प्रदेश की सियासत अपनी जगह पर 2024 में कांग्रेस के लिए कांगड़ा फ़तेह करना आसान नहीं होने वाला है। कई चुनौतियों के बीच कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है एक दमदार चेहरा। तीन चुनाव हार चुकी कांग्रेस को ऐसा चेहरा चाहिए जो जातीय, क्षेत्रीय और पार्टी की भीतरी राजनीति के लिहाज से संतुलन लेकर आएं। पिछले तीन चुनावों में पार्टी ने यहाँ से ओबीसी कार्ड खेला है, पर नतीजे प्रतिकूल रहे है। ऐसे में पार्टी को फिर सोचने की जरुरत जरूर है। बताया जा रहा ही कि पार्टी अभी से इस पर चिंतन -मंथन में जुटी है। खुद सीएम सुक्खू चाहते है कि जो भी चेहरा हो, उसे पर्याप्त समय मिले। चर्चा में कई वरिष्ठ नाम है जिनमें पूर्व सांसद और मंत्री चौधरी चंद्र कुमार, पूर्व मंत्री और विधायक सुधीर शर्मा, आशा कुमारी जैसे नाम शामिल है। पर संभव है कि इस बार पारम्परिक कास्ट डायनामिक्स को ताक पर रख पार्टी किसी युवा चेहरे को मैदान में उतारे। सुक्खू सरकार के आईटी सलाहकार गोकुल बुटेल भी ऐसा ही एक विकल्प हो सकते है। भाजपा से कौन होगा चेहरा ! 2009 से लेकर अब तक कांगड़ा लोकसभा सीट पर भाजपा लगातार जीत दर्ज करने में कामयाब रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में न केवल हिमाचल में बल्कि पूरे देश में भी सबसे ज्यादा मत प्रतिशत हासिल करने का रिकॉर्ड कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के सांसद किशन कपूर के नाम रहा था। 7,25,218 मत प्राप्त कर किशन कपूर लोकसभा पहुंचे, लेकिन इस बार सियासी समीकरण कुछ बदलते नज़र आ रहे है। दरअसल 2022 के विधानसभा चुनाव में भी कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा की परफॉरमेंस बेहद खराब रही है। इस संसदीय क्षेत्र की 17 में से सिर्फ पांच सीटें ही भाजपा जीत पाई है। ऐसे में क्या पार्टी चेहरा बदलेगी इसे लेकर कयासों का दौर जारी है। संभावित उम्मीदवारों की फेहरिस्त में मौजूदा सांसद किशन कपूर के अलावा कई और नाम चर्चा में है। इस लिस्ट में गद्दी समुदाय से धर्मशाला के पूर्व विधायक विशाल नेहरिया का नाम भी चर्चा में है। इसके अलावा कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए पवन काजल का नाम भी लिस्ट में है। अब देखना ये होगा कि भाजपा इस दफा कांगड़ा के दुर्ग को फ़तेह करने के लिए किस पर दांव खेलती है। कब कौन बना सांसद 1977 दुर्गा चंद भारतीय लोक दल 1980 विक्रम चंद महाजन कांग्रेस 1984 चंद्रेश कुमारी कांग्रेस 1989 शांता कुमार भाजपा 1991 डीडी खनौरिया भाजपा 1996 सत महाजन कांग्रेस 1998 शांता कुुमार भाजपा 1999 शांता कुमार भाजपा 2004 चंद्र कुमार कांग्रेस 2009 डॉ. राजन सुशांत भाजपा 2014 शांता कुमार भाजपा 2019 किशन कपूर भाजपा ReplyForward * कांगड़ा को मिल सकता है विलम्ब का मीठा फल सुनैना कश्यप। फर्स्ट वर्डिक्ट सुक्खू कैबिनेट में अब तक जिला कांगड़ा को मनमाफिक अधिमान नहीं मिला है। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के लिहाज से भी देखे तो अब तक हिस्से में सिर्फ एक मंत्री पद आया है। हालांकि विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी, दो सीपीएस और कई कैबिनेट रैंक जरूर मिले है, लेकिन जो वजन मंत्री पद में है वो भला और कहाँ ? बहरहाल सवाल ये है कि जिस संसदीय क्षेत्र ने कांग्रेस की झोली में 17 में से 12 सीटें डाली, क्या सत्ता में आने के बाद कांग्रेस उसे हल्के में ले रही है, या इस इन्तजार का मीठा फल मिलने वाला है। माहिर तो ये ही मान रहे है कि जल्द कांगड़ा के इस विलम्ब की पूरी भरपाई होगी। ऐसा होना लाजमी भी है क्यों कि लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा एक साल का वक्त है और यहाँ हार की हैट्रिक लगा चुकी कांग्रेस कोई चूक नहीं करना चाहेगी। अलबत्ता कांगड़ा को मंत्री पद मिलने में कुछ देर जरूर हो रही है लेकिन खुद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का ये कहना कि वे भी कांगड़ा के ही है, उम्मीद की बड़ी वजह है। कांगड़ा को टूरिज्म कैपिटल बनाने का सीएम का विज़न हो या आईटी पार्क जैसे अधर में लटके प्रोजेक्ट्स में तेजी लाना, ये दर्शाता है कि सीएम सुक्खू कांगड़ा को लेकर किसी तरह की चूक करना नहीं चाहते। सीएम का नौ दिन का कांगड़ा दौरा भी इसकी तस्दीक करता है। सरकार के पिटारे में कांगड़ा के लिए न योजनाओं की कोई कमी नहीं दिखती। ये ही कारण है कि 2024 से पहले कांगड़ा में कांग्रेस जोश में है। इस बीच मंत्री पद भरने को लेकर फिर सुगबुगाहट तेज हुई है। माना जा रहा है कि कुल तीन रिक्त मंत्री पदों में से दो कांगड़ा के हिस्से आएंगे। इनमें एक ब्राह्मण हो सकता है और एक एससी। ऐसे में एक युवा राजपूत चेहरा भी डार्क हॉर्स है। बहरहाल अंदर की बात ये बताई जा रही है कि सब लगभग तय है और जल्द कांगड़ा को दो मंत्री पद मिलेंगे। प्रदेश की सियासत अपनी जगह पर 2024 में कांग्रेस के लिए कांगड़ा फ़तेह करना आसान नहीं होने वाला है। कई चुनौतियों के बीच कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है एक दमदार चेहरा। तीन चुनाव हार चुकी कांग्रेस को ऐसा चेहरा चाहिए जो जातीय, क्षेत्रीय और पार्टी की भीतरी राजनीति के लिहाज से संतुलन लेकर आएं। पिछले तीन चुनावों में पार्टी ने यहाँ से ओबीसी कार्ड खेला है, पर नतीजे प्रतिकूल रहे है। ऐसे में पार्टी को फिर सोचने की जरुरत जरूर है। बताया जा रहा ही कि पार्टी अभी से इस पर चिंतन -मंथन में जुटी है। खुद सीएम सुक्खू चाहते है कि जो भी चेहरा हो, उसे पर्याप्त समय मिले। चर्चा में कई वरिष्ठ नाम है जिनमें पूर्व सांसद और मंत्री चौधरी चंद्र कुमार, पूर्व मंत्री और विधायक सुधीर शर्मा, आशा कुमारी जैसे नाम शामिल है। पर संभव है कि इस बार पारम्परिक कास्ट डायनामिक्स को ताक पर रख पार्टी किसी युवा चेहरे को मैदान में उतारे। सुक्खू सरकार के आईटी सलाहकार गोकुल बुटेल भी ऐसा ही एक विकल्प हो सकते है। भाजपा से कौन होगा चेहरा ! 2009 से लेकर अब तक कांगड़ा लोकसभा सीट पर भाजपा लगातार जीत दर्ज करने में कामयाब रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में न केवल हिमाचल में बल्कि पूरे देश में भी सबसे ज्यादा मत प्रतिशत हासिल करने का रिकॉर्ड कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के सांसद किशन कपूर के नाम रहा था। 7,25,218 मत प्राप्त कर किशन कपूर लोकसभा पहुंचे, लेकिन इस बार सियासी समीकरण कुछ बदलते नज़र आ रहे है। दरअसल 2022 के विधानसभा चुनाव में भी कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा की परफॉरमेंस बेहद खराब रही है। इस संसदीय क्षेत्र की 17 में से सिर्फ पांच सीटें ही भाजपा जीत पाई है। ऐसे में क्या पार्टी चेहरा बदलेगी इसे लेकर कयासों का दौर जारी है। संभावित उम्मीदवारों की फेहरिस्त में मौजूदा सांसद किशन कपूर के अलावा कई और नाम चर्चा में है। इस लिस्ट में गद्दी समुदाय से धर्मशाला के पूर्व विधायक विशाल नेहरिया का नाम भी चर्चा में है। इसके अलावा कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए पवन काजल का नाम भी लिस्ट में है। अब देखना ये होगा कि भाजपा इस दफा कांगड़ा के दुर्ग को फ़तेह करने के लिए किस पर दांव खेलती है। कब कौन बना सांसद 1977 दुर्गा चंद भारतीय लोक दल 1980 विक्रम चंद महाजन कांग्रेस 1984 चंद्रेश कुमारी कांग्रेस 1989 शांता कुमार भाजपा 1991 डीडी खनौरिया भाजपा 1996 सत महाजन कांग्रेस 1998 शांता कुुमार भाजपा 1999 शांता कुमार भाजपा 2004 चंद्र कुमार कांग्रेस 2009 डॉ. राजन सुशांत भाजपा 2014 शांता कुमार भाजपा 2019 किशन कपूर भाजपा ReplyForward
वो लोग जो बेहतर की उम्मीद में साथ छोड़ कर गए थे, शायद आज वापस हाथ पकड़ने की सोचते होंगे। हम बात कर रहे है कांग्रेस के उन तमाम नेताओं की, जिनका पूर्वानुमान एक दम गलत साबित हुआ। वो नेता जो चुनाव से पहले सत्ता में आती हुई कांग्रेस का साथ छोड़ सत्ता से बाहर होती हुई भाजपा के खेमे में जा मिले थे। इस फेहरिस्त में काँगड़ा से विधायक पवन काजल, नालागढ़ से पूर्व विधायक लखविंदर राणा और हर्ष महाजन मुख्य तौर पर शामिल है। ये वो नेता है जिनका कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होना पार्टी के लिए बड़ा झटका माना जा रहा था, मगर परिणाम सामने आए तो झटका इन्हें ही लग गया। सर्विदित है कि अगर ऐसा न हुआ होता तो निजी तौर पर आज इनके लिए सियासी परिस्थितियां बेहतर हो सकती थी। हिमाचल प्रदेश में सत्ता की चाबी रखने वाले कांगड़ा जिले के ओबीसी नेता पवन काजल किसी समय कांग्रेस पार्टी की आंखों का 'काजल' माने जाते थे। मगर विधानसभा चुनाव से साढ़े 3 महीने पहले भाजपा ने कांग्रेस के इस 'काजल' को अपनी आंखों का 'नूर' बना लिया था। यूँ तो काजल भाजपा से ही कांग्रेस में आए थे, मगर काजल की ऐसे भाजपा में वापसी होगी ये किसी ने नहीं सोचा था। दरअसल पवन काजल ने वर्ष 2012 में भाजपा का टिकट नहीं मिलने पर बगावत करते हुए बतौर निर्दलीय कैंडिडेट चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। विधानसभा चुनाव में तब पवन काजल पहली बार जीते थे। पवन काजल के विधानसभा चुनाव जीतने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह उन्हें कांग्रेस में ले आए। वीरभद्र सिंह ने ही वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में पवन काजल को कांगड़ा से कांग्रेस का टिकट दिया। पवन काजल भी वीरभद्र सिंह के भरोसे पर खरा उतरे और लगातार दूसरी बार विधायक चुने गए। काजल अक्सर ये कहा भी करते थे कि वे कांग्रेस के साथ नहीं वीरभद्र सिंह के साथ है। कांग्रेस ने उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाया, मगर काजल ने कांग्रेस को छोड़ जाना सही समझा। काजल तो चुनाव जीत गए, मगर भाजपा चुनाव हार गई। माना जाता है कि अगर काजल पार्टी न छोड़ते तो उनका मंत्री पद तय था। बात लखविंदर राणा की करें तो राणा तीन बार कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ विधानसभा पहुंचे थे । वर्ष 2010-11 में नालागढ़ के तत्कालीन विधायक हरिनारायण सैणी के निधन के बाद हुए उपचुनाव में लखविंद्र राणा कांग्रेस के टिकट पर मैदान में उतरे और पहली बार विधायक चुने गए। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में राणा हार गए। वर्ष 2017 में उन्होंने एक बार फिर नालागढ़ सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। मगर 2022 के विधानसभा चुनाव से साढ़े 3 महीने पहले वह कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए। भाजपा ने उन्हें टिकट दिया मगर भाजपा में बगावत के चलते राणा चुनाव हार गए। इन दो विधायकों के अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कहे जाने वाले हर्ष महाजन भी चुनाव से पहले भाजपा के हो गए थे। शायद ही किसी ने सोचा हो कि वीरभद्र सिंह के हनुमान कहे जाने वाले हर्ष महाजन और कांग्रेस की राह अलग भी हो सकती है। हर्ष महाजन होलीलॉज के करीबी थे और वे कई बार वीरभद्र सिंह के चुनाव प्रभारी भी रह चुके थे। कहते है कि साल 2012 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह को मुख्यमंत्री बनाने में हर्ष महाजन का सबसे बड़ा योगदान रहा था। इस चुनाव से पहले भी कांग्रेस द्वारा इन्हें कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया था, मगर कांग्रेस पर नज़रअंदाज़गी का आरोप लगाते हुए महाजन भाजपा में शामिल हो गए थे। हालंकि अब भाजपा में हर्ष महाजन को कितनी तवज्जो मिल रही है, ये वे ही जानते होंगे। अगर महाजन कांग्रेस में रहते तो शायद बात कुछ और होती।
सियासी वार भी दिखा- तकरार भी दिखी, नारे भी लगे - वादे भी हुए, अतीत को कौसा गया, तो वर्तमान की खूब जयजयकार हुई। सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू के शुक्रवार को देहरा पहुंचने पर सियासी पारा चढ़ना तो लाजमी था। देहरा कांग्रेस और विधायक होशियार सिंह का आमना -सामना भी लाजमी था, ठीक वैसे ही जैसे कभी भाजपा कार्यकर्ताओं और होशियार सिंह के समर्थकों का होता था। वैसे ही नारे लगे और ऐसा लगा कि सिर्फ कुछ चेहरे नए है, सियासी फिल्म वही पुरानी चल रही हो। सीएम सुक्खू का कांगड़ा दौरा कई सियासी मायनों में महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसी कड़ी में आज मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू देहरा विधानसभा क्षेत्र पहुंचे थे। देहरा की सियासत हमेशा उफान पर रहती है और जैसा अपेक्षित था हुआ भी बिलकुल वैसा ही , पहले सीएम के समक्ष अपने -अपने नेताओं को लेकर गुटों ने खूब नारेबाजी की फिर जैसे तैसे स्थिति सामान्य हुई तो विधायक होशियार सिंह ने सियासी बाणों की बौछार कर दी। कभी जयराम ठाकुर के करीबी रहे होशियार सिंह ने मौके की नजाकत को समझते हुए सियासी होशियारी दिखाई और सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू के गुणगान करते नहीं थके। साथ ही पूरी होशियारी से अपने भाषण के दौरान विधायक होशियार सिंह ने देहरा की कई मांगे भी मुख्यमंत्री के समक्ष रखी। फिर ये भी कह दिया कि मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू हमारे जीजा है और अपने साले सालियों का ध्यान ज़रूर रखेंगे। इस दौरान होशियार सिंह ने केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर पर भी खूब सियासी बाण छोड़े और ये जता दिया कि 2024 के लिए देहरा को नज़रअंदाज़ करना भारी पड़ सकता है। इसके बाद बारी आई मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू की। सुक्खू ने देहरा की मांगों को पूरा करने का आश्वासन तो दिया ही, अपने अलग अंदाज़ में 2024 के लिए देहरा की जनता को विशेष संदेश भी। सीएम सुक्खू ने कहा कि सालों से कहा जाता है कि 'देहरा कोई नहीं तेरा' लेकिन अब 'देहरा मेरा है'। सीएम ने कहा कि अब देहरा का हर काम होगा। जिस देहरा के लिए कहा जाता था 'कोई नहीं तेरा' उसको सीएम अपना बोल महफ़िल लूट गए।
केंद्र में 9 साल से भाजपा सत्तासीन है सत्ता की कमान संभल रहे है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। 26 मई 2014 को पीएम नरेंद्र मोदी ने केंद्र सरकार की कमान संभाली थी। 2014 में मोदी के चेहरे पर बीजेपी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया था और फिर 2019 में इसे दोहराया। बीते 9 सालों में मोदी सरकार ने कई बड़े फैसले लिए। इन 9 साल में जनता तक कई लाभकारी योजनाएं पहुंची है। मोदी सरकार ने कई बड़े फैसले भी लिए है जिन्होंने देश की तरक्की में तो योगदान दिया ही है, राजनीति के लिहाज से भी निर्णायक सिद्ध हुए है। वहीँ नोट बंदी जैसे फैसलों की आलोचना भी खूब हुई। 1. स्वच्छ भारत अभियान 2014 में पीएम नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की। इसे लोकप्रियता भी मिली और इस अभियान ने लोगों में जागरूकता भी बढ़ाई। 2. पीएम आवास योजना 2015 में पीएम आवास योजना को तेजी से आगे बढ़ाने का फैसला लिया गया। इस योजना का लाभ लाखों लोगों को मिला है। 3. नोटबंदी 2016 में नोटबंदी का फैसला कर पीएम मोदी ने सभी को चौंका दिया था। इसे लेकर विपक्ष अब भी सवाल उठाता है। 4. जीएसटी 2017 में देश की अर्थव्यवस्था को तेज गति देने के लिए जीएसटी लागू करने का फैसला किया। 5. आयुष्मान भारत योजना 2018 में मोदी सरकार ने पात्र लाभार्थियों के लिए आयुष्मान भारत योजना शुरू की। इसके तहत पात्र लाभार्थियों को मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती हैं। 6. आर्टिकल 370 2019 में मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटाने का फैसला किया था। आम तौर पर सरकार की आलोचना करने वाले भी इसके समर्थन में दिखे थे। 7. राम मंदिर निर्माण अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 2020 में मोदी सरकार ने राम मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट का गठन कर दिया था। 8. टीकाकरण अभियान 2021 में कोरोना से बचाव के लिए मोदी सरकार ने स्वदेशी वैक्सीन के जरिये टीकाकरण अभियान की शुरुआत की। 9. 5G सेवाएं डिजिटल इंडिया के सपने को पूरा करने के लिए 2022 में मोदी सरकार ने 5G सेवाओं की शुरुआत की।
5 स्वयंसेवकों से शुरू हुआ और देश का सबसे मजबूत संगठन बना साल था 1925 और तारीख थी 27 सितंबर, नागपुर में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने आरएसएस की नींव रखी थी। दशहरे का दिन था और ये संघ की पहली शाखा थी जो संघ के पांच स्वयंसेवकों के साथ शुरू की गई थी। अपने गठन के बाद राष्ट्र की अवधारणा पर संघ ने खूब ध्यान दिया । सावरकर की हिंदुत्व की अवधारणा का भी संघ की विचारधारा पर भरपूर असर रहा। इस बीच हेडगेवार खुद तो कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे कई आंदोलनों में शामिल हुए लेकिन उन्होंने संघ को इससे दूर रखा। गांधी जी के नेतृत्व में शुरू हुए दांडी मार्च, यानी सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने हिस्सा लिया, मगर संघ को इससे दूर रखा। 21 जून 1940 को डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की मृत्यु हो गई और उनके बाद संघ की कमान आई माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर के हाथ। दरअसल हेडगेवार चिट्ठी के जरिये गोलवलकर को उत्तराधिकारी नामित कर गए थे। इस तरह गोलवलकर यानी 'गुरुजी' सरसंघचालक बने। 1940 से लेकर 1973 तक, यानी अपनी देह छोड़ने तक उन्होंने संघ का नेतृत्व किया। दिलचस्प बात ये है कि उनकी मृत्यु के बाद भी एक चिट्ठी के आधार पर अगला उत्तराधिकारी चुना गया। स्वयंसेवकों के नाम तीन चिट्ठियां खोली गई थी और इनमें से एक में अगले सरसंघचालक के रूप में बाला साहब देवरस का नाम था। देवरस 1993 तक सरसंघचालक रहे और उनके दौर में ही राम मंदिर आंदोलन पर सवार हो संघ का राजनैतिक विंग भाजपा मजबूत हुई। इसके बाद प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ़ रज्जु भैया 1993 से 2000 तक, के एस सुदर्शन 2000 से 2009 तक और वर्ष 2009 से अब तक मोहन भागवत ने संघ की कमान संभाली। यानी 98 साल के इतिहास में संघ का नेतृत्व सिर्फ 6 लोगों ने किया है। पांच स्वयंसेवकों के साथ शुरू हुआ संघ अपने करीब 98 साल के सफर में बेहद मजबूत हो चूका है। संघ का खूब विस्तार हुआ है, संघ ने कई अनुषांगिक संगठन खड़े किए हैं और आज देश के कोने-कोने में हजारों शाखाएं चलती है। इससे भी अहम् बात ये है कि संघ का पोलिटिकल विंग यानी भारतीय जनता पार्टी आज देश की सबसे मजबूत पार्टी है। बेशक संघ खुद को गैर राजनैतिक करार दें, लेकिन उसे राजनीति से अलग नहीं रखा जा सकता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इस लम्बी यात्रा में तीन मौके ऐसे भी आए जब उसे प्रतिबंध झेलना पड़ा। महात्मा गांधी की हत्या के बाद लगा पहली बार प्रतिबन्ध : 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिड़ला हाउस में महात्मा गाँधी की हत्या कर दी गई और उनकी हत्या करने वाला था नाथूराम गोडसे। अहिंसा के पुजारी गाँधी की इस हत्या ने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया। इसकी साज़िश रचने का शक आरएसएस पर था और नतीजन बापू की हत्या के 5 दिन बाद यानी 4 फरवरी 1948 को सरकार ने आरएसएस पर बैन लगा दिया। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक एमएस गोलवलकर और प्रमुख नेता बाला साहब देवरस समेत कई कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए। आरएसएस का कहना था कि उनका इसमें कोई हाथ नहीं है लेकिन शक के आधार पर कार्रवाई हुई। बाद में जब पुलिस जांच की रिपोर्ट आई तब उसमें कहा गया कि महात्मा गांधी की हत्या में आरएसएस का कोई हाथ नहीं है, हालांकि तब इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया। उधर गांधी जी की हत्या और उसके बाद लगे प्रतिबंधों के कारण संघ के अंदर भी मतभेद शुरू हो गए थे और लगने लगा कि लगा कि संघ टूट जाएगा। कहते है आरएसएस और सरकार के बीच बातचीत भी हुई और संघ की ओर से स्पष्ट कहा गया कि यदि प्रतिबन्ध नहीं हटाया गया तो वे राजनीतिक पार्टी बना लेंगे। आखिरकार 11 जुलाई 1949 को सरकार ने संघ पर से सशर्त प्रतिबंध हटा लिया। प्रतिबंध हटाने की शर्त यह थी कि, * आरएसएस अपना संविधान बनाएगा और अपने संगठन में चुनाव करवाएगा। * आरएसएस किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेगा और खुद को सांस्कृतिक गतिविधियों तक सीमित रखेगा। प्रतिबंध हटने के बाद आरएसएस ने सीधे तौर पर तो राजनीति में हिस्सा नहीं लिया लेकिन 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में जनसंघ नाम की पार्टी बना दी गई। फिर 1980 में इसी जनसंघ के लोगों ने ही भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। इमरजेंसी के दौर में लगा दूसरी बार प्रतिबंध : साल था 1975 का और जून के महीने में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को बड़ा झटका लगा था। दरअसल इलाहबाद हाई कोर्ट का निर्णय इंदिरा गाँधी के खिलाफ आया और उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द हो गई। साथ ही अदालत ने अगले 6 साल तक उनके कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी, सो ऐसी स्थिति में इंदिरा गांधी के पास राज्यसभा जाने का रास्ता भी नहीं बचा था। हालांकि अदालत ने कांग्रेस पार्टी को थोड़ी राहत देते हुए नया प्रधानमंत्री बनाने के लिए तीन हफ्तों का वक्त दे दिया था। इंदिरा गांधी ने तय किया कि वे 3 हफ़्तों की मिली मोहलत का फायदा उठाते हुए इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगी। पर कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि वे इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर पूर्ण रोक नहीं लगाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा को प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति तो दे दी, लेकिन कहा कि वे अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं। इस बीच 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के ऊपर देश में लोकतंत्र का गला घोंटने का आरोप लगाया और" सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" का नारा बुलंद किया। जयप्रकाश ने अपील कि वे लोग इस दमनकारी निरंकुश सरकार के आदेशों को ना मानें। इसी रैली के आधार पर इंदिरा ने आपातकाल। 25 जून 1975 को लागू हुआ आपातकाल 21 मार्च 1977 तक चला। जाहिर सी बात है कि आरएसएस भी आपत्काल के खिलाफ मुखर था। बाला साहब देवरस आरएसएस के सरसंघचालक बन चुके थे। आपातकाल में तमाम विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया जा रहा था और सरसंघचालक बाला साहब देवरस भी गिरफ्तार कर लिए गए। संघ के कार्यकर्ता भी बड़ी संख्या में गिरफ्तार किए गए। इसके बाद 4 जुलाई 1975 को सरकार ने आरएसएस पर एक बार फिर प्रतिबंध लगा दिया। जब इमरजेंसी हटी और चुनाव हुए, तो इंदिरा गांधी की हार हुई और विपक्षी एकता के नाम पर बनी जनता पार्टी सत्ता में आई। जनता पार्टी ने सत्ता में आते ही आरएसएस से प्रतिबंध हटा लिया। बाबरी विध्वंस के बाद लगा तीसरी बार प्रतिबन्ध : 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ और आरएसएस अब अपने पोलिटिकल विंग को सत्ता के शीर्ष पर देखना चाहता था। भाजपा ने 1984 का लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन केवल 2 सीटों पर सिमट गई। संघ और भाजपा समझ चुके थे कि मध्यम मार्गी होकर सफलता नहीं मिलेगी। इस बीच राजीव गाँधी सरकार ने फरवरी 1986 में अयोध्या के विवादित परिसर का ताला खोल दिया और मंदिर-मस्जिद की राजनीति शुरू हो गई। यहां से भाजपा और आरएसएस ने अयोध्या राम मंदिर के मुद्दे को लपक लिया और देखते ही देखते ये देश का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया। 1986 से 1992 के बीच राम मंदिर मुद्दे पर खूब टकराव, हिंसा हुई और हज़ारों लोगों की जानें गई। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में उन्मादी भीड़ ने विवादित ढांचे का गुंबद गिरा दिया। इस घटना से अंतरराष्ट्रीय पटल पर भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि धूमिल हुई और देश में कई जगह हिंसा हुई। इस प्रकरण में आरएसएस और भाजपा के शामिल होने की बात कही जाने लगी। आखिरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने यूपी समेत 4 राज्यों की भाजपा सरकारों को बर्खास्त कर दिया और 10 दिसंबर 1992 को आरएसएस पर तीसरी बार प्रतिबन्ध लगा। फिर जांच हुई और सीधे तौर पर आरएसएस के खिलाफ कुछ नहीं मिला और आखिरकार 4 जून 1993 को सरकार को आरएसएस पर से प्रतिबंध हटाना पड़ा। ............................
जेठ के महीने में तपते राजस्थान में सियासत भी खूब गरमाई हुई है। इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने है और सत्ताधारी कांग्रेस का भीतरी सियासी पारा रिकॉर्ड तोड़ रहा है। कभी गहलोत के को-पायलट रहे सचिन पायलट अपनी ही सरकार की किरकिरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। उधर, गहलोत भी हमेशा की तरह अपने चिर परिचित अंदाज में सियासी बिसात जमाने में लगे है। पांच साल से खींची आ रही दोनों नेताओं के बीच की अदावत शायद अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुकी है। संभवतः पायलट और कांग्रेस की राह जुदा होने का समय अब आ चुका है। राजस्थान कांग्रेस का पिछले पांच साल का सियासी घटनाक्रम किसी सस्पेंस थ्रिलर से कम नहीं रहा है। 2018 में सचिन पायलट के सियासी अरमान क्रैश कर अशोक गहलोत राजस्थान के मुख्यमंत्री बने थे और साबित किया था कि उन्हें 'सियासत का जादूगर' क्यों कहा जाता है। दरअसल 2013 में कांग्रेस के चुनाव हारने के बाद से वो सचिन पायलट ही थे जो राजस्थान में बतौर अध्यक्ष कांग्रेस की वापसी की जमीन तैयार करते रहे। वहीँ गहलोत बतौर राष्ट्रीय महासचिव केंद्र में सक्रिय थे। पर 2018 का विधानसभा चुनाव नजदीक आते -आते गहलोत राजस्थान लौटे और इसी के साथ ये लगभग तय था कि पायलट के हाथ खाली रहने वाले है। नतीजे आएं तो जो कांग्रेस डेढ़ सौ सीट का दावा कर रही थी वो 99 पर अटक गई जो बहुमत से दो कम था। पायलट के कई करीबी चुनाव हारे और चुनकर आएं विधायकों में गहलोत समर्थकों का बहुमत था। वहीं बाहरी समर्थन से सरकार बनानी भी थी और पांच साल चलानी भी थी, सो लाजमी था कि अनुभवी गहलोत को ही कमान मिले। हुआ भी ऐसा ही, गहलोत सीएम बने और पायलट डिप्टी सीएम। सचिन पायलट को डिप्टी सीएम का पद दिल से मंजूर नहीं था, ये तो सर्वविदित है। उधर गहलोत के अपने तेवर, अपना तरीका है। भविष्य की झलक शपथ ग्रहण में ही दिख गई थी जब डिप्टी सीएम के लिए सीएम के बगल में अलग से कुर्सी लगवानी पड़ी। आखिर, खींची तलवारें कब तक मयान में रहती, आहिस्ता -आहिस्ता तल्खियों की झलकियां दिखने लगी और स्पष्ट हो गया कि राजस्थान कांग्रेस में सबकुछ ठीक नहीं है। साल था 2020 और मार्च महीने में सचिन पायलट के दोस्त ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी का दामन थाम चुके थे और मध्य प्रदेश में भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था। गहलोत भी इस बात को समझ रहे थे कि भाजपा का अगला निशाना वे ही होंगे। जून में राजस्थान में 3 राज्यसभा सीटों का चुनाव था और अशोक गहलोत को दगाबाजी का डर था, इसलिए 19 जून को चुनाव से करीब एक सप्ताह पहले ही विधायकों की बाड़ेबंदी कर दी गई थी। इसके साथ ही गहलोत ने इशारों इशारों में सचिन पायलट पर निशाना- साधना शुरू कर दिया था। गहलोत आक्रामक होते गए और विधायकों की खरीद-फरोख्त मामले में राजस्थान पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप ने कई निर्दलीय विधायकों के साथ ही डिप्टी सीएम सचिन पायलट को भी नोटिस भेजा। कहा गया कि अशोक गहलोत के इशारों पर सचिन पायलट को नोटिस भेजा गया है, हालांकि खुद गहलोत को भी नोटिस मिला था। इसके बाद पायलट और उनके साथी विधायक शिकायत लेकर दिल्ली पहुंच गए और इसी नोटिस को वजह बताकर बगावत कर दी। सत्ता के उड़न खटोले को उड़ाने की इच्छा लिए पायलट अपने समर्थक विधायकों के साथ मानेसर के एक रिज़ॉर्ट में शिफ्ट हो गए। बताया गया उनके साथ 25 विधायक थे और पायलट ने अशोक गहलोत सरकार के अल्पमत में आ जाने का ऐलान कर दिया। उधर भाजपा पूरा तमाशा देख रही थी और मौके की तलाश में थी। पर गहलोत को यूँ ही सियासत का जादूगर नहीं कहा जाता। दरअसल खतरे को भांपते हुए गहलोत पहले ही अपनी रणनीति पक्का करने में जुटे थे और कभी भी बैकफुट पर नहीं दिखे। पायलट खेमे से कुछ विधायक को गहलोत ले ही आएं, बसपा के 6 और अन्य छोटे दलों के विधायकों के अलावा निर्दलीय भी गहलोत ने पहले ही साध रखे थे। सीएम आवास पर 13 जुलाई को विधायक दल की बैठक बुलाई गई और मौजूदा विधायकों की संख्या करीब 106 बताई गई जो बहुमत से 5 ज्यादा थी। इसके बाद पायलट गुट के तीन विधायक भी गहलोत के साथ हो लिए और पायलट के पास कुछ नहीं बचा। गहलोत ने अपने सियासी दाव पेंचों को साधते हुए सरकार बचा ली। उधर, सचिन पायलट को भी कांग्रेस आलाकमान मनाने में कामयाब हो गया और पायलट लौट आएं लेकिन कमजोर होकर। उनके पास न डिप्टी सीएम का पद रहा और न प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का। सरकार और संगठन, दोनों में बैकफुट पर चल रहे सचिन पायलट की उम्मीद 2022 के अंत में फिर जगी। दरअसल, अशोक गहलोत कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के लिए गांधी परिवार की पसंद थे। माना जा रहा था कि गहलोत सीएम का पद छोड़ पार्टी की कमान संभालेंगे, पर गहलोत का इरादा सीएम की कुर्सी छोड़ने का नहीं था। खासतौर से पायलट के लिए छोड़ने का तो बिलकुल नहीं था। गहलोत ने खुलकर कहा कि जिसने सरकार गिराने की साजिश की वो विधायकों को मंजूर नहीं है। आलाकमान सीएम पद पर पायलट को सेट करना चाह रहा था, पर गहलोत के मन में कुछ और ही चल रहा था। नए राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनाव की गहमागहमी के बीच पार्टी आलाकमान ने जयपुर में विधायक दल की बैठक बुलाई ताकि नए मुख्यमंत्री के नाम पर सहमति बन सके। माना जाता है कि आलाकमान पायलट को कमान देने का मन बना चुका था लेकिन गहलोत को ये मंजूर नहीं था। बैठक में गहलोत समर्थित विधायक नहीं पहुंचे और ये गहलोत का आलाकामन को सन्देश था कि पायलट नहीं चलेंगे। आलाकामन भी गहलोत के आगे बेबस हुआ और गहलोत सीएम पद पर बने रहे। हालांकि राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए उनकी जगह मालिकार्जुन खरगे को बढ़ाया गया। अब बीते कुछ दिनों से फिर राजस्थान कांग्रेस में खींचतान चरम पर है। पायलट अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है। पायलट भी जानते हैं कि इस बार बगावत का नतीजा काफी अलग हो सकता है। सचिन पायलट, गहलोत सरकार पर भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करने का आरोप लगाते हुए सरकार को घेर रहे हैं। वे विशेषकर वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत के बीच मिलीभगत के आरोप लगा रहे है। पायलट अपनी ही सरकार के खिलाफ यात्रा निकाल रहे है। यानी पानी सर से ऊपर उठता दिख रहा है और जानकार मान रहे है कि उन्हें पार्टी से निष्कासित भी किया जा सकता है। शायद पायलट खुद ऐसा चाहते हों ताकि उन्हें सहानुभूति मिल सके। उधर गहलोत खेमे का कहना है कि सचिन पायलट छोटी छोटी बातों पर रुठ जाते हैं, वह नाखून कटवा कर शहीद बनने की कोशिश कर रहे हैं। इस बीच निगाहें टिकी है आलाकमान पर। ये देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी आलाकमान किस तरह इस समस्या का हल निकालता है। उलझे सियासी समीकरण, क्या होगा अगला कदम ? अगर पायलट और कांग्रेस की राह अलग होती है तो उनका अगला ठिकाना क्या होगा, इसे लेकर भी कयासबाजी हो रही है। दरअसल, राजस्थान भाजपा में भी कई गुट है और पायलट इनमें से एक वसुंधरा राजे के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोले हुए है। ऐसे में पायलट का भाजपा में जाना मुश्किल लगता है बशर्ते वसुंधरा भाजपा में पूरी तरह दरकिनार हो जाएँ। पर वसुंधरा की जमीनी पकड़ को देखते हुए भाजपा के लिए ऐसा करना आत्मघाती हो सकता है। उधर, बीते दिनों वसुंधरा को उनकी सरकार बचाने में सहायक बताकर गहलोत पहले ही बड़ा सियासी दांव चल चुके है जिसने सबको कंफ्यूज किया हुआ है। ऐसे में जब तक भाजपा आलाकमान अपना मन न बना ले, कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा। वहीँ सचिन पायलट के सामने अपनी अलग पार्टी बनाने का विकल्प भी है और माहिर मान रहे है कि पायलट इसी नीति पर आगे बढ़ेंगे। यदि पायलट जाते है और कांग्रेस में बड़ी टूट होती है तो निसंदेह गहलोत की सत्ता वापसी मुश्किल होगी। वहीँ भाजपा के लिए भी पायलट शायद ऐसी स्थिति में जायदा फायदेमंद हो।
हिमाचल प्रदेश में सत्ता गवाने के करीब पांच महीने बाद भाजपा को कर्नाटक में भी हार का सामना करना पड़ा है। भाजपा सरकार की कर्नाटक से विदाई हो गई है और निसंदेह ये पार्टी के लिए बड़ा झटका है। उधर कांग्रेस ने शानदार जीत दर्ज की है और 130 प्लस के आंकड़े के साथ सत्ता में वापसी की है। कर्नाटक की जनता ने स्पष्ट जनादेश दिया है और ऐसे में 'किंगमेकर' बनने का ख्वाब देख रही जेडीएस को भी बड़ा झटका लगा है। कर्नाटक में कांग्रेस ने कई मुद्दों पर भाजपा को पीछे छोड़ दिया। फिर चाहे वो भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या ध्रुवीकरण का। बजरंग दल पर बैन की बात करके मुस्लिम वोटों को अपने पाले में कर लिया। वहीं, 75 प्रतिशत के आरक्षण का दांव चलकर भाजपा के हिंदुत्व के कार्ड को फेल कर दिया। कांग्रेस ने कर्नाटक में दलित, ओबीसी, लिंगायत, हर तबके वोटर्स को अपने पाले में करने में कामयाबी हासिल की। कर्नाटक में 224 सदस्यीय विधानसभा के लिए 10 मई को रिकॉर्ड 73.19 प्रतिशत मतदान हुआ था ,जिसे सत्ता विरोधी लहर के साथ जोड़ कर देखा जा रहा था। हुआ भी ऐसा ही और कर्नाटक की जनता ने भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। इसके साथ ही राज्य में चला आ रहा सत्ता परिवर्तन का रिवाज भी कायम रहा। उधर, देशभर में राजनीतिक संकट से जूझ रही कांग्रेस के लिए कर्नाटक जीत बड़ी है। एक के बाद एक लगातार हार रही देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए पहले हिमाचल प्रदेश और अब कर्नाटक चुनाव संजीवनी साबित हो सकते है। इसी वर्ष के अंत में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव भी है, ऐसे में कर्नाटक की जीत पार्टी का मनोबल बढ़ानी वाली है। वहीँ लोकसभा में भी कर्नाटक की 28 सीटें है, उस लिहाज से भी कांग्रेस के लिए ये सुखद संकेत जरूर है। वहीँ भाजपा के लिए कर्नाटक की हार आत्ममंथन का संदर्भ जरूर है। पार्टी को ये समझना होगा कि सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर राज्यों के चुनाव नहीं जीते जा सकते है। भाजपा को स्थानीय नेतृत्व और स्थानीय मुद्दों की अहमियत भी समझना होगा। पीएम मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ जैसे पार्टी के बड़े चेहरों ने कर्नाटक में पूरी ताकत झोंकी और इनके कार्यक्रमों में भीड़ भी उमड़ी, लेकिन ये भी वोटों में तब्दील नहीं हुई। नतीजे बयां करते है कि कर्नाटक चुनाव में धार्मिक ध्रुवीकरण पर जमीनी मुद्दे भारी पड़े है। 'बजरंगबली' और 'दी केरल स्टोरी' जैसे मुद्दों पर जनता ने आम मुद्दों को तरजीह दी और इसी की बिसात पर कांग्रेस को सत्ता नसीब हुई। बहरहाल कांग्रेस के लिए ये पिछले 6 महीने में दूसरी बड़ी जीत है और पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल निसंदेह इस जीत से बढ़ेगा। कर्नाटक में भी रिवाज बरकरार : कर्नाटक में 38 साल से सत्ता रिपीट नहीं हुई है। आखिरी बार 1985 में रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व वाली जनता पार्टी ने सत्ता में रहते हुए चुनाव जीता था। वहीं, पिछले पांच चुनाव (1999, 2004, 2008, 2013 और 2018) में से सिर्फ दो बार (1999, 2013) सिंगल पार्टी को बहुमत मिला। भाजपा 2004, 2008, 2018 में सबसे बड़ी पार्टी बनी। उसने बाहरी सपोर्ट से सरकार बनाई। रिकॉर्ड मतदान, पिछले चुनाव से 1% ज्यादा 10 मई को 224 सीटों के लिए 2,615 उम्मीदवारों के लिए 5.13 करोड़ मतदाताओं ने वोट डाले। चुनाव आयोग के मुताबिक, कर्नाटक में 73.19% मतदान हुआ है। यह 1957 के बाद राज्य के चुनावी इतिहास में सबसे ज्यादा है। भाजपा ने ऐसी बनाई थी सरकार : 2018 में भाजपा ने 104, कांग्रेस ने 78 और जेडीएस ने 37 सीटें जीती थी। किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था। भाजपा से येदियुरप्पा ने 17 मई को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन सदन में बहुमत साबित न कर पाने की वजह से 23 मई को इस्तीफा दे दिया। इसके बाद कांग्रेस-जेडीएस की गठबंधन सरकार बनी। 14 महीने बाद कर्नाटक की सियासत ने फिर करवट ली। कांग्रेस और जेडीएस के कुछ विधायकों की बगावत के बाद कुमारस्वामी को कुर्सी छोड़नी पड़ी। इन बागियों को येदियुरप्पा ने भाजपा में मिलाया और 26 जुलाई 2019 को 119 विधायकों के समर्थन के साथ वे फिर मुख्यमंत्री बने, लेकिन 2 साल बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया। भाजपा ने बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया।
'कर्नाटक में 2004, 2008 और फिर 2018 में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था। 2013 में कांग्रेस ने 122 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी। सूबे में मुख्य लड़ाई लंबे समय से भाजपा और कांग्रेस के बीच ही रही है। कांग्रेस ने कई बार पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई है, जबकि भाजपा को कभी भी पूर्ण बहुमत नहीं मिला। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ। कांग्रेस की इस जीत के पीछे कई बड़े कारण है। 1. आरक्षण का वादा दे गया फायदा : कर्नाटक चुनाव में भाजपा ने चार प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण खत्म करके लिंगायत और अन्य वर्ग में बांट दिया। पार्टी को इससे फायदे की उम्मीद थी, लेकिन ऐन वक्त में कांग्रेस ने बड़ा पासा फेंक दिया। कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 75 फीसदी करने का एलान कर दिया। आरक्षण के वादे ने कांग्रेस को बड़ा फायदा पहुंचाया। 2. खरगे का अध्यक्ष बनना : ये भावनात्मक तौर पर कांग्रेस को फायदा दे गया। कांग्रेस ने चुनाव से पहले मल्लिकार्जुन खरगे को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया। खरगे कर्नाटक के दलित समुदाय से आते हैं। ऐसे में कांग्रेस ने खरगे के जरिए भावनात्मक तौर पर कर्नाटक के लोगों को पार्टी से जोड़ दिया। 3. राहुल गांधी की यात्रा : राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से जम्मू कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा निकाली थी। इस यात्रा का सबसे ज्यादा समय कर्नाटक में ही बीता। ये राहुल गांधी की एक बड़ी रणनीति का हिस्सा रहा। इस यात्रा के जरिए राहुल ने कर्नाटक में कांग्रेस को मजबूत किया। 4 नहीं बंटा मुस्लिम वोट : एक वजह ये भी मानी जा रही है कि कर्नाटक चुनाव में मुस्लिम वोट बीजेपी के खिलाफ पीएफआई और बजरंग बली के मुद्दे पर एकजुट हो गया। एकमुश्त मुस्लिम वोट कांग्रेस को मिला। 5 प्रियंका गाँधी रही हिट : कर्नाटक में राहुल गांधी से ज़्यादा प्रियंका गांधी ने प्रचार किया। प्रियंका ने 35 रैलियां और रोड शो किए। दक्षिण के राज्यों में कांग्रेस ने प्रियंका को उतारकर नया प्रयोग किया और उनको इंदिरा गांधी से जोड़कर प्रेजेंट किया, इसका फायदा मिला। 6 मजबूत स्थानीय नेतृत्व : इस चुनाव में कांग्रेस का सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट रहे हैं रीजनल लीडर और लोकल मुद्दे। कांग्रेस ने चुनाव में क्षेत्रीय नेताओं को आगे रखा और जमीनी मुद्दों को अपने एजेंडे में रखा, जो वोटों में परिवर्तित हुआ। कांग्रेस को बड़े मार्जिन से जीत मिली है।
चुनाव प्रचार के दौरान ही कर्नाटक चुनाव की तस्वीर काफी हद तक साफ हो गई थी। इस बार चुनाव में भाजपा बैकफुट पर नजर आ रही थी और कांग्रेस काफी आक्रामक थी। ऐसे में भाजपा की इस हार का मतलब साफ है। 1 मजबूत चेहरा न होना: कर्नाटक में बीजेपी की हार का बड़ा कारण मजबूत चेहरे का न होना माना जा रहा रहा है। दरअसल पार्टी ने येदियुरप्पा की जगह बसवराज बोम्मई को आगे बढ़ाया लेकिन वे कोई कमाल नहीं कर सके। दूसरी तरफ कांग्रेस में कई दमदार चेहरे है जो फ्रंट फुट से पार्टी को लीड करते दिखे। 2 भ्रष्टाचार के आरोपों ने पहुंचाया नुकसान : ये मुद्दा पूरे चुनाव में हावी रहा। चुनाव से कुछ समय पहले ही भाजपा के एक विधायक के बेटे को रंगे हाथों घूस लेते हुए पकड़ा गया था। इसके चलते भाजपा विधायक को भी जेल जाना पड़ा। एक ठेकेदार ने भाजपा सरकार पर 40 प्रतिशत कमिशनखोरी का आरोप लगाते हुए फांसी लगा ली थी। कांग्रेस ने इस मुद्दे को पूरे चुनाव में जोरशोर से उठाया। 3 नहीं चला ध्रुवीकरण का दांव : कर्नाटक में एक साल से बीजेपी के नेता हलाला, हिजाब से लेकर अजान तक के मुद्दे उठाते रहे। चुनाव के दौरान बजरंगबली और दी केरल स्टोरी मुद्दे बनाये गए, लेकिन जनता ने जमीनी मुद्दों पर वोट किया। 4 . आरक्षण का मुद्दा पड़ा भारी : कर्नाटक में भाजपा ने चार प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण खत्म करके लिंगायत और अन्य वर्ग में बांट दिया। पार्टी को इससे फायदे की उम्मीद थी, लेकिन ऐन वक्त में कांग्रेस ने बड़ा पासा फेंक दिया। कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 75 फीसदी करने का ऐलान कर दिया। 5 . टिकट बंटवारे ने बिगाड़ा बाकी खेल : भाजपा में टिकट बंटवारे को लेकर भी बड़ी चूक हुई। पार्टी के कई दिग्गज नेताओं का टिकट काटना भाजपा को भारी पड़ा। पार्टी नेताओं की बगावत ने भी कई सीटों पर भाजपा को नुकसान पहुंचाया है। करीब 15 से ज्यादा ऐसी सीटें हैं, जहां भाजपा के बागी नेताओं ने चुनाव लड़ा और पार्टी को बड़ा नुकसान पहुंचाया। 6. दक्षिण बनाम उत्तर की लड़ाई का भी असर : इसे भी एक बड़ा कारण मान सकते हैं। इस वक्त दक्षिण बनाम उत्तर की बड़ी लड़ाई चल रही है। भाजपा राष्ट्रीय पार्टी है और मौजूदा समय केंद्र की सत्ता में है। ऐसे में भाजपा नेताओं ने हिंदी बनाम कन्नड़ की लड़ाई में मौन रखना ठीक समझा। वहीं, कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने मुखर होकर इस मुद्दे को कर्नाटक में उठाया।
कर्नाटक में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है और पार्टी ने बहुमत का जादुई आंकड़ा पार कर लिया है। इसके साथ ही मुख्यमंत्री कौन होगा इसे लेकर भी माथपच्ची शुरू हो गई है। सीएम पद की रेस में सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार सबसे आगे हैं और इन दोनों में से किसी एक नेता का चुनाव पार्ट के लिए सरदर्द साबित हो सकता है। सिद्धारमैया ज्यादा अनुभवी और वरिष्ठ नेता हैं और उनके पास सरकार चलाने का अनुभव है, जबकि डीकेएस चुनौती देने वाले नेता हैं और सोनिया गांधी करीबी हैं। ऐसे में आलाकमान के लिए फैसला मुश्किल होने वाला है। वैसे माहिर मान रहे है कि अगर सभी विधायकों के बहुमत के साथ भी फैसला लिया जाता है तो सिद्धारमैया अधिक स्वीकार्य मुख्यमंत्री चेहरा हो सकते है। सिद्धारमैया : बड़ा कद, लम्बा राजनैतिक अनुभव राज्य में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता सिद्धारमैया को फिर से मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार माना जा रहा है। सिद्धारमैया साल 2013 से लेकर साल 2018 तक कर्नाटक के मुख्यमंत्री का पद संभाल चुके हैं। ऐसे में सिद्धारमैया पार्टी की पहली पसंद हो सकते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने अपने कार्यकाल के दौरान कई सामाजिक-आर्थिक सुधार योजनाएं शुरू की थी जिन्होंने उन्हें आर्थिक कमजोर वर्ग के बीच ख़ासा लोकप्रिय बनाया। पर अपनी पिछली सरकार के दौरान उन्होंने कुछ ऐसे फैसले भी लिए थे जिनसे लिंगायत, विशेष रूप से हिंदू वोटरों के बीच में उनकी लोकप्रियता घटी, मसलन टीपू सुल्तान को इतिहास से हटाकर उनका महिमामंडन करना, जेल से आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे पीएफआई और एसडीपीआई के कई कार्यकर्ताओं को रिहा करना इत्यादि। 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी उनके नेतृत्व में रिपीट करने में कामयाब नहीं रही थी जिसके बाद कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन सरकार बनाई। हालाँकि वो सरकार महज एक साल ही चल सकी। अब दोबारा बहुमत मिलने पर क्या कांग्रेस फिर सिद्धारमैया को सीएम पद सौपेंगी, ये देखना रोचक होगा। डीके शिवकुमार: प्रदेश अध्यक्ष, कमतर नहीं दावा चुनाव नतीजे के एक दिन पहले ही डीके शिवकुमार ने एक ट्वीट किया है, जिससे यह साफ संकेत मिल रहा है कि डीके शिवकुमार की दावेदारी कम नहीं है। दरअसल, कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों से ठीक एक दिन पहले डीके शिवकुमार ने कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष के रूप में अपनी तीन सालों की मेहनत का ट्रेलर का वीडियो साझा करते हुए, एक किस्म से अप्रत्यक्ष तौर पर मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश कर दी है। डीके शिवकुमार कनकपुरा सीट से लगातार 9वीं बार विधायक हैं। इस विधानसभा चुनाव में बीजेपी को हराने में शिवकुमार की अहम् भूमिका है। हालाँकि मनी लॉन्ड्रिंग और टैक्स चोरी के आरोप में उन्हें साल 2019 में दिल्ली के तिहाड़ जेल में दो महीने बिताने पड़े थे। शिवकुमार कई बार कह चुके है कि जेल में रहने के दौरान उनके साथ नियम पुस्तिका के खिलाफ सबसे कठोर व्यवहार किया गया था क्योंकि उनकी गिरफ्तारी राजनीतिक प्रतिशोध थी। अब कांग्रेस क्या राज्य के सबसे अनुभवी नेता माने जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया पर उन्हें वरीयता देगी, इस पर सबकी निगाह टिकी है। सरप्राइज की सम्भावना भी खारिज नहीं ! कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे भी कर्नाटक से आते है और खरगे के नाम को लेकर भी कयास लगते रहे है। कर्नाटक कांग्रेस में दो ताकतवर गुट यानी सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार गुट आमने- सामने है और दोनों नेताओं के समर्थक खुलकर एक दूसरे पर वार करते नजर आए हैं। दोनों नेताओं के बीच खींचतान बनी हुई है, ऐसे में क्या खरगे सरप्राइज हो सकते है, ये देखना रोचक होगा। हालाँकि इसकी संभावना कम है पर राजनीति में कुछ भी मुमकिन होता है।