6 नवम्बर से न प्रदेश कार्यकारिणी और न जिला व ब्लॉक अध्यक्ष ! दिग्गज नेताओं को भी खल रही आलाकमान की लेट लतीफी, उठने लगी आवाजें ! दिन-ब-दिन आक्रामक होती दिख रही बीजेपी और कांग्रेस बेसंगठन ! अलबत्ता, सन्नाटा चौधरी चंद्र कुमार ने भंग कर दिया हो, लेकिन कांग्रेस आलाकमान की निद्रा अभी भी नहीं टूटी। सौ दिन से ज्यादा हो गए हैं हिमाचल में कांग्रेस के संगठन को भंग हुए, मगर आलाकमान अब भी किसी जल्दबाजी में नहीं दिख रहा। शायद हिमाचल में सरकार होने की तसल्ली के आगे संगठन की गैरमौजूदगी पार्टी को खल ही नहीं रही। कांग्रेस की इस हाल-ए-हालत पर गोपाल दास नीरज की कुछ पंक्तियाँ मौजूं हैं ....हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे ...कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे ...... आलाकमान का यही सुस्त रवैया बरकरार रहा तो डर है हिमाचल में भी कांग्रेस के हिस्से रह जाएगा सिर्फ गुबार। करीब 140 साल पुरानी कांग्रेस आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। ताजा दौर की बात करें तो महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली में पार्टी को शर्मनाक हार मिली है। 16 साल से केंद्र की सत्ता से पार्टी दूर है और अब ले-देकर महज तीन राज्यों में पार्टी की सरकार है, जिनमें से एक हिमाचल प्रदेश है। हैरत की बात यह है कि इस हिमाचल प्रदेश में भी पिछले सौ दिन से पार्टी का संगठन नहीं है। 6 नवंबर को पार्टी आलाकमान ने पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह के अलावा समस्त प्रदेश कार्यकारिणी तथा सभी जिला और ब्लॉक इकाइयाँ भंग कर दी थीं और तब से नई कार्यकारिणी का इंतजार बना हुआ है। पार्टी मुख्यालय में सन्नाटा पसरा है और पार्टी के बड़े चेहरे भी अब इस लेट-लतीफी पर आवाज बुलंद करने लगे हैं। कांग्रेस हिमाचल में संगठन की नियुक्तियों के लिए नया फार्मूला इस्तेमाल कर रही है। इसके मुताबिक अब प्रदेश अध्यक्ष को मर्जी की टीम नहीं मिलेगी, बल्कि ऑब्जर्वर की रिपोर्ट के आधार पर संगठन में ताजपोशी होगी। संगठन भंग करने के बाद आलाकमान ने सभी 12 जिलों और चारों संसदीय क्षेत्रों में पर्यवेक्षक नियुक्त किए हैं, ताकि जमीनी फीडबैक मिल सके। ये पर्यवेक्षक अपनी रिपोर्ट आलाकमान को सौंप चुके हैं, बावजूद इसके नई कार्यकारिणी का गठन नहीं हुआ है। अब आलाकमान की इस लेट-लतीफी से पार्टी का आम वर्कर जरूर मायूस दिख रहा है। अब बात करते हैं कांग्रेस के असल मर्ज की। सर्वविदित है कि हिमाचल कांग्रेस में कई गुट हैं, लेकिन मोटे तौर पर सुक्खू गुट और होली लॉज कैंप के अलावा मुकेश अग्निहोत्री की अपनी एक अलग लॉबी दिखती है। हालांकि, अग्निहोत्री बेहद संतुलित ढंग से सियासत करते दिखे हैं, लेकिन जाहिर है वे भी अपने समर्थकों को संगठन के अहम ओहदों पर एडजस्ट करना चाहेंगे। आलाकमान भी इससे अवगत है और पार्टी के जहन में हरियाणा भी होगा, जहाँ गुटबाजी कांग्रेस को ले बैठी। हरियाणा में अर्से से पार्टी संगठन तक नहीं बना पा रही है। ऐसे में लाजमी है आलाकमान भी फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाए और संतुलन सुनिश्चित करे। वहीं दूसरी ओर, प्रदेश भाजपा ने 18 लाख नए सदस्य बनाने के साथ-साथ नए ब्लॉक और जिला अध्यक्ष चुन लिए हैं। नई ऊर्जा से लबरेज बीजेपी, कांग्रेस सरकार को हर मुद्दे पर जोरदार ढंग से घेर रही है। मगर सरकार को डिफेंड करने के लिए कांग्रेस के पास कोई पदाधिकारी नहीं बचा। संगठन की मजबूती किसी भी राजनीतिक दल की असली ताकत होती है, और अगर कांग्रेस इसे नजरअंदाज करती रही, तो हिमाचल में उसकी पकड़ और भी कमजोर होगी।
हिमाचल सरकार में मंत्री चौधरी चंद्र कुमार ने आज खुद ही तस्लीम कर लिया कि हिमाचल में कांग्रेस संगठन पिछले कुछ दिनों से पैरालाइज़्ड है... मगर कांग्रेस आलाकमान के पास शायद हिमाचल की सुध लेने तक का समय नहीं... आज से करीब तीन महीने पहले कांग्रेस संगठन की कार्यकारिणी भंग कर दी गई थी। तब से लेकर अब तक हिमाचल कांग्रेस बिना संगठन के है। संगठन के नाम पर कुछ बचा है तो वह है कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह। सिर्फ उन्हें पद से नहीं हटाया गया। मगर वह सेनापति किस काम का जिसकी सेना ही न हो। बस यही कारण है कि अब कांग्रेस के भीतर भी इस बात को लेकर असंतोष के स्वर बुलंद होने लगे हैं... वैसे ही जैसे आज कृषि मंत्री चंद्र कुमार ने किए। वैसे बता दें कि इस बार संगठन की नियुक्तियों के लिए कांग्रेस नया फ़ॉर्मूला इस्तेमाल कर रही है। ऑब्ज़र्वर नियुक्त किए गए थे और इन्हीं की रिपोर्ट के आधार पर संगठन में ताजपोशी होनी है। बताया जा रहा है कि फ़ीडबैक जा चुका है लेकिन आलाकमान की दिल्ली चुनाव में व्यस्तता के कारण संगठन के गठन में विलंब हो रहा था... पर दिल्ली में तो कांग्रेस तीसरी बार भी अपना खाता तक नहीं खोल सकी... दिल्ली में पार्टी की ऐतिहासिक हार पर भी चंद्र कुमार ने खुलकर अपना पक्ष रखा l इसमें कोई दो राय नहीं कि मंत्री चौधरी चंद्र कुमार ने आज अपनी पार्टी के लिए जो कहा है, वही हकीकत है... चंद्र कुमार ने सीधे तौर पर पार्टी की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं... उन्होंने पार्टी को आइना दिखाया है... उम्मीद है कि यह सुगबुगाहट कांग्रेस आलाकमान के कानों तक पहुंचेगी और जल्द ही दिल्ली चुनाव की थकान मिटाकर पार्टी आलाकमान हिमाचल में संगठन के बारे में कुछ सोचेगा l
एक नेता महज़ 26 वोट से चुनाव हार गया... हार नहीं मानी और इस नतीजे को हाईकोर्ट में चुनौती दे डाली... वहां राहत नहीं मिली तो सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया... 2 साल की लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव रद्द कर दिया और दोबारा चुनाव के आदेश दिए... मगर इस बार पार्टी ने उस नेता का ही टिकट काट दिया... इसे ही तो सियासत कहते हैं। साल 2000 में भाजपा नेता और पूर्व मंत्री महेंद्र नाथ सोफत के साथ जो हुआ, वह किसी भी नेता के लिए किसी डरावने सपने से कम नहीं। दरअसल, सोफत साल 1998 के विधानसभा चुनाव में सोलन विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के प्रत्याशी थे। वहीं, कांग्रेस ने कृष्णा मोहिनी को चुनावी रण में उतारा था। मुकाबला बेहद रोमांचक था। मतगणना के बाद पहले भाजपा प्रत्याशी महेंद्र नाथ सोफत को महज़ एक वोट से विजयी घोषित कर दिया गया। लेकिन यह जीत चंद मिनटों की ही मेहमान निकली। कांग्रेस प्रत्याशी कृष्णा मोहिनी ने तुरंत आवेदन दिया और फिर रिकाउंटिंग हुई। इस बार नतीजा पलट गया—अब सोफत हार गए और कृष्णा मोहिनी महज़ 26 वोट से जीत गईं। महेंद्र नाथ सोफत इस हार को स्वीकार नहीं कर पाए। उन्होंने पहले हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में अनियमितताओं को स्वीकार करते हुए फिर से चुनाव करवाने का आदेश दिया। सोफत ने इसे अपनी जीत समझा। लेकिन कहानी में एक और मोड़ था। भाजपा ने 2000 में हुए सोलन उपचुनाव के लिए प्रत्याशी ही बदल दिया। दरअसल, जब तक सोफत यह मुकदमा जीते, तब तक प्रदेश की राजनीति में सब कुछ बदल चुका था। अब प्रदेश की सियासत में शांता कुमार नहीं बल्कि धूमल का दौर था। तो महेंद्र नाथ सोफत की जगह डॉ. राजीव बिंदल को टिकट दे दिया गया। कहा जाता है कि बिंदल को कभी खुद सोफत राजनीति में लेकर आए थे। यानी गुरु गुड़ रह गया और चेला शक्कर हो गया... इस तरह सोफत भाजपा में ठिकाने लगा दिए गए और हिमाचल की सियासत में बिंदल की एंट्री हुई... जो आज भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं।
बहुत कम लोगों को मालूम है कि हिमाचल प्रदेश के छह बार मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह भी एक बार विधानसभा चुनाव हार गए थे। 1990 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। यही नहीं, खुद वीरभद्र सिंह भी जुब्बल-कोटखाई से चुनाव हार गए। लेकिन इसके बावजूद वे विधानसभा पहुंचे। कैसे? आइए जानते हैं... इस चुनाव में वीरभद्र सिंह ने एक नहीं, बल्कि दो विधानसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ा—शिमला जिले के रोहड़ू और जुब्बल-कोटखाई। इसे हार का डर कहें या अपनी लोकप्रियता पर भरोसा, लेकिन यह हिमाचल प्रदेश की राजनीति का दिलचस्प दौर था। रोहड़ू सीट पर वीरभद्र सिंह ने एकतरफा जीत दर्ज की, लेकिन जुब्बल-कोटखाई में उन्हें मात्र 1500 वोटों से हार का सामना करना पड़ा। दिलचस्प बात ये है की वीरभद्र सिंह को हराने वाले कोई और नहीं, बल्कि पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल थे—वही ठाकुर रामलाल, जिन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाकर वीरभद्र सिंह पहली बार सीएम बने थे। दरअसल, मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद ठाकुर रामलाल को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया था, जिससे वे प्रदेश की राजनीति से दूर हो गए। समय के साथ ठाकुर रामलाल और कांग्रेस के बीच दूरियां बढ़ीं और उन्होंने जनता दल का दामन थाम लिया। 1990 में जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ते हुए ठाकुर रामलाल ने जुब्बल-कोटखाई से वीरभद्र सिंह को हराया। इसी चुनाव में मुख्यमंत्री पद के दूसरे दावेदार शांता कुमार ने भी दो सीटों से चुनाव लड़ा—सुलह और पालमपुर। दिलचस्प बात यह रही कि वे दोनों सीटों से चुनाव जीत गए।
हिमाचल प्रदेश की राजनीति में कई दिलचस्प शख्सियतें हुई हैं, लेकिन इन मंत्री जी का अंदाज बिल्कुल अलग था। ये मंत्री फाइलों पर महज दस्तखत नहीं करते थे, बल्कि अपना स्पष्ट निर्णय भी लिखते थे। हम बात कर रहे हैं यशवंत सिंह परमार की सरकार में मंत्री रहे हरिदास की। हरिदास न सिर्फ अपनी सादगी बल्कि अपने अनोखे फैसलों के लिए भी मशहूर थे। हरिदास अगर किसी प्रस्ताव से सहमत होते, तो लिखते— "मान गया हरिदास", और यदि असहमत होते, तो दो टूक जवाब देते— "नहीं मानता हरिदास"! हरिदास ज़्यादा पढ़े-लिखे तो नहीं थे, मगर उनका विज़न कमाल का था। उनकी समझ सिर्फ प्रशासन तक सीमित नहीं थी, वे ज़मीन से जुड़े नेता थे। जब उन्हें पता चला कि बिलासपुर और उसके आसपास की मिट्टी में कुछ खास है, तो वे उसका एक ढेला उठाकर विधानसभा पहुँच गए। विधानसभा का माहौल हमेशा की तरह गर्म था। जब हरिदास ने अपनी बात रखनी शुरू की, तो कई लोग मुस्कुराने लगे। उन्होंने मिट्टी का वह ढेला दिखाकर कहा, "इसकी जांच होनी चाहिए। मुझे लगता है कि यह साधारण मिट्टी नहीं है, इसका व्यावसायिक इस्तेमाल हो सकता है!" कुछ विधायकों ने ठहाके लगाए, कुछ ने मजाक में कहा, "मंत्री जी, अब आप मिट्टी में भी संभावनाएँ ढूँढने लगे?" लेकिन हरिदास बिना विचलित हुए अपनी बात पर अडिग रहे। हरिदास की जिद पर आखिरकार मिट्टी की जांच करवाई गई। जब रिपोर्ट आई, तो सभी चौंक गए। यह मिट्टी उच्च गुणवत्ता वाले सीमेंट निर्माण के लिए उपयुक्त थी! जल्द ही इस खोज ने उद्योगपतियों का ध्यान आकर्षित किया। देखते ही देखते बिलासपुर और उसके आसपास के इलाकों में बड़े-बड़े सीमेंट प्लांट लगने लगे। बरमाणा में एसीसी सीमेंट प्लांट और दाड़लाघाट में अंबुजा सीमेंट प्लांट स्थापित हुए, जिससे न केवल हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली, बल्कि हजारों लोगों को रोजगार भी मिला। वही लोग, जो कभी ठाकुर हरिदास की खिल्ली उड़ाते थे, अब उनकी दूरदृष्टि की तारीफ कर रहे थे।
हिमाचल कांग्रेस की तरफ से सीएम सुखविंद्र सिंह सुक्खू बीते दिनों दिल्ली पहुंचे थे और उन्होंने ही प्रचार की रस्म-ए-अदायगी भी की। सीएम सुक्खू स्टार प्रचारकों की लिस्ट में भी थे, जाहिर है इसी के चलते उनका जाना जरूरी था, सो हाजिरी भर दी गई। पर दिल्ली में हिमाचल के अन्य नेताओं की जरूरत कांग्रेस आलाकमान को महसूस ही नहीं हुई। दूसरी तरफ बीजेपी ने हिमाचल के कई नेताओं की दिल्ली में दौड़ लगाए रखी। यूं तो बीजेपी राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और दिल्ली के संगठन मंत्री पवन राणा भी हिमाचल से हैं, पर बीजेपी ने हिमाचल के कई नेताओं को दिल्ली में तैनात किया। सांसद अनुराग ठाकुर, सांसद इंदु गोस्वामी और सांसद सुरेश कश्यप के अलावा विधायक हंसराज, विनोद कुमार और प्रकाश राणा खास पूरे चुनाव में दिल्ली में डटे रहे। चेतन बरागटा को भी दिल्ली में विशेष जिम्मा मिला, जो लगातार दिल्ली में डटे हुए हैं। दरअसल, दिल्ली की कई सीटों पर हिमाचल के लोग निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। कई विधानसभा हलकों में बड़ी संख्या में हिमाचल प्रदेश के लोग रहते हैं, जो केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों, निजी क्षेत्र और अन्य सेवाओं में कार्यरत हैं। इसके अलावा, कई युवा दिल्ली में पढ़ाई और नौकरी के चलते स्थायी रूप से यहीं बस गए हैं। विशेषकर बुराड़ी, मयूर विहार, उत्तम नगर, बदरपुर, संगम विहार, मोती नगर, कोंडली, रोहिणी, आदर्श नगर, जंगपुरा, शाहदरा, नजफगढ़ और विकासपुरी हलकों में हिमाचली वोटर बेहद महत्वपूर्ण हैं। यही कारण है कि इस बार बीजेपी ने मिशन दिल्ली के लिए विशेष 'हिमाचल प्लान' के तहत प्रचार किया। दूसरी तरफ कांग्रेस मानो दिल्ली में जीत के लिए आश्वस्त है, शायद इसलिए न तो पार्टी ने रणनीति बनाने में ज्यादा हाथ-पांव मारे और न अपने नेताओं को ज्यादा कष्ट दिया।
'येन केन प्रकारेण' बीजेपी जीतना चाहेगी तीनों दिग्गजों की सीटें कांग्रेस के संदीप दीक्षित और अलका लाम्बा ने भी बना दिया है चुनाव ! ये चुनाव नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजिए, एक आग का दरियाँ है और डूब के जाना है। कुछ ऐसी ही स्थिति इस बार दिल्ली में आम आदमी पार्टी की नज़र आ रही है। इस बार दिल्ली में आप की राह आसान नहीं है और दिलचस्प बात ये है कि पार्टी के तीनों मुख्य चहेरे, यानी सीएम आतिशी, पूर्व व प्रोजेक्टेड सीएम अरविन्द केजरीवाल और पूर्व डिप्टी व प्रोजेक्टेड डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया भी अपनी -अपनी सीटों पर फंसे देख रहे है । इन तीनों दिग्गजों की सीटों पर इस बार मुकाबला टक्कर का है। 'येन केन प्रकारेण' बीजेपी इन सीटों को जीतना चाहती है और जमीनी स्तर पर इसका असर दिख भी रहा है। सिलसिलेवार बात करें तो नई दिल्ली से, अरविन्द केजरीवाल के सामने बीजेपी और कांग्रेस, दोनों ने पूर्व मुख्यमंत्रियों के पुत्रों को मैदान में उतारा है। बीजेपी से पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे प्रवेश वर्मा है तो दूसरी तरफ कांग्रेस से पूर्व सीएम शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित। ये दोनों ही दो -दो मर्तबा सांसद भी रहे है और दोनों ने ही पूरी ताकत झोंकी है। ऐसे में इस सीट पर केजरीवाल की राह आसान जरा भी नहीं है। वहीं कालका जी सीट में भी आतिशी और भाजपा प्रत्याशी रमेश बिधूड़ी तो आमने-सामने थे ही, लेकिन इस सीट पर अब कांग्रेस प्रत्याशी अलका लाम्बा भी मजबूती से लड़ रही है। यहाँ भी मुकाबला त्रिकोणीय है और माहिर भविष्यवाणी करने से बचते दिख रहे है। बात मनीष सिसोदिया की करें तो इस बार आप ने उन की सीट बदल दी है और उन्हें पटपड़गंज की जगह जंगपुरा से मैदान में उतारा है। इस सीट पर बीजेपी के तरविंदर सिंह तो बेहद मजबूती के साथ चुनाव लड़ ही रहे है, कांग्रेस के फरहाद सूरी को भी हल्का नहीं लिया जा सकता। माहिर मान रहे है कि सूरी इस सीट पर सिसोदिया संकट में है। चर्चा सिसोदिया की पटपड़गंज सीट की भी करते है जहाँ से इस बार आप ने अवध ओझा को मैदान में उतारा है। यहाँ मुख्य रूप से यहाँ मुकाबला अवध ओझा और बीजेपी से रविंद्र नेगी के बीच माना जा रहा है। पिछले चुनाव में भी नेगी ने सिसोदिया को कड़ी टक्कर दी थी और इस बार भी ओझा यहाँ उलझे दिखे है। बहरहाल कल मतदान है और आठ फरवरी को नतीजा सामने होगा। अब आप के ये तीन दिग्गज इस चुनावी अग्नि परीक्षा को पास करते है या नहीं, ये जनता तय करेगी।
**क्या संगठन की सरदारी को हो रही है प्रेशर पॉलिटिक्स ? **लगातार बगावत थामने में नाकाम हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा ! वीरेंद्र कँवर, रमेश चंद ध्वाला, डॉ राम लाल मारकंडा, राजेश ठाकुर, बलदेव शर्मा, प्रवीण शर्मा, कृपाल परमार, तेजवंत नेगी, ये फेहरिस्त लम्बी है। इन नेताओं में से कुछ पूर्व विधायक रहे कुछ तो मंत्री भी रहे......मगर अधिकांश धूमल गुट से माने जाते है। कोई अब भी भाजपा में है तो कोई बागी हो चुका है। कोई खुलकर नाराजगी व्यक्त कर रहा है, कोई अनुशासन की सीमा में रहकर, तो किसी का मौन भी बहुत कुछ बयां कर रहा है। ये सब, या इनमें से कुछ भी एकसाथ आ जाये तो क्या होगा ? क्या इनका साथ आना मुमकिन है ? कहते है जो सोचा जा सकता है वो सियासत में किया जा सकता है। गजब सियासत है और गजब है हिमाचल में भाजपा का हाल ! 2022 के विधानसभा चुनाव में एक तिहाई सीटों पर भाजपा के बागी चुनाव लड़े और हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा जाती हुई सत्ता को तकते रह गए। फिर 2024 में भाजपा का मिशन लोटस भी हिमाचल में फेल हो गया। तब नेताओं के अतिउत्साह और उतावलेपन को लेकर भी सवाल उठे। तीन निर्दलीयों से इस्तीफा क्यों दिलवाया गया ये अब भी रहस्य बना हुआ है। उपचुनाव हुए तो भाजपा के दो नेता कांग्रेस से लड़कर विधानसभा पहुंच गए, तो तीन ने बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़ा। नतीजन 9 में से 6 सीटों पर हार मिली और एक सीट पर तो जमानत तक नहीं बची। नए नए पार्टी में आये नौ नेता चुनाव लड़ रहे थे और वर्षों पुराने निष्ठावान मुँह तक रहे थे। इतना होने पर भी सत्ता मिल जाती, तो कुछ और बात होती ..मगर भाजपा के हिस्से आई सिर्फ तोहमत और कार्यकर्ताओं की हताशा ! अब मंडल नियुक्तियों में उपेक्षा के आरोप लगते हुए पूर्व मंत्री रमेश चंद ध्वाला ने तेवर दिखाएँ है, नाराज कार्यकर्ताओं की सभा बुलाई है। तीसरे मोर्चे के संकेत देते हुए ध्वाला भाजपा की चिंता बढ़ाते दिख रहे है। संभव है ध्वाला भाजपा के तमाम नाराज नेताओं को एकसाथ लाने की मुहीम में जुटेंगे और यदि ऐसा कर पाए, तो भाजपा में नया बखेड़ा तय है। विशेषकर उन हलकों में जहां भाजपा ने आयातित नेताओं को पुराने निष्ठावानों पर तवज्जो दी है। हालांकि उनके साथ कौन हाथ मिलाता है और कौन इस सब के बाद भी भाजपा में डटा रहता है ये बाद की बात है। वैसे इसको लेकर एक सुगबुगाहट और भी है। एक वर्ग इसे प्रेशर पॉलिटिक्स का पैंतरा भी मानता है, ताकि संगठन की सरदारी उसी गुट के हिस्से आएं जो उपेक्षा का दर्द बयां कर रहा है। क्या ऐसा हो सकता है, ये सियासत है यहाँ कुछ भी मुमकिन है !
1980 में भाजपा के गठन के बाद से हिमाचल में अब तक 13 नेता प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचे है।सतपाल सिंह सत्ती सबसे अधिक दस साल तक भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे, तो खीमीराम शर्मा को सबसे कम कार्यकाल मिला। हालांकि सबसे छोटा कार्यकाल डॉ राजीव बिंदल के नाम है जो वर्तमान में दुरसी बार अध्यक्ष है। साल 2020 में उनका पहला कार्यकाल महज 186 दिन का रहा था। तब कोरोना काल में हुए घोटाले में उनका नाम उछाला और नैतिकता के आधार पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। सिलसिलेवार बात करें तो हिमाचल भाजपा के पहले प्रदेश अध्यक्ष बने ठाकुर गंगाराम जो मंडी से ताल्लुक रखते थे। वे 1984 तक अध्यक्ष रहे। इसके बाद शिमला संसदीय हलके के अर्की से सम्बन्ध रखने वाले नगीनचंद पाल भाजपा के अध्यक्ष बने, और 1986 तक पद पर रहे। 1986 में शांता कुमार हिमाचल भाजपा के अध्यक्ष बने और 1990 का विधानसभा चुनाव भी उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया। शांता कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद कुल्लू के महेश्वर सिंह प्रदेश अध्यक्ष बने और 1993 तक इस पद पर रहे। पर 1993 में भाजपा की शर्मनाक हार के बाद महेश्वर की विदाई हो गई और एंट्री हुई प्रो प्रेम कुमार धूमल की। उनके नेतृत्व में ही भाजपा ने 1998 के विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनाई और धूमल सीएम बने। फिर सुरेश चंदेल दो साल तक प्रदेश अध्यक्ष रहे और साल 2000 से लेकर 2003 तक जयकिशन शर्मा ने प्रदेश अध्यक्ष का पद संभाला। धूमल, सुरेश चंदेल और जयकिशन शर्मा, तीनों ही हमीरपुर संसदीय हलके से थे। साल 2003 में सुरेश भारद्वाज भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बने और 2007 तक इस पद पर रहे। भारद्वाज के बाद दो साल एक लिए जयराम ठाकुर और फिर 2009 से 2010 खीमीराम शर्मा ने पार्टी की कमान संभाली। 2010 में भाजपा अध्यक्ष पद पर सतपाल सिंह सत्ती की ताजपोशी हुई और वे दस साल लगातार अध्यक्ष रहे। सबसे अधिक वक्त तक अध्यक्ष रहने का रिकॉर्ड अब भी सत्ती के नाम है। सत्ती की विदाई के बाद डॉ राजीव बिंदल की ताजपोशी हुई लेकिन कोरोना काल में घोटाले के आरोप के बाद बिंदल को महज 186 दिन बाद ही नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देना पड़ा। ये हिमाचल में किसी भी भाजपा अध्यक्ष का सबसे छोटा कार्यकाल है। बिंदल के बाद सुरेश कश्यप को कमान सौपी गई और अप्रैल 2023 तक कश्यप पार्टी अध्यक्ष रहे। इसके बाद बिंदल की दोबारा बतौर अध्यक्ष एंट्री हुई। अब बिंदल को पार्टी फिर मौका देती है या नहीं, ये सवाल बना हुआ है।
क्या संगठन की सरदारी को हो रही है प्रेशर पॉलिटिक्स? लगातार बगावत थामने में नाकाम हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा! वीरेंद्र कँवर, रमेश चंद ध्वाला, डॉ राम लाल मारकंडा, राजेश ठाकुर, बलदेव शर्मा, प्रवीण शर्मा, कृपाल परमार, तेजवंत नेगी, ये फेहरिस्त लंबी है। इन नेताओं में से कुछ पूर्व विधायक रहे, कुछ तो मंत्री भी रहे... मगर अधिकांश धूमल गुट से माने जाते हैं। कोई अब भी भाजपा में है तो कोई बागी हो चुका है। कोई खुलकर नाराजगी व्यक्त कर रहा है, कोई अनुशासन की सीमा में रहकर, तो किसी का मौन भी बहुत कुछ बयां कर रहा है। ये सब, या इनमें से कुछ भी एकसाथ आ जाए तो क्या होगा? क्या इनका साथ आना मुमकिन है? कहते हैं, जो सोचा जा सकता है, वो सियासत में किया जा सकता है। गजब सियासत है और गजब है हिमाचल में भाजपा का हाल! 2022 के विधानसभा चुनाव में एक तिहाई सीटों पर भाजपा के बागी चुनाव लड़े और हिमाचल भाजपा के सर्वेसर्वा जाती हुई सत्ता को तकते रह गए। फिर 2024 में भाजपा का मिशन लोटस भी हिमाचल में फेल हो गया। तब नेताओं के अतिउत्साह और उतावलेपन को लेकर भी सवाल उठे। तीन निर्दलीय से इस्तीफा क्यों दिलवाया गया, ये अब भी रहस्य बना हुआ है। उपचुनाव हुए तो भाजपा के दो नेता कांग्रेस से लड़कर विधानसभा पहुंचे, तो तीन ने बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़ा। नतीजतन 9 में से 6 सीटों पर हार मिली और एक सीट पर तो जमानत तक नहीं बची। नए-नए पार्टी में आए नौ नेता चुनाव लड़ रहे थे और वर्षों पुराने निष्ठावान मुँह तक रहे थे। इतना होने पर भी सत्ता मिल जाती, तो कुछ और बात होती... मगर भाजपा के हिस्से आई सिर्फ तोहमत और कार्यकर्ताओं की हताशा! अब मंडल नियुक्तियों में उपेक्षा के आरोप लगते हुए पूर्व मंत्री रमेश चंद ध्वाला ने तेवर दिखाए हैं, नाराज कार्यकर्ताओं की सभा बुलाई है। तीसरे मोर्चे के संकेत देते हुए ध्वाला भाजपा की चिंता बढ़ाते दिख रहे हैं। संभव है ध्वाला भाजपा के तमाम नाराज नेताओं को एकसाथ लाने की मुहिम में जुटेंगे और यदि ऐसा कर पाए, तो भाजपा में नया बखेड़ा तय है। विशेषकर उन हलकों में, जहाँ भाजपा ने आयातित नेताओं को पुराने निष्ठावानों पर तवज्जो दी है। हालांकि, उनके साथ कौन हाथ मिलाता है और कौन इस सब के बाद भी भाजपा में डटा रहता है, ये बाद की बात है। वैसे इसको लेकर एक सुगबुगाहट और भी है। एक वर्ग इसे प्रेशर पॉलिटिक्स का पैंतरा भी मानता है, ताकि संगठन की सरदारी उसी गुट के हिस्से आए, जो उपेक्षा का दर्द बयां कर रहा है। क्या ऐसा हो सकता है? ये सियासत है, यहाँ कुछ भी मुमकिन है!
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की एक पोस्ट पर विवाद खड़ा हो गया है, जिसके बाद उनके खिलाफ दक्षिण कोलकाता के भवानीपुर थाने में एफआईआर दर्ज कराई गई है। यह विवाद 23 जनवरी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर किए गए एक ट्वीट को लेकर उत्पन्न हुआ। राहुल गांधी ने इस पोस्ट में नेताजी की मौत की तारीख का जिक्र किया था, जो कई लोगों के अनुसार विवादास्पद था। राहुल गांधी के इस बयान को लेकर अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने कड़ी आपत्ति जताई और एफआईआर दर्ज कराने की मांग की। इसके बाद संगठन के कार्यकर्ताओं ने कोलकाता के एल्गिन रोड स्थित नेताजी के पैतृक घर के पास प्रदर्शन भी किया, जिसमें उन्होंने राहुल गांधी के बयान को लेकर अपना विरोध जताया। हिंदू महासभा के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रचूड़ गोस्वामी ने आरोप लगाया कि राहुल गांधी और उनके परिवार ने हमेशा नेताजी की विरासत को नजरअंदाज किया है। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी की यह पोस्ट नेताजी के बारे में गलत जानकारी देने की एक और कोशिश है, जिसे देश के लोग स्वीकार नहीं करेंगे। यह विवाद और गहरा हुआ जब राहुल गांधी ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर 18 अगस्त 1945 को नेताजी की मौत की तारीख बताई। हालांकि, नेताजी की मृत्यु की सही तारीख को लेकर कई सवाल हैं, क्योंकि इस संबंध में अब तक कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल सका है। इस विवाद के बाद, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक, तृणमूल कांग्रेस और भाजपा जैसे राजनीतिक दलों ने भी राहुल गांधी के बयान की आलोचना की है। जानिए क्या है पूरा मामला यह विवाद इस सप्ताह के शुरुआत में हुआ था, जब राहुल गांधी ने अपने एक्स अकाउंट पर एक पोस्ट में नेताजी की मृत्यु की तारीख 18 अगस्त 1945 बताई। यह वही तारीख थी जब नेताजी का विमान ताइहोकू (जो अब ताइपे में है) में दुर्घटनाग्रस्त हुआ था। हालांकि, नेताजी की मृत्यु की सही तारीख की कभी भी पुष्टि नहीं हो पाई और उनके गायब होने के बाद बने आयोगों ने भी इसकी पुष्टि नहीं की। ऐसे में राहुल गांधी नेताजी की मृत्यु की तारीख कैसे तय कर सकते है।
कहा , मित्रों को इक्कठा करके बताएँगे राजनीति क्या होती है तो कांगड़ा में बढ़ सकती है भाजपा की मुश्किलें भाजपा से खफा पूर्व मंत्री एवं विधायक रमेश चंद ध्वाला कांगड़ा में गरजने की हुंकार भर रहे है। ध्वाला तीसरे मोर्चे का या यूँ कहे भाजपा विरोधी मोर्चे का संकेत दे रहे है। भाजपा को खुली चुनौती दे रहे है की मित्रों को इक्कठा करके बताएँगे, राजनीति क्या होती है। दरअसल, कांगड़ा में भाजपा के नाराज नेताओं में अकेले ध्वाला नहीं है, और भी कई नेता है जो हाशिये पर है। ये फहरिस्त लम्बी है। कुछ समय पूर्व भी इन नेताओं के एक होने की चर्चा थी, और अब फिर ध्वाला ने इन कयासों को हवा दे दी है। सूत्रों की माने तो इस फेहरिस्त में ध्वाला के अलावा कई वरिष्ठ नेता और पूर्व विधायक बताये जा रहे है। यदि ऐसा होता है तो कांगड़ा में भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती है। एक दौर था जब रमेश चंद ध्वाला हिमाचल भाजपा के लिए नायक थे। 1998 में धूमल सरकार बनाने में उनकी भूमिका भला कौन भूल सकता है। पर ये ही ध्वाला बीते करीब सात साल से भाजपा से खफा- खफा है। दरअसल जयराम ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने के बाद ध्वाला को कैबिनेट में एंट्री नहीं मिली थी। इसके बाद से ही ध्वाला की टीस दिखने लगी थी। फिर पूर्व में संगठन मंत्री रहे पवन राणा के साथ उनकी सियासी खींचतान भी खूब सुर्खियों में रही। हालांकि धूमल गुट के असर के चलते 2022 में उन्हें टिकट तो मिल गया, लेकिन चुनाव हारने के बाद भाजपा में ध्वाला साइडलाइन ही दिखे है। विशेषकर होशियार सिंह की भाजपा में एंट्री और फिर उपचुनाव में होशियार को ही टिकट दिए जाने के बाद ये खाई बढ़ती दिखी है। इस बीच भाजपा संगठन में भी नई नियुक्तियां हुई है और पार्टी ने ज्वालामुखी और देहरा, दोनों ही हलकों में उनके समर्थकों को तरजीह नहीं दी है। बहरहाल, रमेश चंद ध्वाला भाजपा पर भड़ास भी निकाल रहे है और अपनी ही पार्टी को चुनौती भी दे रहे है। निशाने पर कौन कौन है, ये सब जानते है। ध्वाला राजनीति के माहिर खिलाड़ी है और सियासी शतरंज के सभी दांव पेंचों से भली भांति वाकिफ भी। सियासत का उनका अपना अलग सलीका है, बेबाक सलीका। इसलिए, वो बगैर नापे तोले उपेक्षा का दर्द भी बयां कर रहे है, अपना योगदान भी स्मरण करवा रहे है, पार्टी को आइना भी दिखा रहे है और अपनी जमीनी कुव्वत का अहसास भी करवा रहे है। आप ध्वाला को पसंद करें या नापसंद करे लेकिन खारिज नहीं कर सकते। आज भी ध्वाला हिमाचल की राजनीति में बड़ा ओबीसी चेहरा है विशेषकर कांगड़ा में और कई सीटों पर प्रभाव रखते है।देहरा और ज्वालामुखी में तो उनका सीधा असर दीखता है। ऐसे में उनकी टीस भाजपा के लिए जरा भी मुफीद नहीं है। हालांकि संगठन की नई नियुक्तियों में भाजपा का जातीय डैमेज कण्ट्रोल दीखता है, फिर भी उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। सवा तीन साल में भाजपा को मिली हार पर हार हिमाचल में भाजपा के लिए बीते तीन साल में कुछ भी अच्छा नहीं घटा है। विधानसभा चुनाव हो या उपचुनाव, पार्टी को मिली है सिर्फ हार पर हार। बीते तीन सवा तीन साल में पार्टी ने सत्ता तो गवाईं ही है, पार्टी विधानसभा के एक बारह में से सिर्फ तीन उपचुनाव ही जीत सकी है। इस पर पूर्व कांग्रेसी और निर्दलीयों के पार्टी में आने के बाद एक और खेमा बनने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में कार्यकर्त्ता का मनोबल टूटना लाजमी है। अब अगर अगर कांगड़ा में भाजपा से रूठे नेताओं का अलग मोर्चा बनता है तो तय मानिये इसकी भरपाई भाजपा के मुश्किल होगी।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व सांसद प्रतिभा सिंह ने भाजपा नेताओं की आलोचना करते हुए कहा कि वे प्रदेश के जनमत का अपमान कर रहे हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रदेश के लोगों ने कांग्रेस को पूर्ण बहुमत देकर सरकार चुनी है, ऐसे में भाजपा का विरोध प्रदर्शन कांग्रेस सरकार के खिलाफ जनमत का अपमान है। प्रतिभा सिंह ने कहा कि कांग्रेस सरकार ने अपने दो साल के कार्यकाल में पांच प्रमुख गारंटियों को पूरा किया है, और बाकी गारंटियों को भी चरणबद्ध तरीके से पूरा किया जाएगा। उन्होंने मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री के नेतृत्व में सरकार द्वारा किए गए कार्यों की सराहना की और कहा कि सरकार अच्छे कामों के साथ प्रदेश में विकास को आगे बढ़ा रही है। उन्होंने आगामी बिलासपुर रैली को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि इस रैली में कांग्रेस सरकार अपने दो साल का लेखा-जोखा जनता के सामने रखेगी और आगामी योजनाओं का खाका भी प्रस्तुत करेगी। इसके अलावा, उन्होंने भाजपा को निशाने पर लेते हुए कहा कि प्रदेश का विकास भाजपा को रास नहीं आ रहा है, यही वजह है कि वह अनावश्यक बयानबाजी कर रही है और लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रही है। प्रतिभा सिंह ने कहा कि भाजपा की आक्रोश रैलियां पूरी तरह से असफल हो रही हैं, क्योंकि इन्हें कोई जन समर्थन नहीं मिल रहा है। उन्होंने भाजपा से अपील की कि वह अपने राजनैतिक हितों के लिए प्रदेश के विकास में बाधा न डाले। कांग्रेस सरकार, जो केंद्र से कोई विशेष सहयोग न मिलने के बावजूद सीमित संसाधनों से प्रदेश के विकास को गति दे रही है, अपने कार्यकाल को सफलता पूर्वक पूरा करेगी और अपने सभी वादों को पूरा करेगी।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बड़ा ऐलान कर दिया है. उन्होंने अगले दो दिन में सीएम के पद से इस्तीफा देने की घोषणा की है. उन्होंने कहा कि अगले दो दिन में विधायक दल की बैठक होगी और नए मुख्यमंत्री का चयन किया जाएगा. अगला सीएम भी आम आदमी पार्टी से ही कोई होगा. सीएम अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं और जनता को संबोधित करते हुए कहा, "जब तक जनता की अदालत में जीत नहीं जाता हूं, तब तक मैं सीएम नहीं बनूंगा. मैं चाहता हूं कि दिल्ली का चुनाव नवंबर में हो. जनता वोट देकर जिताए, उसके बाद मैं सीएम की कुर्सी पर बैठूंगा." 'ना झुकेंगे ना रुकेंगे और ना बिकेंगे'- CM केजरीवाल आप कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा, "जनता के आशीर्वाद से बीजेपी के सारे षड्यंत्र का मुकाबला करने की ताकत रखते हैं. बीजेपी के आगे हम ना झुकेंगे, ना रुकेंगे और ना बिकेंगे. आज दिल्ली के लिए कितना कुछ कर पाए क्योंकि हम ईमानदार हैं. आज ये (बीजेपी) हमारी ईमानदारी से डरते हैं क्योंकि ये ईमानदार नहीं है." मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आगे कहा, "मैं 'पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा' इस खेल का हिस्सा बनने नहीं आया था. दो दिन बाद मैं CM पद से इस्तीफा दे दूंगा. कानून की अदालत से मुझे इंसाफ मिला, अब जनता की अदालत मुझे इंसाफ देगी." 'हमारे बड़े-बड़े दुश्मन हैं' सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा कि उन्हें वॉर्निंग दी गई कि अगर दूसरी बार लेटर लिखा तो जेल में फैमिली से मुलाकत बंद कर दी जाएगी. सीएम ने कहा, "हमारे बड़े-बड़े दुश्मन हैं. सत्येंद्र जैन और अमानतुल्ला खान भी जल्द बाहर आएंगे. हम लोगों के ऊपर भगवान भोलेनाथ का हाथ है, उनका आशीर्वाद साथ रहता है." अरविंद केजरीवाल ने कहा कि वे जनता के बीच जाएंगे औऱ जनता की अदालत उनके मुख्यमंत्री होने या न होने का फैसला करेगी। आम आदमी पार्टी की रैली को संबोधित करते हुए केजरीवाल ने कहा कि वे जनता के बीच जाएंगे। वे जनता से पूछेंगे कि आप मुझे ईमानदार मानते हो भ्रष्ट। जनता के फैसले के बाद ही वे आगे कोई निर्णय करेंगे।
**संशोधन कर सभी 6 पूर्व कांग्रेसी विधायकों की मौजूदा टर्म की पेंशन बंद करने की कवायद में जुटी सरकार **बगैर पेंशन रह जायेंगे एक बार के विधायक चैतन्य और देवेंद्र भुट्टो मुख़ालिफ़त से मिरी शख़्सियत सँवरती है मैं दुश्मनों का बड़ा एहतिराम करता हूँ 6 पूर्व कांग्रेसी विधायकों की मुखालफत के बावजूद सरकार बचाकर सीएम सुक्खू ने अपनी शख़्सियत तो संवार ली लेकिन इन नेताओं पर कोई एहतिराम करने का उनका इरादा नहीं है. तथाकथित मिशन लोटस के तहत सरकार गिराने की साजिश की जांच से तो उक्त सभी 6 और तीन पूर्व निर्दलीय विधयक गुजर ही रहे है, मगर अब सुक्खू सरकार ने कांग्रेस के 6 पूर्व विधयाकों की पेंशन बंदी की तैयारी भी कर ली है. दरअसल, मंगलवार को सदन में विधानसभा सदस्यों के भत्ते एवं पेंशन अधिनियम 1971 में संशोधन का प्रावधान लाया गया और आज संभवतः ये पास भी हो जाएगा. 68 सदस्यों वाली हिमाचल विधानसभा में कांग्रेस के 40 विधायक है, ऐसे में इस संशोधन बिल को पास करने में सत्तारूढ़ दल को कोई परेशानी नहीं होगी. फिर मंजूरी के लिए इसे राज्यपाल के पास भेजा जायेगा और उनकी मंजूरी मिलते ही ये कानून का रूप ले लेगा. अयोग्य घोषित विधायकों की पेंशन बंद करने का यह देश में ऐसा पहला कानून होगा. दरअसल, राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के 6 पूर्व विधायकों ने क्रॉस वोट किया था, जिसके चलते बहुमत होने के बावजूद सत्तारूढ़ कांग्रेस के प्रत्याशी अभिषेक मनु सिंघवी चुनाव हार गए थे. सुक्खू सरकार की जमकर किरकिरी तो हुई ही थी, सरकार पर भी संकट मंडराने लगा था. क्रॉस वोट के बाद इन 6 विधायकों पर पार्टी व्हिप के उल्लंघन के आरोप भी लगे और विधानसभा अध्यक्ष ने इन्हे संविधान की अनुसूची 10 के तहत अयोग्य घोषित कर दिया. उक्त सभी 6 विधायक फिर विधिवत रूप से भाजपाई हो गए और उपचुनाव में भाजपा का टिकट भी ले आएं. किन्तु इनमें से सिर्फ दो, सुधीर शर्मा और इंद्र दत्त लखनपाल ही वापस जीतकर विधानसभा पहुंचे. राजेंद्र राणा, रवि ठाकुर , देवन्द्र भुट्टो और चैतन्य शर्मा चुनाव हार गए. अब सुक्खू सरकार मन बना चुकी है कि विधानसभा सदस्यों के भत्ते एवं पेंशन अधिनियम में संशोधन कर इन सभी 6 विधायकों की मौजूदा टर्म की न सिर्फ पेंशन बंद कर दी जाएँ बल्कि इन के द्वारा अब तक ली गई रकम की रिकवरी भी हो. ऐसे में 2022 में पहली बारे चुने गए चैतन्य शर्मा और देवन्द्र भुट्टों की पेंशन बंद हो जाएगी, जबकि अन्य चार पूर्व कांग्रेसी विधायकों की मौजूदा टर्म की पेंशन बंद होगी. वहीँ, तीन अन्य पूर्व निर्दलीय विधायक इसके दायरे में नहीं आएंगे.
**विधानसभा अध्यक्ष ने तीनों के इस्तीफे किए स्वीकार हिमाचल प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष कुलदीप सिंह पठानिया ने तीन निर्दलीय विधायकों होशियार सिंह, केएल ठाकुर और आशीष शर्मा के इस्तीफे स्वीकार कर दिए हैं। सोमवार को पत्रकारों से बातचीत में विधानसभा अध्यक्ष ने इसकी जानकारी दी। पठानिया ने कहा कि होशियार सिंह, केएल ठाकुर और आशीष शर्मा से ने 22 मार्च को विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था। 23 मार्च को तीनों भाजपा में शामिल हो गए थे। इस संबंध में दल-बदल विरोधी कानून तहत जगत नेगी की याचिका मिली थी और विधानसभा ने भी अपनी ओर से जांच की। जांच के बाद अब तीनों के इस्तीफे स्वीकार कर दिए हैं और आज से तीनों विधानसभा के सदस्य नहीं रहे। पठानिया ने कहा कि हालांकि, दल-बदल विरोधी कानून के तहत मिली याचिका की अंतिम सुनवाई अभी होनी है। उधर, निर्दलियों के इस्तीफे स्वीकार होने के बाद खाली हुई देहरा, नालागढ़ और हमीरपुर विधानसभा सीटों पर उपचुनाव का रास्ता भी साफ हो गया है।
हिमाचल हाईकोर्ट में आज सरकार को गिराने के लिए षड़यंत्र रचने के केस में सुनवाई हुई। इस दौरान हाईकोर्ट ने गगरेट से कांग्रेस के बागी विधायक चैतन्य शर्मा के पिता राकेश शर्मा और हमीरपुर से इंडिपेंडेंट MLA आशीष शर्मा की अग्रिम जमानत 26 अप्रैल तक बढ़ा दी है। राकेश शर्मा और आशीष शर्मा ने केस को वापस लेने के लिए भी याचिका दायर की है। कोर्ट ने आशीष शर्मा और राकेश शर्मा की पिटीशन का सरकार से भी 26 अप्रैल तक जवाब मांगा है। बता दें कि कांग्रेस के बागी पूर्व MLA चैतन्य शर्मा के पिता उत्तराखंड सरकार से रिटायर मुख्य सचिव है। कांग्रेस विधायक संजय अवस्थी और भुवनेश्वर गौड़ ने बालूगंज थाना में एफआईआर कराई है। इसमें आशीष शर्मा और राकेश शर्मा पर सरकार गिराने के लिए षड़यंत्र रचने का आरोप है। इसी मामले में दोनों ने हिमाचल हाईकोर्ट से अग्रिम जमानत ले रखी है। आज इनकी अग्रिम जमानत 26 अप्रैल तक बढ़ाई गई है। इन पर आरोप है कि इन्होंने राज्यसभा चुनाव में सरकार गिरने के लिए षड्यंत्र रचा और विधायकों की खरीद-फरोख्त भी की। आशीष शर्मा और राकेश शर्मा पर करोड़ों रुपए के लेन-देन के आरोप लगाए हैं हालांकि अब तक ये आरोप साबित नहीं हो पाए है ।
कहा, 4 फरवरी तक होंगे 'गांव चलो अभियान' के तहत कार्यक्रम लोकसभा चुनावों को लेकर कार्यकर्ताओं को दिए चुनावी टिप्स प्रदेश भर के 7 हजार 990 पोलिंग बूथों पर पार्टी नेतृत्व पहुंचाने का काम करेगी बीजेपी प्रदेश में भाजपा ने लोकसभा चुनावों को लेकर तैयारियां करना शुरू कर दी हैं। इसी को लेकर पार्टी पदाधिकारियों को चुनावों के लिए टिप्स देने के लिए हमीरपुर में प्रदेश किसान मोर्चा पदाधिकारियों की बैठक का आयोजन किया गया। जिसमें भाजपा के द्वारा गांव चलो अभियान के तहत जनसंपर्क करने के लिए रणनीति बनाई गई। बैठक के दौरान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ. राजीव बिंदल ने शिरकत की। इस अवसर पर भाजपा पार्टी के मंडल अध्यक्ष, किसान मोर्चा के पदाधिकारी, पन्ना प्रमुखों के द्वारा ठोस रणनीति बनाई जा रही है। उक्त अभियान 4 फरवरी तक पूरे प्रदेश भर में पार्टी के द्वारा चलाया जा रहा है। बिंदल ने कहा कि प्रदेश भर के सभी बूथों पर पार्टी का नेतृत्व पहुंचे। इसी के चलते भाजपा गांव चलो अभियान शुरू किया है। जिसके तहत प्रदेश भर के सात हजार 990 पोलिंग बूथों पर पार्टी नेतृत्व पहुंचने के लिए काम किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि 4 फरवरी तक प्रदेश भर में अभियान के तहत बैठकों का आयोजन किया जा रहा है। बिंदल ने कांग्रेस सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि कांग्रेस के मंत्री झूठ बोलते हैं और प्रदेश में कांग्रेस सरकार का 13 माह का कार्यकाल पूरी तरह से विफल रहा है। उन्होंने कहा कि एक भी काम प्रदेश सरकार ने जनहितैषी नहीं किया है और अपनी नालायकी की ठीकरा केंद सरकार पर फोड़ने में लगे हुए हैं। बिंदल ने कहा कि कांग्रेस सरकार झूठों की सरकार है और केंद्र से पैसों को लेने का हिसाब तक नहीं देते हैं। बिंदल ने पूछा कि आपदा के दौरान कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व कहां रहा है, वहीं बीजेपी के कई बड़े नेता हिमाचल आए हैं और अरबों करोड़ रुपये हिमाचल को दिए हैं। बिंदल ने कहा कि जेडीयू भाजपा का नेचुरल एलायड है और नितीश कुमार भााजपा के साथ अटल के समय से जुड़े हुए हैं । उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी ही भविष्य में देश को संभाल सकते हैं, ऐसे दृष्टिकोण से नीतीश कुमार फिर से भाजपा के साथ हैं ।
अयोध्या के राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम से कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने दूरी बनाई है। कांग्रेस का राम मंदिर में न जाने को लेकर कहना है कि यह चुनावी, राजनीतिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस का कार्यक्रम है। कांग्रेस का कहना है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी ने 22 जनवरी के कार्यक्रम को पूरी तरह से राजनीतिक और 'नरेंद्र मोदी फंक्शन' बना दिया है। यह चुनावी कार्यक्रम है और इसके जरिए चुनावी माहौल तैयार किया जा रहा है। जाहिर है राजनैतिक चश्मे से देखे तो राम मंदिर निर्माण का श्रेय बीजेपी को जाता है और बीजेपी भी इस भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। उधर, कांग्रेस को कहीं न कहीं अंदाजा है कि लोगों में दिख रहा उत्साह अगर वोट में तब्दील हुआ तो उसकी राह मुश्किल होगी। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस के पास फिलहाल कोई चारा नहीं है। हालांकि माहिर मान रहे है कि 22 जनवरी के बाद विपक्ष के कई बड़े चेहरे अयोध्या में शीश नवाते दिखेंगे। विदित रहे कि कांग्रेस सांसद और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के साथ-साथ सोनिया गांधी को भी राम मंदिर आने का न्योता दिया गया था। इसके साथ-साथ लोकसभा सांसद अधीर रंजन चौधरी को भी बुलावा भेजा गया था। हालांकि, तीनों ने समारोह में नहीं जाने का फैसला लिया है। कांग्रेस ने भाजपा पर इस समारोह को राजनीतिक रंग देने के आरोप लगाए हैं। पार्टी ने मुहूर्त पर सवाल खड़ा करने वाले शंकराचार्य के बयान को आधार बनाकर 22 जनवरी को होने वाली प्राण प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े किए हैं। पार्टी का कहना है कि समारोह राष्ट्रीय एकजुटता के लिए होना चाहिए। अयोध्या न जाने का फैसला लेने वाले कद्दावर नेताओं में शरद पवार का नाम भी शामिल है। उन्होंने कहा है कि 22 जनवरी के समारोह में अयोध्या में काफी भीड़ होगी। ऐसे में वे मंदिर निर्माण पूरा होने के बाद रामलला के दर्शन करेंगे। सपा चीफ अखिलेश यादव और दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल भी आयोजन में शामिल नहीं हो आरहे हैं। पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव भी आयोजन में न जाने का निर्णय लिया हैं। इनके अलावा वाम दल के महासचिव सीताराम येचुरी सहित कई लेफ्ट के नेताओं ने भी आयोजन से दूरी बनाई है। बीजेपी का तंज, कहीं जनता फिर कांग्रेस का बहिष्कार न कर दें ! केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का कहना हैं कि, " कांग्रेस ने नए संसद भवन और प्रधानमंत्री के संबोधन का बहिष्कार किया और लोगों ने उनका बहिष्कार कर दिया। अब उन्हें लगता है कि वे प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार कर सकते हैं लेकिन हो सकता है कि लोग उनका फिर से बहिष्कार कर दें। कांग्रेस और उसके गठबंधन सहयोगियों ने भगवान राम के अस्तित्व को नकारने और हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। विपक्ष के नेता बयान दे रहे हैं और प्राण प्रतिष्ठा समारोह से दूरी बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें भगवान राम के सामने आखिरकार आत्मसमर्पण करना होगा। कई कांग्रेस नेता पूर्व पार्टी प्रमुख राहुल गांधी की बात नहीं मान रहे और अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल हो रहे हैं।"
2024 के चुनावी भवसागर को पार करने के लिए भाजपा राम नाम की नौका पर सवार दिख रही है। भाजपा के सियासी उदय में राम नाम सदा साहरा रहा है। राम नाम लेकर ही भारतीय जनता पार्टी फर्श से अर्श तक पहुंच गई। 1984 में भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा था और महज 2 सीटों पर सिमट गई थी। वहीँ भाजपा आज देश की 300 से ज्यादा लोकसभा सीटों पर राज करती है। अब लोकसभा चुनाव दस्तक दे चुके है और इस बीच अयोध्या में श्री राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठता के चलते देश में राम लहर चली है और माहिर मान रहे है भाजपा को इसका सियासी लाभ होना तय है। यूँ तो भाजपा 1986 में लालकृष्ण आडवाणी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद से ही हिन्दुत्त्व और राममंदिर के मुद्दे पर आक्रमक हो गई थी लेकिन औपचारिक तौर पर पार्टी ने राममंदिर बनाने का संकल्प लिया 1989 में हुई पालमपुर की राष्ट्रीय कार्यसमिति बैठक में। इन 35 सालों में भगवा दल ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सर्वविदित है कि भारतीय जनता पार्टी के अतीत का संघर्ष लंबा है, जिसमें श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जनसंघ से लेकर अटल बिहारी वाजपाई और लालकृष्ण आडवाणी का संघर्ष रहा है। शून्य से शिखर तक पहुंचने वाली भाजपा का सियासी सफर काफी कठिनाइयों वाला रहा है, लेकिन हर बार भाजपा के लिए राम नाम एक सहारा बना है। जाहिर है मौजूदा वक्त में भी राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठता आयोजन ने देश का सियासी माहौल भी प्रभावित किया है। देश राम रंग में सराबोर हैं और राजनैतिक चश्मे से देखे तो भाजपा भी इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। दरअसल, ये गलत भी नहीं है क्यों कि राजनैतिक फ्रंट पर राम मंदिर निर्माण के संघर्ष की अगुआई भी भाजपा ने ही की है, सो श्रेय लेना राजनैतिक लिहाज से गलत भी नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा 'हिंदू नवजागरण काल' को एक बड़े मुद्दे के रूप में पेश करेगी और राम मंदिर इसका प्रतीक बनेगा। अब इसका कितना लाभ चुनाव में भाजपा को मिलेगा ये तो नतीजे तय करेंगे, पर निसंदेह राम मंदिर के जरिये बीजेपी ने देश के 80 प्रतिशत मतदाताओं को प्रभावित जरूर किया है। दो वादे पुरे, समान नागरिक सहिंता शेष भाजपा के तीन बड़े लक्ष्य रहे है, धारा 370 हटाना, राम मंदिर बनाना और समान नागरिक सहिंता लागू करना। ये कहना गलत नहीं होगा कि इन्हीं तीन वादों की बिसात पर भाजपा का काडर मजबूत हुआ। पार्टी ने हमेशा इन तीन विषयों पर खुलकर अपना पक्ष भी रखा और अपना वादा भी दोहराया। इनमें से भाजपा दो वादे पुरे कर चुकी है, कश्मीर से धारा 370 हटाई जा चुकी है और अब राम मंदिर का निर्माण भी हो गया है। अब सिर्फ समान नागरिक सहिंता लागू करने का भाजपा का वादा अधूरा है और पार्टी इसे लागू करने की प्रतिबद्धता दोहरा रही है। 400 सीट जीतने का लक्ष्य भाजपा को उम्मीद है कि राम लहर के बीच वो आगामी चुनाव में 400 सीट का लक्ष्य हासिल करेगी। पार्टी राम मंदिर के अलावा लाभार्थी वोट और महिला आरक्षण की बिसात पर ऐतिहासिक बहुमत हासिल करना चाहती है। हालहीं में हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा को हिंदुत्व एजेंडा का लाभ मिला है जिसके बाद पार्टी का जोश हाई है।
90 साल के शांता कुमार को याद है एक -एक बात बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद एक विधायक ले आया था ईंट का टुकड़ा ! अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए बीजेपी ने पोलिटिकल फ्रंट पर लम्बी लड़ाई लड़ी है। यूँ तो 1986 में लाल कृष्ण आडवाणी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद से ही बीजेपी राम मंदिर आंदोलन में कूद पड़ी थी लेकिन राम मंदिर बनाने का प्रस्ताव बीजेपी ने पास किया था जून 1989 में और जगह थी पालमपुर। उस वक्त बीजेपी राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक पालमपुर में हुई और मेजबानी की तब के प्रदेश अध्यक्ष शांता कुमार ने। इसके बाद राम मंदिर निर्माण भाजपा की प्रतिबद्धता बना गया और आंदोलन को राजनैतिक ताकत मिल गई। बीजेपी के इस संकल्प का पालमपुर साक्षी है और आज 35 साल बीत जाने के बाद भी 90 वर्षीय शांता कुमार को राम मंदिर निर्माण के इस अहम पड़ाव की हर बात बखूबी याद है। उस वक्त बीजेपी राष्ट्रीय कार्यसमिति में 100 से अधिक सदस्य थे, कांगड़ा में हवाई कनेक्टिविटी नहीं थी, पालमपुर भी आज की माफिक सुविधाएँ भी नहीं थी। नेताओं को पठानकोट से पालमपुर लाया गया, उनके रहने सहित अन्य सभी आवश्यक प्रबंध किये गए। आखिरकार कार्यसमिति की बैठक में राममंदिर बनाने का संकल्प लिया गया और पालमपुर बीजेपी के उस ऐतिहासिक निर्णय का साक्षी बना। दिलचस्प बात ये है कि तब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और सीएम थे वीरभद्र सिंह। शांता कुमार कहते है कि जब पार्टी आलाकमान ने पालमपुर में राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक आयोजित करने की बात कही तो एक बार तो उन्हें लगा कि ये कैसे होगा। पर फिर ठान लिया और हो गया। उन्होंने तब वीरभद्र सिंह से बात की और वीरभद्र सिंह ने पूर्ण सहयोग का वादा किया और निभाया भी। जून 1989 में पालमपुर में हुई बीजेपी राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में राममंदिर निर्माण का प्रस्ताव पास हुआ था। तब बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने बैठक में राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव रखा था। स्वाभाविक है बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं में इस विषय को लेकर पहले ही एकराय बन चुकी थी। उस बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी ने सबसे पहले आडवाणी एक प्रस्ताव का समर्थन किया था। शांता कुमार बताते है कि तब अटल बिहारी वाजपेयी खड़े हुए और सबके पहले आडवाणी के प्रस्ताव का समर्थन किया। इसके बाद अटल जी ने कहा " इससे बड़ा दुर्भाग्य कोई नहीं हो सकता कि प्रभु श्री राम का मंदिर 500 साल से नहीं बन सका। अब इस काम का जिम्मा भारतीय जनता पार्टी ने उठाया है और हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक मंदिर नहीं बन जाता। " 1989 में पालमपुर में बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा है। दरअसल बैठक में हिस्सा लेने ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया भी पहुंची थी। राजमाता तब पालमपुर के सेशंस हाउस में ठहरी थी। इस बीच 4 जून 1989 को रविवार था। राजमाता सिंधिया ने बीजेपी के एक कार्यकर्त्ता से पूछा कि क्या यहाँ टीवी नहीं है क्या ? जवाब मिला, "नहीं"? फिर उनका अगला सवाल था कि क्या शांता कुमार जी के घर होगा ? जवाब आया, "हाँ"। राजमाता ने कहा कि फिर चलो शांता कुमार जी के घर, मुझे महाभारत देखनी है। इसके बाद वे पैदल ही शांता कुमार के घर पहुंची और वहां महाभारत का एपिसोड देखा। तब शांता कुमार कुमार के घर में ही तमाम दिग्गज नेताओं के लिए कांगड़ी धाम का आयोजन किया गया था , वो भी कांगड़ी अंदाज में। 1990 के दशक की शुरुआत में देश में राम जन्मभूमि आंदोलन चरम पर था। लाखों कारसेवक अयोध्या पहुंचे थे। हिमाचल प्रदेश में शांता कुमार प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बना चुके थे और हिमाचल से भी काफी संख्या में कारसेवक अयोध्या पहुंचे। शांता कुमार कुमार बताते है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिमाचल के एक विधायक ईंटे का टुकड़ा लेकर आएं थे। बहरहाल , करोड़ों राम भक्तों का इन्तजार खतम हो गया है। श्री राम का वनवास खत्म हो गया है। राम जन्भूमि आंदोलन में पालमपुर में बीजेपी कार्यसमिति की बैठक एक अहम पड़ाव है। पालमपुर भी उत्सव के लिए तैयार है। 22 जनवरी के दिन पालमपुर नगरी भी अयोध्या होगी।
तीनों दिग्गजों को नहीं मिला है कोई अहम जिम्मा तीनों का रुख साफ, सभी को कद के मुताबिक मिले पद सुधीर शर्मा, राजेंद्र राणा और कुलदीप राठौर...हिमाचल प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस के तीन विधायक, तीनों दिग्गज और तीनों हाशिये पर। सत्ता मिलने से पहले तीनों का मंत्रिपद मानो तय था, पर सियासत की फितरत ही कुछ ऐसी होती है, जो लगता है वो होता नहीं। सत्ता तो आई पर समीकरण कुछ यूँ बने और उलझे कि ये तीनों दिग्गज भी उलझ कर रह गए। इन तीनों का असंतोष भी सामने आता रहा है, किसी का मीडिया बयानों में, किसी का सोशल मीडिया पर तो किसी का इशारों-इशारों में। दिलचस्प बात ये है कि इनका असंतोष तो कांग्रेस के लिए चिंता का सबब है ही, इनकी खमोशी भी पार्टी को असहज करने वाली है। इनके कदम सुक्खू सरकार की चाल से नहीं मिले तो लोकसभा चुनाव में भी इसका खामियाजा तय मानिये। बहरहाल अंदर की खबर ये है कि इन तीनों नेताओं को साधने के लिए दिल्ली में विशेष रूप से मंथन हुआ है। हालांकि तीनों का रुख साफ है, कद के मुताबिक पद मिले। बहरहाल इन तीनों ही नेताओं को भले ही अब तक सत्ता में कोई अहम जिम्मा या भागीदारी न मिली हो, लेकिन सच ये है कि इन्हें दरकिनार भी नहीं किया जा सकता। कम से कम पार्टी आलाकमान ये जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं दीखता। माहिर मानते है कि ऐसे में मुमकिन है कि बीच का कोई रास्ता निकाल कर पार्टी आलाकमान संभावित डैमेज को कण्ट्रोल करने हेतु हस्तक्षेप करें। चार बार के विधायक और पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा जिला कांगड़ा में पार्टी का बड़ा चेहरा है। पूर्व की वीरभद्र सरकार में सुधीर मंत्री थे और उन्हें वीरभद्र सिंह का सबसे करीबी माना जाता था। कहते है तब उनकी रज़ा में ही वीरभद्र सिंह की रज़ा होती थी। ये सुधीर का ही सियासी बल था कि तब चाहे नगर निगम की लड़ाई हो, स्मार्ट सिटी या फिर धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने का निर्णय, धर्मशाला हर जगह बाजी मार गया। तब कुछ माहिर तो उन्हें कांग्रेस में वीरभद्र सिंह का उत्तराधिकारी भी कहने लगे थे। फिर सियासी गृह चाल कुछ यूँ बदली कि पंडित जी अलग थलग से हो गए। बीते दिनों देर रात सीएम सुक्खू, सुधीर से मिलने उनके घर पहुंचे थे, जिसके बाद कयास लग रहे है कि उन्हें कोई अहम ज़िम्मा मिल सकता है। इसमें पीसीसी चीफ का पद भी शामिल है। हालांकि एक खबर ये भी है कि आलाकमान के दरबार में उन्हें लोकसभा चुनाव लड़वाने की पैरवी की जा रही है। कहा जा रहा है की सुधीर ही सबसे मजबूत चेहरा है। अब आलाकमान सुधीर को चुनाव लड़ने का फरमान सुनाता है या प्रदेश में सुधीर के कद मुताबिक भूमिका उनके लिए तैयार की जाती है, ये देखना रोचक होगा। राजेंद्र राणा वो नेता है जिन्होंने 2017 में भाजपा के सीएम कैंडिडेट को हराया था। 2022 में भी धूमल परिवार ने पूरी ताकत झोंकी लेकिन राणा जीतने में कामयाब रहे। बावजूद इसके राणा को अब तक उचित सियासी अधिमान नहीं मिला है। कहने को वे कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष भी है लेकिन संगठन में भी उनकी भूमिका क्या और कितनी है, ये सर्वविदित है। हालांकि वे हौली लॉज के करीबी है और वो ही पहले ऐसे बड़े नेता थे जिन्होंने खुलकर प्रतिभा सिंह को सीएम बनाने की वकालत की थी। बहरहाल अब राणा की कैबिनेट में एंट्री की सम्भावना न के बराबर है। हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से सीएम, डिप्टी सीएम और एक मंत्री राजेश धर्माणी है और यहाँ से एक और एंट्री मुश्किल होगी। ऐसे में राणा को कहाँ और कैसे एडजस्ट किया जाता है, ये देखना दिलचस्प होगा। वहीँ खबर ये है कि आलकमान के समक्ष सुधीर की तरह ही राणा को भी लोकसभा चुनाव के लिए दमदार बताया जा रहा है। हालांकि राणा की रूचि इसमें नहीं दिखती। कुलदीप राठौर पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष है और आलाकमान के करीबी भी है। राठौर वो नेता है जो खुलकर कहते रहे है कि सत्ता दिलवाने वालों की उपेक्षा हो रही है। जिला शिमला से ही तीन मंत्री है, ऐसे में राठौर का ठौर भी जाहिर है कैबिनेट में नहीं होगा। पर राठौर की बेबाकी और स्पष्टवादिता प्रदेश सरकार को असजह जरूर करती रही है। बताया जा रहा है की राठौर भी आलाकमान के समक्ष अपनी बात रख चुके है और अब निर्णय आलाकमान को लेना है। सिर्फ एक रिक्त पद, ठाकुर भी दावेदार ! सुक्खू कैबिनेट में एक पद खाली है और इन तीन नेताओं के साथ -साथ कुल्लू विधायक सूंदर सिंह ठाकुर भी दावेदार है। मंडी संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक मंत्री है और ऐसे में क्षेत्रीय संतुलन के लिहाज से सूंदर ठाकुर का दावा भी मजबूत है। हालांकि सूंदर ठाकुर को सीपीएस बनाया गया था लेकिन ये पद कब तक रहेगा, ये कोर्ट ने तय करना है। वहीँ सूंदर ठाकुर भी सीपीएस को मिली गाड़ी लौटकर चुप रहकर भी काफी कुछ कह चुके है।
आम तौर पर एकमुश्त पड़ने वाला गद्दी वोट कांगड़ा संसदीय क्षेत्र की सियासत में निर्णायक भूमिका निभाता है। गद्दी समुदाय की एकता इनकी सियासी ताकत का असल कारण है और ये ही वजह है कि कोई भी दल इन्हें नजर अंदाज़ नहीं करता। विशेषकर भाजपा गद्दी चेहरों पर दांव खेलती आई है और सीटिंग सांसद किशन कपूर लम्बे वक्त से प्रोमिनेन्ट गद्दी फेस है। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में जिला चम्बा के चार और जिला कांगड़ा के 13 विधानसभा क्षेत्र आते है। इस संसदीय क्षेत्र की 17 में से कम से कम 11 सीटों पर गद्दी फैक्टर हावी रहता है। इनमें चम्बा सदर, डलहौज़ी, चुराह, भटियात, धर्मशाला, बैजनाथ, पालमपुर, शाहपुर, ज्वाली, नूरपुर और इंदौरा शामिल है। माना जाता है कि गद्दी समुदाय का वोट मौटे तौर पर विभाजित नहीं होता। ऐसे में सियासी गणित के लिहाज से राजनैतिक दल गद्दी चेहरे को सेफ बेट मानते है, विशेषकर भाजपा। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने धर्मशाला के विधायक और तब की जयराम सरकार में मंत्री किशन कपूर को कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया था और कपूर ने रिकॉर्ड जीत दर्ज कर इतिहास रच दिया था। अब फिर लोकसभा चुनाव का काउंट डाउन शुरू हो चुका है और टिकट की कयासबाजी भी। किशन कपूर टिकट के मिशन पर है लेकिन उन्हें टिकट मिलता है या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। पर माहिर मान रहे है कि संभव है भाजपा यदि किशन कपूर का टिकट काटती है तो अगला उम्मीदवार भी गद्दी समुदाय से ही हो। दावेदारों की फेहरिस्त में जो नाम प्रमुख है उनमें एक है त्रिलोक कपूर जो भाजपा प्रदेश महामंत्री भी है और दूसरे नेता है विशाल नेहरिया। इस सूची में एक तीसरे नाम का जिक्र भी जरूरी है और वो है चुराह विधायक हंसराज। बतौर भाजपा प्रदेश महामंत्री त्रिलोक कपूर का ये दूसरा टर्म है। पर साथ ही त्रिलोक कपूर के खाते में पालमपुर विधानसभा सीट की हार भी दर्ज है। विधानसभा चुनाव में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को 17 में से सिर्फ 5 सीट पर जीत मिली थी। यानी त्रिलोक कपूर के सियासी खाते में जमा से ज्यादा घटाव है। पर कपूर का लम्बा अनुभव और आलाकमान की गुड बुक्स में उनकी उपस्थिति उनका दावा मजबूत करते है। चुराह विधायक और पूर्व विधानसभा स्पीकर हंसराज की बात करें तो वे निसंदेह तेजतर्रार नेता तो है ही, पर उनका चम्बा से होना उनके लिए फायदे का सौदा भी हो सकता है तो रुकावट भी। जनजातीय क्षेत्र से उम्मीदवार देकर भाजपा बड़ा सन्देश भी दे सकती है, तो जिला कांगड़ा की नाराजगी का डर चम्बा की उम्मीदवारी में रोड़ा भी है। साथ ही यदि हंसराज उम्मीदवार होते है और जीत जाते है तो भाजपा को विधानसभा उपचुनाव का सामना भी करना पड़ेगा। ऐसे में उनकी उम्मीदवारी पर पार्टी को काफी सियासी गणित लगनी पड़ेगी। तीसरा नाम है विशाल नेहरिया का। 2019 के धर्मशाला उपचुनाव में भाजपा ने उनको उम्मीदवार बनाया और नेहरिया ने शानदार जीत दर्ज की। इसके बाद 2022 में उनका टिकट काट दिया गया लेकिन नेहरिया समर्थकों की नाराजगी के बावजूद पार्टी लाइन से बाहर नहीं गए। ये फैक्टर उनके पक्ष में जा सकता है। नेहरिया युवा नेता है और माहिर मान रहे है कि भाजपा अधिक से अधिक युवाओं को टिकट देने की नीति पर आगे बढ़ेंगी। ऐसे में इस मापदंड पर भी नेहरिया फिट बैठते है। बहरहाल ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या सीटिंग सांसद किशन कपूर फिर टिकट लाने में कामयाब होंगे ? और किशन कपूर नहीं तो क्या भाजपा गद्दी समुदाय से ही प्रत्याशी देती है या नहीं। फिलवक्त सब सियासी अटकलें है और अटकलों का क्या। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से भाजपा में कम से कम एक दर्जन टिकट के चाहवान है।
भाजपा में टिकट चाहवानों की कतार, कांग्रेस में नेता कतरा रहे ! उम्मीदवार का चयन कांग्रेस के लिए चुनौती, भाजपा को भी बरतनी होगी सावधानी एक तरफ कतार लगी है और एक ओर मानो सब कतरा से रहे है। लोकसभा चुनाव की रुत में ये ही मिजाज -ए-कांगड़ा है। भाजपा में टिकट के चाहवानों की लम्बी कतार है, उधर कांग्रेस में टालमटाल की स्थिति बनती दिख रही है। हालांकि सन्नाटा दोनों ही खेमो में है, भाजपा में चाहवानों की वाणी पर अनुशासन का ताला है तो कांग्रेस में एक किस्म से चाहवान ही नहीं दिख रहे। विशेषकर हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद से ही स्थिति बदल सी गई है। इस पर राम मंदिर फैक्टर का भी असर दिखने लगा है। हालांकि सियासी मौसम भी पहाड़ों के मौसम की तरह ही होता है, कब बदल जाएँ पता नहीं लगता। पर फिलहाल कांगड़ा में कांग्रेस की मुश्किलें निसंदेह भाजपा से अधिक है। यूँ तो चुनाव लोकसभा का है और राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाना है। पर प्रदेश के सियासी मसलों को इससे पूरी तरह इतर नहीं किया जा सकता। प्रदेश में कांग्रेस सत्तासीन है और कांगड़ा संसदीय क्षेत्र को एक साल बाद प्रदेश कैबिनेट में दूसरा मंत्री पद मिला है। अब भी एक मंत्री पद की कमी कांगड़ा को खल रही है। ये कांग्रेस के सियासी सुकून में बड़ा खलल भी डाल रही है। इस पर कांगड़ा में कांग्रेस खेमो में बंटी है, ये भी सर्वविदित है। हालांकि खेमेबाजी भाजपा में भी बेशुमार है। कभी तस्वीरों के जरिये तो भी सांझी पत्रकार वार्ताओं में इसकी झलक दिखती रही है। विधानसभा चुनाव में भाजपा की शिकस्त का एक बड़ा कारण भी इसी गुटबाजी को माना जाता है। पर लोकसभा चुनाव पीएम मोदी के चेहरे पर होगा और ये कहना गलत नहीं है कि पीएम मोदी के चेहरे के आगे बाकी सभी फैक्टर बौने हो जाते है। फिर भी भाजपा के पास यहाँ चूक की कोई गुंजाईश नहीं दिखती। इतिहाज गवाह है कि इसी कांगड़ा से सीटिंग सीएम भी विधानसभा चुनाव हारे है, सो जाहिर है कांगड़ा को 'फॉर ग्रांटेड' नहीं लिया जा सकता। माहिर मान रहे है कि भाजपा को भी चेहरे के चयन में सावधानी बरतनी होगी। भाजपा का गढ़ रहा है कांगड़ा भाजपा के गठन के बाद से दस लोकसभा चुनाव हुए है जिनमें से सात बार कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को जीत मिली है। यूँ तो भाजपा ने अपना पहला लोकसभा चुनाव 1984 में लड़ा था लेकिन पार्टी की जड़े जमी 1989 में। तब राम मंदिर आंदोलन प्रखर था और आंदोलन की तरह ही भाजपा भी तेजी से बढ़ती जा रही थी। इसी बीच 1989 में शांता कुमार पहली बार संसद की दहलीज लांघने में कामयाब हुए। तब से कांगड़ा में भाजपा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। कांग्रेस सिर्फ दो मर्तबा जीती, 1996 में सत महाजन और 2004 में चौधरी चंद्र कुमार ही कांग्रेस को जीत दिला सके। उम्मीदवार बदला, वोट शेयर बढ़ा ! कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा लगतार तीन चुनाव जीत चुकी है। दिलचस्प बात ये है कि पिछले तीन चुनाव में भाजपा ने हर बार चेहरा बदला है और हर बार जीती है। इससे भी दिलचस्प तथ्य ये है कि हर बार भाजपा के वोट प्रतिशत में भारी बढ़ोतरी हुई है। 2009 में भाजपा के उम्मीदवार थे डॉ राजन सुशांत और उन्हें 48.69 प्रतिशत वोट मिले थे। फिर 2014 में शांता कुमार ने चुनाव लड़ा और उन्हें लगभग 57 प्रतिशत वोट मिले। वहीँ 2019 में भाजपा ने किशन कपूर को उम्मीदवार बनाया और उन्होंने रिकॉर्ड 72 प्रतिशत वोट बटोरे। किशन कपूर ने रचा था इतिहास 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र पर किशन कपूर ने 72.02 प्रतिशत मत हासिल कर इतिहास बना दिया था। तब कपूर को 7,25,218 वोट पड़े थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी पवन काजल को 2,47,595 मतों पर ही सिमटना पड़ा था। कांगड़ा हलके की दिलचस्प बात यह रही थी कि प्रदेश में सबसे अधिक नोटा का इस्तेमाल भी यहीं हुआ। तब 11,327 मतदाताओं ने नोटा दबाया था। वहीँ बहुजन समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी डॉ. केहर सिंह को 0.88 प्रतिशत वोट हासिल हुए, जबकि नोटा 1.12 % था। 2004 के बाद नहीं जीती कांग्रेस कांग्रेस को आखिरी बार 2004 में कांगड़ा संसदीय सीट पर जीत मिली थी और तब उम्मीदवार थे चौधरी चंद्र कुमार। इसके बाद से कांग्रेस लगातार तीन चुनाव हार चुकी है। आगामी लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस की राह आसान नहीं दिखती। सही उम्मीदवार का चयन और अंतर्कलह और असंतोष पर लगाम ही कांग्रेस को टक्कर में ला सकता है। बहरहाल कांग्रेस के सामने सबसे पहली चुनौती असंतोष को साधना है। । विधानसभा चुनाव में लगा था भाजपा को झटका कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में जिला चम्बा के 4 और जिला कांगड़ा के 13 विधानसभा क्षेत्र आते है। जिला चम्बा के चम्बा सदर, भटियात, चुराह और डलहौज़ी कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में आते है, जबकि भरमौर मंडी संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। वहीँ जिला कांगड़ा के फतेहपुर, नूरपुर, इंदोरा, ज्वाली, धर्मशाला, शाहपुर, कांगड़ा, नगरोटा, पालमपुर, सुलह, जयसिंहपुर, बैजनाथ और ज्वालामुखी विधानसभा हलके कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के अधीन आते है । 2022 में हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा को झटका लगा था। भाजपा को 17 में से सिर्फ पांच सीटों पर ही जीत मिली थी। हारने वालों में दो कैबिनेट मंत्री और प्रदेश महामंत्री भी शामिल थे। तब असंतोष और गलत टिकट आवंटन हार के कारण बने थे और जाहिर है भाजपा को लोकसभा चुनाव इसे साधना होगा। श्री राम मंदिर का पालमपुर कनेक्शन 1989 के पालमपुर अधिवेशन के बाद बीजेपी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा श्री राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी को की जाएगी। हिंदुस्तान के कई राजनैतिक दलों ने राम मंदिर निर्माण की लम्बी लड़ाई लड़ी है, जिनमें भारतीय जनता पार्टी प्रमुख है। वो बीजेपी का राम मंदिर आंदोलन ही था जिसने देश की राजनीति की धारा को ही पलट दिया। राम मंदिर आंदोलन की बिसात पर मजबूत हुई। बीजेपी आज केंद्र में सत्तासीन है और मंदिर आंदोलन से निकले कई नेता संसद में बैठकर देश की नीतियां निर्धारित कर रहे हैं। राम मंदिर बनाने का संघर्ष लम्बा है, और इस संघर्ष में हिमाचल प्रदेश का पालमपुर भी बेहद ख़ास स्थान रखता है। 1989 में जिला कांगड़ा के पालमपुर में बीजेपी का अधिवेशन हुआ था। इस अधिवेशन में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, विजयाराजे सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी समेत पार्टी के तमाम बड़े नेता पालमपुर में थे। इसी अधिवेशन में अयोध्या में भगवान् श्री राम के भव्य मंदिर निर्माण के साथ साथ भारतीय जनता पार्टी के स्वर्णिम भविष्य की पटकथा लिखी गई और भाजपा ने मंदिर निर्माण का प्रस्ताव पास किया। इस तरह इस ऐतिहासिक घटनाक्रम का पालमपुर साक्षी बना। इस तीन दिवसीय अधिवेशन में राम मंदिर निर्माण को लेकर पार्टी ने मंथन किया और तय हुआ कि अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा। 11 जून, 1989 को राम मंदिर के निर्माण का प्रस्ताव तैयार किया गया। इसी दिन लालकृष्ण आडवाणी ने सबकी सहमति से राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव रखा था। पालमपुर में हुई इस बैठक के सूत्रधार थे पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार जो उस समय प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष थे और उन्हें ही उस ऐतिहासिक बैठक की पूरी व्यवस्था करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वह राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य भी थे, इसलिए उस ऐतिहासिक प्रस्ताव के पारित होने और सारी व्यवस्था के वह भी साक्षी हैं। क्या होगी सुधीर की भूमिका ? जिला कांगड़ा में सुधीर शर्मा कांग्रेस का बड़ा नाम है। सुधीर धर्मशाला से विधायक है और पूर्व की वीरभद्र सरकार में मंत्री रह चुके है। इस बार भी उन्हें मंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था लेकिन अब तक ऐसा नहीं हुआ। चार बार के विधायक सुधीर शर्मा सुक्खू राज में मंत्री पद से महरूम है, पर पंडित जी का सियासी रसूख कुछ ऐसा है कि उन्हें किनारे करके भी दरकिनार नहीं किया जा सकता। हाल ही में सीएम सुक्खू उनसे मिलने देर रात उनके आवास पर पहुंचे थे, तो अंतर्कलह की स्थिति को भांप आलाकमान ने उन्हें तमाम मंत्रियों सहित बैठक के लिए दिल्ली से बुलावा भेजा । इस बैठक का निष्कर्ष क्या निकला ये तो अब तक स्पष्ट नहीं है लेकिन माहिर मान रहे है कि सुधीर के लिए कोई भूमिका तय कर ली गई है। एक कयास है कि सुधीर कांगड़ा से कांग्रेस के उम्मीदवार होंगे और दिल्ली में इसी को लेकर चर्चा हुई है। वहीँ अटकले ये भी है कि सुधीर शर्मा को संगठन की कमान देकर साधा जा सकता है। यदि ऐसा हुआ तो सुधीर के साथ -साथ कांगड़ा का सियासी वजन भी बढ़ेगा। बहरहाल सब अटकलें है और सुधीर के हिस्से में क्या आता है और कब आता है, ये देखना रोचक होगा।
शिमला संसदीय क्षेत्र में कार्यकर्ताओं में जान फूंक गए नड्डा हिमाचल में कोई चूक नहीं चाहेंगे नड्डा : भारतीय जनता पार्टी का आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर उन प्रदेशों में ज्यादा फोकस है, जहां गैर भाजपा दलों की सरकार है। हिमाचल की सत्ता पर कांग्रेस काबिज है, ऐसे में भाजपा लोकसभा चुनाव को लेकर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहेगी। भाजपा ने हिमाचल में लोकसभा चुनाव का उद्घोष कर दिया है। भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के दौरे के साथ ही लोकसभा चुनाव का शंखनाद हो गया है। इसके आरंभ के लिए नड्डा ने शिमला संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले सोलन को चुना। दरअसल 2022 के विधानसभा चुनाव में शिमला संसदीय क्षेत्र में ही भाजपा सबसे कमजोर साबित हुई थी। विधानसभा चुनाव में संसदीय क्षेत्र की 17 में से महज तीन सीट पर पार्टी को जीत मिली थी। जाहिर है ऐसे में पार्टी अब कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। खुद नड्डा ने सोलन में रोड शो किया और फिर जनसभा को सम्बोधित कर चुनावी हुंकार भरी। इसके उपरांत शिमला पहुंचे नड्डा ने भाजपा कोर ग्रुप की बैठक भी ली। सोलन में हुए नड्डा के रोड शो में विशेषकर सोलन और सिरमौर से भारी भीड़ उमड़ी। सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का भी भरपूर जलवा दिखा। हाटी फैक्टर का असर भी इस आयोजन में दिखा। विशेषकर हाटी बेल्ट से काफी संख्या में लोग नड्डा के इस्तेकबाल को पहुंचे। जाहिर है भाजपा ने बेहद रणनीतिक तरीके से हाटी फैक्टर को भुनाने की तैयारी की है और इसका चुनावी लाभ भी पार्टी को मिल सकता है। सम्भवतः बेवजह टिकट न बदले भाजपा ! लोकसभा चुनाव के लिए दावेदारी का सिलसिला भी शुरू हो गया है। शिमला संसदीय क्षेत्र से सीटिंग सांसद सुरेश कश्यप का दावा एक बार फिर मजबूत है। नड्डा के दौर में भी कश्यप की पकड़ की झलक दिखी। कश्यप के अलावा पच्छाद विधायक रीना कश्यप का नाम भी चर्चा में है। हालांकि माहिर मान रहे है कि अगर तमाम सर्वे ठीक आते है तो भाजपा बेवजह टिकट नहीं बदलेगी। शिमला संसदीय क्षेत्र में हाटी फैक्टर से भी भाजपा को बड़ी उम्मीद है और वोटर्स के बीच इसका श्रेय भी काफी हद तक सुरेश कश्यप को जाता दिख रहा है।
14 जनवरी को मणिपुर से शुरू होगी भारत जोड़ो न्याय यात्रा 15 राज्य, 357 लोकसभा सीटें और कांग्रेस के सिर्फ 14 सांसद। सत्ता और कांग्रेस के बीच ये ही बड़ा फर्क है। ये ही जहन में रखते हुए कांग्रेस ने राहुल गाँधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा का रूट तय किया है। हालांकि यात्रा उक्त 15 राज्यों की सिर्फ 100 लोकसभा सीटों से गुजरेगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में इन 357 में से कांग्रेस के खाते में सिर्फ 14 सीटें आई थी। जहाँ गठबंधन था वहां सहयोगी भी कुछ ख़ास नहीं कर सके थे। दरअसल कांग्रेस का मानना है कि भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल गाँधी की छवि को बदला, राहुल गाँधी की लोकप्रियता में इजाफा हुआ है और कांग्रेस की कर्णाटक और तेलंगाना में जीत के पीछे भी भारत जोड़ो यात्रा एक अहम वजह है। ये ही कारण है कि लोकसभा चुनाव से पहले अब कांग्रेस फिर एक यात्रा निकालने जा रही है। मकसद साफ है, राहुल सड़क पर उतरेंगे, 100 लोकसभा सीटें और 337 विधानसभा सीटों को पैदल नापेंगे, जनसंवाद भी होगा और कार्यकर्ताओं में जोश भी आएगा। बहरहाल क्या और कितना होगा, ये लोकसभा चुनाव के नतीजे तय करेंगे पर कांग्रेस आगामी चुनाव में सब कुछ झोंकने को तैयार है। यात्रा 14 जनवरी को मणिपुर की राजधानी इंफाल से शुरू होकर 20 मार्च को मुंबई में समाप्त होगी। राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के तहत 67 दिनों में 6713 किमी का सफर तय करेंगे। यह यात्रा 15 राज्यों के 110 जिले से होकर गुजरेगी और इसके अन्तर्गत 100 लोकसभा सीटें और 337 विधानसभा सीटें आएगी। यात्रा का सबसे लंबा चरण उत्तर प्रदेश में होगा जहां राज्य के 20 जिलों को कवर करने के लिए 11 दिन आवंटित किए गए हैं। 80 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों वाले उत्तर प्रदेश में, सबसे पुरानी पार्टी को पिछले चुनावों में कांग्रेस के एक लोकसभा सांसद के साथ कोई सीट नहीं मिली थी। सोनिया गांधी यूपी की रायबरेली सीट से एकमात्र कांग्रेस सांसद हैं। वहीँ यात्रा बिहार के सात जिलों और झारखंड के 13 जिलों से भी गुजरेगी, राहुल गांधी की यात्रा बिहार और झारखण्ड में क्रमशः 425 किमी और 804 किमी की दूरी तय करेगी। भारत जोड़ो न्याय यात्रा मणिपुर, नागालैंड, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और अंत में महाराष्ट्र राज्यों से होकर गुजरेगी। विदित रहे कि इससे पहले राहुल गांधी ने 7 सितंबर 2022 से 30 जनवरी 2023 तक भारत जोड़ो यात्रा की थी। 145 दिनों की यात्रा तमिलनाडु के कन्याकुमारी से शुरू होकर जम्मू-कश्मीर में खत्म हुई थी। तब राहुल ने 3570 किलोमीटर की यात्रा में 12 राज्यों और 2 केंद्र शासित प्रदेशों को कवर किया था। जहाँ सत्ता में, वहां यात्रा नहीं दिलचस्प बात ये है कि जिन तीन राज्यों में कांग्रेस के सीएम है वहां ये यात्रा नहीं पहुंचेगी। यात्रा कर्णाटक, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश से नहीं गुजरेगी। संभवतः यहाँ कांग्रेस ने पूरी तरह लोकसभा चुनाव का जिम्मा स्थानीय नेतृत्व को देने का निर्णय ले लिया है। शायद पार्टी को लगता है कि इन तीन राज्यों में पार्टी की स्थिति बेहतर है।
'येन-केन-प्रकारेण'..जैसे भी हो कांग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव में बेहतर करना होगा। 138 साल पुरानी देश की सबसे बुजुर्ग राजनैतिक पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है और इसलिए पार्टी अब अपने सबसे बड़े योद्धाओं को भी चुनावी मैदान में उतार सकती है। बीत दिनों हुई एआईसीसी की बैठक में पार्टी ने सबसे दमदार नेताओं को चुनाव लड़वाने का निर्णय लिया है। ऐसे में कई पूर्व मुख्यमंत्री तो चुनाव लड़ते दिख ही सकते है, संभव है कई राज्यों में सीटिंग विधायक और मंत्री भी लोकसभा चुनाव के मैदान में उतार दिए जाएँ। कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ तो अशोक गहलोत, भूपेश बघेल, कमलनाथ सहित कई दिग्गज मैदान में होंगे। वहीँ सूत्रों की माने तो पार्टी विभिन्न क्षेत्रों से सम्बंधित कई लोकप्रिय चेहरों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति पर भी आगे बढ़ रही है। योजना परवान चढ़ी तो कई सेलब्रिटी भी कांग्रेस से चुनाव लड़ते दिख सकते है। सूत्रों की माने तो कांग्रेस की रणनीति जल्द से जल्द कई सीटों पर उम्मीदवार घोषित करने की है, ठीक वैसे ही जैसा भाजपा ने मध्य प्रदेश में किया था। मुमकिन है जो चेहर तय है उनकी घोषणा पार्टी फरवरी में ही कर दें। अशोक गहलोत सहित कई नेता पार्टी पटल पर ये सुझाव रख चुके है ताकि प्रत्याशियों को ज्यादा से ज्यादा समय मिल सके। हिमाचल में मंत्री लड़ेंगे चुनाव ? कांग्रेस 'करो या मरो' के जज्बे के साथ चुनावी मैदान में उतरना चाहती है और ऐसे में मुमकिन है कि हिमाचल में भी कई बड़े चेहरे चुनावी मैदान में हो। सिर्फ विधायक ही नहीं मंत्री भी चुनावी मैदान में उतारे जा सकते है। इसे लेकर कयासबाजी का सिलसिला जारी है। कांगड़ा से चौधरी चंद्र कुमार और शिमला से कर्नल धनीराम शांडिल के नाम की अटकलें तो है ही, हमीरपुर से उप मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री का नाम भी सियासी गलियारों में चर्चा का विषय है। हालांकि फिलहाल ये सब अटकलें है।
दस में से आठ मौकों पर भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्षों ने लड़ा है चुनाव मंडी, हमीरपुर, कांगड़ा सभी विकल्प भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा क्या लोकसभा चुनाव लड़ेंगे और लड़े तो सीट कौन सी होगी, सियासी गलियारों में ये चर्चा का विषय बना हुआ है। जगत प्रकाश नड्डा के सियासी कद को लेकर कोई सवाल नहीं है और उनके लिए मैदान खुला है। ये भी संभव है कि अगर वे चुनाव लड़े तो हिमाचल प्रदेश की ही किसी सीट को चुन सकते है। वर्तमान में नड्डा राज्यसभा सांसद है और उनका कार्यकाल आगामी अप्रैल में पूरा होगा। लगभग इसी दौरान लोकसभा चुनाव है, इसलिए भी उनके चुनाव लड़ने की अटकलें तेज है। हिमाचल प्रदेश में चार लोकसभा सीटें है में से सिर्फ शिमला सीट ही आरक्षित है। ऐसे में अन्य तीन सीटें नड्डा के लिए खुली है। उनके गृह क्षेत्र हमीरपुर की बात करें तो वहां से अनुराग ठाकुर सांसद है और अनुराग एक बार फिर हमीरपुर से चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके है। हालांकि भाजपा में अंतिम फैसला आलाकमान का होता है और नड्डा तो खुद ही आलाकमान है। यदि नड्डा हमीरपुर से मैदान में होते है तो अनुराग तो कांगड़ा से चुनाव लड़वाया जा सकता है। वहीँ ये भी मुमकिन है कि खुद नड्डा ही कांगड़ा से चुनाव लड़े। वहीँ मंडी की बात की जाएँ तो उपचुनाव में भाजपा ने ये सीट गवां दी थी। ऐसे में प्रतिभा सिंह के सामने भी खुद नड्डा उतर सकते है। बहरहाल ये सब अटकलें है और मूल सवाल ये ही है कि क्या नड्डा हिमाचल की किसी सीट से चुनाव लड़ेंगे या नहीं। नड्डा के सामने तीनों सीटों के विकल्प खुले है और माहिर मानते है कि अगर नड्डा को पार्टी मैदान में उतारती है तो हिमाचल प्रदेश की सभी सीटों पर इसका प्रभाव पड़ेगा। बता दें भाजपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष के खुद लोकसभा चुनाव लड़ने का रिवाज पुराना है। 1984 में अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर 2019 में अमित शाह तक अगर एकाध मौकों को छोड़ दिया जाएँ तो पार्टी के सभी अध्यक्ष अपने कार्यकाल में खुद लोकसभा चुनाव लड़े है। 1999 में कुशाभाऊ ठाकरे और 2004 के लोकसभा चुनाव में वैंकया नायडू ही अपवाद है। ऐसे में अब मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के भी चुनाव लड़ने की अटकलें है।
-कहा, सरकार कर रही पारदर्शिता से काम, विपक्ष के पास नहीं मुद्दा -प्रदेश भाजपा ने केंद्र से मदद दिलाने के लिए नहीं किया कोई प्रयास हिमाचल विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दूसरे दिन विपक्ष ने स्टोन क्रशर को बंद करने को लेकर सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए, जिसको लेकर मुख्यमंत्री ने कहा कि 100 करोड़ का स्टोन क्रशर घोटाला, जो कि पूर्व सरकार के समय में हुआ है, जिसको लेकर वर्तमान सरकार ने पर्दाफाश किया। उसी का दर्द भाजपा को हो रहा है। मुख्यमंत्री ने कहा कि पहले नियमों को ताक पर रखकर स्टोन क्रशर चल रहे थे, अब नियमों के अनुसार ही चलेंगे। सरकार पारदर्शिता से काम कर रही है। सीएम ने कहा कि भाजपा विधायकों ने आपदा के समय हिमाचल को किसी भी तरह की मदद दिलाने के लिए प्रयास नहीं किया उल्टा रोड़े अटकाने का काम ही किया है।
हिमाचल प्रदेश शीतकालीन सत्र के दूसरे दिन कि शुरुआत के साथ ही विपक्ष ने धमाकेदार एंट्री की। विपक्ष लगातार कांग्रेस सरकार को चुनाव से पहले दी गई गारंटियों को लेकर घेर रहा है। सत्र के दूसरे दिन भी विपक्ष के सभी विधायक गोबर के साथ विधानसभा परिसर पहुंचे और सरकार के खिलाफ नारेबाजी की। इस दौरान नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर ने कहा कि हम सरकार को उनकी गारंटियां याद दिला रहे हैं। एक-एक कर सभी गारंटियां याद दिलाई जाएगी। उन्होंने कहा कि किसानों ने एक साल से खेत में गोबर डालना बंद कर दिया, इस उम्मीद के साथ के सुक्खू भाई आएंगे और गोबर खरीदेंगे, लेकिन सरकार अब गारंटियां भूल गई है। सेशन के पहले दिन भी विपक्ष ने कांग्रेस की गारंटियों का चोला पहनकर तपोवन धर्मशाला में प्रदर्शन किया था।
-मुख्यमंत्री सुक्खू और नेता प्रतिपक्ष जयराम में हुई तीखी बहस धर्मशाला। कांगड़ा जिले के धर्मशाला के तपोवन में हिमाचल प्रदेश विधानसभा का शीतकालीन सत्र आज सुबह 11 बजे शुरू हुआ। यह शीतकालीन सत्र पहले दिन ही सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच तीखी नोकझोंक के साथ काफी गर्मा गया। सत्र शुरू होने से पहले विपक्ष के विधायक विधानसभा परिसर में पोस्टर्स पहने हुए कांग्रेस सरकार की गारंटियों को लागू न करने के विरोध में नारेबाजी करने लगे। हालांकि सुरक्षा कारणों के चलते उन्हें पोस्टर पहनकर विधानसभा सत्र में जाने नहीं दिया गया। वहीं, 11 बजे बैठक शुरू हुई तो भाजपा दोपहर तक शांत नजर आई। लेकिन जब सवा दो बजे मुख्यमंत्री सुक्खू ने वाटर सेस पर केंद्र सरकार को कोसा तो इस पर विपक्ष भड़क उठा और सदन में हंगामा शुरू हो गया। मुख्यमंत्री ने भाजपा पर निशाना साधा कि पिछली भाजपा सरकार ने प्रदेश के हित बेचने का काम किया। भाजपा सरकार की ओर से एसजेवीएन को दी तीन बिजली परियोजनाओं के समझौते को वर्तमान सरकार को इसी वजह से रद्द करना पड़ा। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में जहां पर भाजपा की सरकारें हैं, वहां वाटरसेस लिया जा रहा है, जबकि प्रदेश में इसे लागू नहीं होने दिया जा रहा है। इसके लिए केंद्र कोर्ट चला गया है। इस पर नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर और विपक्ष के अन्य विधायकों ने कहा कि सच यह नहीं है। केंद्र सरकार की सभी राज्यों के लिए वाटरसेस पर एक ही नीति है। इस पर मुख्यमंत्री सुक्खू और नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर आमने-सामने हो गए और सदन में खूब हंगामा हुआ।
संसद के शीतकालीन सत्र के 12वें दिन लोकसभा से विपक्ष के 49 सांसदों को निलंबित कर दिया गया। अब तक कुल 141 सांसदों को सत्र से सस्पेंड किया जा चुका है। मंगलवार यानी आज विपक्ष ने सांसदों के निलंबन को लेकर दोनों सदनों में हंगामा किया। विपक्षी सांसद ने सदन से लेकर सदन के गेट और परिसर में नारेबाजी और प्रदर्शन किया। लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही सुबह से 3 बार स्थगित की गई। इसके बाद लोकसभा से विपक्ष के 49 सांसदों को निलंबित कर दिया गया। इस तरह अब कुल 141 सांसद सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। यही नहीं, लोकसभा की प्रश्नसूची से 27 सवाल भी हटा दिए गए हैं। ये सवाल निलंबित सांसदों की तरफ से पूछे गए थे। आजादी के बाद पहली बार इतने सांसदों को किया गया निलंबित सोमवार को कुल 78 सांसदों (लोकसभा-33, राज्यसभा-45) को निलंबित किया गया था। आजादी के बाद पहली बार एक ही दिन में इतने सांसद निलंबित किए गए है। इससे पहले 1989 में राजीव सरकार में 63 सांसद निलंबित किए गए थे। पिछले हफ्ते भी 14 सांसदों को निलंबित किया गया था।
- अब तक कुल 92 सांसदों को किया गया निलंबित संसद के शीतकालीन सत्र के 11वें दिन दोनों सदनों से कुल 78 सांसद सस्पेंड कर दिए गए। असल में संसद में सुरक्षा चूक के मसले पर लोकसभा में लगातार चौथे दिन हंगामा हुआ। इस पर लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला ने 33 सांसदों को सस्पेंड कर दिया। इनमें नेता अधीर रंजन चौधरी समेत कांग्रेस के 11 सांसद, तृणमूल कांग्रेस के 9, डीएमके के 9 और 4 अन्य दलों के सांसद शामिल हैं। इसके बाद राज्यसभा में भी हंगामा हुआ। इसके चलते सभापति जगदीप धनखड़ ने 45 विपक्षी सांसदों को पूरे सत्र के लिए (22 दिसंबर तक) निलंबित कर दिया। इससे पहले 14 दिसंबर को लोकसभा से 13 सांसद निलंबित किए गए थे। इनके अलावा राज्यसभा सांसद डेरेक ओब्रायन को भी 14 दिसंबर को सस्पेंड किया गया था। शीतकालीन सत्र से अब तक कुल मिलाकर 92 सांसदों को सस्पेंड किया जा चुका है।
आज नई दिल्ली के जंतर मंतर पर अखिल भारतीय महिला कांग्रेस के आह्वान पर आयोजित संसद घेराव के दौरान प्रदेश महिला कांग्रेस अध्यक्ष जैनब चंदेल के नेतृत्व में प्रदेश महिला कांग्रेस ने भी भाग लिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष एवं सांसद प्रतिभा सिंह ने भी इस धरना प्रदर्शन में विशेष तौर पर भाग लिया। प्रतिभा सिंह ने अपने संबोधन में केंद्र की भाजपा सरकार की महिला विरोधी नीतियों की आलोचना करते हुए कहा कि देश की आधी आबादी को अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर लड़ना होगा।
-14 दिसंबर को 13 सांसद किए थे सस्पेंड -अब तक कुल 44 सांसद निलंबित संसद के शीतकालीन सत्र के 11वां दिन संसद में सुरक्षा चूक के मसले पर आज भी खूब हंगामा हुआ। लोकसभा में खराब व्यवहार के चलते विपक्षी नेता अधीर रंजन चौधरी समेत 31 सांसद को पूरे शीतकालीन सत्र के लिए निलंबित कर दिए गए। इससे पहले 14 दिसंबर को लोकसभा से 13 सांसद निलंबित किए गए थे। ऐसे में अब तक कुल 44 सांसद पूरे शीतकालीन सत्र के लिए निलंबित हो चुके हैं। सदन में आज लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला ने कार्यवाही शुरू होते ही 15 मिनट की स्पीच दी। उन्होंने कहा कि संसद में सुरक्षा चूक को लेकर राजनीति होना दुर्भाग्यपूर्ण है। हंगामा बढ़ा तो सदन की कार्यवाही 12 बजे तक स्थगित हो गई। 12 बजे लोकसभा की कार्यवाही शुरू हुई। आसंदी पर राजेंद्र अग्रवाल थे। इसी बीच कम्युनिकेशन मिनिस्टर अश्विनी ने कम्युनिकेशंस बिल 2023 पेश किया। इस दौरान विपक्षी सांसदों ने फिर नारेबाजी की और तख्तियां लहराईं। अग्रवाल ने विपक्षी सांसदों से जगह पर बैठने को कहा। वे नहीं माने तो सदन की कार्यवाही 2 बजे तक स्थगित कर दी गई। वहीं, राज्यसभा में भी लोकसभा में घुसपैठ मुद्दे पर हंगामा हुआ। सदन की कार्यवाही पहले 11.30 बजे तक स्थगित कर दी गई। इसके बाद जब कार्यवाही शुरू हुई तो विपक्षी सांसदों ने नारेबाजी की और गृह मंत्री अमित शाह से बयान देने की मांग की।
- मुख्यमंत्री बेबस, मुझे उन पर आ रहा तरस हिमाचल विधानसभा का शीतकालीन सत्र 19 दिसंबर से धर्मशाला के तपोवन में शुरू हो रहा है। वहीं, सत्र के ठीक एक दिन पहले धर्मशाला में माहौल गरमाया हुआ है। भाजपा ने धर्मशाला के पुलिस ग्राउंड से लेकर कचहरी चौक तक आक्रोश रैली निकाली। इस रैली में कांगड़ा जिला की 15 विधानसभा क्षेत्र के लोग शामिल हुए। इस रैली में भाजपा के हिमाचल प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना, प्रदेश अध्यक्ष राजीव बिंदल, नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर सहित कांगड़ा के सभी वरिष्ठ नेता शामिल हुए। कचहरी चौक में रैली को संबोधित करते हुए पूर्व सीएम और नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर ने कहा कि प्रदेश की कांग्रेस सरकार मंडी और कांगड़ा के साथ भेदभाव कर रही है। ये दोनों जिले विधानसभा क्षेत्रों की संख्या के मामले में सबसे बड़े जिले हैं, लेकिन प्रदेश की सुक्खू सरकार इनकी अनदेखी कर रही है। एक साल तक कांगड़ा को केवल एक ही मंत्री मिला। अब हाल ही में एक साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद ही जिले से दूसरा मंत्री चुना गया। जयराम ठाकुर ने कहा कि कांगे्रस विधानसभा चुनाव में जनता से झूठे वादे और झूठी गारंटियां देकर सत्ता में तो काबिज हो गई, लेकिन अब यही 10 गारंटियां उसके गले की फांस बन गई हैं। जयराम ठाकुर ने कहा, 'प्रदेश के मुख्यमंत्री बेबस हो गए हैं और मुझे उन पर तरस आता है। चुनाव से पहले कहा था कि सरकार बनते ही पहली कैबिनेट बैठक में 10 गारंटियों को पूरा किया जाएगा। प्रदेश की जनता सरकार से चुनावी गारंटियां पूरी करने को लेकर टकटकी लगाए बैठी है। लेकिन सरकार गारंटियां पूरी नहीं कर पा रही है।Ó
-भाजपा ने आक्रोश रैली निकाल सरकार के खिलाफ बोला हल्ला हिमाचल विधानसभा का शीतकालीन सत्र 19 दिसंबर से धर्मशाला के तपोवन में शुरू हो रहा है। वहीं, सत्र के ठीक एक दिन पहले धर्मशाला में माहौल गरमाया हुआ है। भाजपा ने धर्मशाला के पुलिस ग्राउंड से लेकर कचहरी चौक तक आक्रोश रैली निकाली। इस रैली में कांगड़ा जिला की 15 विधानसभा क्षेत्र के लोग शामिल हुए। रैली में पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने 'सुक्खू भाई, सुक्खू भाई दस गारंटियां किथे पाई, सुक्खू चाचा सुक्खू चाचा 1500 रुपये कब दिंगा, निक्कमों की सरकार को भेजो हरिद्वार को' आदि नारे लगाकर कांग्रेस सरकार के खिलाफ हल्ला बोला। इस रैली में भाजपा के हिमाचल प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना, प्रदेश अध्यक्ष राजीव बिंदल, नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर सहित कांगड़ा के सभी वरिष्ठ नेता शामिल हुए। कचहरी चौक में बीजेपी के नेता रैली को संबोधित कर रहे हैं।
-नड्डा के कुल्लू स्थित निवास पर दोनों में करीब एक घंटा हुई चर्चा बॉलीवुड क्विन कंगना रनौत ने रविवार को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से मुलाकात की। यह मुलाकात राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के घर शास्त्री नगर कुल्लू में हुई। दोनों के बीच करीब एक घंटे तक चर्चा हुई। अब अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की सरगर्मियां भी लगभग शुरू हो गई हैं, ऐसे में दोनों के बीच हुई इस मुलाकात ने हिमाचल की राजनीति में हलचल बढ़ा दी है। माना जा रहा है कि भाजपा कंगना को मंडी संसदीय क्षेत्र से चुनावी मैदान में उतार सकती है। गौरतलब है कि कंगना रनौत बीते दिनों बिलासपुर में विश्व संवाद केंद्र द्वारा आयोजित सोशल मीडिया मीट में भी पहुंची थीं। उसके बाद कंगना रनौत अपने मनाली घर पर वापस लौट गई थीं। जैसे ही उन्हें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के आने की जानकारी मिली तो वह उनसे मिलने उनके निवास स्थान शास्त्री नगर पहुंच गईं। काबिले गौर है कि कुछ समय से कंगना रनौत के मंडी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने की खबरें सामने आ रही हैं। ऐसे में कंगना भी लगातार भाजपा के तमाम बड़े नेताओं से अपना संपर्क बनाए हुए हैं। आज कुल्लू में जेपी नड्डा से हुई इस मुलाकात के बाद रानीतिक चर्चाओं का माहौल और गर्म हो गया है।
हिमाचल प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेता एवं धर्मशाला से विधायक सुधीर शर्मा की फेसबुक पोस्ट ने एक बार फिर प्रदेश का सियासी पारा गरमा दिया है। कांग्रेस सरकार के दूसरे कैबिनेट विस्तार में भी जगह नहीं पाने के बाद सुधीर शर्मा ने फेसबुक पर लिखा- 'युद्धं निरंतर भवति, दैवेन सह, कालेन सह, अस्माभि: सह' पोस्ट डाला है। इसका अर्थ लड़ाई जारी है, भाग्य से, वक्त से, अपने आप से है। बता दें कि पिछले साल 11 दिसंबर को मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने 7 कैबिनेट मंत्रियों सहित शपथ ली थी। उस समय भी सुधीर शर्मा को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया था। इसके बाद सरकार के करीब एक साल के कार्यकाल के बाद हुए मंत्रिमंडल विस्तार में सुधीर को फिर से नजरअंदाज किया गया। हालांकि उन्होंने नवनियुक्त दोनों मंत्रियों को मंत्री बनने पर बधाई तो दी है, लेकिन वीरवार देर रात डाली फेसबुक पोस्ट ने सर्द मौसम में प्रदेश की सियासत को एक बार फिर गरमा दिया है।
भजन लाल शर्मा ने आज जयपुर के अल्बर्ट हॉल में राजस्थान के मुख्यमंत्री की शपथ ली। इस शपथ ग्रहण समारोह में पीएम मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा समेत कई बड़े नेता मौजूद रहे। भजन लाल के अलावा दीया कुमारी सिंह और प्रेमचंद बैरवा ने भी शपथ ली। दीया कुमार और प्रेमचंद बैरवा को राज्य का उप मुख्यमंत्री बनाया गया है। भजन लाल शर्मा इस बार चुनाव जीतकर पहली बार विधायक बने हैं। ऐसे में उनपर भरोसा जताकर भाजपा ने भविष्य की राजनीति को साधने का काम किया है। बता दें कि बीते मंगलवार को हुई विधायक दल की बैठक भजन लाल शर्मा को विधायक दल का नेता चुना गया था। राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भजन लाल शर्मा के नाम का प्रस्ताव रखा था। भजन लाल शर्मा सांगानेर से विधायक हैं।
आपदा प्रबंधन को सलाम, महिलाओं को 1500 का इंतजार **पुरानी पेंशन बहाल कर सरकार ने निभाया बड़ा वादा ** सुखाश्रय योजना से सुक्खू सरकार ने जीता दिल ** सियासी संतुलन बनाने में असफल रही सरकार "...सत्ता परिवर्तन का जो सियासी रिवाज हिमाचल प्रदेश में 1990 से चला आ रहा था उसे जनता ने 2022 में भी बरकरार रखा। 8 दिसंबर 2022 को विधानसभा चुनाव के नतीजे आएं और कयासों के मुताबिक ही कांग्रेस सत्तासीन हुई। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के दो मुख्य कारण अगर देखे जाएँ, तो सम्भवतः पहला कारण रहा भाजपा का कमजोर चुनाव लड़ना। एक तिहाई सीटों पर भाजपा के बागी मैदान में थे और ये उसकी हार का बड़ा कारण बना। दोनों पार्टियों के वोट शेयर में अंतर एक प्रतिशत से भी कम रहा, जबकि निर्दलीयों के खाते में करीब दस प्रतिशत वोट गए। इनमें अधिकांश भाजपा के बागी थे। दूसरा कारण था, कांग्रेस की गारंटियां। कांग्रेस ने भाजपा से बेहतर चुनाव लड़ा और उसका गारंटी कार्ड चल गया। ये ही कारण है कि सिमटते कैडर के बावजूद कांग्रेस ने दमदार वापसी की। कांग्रेस के खाते में 40 सीटें आई, लेकिन भाजपा भी तमाम गलतियों के बावजूद 25 का आंकड़ा छू गई। यानी सरकार बेशक कांग्रेस ने बना ली हो लेकिन पहले दिन से उस पर परफॉरमेंस प्रेशर है। फिर तारीख आई 11 दिसंबर 2022, जगह थी हिमाचल की राजधानी शिमला का रिज मैदान, सर्दी का मौसम मगर तेज़ धूप और उस धूप में उबाल खाता हज़ारों कांग्रेस कार्यकर्ताओं का उत्साह। अर्से बाद वीरभद्र सिंह की जगह कोई और कांग्रेसी चेहरा सीएम पद की शपथ ले रहा था। जो सुखविंदर सिंह सुक्खू सालों वीरभद्र सिंह के सामने एक किस्म से अपने सियासी रसूख को बचाये रखने की लड़ाई लड़ते रहे थे, वे अब उनके बाद मुख्यमंत्री बन चुके थे। पार्टी के 40 विधायक जीत कर आए थे और इन 40 विधायकों में से सबसे ज्यादा सुक्खू के पक्ष में थे। होली लॉज खेमे के विधायक प्रतिभा सिंह और मुकेश अग्निहोत्री के बीच बंटे हुए थे। ये ही सुक्खू के पक्ष में गया था। राजधानी कांग्रेसमय दिख रही थी, मैदान खचाखच भरा था और नारे लग रहे थे 'प्रदेश का मुख्यमंत्री कैसा हो, सुक्खू भाई जैसा हो। कांग्रेस में ये नए दौर की शुरुआत थी। शपथ ग्रहण मंच पर पूर्व मुख्यमंत्री स्व राजा वीरभद्र सिंह की तस्वीर भी रखी गई थी, उन्हें शपथ से पहले श्रद्धांजलि दी गई और फिर मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री ने शपथ ली। धुआंधार लॉबिंग और मैराथन बैठकों के बाद सुक्खू मुख्यमंत्री तो बन गए थे लेकिन ये ताज काँटों भरा ताज है। सुक्खू सरकार के सामने पहले दिन से न सिर्फ परफॉर्म करने की चुनौती है बल्कि पार्टी के भीतर भी सामंजस्य बैठाना है। एक साल बीत गया है और कई मोर्चों पर सरकार हिट साबित हुई है, तो कई पैमानों पर अब सरकार का असल इम्तिहान होना है। " सुक्खू सरकार एक साल की हो गई है ...सत्ता पक्ष इसे 'सुख की सरकार' कह रहा है तो विरोधी 'दुख की सरकार', कांग्रेस उपलब्धियों की बुकलेट बाँट रही है तो भाजपा नाकामी के पर्चे। ये तो सियासत के रस्म-ओ-रिवाज है जो सत्ता पक्ष को भी निभाने है और विपक्ष को भी। बहरहाल एक साल की सुक्खू सरकार को लेकर भी सबका अपना-अपना विश्लेषण है। सरकार का कामकाज उसकी गारंटियों की कसौटी पर भी आँका जा रहा है, आपदा प्रबंधन पर भी और सरकार की जमीनी पकड़ भी इसका मापदंड है। कहीं शांता कुमार जैसे दिग्गज सरकार की तारीफ कर रहे है, तो कहीं पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष ही सीएम को पत्र लिखकर वादे याद दिला रहे है। इस बीच सुक्खू सरकार जनता के बीच सुछवि गढ़ने के प्रयास में लगी है, तो भाजपा छवि बिगाड़ने का कोई मौका नहीं चूक रही। खेर, बनती बिगड़ती सियासी इक्वेशन अपनी जगह, लेकिन कामकाज की कसौटी पर आंके तो सुक्खू सरकार ने कई ऐसे काम किये है जो अपनी छाप छोड़ गए। पुरानी पेंशन बहाली का वादा भी सरकार ने पूरा किया और सुख आश्रय योजना से सरकार का मानवीय चेहरा भी दिखा। वहीँ आपदा में सुक्खू सरकार के कामकाज पर तो वर्ल्ड बैंक और नीति आयोग ने भी ताली बजाई। हालांकि, सरकार के लिए सब हरा हरा नहीं है, महिलाओं को 1500 रुपये देने की गारंटी भी अभी अधूरी है और सियासी संतुलन बनाने में भी सरकार असफल दिखती है। पुरानी पेंशन के अलावा भी कर्मचारियों के मसले है जो अनसुलझे है। युवा एक साल में ही सड़कों पर उतर आए थे, कोई रिजल्ट मांग रहा है तो कोई नौकरी। प्रयास तो जारी है मगर फिलहाल खाली खजाना सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। सरकार के बड़े काम ... अनाथ बच्चे अब 'चिल्ड्रन ऑफ़ स्टेट' हिमाचल प्रदेश के सभी अनाथ बच्चे अब 'चिल्ड्रन ऑफ स्टेट' है। ये सुक्खू सरकार का वो फैसला है जिसने सबका दिल छुआ। अनाथ बच्चों का पालन पोषण, शिक्षा, आवास, विवाह आदि का खर्चा सरकार ने उठाने का निर्णय लिया है। सुक्खू सरकार की इस मानवीय पहल को चौतरफा तारीफ मिली है। सुख आश्रय योजना निसंदेह सुक्खू सरकार का वो काम है जो सदा याद रखा जायेगा। राज्य में अब तक 4000 अनाथ बच्चों को पात्रता प्रमाण पत्र जारी कर दिए गए हैं, जिससे अब वह मुख्यमंत्री सुखाश्रय योजना का लाभ उठा सकेंगे। इस योजना के तहत 27 वर्ष की आयु तक अनाथ बच्चे की देखभाल का ज़िम्मा राज्य सरकार का है। इसके साथ ही अनाथ बच्चों को क्लोथ अलाउंस व त्यौहार मनाने के लिए भत्ता प्रदान किया जा रहा है। उनकी उच्च शिक्षा, रहने का खर्च, 4000 रुपए पॉकेट मनी राज्य सरकार की ओर से प्रदान की जाएगी। राज्य सरकार अनाथ बच्चों को नामी स्कूलों में दाख़िला दिलाने के लिए भी प्रयास कर रही है। इसके साथ ही उन्हें आत्मनिर्भर बनाने तथा घर बनाने के लिए 3 बिस्वा भूमि तथा 2 लाख रुपए की आर्थिक सहायता प्रदान की जा रही है। पुरानी पेंशन बहाल करके दिखाई वादे के मुताबिक सुक्खू सरकार ने कर्मचारियों को पुरानी पेंशन बहाली का तोहफा दिया है। प्रदेश की ख़राब आर्थिक स्थिति के बावजूद सरकार ने कर्मचारियों से वादा निभाया है। प्रदेश सरकार द्वारा चौथी कैबिनेट की बैठक में ही पुरानी पेंशन बहाली की एसओपी को मंज़ूरी दे दी गई थी और 1 अप्रैल, 2023 से पुरानी पेंशन लागू कर दिया गया । चुनाव से पहले कांग्रेस द्वारा जनता को दी गई गारंटियों में से पुरानी पेंशन बहाली पहली गारंटी थी। प्रदेश की नई सरकार ने कर्मचारियों की पेंशन की सबसे बड़ी टेंशन को खत्म कर दिया। हिमाचल में करीब सवा लाख कर्मचारी इस समय एनपीएस के दायरे में आते थे जिन्हे इसका लाभ मिला । इस फैसले से प्रदेश सरकार पर सालाना करीब 1,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त वित्तीय बोझ बढ़ गया मगर सरकार अपने वादे से पीछे नहीं हटी। अब इसका सियासी लाभ कांग्रेस को होगा या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा लेकिन ये सुक्खू सरकार का बड़ा फैसला है। ग्रीन हिमाचल मुहीम हरित राज्य प्रदेश सरकार ने राज्य को 31 मार्च, 2026 तक हरित ऊर्जा राज्य के रूप में विकसित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रदेश सरकार ने राज्य के प्रत्येक जिले में दो-दो ग्राम पंचायतों को पायलट आधार पर हरित पंचायत के रूप में विकसित करने की रूपरेखा तैयार की है। इन पंचायतों में 500 किलोवाट से एक मेगावाट विद्युत उत्पादन क्षमता की सौर ऊर्जा परियोजनाएं स्थापित की जाएंगी। हिमाचल प्रदेश ऊर्जा क्षेत्र विकास कार्यक्रम के तहत इन परियोजनाओं की स्थापना के लिए 50 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। सुक्खू सरकार ने 100 किलोवाट से लेकर एक मेगावाट तक की सौर ऊर्जा परियोजनाओं की स्थापना पर युवाओं को 40 प्रतिशत सब्सिडी देने की भी घोषणा की है। इन परियोजनाओं से उत्पन्न बिजली की खरीद राज्य विद्युत बोर्ड करेगा। सरकार सार्वजनिक परिवहन को विद्युत परिवहन के रूप में विकसित करने के लिए भी प्रयास कर रही है। इसके लिए इलेक्ट्रिक वाहनों को सरकारी महकमों में भी इस्तेमाल किया जा रहा है और इलेक्ट्रिक टैक्सी की खरीद पर सरकार सब्सिडी भी दे रही है। हिमाचल को ग्रीन राज्य बनाने में सुक्खू सरकार जुटी है, और ये सरकार की बेहतरीन पहल है। दशकों से लंबित इंतकाल के मामलों का निबटारा इंतकाल और तकसीम के दशकों पुराने मामलों को लेकर सुक्खू सरकार एक्शन मोड में है। सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू ने अधिकारियों को 24 जनवरी तक इंतकाल और तकसीम के मामलों को सुलझाने के निर्देश दिए हैं। इससे सालों से लंबित मामलों का निपटारा हो सकेगा। राजस्व लोक अदालतों का आयोजन कर सरकार हाज़ों मामले निबटा चुकी है। अब तक इंतकाल के लम्बित कुल 45 हजार 055 मामलों का निपटारा किया जा चुका है। किलो के हिसाब से सेब, अगले सीजन से यूनिवर्सल कार्टन किलो के हिसाब से सेब बेचने का फैसला हो या अगले सीजन से यूनिवर्सल कार्टन लागू करने का निर्णय, सुक्खू सरकार ने सेब बागवानों के हितों को महफूस रखने की दिशा में इच्छाशक्ति भी दिखाई है और फैसले भी लिए है। बागवानी मंत्री जगत सिंह नेगी हर मसले पर एक्टिव दिखे है और उनकी कार्यशैली की असर साफ दिख रहा है। एचपीएमसी को लेकर भी सरकार ने बड़े बदलाव लाने की दिशा में काम शुरू किया है और उम्मीद है इसके अच्छे नतीजे सामने आएंगे। अब 40 साल तक ही लीज पर जमीन सुक्खू सरकार ने लीज पर जमीन लेने की अवधि को 99 वर्ष से घटाकर अब अधिकतम 40 साल कर दिया है। हालांकि पुरानी लीज की अवधि नहीं बदलेगी। उद्योग लगाने और अन्य विकास परियोजनाओं को स्थापित करने के लिए अब 40 साल के लिए ही लीज पर जमीन का प्रावधान है। सरकार का कहना है कि अब धौलासिद्ध, लुहरी फेज-1 तथा सुन्नी जल विद्युत परियोजनाओं को 40 वर्ष के बाद हिमाचल प्रदेश को वापिस सौंपना होगा। वाईल्ड फ्लावर हॉल होटल को वापिस पाने के लिए राज्य सरकार कानूनी लड़ाई लड़ रही है। शानन प्रोजेक्ट को वापस लेने के लिए भी हिमाचल सरकार एक्शन मोड में दिखी है। आपदा प्रबंधन पर सुक्खू सरकार हिट... एक साल के कार्यकाल में सुक्खू सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी आपदा। आपदा में खुद सीएम सुक्खू दिन रात मैदान में डेट दिखे और हिमाचल सरकार ने बेहतरीन काम किया। वर्ल्ड बैंक और नीति आयोग ने भी सरकार के काम की तरफ की। सुक्खू सरकार 4500 करोड़ का बड़ा आपदा राहत पैकेज लेकर आई और मुआवजे की राशि में भारी वृद्धि कर पीड़ितों को राहत पहुँचाने का काम किया। राजनीति से इतर कई दूसरी विचारधारा के लोगों ने भी सरकार के कामकाज को सराहा। वहीँ केंद्र से मिलने वाली मदद को लेकर भी खूब सियासत हुई। भाजपा कहती है कि केंद्र से भरपूर मदद मिली और सीएम सुक्खू खुलकर कहते है कि अगर मदद मिली है तो भाजपा बताएं। इसमें कोई संशय नहीं है कि केंद्र ने हिमाचल को कोई विशेष आपदा राहत पैकेज नहीं दिया है। वहीँ प्रदेश की आर्थिक स्थीति भी खराब है। बावजूद इसके सुक्खू सरकार ने साहस भी दिखाया और बड़ा दिल भी। बहरहाल, सीमित संसाधनों के बीच सरकार के सामने अब चुनौती बड़ी है और सुक्खू सरकार का असल इम्तिहान अभी बाकी है। बढ़ता कर्ज सबसे बड़ी चुनौती .... हिमाचल प्रदेश पर 78,430 करोड़ रुपए कर्ज है। राज्य सरकार पर डीए और एरियर के रूप में करीब 12 हजार करोड़ रुपए के करीब देनदारियां हैं। यदि इसी रफ्तार से कर्ज लिया जाता रहा तो अगले साल हिमाचल पर कर्ज का बोझ एक लाख करोड़ रुपए को पार कर जाएगा। कर्ज को लेकर सियासत भी खूब हुई है। सुक्खू सरकार विधानसभा में श्वेत पत्र लेकर इसका ठीकरा पूर्व की जयराम सरकार पर फोड़ चुकी है तो भाजपा का कहना है कि सुक्खू सरकार प्रतिमाह एक हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज ले रही है। बहरहाल, प्रदेश की आर्थिक हालत पतली है, केंद्र ऋण लेने की सीमा कम कर चुका है, ओपीएस का बोझ भी सरकार पर अभी पड़ना है और आपदा ने भी कमर तोड़ दी है। ऐसे में सुक्खू सरकार के लिए आने वाला समय बेहद कठिन होने वाला है। राजस्व बढ़ाने के हुए प्रयास, पर इतना काफी नहीं .... इस वर्ष हिमाचल प्रदेश सरकार के राजस्व में 1100 करोड़ रुपये की वृद्धि का अनुमान है। वर्तमान राज्य सरकार ने राजस्व बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए हैं, जिनके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। शराब के ठेकों की नीलामी से राज्य सरकार को 500 करोड़ रुपये का अतिरिक्त राजस्व मिलेगा। इसके अलावा कई छोटे छोटे फैसलों से सरकार को राजस्व बढ़ोतरी हो रही है, हालंकि ये नाकाफी है। फिर भी सरकार के प्रयास जरूर दिखे है। हिमाचल सरकार ने प्रदेश की आर्थिकी को पटरी पर लाने के लिए ऊर्जा उत्पादकों पर वॉटर सेस लगाने का निर्णय लिया था। वॉटर सेस की दर 0.06 से लेकर 0.30 रुपये प्रति घन मीटर तय की गई थी। राज्य जल उपकर आयोग ने सितंबर में कई ऊर्जा उत्पादकों को वाटर सेस के बिल जारी कर दिए थे। बीबीएमबी,एनटीपीसी,एनएचपीसी समेत कई अन्य ऊर्जा उत्पादकों ने प्रदेश सरकार के इस निर्णय को हाई कोर्ट में चुनौती दे रखी है। वहीँ केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय ने 25 अक्टूबर को सभी राज्यों को एक पत्र लिख वॉटर सेस को अवैध व असंवैधानिक बताते हुए इसे शीघ्र बंद करने के निर्देश दिए हैं। सुक्खू सरकार की तरफ से पर्यटन को बढ़ावा देने के कुछ प्रयास भी दिखते है और इच्छाशक्ति भी। हालांकि आपदा ने सरकार को बड़ा झटका जरूर दिया है। अलबत्ता पर्यटन आधारभूत या पॉलिसी सुधार की दिशा में अब तक कोई बड़ी कामयाबी सरकार को नहीं मिली है, लेकिन उम्मीद जरूर जगी है कि जल्द सरकार एक्शन मोड में दिखेगी। एडवेंचर टूरिज्म, धार्मिक पर्यटन की दिशा में सरकार के थोड़े प्रयास दिखे है, लेकिन सरकार से अपेक्षा किसी बड़ी योजना है। माहिर भी मानते है कि पर्यटन की दिशा में कोई बड़ा कदम उठाकर ही सरकार आत्मनिर्भर हिमाचल के लक्ष्य की तरफ बढ़ सकती है। धर्म संकट...खाली खजाना और 1500 देने का अधूरा वादा हिमाचल में कांग्रेस पर गारंटियां पूरी करने का दबाव है। जिन दस गारंटियों के बुते कांग्रेस सत्ता में आई उनमे से एक मुख्य गारंटी थी महिलाओं को हर माह पंद्रह सौ रुपये देना। बढ़ते कर्ज के बीच सुक्खू सरकार कैसे इसे पूरा करती है , इस पर निगाह टिकी है। जाहिर है हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद हिमाचल सरकार पर आधी आबादी से किया गया वादा पूरा करने का दबाव है, लेकिन खराब आर्थिक स्थीति इसमें रोड़ा है। भाजपा इसे जमकर भुना रही है और अब ये 1500 रुपये का वादा बड़ा मुद्दा बन चूका है। लोकसभा चुनाव दस्तक दे रहे है और ये गारंटी कांग्रेस के गले की फांस बन चुकी है। खाली खजाने के बीच सरकार धर्म संकट में है। कई अन्य गारंटियां भी अभी अधूरी है जिनमें 300 यूनिट मुफ्त बिजली और पांच लाख रोजगार प्रमुख है। कैबिनेट में असंतुलन..10 विधायक देने वाले कांगड़ा को एक मंत्री पद ! एक साल में विपक्ष द्वारा सुक्खू सरकार को घेरना इतना चर्चा में नहीं रहा जितनी चर्चा अपनों की नाराजगी की हुई। किसी ने नाराजगी खुलकर जाहिर की तो किसी ने सोशल मीडिया पर चेतावनी दी। बात पार्टी के भीतरी संतुलन की ही नहीं, बात कैबिनेट असन्तुलन की भी हुई। सीएम सहित 9 लोगों की कैबिनेट कई पैमानों पर असंतुलित है। कांगड़ा और मंडी संसदीय क्षेत्र से सिर्फ एक-एक मंत्री है। ज़िलों के हिसाब से बात करें तो सबसे बड़े जिला कांगड़ा से कांग्रेस के दस विधायक है, पर मंत्री सिर्फ एक। जबकि सात विधायक वाले शिमला से तीन मंत्री है। ये असंतुलन सिर्फ सियासी मसला नहीं है, जिस जनता ने कांग्रेस को वोट दिया वो भी अपेक्षा रखती है कि क्षेत्र में कोई मंत्री होगा तो विकास को रफ़्तार मिलेगी। इसी तरह हिमाचल कैबिनेट में अभी 9 में से 6 क्षत्रिय है, जबकि ब्राह्मण, एससी और ओबीसी सिर्फ एक-एक है। पांच साल के लिए सरकार चुनी गई है और एक साल बीत चुका है लेकिन अब तक कैबिनेट पूरी नहीं हुई है। ये ही हाल बोर्ड निगमों का है। अब सरकार का रुख जल्द विस्तार का दिख जरूर रहा है लेकिन इच्छा से ज्यादा शायद मजबूरी है। तीन राज्यों की हार ने कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है और संभवतः अब आलाकमान भी पार्टी के भीतरी संतुलन को सुनिश्चित करे। बहरहाल मुख्यमंत्री का ताजा बयान ये है कि नए मंत्री इसी साल में मिलेंगे। कोर्ट में गया सीपीएस नियुक्ति का मामला सुक्खू सरकार ने ने छह सीपीएस नियुक्त किए थे – अर्की विधानसभा क्षेत्र से संजय अवस्थी, कुल्लू से सुंदर सिंह, दून से राम कुमार, रोहड़ू से मोहन लाल बराकटा, पालमपुर से आशीष बुटेल और बैजनाथ से किशोरी लाल। इनके अलावा मुकेश अग्निहोत्री को उप मुख्यमंत्री बनाया गया है। भाजपा नेताओं ने इनकी नियुक्ति को कोर्ट में चुनौती दे दी है।मामले की सुनवाई जारी है और कोर्ट के फैसले का इंतजार है। इस मामले में अब 20 दिसंबर को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में अगली सुनवाई है। बीजेपी नेता सतपाल सिंह सत्ती और 11 अन्य बीजेपी विधायकों ने अदालत में याचिका दायर कर आरोप लगाया था कि सीपीएस और डिप्टी सीएम का ऐसा कोई पद संविधान के तहत या संसद द्वारा पारित किसी कानून या अधिनियम के तहत मौजूद नहीं है। उन्होंने याचिका में दलील दी कि सीपीएस के पदों पर नियुक्ति राज्य के खजाने पर बोझ है। याचिका के अनुसार, 91वें संशोधन में मंत्री पदों की संख्या सदन की कुल संख्या का 15 प्रतिशत कर दी गई और इस मानदंड के अनुसार राज्य में 12 मंत्री हो सकते हैं क्योंकि विधानसभा की सदस्य संख्या 68 है।आगे आरोप लगाया गया कि 6 सीपीएस की नियुक्तियां संविधान के विपरीत हैं। उन्हें सीपीएस के रूप में नियुक्त किया गया है, जो बिना बुलाए ही वास्तविक मंत्री हैं और मंत्रियों की सभी शक्तियों और सुविधाओं का आनंद लेते हैं। बहरहाल इस मामले में, विशेषकर सीपीएस की नियुक्ति को लेकर कोर्ट का क्या फैसला आता है, इस पर सबकी निगाह टिकी है। शिमला नगर निगम चुनाव जीते ...अब सोलन ने दिया झटका सुक्खू सरकार के एक साल के कार्यकाल में शिमला नगर निगम का चुनाव हुआ जहाँ कांग्रेस को शानदार जीत मिली। इसके बाद हालहीं में चार नगर निगमों में नए मेयर और डिप्टी मेयर चुनने की बारी थी। किस्मत की बदौलत कांग्रेस धर्मशाला नगर निगम में कब्ज़ा करने में कामयाब रही लेकिन सोलन में बहुमत होते हुए भी पार्टी की फजीहत हुई। कांग्रेस के दोनों अधिकृत उम्मीदवार हार गए। यहाँ मेयर पद कांग्रेस की बागी ने कब्जाया तो भाजपा को डिप्टी मेयर का पद मिल गया। वो फैसला जिसपर हुई विपक्ष ने जमकर घेरा सुक्खू सरकार ने आते ही सैकड़ों संस्थानों को डी नोटिफाई कर दिया। संस्थानों की डेनोटिफिकेशन पर भाजपा सरकार को जमकर घेरती रही है। भाजपा का आरोप है कि इस सरकार ने 10 महीने के कार्यकाल में ही हिमाचल के 1000 से अधिक चले हुए संस्थान बंद किए बंद कर दिए थे। कई शिक्षण स्थान भी बंद हुए और निसंदेह इससे कई छात्रों को कई दिक्क्तों कि खबरें भी सामने आई।
**कांग्रेस ने 1500 का वादा किया, शिवराज ने 1250 प्रतिमाह दिया **हिमाचल के अधूरे वादे को भाजपा ने जमकर भुनाया लाडली बहना योजना ...ये शिवराज सिंह चौहान की वो योजना है जो मध्य प्रदेश चुनाव में गेम चैंजेर सिद्ध हुई। इस योजना के तहत सरकार प्रदेश में हर महिला के खाते में 1,250 रुपए हर महीने ट्रांसफर करती है, यानी सालाना महिलाओं को 15,000 रुपये की आर्थिक सहायता दी जाती है। इसके जवाब में मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने नारी सम्मान योजना के तहत महिलाओं को 1500 रुपये महीना देने की गारण्टी दी थी, यानी ढाई सौ रुपये ज्यादा। ये कांग्रेस की 11 गारंटियों में से एक थी। पर मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की लाड़ली बहना योजना कांग्रेस की हर गारंटी पर भारी पड़ी। दरअसल कांग्रेस तो सिर्फ वादा कर रही थी और भाजपा इस योजना का लाभ दे रही थी। ऐसे में महिलाओं ने वादे पर ऐतिबार नहीं किया बल्कि लाडली बहन योजना को जहन में रखा। ठीक ऐसी ही योजना का वादा कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में किया था जहाँ महिलाओं को 1500 रुपये प्रतिमाह देने की गारंटी दी थी। पर अब तक महिलाओं को इसका इंतजार है। भाजपा ने इसे मध्य प्रदेश में जमकर भुनाया। हिमाचल प्रदेश के भी सैकड़ों भाजपा नेता-कार्यकर्ता मध्य प्रदेश में प्रचार के लिए पहुंचे और सभी ने खुले मंचों से कहा की हिमाचल में कांग्रेस ने अब तक महिलाओं को दी गारंटी पूरी नहीं की है। अब तक महिलाएं इन्तजार में है। ये सच भी है। ऐसे में जाहिर है मध्य प्रदेश में महिलाओं ने कांग्रेस के वादे पर नहीं शिवराज सरकार के काम पर भरोसा जताया। बहरहाल मध्य प्रदेश में भाजपा की जीत हिमाचल की कांग्रेस सरकार के लिए भी एक सीख जरूर हैं। आधी आबादी को साधकर सत्ता की राह आसानी से प्रशस्त की जा सकती हैं, यदि वादे पुरे किये हो। निसंदेह प्रदेश की ख़राब आर्थिक स्थिति कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी बाधा हैं, लेकिन जब कर्मचारियों को ओपीएस मिल सकती हैं तो आधी आबादी 1500 रुपये प्रतिमाह क्यों नहीं ? बहरहाल ये कांग्रेस को तय करना हैं कि किस तरह वो गारंटियों को पूरा करती हैं, यदि पार्टी खानापूर्ति करती हैं तो वोटर भी खानापूर्ति ही करेगा
The BJP secured victories in Madhya Pradesh, Rajasthan, and Chhattisgarh without projecting a chief ministerial face, relying primarily on the appeal of Prime Minister Narendra Modi. Despite the absence of local leaders, the party emerged triumphant, reclaiming control after setbacks in Karnataka. The central leadership now has the flexibility to choose new chief ministers and foster regional leadership. While potential leaders like Shivraj Singh Chouhan and Vasundhara Raje remain popular in their states, their distance from the central leadership poses a challenge. Party insiders acknowledge their influence but stress the need for stability in the long term. Lessons from Karnataka and other states highlight the importance of aligning leadership choices with sustained electoral success. In the aftermath of the victories, BJP leaders credited Prime Minister Modi for the triumph. The party's shift towards central leadership echoes a similar trend a decade ago when Modi emerged as the prime leader, sidelining other prominent figures. The fate of several familiar BJP faces in Madhya Pradesh, Chhattisgarh, and Rajasthan now hangs in uncertainty amid this evolving political landscape.
** आखिर किसके सर सजेगा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री का ताज मध्यप्रदेश में लाडली लहर ऐसी चली की भाजपा ने प्रचंड बहुमत के साथ जोरदार जीत हासिल की। भाजपा को भारी बहुमत मिलने के बाद अब सबकी निगाहें मुख्यमंत्री कि कुर्सी पर टिकी हुई है। मध्यप्रदेश में इस वक़्त सबसे अहम् सवाल ये बना हुआ है कि इस बार मुख्यमंत्री कौन बनेगा ? क्या शिवराज सिंह चौहान को फिर मौका मिलेगा या कोई अन्य चेहरा सीएम की कुर्सी पर विराजमान होगा। सीएम पद के दावेदार अनेक है, लेकिन शिवराज के सामने कोई टिक पाएगा ऐसा मुश्किल लगता है। ये सच है कि इस बार चुनाव में शिवराज की योजनाओं ने मध्यप्रदेश के मतदाताओं पर खूब असर डाला, 'लाड़ली लहर' भी चली शिवराज को जनता का प्यार भी मिला, लेकिन एक सच ये भी है कि पार्टी ने इस बार शिवराज को सीएम प्रोजेक्ट नहीं किया। इस दफा पूरा चुनाव पीएम मोदी के फेस पर ही लड़ा गया है। 'मोदी के मन में एमपी, एमपी के मन में मोदी' ये नारा देकर ही भाजपा ने इस बार चुनाव लड़ा है। इससे ये जाहिर होता है कि अब सीएम फेस के लिए किसके नाम पर मोहर लगेगी ये भी मोदी ही तय करंगे, लेकिन इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि शिवराज सिंह के चुनाव प्रचार और उन्हीं की लाड़ली बहना योजना के कारण आज मध्यप्रदेश में भाजपा को जीत मिली है। लाडली बहाना योजना भाजपा के लिए गेमचेंजर साबित हुई है और इसका पूरा क्रेडिट शिव राज सिंह को जाता है। इस जीत से यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि मध्य प्रदेश में अभी भी सबसे लोकप्रिय नेताओं में शिवराज सिंह ही शामिल है। शिवराज के अलावा सीएम पद के दावेदारों में कई नाम चर्चा में बने हुए है इनमे ज्योतिरादित्य सिंधिया, कैलाश विजयवर्गीय,नरेंद्र सिंह तोमर और प्रह्लाद पटेल का नाम शामिल माना जा रहा है, लेकिन चुनाव के नतीजे देखने के बाद शिवराज कि लोकप्रियता को देखते हुए ऐसा लगता नहीं है कि पार्टी उन्हें सीएम पद से महरूम रखेगी। 15 सालों से प्रदेश में सत्ता पर काबिज शिवराज को एक बार फिर सीएम बनाया जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
न किसी को उम्मीद थी न अंदेशा, और छत्तीसगढ़ में खेला हो गया। नतीजों के लिए गिनती जारी थी, रुझान आने शुरू हुए तो लगा कि इस बार भी कांग्रेस कि सरकार बनेगी और चर्चाएं होने लगी कि क्या सीएम भूपेश बघेल ही रहेंगे ? इस बार मंत्रिमंडल में किन किन नेताओं को जगह मिलेगी ऐसे तमाम सवाल थे जो राजनीतिक गलियारों में घूम रहे थे, लेकिन देखते ही देखते कब वक़्त बदल गया, कब जज्बात बदल गए पता ही नहीं चला। स्कोरबोर्ड पर भाजपा को लीड मिलती देख हर कोई दंग रह गया। 90 सीटों वाले छत्तीसगढ़ में भाजपा का अर्धशतक देख सभी सर्वे फेल हो गए और सभी एग्जिट पोल कि पोल खुल गयी और भाजपा ने छत्तीसगढ़ में खेला कर दिया। चुनाव से पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की लहर थी। तमाम राजनीतिक विश्लेषक सियासी गुणा भाग कर ये आकलन कर बैठे थे कि इस बार छत्तीसगढ़ में बघेल सरकार रिपीट कर रही है। उधर बघेल सरकार भी ओवर कॉंफिडेंट थी। चुनाव बेहद नजदीक आ चुका था कि उसी समय छत्तीसगढ़ की राजनीति में एक धमाका हुआ। नवंबर में ED ने सनसनीखेज आरोप लगाते हुए कहा कि महादेव बेटिंग एप में एक ई-मेल से खुलासा हुआ है कि महादेव एप के प्रमोटर्स ने छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल को 508 करोड़ रुपये की रिश्वत दी है। ये पैसे कांग्रेस पार्टी को चुनावी खर्चे के लिए दिए जा रहे हैं। हालांकि भूपेश बघेल ने इन सभी आरोपों से इनकार किया और इन्हें राजनीति से प्रेरित बताया, भाजपा ने भी मौके का फायदा उठाया और इस मुद्दे को ऐसा भुनाया कि बघेल सरकार के लिए महादेव एप घोटाला गले कि फांस बन गया। हर रैली हर जनसभा में मोदी ने महादेव का नाम जपा। नतीज़न 3 दिसम्बर को छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के होश उड़ गए। बघेल पाटन को पाटने में तो कामयाब रहे पर अपनी सरकार नहीं बचा पाए। छत्तीसगढ़ में डिप्टी सीएम समेत 9 मंत्रियों को करारी शिस्कत्त मिली। माहिर मान रहे है कि मोदी के नाम पर छत्तीसगढ़ में भाजपा को फायदा मिला है और ओवरकॉन्फिडेन्स ने कांग्रेस का खेल बिगाड़ा है। दूसरा महादेव कि कृपा भी बघेल सरकार पर नहीं बरसी और भाजपा ने बघेल सरकार का काम तमाम कर दिया।
** वसुंधरा ने शुभ मुहूर्त पर ही ली थी मुख्यमंत्री की शपथ राजपूतों की बेटी, जाटों की बहू और गुज्जरों की समधन, हम बात कर रहे है राजस्थान की महारानी वसुंधरा राजे की। वो महारानी जिसने राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री बन कर इतिहास रचा। वसुंधरा दो बार राजस्थान की सीएम बनीं, चार बार विधायक और पांच बार सांसद। राजनीति में मिली हर सफलता पर वसुंधरा पूजा-पाठ ज़रूर करती है और उनके पूजा-पाठ और शुभ मुहूर्त पर काम करने के कई किस्से भी काफी चर्चित हैं। कहा जाता है कि वसुंधरा राजे किसी भी काम से पहले विधिवत पूजा करती हैं और शुभ मुहूर्त पर ही अहम फैसले लेती हैं। पहली बार सीएम बनने के दौरान का एक ऐसा ही किस्सा बेहद चर्चित है। वो किस्सा है वसुंधरा राजे का शपथ समारोह। पहली बार राजभवन के बाहर नवनिर्मित विधानसभा भवन के सामने जनपथ पर राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री को शपथ दिलाई जा रही थी। शपथ दिलाने के लिए पहुंचे राज्यपाल और सीएम के साथ शपथ लेने वाले मनोनीत मंत्री मंच पर खड़े वसुंधरा राजे का इंतजार कर रहे थे, लेकिन वसुंधरा राजे को शपथ ग्रहण से पहले पंडित ने शुभ मुहूर्त दिन में 12:15 का बताया था। राज्यपाल शपथ दिलाने के लिए वसुंधरा की राह देख रहे थे। ठीक 12:15 बजे गले में केसरिया पटका पहने वसुंधरा राजे मंच पर पहुंचीं। ''मैं वसुंधरा राजे ईश्वर की शपथ लेती हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगी...'' वैदिक मंत्रोच्चार, पूजा-अर्चना के साथ शुभ मुहूर्त में मुख्यमंत्री का शपथ समारोह संपन्न हुआ और 8 दिसंबर, 2003 को राजस्थान को पहली महिला मुख्यमंत्री मिली। शपथ ग्रहण के तुरंत बाद सचिवालय में मंत्रिमंडल की बैठक होनी तय मानी जा रही थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्योंकि शुभ मुहूर्त के अनुसार मंत्रिमंडल की बैठक तीसरे पहर में की जानी थी। ऐसा पहली दफा ही हुआ होगा कि शपथ ग्रहण के तुरंत बाद सचिवालय में मंत्रिमंडल की बैठक नहीं हुई थी। आमतौर पर शपथ ग्रहण के बाद मंत्रिमंडल की बैठक होती है, लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ था। दूसरा बैठक से पहले सीएम की कुर्सी की पूजा की गई और फिर उस पर मुहूर्त के अनुसार वसुंधरा राजे बैठीं। कहते हैं कि वसुंधरा राजे जब भी झालावाड़ आती है तो यहाँ के प्रसिद्ध मंदिर परिसर में पहुंचकर बालाजी के दर्शन व् पूजा अर्चना करती है। यहां तक कि वसुंधरा राजे अपने चुनावी अभियान की शुरुआत भी मंदिर के पूजा अर्चना के बाद ही करती है। नामांकन भरने से पहले बालाजी के मंदिर पर पूजा अर्चना कर आशीर्वाद लेती है और यहां पर अखंड ज्योत जलती है जो अनवरत जलती रहती है।
बात 1985 की है, मध्यप्रदेश में चुनाव चल रहे थे। उस समय भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर के कारण मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता वापसी की। 320 विधानसभा सीटों में से 250 सीटों पर कांग्रेस विजयी रही। 1980 से 1985 अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे और ये चुनाव भी उन्ही के नेतृत्व में लड़ा गया था। अब सत्ता बरकरार रखने के बाद लाज़मी था कि अर्जुन सिंह फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठेंगे। औपचारिकता पूरी करने के लिए कांग्रेस विधानमंडल दल की बैठक अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री चुनने के लिए बुलाई गई। 11 मार्च 1985 को अर्जुन सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन अगले दिन ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। दरअसल, मुख्यमंत्री बनने के अगले दिन ही अर्जुन सिंह को पंजाब का राजयपाल नियुक्त कर दिया गया था। सवाल उठने लगे कि अगर राज्यपाल ही बनाना था तो अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री चुना ही क्यों गया? खुद अर्जुन सिंह भी इस फैसले से दंग थे और नाखुश भी और हो भी क्यों न, एक दिन के लिए मुख्यमंत्री पद मिलना और अगले दिन ही छीन जाना। ये अपने आप में आश्चर्यचकित कर देने वाली बात थी।सियासी गलियारों में चर्चाएं होने लगी कि आखिर इस घटनाक्रम की क्या वजह रही होगी। माहिरों का मानना था कि अर्जुन सिंह कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति का शिकार हो गए। लगातार दूसरी बार सीएम बनने से उनका बढ़ा राजनीतिक कद कांग्रेस के इनर सर्किल में पसंद नहीं था। उधर अर्जुन सिंह के पंजाब जाने के बाद मध्यप्रदेश कि सत्ता के सरदार बने मोतीलाल वोरा। अर्जुन सिंह के बाद मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। मोतीलाल सरकार के तीन साल का समय पूरा होने चला था, उधर अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश में वापसी को बेताब थे। अर्जुन सिंह का इंतज़ार खत्म हुआ और वे मध्यप्रदेश लौटने में कामयाब रहे। तब कांग्रेस लीडरशिप ने मोतीलाल वोरा को केंद्र बुला लिया और 14 फरवरी 1988 को अर्जुन सिंह एक बार फिर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। अर्जुन सिंह और मुख्यमंत्री की कुर्सी का नाता ज़्यादा समय नहीं टिक पाया और ये कार्यकाल एक साल भी नहीं चला। एक चर्चित घोटाले में नाम आने के बाद अर्जुन सिंह को फिर इस्तीफा देना पड़ गया। मुख्यमंत्री की कुर्सी फिर खाली हो गई और मोतीलाल वोरा को एक बार फिर सीएम बनाया गया। कांग्रेस की उठापटक इस हद तक बढ़ी कि अगले चुनाव से पहले मोतीलाल वोरा को फिर हटाना पड़ा और उनकी जगह श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने। इस तरह मध्य प्रदेश की आठवीं विधानसभा में पांच साल में पांच मुख्यमंत्री बने थे।
वीरेंद्र भट्ट मेयर और माधुरी कपूर बनी डिप्टी मेयर हिमाचल प्रदेश के मंडी नगर निगम पर फिर से भाजपा ने कब्जा कर लिया है। भारतीय जनता पार्टी के पार्षदों ने शनिवार को सर्वसम्मति से नया मेयर व डिप्टी मेयर चुन लिया है। पूर्व डिप्टी मेयर वीरेंद्र भट्ट को नया महापौर और माधुरी कपूर को उप महापौर बनाया गया है। मंडी में मेयर और डिप्टी मेयर के लिए वोटिंग की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि 15 में से 11 पार्षद भाजपा के पास पहले से थे। वहीँ तीन दिन पहले ही राज्य सरकार ने विधायकों को भी मेयर व डिप्टी मेयर के चुनाव में वोटिंग राइट दिया है। मंडी नगर निगम की परिधि में तीन विधानसभा क्षेत्र पड़ते है। तीनों विधानसभा पर भाजपा का कब्जा है। ऐसे में तीन भाजपा विधायकों के वोट को मिलाकर भाजपा के पास 14 का बहुमत था। वहीँ कांग्रेस ने मंडी में मेयर व डिप्टी बनाने की कोशिश भी नहीं की। वहीँ पालमपुर नगर निगम में एक बार फिर कांग्रेस के मेयर व डिप्टी मेयर बने है। गोपाल सूद महापौर, जबकि उप महापौर के तौर पर राजकुमार की ताजपोशी हुई है। नगर निगम पालमपुर में 15 वार्ड हैं और इन 15 वार्डों में कांग्रेस के पास 11, दो भाजपा व दो निर्दलीय पार्षद हैं। दो निर्दलीय पार्षदों ने भी कांग्रेस का दामन थाम लिया है। ऐसे में ढाई साल के बाद हुए महापौर उप महापौर के चुनाव में भाजपा के पास कोई मौका हीनहीं था। यह पहले से ही तय था कि महापौर व उप महापौर कांग्रेस का ही बनेगा। दो नगर निगमों के बाद अब सोलन और धर्मशाला नगर निगम में मेयर व डिप्टी मेयर का चयन होना है। सोलन नगर निगम पर अभी कांग्रेस का कब्जा है। यहां कांग्रेस पहले ही पूर्ण बहुमत की स्थिति में है। विधायक के वोटिंग राइट से एक ओर वोट बढ़ा है। मगर, धर्मशाला में विधायक को वोटिंग राइट मिलने से मुकाबला रोचक हो गया है। धर्मशाला नगर निगम में उलटफेर की सम्भावना बन सकती है। 17 में से कांग्रेस के पास 5 पार्षद और भाजपा के पास 8 पार्षद है। यहां दो निर्दलीय पार्षद भाजपा समर्थित और दो कांग्रेस समर्थित जीते हुए हैं। यानी चार निर्दलीय है। यहां विधायक कांग्रेस का है। ऐसे में कांग्रेस विधायक और चार निर्दलीय का मेयर-डिप्टी मेयर चुनने में निर्णायक भूमिका रहने वाली है। उधर सोलन में कांग्रेस की कलह में उम्मीद देख रही भाजपा की आस पूरी होती है या नहीं, ये देखना रोचक होगा। माना जा रहा है कि कांग्रेस यहाँ दोनों गुटों के बीच सहमति बननाने के प्रयास में है और मुमकिन है पार्टी को इसमें कामयाबी भी मिल जाएँ।
क्या कभी वापस मजबूत हो पाएंगे उद्धव ठाकरे ? 60 के दशक में मुंबई में बड़े कारोबार पर गुजरातियों का कब्जा था, जबकि छोटे कारोबार में दक्षिण भारतीयों और मुस्लिमों की धाक थी। मुंबई में ज्यादातर मराठी, गुजराती और दक्षिण भारतियों के यहाँ काम करते थे। उसी दौर में मुंबई की सियासत में एंट्री हुई एक कार्टूनिस्ट की। 'मराठी मानुस' का नारा बुलंद हुआ और देखते ही देखते 1966 में शिवसेना का गठन हो गया। मुंबई में मराठी बोलने वाले स्थानीय लोगों को नौकरियों में तरजीह दिए जाने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हो गया। दक्षिण भारतीयों के खिलाफ बाकायदा ‘पुंगी बजाओ और लुंगी हटाओ' अभियान चलाया गया। धीरे-धीरे मुंबई के हर इलाके में स्थानीय दबंग युवा शिवसेना में शामिल होने लगे। मुंबई को एक गॉडफादर मिल चुका था। ये किसी फिल्म की पटकथा नहीं है, ये कहानी है बालसाहेब ठाकरे की। मुंबई में दंगों के बाद बाला साहेब ठाकरे का जिक्र हर तरफ था। 1995 में इसी पर मशहूर फिल्मकार मणिरत्नम ने ‘बॉम्बे’ नाम की फिल्म बनाई। फिल्म में शिव सैनिकों को मुसलमानों को मारते और लूटते हुए दिखाया था। फिल्म के अंत में बाल ठाकरे से मिलता एक कैरेक्टर इस हिंसा पर दुख प्रकट करते हुए दिखाई देता है। बाल ठाकरे ने इस फिल्म का विरोध किया और मुंबई में इसे रिलीज नहीं होने देने का एलान कर दिया। फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर अमिताभ बच्चन थे जो बालासाहेब ठाकरे के दोस्त थे। कहते है इस विषय पर ठाकरे को मनाने के लिए अमिताभ उनके पास गए। अमिताभ ने उनसे पूछा कि क्या शिव सैनिकों को दंगाइयों के रूप में दिखाना उन्हें बुरा लगा। ठाकरे का जवाब था, " बिल्कुल भी नहीं। मुझे जो बात बुरी लगी वो था दंगों पर ठाकरे के कैरेक्टर का दुख प्रकट करना। मैं कभी किसी चीज पर दुख नहीं प्रकट करता।" ये ही बालासाहेब का तरीका था और ऐसा ये ही उनका मिजाज। एक दौर में बालासाहेब का हर शब्द शिवसैनिकों के लिए ईश्वर के आदेश से कम नहीं होता था। कभी महाराष्ट्र की राजनीति में वही होता था जो ठाकरे कहते थे। 9 भाई-बहनों में सबसे बड़े बाला साहेब ठाकरे के पिता केशव सीताराम ठाकरे मुंबई को भारत की राजधानी बनवाना चाहते थे। बालासाहेब पैदा तो पुणे में हुए थे लेकिन उन्हें भी मुंबई से बेहद प्यार था। बालासाहेब ने अपने करियर की शुरुआत एक कार्टूनिस्ट के तौर पर की थी। फिर 1960 के दशक में बालासाहेब पूरी तरह से राजनीति में एक्टिव हो गए। इसी समय उन्होंने मार्मिक नाम से साप्ताहिक अखबार भी निकाला। फिर मराठी मानुस का नारा बुलंद कर मुंबई की सियासत में छा गए। मुंबई म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनाव में शिवसेना लगातार छाप छोड़ती रही। 1980 आते आते मुंबई में शिवसेना की धाक थी और महाराष्ट्र में भी पार्टी को पहचान मिल चुकी थी, हालांकि अब तक पार्टी को कोई बड़ी चुनावी सफलता नहीं मिली थी। इसके बाद ठाकरे ने कट्टर हिंदुत्व की आइडियोलॉजी अपनाई और शिवसेना को खूब समर्थन मिला। मुंबई के विलेपार्ले विधानसभा सीट के लिए दिसंबर 1987 में हुए उप-चुनाव में पहली बार शिवसेना ने हिंदुत्व का आक्रामक प्रचार किया था। इस चुनाव में एक्टर मिथुन चक्रवर्ती और नाना पाटेकर ने शिवसेना के उम्मीदवार का प्रचार किया था। बालासाहेब ठाकरे ने हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगे और नतीजन चुनाव आयोग ने ठाकरे से 6 साल के लिए मतदान का अधिकार छीन लिया था। पर इसके बाद ठाकरे ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पार्टी राम जन्मभूमि आंदोलन में भी कूद गई और पुरे देश में शिवसेना का ग्राफ बढ़ा। इसी दौर में भाजपा भी मजबूत हो रही थी और शिवसेना और भाजपा साथ आ गए। 1990 के दशक में महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार बनी। बालासाहेब ठाकरे अपने विवादित बयानों के लिए हमेशा चर्चा में रहे। कभी डेमोक्रेसी के खिलाफ बोले तो 2006 में शिवसेना के 40वें स्थापना दिवस पर बाल ठाकरे ने मुसलमानों को एंटी नेशनल बता दिया। कभी ठाकरे के इशारे पर कोई फिल्म रिलीज़ नहीं हुई तो कभी पाकिस्तान से मैच के विरोध में पिच खोद दी गई। ठाकरे अपनी शर्तों पर अपनी तरह की राजनीति करते रहे। और पता चल गया रिमोट उनके हाथ में रहेगा ... साल 1995 में महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा गठबंधन की सरकार बनी और मुख्यमंत्री बने मनोहर जोशी। जीत के जश्न में कुछ दिन बाद एक पार्टी हुई जिसमे चंद ही मेहमान बुलाए गए थे। पार्टी बिलकुल शांति से चल रही थी, तभी पार्टी में बाल ठाकरे पहुंचे। ठाकरे ने देखा, खाने का तो अच्छा ख़ासा इंतज़ाम है, लेकिन पीने को कुछ नहीं है और बिफरते हुए कारण पूछा तो पता चला कि सीएम की मौजूदगी में शराब पीना ठीक नहीं। ठाकरे तो ठाकरे थे, उन्होंने तुरंत एक शैम्पेन की बोतल मंगाई और सीएम कैमरामैन की नज़र से बचने के लिए वो एक कोने में जाकर बैठ गए। ये ठाकरे का तरीका था। उसी दिन से सबको पता चल गया, सत्ता पर चाहे कोई बैठे, रिमोट कंट्रोल बाल ठाकरे के हाथ में रहेगा। इंदिरा गांधी थीं पसंदीदा काटूर्न कैरेक्टर बतौर कार्टूनिस्ट बालासाहेब ठाकरे ने देश के कई दिग्गजों पर कार्टून बनाकर कई बड़े मुद्दे उठाए और सवाल भी किए, लेकिन राजनीति जगत में सबसे ज्यादा निशाना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर साधा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कामों पर सवाल उठाने में पीछे वो नहीं रहे। वे कांग्रेस की करनी और कथनी में कितना फर्क समझते थे, इसी बात को लेकर उन्होंने इंदिरा गांधी पर कई कार्टून बनाए। 1971 में कांग्रेस ने गरीबी हटाओ का नारा दिया तो उन्होंने कार्टून बनाया और लिखा इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया है, लेकिन उनका दौरा शाही था। 1975 में जब कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी से कांग्रेस का गठबंधन हुआ था तब बालासाहेब ने कार्टून के जरिए टिप्पणी की थी कि कश्मीरी गुलाब के कांटे लहूलुहान कर रहे है। भतीजे को नहीं बेटे को सौपी विरासत बालासाहेब ठाकरे के तीन बेटे है,बिंदुमाधव ठाकरे, जयदेव ठाकरे और उद्धव ठाकरे। बिंदुमाधव ठाकरे बालासाहेब के सबसे बड़े बेटे थे और उनका 1996 में पत्नी माधवी के साथ एक एक्सीडेंट में निधन हो गया था। वे राजनीति से दूर ही थे। इसी तरह जयदेव ठाकरे भी लाइमलाइट और सियासत दोनों से दूर ही रहे। जबकि सबसे छोटे उद्धव ठाकरे उनके राजनैतिक वारिस है। पर एक दौर में उनका सियासी कामकाज सँभालते थे उनके भतीजे राज ठाकरे। कहते है शिवसेना में बालासाहेब के बाद राज का ही रुतबा था और कार्यकर्त्ता भी उन्ही से जुड़े थे। पर बालसाहेब ने अपना राजनैतिक वारिस चुना उद्धव ठाकरे को और इसे से आहात होकर राज ठाकरे ने अपनी अलग पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली। और कांग्रेस के साथ आ गए उद्धव ठाकरे... 17 नवंबर 2012 को बालासाहेब ठाकरे का निधन हो गया और पार्टी की कमान पूरी तरह उद्धव ठाकरे के हाथ में आ गई। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव और इसी साल के अंत में हुए विधानसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा गठबंधन ने चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। महाराष्ट्र में देवन्द्र फडणवीस सीएम बने और शिवसेना सरकार में शामिल रही। पर 2019 आते आते उद्धव ठाकरे के अरमान पंख फ़ैलाने लगे थे। एक वक्त पर बालासाहेब ठाकरे चाहते तो सीएम बन सकते थे लेकिन उन्होंने कभी ऐसा किया नहीं। 1995 में बाल ठाकरे ने जब बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई तो अपने करीबी नेता मनोहर जोशी को सीएम बनाया। इस दौरान बाल ठाकरे ने कहा था कि इस सरकार का रिमोट कंट्रोल मेरे हाथ में रहेगा। कहा जाता है कि बाला साहेब ठाकरे के समय महाराष्ट्र की राजनीति में वही होता था जो वह कहते थे। यदि सत्ता में बैठा व्यक्ति बाल ठाकरे की बात नहीं भी मानता था तो शिवसैनिक अपने तरीके से मनवा लेते थे, इसलिए वो कभी खुद सत्ता आसन पर नहीं बैठे। पर उद्धव ठाकरे की राय जुदा थी। नतीजन भाजपा से अलगाव के बाद शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बना ली, उसी कांग्रेस के साथ जिसकी बालसाहेब ने ताउम्र आलोचना की। बाला साहेब ठाकरे ने साल 2004 में एक टीवी इंटरव्यू के दौरान कहा था, "मैं शिवसेना को कांग्रेस नहीं बनने दूंगा और अगर मुझे मालूम होगा कि ऐसा हो रहा है तो मैं अपनी दुकान बंद कर दूंगा।" पर उद्धव को कांग्रेस का साथ मंजूर था और आज भी है। कांग्रेस से हाथ मिलकर उद्धव ठाकरे सीएम तो बन गए लेकिन शिवसेना के भीतर भी कुछ नेता इससे खुश नहीं थे। ढाई साल के बाद शिवसेना को इस फैसले का खामियाजा भुगतना पड़ा और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में पार्टी के बड़े गुट ने विद्रोह कर दिया। उद्धव की सरकार गई, साथ ही शिवसेना भी दो फाड़ हो गई। शिंदे भाजपा के सहयोग से सीएम बने और आज बालासाहेब की बनी पार्टी का सिंबल भी उनके पास है। कांग्रेस के साथ जाना उद्धव की क्या सबसे बड़ी भूल थी, इसे लेकर सबके अपने मत हो सकते है लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि बालासाहेब होते तो शायद ऐसा कभी न करते, न करने देते। कौन सी शिवसेना है बालासाहेब की शिवसेना ? अब बालासाहेब की शिवसेना दो हिस्सों में बंटी है, पार्टी का सिंबल शिंदे गुट के पास है और वे ही असली शिवसेना होने का दावा करते है। उद्धव कमजोर दीखते है और उन्हें उम्मीद है की जनता उन्हें अगले चुनाव में फिर ताकत देगी। दिलचस्प बात ये है की जिस एनसीपी का उन्हें सहारा था वो खुद बंट चुकी है। अजित पवार अपने समर्थक विधायकों के साथ शिंदे सरकार में शामिल है और डिप्टी सीएम है। उनके चाचा शरद पवार, उद्धव ठाकरे की तरह ही पार्टी पर अधिकार की लड़ाई लड़ रहे है। अब कौन सी शिवसेना असली है और कौन सी नकली, ये जनता तय करेगी। इस बीच राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के साथ आने के कयास भी लगते रहे है। अब शिवसेना की सियासत क्या मोड़ लेती है ये 2024 के विधानसभा चुनाव के बाद ही सम्भवतः स्पष्ट होगा। उलझे समीकरणों में उद्धव ठाकरे का इम्तिहान ! महाराष्ट्र की मौजूदा राजनैतिक स्थिति बेहद पेचीदा है। शिवसेना और एनसीपी जहाँ दो फाड़ हो चुके है, तो कांग्रेस की भूमिका सहयोगियों को आश्वासन देने से ज्यादा नहीं दिखती। शिवसेना का शिंदे गुट और एनसीपी का अजित पवार गुट भाजपा के साथ आ चुका है और तीनों मिलकर सरकार चला रहे है। शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट कमजोर दिख रहा है, तो शरद पवार के साथ भी अब पहले सी ताकत नहीं दिखती। अजित पवार के साथ कई दिग्गज भी उनका साथ छोड़ चुके है। वहीँ कई माहिर तो अब भी ये मैच फिक्स मानते है। ऐसी स्थिति में भाजपा निसंदेह अकेले दम पर भी सबसे मजबूत है। उधर कांग्रेस अभी भी मानो तमाशा देख रही है। करीब एक साल बाद राज्य में विधानसभा चुनाव होने है और कांग्रेस में चेहरा अशोक चव्हाण होंगे, पृथ्वीराज चव्हाण होंगे या कोई तीसरा, ये तय नहीं है। कांग्रेस, उद्धव ठाकरे और शरद पवार मिलकर चुनाव लड़ते भी है या नहीं, फिलहाल तो ये कहना भी जल्दबाजी है। वहीँ भाजपा के साथ शिवसेना के शिंदे गुट और अजित पवार किस तरह सीटों का समझौता करते है, ये देखना भी दिलचस्प होगा। फिलवक्त भाजपा 'मेजर' होकर भी 'माइनर' भूमिका में है, पर क्या ये बलिदान भाजपा आगे भी देगी ? बहरहाल महाराष्ट्र के राजनैतिक समीकरण बेहद उलझे हुए है और इनमें सबसे ज्यादा किसी की स्थिति नाजुक है तो वो है शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट। बालासाहेब की राजनैतिक विरासत को बचाये रखना उद्धव गुट के लिए बड़ी चुनौती है।
तीन राज्यों में कांग्रेस के लिए गेम चैंजेर हो सकता हैं OPS कांग्रेस को उम्मीद, भाजपा को पस्त करेगा ओपीएस अस्त्र तीन राज्यों में चला ओपीएस फैक्टर तो क्या भाजपा बदलेगी स्टैंड ? देश के सियासी पटल पर कांग्रेस की चमक बीते एक दशक में लगातार फीकी पड़ी है। कुछ राज्यों में मिली जीत छोड़ दी जाएँ तो देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी का ग्राफ साल दर साल गिरता रहा है। इस दरमियान पार्टी मौटे तौर पर किसी भी मुद्दे पर भाजपा को घेर नहीं पाई। पर बीत कुछ वक्त में पार्टी के हाथ एक मुद्दा लगा भी हैं और पार्टी ने उसका असर देखा भी हैं। ये मुद्दा है पुरानी पेंशन बहाली का जो मौजूदा समय में कांग्रेस के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकता है। हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा मिला है और अब निगाहें टिकी हैं राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों पर। इन तीन राज्यों के नतीजे न सिर्फ कांग्रेस की दशा सुधार सकते हैं, बल्कि पार्टी को दिशा भी दे सकते हैं। नतीजे मनमाफिक आएं तो केंद्रीय राजनीति में भी कांग्रेस ओपीएस की पिच पर खेलती दिख सकती हैं। बता दें कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस ओपीएस लागू करने के बाद मैदान में हैं, तो मध्य प्रदेश में पार्टी ने सत्ता आने पर ओपीएस का वादा किया हैं। कांग्रेस को उम्मीद हैं कि ओपीएस का मुद्दा इन तीन राज्यों में गेम चैंजेर सिद्ध होगा। फिलवक्त कांग्रेस के लिए ओपीएस का मुद्दा आस हैं, तो भाजपा के लिए गले की फांस हैं। माहिर भी मानते हैं कि ओपीएस का विरोध कर भाजपा एक बड़ा सियासी जोखिम ले रही है। भाजपा या तो ओपीएस पर एक शब्द नहीं बोलती या फिर इसका विरोध करती हैं, जहाँ जैसी सियासी जरुरत हो। पर इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि ओपीएस वो मुद्दा हैं जो न भाजपा से निगलते बन रहा हैं और न उगलते। खासतौर से पिछले दो ढाई साल से देश के विभिन्न राज्यों में ओपीएस बहाली का मुद्दा एक आंदोलन का रूप लेता जा रहा हैं। हिमाचल में भाजपा इसका खमियाजा भुगत चुकी हैं और अब तीन राज्यों के चुनाव नतीजों पर निगाह हैं। अगर कांग्रेस का ये मुद्दा चल गया तो भाजपा के पास फिलहाल इसकी कोई काट नहीं दिखती। हालांकि ये भी सच हैं कि राज्य सरकारें बिना केंद्र के सहयोग से लंबे समय तक आगे नहीं चल सकती हैं। एनपीएस का पैसा पीएफआरडीए में जमा है, जो केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। केंद्र की मर्जी के बिना, एनपीएस का पैसा राज्यों को नहीं दिया जा सकता। ऐसे में केंद्र पेंच फँसायें रख सकता हैं। पर ये भी तय हैं कि यदि राज्यों में कांग्रेस को अनुकूल परिणाम मिले तो कांग्रेस लोकसभा चुनाव में इसे जोर शोर से भाजपा के खिलाफ भुनाएगी। आखिरी सियासी जंग राज्यों की नहीं, बल्कि केंद्र की सत्ता के लिए ही होनी हैं। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश, इन तीनों ही राज्यों में मतदान हो चूका हैं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहाँ कांग्रेस पहले से सत्ता में हैं तो मध्य प्रदेश में पार्टी को सत्ता वापस चाहिए। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार में रहते ओपीएस बहाल कर चुकी हैं, वहीँ मध्य प्रदेश में ओपीएस बहाली कांग्रेस की गारंटी हैं। सिलसिलेवार बात करें तो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता वापसी को आश्वस्त दिख रही हैं, पर इसका कारण सिर्फ ओपीएस बहाली नहीं हैं। दरअसल छत्तीसगढ़ में वोटर साइलेंट रहा हैं और प्रत्यक्ष एंटी इंकम्बैंसी नहीं दिखी हैं। ऐसे में वोटिंग परसेंटेज में इजाफे को कांग्रेस प्रो इंकम्बैंसी मान कर चल रही हैं। पार्टी का मानना हैं कि बघेल सरकार के कई फैसले और योजनाओं के नाम पर जनता ने वोट दिया हैं जिनमें से ओपीएस भी एक हैं। वहीं मध्य प्रदेश में कांग्रेस को उम्मीद हैं कि लोगों को बदलाव चाहिए और बदलाव के लिए मतदान हुआ हैं। पर जानकार मान रहे हैं कि यहाँ मुकाबला नजदीकी हैं, ठीक 2018 की तरह। मध्य प्रदेश में निसंदेह ओपीएस बड़ा फैक्टर हैं। ऐसे में नजदीकी मुकाबले में यदि कांग्रेस बाजी मार जाती हैं तो ओपीएस को क्रेडिट देना पूरी तरह सही होगा। जानकारों की माने तो ये संभव हैं कि नजदीकी मुकाबले में ओपीएस ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस के लिए विक्ट्री शॉट लगा दिया हो। हालांकि इसकी तस्दीक काफी हद तक पोस्टल बैलट की गिनती से ही हो जाएगी। अब बात करते हैं उस राज्य की जहाँ ओपीएस को कांग्रेस ने सबसे बड़े सियासी अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया हैं। राजस्थान ओपीएस बहाल करने वाला देश का पहला राज्य था और इसका सेहरा बंधा सीएम अशोक गहलोत के सर। राजस्थान में आखिरी बार 1993 में सरकार रिपीट हुई थी, तब से हर बार बदलाव होता आया हैं। अधिकांश जानकार मानते हैं कि ये रिवाज बरकरार रह सकता हैं, लेकिन शायद ही कोई ऐसा हैं जो पूरी तरह रिपीट की सम्भावना को खारिज कर रहा हैं। ये ही कारण हैं कि मतदान से पहले एक सप्ताह में भाजपा ने राजस्थान में पूरी ताकत झोंक दी। पीएम मोदी ने इतनी जनसभाएं शायद ही इससे पहले किसी राज्य के विधानसभा चुनाव में की हो। उधर कांग्रेस को पता तो हैं कि 'मिशन रिपीट' डिफीट हो सकता हैं, लेकिन कर्मचारी वोट के बुते पार्टी को इतिहास रचने का भरोसा हैं। कांग्रेस को भरोसा हैं कि ओपीएस के चलते कर्मचारी वोट उसे मिला हैं और नतीजे चौंकाने वाले होंगे। क्या गहलोत का दांव मास्टर स्ट्रोक सिद्ध होगा ! सियासत में मुद्दे बनाये जाते है, बढ़ाये जाते है और उनका इस्तेमाल कर सत्ता की राह प्रशस्त की जाती हैं। राजस्थान में अशोक गहलोत ओपीएस बहाल तो पहले ही कर चुके थे, ऐसे में ओपीएस को भुनाने के लिए गहलोत ने अब नया पासा फेंका। कांग्रेस ने गारंटी दी है कि दूसरी बार सरकार बनते ही कर्मचारियों के लिए 'ओपीएस' को कानून के जरिए पक्का कर दिया जाएगा। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा, 'तो वेट नहीं, वोट कीजिए और पोस्टल बैलेट से ओपीएस को लॉक कीजिए'। सात चुनावी गारंटियों में पुरानी पेंशन स्कीम को कानूनी गारंटी का दर्जा देना भी शामिल हैं और इसे पहले नंबर पर रखा गया है। हालांकि गहलोत के इस दांव में पेंच भी है। ओपीएस को अगर राज्य में कानूनी दर्जा मिल भी गया तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि किसी दूसरे दल की सरकार उस कानून को निरस्त नहीं करेगी। ऐसे में कानूनी दर्जे की अहमियत पर सवाल उठना लाजमी हैं। फिर भी गहलोत को भरोसा हैं कि इससे वे कर्मचारियों का भरोसा जीतने में कामयाब रहे हैं। बहरहाल कर्मचारी अपना फैसला ले चुके हैं और नतीजे के लिए 3 दिसंबर का इन्तजार करना होगा। तो भाजपा को भी बदलना पड़ेगा स्टैंड ! माहिर मान रहे हैं कि अब तक ओपीएस फैक्टर का इस्तेमाल विधानसभा चुनावों में ही हुआ हैं। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का ये दांव सही पड़ा था और अब निगाह राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश पर हैं। विशेषकर अगर राजस्थान में सबको चौंकाते हुए कांग्रेस रिपीट कर जाती हैं तो ओपीएस की गूंज पुरे देश में सुनने को मिल सकती हैं। राजस्थान में सरकारी कर्मचारी अगर ओपीएस के समर्थन में मतदान करते हैं, तो चुनावी नतीजे चौंका सकते हैं। राजस्थान में करीब दस लाख सर्विंग और रिटायर्ड कर्मचारी हैं। इनके परिवारों को मिला लिया जाएँ तो ये संख्या विधानसभा चुनाव में समीकरण पूरी तरह बदल सकती हैं। यदि ऐसा होता हैं तो मुमकिन हैं भाजपा के रुख में भी ओपीएस को लेकर परिवर्तन देखने को मिले। राज्य कर रहे ओपीएस बहाल, पर फंसा हैं पेंच ! राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, पंजाब और हिमाचल प्रदेश; ये वो राज्य हैं जो बीत कुछ वक्त में पुरानी पेंशन योजना को लागू करने का एलान कर चुके हैं। पर इसमें कोई दो राय नहीं हैं की इन राज्यों को आने वाले वक्त में आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। दरअसल, एनपीएस के तहत राज्य सरकारें, अपना और कर्मचारी की सैलरी का एक तय हिस्सा पेंशन फंडिंग रेगुलेटरी डेवलेपमेंट अथॉरिटी को देती हैं। इसे बाद में कर्मचारी को पेंशन के रूप में दिया जाता है। इसके तहत पेंशन फंडिंग एडजस्टमेंट के तहत राज्य सरकारें, केंद्र से अतिरिक्त कर्ज ले सकती हैं। यह अतिरिक्त कर्ज राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का तीन फीसदी तक हो सकता है। अब केंद्र ने नियमो में बदलाव किया हैं जिसके बाद संभव हैं कि ओपीएस लागु करने वाले राज्यों को कम कर्ज मिले। दूसरा, जिन राज्यों ने अपने कर्मियों को पुरानी पेंशन के दायरे में लाने की घोषणा की है, उन्हें एनपीएस में जमा कर्मियों का पैसा वापस नहीं मिलेगा, ये केंद्र ने एक किस्म से साफ कर दिया है। यह पैसा पेंशन फंड एंड रेगुलेटरी अथारिटी (पीएफआरडीए) के पास जमा है। नई पेंशन योजना यानी एनपीएस के अंतर्गत केंद्रीय मद में जमा यह पैसा राज्यों को नहीं दिया जा सकता, बल्कि ये पैसा केवल उन कर्मचारियों के पास ही जाएगा, जो इसका योगदान कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकार ने पीएफआरडीए से पैसा वापस लेने के लिए केंद्र सरकार से आग्रह किया था, पर कोई सकरात्मक नतीजा नहीं निकला। ऐसा ही हिमाचल प्रदेश में भी हुआ हैं। एक तरह से कहा जा सकता हैं कि एनपीएस के तहत जमा अंशदान केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। अगर यह पैसा वापस नहीं आता है, तो राज्य सरकारों के खजाने पर इसका अतिरिक्त भार पड़ेगा। पर ये भी समझना होगा कि इसे वापस देना केंद्र के लिए भी आसान नहीं हैं क्यूंकि एनपीएस में जमा पैसा मार्केट में लगा है। इसमें उतार चढ़ाव आता हैं और जाहिर हैं इसे निकालना इतना सहज नहीं हैं। केंद्र सरकार एनपीएस का पैसा अगर देती भी हैं तो भी इसके लिए पीएफआरडीए एक्ट में संशोधन करना पड़ेगा। यानी ओपीएस में फंसा ये पेंच, संभव हैं आगे भी फंसा रहे। सक्रीय हुए कर्मचारी संगठन : पुरानी पेंशन बहाली के लिए केंद्र पर भी लगातार दबाव बढ़ रहा हैं। हालहीं में दिल्ली के रामलीला मैदान में सरकारी कर्मियों ने चेतावनी रैली आयोजित की थी। कॉन्फेडरेशन ऑफ सेंट्रल गवर्नमेंट एम्प्लाइज एंड वर्कर्स के बैनर तले आयोजित हुई इस रैली में ऑल इंडिया स्टेट गवर्नमेंट एम्प्लाइज फेडरेशन सहित करीब 50 कर्मचारी संगठन शामिल थे। जाहिर हैं ऐसे में केंद्र पर भी ओपीएस बहाली का दबाव हैं। कर्मचारियों की मुख्य मांगों में पीएफआरडीए एक्ट में संशोधन करना या उसे पूरी तरह खत्म करना भी शामिल हैं। ये चाहते हैं कि सरकार, पीएफआरडीए को वापस ले। जाहिर हैं जब तक इस एक्ट को खत्म नहीं किया जाता, तब तक विभिन्न राज्यों में लागू हो रही ओपीएस की राह मुश्किल ही बनी रहेगी।