मैं जो हूँ जॉन एलिया हूँ साहब इस बात का बे-हद लिहाज़ कीजिएगा पूरा नाम सय्यद हुसैन जॉन असग़र। जॉन का जन्म 14 दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुआ। शुरूआती तालीम अमरोहा में ही ली और उर्दू, फ़ारसी और अर्बी सीखते-सीखते अल्हड़ उम्र में ही शायर हो गए। 1947 में मुल्क आज़ाद हुआ और आज़ादी अपने साथ बंटवारे का ज़लज़ला भी लाई। तब सय्यद हुसैन जॉन असग़र ने हिंदुस्तान में रहना तय किया पर 1957 आते-आते समझौते के तौर पर पाकिस्तान चले गए और पूरी उम्र वहीं गुज़ारी। जॉन पाकिस्तान चले तो गए मगर यूँ समझिए के जॉन का दिल अमरोहा में ही रह गया। अमरोहा से चले जाने का अफ़सोस उन्हें ता-उम्र ही रहा, जॉन ने लिखा। जॉन को बे-हद दुःख था अमरोहा छोड़ के कराची जाने का और दोनों मुल्क़ों के दो हिस्से होने का। मत पूछो कितना ग़मगीन हूँ, गंगा जी और जमना जी में जो था अब मैं वो नहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी मैं जो बगुला बनके बिखरा,वक़्त की पागल आंधी में क्या मैं तुम्हारी लहर नहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी बाण नदी के पास अमरोही में जो लड़का रहता था अब वो कहाँ है, मैं तो वहीं हूँ, गंगा जी और जमना जी दंगों के दौरान, जॉन पकिस्तान तो आ गए मगर जॉन इसे एक समझौता ही समझा करते थे। जॉन की नज़्मों और ग़ज़लों से अमरोहा और हिन्दुस्तान की मिटटी की खुशबू अक्सर आती रही। 1947 के सियासी माहौल को बयां करते हुए उन्होंने लिखा- हरमो-दैर की सियासत है और सब फैसले हैं नफरत के यार कल सुबह आए हमको नज़र आदमी कुछ अजीब सूरत के इन दिनों हाल शहर का है अजीब लोग मारे हुए हैं दहशत के 08 नवंबर 2002 को पाकिस्तान के कराची में ही इंतकाल हुआ पर तब तलक सय्यद हुसैन जॉन असग़र दुनिया के लिए जॉन एलिया बन चुके थे। लाखों दिलों के महबूब शायर बन चुके थे। जॉन वो शायर हो चुके थे जो हर मर्तबा जदीद लगे। जॉन वो शायर हो चुके थे जिसकी बेफिक्र शायरी में हर शख्श को अपना अक्स दिखे। पर जॉन के असल दौर का आगाज़ तो अभी बाकी था। इस दुनिया में रहते हुए जो जॉन एक रस्मी शायर थे, दुनिया को अलविदा कहने के बाद सरताज़ हो गए। उनके इंतेक़ाल के बाद उन्हें बेशुमार नाम-ओ-शोहरत नसीब हुआ। कहते है एक बार जॉन ने कहा था आज किसी शायर का है, कल किसी और शायर का होगा और परसों मेरा होगा। उनकी जुबां मुबारक हुई और आज सोशल मीडिया के इस दौर में उनकी शायरी युवाओं को खुदरंग सी लगती है। 8 साल की उम्र से शायरी से दिल लगाने वाले जॉन ने बहुत कम उम्र से ही अपनी एक अलग ज़ेहनी दुनिया बसा ली थी शायद इसलिए भी फिर वक़्त के साथ ज़िन्दगी की हकीकत उन्हें न-पसंद रही। जो देखता हूँ वो कहने का आदि हूँ मैं अपने शहर का सबसे बड़ा फसादी हूँ बातों को पहेलियों की शक्ल में पेश करने वालों में जॉन नहीं थे, वे जो कहते साफ़ कहते। एक शायर के लिए अपने जिए और लिखे के बीच का फ़र्क़ कम करना ही उसकी मुसलसल कोशिश रहती हैं। मगर जॉन इस काम में माहिर थे, जॉन सच कहते थे, वे झूठ भी कहते तो खुद को "झूठा कह कर सच्चे बन जाते। खुद के सिवा जॉन को किसी से भी, कोई शिकायत न थी, ज़िन्दगी जीनी तो थी मगर, ज़िन्दगी से भी मोहब्बत न थी। हैं बतौर ये लोग तमाम इनके सांचे में क्यों ढलें मैं भी यहाँ से भाग चलूँ तुम भी यहाँ से भाग चलो दुनियादारी के रस्मों रिवाज़ों से ऊब चुके जॉन ने कुछ इस अंदाज़ से, दुनियादारी की परवाह छोड़ कर, अपनी शरीक-ए-मोहब्बत से दूसरी किसी दुनिया में चलने की बात कही। जॉन पकिस्तान के बड़े शायर थे और कहा जाता है कि जॉन की मोहब्बत "फ़ारेहा" हिन्दुस्तान में रहा करती थी। दो मुल्क़ों के बीच जॉन का उनसे मिलना तो मुमकिन नहीं हुआ मगर अपनी ग़ज़लों में फ़ारेहा का ज़िक्र, जॉन अक्सर किया करते थे। पाकिस्तान के मशहूर शायर "जॉन" की मोहब्बत की दास्ताँ एक अधूरा क़िस्सा ही रही, मगर वे ता-उम्र जॉन फ़ारेहा का नाम दोहराते रहे। अब जॉन की ये मोहब्बत एक-तरफ़ा थी या दो-तरफ़ा ये बात तो बस जॉन ही जानते थे। फ़ारेहा के अलावा जॉन की ज़िन्दगी में तीन और भी नाम शामिल रहे जिसमें से एक थी सुरैय्या, जो अपने आप में एक पहेली है। उनकी ज़िन्दगी में बनावटी गम की इन्तेहाई उन्होंने खुद मानी और बयां की - जाने-निगाहो-रूहे-तमन्ना चली गई ऐ नज़दे आरज़ू, मेरी लैला चली गई बर्बाद हो गई मेरी दुनिया-ए-जुस्तजू दुनिया-ए-जुस्तजू मेरी दुनिया चली गई ज़ोहरा मीरा सितारा-ए-क़िस्मत खराब है नाहीद!आज मेरी "सुरैय्या" चली गई किस्से कहूं कि एक सरापा वफ़ा मुझे तन्हाइयों में छोड़ के चली गई हालाँकि, कहा जाता है जॉन कि ये सुरैय्या और ये दुनिया ये गम ये तन्हाई की बातें सब मन घडन्त कहानियां थी, बिलकुल वैसे ही जैसे कोई परियों के देश कि कहानी होती है। 1970 में जॉन का निकाह 'ज़ाहिदा' हिना से हुआ जो जॉन कि तरह 1947 में हिंदुस्तान से पाकिस्तान , कराची आयी थी। जॉन और ज़ाहिदा का निकाह उनका अपना फैसला था, बहर-हाल दोनों का ये फैसला गलत साबित हुआ। जॉन कि एहल-ए-ज़िंदगी ज़ाहिदा ता-उम्र तक साथ न रह सकी और दोनों कुछ सालों बाद अलग हो गए। कहा जाता है कि जॉन चाहते थे ज़ाहिदा घर संभालें और ज़ाहिदा एक पत्रकार थी, सारी घर की ज़िम्मेदारी उठाना उन्हें मुमकिन न लगा और ये बात दोनों के अलग होने का सबब बनी । जाहिदा से अलग होने के बाद जॉन ने लिखा हम तो जी भी नहीं सके एक साथ हमको तो एक साथ मरना था अलग होने के बाद वे ज़ाहिदा को अक्सर खत लिखा करते थे जिन्हे उर्दू भाषा के एहम दस्तावेज़ों की शक्ल में भी देखा गया। जॉन ने ज़ाहिदा के लिए अपनी फ़िक्र और उनसे सभी गिले माफ़ करने का ज़िक्र भी अक्सर किया - नया एक रिश्ता पैदा क्यों करें हम बिछड़ना है तो झगड़ा क्यों करें हम ख़ामोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी कोई हंगामा बरपा क्यों करें हम ये क़ाफ़ी है के दुश्मन नहीं हैं हम वफादारी का दावा क्यों करें हम नहीं दुनिया को जब परवाह हमारी तो दुनिया कि परवाह क्यों करें हम ज़ाहिदा से अलैदगी के बाद जॉन ने 10 साल तक कुछ नहीं लिखा। हुई नहीं मुझे कभी मोहब्बत किसी से मगर यक़ीं सबको दिलाता रहा हूँ मैं जॉन की ज़िन्दगी का एक फसलफा एक गुमनाम शख्सियत के नाम भी रहा। इस शख्सियत का नाम तो कोई नहीं जानता मगर कहा जाता है जॉन की ज़िन्दगी के आखिर पलों में जॉन ने इनके लिए लिखा, ज़ाहिदा से अलग होने के बाद वे जॉन के साथ थी मगर कभी उनकी शरीक-ए-मोहब्बत न बन सकी। जॉन उनसे झूठा प्यार जताने के बोझ में दब रहे थे। जॉन ने बनावटी दुःख और झूठी तकलीफ प्यार की बात करते हुए लिखा- तुम मेरा दुःख बाँट रही हो , मैं खुद से शर्मिंदा हूँ अपने झूठे दुःख से तुमको कब तक दुःख पहुंचाऊंगा एहद-ए-रफ़ाक़त ठीक है लेकिन मुझको ऐसा लगता है तुम तो मेरे साथ रहोगी मैं तन्हा रह जाऊंगा। ये गुमनाम हसीना जॉन से बे-इंतेहा मोहब्बत करने का दावा करती थी और जॉन उन्हें झूठे दिलासे दे दिया करते थे। दोनों एक दूसरे को खत भी लिखा करते थे। कहा जाता है उस लड़की का इंतेक़ाल टी-बी की बीमारी से हुआ, जिसको जॉन ने शायरी में लिखा और जॉन का इंतेक़ाल भी लम्बे अरसे तक टी-बी की बीमारी से लड़ने के बाद हुआ। - आ गई दरमियाँ रूह की बात ज़िक्र था जिस्म की ज़रुरत का थूक कर खून रंग में रहना में हुनरमंद हूँ अज़ीयत का जॉन दोबारा कभी हिंदुस्तान नहीं आए और न ही फ़ारेहा से कभी मिले मगर फ़ारेहा का नाम जॉन से आज भी हमेशा जोड़ा जाता रहा है । जॉन ने फ़ारेहा के नाम कई बेहतरीन ग़ज़लें लिखी। फ़ारेहा जॉन की ज़िन्दगी का एक ज़रूरी हिस्सा थी और जॉन उन्हें शायद किसी मर्ज़ की दवा की तरह वक़्त वक़्त पर याद करते रहे। फ़ारेहा के नाम जॉन की एक ग़ज़ल - सारी बातें भूल जाना फ़ारेहा था वो सब कुछ एक फ़साना फ़ारेहा हाँ मोहब्बत एक धोखा ही तो थी अब कभी धोखा न खाना फ़ारेहा छेड़ दे अगर कोई मेरा तज़्कीरा सुन के तंज़न मुस्कुराना फ़ारेहा था फ़क़त रूहों के नालों की शिकस्त वो तरन्नुम वो तराना फ़ारेहा बेहेस क्या करना भला हालात से हारना है हार जाना फ़ारेहा
''एक लंबे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी।'' यह उदगार बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी की है जिन्होंने अपना पूरा जीवन और साहित्य भारतीय जनजातीय समाज को समर्पित कर दिया। वह जीवन भर लिखती रहीं, उन लोगों के लिए जिनके हक़ में खड़ा होना जरूरी था। अपनी कृतियों में महाश्वेता देवी ने आधुनिक भारत के उस इतिहास को जीवंत किया, जिसकी तरफ कम साहित्यकारों का ध्यान गया। महाश्वेता देवी का नाम ध्यान में आते ही उनकी कई-कई छवियां आंखों के सामने प्रकट हो जाती हैं। दरअसल उन्होंने मेहनत व ईमानदारी के बलबूते अपने व्यक्तित्व को निखारा। उन्होंने अपने को एक पत्रकारीका, लेखिका, साहित्यकारीका और आंदोलनधर्मी के रूप में विकसित किया। महाश्वेता ने कम उम्र में लेखन का शुरू किया और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका पहला उपन्यास, "नाती", 1957 में अपनी कृतियों में प्रकाशित किया गया था। ‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम गद्य रचना है जो 1956 में प्रकाशन में आई। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, "इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।" इस पुस्तक को महाश्वेता ने कलकत्ता में बैठकर नहीं बल्कि सागर, जबलपुर, पुणे, इंदौर, ललितपुर के जंगलों, झाँसी ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं यानी 1857-58 में इतिहास के मंच पर जो हुआ उस सबके साथ-साथ चलते हुए लिखा। अपनी नायिका के अलावा, लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि अंग्रेज अफसर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है। इनकी कई रचनाओं पर फ़िल्म भी बनाई गई। इनके उपन्यास 'रुदाली ' पर कल्पना लाज़मी ने 'रुदाली' तथा '1084 की माँ' पर इसी नाम से 1998 में फिल्मकार गोविन्द निहलानी ने फ़िल्म बनाई। इन्हें 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1986 में पद्मश्री ,1997 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार इन्हें नेल्सन मंडेला के हाथों प्रदान किया गया था। इस पुरस्कार में मिले 5 लाख रुपये इन्होंने बंगाल के पुरुलिया आदिवासी समिति को दे दिया था। महाश्वेता देवी ने अपना पूरा जीवन गरीब असहायों के हक के लिए लिखा और लड़ाई की। उन्होंने 18 जुलाई 2016 में अपनी आखिरी सांस ली, लेकिन वह अपना नाम हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज कर चुकी हैं।
लाल बहादुर शास्त्री एक ऐसी हस्ती थे जिन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में देश को न सिर्फ सैन्य गौरव का तोहफा दिया बल्कि हरित क्रांति और औद्योगीकरण की राह भी दिखाई। उन्होंने बड़ी सादगी और ईमानदारी के साथ अपना जीवन व्यतीत किया और सभी देशवासियों के लिए एक प्रेरणा के स्त्रोत बने। लाल बहादुर शास्त्री ने ही 'जय जवान जय किसान' का नारा दिया था। उनके ही नेतृत्व में भारत ने वर्ष 1965 की जंग में पाकिस्तान को शिकस्त दी थी। पाकिस्तान को करारी हार देने के बाद शास्त्री पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान के साथ युद्ध खत्म करने के समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए ताशंकद गए थे। पर वहां से वह अपने देश कभी नहीं लौटे, उनका पार्थिव शरीर वापिस भारत पहुंचा। ताशकंद एक शांति समझौता था या फिर कोई साजिश जिसने भारत से उसका लाल छीन लिया। आज तक रहस्य बनी हुई है शास्त्री की मौत 55 साल बाद भी लाल बहादुर शास्त्री की मौत एक रहस्य बनीं हुई है। 10 जनवरी 1966 को भारत-पाक के साथ ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के महज़ 12 घंटे बाद 11 जनवरी को तड़के 1 बज कर 32 मिनट पर उनकी मौत हो गई। बताया जाता है की मौत के 2 घंटे पहले तक वो बिलकुल ठीक थे, लेकिन 15 से 20 मिनट के अंदर उनकी तबियत खराब होने लगी। उनके इलाज के लिए डॉक्टरों को बुलवाया गया। डॉक्टरों ने उन्हें एंट्रा-मस्कुलर इंजेक्शन दिया। इंजेक्शन देने के चंद मिनट बाद ही उनकी मौत हो गई। बताया जाता है कि उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई थी। कहा जाता है कि उन्हें ह्रदय संबंधी रोग भी थे। 1959 में उनके बार हार्ट अटैक भी आया था। शास्त्री की मौत पर संदेह इस लिए भी किया जाता है क्यूंकि उनका पोस्टमार्टम नहीं किया गया था। उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ने दावा किया था की उन्हें ज़हर दिया गया था, जिसकी वजह से उनकी मौत हुई। उनके बेटे का भी कहना था कि उनके शरीर पर नील निशान थे। जब उनके पार्थिव शरीर को दिल्ली लाने के लिए ताशकंद के एयरपोर्ट लाया गया तो भारत पाकिस्तान के तिरंगे झुके हुए थे। उनके कहने पर लाखों देशवासियों ने एक वक़्त का खाना छोड़ दिया था 1965 में जब भारत-पाकिस्तान के बीच जंग चल रही थी, तो अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने शास्त्री को धमकी दी थी कि अगर आपने पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई बंद नहीं की, तो हम आपको जो लाल गेहूं भेजते हैं, उसे बंद कर देंगे। ये बात शास्त्री को काफी चुभी। इसी के चलते उन्होंने देशवासियों से अपील की कि हम एक वक़्त का खाना नहीं खाएंगे। उस समय भारत गेंहू कि खेती के लिए आत्मनिर्भर नहीं था। पहले शास्त्री और उनके परिवार ने स्वयं एक वक़्त का खाना छोड़ा। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्यूंकि वो देखना चाहते थे कि वो एक वक़्त बिना खाए रह सकते है या नहीं। जब उन्होंने देख लिया कि वो और उनके बच्चे एक वक़्त बिना खाए रह सकते है, उसके बाद ही उन्होंने देशवासियों से अपील की। उसके बाद लाखों देशवासियों ने उनके कहने पर एक वक़्त का खाना छोड़ दिया। देश के कई हिस्सों में इसे "शास्त्री व्रत" कहा गया।
हिमाचल प्रदेश के सेब विश्व विख्यात हैं। हिमाचल की वादियों में मिलने वाले सेब की डिमांड कभी कम नहीं होती। बरसों पहले हिमाचल में आया सेब का पहला पौधा यहां के लोगों के लिए किसी वरदान से कम नहीं माना जा सकता। सेब ही वो कारण है की यहां के बागवानों के पास पैसे की कोई कमी नहीं। प्रदेश के लाखों परिवार सेब बागवानी से अच्छी कमाई कर लेते हैं। लेकिन क्या आप जानते है की हिमाचल के लोगों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने वाले इस सेब को हिमाचल लाने की सोच किसी हिमाचल के व्यक्ति कि नहीं बल्कि एक अंग्रेज़ की थी। इस सेब ने हिमाचल पहुँचने तक एक लम्बा सफर तय किया है। आज इस कहानी के माध्यम से हम आपको रूबरू करवाएंगे उस सफर से जिसने हिमाचल की छवि बदल कर रख दी। कहानी उस अंग्रेज़ की जो सैम्युल से सदानंद बन गया, कहानी उस रॉयल वैरायटी कि जिसने हिमाचल के बागवानों की किस्मत खोल दी। जब फेल हुई थी सेब की फसल हिमाचल में सेब कि खेती सबसे पहले मेजर लार्ड विलियम ने की थी। उस समय भारत अंग्रेज़ों के अधीन था और मेजर लार्ड विलियम कुल्लू के उपायुक्त थे। मेजर को कुल्लू की आबो हवा बेहत पसंद थी, साथ ही उन्हें लगा की यहां का वातावरण सेब की खेती के लिए पर्याप्त है। उन्होंने अपने साथियों को घाटी में सेब के उत्पादन के लिए प्रेरित किया और तब हिमाचल में सेब का पहला पौधा आया। ये बात सन 1870 की है। मेजर की इसी सोच को मुकाम तक पहचाने के लिए लार्ड विलियम के दोस्त कैप्टन आर सी ली ने कुल्लू से 5 किलो मीटर आगे बंदरोल में 38 एकड़ जमींन खरीदी और इंग्लैंड से अपने पिता से सेब की किस्में भारत मंगवाई। 1915 तक कुल्लू घाटी में 10 अंग्रेज़ सेब बागान बन चुके थे। इन बागानों में तैयार होने वाला सेब शिमला और जोगिंदर नगर भेजे जाने लगा। यातायात की सुविधा न होने की कारण सेब कुलियों द्वारा ढुलवाकर भेजा जाता था। हिमाचल में सेब की खेती शुरू तो हो गई थी मगर न तो ये सेब देखने में अच्छे थे और न ही इनका स्वाद अच्छा था। शायद इसीलिए हिमाचल में सेब लाने का श्रेय कैप्टन आर सी ली को नहीं बल्कि सैमुएल इवांस स्टोक्स को जाता है। कौन थे सैमुएल इवांस स्टोक्स सैमुएल इवांस स्टोक्स एक अमरीकी पुरुष थे, जो फिलाडेल्फ़िया के समृद्ध खानदान से थे। वह सन 1904 में भारत आए थे। स्टोक्स एक ईसाई मिशनरी थे व् ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार में व्यस्त रहते थे। स्टोक्स हमेशा गरीब व बीमार लोगों की सेवा करते रहते थे। 1912 में उन्होंने यहीं की एक स्थानीय राजपूत-ईसाई लड़की से शादी कर अपनी बाकी ज़िंदगी यहीं गुज़ारने का फैसला किया। सैमुएल स्टोक्स से बने सत्यानंद स्टोक्स वह भारतीय संस्कृति तथा गुलामी के चलते भारतीयों पर हो रहे शोषण से इतने प्रभावित हुए कि आजादी की लड़ाई में कुद पड़े। वह खुद को हिन्दुस्तानी मान कर देश की सेवा में जुट गए और अपना नाम बदल कर सत्यानंद सटोक्स और पत्नी का नाम प्रिया देवी रख लिया। यंहा के लोगोँ की गरीबी देख कर उन्होंने सोचा की सिर्फ अनाज उगकर लोगोँ की गरीबी कम नहीं होगी। काफी शोध के बाद उन्होंने ने अमेरिका के स्टोक्स ब्रदर्स से सेब कि अच्छी किस्म मंगवाई। 1928 में स्टॉक्स के सेब के बगीचे के सेब तैयार हुए वो देखने में काफी सुंदर और स्वाद में भी काफी अच्छे थे। लोगों तक कैसे पहुंचा सेब स्टोक्स के बगीचे को देख कर स्थानीय लोग बेहद प्रभावित हुए। लोग उनके बागीचे में लगे सेब की कलमे चुरा कर अपने खेतो में लगाने लगे और इसी तरह सेब की यह किस्म किन्नौर, कुमारसेन और नारकंडा तक पहुँच गई। 1940 में पहली बार उनका सेब शिमला के बाजार में 50 व् 80 रुपये पेटी बिका जिसे देख स्टोक्स बेहद खुश हुए। उन्होंने सेब की खेती का प्रचार करना शुरू कर दिया, जिससे हिमाचल में सेब के बागानों का विस्तार होता गया। हिमाचल प्रदेश से स्टोक्स के बगीचे की 15 हजार पेटी सेब 1954 में दिल्ली की मार्किट में पहली बार पंहुचा, जो हिमाचल प्रदेश के लिए एक बड़े गर्व की बात थी। आज भी स्टोक्स के नक्शे कदमों पर चलते हुए बड़े बेटे स्वर्गीय प्रेम चंद के बेटे डा. विजय कुमार अपनी पुश्तैनी बगीचे पर नई किस्मों को ईजाद करने में जुटे हुए हैं। यहां प्रदेश का सबसे बड़ा सेब की नई किस्मों को तैयार करने वाला शोध केन्द्र बन गया है, जो हिमाचल प्रदेश के बागवानों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं।
आज पूरा भारत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती मना रहा है। एक सुलझे राजनेता, प्रखर वक्ता और बेहतरीन कवि अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में हुआ था। वह तीन बार भारत के प्रधानमंत्री बने। भारत के दसवें प्रधानमंत्री रहे अटल को भारत रत्न भी दिया जा चुका है। साल 1996 में वे पहली बार भारत के प्रधानमंत्री बने थे, हालांकि इस दौरान उनका कार्यकाल काफी छोटा यानी सिर्फ 13 दिनों का था। इसके बाद उनका दूसरा कार्यकाल 13 महीने का था और फिर 1999 में जब वह पीएम बने तो उन्होंने 2004 तक पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा किया। अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वालों में से एक रहे हैं, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी नाम से राजनैतिक पार्टी बनी। अटल बिहारी वाजपेयी राजनेता बनने से पहले एक पत्रकार थे। वह देश-समाज के लिए कुछ करने की प्रेरणा से पत्रकारिता में आए थे। देश की स्थिति समझने को बने पत्रकार अटल बिहारी राजनीति में कैसे आए, इसके पीछे एक प्रेरणादायक कहानी है। अटल बिहारी वाजपेयी के पिता पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी उत्तर प्रदेश में आगरा जिले के प्राचीन स्थान बटेश्वर के मूल निवासी थे। एक स्कूल टीचर के घर में पैदा हुए अटल बिहारी वाजपेयी के लिए जीवन का शुरुआती सफर आसान नहीं था। 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर के एक निम्न मध्यमवर्ग परिवार में जन्मे वाजपेयी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के ही विक्टोरिया (अब लक्ष्मीबाई) कॉलेज और कानपुर के डीएवी कॉलेज में हुई थी। छात्र जीवन से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने और तभी से राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेते रहे। उन्होंने राजनीतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर कि। एम० ए० के बाद उन्होंने कानपुर में ही एल०एल०बी० की पढ़ाई भी शुरू की लेकिन उसे बीच में ही छोड़कर पूरी निष्ठा से संघ-कार्य में जुट गए। फिर पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया तथा, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन जैसे अखबारों-पत्रिकाओं का संपादन किया। जब राजनीती में आने का लिआ निर्णय वे बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए थे और इस संगठन की विचारधारा (राष्ट्रवाद या दक्षिणपंथ) के असर से ही उनमें देश के प्रति कुछ करने, सामाजिक कार्य करने की भावना मजबूत हुई। उनके पत्रकार से राजनेता बनने का जो जीवन में मोड़ आया, वह एक महत्वपूर्ण घटना से जुड़ा है। इसके बारे में खुद अटल बिहारी ने एक इंटरव्यू में बताया था वे बतौर पत्रकारिता अपना काम बखूबी कर रहे थे। 1953 की बात है, भारतीय जनसंघ के नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कश्मीर को विशेष दर्जा देने के खिलाफ थे। जम्मू-कश्मीर में लागू परमिट सिस्टम का विरोध करने के लिए डॉ. मुखर्जी श्रीनगर चले गए। परमिट सिस्टम के मुताबिक किसी भी भारतीय को जम्मू-कश्मीर राज्य में बसने की इजाजत नहीं थी। यही नहीं, दूसरे राज्य के किसी भी व्यक्ति को जम्मू-कश्मीर में जाने के लिए अपने साथ एक पहचान पत्र लेकर जाना अनिवार्य था। डॉ. मुखर्जी इसका विरोध कर रहे थे। वे परमिट सिस्टम को तोड़कर श्रीनगर पहुंच गए थे। इस घटना को एक पत्रकार के रूप में कवर करने के लिए वाजपेयी भी उनके साथ गए। वाजपेयी इंटरव्यू में बताते हैं, ‘पत्रकार के रूप में मैं उनके साथ था। वे गिरफ्तार कर लिए गए। लेकिन हम लोग वापस आ गए।' डॉ. मुखर्जी ने मुझसे कहा कि वाजपेयी जाओ और दुनिया को बता दो कि मैं कश्मीर में आ गया हूं, बिना किसी परमिट के।’ इस घटना के कुछ दिनों बाद ही नजरबंदी में रहने वाले डॉ. मुखर्जी की बीमारी की वजह से मौत हो गई। इस घटना से वाजपेयी काफी आहत हुए। वह इंटरव्यू में कहते हैं, ‘मुझे लगा कि डॉ. मुखर्जी के काम को आगे बढ़ाना चाहिए।’ इसके बाद वाजपेयी राजनीति में आ गए। सन 1955 में उन्होंने पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा, पर सफलता नहीं मिली पर हिम्मत नहीं हारी और 1959 में बलरामपुर (जिला गोण्डा, उत्तर प्रदेश) से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में विजयी होकर लोकसभा में पहुंच कर ही दम लिया। 1957 से 1977 जनता पार्टी की स्थापना तक अटल जी बीस वर्ष तक लगातार जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। बस 13 दिन चली सरकार मोरारजी देसाई की सरकार में वह 1977 से 1979 तक विदेश मंत्री रहे और विदेशों में भारत की छवि बनाई। न्यूयोर्क में संयुक्त राष्ट्र संहघ के 32 वीन अधिवेशन में हिन्द में दिया गया उनका भाषण आज भी याद किआ जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी जब पहली बार संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में बोले तो पुरे विश्व ने उनकी आवाज़ सुनी। 1980 में जनता पार्टी से असंतुष्ट होकर इन्होंने जनता पार्टी छोड़ दी और भारतीय जनता पार्टी की स्थापना में मदद की। 6 अप्रैल, 1980 में बनी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद का दायित्व भी वाजपेयी जी को सौंपा गया। अटल बिहारी वाजपेयी दो बार राज्यसभा के लिए भी निर्वाचित हुए। अटल बिहारी वाजपेयी ने सन् 1996 में प्रधानमंत्री के रूप में देश की बागडोर संभाली। पहली बार 16 से 31 मई, 1996 तक वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे। पोखरण में परमाणु परिक्षण करवा देश को दी अलग पहचान 19 मार्च, 1998 को फिर प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और उनके नेतृत्व में 13 दलों की गठबंधन सरकार ने देश के अंदर प्रगति के अनेक आयाम छुए। सन 1998 में पोखरण में परमाणु परिक्षण करके उन्होंने देश को दुनिया के कुछ गिने-चुने परमाणु संपन्न देशों में शुमार करवा दिया। पोखरण में भारत का द्वितीय परमाणु परीक्षण कराया और उन्होंने अमेरिका की सीआईए को भनक तक नहीं लगने दी। पोखरण की परमाणु परिक्षण के बाद भारत को अमेरिका और जापान के कई प्रतिबन्ध झेलने पड़े , देश की विरोधी पार्टियों ने भी आलोचना की, लेकिन वाजपेयी सरकार ने तमाम पाबंदियों का मज़बूती से सामना किआ। पोखरण परमाणु परिक्षण के बाद वाजपेयी के नेतृत्व में देश की तर्रक्की की रफ़्तार में कमी नहीं आई। वाजपेयी पहले गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री थे जिन्होंने पुरे 5 साल सरकार चलाई, जब उनपर सत्ता का लोभी होने का आरोप लगा तो उन्होंने विरोधियों को इसका करारा जवाब दिया। वाजपेयी ने खरीद फरोख्त कर मिलने वाली सत्ता को चिमटे से भी छुने से मना कर दिया। अटल के भाषणों की गूँज आज भी सुनाई देती है अटल ने विवाह नहीं किया था। उन्होंने अपना जीवन देश की भलाई के लिए एक राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक के रूप में आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प किया था। वो एक तेजस्वी नेता होने के साथ एक प्रभावी कवी भी थे। वीर रस में लिखी उनकी कविताएं देश के लिए मर मिटने को प्रेरित करती है। वे एक अद्बुध वक्त थे उनके दिए भाषण आज भी याद किए जाते है। उनके दिए भाषणों ने ही बीजेपी की वर्तमान वर्चस्व को दिशा दी।
वो तारीख थी 27 फरवरी 1994, पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (OIC) के जरिए एक प्रस्ताव सामने रखा। पाकिस्तान कश्मीर में हो रहे कथित मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर भारत की निंदा कर रहा था। भारत के लिए एक बड़ा संकट उजागर हो गया, संकट यह था कि अगर यह प्रस्ताव पास हो जाता तो भारत को UNSC के कड़े आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता। उस समय केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार थी। चौतरफा चुनौतियों का सामना कर रहे तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने इस मसले को खुद अपने हाथों में लिया और जीनेवा (Geneva) में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए सावधानीपूर्वक एक टीम बनाई। इस प्रतिनिधि मंडल में तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री सलमान खुर्शीद, ई. अहमद, नैशनल कॉन्फ़्रेंस प्रमुख फारूक अब्दुल्ला और हामिद अंसारी तो थे ही, इनके साथ अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे। वाजपेयी उस समय विपक्ष के नेता थे और उन्हें इस टीम में शामिल करना मामूली बात नहीं थी। यही वह समय था जब देश के बचाव में सभी पार्टियों और धर्म के नेता एकसाथ खड़े हो गए थे। शायद राव का यही अंदाज़ उन्हें भारतीय राजनीति का चाणक्य बनाता है। अटल का स्वभाव अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा से ही एक ऐसे नेता थे जिन्हें न सिर्फ अपनी पार्टी में बल्कि विपक्षी पार्टियों में भी मान-सम्मान मिला। इसका सटीक उदाहरण था साल 1994 में उन्हें पि.वि नरसिम्हा राव द्वारा, एक विपक्ष के नेता होने के बावजूद उन्हें संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग भेजा गया। कैसे मिली जीत? इस फैसले के बाद नरसिम्हा राव और वाजपेयी ने उदार इस्लामिक देशों से संपर्क शुरू किया। राव और वाजपेयी ने ही OIC के प्रभावशाली 6 सदस्य देशों और अन्य पश्चिमी देशों के राजदूतों को नई दिल्ली बुलाने का प्रबंध किया। दूसरी तरफ, अटल बिहारी वाजपेयी ने जीनेवा (Geneva) में भारतीय मूल के व्यापारी हिंदूजा बंधुओं को तेहरान से बातचीत के लिए तैयार किया। वाजपेयी इसमें सफल हुए। प्रस्ताव पर मतदान वाले दिन जिन देशों के पाकिस्तान के समर्थन में रहने की उम्मीद थी उन्होंने अपने हाथ पीछे खींच लिए। इंडोनेशिया और लीबिया ने OIC द्वारा पारित प्रस्ताव से खुद को अलग कर लिया। सीरिया ने भी यह कहकर पाकिस्तान के प्रस्ताव से दूरी बना ली कि वह इसके रिवाइज्ड ड्राफ्ट पर गौर करेगा। 9 मार्च 1994 को ईरान ने सलाह-मशवरे के बाद संशोधित प्रस्ताव पास करने की मांग की। चीन ने भी भारत का साथ दिया। अपने दो महत्पूर्ण समर्थकों चीन और ईरान को खोने के बाद पाकिस्तान ने शाम 5 बजे प्रस्ताव वापस ले लिया और भारत की जीत हुई। आखिर राव ने अटल को क्यों चुना? भारत की जीत हुई, अटल की जीत हुई, राव की जीत हुई। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है की राव द्वारा अटल को संयुक्त राष्ट्र भेजा जाना किसी बड़े राजनीतिक दाव से कम नहीं था। अटल की बात करें तो उनकी आम लोगों में लोकप्रियता पर कभी कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा। उनकी छवि राजनीति और सार्वजनिक जीवन में बेदाग रही है। अटल अगर इस प्रस्ताव को रुकवा कर वापिस आते तो इसमें साफ़ तौर पर अटल के साथ-साथ राव की वाह-वाही होती कि, राव का दिल इतना बड़ा है की किसी विपक्ष के नेता को वो इतना सम्मान दे रहे है। लेकिन अगर इस कार्य में अटल सफल नहीं होते तो राव पूरा का पूरा भन्दा अटल के सर फोड़ते। इन दोनों ही स्थितियों में राव कि जीत होती। यानि चित भी उनकी और पट्ट भी उनकी। जब संसद में बोले थे अटल इस तथ्य कि जानकारी खुद वाजपेयी ने एक बार सदन में दी थी। उनका कहना था कि जब वह संयुक्तत राष्ट्र में पहुंचे तो हर किसी की ज़ुबान खासतौर पर पाकिस्तान के नेताओं में यह चर्चा खासा जोर पकड़ रही थी कि आखिर भारत सरकार ने नेता प्रतिपक्ष को अपनी बात रखने के लिए क्यों चुना। उन्होंने इस बात पर यह कहते हुए चुटकी भी ली कि कई नेताओं ने उनसे यहां तक कहा कि एक राजनीतिक साजिश के तहत ही उन्हें संयुक्त राष्ट्र भेजा गया है। यदि वहां पर सफलता मिली तो नरसिम्हा अपनी पीठ थपथपाएंगे और यदि हार मिली तो इसका ठीकरा उनके ऊपर फोड़ देंगे। हालांकि उन्होंने कभी इन विचारों को नहीं माना। उनका कहना था कि पाकिस्तान के नेता इस बात को लेकर भी हैरान थे कि उनके यहां पर विपक्ष के नेता का वजूद कुछ नहीं होता है और भारत का नेता प्रतिपक्ष सरकार का पक्ष रखता है।
अटल बिहारी वाजपेयी वो महान हस्ती जिन्हें एक बार नहीं बल्कि तीन बार भारत के प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त हुआ। अटल का साहित्य से लगाव जग ज़ाहिर था, वे उन विरले नेताओं में से थे, जिनका महज साहित्य में झुकाव भर नहीं था, बल्कि वे खुद लिखते भी थे। उनकी कविताएं आज भी पढ़ी जाती है। अटल विविध मंचों से और यहां तक कि संसद में भी अपनी कविताओं का सस्वर पाठ करते थे। एक बार जब अटल अपने मनाली वाले घर में छुट्टियां मनाने आए तो ख़राब सड़कें देख उन्हें बहुत निराशा हुई। उन्हें मनाली पहुँचने में खासी दिक्क्तों का सामना भी करना पड़ा, साथ ही मनाली में उस समय बिजली और नेटवर्क को लेकर भी बहुत सी समस्याएं थी। उस समय हिमाचल प्रदेश में वीरभद्र सिंह की सरकार थी। तो मनाली के खस्ता हालात को देख अटल ने वीरभद्र पर तंज कस्ते हुए बड़े हलके फुल्के अंदाज़ में एक कविता लिख डाली और इसी कविता के माध्यम से खालिस्तानियों का ज़िक्र भी कर डाला। पढ़िए वो कविता : मनाली मत जइयो मनाली मत जइयो, गोरी राजा के राज में। जइयो तो जइयो, उड़िके मत जइयो, अधर में लटकीहौ, वायुदूत के जहाज़ में। जइयो तो जइयो, सन्देसा न पइयो, टेलिफोन बिगड़े हैं, मिर्धा महाराज में। जइयो तो जइयो, मशाल ले के जइयो, बिजुरी भइ बैरिन अंधेरिया रात में। जइयो तो जइयो, त्रिशूल बांध जइयो, मिलेंगे ख़ालिस्तानी, राजीव के राज में। मनाली तो जइहो। सुरग सुख पइहों। दुख नीको लागे, मोहे राजा के राज में।
अटल बिहारी वाजपेयी वो महान हस्ती जिन्हें एक बार नहीं बल्कि तीन बार भारत के प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त हुआ।अटल बिहारी वाजपेयी उन नेताओं में से है जिन्हें सरहद के दोनों तरफ पसंद किया जाता था। अटल का साहित्य से लगाव जग ज़ाहिर था, वे उन विरले नेताओं में से थे, जिनका महज साहित्य में झुकाव भर नहीं था, बल्कि वे खुद लिखते भी थे। उनकी कविताएं आज भी पढ़ी जाती है। अटल विविध मंचों से और यहां तक कि संसद में भी अपनी कविताओं का सस्वर पाठ करते थे। पढ़िए अटल की वो कविताएं जिन्हें आज भी याद किया जाता है। स्वतंत्रता दिवस की पुकार पन्द्रह अगस्त का दिन कहता- आज़ादी अभी अधूरी है सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥ जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥ कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥ हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥ इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥ भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥ लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥ बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥ दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥ उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥ क़दम मिला कर चलना होगा बाधाएँ आती हैं आएँ घिरें प्रलय की घोर घटाएँ, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ, निज हाथों में हँसते-हँसते, आग लगाकर जलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में, अगर असंख्यक बलिदानों में, उद्यानों में, वीरानों में, अपमानों में, सम्मानों में, उन्नत मस्तक, उभरा सीना, पीड़ाओं में पलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। उजियारे में, अंधकार में, कल कहार में, बीच धार में, घोर घृणा में, पूत प्यार में, क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में, जीवन के शत-शत आकर्षक, अरमानों को ढलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ, प्रगति चिरंतन कैसा इति अब, सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ, असफल, सफल समान मनोरथ, सब कुछ देकर कुछ न मांगते, पावस बनकर ढलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। मैंने जन्म नहीं मांगा था मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु मरण की मांग करुँगा। जाने कितनी बार जिया हूँ, जाने कितनी बार मरा हूँ। जन्म मरण के फेरे से मैं, इतना पहले नहीं डरा हूँ। अन्तहीन अंधियार ज्योति की, कब तक और तलाश करूँगा। मैंने जन्म नहीं माँगा था, किन्तु मरण की मांग करूँगा। बचपन, यौवन और बुढ़ापा, कुछ दशकों में ख़त्म कहानी। फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना, यह मजबूरी या मनमानी? पूर्व जन्म के पूर्व बसी— दुनिया का द्वारचार करूँगा। मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु मरण की मांग करूँगा। दूध में दरार पड़ गई ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया? भेद में अभेद खो गया। बँट गये शहीद, गीत कट गए, कलेजे में कटार दड़ गई। दूध में दरार पड़ गई। खेतों में बारूदी गंध, टूट गये नानक के छंद सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है। वसंत से बहार झड़ गई दूध में दरार पड़ गई। अपनी ही छाया से बैर, गले लगने लगे हैं ग़ैर, ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता। बात बनाएँ, बिगड़ गई। दूध में दरार पड़ गई। मौत से ठन गई ठन गई मौत से ठन गई जूझने का मेरा इरादा न था मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ सामने वार कर फिर मुझे आज़मा
वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा साहिर लुधियानवी का ये शेर न जाने कितनी ही अधूरी प्रेम कहानियों का दर्द बयां करता है, ख़ामोशी के नीचे दबे उस मशहर की दास्ताँ बयां करता है जो हर आशिक़ ने हिज्र के बाद महसूस की। अधूरे इश्क़ का हश्र दर्शाता ये शेर कहीं न कहीं खुद इसके लिखने वाले की कहानी को भी बयां करता है। एक ऐसी कहानी जो शुरू तो हुई मगर मंजिल तक न पहुंची, एक ऐसी कहानी जो ज़माने की खींची गई लकीरों से अलहदा थी, एक ऐसी कहानी जो आधी जली सिगरेट और चाय के झूठे प्याले तक सिमट कर रह गई । ये कहानी है उर्दू के मशहूर शायर साहिर लुधियानवी और पंजाब की पहली बाघी कवियत्री अमृता प्रीतम की। अधूरी मोहब्बत का ये वो मुक्कमल फ़साना है जिसके जैसा दूसरा ढूंढ पाना मुश्किल है, वो फ़साना जो मुकाम तक पहुँचने से पहले लड़खड़ाया ज़रूर मगर इसका तास्सुर फीका नहीं पड़ा । 16 साल की उम्र में अमृता की करवा दी गयी शादी अमृता एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखती थी जहां धर्म के धागे इंसान की किस्मत तय किया करते थे। जहां उनकी नानी मां अन्य समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों के बर्तन भी अलग रखती थी, जहां शादी का मतलब जिंदगी भर का साथ होता था। ऐसे परिवार में जन्मी थी वो बेख़ौफ़ कवियत्री जिसने अपनी जिंदगी में दो लोगों से प्यार किया जिनमे से एक मुस्लमान था। ज़ाहिर है की अमृता प्रीतम वो महिला थी जो अपने दौर से बहुत आगे थी। अमृता जब 16 साल की थीं, तो उनकी शादी प्रीतम सिंह से करवा दी गई। शादी के बाद वे अमृता कौर से अमृता प्रीतम बन गई। अमृता ने अपने पति का नाम तो अपनाया लेकिन वो उनकी अभिन्न अंग नहीं बन पाई। शायरी बनीं साहिर से मिलने की वजह वो बात 1944 की है जब इस कहानी के किरदार एक दूसरे से पहली बार मिले, जगह थी लाहौर और दिल्ली के बीच स्थित प्रीत नगर। साहिर जुनुनी और आदर्शवादी थे, अमृता बेहद दिलकश अपनी खूबसूरती में भी और अपनी लेखनी में भी। दोनों एक मुशायरे में शिरकत के लिए प्रीत नगर पहुंचे थे। मद्धम रोशनी वाले एक कमरे में दोनों मिले और बस प्यार हो गया। साहिर से मिलने के बाद अमृता ने उनके लिए एक कविता भी लिखी। 'अब रात गिरने लगी तो तू मिला है, तू भी उदास, चुप, शांत और अडोल। मैं भी उदास, चुप, शांत और अडोल। सिर्फ- दूर बहते समुद्र में तूफान है…' शायद उस समय की मोहब्बत ख़ामोशी से शुरू हुआ करती होगी, वैसे भी जहां इश्क़ ब्यां करने के लिए लफ़्ज़ों की ज़रूरत पड़े वो मोहब्बत कैसी। अमृता ने लिखा, "मुझे नहीं मालूम की वो साहिर के लफ्जो की जादूगरी थी, या उनकी खामोश नज़र का कमाल था, लेकिन कुछ तो था जिसने मुझे अपनी तरफ खींच लिया, आज जब उस रात को आँखें मूंद कर देखती हूँ तो ऐसा समझ आता है कि तकदीर ने मेरे दिल में इश्क़ का बीज डाला जिसे बारिश की फुहारों ने बढ़ा दिया, उस दिन बारिश हुई थी। आत्मकथाओं में लिखे मोहब्बत के किस्से साहिर और अमृता की प्रेम कहानी के अंश इन दोनों की आत्मकथाओं में मिलते है, अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में अमृता प्रीतम ने साहिर के साथ हुई मुलाकातों का जिक्र किया है। वो लिखती है कि, "वो खामोशी से सिगरेट जलाता और फिर आधी सिगरेट ही बुझा देता, फिर एक नई सिगरेट जला लेता। जब तक वो विदा लेता, कमरा सिगरेट की महक से भर जाता। मैं इन सिगरेटों को हिफाजत से उठाकर अलमारी में रख देती और जब कमरे में अकेली होती तो उन सिगरेटों को एक-एक करके पीती। मेरी उंगलियों में फंसी सिगरेट, ऐसा लगता कि मैं उसकी उंगलियों को छू रही हूं। मुझे धुएं में उसकी शक्ल दिखाई पड़ती। ऐसे मुझे सिगरेट पीने की लत पड़ी।" अमृता लिखती है यह आग की बात है तूने यह बात सुनाई है यही ज़िन्दगी की वहीं सिगरेट है जो तूने कभी सुलगायी थी चिंगारी तूने दी थी ये दिल सदा जलता रहा वक्त कलम पकड़ कर कोई हिसाब लिखता रहा ज़िन्दगी का अब गम नहीं इस आग को संभाल ले तेरे हाथ की खेर मांगती हूँ अब और सिगरेट जला ले। वैसे साहिर भी कुछ कम नहीं थे, साहिर की जिंदगी से जुड़ा एक किस्सा है। जब साहिर और संगीतकार जयदेव एक गाने पर काम कर रहे थे तो साहिर के घर पर एक जूठा कप उन्हें दिखा। उस कप को साफ करने की बात जब जयदेव ने कही तो साहिर ने कहा कि इसे छूना भी मत, अमृता जब आखिरी बार यहां आई थी तो इसी कप में चाय पी थी। अमृता प्रीतम और साहिर की मोहब्बत की राह में कई रोड़े थे, जिस समय अमृता साहिर से मिली वे विवाहित थी हालाँकि वे उस रिश्ते में कभी भी खुश नहीं रही और दूसरी तरफ साहिर लुधियानवी में किसी नए रिश्ते की चाह नहीं थी, लेकिन वो अमृता ही थीं जिसने साहिर के दिल में जगह बनाई। साहिर की जीवनी, साहिर: ए पीपुल्स पोइट, लिखने वाले अक्षय मानवानी कहते हैं कि अमृता वो इकलौती महिला थीं, जो साहिर को शादी के लिए मना सकती थीं। एक बार अमृता साहिर की माँ से मिलने दिल्ली आई थी, जब वे गई तो साहिर ने अपनी माँ से कहा था, 'वो अमृता प्रीतम थी वो आप की बहू बन सकती थी।' मगर साहिर ने ये बात कभी अमृता से नहीं की और शायद साहिर की ये चुप्पी ही थी जिसने अमृता के दिल में इमरोज़ के लिए जगह बनाई। कैसे मिले इमरोज़ अमृता इमरोज़ से 1958 में मिले, मिलते ही इमरोज़ को अमृता से इश्क़ हो गया। इमरोज़ एक चित्रकार थे साहिर और अमृता की मुलाकात तो यूं हीं संयोग से हो गई थी, लेकिन इमरोज़ से तो अमृता की मुलाकात करवाई गई थी। एक दोस्त ने दोनों को मिलवाया था। इमरोज़ ने तब अमृता का साथ दिया जब साहिर को कोई और मिल गया था। इमरोज़ के साथ अमृता ने अपनी जिंदगी के आखिरी 40 साल गुजारे, इमरोज़ अमृता की पेंटिंग भी बनाते और उनकी किताबों के कवर भी डिजाइन करते। इमरोज़ और अमृता एक छत के नीचे ज़रूर रहे मगर एक दूसरे के साथ नहीं। उनकी जिंदगी के ऊपर एक किताब भी है 'अमृता इमरोज़: एक प्रेम कहानी। एक ही छत के नीचे दो अलग कमरे इन दोनों का बसेरा बना। अपने एक लेख "मुझे फिर मिलेगी अमृता" में इमरोज़ लिखते है की कोई रिश्ता बांधने से नहीं बंधता न तो मैंने कभी अमृता से कहा कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ न कभी अमृता ने मुझसे। मैं तुम्हे फिर मिलूंगी कविता में शायद अमृता ने इमरोज़ के लिए यही लिखा था मैं तुझे फिर मिलूंगी कहां, कैसे पता नहीं शायद तेरी कल्पनाओं की प्रेरणा बन तेरे कैनवास पर उतरूंगी या तेरे कैनवस पर एक रहस्यमयी लकीर बन खामोश तुझे देखती रहूंगी मैं तुझे फिर मिलूंगी कहाँ, कैसे पता नहीं मैं तुझे फिर मिलूंगी। इमरोज़ अमृता से बेइन्तिहाँ मोहब्बत करते थे मगर अमृता के दिलो दिमाग पर साहिर का राज था। किस्सा तो यह भी है कि इमरोज के पीछे स्कूटर पर बैठी अमृता सफर के दौरान ख्यालों में गुम होतीं तो इमरोज की पीठ पर अंगुलियां फेरकर 'साहिर' लिख दिया करती थीं। ये मोहब्बत अधूरी रही और इस मोहब्बत के गवाह बने आधी जली सिगरेट के टुकड़े, चाय का झूठा प्याला और ढेर सारे खुतूत।
मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली या मात्र निदा फ़ाज़ली हिन्दी और उर्दू के अज़ीम शायर हैं। उन्होंने सीधी ज़ुबान के ज़रिए लोगों तक अपने कलाम पहुंचाए। न सिर्फ़ ग़ज़लें, नज़्में हीं बल्कि दोहे भी लिखे। हिंदी-उर्दू काव्य प्रेमियों के बीच अति लोकप्रिय और सम्मानित निदा फ़ाज़ली समकालीन उर्दू साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। उन्होंने बॉलीवुड को कभी न भूलने वाले ऐसे गाने और गज़ले दी जो आज भी लोग गुनगया करते है। उनके तमाम कलामों में से पेश हैं उनकी लिखी कुछ मशहूर गज़ले कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता इन्सान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी (पाकिस्तान से लौटने के बाद ) इन्सान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहाँ भी | खूँख्वार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं शहरों में बयाबान यहाँ भी है वहाँ भी | रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी | हिन्दू भी मज़े में हैमुसलमाँ भी मज़े में इन्सान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी | उठता* है दिलो-जाँ से धुआँ दोनों तरफ़ ही ये 'मीर' का दीवान यहाँ भी है वहाँ भी | दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है अच्छा-सा कोई मौसम तन्हा-सा कोई आलम हर वक़्त का रोना तो बेकार का रोना है बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है ये वक्त जो तेरा है, ये वक्त जो मेरा हर गाम पर पहरा है, फिर भी इसे खोना है आवारा मिज़ाजी ने फैला दिया आंगन को आकाश की चादर है धरती का बिछौना है अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं बेनाम-सा ये दर्द बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता सब कुछ तो है क्या ढूँढ़ती रहती हैं निगाहें क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता होश वालों को ख़बर क्या बेखुदी क्या चीज़ है होश वालों को ख़बर क्या बेखुदी क्या चीज़ है इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है उनसे नज़रें क्या मिलीं रोशन फ़िज़ाएं हो गईं आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है खुलती ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शायरी झुकती आँखों ने बताया मैकशी क्या चीज़ है हम लबों से कह न पाए उनसे हाल-ए-दिल कभी और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है
मुनव्वर राणा, उर्दू भाषा के मशहूर साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक कविता शाहदाबा के लिये उन्हें सन् 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय उनके बहुत से नजदीकी रिश्तेदार और पारिवारिक सदस्य देश छोड़कर पाकिस्तान चले गए। लेकिन साम्प्रदायिक तनाव के बावजूद मुनव्वर राना के पिता ने अपने देश में रहने को ही अपना कर्तव्य माना। राना ने ग़ज़लों के अलावा संस्मरण भी लिखे हैं। उनके लेखन की लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी रचनाओं का ऊर्दू के अलावा अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। प्रस्तुत है मुन्नवर राणा के लिखे कुछ बेहतरीन शेर : 1 तुम्हारी आँखों की तौहीन है ज़रा सोचो तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है 2 आप को चेहरे से भी बीमार होना चाहिए इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए 3 अपनी फजा से अपने जमानों से कट गया पत्थर खुदा हुआ तो चट्टानों से कट गया 4 बदन चुरा के न चल ऐ कयामते गुजरां किसी-किसी को तो हम आंख उठा के देखते हैं 5 झुक के मिलते हैं बुजुर्गों से हमारे बच्चे फूल पर बाग की मिट्टी का असर होता है 6 कोई दुख हो, कभी कहना नहीं पड़ता उससे वो जरूरत हो तलबगार से पहचानता है 7 एक क़िस्से की तरह वो तो मुझे भूल गया इक कहानी की तरह वो है मगर याद मुझे 8 भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है मोहब्बत करने वाला इस लिए बरबाद रहता है 9 हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं 10 अँधेरे और उजाले की कहानी सिर्फ़ इतनी है जहाँ महबूब रहता है वहीं महताब रहता है 11 किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई 12 मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता अब इस से ज़यादा मैं तेरा हो नहीं सकता 13 वो बिछड़ कर भी कहाँ मुझ से जुदा होता है रेत पर ओस से इक नाम लिखा होता है 14 मैं भुलाना भी नहीं चाहता इस को लेकिन मुस्तक़िल ज़ख़्म का रहना भी बुरा होता है 15 ये हिज्र का रस्ता है ढलानें नहीं होतीं सहरा में चराग़ों की दुकानें नहीं होतीं 16 नये कमरों में अब चीजें पुरानी कौन रखता है परिंदों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है 17 मोहाजिरो यही तारीख है मकानों की बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा 18 तुझसे बिछड़ा तो पसंद आ गयी बे-तरतीबी इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था 19 तुझे अकेले पढूँ कोई हम-सबक न रहे मैं चाहता हूँ कि तुझ पर किसी का हक न रहे 20 सिरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जां कहते हैं हम तो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं
भारत का एक ऐसा कवि जिसे सवतंत्रता के बाद राष्ट्र कवि की ख्याती प्राप्त हुई , ऐसा कवि जिसकी कविताओं में एक ओर ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति,एक ऐसा कवि जो साहित्य का वह सशक्त हस्ताक्षर हैं जिसकी कलम में दिनकर यानी सूर्य के समान चमक थी। हम बात कर रहे है राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की। दिनकर ने कुछ ऐसी कविताएं लिखी है जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे। रामधारी सिंह दिनकर केवल राष्ट्रकवि ही नहीं बल्कि जनकवि है। उनकी कविताएं हर वर्ग के व्यक्ति को मंत्रमुग्ध कर देती है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के बारे में एक कहानी है जिसका पुख्ता प्रमाण तो नहीं मिलता लेकिन ये कहानी अक्सर आपके कानों में कहीं न कहीं से आ ही जाती होगी। लाल किले पर एक कवि सम्मेलन हुआ था जिसकी अध्यक्षता ‘दिनकर’ कर रहे थे। इस सम्मेलन में उस वक़्त के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे। पंडित नेहरू सीढ़ियों से ऊपर चढ़ कर मंच की ओर बढ़ रहे थे कि तभी उनका पैर लड़खड़ा गया। देर होती इससे पहले दिनकर ने उन्हें पकड़ लिया। जब नेहरू मंच पर बैठने लगे तो उन्होंने दिनकर का शुक्रिया अदा किया। दिनकर ने हंसते हुए कहा कि “इसमें शुक्रिया की क्या बात है जब जब राजनीति लड़खड़ाई है उसे कविताओं ने ही सम्भाला है।” प्रस्तुत है उनकी लिखी एक ऐसी कविता जो भारत के सबसे बड़े आंदोलनों में से एक जे पी आंदोलन की आवाज़ बनी । सिंहासन खाली करो कि जनता आती है सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। जनता? हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम, "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" "सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?" 'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?" मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह,समय में ताव कहां? वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं। सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है, तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो। आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख, मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में? देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में। फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
भारत का एक ऐसा कवि जिसे सवतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि की ख्याती प्राप्त हुई , ऐसा कवि जिसकी कविताओं में एक ओर ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति, एक ऐसा कवि जो साहित्य का वह सशक्त हस्ताक्षर हैं जिसकी कलम में दिनकर यानी सूर्य के समान चमक थी। हम बात कर रहे है राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की। दिनकर ने कुछ ऐसी कविताएं लिखी है जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे। रामधारी सिंह दिनकर केवल राष्ट्रकवि ही नहीं बल्कि जनकवि है। उनकी कविताएं हर वर्ग के व्यक्ति को मंत्रमुग्ध कर देती है। प्रस्तुत है उनकी लिखी कुछ मशहूर कविताएं : समर शेष है ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो , किसने कहा, युद्ध की बेला चली गयी, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्रि के शर से, भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान। फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले! ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले! सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है, दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है। मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार, ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार। वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज? अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं गाँधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना सावधान! हो खड़ी देश भर में गाँधी की सेना बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध कलम आज उनकी जय बोलो जला अस्थियाँ बारी-बारी चिटकाई जिनमें चिंगारी, जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल कलम, आज उनकी जय बोल। जो अगणित लघु दीप हमारे तूफानों में एक किनारे, जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल कलम, आज उनकी जय बोल। पीकर जिनकी लाल शिखाएँ उगल रही सौ लपट दिशाएं, जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल कलम, आज उनकी जय बोल। अंधा चकाचौंध का मारा क्या जाने इतिहास बेचारा, साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल कलम, आज उनकी जय बोल। सिंहासन खाली करो की जनता आती है सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली । जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम, "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" "सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?" 'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?" मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में । लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ? वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है । अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं; यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं । सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है, तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो । आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख, मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ? देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में । फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, धूसरता सोने से शृँगार सजाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । कलम या कि तलवार दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली, दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे, और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे एक भेद है और वहां निर्भय होते नर -नारी, कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले, बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार, क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार रोटी और स्वाधीनता (1) आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ? मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ? आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं, पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं। (2) हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले, पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले। इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ? है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ? (3) झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ? आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ? है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी, बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।
मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के वो महान शायर जिनकी शायरी के बगैर हर मोहब्बत अधूरी है , वो शायर जिन्हे उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना गया है, वो शायर जिसे फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी दिया जाता है। ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता आज। पेश है मिर्ज़ा ग़ालिब की लिखी सबसे ज़ादा ख़ूबसूरत पंक्तियाँ : ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के हम रहें यूं तिश्ना-लब पैग़ाम के ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये हथकण्डे हैं चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम के ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के दिल को आंखों ने फंसाया क्या मगर ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेह्हत की ख़बर देखिए कब दिन फिरें हम्माम के इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के
अहमद फ़राज़, असली नाम सैयद अहमद शाह, एक ऐसे शायर जिनका जन्म पाकिस्तान के नौशेरां शहर में हुआ , एक ऐसे शायर जो आधुनिक उर्दू के सर्वश्रेष्ठ रचनाकारों में गिने जाते हैं, एक ऐसे शायर जिन्होंने मोहब्बत में छिपे दर्द को अपने शब्दों में कुछ ऐसे उकेरा की उनकी नज़्में ,उनकी गज़ले हर आशिक के हम सोहबत हो गए। आइये आपको पढ़ते है उनके लिखे कुछ उम्दा शेर : 1 सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं 2 रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ 3 अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो आँसू की जगह आँख से हसरत निकल आए 4 अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें 5 आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा 6 आज एक और बरस बीत गया उस के बग़ैर जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे 7 आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो 8 एक नफरत ही नहीं दुनिया में दर्द का सबब फ़राज़ मोहब्बत भी सकूँ वालों को बड़ी तकलीफ़ देती है 9 माना कि तुम गुफ़्तगू के फन में माहिर हो फ़राज़ वफ़ा के लफ्ज़ पे अटको तो हमें याद कर लेना 10 अपने ही होते हैं जो दिल पे वार करते हैं फ़राज़ वरना गैरों को क्या ख़बर की दिल की जगह कौन सी है. 11 उस शख्स से बस इतना सा ताल्लुक़ है फ़राज़ वो परेशां हो तो हमें नींद नहीं आती 12 बच न सका ख़ुदा भी मुहब्बत के तकाज़ों से फ़राज़ एक महबूब की खातिर सारा जहाँ बना डाला 13 इस तरह गौर से मत देख मेरा हाथ ऐ फ़राज़ इन लकीरों में हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं 14 वो रोज़ देखता है डूबे हुए सूरज को फ़राज़ काश मैं भी किसी शाम का मंज़र होता 15 वो बारिश में कोई सहारा ढूँढता है फ़राज़ ऐ बादल आज इतना बरस की मेरी बाँहों को वो सहारा बना ले 16 दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की फ़राज़ लोगों ने मेरे घर से रास्ते बना लिए 17 दोस्ती अपनी भी असर रखती है फ़राज़ बहुत याद आएँगे ज़रा भूल कर तो देखो 18 फुर्सत मिले तो कभी हमें भी याद कर लेना फ़राज़ बड़ी पुर रौनक होती हैं यादें हम फकीरों की 19 कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते 20 मोहब्बत के अंदाज़ जुदा होते हैं फ़राज़ किसी ने टूट के चाहा और कोई चाह के टूट गया 21 किस किस से मुहब्बत के वादे किये हैं तूने फ़राज़ हर रोज़ एक नया शख्स तेरा नाम पूछता है 22 मैं अपने दिल को ये बात कैसे समझाऊँ फ़राज़ कि किसी को चाहने से कोई अपना नहीं होता 23 कांच की तरह होते हैं गरीबों के दिल फ़राज़ कभी टूट जाते हैं तो कभी तोड़ दिए जाते हैं 24 मुझको मालूम नहीं हुस्न की तारीफ फ़राज़ मेरी नज़रों में हसीन वो है जो तुझ जैसा हो 25 ज़माने के सवालों को मैं हंस के टाल दूं फ़राज़ लेकिन नमी आंखों की कहती है 'मुझे तुम याद आते हो' 26 वहाँ से एक पानी की बूँद ना निकल सकी “फ़राज़” तमाम उम्र जिन आँखों को हम झील लिखते रहे 27 वो शख्स जो कहता था तू न मिला तो मर जाऊंगा “फ़राज़” वो आज भी जिंदा है यही बात किसी और से कहने के लिए 28 और 'फ़राज़' चाहिए कितनी मोहब्बतें तुझे मांओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया 29 वो बात बात पे देता है परिंदों की मिसाल साफ़ साफ़ नहीं कहता मेरा शहर ही छोड़ दो 30 तुम्हारी एक निगाह से कतल होते हैं लोग फ़राज़ एक नज़र हम को भी देख लो के तुम बिन ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर ख़ुसरो, खड़ी बोली हिंदी के वो पहले कवि जिन्होंने अपनी लेखनी से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया । वे दिल्ली के रहने वाले एक प्रमुख कवि, शायर, गायक और संगीतकार थे, जिनके लिखे सूफियाना दोहे आज तक गुनगुनाए जाते है । अमीर खुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है I वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फारसी में एक साथ लिखा I वे अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए भी जाने जाते हैं। वे फारसी के कवि भी थे। उनको दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला हुआ था। उनके ग्रंथो की सूची लम्बी है। साथ ही इनका इतिहास स्रोत रूप में महत्त्व है। अमीर खुसरो को हिन्द का तोता कहा जाता है। पढ़िए अमीर खुसरो के वो दोहे जिन्हे आज भी याद किआ जाता है खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग। तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग।। खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग। जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।। खीर पकायी जतन से, चरखा दिया जला। आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा।। गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस। चल खुसरो घर आपने, सांझ भयी चहु देस।। अंगना तो परबत भयो, देहरी भई विदेस। जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस।। खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार। जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।। साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन। दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन।। खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन। कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन।। संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत। वे नर ऐसे जाऐंगे, जैसे रणरेही का खेत।। खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय। वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।। अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई। जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।। रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन। तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।। नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय। पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।। रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ। जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।। उज्जवल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान। देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।। खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय। पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।। चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय। ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।। देख मैं अपने हाल को रोऊं, ज़ार-ओ-ज़ार। वै गुनवन्ता बहुत है, हम हैं औगुन हार।। वो गए बालम वो गए नदिया पार। आपे पार उतर गए, हम तो रहे मझधार।।