कलावती लाल, वो फिल्म अभिनेत्री जिसका जीवन भी किसी बॉलीवुड फिल्म की पटकथा से कम नहीं रहा। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" जिनके जीवन का सिद्धांत रहा और आखिरी सांस तक जिन्होंने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया। सिल्वर स्क्रीन से लेकर राजनीति तक और महिला सशक्तिकरण से लेकर गौ सेवा तक, कलावती की बहुरंगी जीवन यात्रा अद्धभुत और अकल्पनीय रही है। दिलचस्प बात ये है कि कलावती लाल का ताल्लुख हिमाचल प्रदेश के सोलन से है, यहीं जन्मी, यहीं अधिकांश जीवन बीता और यहीं जीवन की सांझ हुई। पर आज ये नाम गुमनाम है। जो सिल्वर स्क्रीन की शान थी आज की पीढ़ी उनके नाम से भी अपरिचित है। साल था 1952 का। डॉ वाईएस परमार अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे। उन्होंने अपने गृह जिला सिरमौर की पच्छाद सीट से ताल ठोकी थी। ये वो दौर था जब हिमाचल प्रदेश अपने गठन की प्रक्रिया से गुजर रहा था और बीतते वक्त के साथ-साथ प्रदेश का स्वरुप भी बदल रहा था। इसमें डॉ वाईएस परमार अहम किरदार निभा रहे थे। वे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के करीबी भी थे। लिहाजा ये लगभग तय था कि चुनाव के बाद यदि कांग्रेस सत्तासीन हुई तो डॉ परमार ही मुख्यमंत्री होंगे। कांग्रेस के अतिरिक्त किसान मजदूर प्रजा पार्टी और भारतीय जन संघ ही इस चुनाव में हिस्सा लेने वाले प्रमुख राजनीतिक दल थे। किंतु दोनों दलों ने डॉ परमार के विरुद्ध प्रत्याशी नहीं उतारा और उन्हें वॉक ओवर मिलना लगभग तय था। उसी वक्त सोलन में रहने वाली एक महिला ने निर्णय लिया कि वे डॉ परमार का मुकाबला करेंगी। ये वो दौर था जब प्रदेश की साक्षरता दर करीब 7 प्रतिशत थी, जबकि महिला साक्षरता दर तो तकरीबन 2 प्रतिशत ही थी। उस दौर के पुरुष प्रधान समाज में सियासत में एक महिला की भागीदारी किसी अचम्भे से कम नहीं थी। बावजूद इसके एक महिला ठान चुकी थी कि वह हिमाचल के निर्माण में अपना योगदान देगी। ये महिला थी अछूत कन्या और फैशनेबल इंडिया जैसी फिल्मों में अभिनय कर चुकी सिने जगत की नायिका कलावती लाल। सिनेमा की दुनिया में उनका नाम पुष्पा देवी था। भारत -पाकिस्तान विभाजन के बाद कलावती लाल 1947 में अपने पति कर्नल रामलाल के साथ सोलन आयी। शहर के फॉरेस्ट रोड स्थित ग्रीन फील्ड कोठी ही उनका आशियाना था। दरअसल 1930 के दशक में कलावती की उच्च शिक्षा लाहौर में हुई थी जहाँ वो कामरेड मुहम्मद सादिक और फ़रीदा बेदी के संपर्क में आई थी। तभी से उनकी विचारधारा भी वामपंथी हो गई थी। हालांकि उस दौर को गुजरे करीब दो दशक बीत चुके थे लेकिन वामपंथ विचारधारा की लौ अभी बुझी नहीं थी। खेर, चुनाव हुआ और वही नतीजा आया जो अपेक्षित था। कलावती लाल प्रदेश के निर्माता डॉ वाईएस परमार से चुनाव हार गई। जब पिता को कहा, ये जुर्म है आपको जेल भिजवा दूंगी... कभी - कभी एक विचार भी विचारधारा बन जाता है, यह कहावत कलावती लाल पर सही बैठती है। कलावती का जन्म जिला सोलन के चायल के समीप स्थित एक छोटे से गांव हिन्नर में लक्ष्मी देवी व ठाकुर कालू राम (मनसा राम) के घर 1909 में हुआ। आर्य समाज विचारधारा से प्रभावित पिता बच्चों को अच्छी तालीम देने में प्रयासरत रहे, लेकिन वह भी उस समय की सामाजिक व्यवस्था से अछूते न थे। उन्होंने कलावती का विवाह करने का निर्णय लिया, लेकिन नन्ही बेटी को यह मंजूर न था। उन्होंने पिता से कहा," नाबालिक की शादी करना ज़ुर्म है यदि आपने ऐसा किया तो मैं आपको जेल भिजवा दूंगी।" इस बात पर दोनों में झगड़ा हुआ बेटी को घर से निकाल दिया गया, वह गांव के मंदिर में रहने लगी, छोटी उम्र में भी वह घबराई नहीं क्योंकि सामाजिक कुरीतियों से लड़ने का विचार अब एक विचारधारा बनने की दिशा ले चुका था। मामा महाशय सहीराम उन्हें फागु ले गए। कलावती ने वहीं गुरुकुल से शिक्षा पूरी की और उन्हें आगामी पढ़ाई के लिए लाहौर भेज दिया गया। 1931 में में बीए पास की, अब वह अपने अंदर छुपी प्रतिभा व शक्ति को पहचान गई थी और निरंतर अविचलित हुए बगैर कर्म पथ पर बढ़ती गई। देविका रानी ने दिलवाया फिल्मों में काम : कलावती को नाटक कला और अंग्रेज़ी में रूची थी। यही शौक उन्हें शांति निकेतन कलकत्ता ले गया। वहां इनकी मुलाकात बॉलीवुड की जानी - मानी अदाकारा देविका रानी से हुई। उनके माध्यम से वह बॉम्बे पहुँची और उन्होंने पर्दे को ही अपने विचारों की लड़ाई का माध्यम बनाने का निर्णय लिया। इसी सोच को आगे ले जाने के लिए 1935 में फिल्म 'अछूत कन्या ' में एक रोल अदा किया। उन्होंने छ: फ़िल्मों में काम किया। शिमला के सिनेमा घर में लगी फिल्म और बवाल मच गया... कलावती लाल की भतीजी उर्मिल ठाकुर के अनुसार कलावती बताया करती थी कि, "1937 में बनी फ़िल्म फैशनबल इंडिया ने तो जैसे मेरे जीवन की दशा और दिशा ही बदल दी। यह फ़िल्म शिमला के सिनेमा घर में लगी, जिसकी सूचना पिता को मिली तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था। उन्हें बॉम्बे से वापिस बुला लिया गया। उस दौर में लड़कियों का गाना बजाना सामाजिक कुरीतियों में शामिल थी। ऐसी लड़कियों को न तो सम्मान की दृष्टि से देखा जाता और न ही कोई उनसे शादी करने को तैयार होता, क्योंकि केवल तुरी-तुरन लोग ही नाच गाने का काम कर सकते थे। " इस तरह एक विचारधारा पिता के निराशाजनक व्यवहार के कारण गाँव के माहौल में क़ैद होकर रह गई, लेकिन जिनमें तूफ़ान से लड़ने की हिम्मत और ऊँचाइयों को छूने का हौसला हो उन्हें कौन रोक सकता है। शिक्षा की तिजोरी और इरादों की मज़बूती ने एक बार फिर उनका साथ दिया। कलावती ने वेदों का अध्ययन किया था व संस्कृत उनकी प्रिय भाषाओं में से एक थी, किसी तरह से माता व पिता से आज्ञा लेकर वह लाहौर पहुंची और आर्य संस्कृत कॉलेज पट्टी अमृतसर में बतौर संस्कृत की अध्यापिका काम आरम्भ किया। किन्तु फ़िल्मिस्तान की पहचान उनके पीछे कॉलेज तक पंहुच गई, और विवश्तापूर्वक कलावती को इस्तीफ़ा देना पड़ा। इस बात का उन्हें दु:ख तो हुआ लेकिन यह मुश्किल उनके सपनों और इरादों से बड़ी नहीं थी। धन्वंतरी मोहमद सादिक़ व फ़रीदा बेदी से थी प्रभावित संस्कृत कॉलेज से इस्तीफे के बाद कलावती के गाइड प्रोफ़ेसर नन्दराम की मदद से जल्द उन्हें ऑल इंडिया रेडियो लाहौर में नाटक कलाकार की नौकरी मिल गई। इस बीच वर्ष 1940 में कलावती ने जब कर्नल रामलाल को अपना जीवन साथी बनाने का निर्णय लिया तो पिता ने सहर्ष स्वीकार किया। कर्नल रामलाल कलावती से काफी प्रभावित थे और उन्होंने कलावती से शादी का इजहार किया, जिसे कलावती और उनके परिवार ने स्वीकार कर लिया। सोलन में चलाई किसान कन्या पाठशाला .. कलावती अपने पति के साथ सोलन आ गई जहाँ उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। दरअसल कर्नल रामलाल का पुश्तैनी गहरा जम्मू में था पर उस दौर में जम्मू का हालत ठीक नहीं थे, तो लाल दम्पति ने सोलन में बसने का निर्णय लिया। कलावती शिक्षा की अहमियत को खूब समझती थी, वह अपने भाईयों को भी लड़कियों को शिक्षित करने के लिए उत्साहित करती थी। पूरे इलाक़े में शिक्षा के प्रसार हेतु उन्होंने अपने पैतृक गाँव हिन्नर में किसान कन्या पाठशाला आरम्भ की जिसके लिए उन्होंने दस हज़ार रूपए अपनी निजी आय से दिए। महाशय सहीरामजी का कलावती के जीवन में बहुत बड़ा सहयोग रहा। अंतिम सांस तक गौसेवा करती रही कलावती : कलावती ने सोलन में अपने निवास स्थान पर एक डेरी फ़ार्म चलाने का निर्णय लिया था। वह जरसी, सिंधी और हॉल्स्टन नस्ल की गायें ख़रीदकर लाई, उन गायों की सेवा आख़री सांस तक करती रही और उनकी बेहतर नस्ल को गाँव के लोगों व अन्य गऊ पालकों को देती रही। उनकी भतीजी उर्मिल बताती है " बुआ जी के पास करीब 20 गाय थी जिनकी सेवा में वो जुटी रहती थी। वे हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में आयोजित होने वाली कई प्रतियोगिताओं में भी अपनी गायों को लेकर जाती थी और उनकी गाय अक्सर विजेता बनती थी।" कलावती लाल नारी कल्याण के कार्य भी करती रही। समाज में नारी का स्थान व स्थिति उन्हें चिन्तित करते थे। वह महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ खड़ी होती, जरूरतमंदों को अपने घर पर आश्रय देती और क़ानूनी तौर पर उन्हें न्याय दिलाने में सहायता करती। कलावती को 1982 में अपने पति कर्नल साहिब के देहान्त से गहरा सदमा पंहुचा लेकिन वह टूटी नहीं, हारी नहीं, उसी जज़्बे से बेजुबानों, पार्टी व सम्पूर्ण समाज के लिए काम करती रही। वह दिन भर गऊओं की सेवा व घर के कार्य करती, शाम को पार्टी के लिए अख़बार बेचती, रात को लालटेन की रोशनी में गऊओं के लिए घास काटती। जीवन के सफ़र को विराम देते हुए 5 जून 2002 को उन्होंने इस संसार से विदा ली। कलावती लाल अपने आप में एक संस्था थी, उनके जज्बे, जीवन और जीने की कला को शत-शत प्रणाम... ( स्व. कलावती लाल की जीवन यात्रा पर आधारित ये लेख उनकी भतीजी उर्मिल ठाकुर और कलावती लाल के करीबी रहे कुल राकेश पंत के साथ हुई विशेष बातचीत के आधार पर लिखा गया है। उर्मिल ठाकुर द्वारा लिखे गए एक लेख का कुछ भाग इस कहानी में उन्हीं के शब्दों में सम्मिलित किया गया है। )
हिन्दुस्तान ही नहीं अपितु दुनिया के सबसे खूबसूरत क्रिकेट स्टेडियम की बात जब शुरू होती है तो धर्मशाला अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम पर आकर रुक जाती है। देश दुनिया में अपनी खूबसूरती के चलते धौलाधर पहाड़ियों की गोद में बसा और समुद्र तल से 1317 मीटर की उंचाई पर स्थित धर्मशाला का अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम अपने आप में अनूठा है। धौलाधार की वादियों के ठीक नीचे बने इस मैदान को देखने के लिए हर साल बड़ी संख्या में सैलानी धर्मशाला पहुँचते हैं। आईपीएल और ने अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैचों के चलते धर्मशाला क्रिकेट स्टेडियम की खूबसूरती दुनिया भर ने देखी है और पूरी दुनिया इसकी ख़ूबसूरती की कायल है। धर्मशाला क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण कार्य 2003 में शुरू हुआ था। इसकी भौगोलिक परिस्थिति के कारण इस स्टेडियम को बनाने में काफी दिक्कतें आई। 2004-2005 तक ये स्टेडियम बन कर पूरी तरह तैयार हो गया। उसके बाद यहां घरेलू क्रिकेट और रणजी ट्रॉफी जैसे मैच ही करवाए जाते थे। कई वर्षों के इंतज़ार के बाद 27 जनवरी, 2013 में पहली बार यह एक दिवसीय क्रिकेट मैच करवाया गया, जो कि भारत बनाम इंग्लैंड की टीम के बीच हुआ। इसके बाद अक्टूबर 2015 को पहला टी 20 मैच भारत बनाम साउथ अफ्रीका हुआ था। इस स्टेडियम में पहला टेस्ट मैच भारत बनाम ऑस्ट्रेलिया खेला गया था। स्थानीय व्यापारियों को होता है फायदा : धर्मशाला स्टेडियम में होने वाले आईपीएल व अंतरराष्ट्रीय मैचों से सैकड़ों स्थानीय कारोबारियों को फायदा होता है। इसमें टैक्सी चालक, होटल मालिक, रेस्तरां, होम स्टे, रेहड़ी संचालक आदि शामिल हैं। इसमें कोई संशय नहीं है की क्रिकेट ने धर्मशाला को पर्यटन के मानचित्र पर विशिष्ठ जगह दिलवाने में बड़ी भूमिका अदा की है। इस स्टेडियम से जुड़ी एक और रोचक बात है। धर्मशाला में मैच के आयोजकों को किसी भी मैच से पहले बारिश के देवता की शरण में जाना पड़ता है और बारिश न हो इसके लिए बाकायदा मंदिर में पूजा अर्चना व हवन करवाना पड़ता है। ऐसा न हो तो बारिश ऐसा कहर बरपाती है। शुरूआती दौर में यहां होने वाले मैचो में बारिश ने काफी कहर बरपाया। जब भी यहां मैच का आयोजन होता, उसी दौरान बारिश शुरू हो जाती। इसके बाद किसी ने आयोजकों को खन्यारा गांव में भगवान इंद्रूनाग की शरण में जाने की सलाह दी। इंद्रूनाग को यहां बारिश का देवता कहा जाता है। यानी जब भी यहां सूखा पड़ा हो या फिर बारिश नहीं थम रही हो तो यहां के लोग इंद्रूनाग देवता की ही शरण में जाते है। 2019 में हटाई गई थी पाकिस्तानी खिलाड़ियों की फोटो : कश्मीर के पुलवामा में 14 फरवरी 2019 को सीआरपीएफ के काफिले पर आतंकियों ने हमला हुआ था जिसमें 40 से ज्यादा जवानों के शहीद हुए थे। यह एक आत्मघाती हमला था। काफिले में सीआरपीएफ की करीब दर्जनभर गाड़ियों में 2500 से अधिक जवान सवार थे। आतंकियों ने सुरक्षाबलों की दो गाड़ियों को निशाना बनाया था। इसके चलते 2019 में एचपीसीए यानी हिमाचल प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन में पुलवामा में जवानों पर हुए हमले पर बड़ा कदम उठाया था। उन्होंने धर्मशाला के हिमाचल प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन स्टेडियम से पाकिस्तान के 13 खिलाड़ियों की फोटो हटा दी थी।
हिमाचली सेब दुनिया भर में अपने स्वाद के लिए प्रसिद्ध है, पर अब हिमाचल प्रदेश न सिर्फ सेब उत्पादक प्रदेश के तौर पर जाना जाता है अपितु हिमाचल हिंदुस्तान का फ्रूट बास्केट बन गया है। हिमाचल प्रदेश में बागवानी क्षेत्र आय के स्तोत्र उत्पन्न कर न सिर्फ लोगों की आर्थिकी सुदृढ़ करने में सहायक सिद्ध हो रहा है बल्कि प्रदेश की प्रगति में भी इसका बड़ा हाथ है। हिमाचल में करीब ढाई लाख हेक्टेयर भूमि पर 25 से भी अधिक किस्म के फलों का उत्पादन होता है। इसमें आधी भूमि पर तो अकेले सेब का उत्पादन होता है। इसके अतिरिक्त चेरी, स्ट्रॉबेरी, आम, किन्नू, माल्टा, कीवी, अखरोट, बादाम, अनार, अमरूद, आडू, खुमानी, लीची, नाशपाती का उत्पादन भी होता है। अब तो प्रदेश के ऊना में ड्रैगन फ्रूट को भी सफल तौर पर उगाया जाने लगा है। हॉर्टिकल्चर प्रदेश की आर्थिकी की रीढ़ है और चार लाख से अधिक लोग इससे जुड़े हैं। गत चार साल में प्रदेश में 31.40 लाख मीट्रिक टन फल उत्पादन हुआ है। इस अवधि में बागवानी क्षेत्र की वार्षिक आय औसतन 4,575 करोड़ रही। बागवानी के ज़रिये नौ लाख लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिल रहा है। हिमाचल की जलवायु और उपजाऊ ज़मीन के कारण यहां पैदा होने वाले फल यहां के लोगो के लिए वरदान है। ईरान और तुर्की का सेब चुनौती हिमाचल की खुशहाली की तकदीर कहे जाने वाली सेब बागबानी वैश्विक प्रतिस्पर्धा से कदमताल नहीं कर पा रही है। सेब पैदावार से लेकर बाजार पहुँचने तक की हर प्रक्रिया अव्यवस्थित है और इसमें व्यापक सुधार की दरकार है। कभी मौसम की मार सेब की गुणवत्ता पर असर डालती है, तो कभी निजी कंपनियों द्वारा दिए जा रहे कम दाम। इस पर कम दामों पर आयात हो रहे सेब से भी बाजार के सेंटीमेंट बिगड़ रहे है। हिमाचल की करीब साढ़े चार हजार करोड़ रुपये की सेब की आर्थिकी के लिए ईरान और तुर्की का सेब चुनौती बन गया है। बाजार में इस बार ईरान का सेब हिमाचली सेब को पछाड़ रहा है। ईरान का सेब रंग और स्वाद में श्रीनगर और किन्नौर की सेब की बराबरी करता है। बागवानों के अनुसार भारत में अफगानिस्तान के रास्ते ईरान और तुर्की से सेब का अनियंत्रित और अनियमित आयात होता आ रहा है जो परेशानी का कारण है। बागवान चाहते है कि ईरान और तुर्की से सेब आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगे। अफगानिस्तान साफ्टा (SAFTA) दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र का हिस्सा है और यहां से सेब के आयात पर कोई शुल्क नहीं लगता है। ईरान इस समझौते का हिस्सा नहीं है और माना जा रहा है कि इसलिए ईरान अपना सेब अफगानिस्तान से पाकिस्तान के रास्ते अटारी बॉर्डर से भारत भेजता हैं। ऐसा हो रहा है तो एक कंटेनर पर आठ लाख के करीब आयात शुल्क की चोरी हो रही है। इसके कारण ईरान का सेब सस्ता बिकता है। यदि ये सेब ईरान के रास्ते आए तो इसमें पंद्रह प्रतिशत एक्साइज ड्यूटी और 35 प्रतिशत सेस लगेगा। लॉन्ग टर्म प्लानिंग की दरकार : सेब के दामों पर नियंत्रण के लिए एक लॉन्ग टर्म प्लानिंग की जरुरत है। फूड प्रोसेसिंग यूनिट्स और सीए स्टोर्स की उपलब्धता के साथ ही सेब की प्रोडक्शन में गुणवत्ता का ध्यान रखने की ज़रूरत है। जानकार मानते है कि तीन क्षेत्रों में ध्यान देने की ज़रूरत है। पहला है सेब की प्रोडक्शन, दूसरा है सप्लाई चेन और तीसरा है मार्केटिंग। इन तीनों में ही बहुत सी खामियां है जिन्हें दुरुस्त किया जाना चाहिए। चिलगोजा : किन्नौर के लोगों के लिए वरदान है ये सूखा मेवा जनजातीय क्षेत्र किन्नौर बेहतरीन गुणवत्ता वाले सेब उत्पादक के तौर पर जाना जाता हैं, लेकिन ये ही किन्नौर उत्कृष्ट गुणवत्ता का एक मेवा भी उत्पादित करता है, जिसे चिलगोजा के नाम से जाना जाता है। चिलगोजा भारत के उत्तर में हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में 1800-3350 मीटर की ऊंचाई वाले इलाके में फैले जंगलों में चीड़ के पेड़ पर लगता है। पर्सियन में चिलगोजा का अर्थ होता है 40 गिरी वाला शंकु के आकार का फल। चिलगोजा को अंग्रेजी में पाइन नट कहा जाता है। किन्नौर तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में विवाह के अवसर पर मेहमानों को सूखे मेवे की जो मालाएं पहनाई जाती हैं, उसमें अखरोट और चूली के साथ चिलगोजे की गिरी भी पिरोई जाती है। चिलगोजा स्थानीय आबादी के लिए नकदी फसलों में से एक है, क्योंकि बाजार में यह काफी ऊंचे दाम पर बिकता है। चिलगोजा के पेड़ों के फलदार होने में 15 से 25 वर्ष का समय लगता है और इसके फल को परिपक्व होने में करीब 18-24 महीने लगते हैं। पीच वैली को एक नियोजित योजना की दरकार जिला सिरमौर का राजगढ़ व आसपास लगता क्षेत्र पीच वैली के नाम से जाना जाता है। राजगढ़ क्षेत्र में फागू, भणत, हालोनी ब्रिज, बठाऊधार और शावगा आदि क्षेत्रों में आडू की खासी पैदावार होती है। इस क्षेत्र में आडू की कई किस्में उगाई जा रही है, जिनकी खासी डिमांड है। पहले यह आडू एनसीआर मार्किट में खूब धूम मचा रहा था, मगर बीते कुछ वक्त में इसके रेट कम हुए है। लिहाजा उत्पादकों का भी इससे कुछ मोह भंग हुआ है। इस पर कृषि रोगों ने भी इसके उत्पादन को प्रभावित किया है। बहरहाल, पीच वैली को एक विशेष योजना की दरकार है जिससे आडू उत्पादन का बीता हुआ सुनहरा वक्त फिर लौट आएं। हिमाचल में सेब का विकल्प बन रही चेरी, इस साल मिल रहे दोगुने दाम हिमाचल में सेब के अतिरिक्त चेरी भी बागवानों के लिए एक अहम नकदी फसल बनती जा रही है। बागवानों के सेब के बगीचों में पिछले कुछ सालों से चेरी की भी बड़ी पैदावार होने लगी है। एक तरफ जहां सेब की फसल लेने में बागवानों को साल भर कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती है, वहीं दूसरी तरफ कम मेहनत वाली चेरी की फसल अब बागवानों के लिए वरदान साबित हो रही है। हिमाचल प्रदेश में करीब 400 हेक्टेयर भूमि में चेरी का उत्पादन किया जाता है। राज्य में सेब बगीचों के साथ ही चेरी के पौधे भी लगाए जाते हैं लेकिन चेरी 15 मार्च के बाद तैयार होती है और सिर्फ एक माह तक चेरी का सीजन चलता है। हिमाचल में चेरी की प्रमुख किस्में रेड हार्ट, ब्लैक हार्ट, विंग, वैन, स्टैना, नेपोलियन, ब्लैक रिपब्लिकन हैं। स्टैना परागण किस्म है और इसके बिना चेरी की अच्छी पैदावार नहीं ली जा सकती। चेरी के अच्छे रूट स्टॉक नहीं हैं। अगर चेरी के रूट स्टॉक अच्छे हो तो फसल और बेहतर हो सकती है। प्रदेश में चेरी की सबसे अधिक पैदावार शिमला जिले के ननखड़ी, कोटगढ़ और नारकंडा क्षेत्रों में होती है। इस बार भी हिमाचल की रसीली चेरी ने बाजार में दस्तक दे दी है। इस साल चेरी का सीजन करीब 10 दिन पहले शुरू हो गया है। समय से पहले तापमान बढ़ना इसका कारण बताया जा रहा है। सीजन की शुरुआत में ही बागवानों को 300 रुपये प्रति किलो तक रेट मिल रहे हैं, जो पिछले साल के मुकाबले दोगुने हैं। ढली मंडी में चेरी 200 से 300 रुपये प्रति किलो के रेट पर बिकी। पिछले साल एक मई को चेरी बाजार में पहुंची थी और कीमत अधिकतम 150 रुपये थी। सीजन की शुरुआत में चेरी लोकल मार्केट में ही खप रही है। आने वाले दिनों में शिमला से चेरी बंगलूरू, महाराष्ट्र और गुजरात तक भेजी जाएगी। आम की बंपर फसल हिमाचल प्रदेश में इस बार आम की फसल बंपर होने की उम्मीद है। आम के पेड़ों पर आया फूल इसी ओर इशारा कर रहा है कि इस बार बागवानों को आम की फसल मालामाल करने वाली है। हालांकि, अभी भी मौसम पर काफी कुछ निर्भर करेगा। गौरतलब है कि वर्ष 2021 में आम की फसल का ऑफ़ सीज़न रहा था। इस बार सीजन के ऑन होने की संभावनाएं पहले ही जता दी गई थी। नूरपुर, इंदौरा, ऊना व हिमाचल के अन्य निचले क्षेत्रों में आम की दशहरी, आम्रपाली, रामकेला, लंगडा चौंसा, तोता, अल्फेंजो, ग्रीन, फजली आदि किस्में पाई जाती है। जिनमें मुख्य दशहरी अगेती किस्म है। इसकी जून के मध्य माह में फसल तैयार हो जाती है।
बांका हिमाचल : अतुलिय चायल शीतल आबोहवा और खूबसूरत पहाड़ियों की हसीन वादियों में बसा चायल हिल स्टेशन, प्रकृति की अद्भुत चित्रकारी और अनुपम सौंदर्य की छटा बिखेरता है। यही वजह है कि चायल पर्यटकों की मनपसन्द ट्रेवल डेस्टिनेशन बन चुका है। खूबसूरत वादियों के बीच बसा यह शहर खुद न जाने कितनी ही कहानियां समेटे हुए है। चायल हिल स्टेशन टूरिज्म के दृष्टिगत विश्व भर में प्रसिद्ध है। समुद्र तल से लगभग 2,250 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एशिया का सबसे ऊँचा क्रिकेट ग्राउंड मौजूद है। ऐतिहासिक पटियाला राजा का पैलेस होटल, काली माता का मंदिर व वाइल्ड लाइफ सेंचुरी चायल की खूबसूरती को चार चाँद लगा देता है। ऐतिहासिक स्थलों के अलावा अपने प्राकृतिक स्थलों के लिए भी यह जगह काफी प्रसिद्ध है। चायल का नाम जैसे -जैसे विश्व के मानचित्र पर पर्यटन स्थल के रूप में अंकित हुआ वैसे- वैसे कई रोजगार के साधन भी यहाँ उपलब्ध हुए। यहाँ काफी संख्या में होटल व पर्यटन व्यवसाय से जुड़े प्रतिष्ठान है। हज़ारों लोगों को इससे रोजगार मिला है। जब राजा की ब्रिटिश हुकूमत से ठन गई : चायल के प्रमुख आकर्षणों में से एक चायल पैलेस है, जिसे 1891 में पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह ने अपने निवास के रूप में बनवाया था। महाराजा पटियाला का शाही राजमहल आज भी रियासतकालीन वैभव को समेटे हुए है। पत्थरों को तराश कर बनाए गए इस पैलेस पर कला का अजब नमूना देखने को मिलता है। सौ साल से भी अधिक पुराना यह पैलेस देवदार के घने पेड़ों के बीच अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर है। चायल पैलेस जहां पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। अब तक अनेकों फिल्मों व धारावाहिकों की यहां शूटिंग हो चुकी है। अब पैलेस होटल पर्यटन विभाग के अंतर्गत आता है। पर्यटन के लिहाज से हिमाचल प्रदेश का यह स्थल बहुत खास है। अद्भुत है दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट मैदान : चायल क्रिकेट ग्राउंड दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट मैदान है। वर्ष 1893 में निर्मित, इस मैदान का उपयोग पोलो ग्राउंड के रूप में भी किया जाता है, जो लगभग 2,144 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह समुद्र तल से 7500 फीट ऊपर है और इसे भारत के प्रसिद्ध क्रिकेट स्टेडियम के रूप में जाना जाता है। पर्यटक यहां से रात में शिमला और कसौली के शानदार दृश्य को देख सकते हैं। इस मैदान का उपयोग चायल मिलिट्री स्कूल द्वारा स्कूल के खेल के मैदान के रूप में भी किया जाता है। 1891 में जब लॉर्ड किचनर ने शिमला में राजा भूपिंदर को शिमला में प्रवेश करने के लिए वर्जित किया था, तब राजा भूपिंदर ने पहाड़ी की खोज की और उस पर एक क्रिकेट का मैदान बनाया, जो विशाल देवदार के पेड़ों से ढंका है। उस समय, महाराजा यहाँ अंग्रेजों के साथ क्रिकेट खेला करते थे।ब यह ग्राउंड भारतीय आर्मी के देखरेख में है, जो यहां के छावनी के अंदर स्थित है। प्रसिद्ध चायल क्रिकेट ग्राउंड को देखने के लिए देश विदेश के कौन - कौन से पर्यटक यहाँ आते है। प्रकृति प्रेमियों के लिए जन्नत है वाइल्ड लाइफ सैंक्चुअरी : प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध चायल वाइल्ड लाइफ सैंक्चुअरी को यहां के मुख्य पर्यटन गंतव्यों में गिना जाता है।1976 में चायल वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी की पहचान की गई थी और इसे सरकारी विचार के तहत एक कंज़र्वेटिव एरिया घोषित किया गया था। प्रकृति प्रेमियों के लिए ये स्थान किसी जन्नत से कम नहीं है। हिमाचल प्रदेश के लोगों के अनुसार,चायल वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी को चायल में मुख्य आकर्षण माना जाता है। हिमाचल प्रदेश में मोटे तौर पर कवर किए गए ओक के जंगल, देवदार का पेड़, सोलंग घाटी, 10 हेक्टेयर से अधिक भूमि को कवर करता है। इसमें रीसस मकाक, तेंदुआ, भारतीय शहतूत, लिंग, साही, जंगली सूअर, लंगूर और हिमालयन काले भालू हैं। अद्धभूत है " ए टेम्पल इन माय ड्रीम " बीते कुछ समय में शिव कुम्भ मंदिर पर्यटकों का मनपसंद पर्यटन स्थल बन चुका है। शिव कुम्भ मंदिर चायल से कुछ ही दूरी पर एक शांत स्थान पर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 65 वर्षीय सत्य भूषण ने अकेले किया था, और इस सुंदर मूर्ति शिल्प को पूरा करने में उन्हें 38 साल लगे है। आज भी इस मंदिर का निर्माण कार्य जारी है। स्थानीय लोगों के अनुसार, सत्य भूषण ने अपने सपने में शिव मंदिर देखने के बाद अपनी पैतृक संपत्ति पर 1980 में इस संरचना का निर्माण शुरू किया था। तीर्थस्थल को " ए टेम्पल इन माय ड्रीम " भी कहा जाता है। पूरी तरह से सीमेंट-धातु के तारों से बना होने के कारण, मंदिर बेरंग है। पर बेरंग होने के बावजूद भी इस मंदिर में शिव की अद्भुत मूर्ति , भूमिगत गुफा और कई अन्य चीज़ों ने मंदिर की खूबसूरती में चार चाँद लगा दिए है। चायल के समीप है बाबा भलकू का गांव : यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में शामिल कालका-शिमला रेलवे लाइन के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले बाबा भलकू का घर सोलन के पर्यटक स्थल चायल के नजदीक झाजा गांव में है। आज भी उनका पुराना मकान गांव में स्थित है। अनपढ़ होने के बावजूद भी कालका शिमला रेलवे लाइन व सुरंग निर्माण में उनका अहम योगदान है। जहां अंग्रेज इंजीनियर असफल हो गए थे, वहां बाबा भलखू ने एक छड़ी के सहारे इसको मापकर सुरंग निर्माण करवा दिया था। बकायदा चाय मुख्य बाजार में बाबा भलकू की प्रतिमा लगी हुई है। इसी प्रतिमा के नीचे दर्शाया गया है कि वह 19वीं सदी के कुशल इंजीनियर थे जिन्होंने दुर्गम पर्वत श्रृंखलाओं को चीरते हुए सड़क निर्माण कर अद्धभूत कीर्तिमान स्थापित किया था। कालका-शिमला रेलवे मार्ग के अलावा हिंदुस्तान-तिब्बत के निर्माण में भी उनकी अहम भूमिका रही थी।
एप्पल स्टेट होने के साथ-साथ हिमाचल पावर स्टेट भी है। यहां जलविद्युत उत्पादन की क्षमता देश के अन्य राज्यों के मुकाबले अच्छी है। देवभूमि हिमाचल में 27436 मेगावाट बिजली पैदा करने की क्षमता है। अपनी जरूरत से अधिक बिजली होने के कारण हिमाचल देश के अन्य राज्यों को बिजली की आपूर्ति करता है और इसी लिए हिमाचल को हिन्दुस्तान का पावर हाउस भी कहा जाता है। हिमाचल प्रदेश में बिजली के इतिहास की बात करें तो शुरुआत वर्ष 1948 से की जानी चाहिए, उस दौरान बिजली की आपूर्ति केवल तत्कालीन रियासतों की राजधानियों में ही उपलब्ध थी और उस समय कनेक्टेड लोड 500 के.वी से कम हुआ करता था। ऐसा इसलिए क्योंकि राज्य में बिजली उपयोगिता का संगठन अपेक्षाकृत हाल ही में शुरू हुआ था। लोक निर्माण विभाग के तहत अगस्त, 1953 में पहला विद्युत डिवीजन बनाया गया था। इसके बाद अप्रैल 1964 में एम.पी.पी और ऊर्जा का एक विभाग बनाया गया और फिर हिमाचल प्रदेश राज्य विद्युत बोर्ड का गठन 1 सितम्बर, 1971 को विद्युत आपूर्ति अधिनियम (1948) के प्रावधानों के अनुसार किया गया। बाद में इसे हिमाचल प्रदेश राज्य विद्युत बोर्ड लिमिटेड के रूप में पुनर्गठित किया गया। आज हिमाचल के हर घर तक बिजली पहुँच चुकी है। वर्तमान में बिजली ट्रांसमिशन, सब-ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन लाइनों के नेटवर्क के माध्यम से विद्युत आपूर्ति की जा रही है, जो राज्य की लंबाई और चौड़ाई के साथ बिछाई गई है। हिमाचल प्रदेश को देश में सबसे कम टैरिफ पर बिजली प्रदान करने का सम्मान भी प्राप्त है। हिमाचल प्रदेश ने 100 प्रतिशत पैमाइश, बिलिंग और संग्रह का अनूठा गौरव हासिल किया है। हिमाचल प्रदेश में दुनिया में सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित पावर हाउस स्थापित किया गया है (लगभग 12,000 फीट की ऊंचाई पर रॉन्गटॉन्ग पावर हाउस)। इसी के साथ हिमाचल में एक पूरी तरह से भूमिगत पावर हाउस भी स्थापित और चालू किया गया है जो एशिया में अपनी अलग पहचान बनाए हुए है (भाबा पावर हाउस - 120 मेगावाट)। हिमाचल प्रदेश अपने पनबिजली संसाधनों में बेहद समृद्ध है। भारत की कुल क्षमता का लगभग पच्चीस प्रतिशत इसी राज्य में है। पांच बारहमासी नदी घाटियों पर विभिन्न जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण से राज्य में लगभग 27,436 मेगावाट पनबिजली पैदा हो सकती है। राज्य की कुल पनबिजली क्षमता में से, 10,519 मेगावाट का दोहन अभी तक किया जा रहा है, जिसमें से केवल 7.6 प्रतिशत हिमाचल प्रदेश सरकार के नियंत्रण में है, जबकि शेष क्षमता का दोहन केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है। पनबिजली उत्पादन उद्योग, कृषि और ग्रामीण विद्युतीकरण के लिए बिजली की बढ़ती आवश्यकता को पूरा कर सकता है। यह राज्य की आय का सबसे बड़ा स्रोत भी है क्योंकि यह अन्य राज्यों को बिजली प्रदान करता है। हिमाचल का मूल सिद्धांत आपूर्ति की विश्वसनीयता और गुणवत्ता सुनिश्चित करते हुए किफायती लागत पर पर्याप्त बिजली प्रदान करना है। सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए बिजली एक महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा है। नाथपा झाकड़ी पनबिजली नाथपा झाकड़ी पनबिजली स्टेशन की क्षमता 1500 मेगावाट है और यह देश का चौथा सबसे बड़ा जल विद्युत प्लांट है। नाथपा झाकड़ी प्लांट प्रति वर्ष 6950.88 (6612) मिलियन यूनिट बिजली का उत्पादन करने के लिए डिजाइन किया गया है। इस प्लांट से विद्युत का आवंटन उत्तर भारतीय राज्यों हरियाणा, हि.प्र., पंजाब, जम्मू एवं कश्मीर, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड तथा दिल्ली व चंडीगढ़ के सभी शहरों को होता है। इस परियोजना का बांध किन्नौर जिला में है और पावर स्टेशन शिमला जिला के नाथपा-झाकड़ी में स्थित है। सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड का नाथपा-झाकड़ी पावर स्टेशन कई मायनों में अनूठा है। इस भूमिगत पावर स्टेशन में मशीनों के संचालन में आधुनिक तकनीकों का समावेश किया गया है। महाराष्ट्र का कोयना प्रोजेक्ट 1960 मेगावॉट बिजली उत्पादन पर देश की सबसे बड़ी विद्युत् परियोजना होने का दावा करता है , परन्तु ये उत्पादन चार अलग अलग इकाईओं से किया जाता है जबकि हिमाचल में स्थित नाथपा झाकड़ी परियोजना एक ही यूनिट से 1500 मेगावाट बिजली का उत्पादन करता है। गिरिनगर जलविद्युत परियोजना सिरमौर जिले की गिरि नदी पर स्थित, गिरिनगर हाइडल परियोजना की क्षमता 60 मेगावाट है, जिसमें 30 मेगावाट की दो इकाइयाँ हैं। यह परियोजना हिमाचल प्रदेश राज्य विद्युत बोर्ड के अंतर्गत आती है और 29 वर्षों से चालू है। यह परियोजना राज्य सरकार द्वारा 1966 में पूरी की गई । बिनवा जलविद्युत परियोजना इस परियोजना की स्थापित क्षमता में 6 मेगावाट की है जिसमें कांगड़ा जिले के बैजनाथ के पास 3 मेगावाट की 2 इकाइयां हैं। यह परियोजना पालमपुर से 25 किमी तथा बैजनाथ से 14 से किमी की दूरी पर स्थित है। इसकी समुद्र तल से ऊँचाई 1515 मीटर है। संजय विद्युत परियोजना किन्नौर जिले में भाभा नदी पर स्थित 120 मेगावाट की स्थापित क्षमता वाली यह परियोजना पूरी तरह से भूमि के अन्दर है। इसमें प्रत्येक 40 मेगावाट की 3 इकाइयां हैं। इस परियोजना की विशेषता इसके भूमिगत स्विचयार्ड में है, जो एशिया में अकेला है। 1989-90 में पूरी हुई इस परियोजना की अनुमानित लागत लगभग 167 करोड़ रुपये थी। बस्सी जलविद्युत परियोजना बस्सी परियोजना (66 मेगावाट) ब्यास पावर हाउस ( मंडी जिला ) का विस्तार है। इसमें 16.5 मेगावाट की 4 इकाइयां हैं। यह जोगिंदर नगर परियोजना के शानन पावर हाउस के 'टेल वॉटर' का उपयोग करता है। लारजी जल विद्युत परियोजना लारजी पनबिजली परियोजना कुल्लू जिले में ब्यास नदी पर है और इसकी स्थापित क्षमता 126 मेगावाट की है। [1] यह परियोजना सितंबर 2007 में पूरी हुई थी। आंध्र जलविद्युत परियोजना वर्ष 1987-88 के दौरान शुरू (कमीशन) की गई इस परियोजना में 5.5 मेगावाट की 3 इकाइयाँ (कुल स्थापित क्षमता =16.5 मेगावाट)। यह शिमला जिले की रोहड़ू तहसील में स्थित है। परियोजना की लागत लगभग 9.74 करोड़ रुपये थी। रोंग टोंग जल विद्युत परियोजना रोंग टोंग एक 2 मेगावाट की परियोजना है जो लोंगुल-स्पीति जिले में रोंग टोंग नाला पर स्थित है जो स्पीति नदी की एक सहायक नदी है। 3,600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह परियोजना इस क्षेत्र के आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए चलाई गई पहली पनबिजली परियोजना थी। यह दुनिया में सबसे ऊँचाई पर स्थित परियोजनाओं में से एक है। बैनर और नेगल प्रोजेक्ट 12 मेगावाट की संयुक्त स्थापित क्षमता वाली ये परियोजनाएं कांगड़ा जिले में क्रमशः बानेर और नेगल नदियों पर स्थित हैं। दोनों धाराएं धौलाधार से निकलती हैं और दक्षिण में सहायक नदियों के रूप में ब्यास से जुड़ती हैं। सैंज जलविद्युत परियोजना स्थापित क्षमता 100 मेगावाट (२ × ५० मेगावाट)। यह कुल्लू जिले में स्थित है। भाखड़ा बांध भाखड़ा बांध सतलुज नदी पर बनाया गया पहला बाँध था। इसकी स्थापित क्षमता 1325 मेगावाट की है। मानसून के दौरान यह बाँध अतिरिक्त पानी का संग्रह करके पूरे वर्ष के दौरान जल छोडकर विद्युत का उत्पादन करता है। यह मानसून की बाढ़ के कारण होने वाले नुकसान को भी रोकता है। यह बांध पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में एक करोड़ एकड़ (40,000 वर्ग किमी) खेतों को सिंचाई प्रदान करता है। भाखड़ा बांध 1954 में स्थापित किया गया था।
- यहां कानून या पुलिस राज नहीं चलता हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू में बसा मलाणा गांव बेहद प्राचीन व रहस्यमयी है। आधुनिकता के दौर में दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र वाले मलाणा गांव का आज भी अपना ही कानून है। इस गांव में देवता जमलू यानी जमदग्नि ऋषि का कानून चलता है। यह व्यक्तियों को सज़ा गूर के माध्यम से देवता जमलू देते हैं। भारत का कोई भी कानून या पुलिस राज यहां नहीं चलता। अपनी इसी खास परंपरा, रीति-रिवाज और कानून के चलते इस गांव को दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र कहा जाता है। मलाणा गाँव का इतिहास जमदग्नि ऋषि के बिना अधूरा है। इस गाँव में जमदग्नि ऋषि को देवता जमलू के रूप में पूजा है। माना जाता है कि वह सतयुग में भगवान विष्णु के छठे अवतार व भगवान परशुराम के पिता थे। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ऋषि जमदग्नि ध्यानमग्न होने के लिए एकांत स्थान की खोज की कर रहे थे। लम्बे भ्रमण के बाद वो मलाणा पहुँचे और उन्हें अपनी ध्येय पूर्ति के लिये यह स्थान उपयुक्त लगा और यही पर देवता जमलू ध्यानमग्न हो गए। पर इस बारे में एक रोचक तथ्य यह है कि समूचे गांव में जमलू देवता का एक भी चित्र नहीं है। ग्रामवासी जमलू देवता के खांडा को ही ईश्वर का प्रतीक मान उनकी पूजा करते हैं। इस मंदिर में देवता के गुर के अलावा किसी को भी मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। इस विचित्र गांव में कई रहस्य हैं जो इस गांव की ओर लोगों का ध्यान खींचते हैं। रहस्य से भरे इस गांव में बाहरी लोगों के कुछ भी छूने पर पाबंदी है। इसके लिए इनकी ओर से बकायदा नोटिस भी लगाया गया है, जिसमें साफ तौर पर लिखा गया है कि किसी भी चीज को छूने पर जुर्माना देना होगा। इनके जुर्माने की रकम 1000 से लेकर 3500 रुपए तक है। किसी भी सामान को छूने की पाबंदी के बावजूद भी यह स्थान पर्यटकों को आकर्षित करता है। बाहर से आए लोग दुकानों का सामान नहीं छू सकते। पर्यटकों को अगर कुछ खाने का सामान खरीदना होता है तो वह पैसे दुकान के बाहर रख देते हैं और दुकानदार भी सामान जमीन पर रख देता है। इस नियम का पालन करवाने के लिए यहां के लोग इस पर कड़ी नजर रखते हैं। पर्यटकों के लिए इस गांव में रुकने की भी कोई सुविधा नहीं है। पर्यटक गांव के बाहर अपना टेंट लगाकर रात गुजारते हैं। मलाणा के बाहरी लोगों को छूने से भी परहेज करते हैं। सिकंदर के सैनिकों ने बसाया था मलाणा गांव : पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि मलाणा गांव सिकंदर के सैनिकों ने बसाया है। सिकंदर अपनी फौज के साथ मलाणा क्षेत्र में आया था। भारत के कई क्षेत्रों पर जीत हासिल करने और राजा पोरस से युद्ध के बाद सिकंदर के कई वफादार सैनिक जख्मी हो गए थे। सिकंदर खुद भी थक गया था और वह घर वापिस जाना चाहता था, लेकिन ब्यास तट पार कर जब सिकंदर यहां पहुंचा तो उसे इस क्षेत्र का शांत वातावरण बेहद पसंद आया। वह कई दिन यहां ठहरा। जब वह वापिस गया तो उसके कुछ सैनिक यहीं ठहर गए और बाद में उन्होंने यहीं अपने परिवार बनाकर यहां गांव बसा दिया। इस गांव के लोग खुद को राजा सिकंदर के सैनिकों का वंशज बताते हैं, लेकिन इस बात के कोई उचित प्रमाण नहीं मिले है। हालाँकि उस दौर की कई रहस्यमयी चीज़ें गांव में अभी भी मौजूद है। यहां तक कि यहां के लोगों का हाव-भाव और नैन-नक्श भी भारतीयों जैसे नहीं हैं। बोली से लेकर शारीरिक बनावट तक ये लोग भारतीयों से एकदम अलग नजर आते हैं। मलाणा गांव के लोग कनाशी नाम की भाषा बोलते हैं। स्थानीय लोग इसे पवित्र जुबान मानते हैं। इस भाषा को बाहरी लोगों को सीखने पर भी प्रतिबंध है। ये भाषा दुनिया में कहीं और नहीं बोली जाती। हालांकि स्थानीय लोग हिंदी समझ जाते हैं, मगर वो उसके जवाब में जो कहते हैं, वो बात कनाशी में होती है और समझ में नहीं आती। इस गांव के लोग शादियां भी अपने गांव के भीतर ही करते हैं। अगर कोई गांव से बाहर शादी करता है, तो उसे समाज से बेदखल कर दिया जाता है। हालांकि, ऐसा मामला शायद ही कभी सुनने को मिला हो। मलाणा गांव में अकबर की भी होती है पूजा : इस गांव में अकबर से जुड़ी एक रोचक कहानी भी है। मलाणावासी अपने गांव में अकबर को भी पूजते हैं। साल में एक बार होने वाले ‘फागली’ उत्सव में ये लोग अकबर की पूजा करते है। गांव में अकबर की सोने की मूर्ति है। गांव के लोग बताते हैं कि बादशाह अकबर ने एक बार जमलू ऋषि की परीक्षा लेनी चाही थी, जिसके बाद जमलू ऋषि ने अकबर को सबक सीखने के लिए दिल्ली में बर्फबारी करवा दी थी। इसके बाद अकबर को जमलू देवता से माफी मांगनी पड़ी थी। वंही मूर्ति के बारे में कहा जाता है कि एक बार भिक्षा मांगते हुए दिल्ली पहुंचे दो साधुओं को सम्राट अकबर ने पकड़ कर उनसे दक्षिणा छीन ली थी। इसके बाद जमलू ऋषि ने स्वप्न में अकबर को ये वस्तुएं लौटाने को कहा। अकबर ने फिर सैनिकों के हाथ यहां अपनी ही सोने की मूर्ति बनाकर बतौर दक्षिणा वापिस भेजी थी। तब से ही यहाँ अकबर की इस मूर्ति की पूजा की जाती है। गांव में साल में एक बार यहां के मंदिर में अकबर की पूजा की जाती है। इस पूजा को बाहरी लोग नहीं देख सकते हैं। दुनियाभर में मशहूर है यहां की क्रीम (गांजा, चरस) : मलाणा गांव के आसपास उगाई जाने वाली मारिजुआना (गांजा) को 'मलाणा क्रीम' कहा जाता है। पार्वती वैली में काफी बड़ी मात्रा में इसकी खेती की जाती है। हालांकि, मौजूदा समय में पुलिस और प्रशासन कैनबिज (भांग का पौधा) की खेती को रोकने के लिए बड़े पैमाने पर ऑपरेशन चला रही है लेकिन, काफी ऊंचाई और मुश्किल भौगोलिक स्थितियां होने के कारण इसे रोक पाना काफी मुश्किल है। पुलिस से बचने के लिए गांव वाले अब घने जंगलों की तरफ मूव कर रहे हैं और वहां इसकी खेती कर रहे हैं। मलाणा गांव की हशीश (चरस) भी काफी मशहूर है। ये भांग के पौधे से तैयार किया गया एक मादक पदार्थ है। बताया जाता है कि मलाणा के लोग इसे हाथों से रगड़ कर तैयार करते हैं और फिर बाहरी लोगों को बेचते हैं। अपराध पर सजा देते हैं देवता : मलाणा गांव में यदि कोई अपराध करता है तो सजा कानून नहीं, बल्कि देवता जमलू देते हैं। देवता गूर के माध्यम से अपना आदेश सुनाते हैं। अपनी इसी खास परंपरा,रीति-रिवाज और कानून के कारण इस गांव को दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र कहा जाता है। ये लोग मानते है कि यदि देवता नाराज होते हैं तो पूरे गांव में तबाही आ जाती है।
बांका हिमाचल : गांधी और गोडसे, दोनों रहे है डगशाई जेल में ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचार का दर्दनाक इतिहास समेटे हुए डगशाई जेल शोधकर्ताओं और जिज्ञासुओं के लिए आकर्षण का केंद्र है। सोलन शहर से 11 किमी दूर, समुद्र तल से 5,600 मीटर से अधिक दूरी पर स्थित, डगशाई एक ऐसा क़स्बा है जो आज भी अपने अचंभित कर देने वाले इतिहास और कहानियों के लिए जाना जाता है। डगशाई भारत का एक बहुत पुराना छावनी क्षेत्र है। यहां ब्रिटिश काल में अंग्रेज़ों द्वारा बनवाए गए कई भवन है जो अंग्रेज़ों के जुल्मों की याद ताजा करते है। यहां बनी डगशाई जेल एक ऐसी ऐतिहासिक इमारत है जहां की दीवारों में देश की आज़ादी के लिए लड़े हजारों देश भक्तों के रक्त की लालिमा जज्ब है। गुप अँधेरे में कड़कड़ाती ठण्ड से भरी इस डगशाई जेल में घुसते ही रूह कांप उठती है। यहाँ अब भी कई अनसुलझी पहेलियाँ है। डगशाई जेल को अब एक संग्रहालय में बदला जा चुका है, पर इस जेल का हर कोना अंग्रेजों की क्रूरता को बयां करता है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आयरिश संघर्ष से प्रेरणा ली थी। नैतिक समर्थन प्रदान करने और आयरिश के प्रति अपनी एकजुटता दिखाने के लिए गांधीजी ने स्वेच्छा से इस जेल में एक रात बिताई थी। महात्मा गांधी जिस कक्ष में ठहरे थे उसकी दीवार पर चरखा चलाते हुए उनकी एक बड़ी सी तस्वीर लगाई गई है जो आज भी वहां मौजूद है। वहीँ महात्मा गांधी के कातिल नाथू राम गोडसे ने भी कुछ समय डगशाई जेल में बिताया था। कहते है शिमला में ट्रायल के दौरान गोडसे को इस जेल में रखा गया था और वे इस जेल का अंतिम कैदी था। हालांकि आधिकारिक रिकार्ड्स में डगशाई जेल का नाम दर्ज नहीं है लेकिन रिकॉर्ड के मुताबिक शिमला में सुनवाई के दौरान गोडसे को सोलन के समीप एक जेल में रखा गया था। उस समय सोलन के समीप सिर्फ डगशाई जेल ही थी जिससे गोडसे को यहाँ रखे जाने का दावा मजबूत होता है। 72875 रुपये की लागत से हुआ था निर्माण : टी आकार की किले नुमा डगशाई जेल का निर्माण 1849 में किया गया था। इसमें ऊंची छत व लकड़ी का फर्श है। जेल के इस तरह के निर्माण से कैदी की हर तरह की गतिविधियों की आवाज को चौकसी दस्ते आसानी से सुन लिया करते थे। तब इस केंद्रीय जेल का निर्माण 72875 रुपये की लागत से किया गया था, जिसमें 54 कैद कक्ष हैं। सभी कक्ष के छत की ऊंचाई लगभग 20 फीट है। भूमिगत पाइपलाइन से भी अंदर हवा आने की सुविधा है, जो बाहर की दीवारों में जाकर खुलती है। इसका फर्श व द्वार दीमक प्रतिरोधी सागौन की लकड़ी से बने हैं जो वर्तमान में भी उसी स्वरूप में है। महाराजा पटियाला ने अंग्रेजों को दान में दिया था डगशाई कस्बा: डगशाई कस्बे के बारे में ये कहा जाता है कि इसे महाराजा पटियाला ने अंग्रेजों को दान में दिया था और अंग्रेजों ने इसको अपनी छावनी के रूप में स्थापित किया। अंग्रेजों ने छावनी के साथ- साथ यहाँ बागियों को रखने के लिए एक केंद्रीय कारागार का भी निर्माण करवाया था। इस जेल में बागी आयरिश सैनिकों सहित हिंदुस्तान के स्वतंत्रता सेनानियों को भी रखा जाता था। प्राचीन तथ्यों के अनुसार इस जेल में कई कैदियों को फांसी पर भी लटकाया गया है। 1857 में हुई कसौली क्रान्ति के कई वीर क्रांतिकारियों को भी इसी जेल में रखा गया था। "दाग-ए-स्याह" से पड़ा डगशाई नाम : इस शहर के नाम में ही एक अलग कहानी भी छिपी है। कहते है कि अतीत में ये शहर मुग़ल शासकों की छावनी भी था और मुग़ल शासक इस क्षेत्र में अपराधियों को मृत्युदंड के लिए भेजते थे। दंड के साथ साथ राज्य से गद्दारी करने वाले लोगों को गर्म लोहे से जला कर उनके शरीर पर दाग (निशान) दिया जाता था जिसे "दाग-ए-स्याही" कहा जाता था। समय के साथ नाम का उच्चारण डगशाई में बदल गया। बाद में, ब्रिटिश शासकों ने इसे एक सेना छावनी में बदल दिया। हालांकि इस स्थान के मुग़ल कनेक्शन को लेकर कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। देश का दूसरा जेल म्यूजियम है डगशाई जेल : डगशाई जेल को अब म्यूजियम बना दिया गया है। कालापानी के नाम से मशहूर अंडमान निकोबार की जेल के बाद यह भारत का दूसरा जेल म्यूजियम है। पर्यटन के दृष्टिगत आज ये म्यूजियम दुनियाभर में मशहूर है। इस म्यूज़ियम में उस समय की कई तस्वीरें, कलाकृतिया, तोपखाने उपकरण व अन्य जानकारी दस्तावेज रखे हुए है। पर्यटक जेल को घूमकर अंदाजा लगा लेते हैं कि यहाँ उस जमाने में कैदियों को कितनी कठोर सजा व यातनाएं दी जाती थीं। जेल के हर जेलखाने का ब्यौरा, जेलखाने के बाहर लगे बोर्ड में उल्लेखित है। जेल को देखने के लिए काफी संख्या में पर्यटक पहुँचते है किन्तु देश के पर्यटन मानचित्र पर अब भी इस स्थान को उचित पहचान नहीं मिली है। अब भी काफी लोग इस ऐतिहासिक धरोहर से बेखबर है।
- स्वास्थ्य मंत्री रहते जेपी नड्डा ने दी थी सौगात हिमाचल में बेहतर और आधुनिक स्वास्थ्य सुविधा के स्वप्न को उस समय मूर्त रूप मिला जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर में नए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की स्थापना को मंजूरी दी। तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा के कार्यकाल के दौरान 2 अक्टूबर, 2017 को बिलासपुर जिला के कोठीपुरा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा इस अस्पताल का शिलान्यास किया गया था। तब से कार्य ज़ारी है। बिलासपुर जेपी नड्डा का गृह नगर है और यहां बन रहा एम्स हिमाचल के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले के कोठीपुरा में बनाया जा रहा है। इस अस्पताल का निर्माण प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के तहत किया जा रहा है। 250 एकड़ भूमि पर लगभग 1500 करोड़ रूपए की लागत से बनने वाले इस अस्पताल से जहाँ पुरे हिमाचल प्रदेश को लाभ मिलेगा, वहीं पुरे प्रदेश को बेहतर चिकित्सा सुविधाएं भी प्राप्त होगी। न केवल हिमाचल प्रदेश बल्कि हिमचाल के साथ सटे राज्यों को भी इसका लाभ मिलेगा। हिमाचल प्रदेश में विश्वस्तरीय अस्पताल न होने से आपात स्तिथि में लोगों को पीजीआई चंडीगढ़ जाना पड़ता था पर अब बिलासपुर में बन रहे एम्स से हिमाचल वासियों को राज्य में ही बेहतरीन चिकित्सा सुविधाएं मिलेंगी। जून में प्रधानमंत्री मोदी करेंगे जनता को समर्पित : इस अस्पताल के निर्माण को पूरा करने में 4 साल का लक्ष्य रखा गया था किन्तु वैश्विक महामारी कोरोना के चलते लॉकडाउन के दौरान ज्यादातर मज़दूरों ने पलायन किया जिस कारण निर्माण कार्य में कुछ देरी हुई पर अब स्तिथि कुछ सामान्य होने के बाद इसी वर्ष जून तक कार्य पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे आम जनता को समर्पित करेंगे। एम्स में ओपीडी शुरू हो चुकी है। अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस अस्पताल: बिलासपुर में बन रहा एम्स अस्पताल अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस होगा। इसमें विशेष सुविधाओं से लैस 750 बिस्तर उपलब्ध होंगे। इसमें 30 ट्रॉमा बेड, 80 आईसीयू बेड, 20 ऑपरेशन थियेटर, 20 स्पेशियलिटी और सुपर स्पेशिएलिटी विभाग के साथ अत्याधुनिक उपकरण जैसे सीटी स्कैन, एमआरआई, कैथ लैब इत्यादि होंगे। परिसर में आवासीय छात्रावास जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध होंगी। इसी परिसर में आयुष भवन भी स्थापित होगा। इसमें मरीजों का गैर एलोपैथी विधाओं से भी इलाज किया जाएगा। आयुर्वेद , होम्योपैथी और यूनानी प्रणालियों के माध्यम से मरीजों का इलाज होगा। आयुष चिकित्सा पद्धति के लिए 30 बेड का एक वार्ड बनाया जा रहा है। मेडिकल काॅलेज में 100 सीटों का प्रावधान: हिमाचल प्रदेश के पहले अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान में एक मेडिकल कॉलेज भी होगा, जिसमें प्रति वर्ष 100 एमबीबीएस छात्रों को प्रवेश दिया जाएगा। संस्थान में नर्सिंग कॉलेज भी होगा, जिसमें प्रति वर्ष बीएससी (नर्सिंग) पाठ्यक्रम में 60 लोगों को प्रवेश दिया जाएगा। इस संस्थान में एमबीबीएस के पहले सत्र की कक्षाएं जनवरी माह से शुरू हो चुकी है। यानी आने वाले समय में हर वर्ष बेहतरीन चिकित्सक एवं अन्य चिकित्सा कर्मी यहां से निकलेंगे जो न सिर्फ हिमाचल प्रदेश बल्कि पूरी दुनिया में सेवाएं देंगे। निश्चित तौर पर बिलासपुर जिला में स्थापित हो रहा एम्स संस्थान पुरे प्रदेश के लिए एक उत्तम, उन्नत एवं अत्याधुनिक उपचार सुविधाओं का केन्द्र बनेगा तथा लोगों को उपचार के लिए प्रदेश से बाहर नहीं जाना पड़ेगा। बिलासपुर के विकास को मिलेगी रफ़्तार : बिलासपुर में एम्स बनने से जिला के विकास को नए आयाम मिलेंगे। अभी से एम्स के आसपास के क्षेत्र में जमीनों के भाव आसमान छू रहे है जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले वक्त में इस क्षेत्र का विकास किस कदर रफ़्तार पकड़ने वाला है। निसंदेह इससे स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा। बिलासपुर के लिए एम्स किसी बहुमूल्य सौगात से कम नहीं है।
बांका हिमाचल : उपेक्षित, निस्तब्ध, निश्चेष्ट सा दरबार हॉल, उम्मीद है सुध लेगी सरकार - सोलन के दरबार हॉल में हुआ था हिमाचल का नामकरण " मैं दरबार हॉल हूँ। मैं राजा बघाट के दरबार का साक्षी रहा हूँ। मैं साक्षी रहा हूँ हिमाचल प्रदेश के नामकरण का। मैं विरासत को अपने में समेटे हुए हूँ, मैं स्वर्णिम यादों को सहेजें हुए हूँ। पर वक्त ने मेरी आभा धुंधला दी। आज हुक्मरानों की उपेक्षा ने मुझे जर्जर बना दिया। शायद जल्द कोई सुध ले, इसी आस में मैं निस्तब्ध, निश्चेष्ट उन प्रदेश प्रेमियों को निहारता रहता हूँ जिन्हें अपने प्रदेश का नाम तो याद है मगर मेरा इल्म नहीं... " गुमनामी के अन्धकार में कहीं गुम ये सोलन का वहीँ दरबार हॉल है जहां हिमाचल के निर्माण की लकीरें कागजों पर उकेरी गई थी। इसी दरबार हॉल में हिमाचल का नामकरण हुआ था और इसी दरबार हॉल में बघाटी राजा दुर्गा सिंह ने 28 रियासतों के राजाओं को राज -पाट छोड़ प्रजामण्डल में विलय होने के लिए मनाया था। कई ऐतिहासिक फैसलों का गवाह रहा सोलन का दरबार हॉल आज उचित संरक्षण के लिए तरस रहा है। जिस ईमारत में कभी बघाट रियासत का दरबार सजता था, वहां आज लोक निर्माण विभाग सोलन के अधीक्षण अभियंता का दफ्तर है। अब तक हुक्मरानों ने इसे हेरिटेज तक घोषित करने की जहमत नहीं उठाई है। वर्तमान में इस ऐतिहासिक इमारत में कई दरारें आ गई है, न जाने कब एक तेज बरसात इसे जमींदोज कर दे। आचार्य दिवाकर दत्त शर्मा ने सुझाया था नाम: दिनांक 28 जनवरी 1948, स्थान सोलन का दरबार हॉल। बघाट रियासत के राजा दुर्गा सिंह की अध्यक्षता में हिमाचल प्रदेश के निर्माण हेतु एक महत्वपूर्ण बैठक हुई। राजा दुर्गा सिंह उस वक्त संविधान सभा के चेयरमैन थे और उन्हें प्रजामण्डल का प्रधान भी नियुक्त किया गया था। उस दिन दरबार हॉल की इस बैठक में डॉ यशवंत सिंह परमार व स्वतंत्रता सेनानी पदमदेव की भी उपस्थित थे। कहते है की डॉ परमार ने उस समय वर्तमान उत्तराखंड राज्य के जौनसार-बावर क्षेत्र का कुछ हिस्सा भी हिमाचल प्रदेश में मिलाने का प्रस्ताव रखा था। किन्तु राजा दुर्गा सिंह इससे सहमत नहीं थे। साथ ही डॉ परमार प्रदेश का नाम हिमालयन एस्टेट रखना चाहते थे लेकिन राजा दुर्गा सिंह को ये भी गवारा न था। राजा की पसंद का नाम था हिमाचल प्रदेश। ये नाम संस्कृत के विद्वान आचार्य दिवाकर दत्त शर्मा ने सुझाया था जो राजा दुर्गा सिंह को बेहद भाया। अंत में राजा दुर्गा सिंह की चली और नए गठित राज्य का नाम हिमाचल प्रदेश ही रखा गया। 28 रियासत के राजाओं ने जब एक स्वर में प्रांत का नाम हिमाचल प्रदेश रखने की आवाज बुलंद की तो डॉ. परमार ने भी इस पर हामी भर दी। एक प्रस्ताव पारित कर तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को मंजूरी के लिए भेजा गया। सरदार पटेल ने इस प्रस्ताव पर मुहर लगाकर प्रदेश का नाम हिमाचल प्रदेश घोषित किया। ये बेहद विडम्बना का विषय है कि जिस दरबार हॉल में हिमाचल प्रदेश का नामकरण हुआ था वो आज इस तरह अनदेखी का शिकार है। राजसी शान-ओ-शौकत का गवाह रही इमारत : मौजूदा समय में दरबार हॉल का इस्तेमाल लोक निर्माण विभाग कर रहा है। ऐतिहासिक दरबार हॉल में जर्जर दीवारें अपनी अनदेखी की कहानी बयां कर रही हैं। सोचने वाली बात तो ये है की जिलेभर के सरकारी भवनों को बनाने और रखरखाव करने वाले लोक निर्माण विभाग का कार्यालय इस जर्जर भवन में चल रहा है। दरबार हॉल को उचित पहचान मिलना तो दूर इस स्थान का अस्तित्व तक खतरे में है। दरबार हॉल में राजशाही के दौर की तीन कुर्सियां आज भी मौजूद हैं। आज भी दरबारी द्वार पर की गई बेहद सुंदर नक्काशी को देखा जा सकता है। आज भी ये दरबार हॉल अपनी खूबसूरती और अपने शानदार इतिहास का लोहा न सिर्फ सोलन बल्कि समूचे प्रदेश में कायम करता है। पर विडम्बना ये हैं कि राजसी शान-ओ-शौकत का गवाह रही यह ईमारत आज धीरे-धीरे लचर व्यवस्था की बलि चढ़ रही है। घोषणा हुई, पर हुआ कुछ नहीं : वर्ष 2015 में बघाटी सामाजिक संस्था सोलन की मांग पर तत्कालीन सरकार ने दरबार हॉल को धरोहर संग्रहालय बनाने की घोषणा की थी। योजना थी कि इसे संग्रहालय के तौर पर विकसित किया जाएगा तथा बघाट व आसपास के क्षेत्रों की संस्कृति से संबंधित दुर्लभ वस्तुओं को इस हॉल में प्रदर्शित किया जाएगा। तब जिला भाषा एवं संस्कृति विभाग को योजना तैयार करने के निर्देश दिए गए थे। आदेशानुसार विभाग ने रिपोर्ट भी बनाई और सरकार को भेजी भी। किंतु इसके बाद इस संदर्भ में कुछ नहीं हुआ। अधिकारियों के लिए मानो सिर्फ एक दफ्तर है दरबार हॉल : दरबार हॉल में वर्तमान में लोक निर्माण विभाग का दफ्तर है। इस इमारत की हालत इतनी जर्जर है कि विभाग के कर्मचारियों को भी यहाँ बैठने में डर लगता है। ईमारत एक तरफ झुकने लगी है और वक्त के साथ दीवारों में पड़ी दरारें चौड़ी होती जा रही है। विभाग चाहता है कि जिला प्रशासन उन्हें कोई जमीन उपलब्ध करवा दें ताकि वे अपना भवन कहीं अन्य स्थान पर बना सके। वहीँ इस ईमारत के संरक्षण को लेकर विभाग का कहना है कि ये उनका मसला नहीं है। जैसी आदेश आएंगे वे उसका पालन करेंगे।
हिमाचल में बन रहा रेशम भारतीय सभ्यता का प्रतीक माने जानी वाली सिल्क साड़ियों में इस्तेमाल हो रहा है। हिमाचल में तैयार रेशम का इस्तेमाल पूरी दुनिया की महिलाओं के लिए आकर्षण का केंद्र बनी बनारसी साड़ियों में भी हो रहा है। हिमाचल का कोकून सबसे बेहतर माना जाता है, जिससे बढ़िया रेशम का उत्पादन किया जाता है। आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश भर में कुल 79 केंद्रों में रेशम कीट पालन हो रहा है तथा सिरमौर, कांगड़ा, बिलासपुर, ऊना, हमीरपुर के कांगू व नादौन में इस व्यवसाय से सैकड़ों परिवार जुड़े हैं। इसके साथ-साथ प्रदेश के ऊना, सिरमौर, बिलासपुर, कांगड़ा इत्यादि जिलों में रिलिंग यूनिट कार्य कर रहे हैं। रेशम पालक शहतूत के पत्तों से कीट के माध्यम से कोकून को रिलिंग यूनिट तक पहुंचाते हैं। इन इकाइयों में कोकून से धागा तैयार करके अन्य राज्यों में स्थापित सिल्क उद्योगों को भेजा जाता है। इन उद्योगों में सिल्क के विश्व स्तरीय परिधान तैयार किए जाते हैं। भारत में सिर्फ तीन बीज केंद्र, एक पालमपुर में : सेरीकल्चर को बढ़ावा देने के लिए भारत में ऐसे तीन ही केंद्र स्थापित है जहां से पूरे देश के किसानों को रेशम कीट के बीज मुहैया करवाए जाते है। इन तीन केंद्रों में उत्तराखंड का देहरादून, कर्नाटक का मैसूर व हिमाचल का पालमपुर शामिल हैं। रेशम कीट के बीज से लेकर प्रदेश में ऐसे कई स्थान है जहां रेशम कीट का उत्पादन भी किया जाता है। हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर ,मंडी, हमीरपुर ,काँगड़ा, ऊना सिरमौर जिला में रेशम का उत्पादन किया जाता है। रेशम उत्पादन में जिला बिलासपुर के बाद मंडी जिला पुरे प्रदेश में दूसरे स्थान पर आता है। बिलासपुर के करीब 3 हजार परिवार रेशम कीट पालन से जुड़े : कोरोना काल में रेशम कीट पालन हजारों परिवारों की रोटी का सहारा बना। इस दरमियान प्रदेश में रेशम का 60 फीसदी उत्पादन बिलासपुर में ही हुआ। आपदा में जब कई युवाओं का रोजगार छिन गया तो यह व्यवसाय इनके काम आया। बिलासपुर जिले में तैयार हो रहा रेशम का धागा बाहरी राज्यों में भी निर्यात हो रहा है। दो रिलिंग यूनिटों में हर वर्ष करीब एक करोड़ रुपये का धागा रिलिंग कर बेंगलुरु, कोलकाता और मुंबई भेजा जा रहा है। जिला बिलासपुर के करीब तीन हजार परिवार रेशम कीट पालन से जुड़े हैं। 1287.51 बीघा में हो रही शहतूत की खेती : प्रदेश के 1287.51 बीघा में शहतूत की खेती की जाती है। प्रदेश में वर्ष 2021-22 के दौरान अब तक 2 लाख 23 हजार शहतूत के पौधे वितरित किए गए हैं और 238 मीट्रिक टन कोकून का उत्पादन किया गया। 79 कीट पालन केंद्र व 11 रिलिंग यूनिट : हिमाचल प्रदेश में वर्तमान में 11 रिलिंग यूनिट हैं। इन यूनिट्स में धागा तैयार किया जाता हैं। जिला बिलासपुर, ऊना, कांगड़ा व सिरमौर में ये सभी रिलिंग यूनिट स्थित है। जबकि सेरीकल्चर का अधिकांश कार्य जिला हमीरपुर में होता है। खासतौर से हमीरपुर के नादौन व कांगू में काफी परिवार रेशम कीट पालन से जुड़े है। प्रदेश में कुल 79 केंद्रों में रेशम कीट पालन हो रहा है।
हिमाचल प्रदेश एक रहस्यों से भरा राज्य है। यहां ऐसी कई चीज़ें है जिसे समझ पाना वैज्ञानिकों के लिए भी बेहद मुश्किल है। ऐसे ही कई रहस्यों में से एक है हिमाचल की स्पीति घाटी में मौजूद करीब 550 साल पुराना 'ममी'। करीब 550 साल पुरानी इस 'ममी' को भगवान समझकर लोग पूजते हैं। स्थानीय लोग इसे साक्षात भगवान मानते हैं। भारत तिब्बत सीमा पर हिमाचल के लाहौल स्पीति के गयू गांव में मिली इस ममी का रहस्य आज भी बरकरार है। तभी तो हर साल हजारों लोग इसे देखने के लिए देश विदेश से यहां पहुंचते हैं। ये स्थान हिमाचल प्रदेश में स्पीति घाटी के हिमालय के ठंडे रेगिस्तान में बसा हुआ एक छोटा ग्यू नाम से विख्यात गांव है। लाहौल स्पीति की ऐतिहासिक ताबो मोनेस्ट्री से करीब 50 किमी दूर गयू नाम का यह गांव साल में 6-8 महीने बर्फ से ढके रहने की वजह से दुनिया से कटा रहता है। कहते हैं कि यहां मिली यह ममी तिब्बत से गयू गाँव में आकर तपस्या करने वाले लामा संघा तेंजिन की है। कहा जाता है कि लामा ने साधना में लीन होते हुए अपने प्राण त्याग दिए थे। तेनजिंग बैठी हुई अवस्था में थे। उस समय उनकी उम्र मात्र 45 साल थी। इस ममी की वैज्ञानिक जाँच में इसकी उम्र 550 वर्ष से अधिक पाई गई है। आम तौर पर जब भी ममी की बात होती है तो जहन में मिस्र में पाए जाने वाले पाटियों में लिपटी ममी याद आती है। किसी मृत शरीर संरक्षित करने के लिए एक खास किस्म का लेप मृत शरीर पर लगाया जाता है, लेकिन इस ममी पर किसी किस्म का लेप नहीं लगाया है, फिर भी इतने वर्षों से यह ममी सुरक्षित है। चौंकाने वाली सबसे बड़ी बात यह है कि इस ममी के बाल और नाखून आज भी बढ़ते रहते हैं। हालाँकि इस तथ्य की सत्यता का कोई प्रमाण नहीं। इस स्थान पर एक शरीर मौजूद है, जिसके सर बाल है, त्वचा है और नाखून भी। न तो ये शरीर गलता है और न समय के साथ बदलता है। इसीलिए यहां के स्थानीय लोग इसे जिंदा भगवान मानते हैं और इसकी पूजा करते हैं। बताया जाता है की आईटीबीपी के जवानों को खुदाई के दौरान इस ममी का पता चला था। सन 1975 में भूकंप के बाद एक पुराने मकबरे में ये भिक्षु का ममीकृत शरीर दब गया था। इसकी खुदाई बहुत बाद में 2004 में की गई थी, और तब से यह पुरातत्वविदों और जिज्ञासु यात्रियों के लिए रुचि का विषय रहा है। खुदाई करते वक्त ममी के सर पर कुदाल लग गया था। ममी के सर पर इस ताजा निशान को आज भी देखा जा सकता है। 2009 तक यह ममी आईटीबीपी के कैम्पस में रखी हुई थी। देखने वालों की भीड़ देखकर बाद में इस ममी को गाँव में स्थापित किया गया। खास बात है कि ये ममी प्रकृति का प्रकोप झेलने के बावजूद सही सलामत है। प्राकृतिक स्व-ममीकरण प्रक्रिया का परिणाम : भिक्षु की ममी मिस्र के ममीकरण से बिल्कुल अलग है। इसे सोकुशिनबुत्सु नामक एक प्राकृतिक स्व-ममीकरण प्रक्रिया का परिणाम कहा जाता है, जो शरीर को उसके वसा और तरल पदार्थ से दूर कर देता है। इसका श्रेय जापान के यामागाटा में बौद्ध भिक्षुओं को दिया जाता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि इस प्रक्रिया में दस साल तक लग सकते हैं। इसकी शुरुआत साधु के जौ, चावल और फलियों (शरीर में वसा जोड़ने वाले भोजन) को खाने से रोकने के साथ होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मृत्यु के बाद वसा यानी फैट सड़ जाती है और इसलिए शरीर से वसा को हटाने से इसे बेहतर तरीके से संरक्षित करने में मदद मिलती है। यह अंगों के आकार को इस हद तक कम करने में भी मदद करता है कि सूखा हुआ शरीर अपघटन का विरोध करता है। शरीर के पास एक निरोधक के साथ -मोमबत्तियां जलाई जाती है ताकि इसे धीरे-धीरे सूखने में मदद मिल सके। शरीर में नमी को खत्म करने और मांस को हड्डी पर संरक्षित करने के लिए एक विशेष आहार भी दिया जाता है। मृत्यु के बाद, भिक्षु को सावधानी से एक भूमिगत कमरे में रखा जाता है । समय के साथ, भौतिक रूप सचमुच प्रार्थना में एक मूर्ति बन जाता है। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से तीस से भी कम स्व-ममीकृत भिक्षु दुनिया भर में पाए गए हैं। उनमें से अधिकांश जापान के एक द्वीप उत्तरी होंशू में पाए गए हैं। यहां भी भिक्षु भी प्राकृतिक ममीकरण की इस प्रथा का पालन करते हैं। संघा तेनज़िन के शरीर में अवशिष्ट नाइट्रोजन (लंबे समय तक भुखमरी का संकेत) के उच्च स्तर से पता चलता है कि उन्होंने खुद को ममी बनाने के लिए इस प्रक्रिया का पालन किया था। दांत और बाल अभी भी संरक्षित : इस ममी के दांत और बाल अभी भी अच्छी तरह से संरक्षित हैं। इस मम्मी को एक छोटे से कमरे में एक कांच के बाड़े में रखा गया है, जो एक लोकप्रिय गोम्पा के करीब स्थित है। इसकी सुरक्षा के लिए इस मम्मी को एक कमरे में रखा गया है। पर्टयक खिड़की के माध्यम से उसकी एक झलक देख सकते है। इस कमरे को केवल महत्वपूर्ण त्योहारों के दौरान खोला जाता है। ग्यू आधुनिकरण से अछूता एक शांत स्थान है। संघा तेंजिन की ममी आज एक मंदिर में विराजमान है, उसका मुँह खुला है, उसके दाँत दिखाई दे रहे हैं और आँखें खोखली हैं। वसा और नमी से रहित, यह जीवित बुद्ध का प्रतीक माना जाता है। मान्यता : गाँव के अस्तित्व के लिए दिया बलिदान मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि संघा तेंजिन ने गाँव के अस्तित्व के लिए खुद को बलिदान कर दिया था। कहानी यह है कि उन्होंने अपने अनुयायियों से विनाशकारी बिच्छू के संक्रमण के बाद खुद को ममीकृत करने के लिए कहा। जब उनकी आत्मा ने उनके शरीर को छोड़ दिया, तो ऐसा माना जाता है कि क्षितिज पर एक इंद्रधनुष दिखाई दिया जिसके बाद बिच्छू गायब हो गए और प्लेग समाप्त हो गया। सिर्फ 100 लोग बस्ते है इस गांव में : गयू नाम एक बेहद शांतिपूर्ण और सुंदर गाँव है। इस गांव में लगभग 100 लोग हैं। यहाँ के निवासी अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए दूर-दूर के स्थानों तक पैदल यात्रा करते हैं। इस गांव की दुरी काज़ा र से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है। जबकि शिमला से लगभग 430 किमी और मनाली से कुंजुम दर्रे के माध्यम से इस की दुरी लगभग 250 किमी है। इस घाटी में पहुंचने के लिए सबसे अच्छा तरीका निजी परिवहन है। यहां आने का सबसे सही समय गर्मियों के दौरान का है।
बांका हिमाचल : हर ज़िले की विशेष धाम, विशिष्ट जायका अपनी खानपान की कला व संस्कृति को संजोए हिमाचल प्रदेश में आज भी पारंपरिक खाने को अहमियत दी जाती है। हिमाचली धाम विश्वभर में मशहूर है। हिमाचल में जब कोई शादी या अन्य सुबह कार्य किया जाता हैं तो महमानों के लिए तरह - तरह के पकवान बनाये जाते है, जिन्हें आम भाषा में धाम कहा जाता है। शादियों में बनने वाली धाम का स्वाद उस फाइव स्टार होटल के स्वाद को भी फेल कर देता है जो लोग हजारों रुपये देकर खाते हैं। बहुत से लोग जब हिमाचल में आते हैं तो यहाँ की बनी हिमाचली धाम का जायका लेना नहीं भूलते। हिमाचल प्रदेश में 12 जिले हैं और लगभग सभी जिलों में आज भी शाकाहारी पारंपरिक हिमाचली धाम को बनाया जाता है। जिला किन्नौर ही केवल एक मात्र ऐसा जिला है जहाँ धाम में मांसाहारी खाना बनाया जाता है। इस जिले में मांस और शराब का बहुत चलन है। हिमाचल प्रदेश में धाम की परम्परा सदियों से चली आ रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी पारंपरिक ढंग से धाम पकती है। हिमाचली धाम हिमाचल प्रदेश के हर क्षेत्र में अलग-अलग तरह की होती है। कांगड़ा की धाम कांगड़ा की धाम हिमाचल की तमाम धामों में शुमार है। काँगड़ा की धाम बेहद लोकप्रिय मानी जाती है। कांगड़ी धाम की विशेष बात ये है कि ज्यादातर धाम में परोसे जाने वाले व्यंजन, दही के साथ तैयार किए जाते हैं। कांगड़ी धाम केवल बोटीयों द्वारा पकाई जाती है। इस विस्तृत भोजन की तैयारी रात से पहले शुरू होती है। खाना पकाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तन आम तौर पर पीतल वाले होते हैं जिसे कांगड़ी भाषा में चरोटी या बलटोई भी कहा जाता है। कांगड़ी धाम की एक विशेष बात ये भी है कि धाम में परोसे जाने वाले खाने को लोग ज़मीन पर बैठ कर खाते हैं। कांगड़ी धाम को पत्तो की प्लेटों पर दिया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में पतलू कहा जाता है। इस धाम में ख़ास व्यंजनों की सूची में चने की दाल, माह उड़द साबुत, मदरा, दही चना, खट्टा चने अमचूर, पनीर मटर, राजमा, सब्जी में जिमीकंद, कचालू, अरबी, मीठे में ज्यादातर बेसन की रेडीमेड बूंदी, बदाणा या रंगीन चावल भी परोसे जाते हैं। यहां चावल के साथ पूरी भी परोसी जाती है। मंडी की धाम मंडयाली धाम अपने आप में एक अनूठा आहार है। इसे परोसने का तरीका भी अनोखी है इसे हरी पत्तलों पर परोसा जाता है। मंडयाली धाम की खास बात ये भी है कि इसे हिमाचल के लोग चम्मच से नहीं, बल्कि हाथ से खाते हैं। उनका कहना है कि हाथ से धाम खाने का जो लाभ शरीर को मिलता है, वह प्लास्टिक से बनी प्लेटों और चम्मच से खाने से नहीं मिलता। मंडयाली धाम में सबसे पहले बूंदी मीठा परोसा जाता है। इसे लोकल बोली में बदाणा कहा जाता है। छोटी काशी मंडी क्षेत्र के खाने की खासियत है सेपू बड़ी जो बनती है बड़ी मेहनत से और खाई भी बड़े चाव से जाती है। सेपू बड़ी के साथ कद्दू खट्टा, कोल का खट्टा, दाल और झोल परोसा जाता है। इसे टौर के हरे पत्ते से बनी पत्तलों पर परोसा जाता है। शिमला की धाम प्रदेश की राजधानी शिमला में सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला व्यंजन है सिड्डू। आम तौर पर इसे देसी घी, दाल और चटनी के साथ परोसा जाता है। सिड्डू के साथ बबरु भी सभी शुभ त्योहारों और अवसरों पर तैयार किया जाता है। बबरू शिमला में पाए जाने वाले सबसे प्रसिद्ध हिमाचली भोजन में से एक है। यह उत्तर भारत के प्रसिद्ध कचौड़ी का एक संस्करण है। सिड्डू ,बबरू पोलडू ,माह उड़द की दाल, चने की दाल, छोटे गुलाब जामुन जैसे व्यंजन शिमला की थाली का हिस्सा हैं। चंबा की धाम वैसे तो हर जिले की अपनी धाम है, लेकिन चंबा जिला में बनने वाली धाम की बात ही कुछ और है। इस धाम की शान है राजमा से बनने वाला मदरा। प्रदेश की सभी धामों में मदरा बनाया जाता है; चने का मदरा, आलू का मदरा और बूंदी का मदरा, लेकिन चंबयाली धाम का मदरा सबसे ज्यादा मशहूर है। जिला चंबा में शादी और अन्य समारोह में लोगों को जो लजीज व्यंजन परोसे जाते हैं उसमें दो तरह के मदरे होते हैं। पहला आलू वाला जो कि मीठा होता है। वहीं, दूसरा मदरा होता है राजमा का जो कि नमकीन होता है, जिसे लोग काफी पसंद करते हैं। चंबा में धाम परोसने के वक्त दोने भी पतल का साथ देते हैं। यहां चावल, मूंग साबुत, मदरा, माह, कढ़ी, मीठे चावल, खट्टा, मोटी सेवेइयां खाने का हिस्सा हैं। यहां मदरा हेड बोटी, यानी खाना बनाने वाली टीम का मुखिया डालता है। किसी जमाने में बोटी पूरा अनुशासन बनाए रखते थे और खाना-पीना बांटने का सारा काम बोटी ही करते थे। एक पंगत से उठ कर दूसरी पंगत में बैठ नहीं सकते थे। खाने का सत्र पूरा होने से पहले उठ नहीं सकते थे। मगर समय के साथ अब काफी ज़्यादा बदलाव आया है। हमीरपुर की धाम- हमीरपुर की धाम में दालें ज्यादा परोसी जाती हैं। ऐसा कहा जाता है कि हमीरपुर में पैसे वाला मेजबान दालों की संख्या बढ़ा देता है। हमीरपुर में मीठे में पेठा ज्यादा पसंद किया जाता है मगर बदाणा व कद्का मीठा भी बनता है। राजमा या आलू का मदरा, चने का खट्टा वकढ़ी प्रचलित है। ऊना की धाम ऊना जिले के कुछ क्षेत्रों में सामूहिक भोज को धाम कहते हैं। पहले ऊना में शादी के शुभावसर पर मामा की तरफ से धाम दी जाती थी। यहां पतलों के साथ दोने भी दिए जाते हैं ,विशेषकर शक्कर या बूरा परोसने के लिए। यहां चावल, दाल चना, राजमा, दाल माश खिलाए जाते हैं। हिमाचली इलाका ऊना कभी पंजाब से हिमाचल में आया था तो यहां पंजाबी खाने-पीने का अधिक असर है। बिलासपुर की धाम बिलासपुर क्षेत्र में उड़द की धुली दाल, उड़द, काले चने खट्टे, तरी वाले फ्राई आलू या पालक में बने कचालू, रौंगी ,लोबिया, मीठा बदाणा या कद्दू या घिया के मीठे का नियमित प्रचलन है। समृद्ध परिवारों ने खाने में सादे चावल की जगह बासमती, मटर पनीर व सलाद भी खिलाना शुरू किया है। कुल्लू की धाम कुल्लू का खाना मंडीनुमा है। यहां मीठा,बदाणा या कद्दू, आलू या कचालू खट्टे,दाल राजमा, उड़दया उड़द की धुली दाल, लोबिया, सेपूबड़ी, लंबे पकौड़ों वाली कढ़ी व आखिर में मीठे चावल खिलाए जाते हैं। सोलन की धाम सोलन के बाघल, अर्की तक बिलासपुरी धाम का रिवाज है। उस क्षेत्र से इधर एकदम बदलाव दिखता है। हलवा-पूरी, पटांडे खूब खाए खिलाए जाते हैं। सब्जियों में आलू-गोभी या मौसमी सब्जी होती है। मिक्स दाल और चावल आदि भी परोसे जाते हैं। यहां खाना धोती पहन कर भी नहीं परोसा जाता है। कित्रौर की धाम हिमाचल में सबसे अलग धाम किन्नौर की मानी जाती है क्योंकि यहां पर कई सालों से मांसाहारी भोजन भी धाम में परोसा जाता है। किन्नौर की दावत में शराब व मांस का होना हर उत्सव में लाज़मी है। इसलिए यहां बकरा कटता ही है। खाने में चावल, पूरी, हलवा, सब्जी जो उपलब्ध हो बनाई जाती है। यहाँ सुतरले, सनपोले जलेबी जैसा व्यंजन, काओनी नमकीन बर्फी त्योहार का विशेष व्यंजन है। किन्नौर में 'छांग देशी शराब है जो हांगरांग घाटी में मुख्यत पी जाती है। लाहौल स्पीति की धाम लाहौल-स्पीति का माहौल आज भी ज्यादा नहीं बदला। वहां तीन बार मुख्य खाना दिया जाता है। चावल, दाल चना, राजमा, सफेद चना, गोभी आलू मटर की सब्जी और एक समय भेडू, नर भेड़ का मीट कभी फ्रायड मीट या कलिचले। सादा रोटी या पूरी भटूरे भी परोसे जाते हैं। परोसने के लिए कांसे की थाली, शीशे या स्टील का गिलास व तरल खाद्य के लिए तीन तरह के प्याले इस्तेमाल होते हैं। नमकीन चाय, सादी चाय व सूप तीनों के लिए अलग से गिलास इस्तेमाल किये जाते है। इसके अलावा अकतोरी यहाँ की एक फेस्टिव डिश है और इसे केक के रूप में बनाया जाता है। अकतोरी हिमाचल प्रदेश के सबसे पसंदीदा व्यंजनों में से एक है। यह व्यंजन स्पीति घाटी में उत्पन्न हुआ और पूरे राज्य में लोगों द्वारा पसंद किया जाता है। सिरमौर की धाम - सिरमौर के एक भाग हरियाणा व साथ-साथ उत्तराखंड लगता है। इसलिए यहां के मुख्य शहरी क्षेत्रों में सिरमौर का पारंपरिक खाना सार्वजनिक उत्सवों व विवाहों में तो गायब ही रहता है। भीतरी ग्रामीण इलाकों में चावल, माह की दाल, पूछे, जलेबी, हलवा या फिर शक्कर दी जाती है। इस बदलाव के जमाने में जहां हमने अपनी कितनी ही सांस्कृतिक परंपराओं को भुला दिया है। वहीं हिमाचली खानपान की समृद्ध परंपरा बिगड़ते छूटते भी काफी हद तक बरकरार है। .......................................................................................................................................... प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कांगड़ी धाम के काफी मुरीद हैं, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हिमाचली धाम के मुरीद है, वो कई जनसभाओं में इस बात का जिक्र कर चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिमाचल भाजपा के प्रभारी रह चुके हैं और वे हिमाचल को अपना दूसरा घर मानते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज भी हिमाचल में परोसे जाने वाले व्यंजनों को नहीं भूले है जिनमें से एक मंडयाली धाम में परोसे जाने वाली सेपू बड़ी भी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भी हिमाचल प्रदेश में आते है तो उनके लिए खासतौर पर हिमाचली व्यंजन तैयार किए जाते है। खास हिमाचली व्यंजनों से तैयार की जाने वाली थाली में प्रधानमंत्री को मंडयाली धाम में परोसी जाने वाली सेपू बड़ी के साथ कांगड़ा की कड़ी, चंबा के राजमा का मदरा, कुल्लू की गुच्छी का मदरा सहित विभिन्न प्रकार के व्यंजन परोसे जाते है। एचपीटीडीसी के होटलों में परोसी जाती है हिमाचली धाम कोरोना के कारण पर्यटन कारोबार पर सबसे ज़्यादा प्रभाव पड़ा था। एचपीटीडीसी के होटलों और कैफे को नुकसान से उभारने के लिए हिमाचली थाली और पहाड़ी सिड्डू की टेक अवे सर्विस शुरू की गयी है। हिमाचल प्रदेश में पर्यटन विकास निगम के 53 होटलों और 17 कैफे में यह सुविधा दी गयी है। हिमाचली धाम में ग्राहकों को परंपरागत कांगड़ी, मंडियाली, चंबियाली, बिलासपुरी धाम में मदरा, बदाणा, माहणी, कद्दू का मीठा, कढ़ी, सेपू बड़ी जैसे लजीज व्यंजन परोसे जाते है। हिमाचली धाम के लिए ग्राहकों को महज 180 रुपये चुकाने होते है। बोटी यानी हिमाचली धाम के कुक हिमाचली धाम के अस्तित्व को बनाए रखने का श्रेय यहां के बोटियों को दिया जाता है जो पीढ़ी- दर- पीढ़ी इस पेशे से जुड़े हुए हैं। हिमाचल के विवाह उत्सव हों अथवा रिटायरमेंट, किसी का जन्मदिन अथवा चौथा श्राद्ध, लोग पूरे गांव को धाम को चखने का मौका देते हैं। मुख्य बोटी सहायक बोटियों की बालटियों में सब्जी डालता है। वे आगे जाकर धोती पहनकर टाट पट्टी पर बैठे लोगों को पत्तल पर खाना परोसते हैं। विवाहों के मौसम में धाम बनाने व परोसने वाले बोटियों (रसोइयों) की टीमें बहुत व्यस्त रहती हैं। इसलिए बोटी को पहले ही साई या बुकिंग दे दी जाती है। वह सामान की लिस्ट और भटी में बनने वाले सारे व्यंजनों का चुनाव कर लिया जाता है। जिला बिलासपुर में तो कई दशकों से रामू दयाराम, छज्जू व प्रीत लाल, प्रेम लाल व नंद बोटी धाम बनाने के लिए बहुत मशहूर है। नंद बोटी और उसकी टीम तो दूर दूर खाना बनाने जाते हैं।
देवभूमि हिमाचल के जिला सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र की करीब सवा सौ पंचायतों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। ये पर्व दिवाली के एक माह बाद अमावस्या को पारंपरिक तरीके के साथ मनाया जाता है। यहां इसे ‘मशराली’ के नाम से जाना जाता है। गिरिपार के अतिरिक्त शिमला जिला के कुछ गांव, उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र एवं कुल्लू जिला के निरमंड में भी बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। दरअसल, गिरिपार क्षेत्र में किवदंती है कि यहां भगवान श्री राम के अयोध्या पहुंचने की खबर एक महीना देरी से मिली थी। इसके चलते यहाँ के लोग एक महीना बाद दिवाली का पर्व मनाते है जिसे आम भाषा में बूढी दिवाली कहा जाता हैं। हालांकि यहाँ मुख्य दिवाली भी धूमधाम से मनाया जाती है। इन क्षेत्रों में बलिराज के दहन की प्रथा भी है। विशेषकर कौरव वंशज के लोगों द्वारा अमावस्या की आधी रात में पूरे गांव की मशाल के साथ परिक्रमा करके एक भव्य जुलूस निकाला जाता है और बाद में गांव के सामूहिक स्थल पर एकत्रित घास, फूस तथा मक्की के टांडे में अग्नि देकर बलिराज दहन की परंपरा निभाई जाती है। वहीँ पांडव वंशज के लोग ब्रह्म मुहूर्त में बलिराज का दहन करते हैं। मान्यता है कि अमावस्या की रात को मशाल जुलूस निकालने से क्षेत्र में नकारात्मक शक्तियों का प्रवेश नहीं होता और गांव में समृद्धि के द्वार खुलते है। बनते है विशेष व्यंजन, नृृत्य करके होता है जश्न: बूढ़ी दिवाली के उपलक्ष्य पर ग्रामीण पारंपरिक व्यंजन बनाने के अतिरिक्त आपस में सूखे व्यंजन मूड़ा, चिड़वा, शाकुली, अखरोट वितरित करके दिवाली की शुभकामनाएं देते हैं। दिवाली के दिन उड़द भिगोकर, पीसकर, नमक मसाले मिलाकर आटे के गोले के बीच भरकर पहले तवे पर रोटी की तरह सेंका जाता है फिर सरसों के तेल में फ्राई कर देसी घी के साथ खाया जाता है। इसके बाद 4 से 5 दिनों तक नाच गाना और दावतों का दौर चलता है। परिवारों में औरतें विशेष तरह के पारंपरिक व्यंजन तैयार करती हैं। सिर्फ बूढ़ी दिवाली के अवसर पर बनाए जाने वाले गेहूं की नमकीन यानी मूड़ा और पापड़ सभी अतिथियों को विशेष तौर पर परोसा जाता है। इसके अतिरिक्त स्थानीय ग्रामीण द्वारा हारूल गीतों की ताल पर लोक नृत्य होता है। ग्रामीण इस त्यौहार पर अपनी बेटियों और बहनों को विशेष रूप से आमंत्रित करते हैं। ग्रामीण परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ साथ हुड़क नृृत्य करके जश्न मनाते हैं। कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है जबकि कुछ गांव में अर्ध रात्रि के समय एक समुदाय के लोगों द्वारा बुड़ियात नृत्य करके देव परंपरा को निभाया जाता है। क्यों मनाते हैं एक माह बाद दिवाली ! दिवाली मनाने के बाद पहाड़ में बूढ़ी दीवाली मनाने के पीछे लोगों के अपने अपने तर्क हैं। जनजाति क्षेत्र के बड़े-बुजुर्गों की माने तो पहाड़ के सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की सूचना देर से मिलने के कारण लोग एक माह बाद पहाड़ी बूढ़ी दिवाली मनाते हैं। वहीं कुछ लोगों का मत है कि दिवाली के वक्त लोग खेतीबाड़ी के कामकाज में बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं जिस कारण वह इसके ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली का जश्न परंपरागत तरीके से मनाते हैं। वहीं, कुछ बुजुर्गों की मानें तो, जब जौनसार व जौनपुर क्षेत्र सिरमौर राजा के अधीन था, तो उस समय राजा की पुत्री दिवाली के दिन मर गई थी। इसके चलते पूरे राज्य में एक माह का शोक मनाया गया था. उसके ठीक एक माह बाद लोगों ने उसी दिन दिवाली मनाई। इस दौरान पहले दिन छोटी दिवाली, दूसरे दिन रणदयाला, तीसरे दिन बड़ी दिवाली, चौथे दिन बिरुड़ी व पांचवें दिन जंदौई मेले के साथ दीवाली पर्व का समापन होता है।
बांका हिमाचल: अंग्रेज सरकार दा टिघा पर ध्याड़ा - पहाड़ी गाँधी ने जलाई थी पहाड़ों में आजादी की अलख ये वो दौर था जब हिंदुस्तान के हर कोने में आजादी के लिए नारे लग रहे थे। क्रांतिकारी देश को आज़ाद करवाने के लिए हर संभव प्रत्यन कर रह थे। पुरे मुल्क में हजरत मोहनी का लिखा गया नारा 'इंकलाब जिंदाबाद' क्रांति की आवाज बन चूका था। उसी दौर में हिमाचल की शांत पहाड़ियों में एक व्यक्ति पहाड़ी भाषा और लहजे में क्रांति की अलख जगा रहा था। वो गांव-गांव घूमकर अपने लिखे लोकगीतों व कविताओं से आम जन को आजादी के आंदोलन से जोड़ रहा था। नाम था कांशी राम, वहीँ काशी राम जिन्हे पंडित नेहरू ने बाद में पहाड़ी गाँधी का नाम दिया। वहीँ बाबा काशी राम जो 11 बार जेल गए और अपने जीवन के 9 साल सलाखों के पीछे काटे। वहीँ बाबा कशी राम जिन्हें सरोजनी नायडू ने बुलबुल-ए-पहाड़ कहकर बुलाया था। और वहीँ बाबा काशी राम जिन्होंने कसम खाई कि जब तक मुल्क आज़ाद नहीं हो जाता, वो काले कपड़े पहनेंगे। 15 अक्टूबर 1943 को अपनी आखिरी सांसें लेते हुए भी कांशी राम के बदन पर काले कपड़े थे और मरने के बाद उनका कफ़न भी काले कपड़े का ही था। ‘अंग्रेज सरकार दा टिघा पर ध्याड़ा’ यानी अंग्रेज सरकार का सूर्यास्त होने वाला है, जैसी कई कवितायेँ लिख पहाड़ी गाँधी ने ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया था। काम के गए थे लाहौर पर क्रांतिकारी बन गए : 11 जुलाई 1882 को लखनू राम और रेवती देवी के घर पैदा हुए कांशीराम की शादी 7 साल की उम्र में हो गई थी। उस वक्त पत्नी सरस्वती की उम्र महज 5 साल थी। जब कांशीराम 11 साल के ही हुए तो उनके पिता की मौत हो गई। परिवार की पूरी जिम्मेदारी उनके सिर पर आ गई थी। काम की तलाश में वो लाहौर चले गए। यहां कांशी ने काम ढूंढा, मगर उस वक्त आजादी का आंदोलन तेज हो चुका था और कांशीराम के दिल दिमाग में आजादी के नारे गूंजने लगे। यहां वो दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों से मिले इनमें लाला हरदयाल, भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह और मौलवी बरक़त अली शामिल थे। संगीत और साहित्य के शौकीन कांशीराम की मुलाकात यहां उस वक्त के मशहूर देश भक्ति गीत ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ लिखने वाले सूफी अंबा प्रसाद और लाल चंद ‘फलक’ से भी हुई, जिसके बाद कांशीराम का पूरा ध्यान आजादी का लड़ाई में रम गया। साल 1905 में कांगड़ा घाटी में आये भूकंप में करीब 20 हजार लोगों की जान गई और 50,000 मवेशी मारे गए। तब लाला लाजपत राय की कांग्रेस कार्यकर्ताओं की एक टीम लाहौर से कांगड़ा पहुंची जिसमें बाबा कांशीराम भी शामिल थे। उनकी ‘उजड़ी कांगड़े देश जाना’ कविता आज भी सुनी जाती है। 1919 में जब जालियांवाला बाग हत्याकांड हुआ, बाबा कांशीराम उस वक्त अमृतसर में थे। इस क्रूर घटना ने बाबा कांशीराम को बहुत आहत किया। वो कभी ढोलक तो कभी मंजीरा लेकर गांव-गांव जाते और अपने देशभक्ति के गाने और कविताएं गाते थे, पर जो काम उन्होंने काम किया उस हिसाब से उन्हें सम्मान नहीं मिल पाया। बाबा कांशी राम ने अपनी ज़मीन गिरवी रख दी थी ताकि घर का पालन पोषण हो सके क्यों कि वे कमाते नहीं थे, उनका पूरा समय स्वतंत्र भारत के लिए संघर्ष में व्यतीत होता था। उनके पास एक मकान, एक गौशाला और दो दुकानें थी जो वे गिरवी रख चुके थे। शुरूआती दौर में उन्होंने अपने ताया के पास भी नौकरी की। मगर आज़ादी के लिए जूनून ने सब कुछ छुड़वा दिया। काले कपड़े पहनने का लिया प्रण: 1931 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी मिलने के बाद उन्होंने प्रण लिया कि जब तक मुल्क आज़ाद नहीं हो जाता, तब तक वो काले कपड़े पहनेंगे। उन्हें ‘स्याहपोश जरनैल’ भी कहा गया। उनकी क्रन्तिकारी कविताओं के लिए अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें कई बार पीटा, कई यातनाएं दी मगर वो लिखते रहे। वर्ष 1937 में जवाहर लाल नेहरू ने होशियारपुर के गद्दीवाला में एक सभा को संबोधित करते हुए बाबा कांशीराम को पहाड़ी गांधी कहकर संबोधित किया था, जिसके बाद से कांशी राम को पहाड़ी गांधी के नाम से ही जाना गया। अब भी रखे है बाबा का चरखा और चारपाई : बाबा कांशी राम के पैतृक घर को स्मारक बनाने की मांग काफी पुरानी है। उनके पुराने घर में अब भी उनकी कई पुरानी चीज़ें रखी है, जैसे उनका चरखा, उस समय की चारपाई, खपरैल और उनके द्वारा इस्तेमाल किया अन्य सामान। इन धरोहरों को संजो के रखना बेहद महत्वपूर्ण है। इंदिरा गांधी ने जारी किया था डाक टिकट : 23 अप्रैल 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कांगड़ा के ज्वालामुखी में बाबा कांशीराम पर एक डाक टिकट जारी किया था। तब सांसद नारायण चंद पराशर ने बाबा को सम्मान दिलवाने के लिए संसद में बहस की और तमाम सबूत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सौंपे। इसके बाद 1984 में प्रसिद्ध शक्तिपीठ ज्वालामुखी में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बाबा के नाम का डाक टिकट जारी किया। कई सालों से नहीं दिया गया पहाड़ी बाबा गांधी पुरस्कार : बाबा कांशीराम के नाम पर हिमाचल प्रदेश से आने वाले कवियों और लेखकों को अवॉर्ड देने की भी शुरुआत हुई थी, पर पिछले कुछ सालों से ये अवार्ड नहीं दिया जा रहा है। पूर्व सांसद हेमराज सूद के प्रयासों से वर्ष 1981 में हिमाचल प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी हिमाचल प्रदेश ने पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम जयंती का आयोजन शुरू किया और पहाड़ी साहित्य के लिए बाबा कांशी राम पुरस्कार योजना शुरू की। पहाड़ी गजल को नई पहचान देने वाले डॉ. प्रेम भारद्वाज को उनके पहाड़ी काव्य ‘मौसम खराब है’ के लिए पहली बार यह पुरस्कार मिला था। अब बीते कुछ सालों से ये सम्मान नहीं दिया जा रहा है। 508 में से 64 कविताएं छपी हैं, बाकी संदूकों में धूल खा रही : राष्ट्रीय स्तर पर चमकेगा पहाड़ी के रचनाकार का घर पहाड़ी भाषा में क्रांति का बिगुल फूंकने वाले बाबा कांशीराम ने ‘अंग्रेजी सरकारा दे ढिगा पर ध्याड़े’, ‘समाज नी रोया’, ‘निक्के -निक्के माहणुआ जो दुख बड़ा भारी’, ‘उजड़ी कांगड़े देस जाणा’, ‘पहाड़ी सरगम’, ‘कुनाळे दी कहाणी’ ‘क्रांति नाने दी कहाणी कांसी दी जुबानी’ सहित कई क्रन्तिकारी रचनाओं से लोगों को आजादी के जूनून से लबरेज कर दिया था। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘अंग्रेज सरकार दा टिघा पर ध्याड़ा’ (अंग्रेज सरकार का सूर्यास्त होने वाला है) के लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया था मगर राजद्रोह का मामला जब साबित नहीं हुआ तो रिहा कर दिया गया। अपनी क्रांतिकारी कविताओं के चलते उन्हें 1930 से 1942 के बीच 9 बार जेल जाना पड़ा। हैरत की बात ये है कि रिकार्ड्स के मुताबिक बाब कांशी राम ने 508 कविताएं लिखी जिनमें से सिर्फ 64 कविताएं ही छपी हैं, बाकी संदूकों में पड़ी धूल खा रही हैं।
देवभूमि हिमाचल के जिला सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र की करीब सवा सौ पंचायतों में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। ये पर्व दिवाली के एक माह बाद अमावस्या को पारंपरिक तरीके के साथ मनाया जाता है। यहां इसे ‘मशराली’ के नाम से जाना जाता है। गिरिपार के अतिरिक्त शिमला जिला के कुछ गांव, उत्तराखंड के जौनसार क्षेत्र एवं कुल्लू जिला के निरमंड में भी बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। दरअसल, गिरिपार क्षेत्र में किवदंती है कि यहां भगवान श्री राम के अयोध्या पहुंचने की खबर एक महीना देरी से मिली थी। इसके चलते यहाँ के लोग एक महीना बाद दिवाली का पर्व मनाते है जिसे आम भाषा में बूढी दिवाली कहा जाता हैं। हालांकि यहाँ मुख्य दिवाली भी धूमधाम से मनाया जाती है। इन क्षेत्रों में बलिराज के दहन की प्रथा भी है। विशेषकर कौरव वंशज के लोगों द्वारा अमावस्या की आधी रात में पूरे गांव की मशाल के साथ परिक्रमा करके एक भव्य जुलूस निकाला जाता है और बाद में गांव के सामूहिक स्थल पर एकत्रित घास, फूस तथा मक्की के टांडे में अग्नि देकर बलिराज दहन की परंपरा निभाई जाती है। वहीँ पांडव वंशज के लोग ब्रह्म मुहूर्त में बलिराज का दहन करते हैं। मान्यता है कि अमावस्या की रात को मशाल जुलूस निकालने से क्षेत्र में नकारात्मक शक्तियों का प्रवेश नहीं होता और गांव में समृद्धि के द्वार खुलते है। बनते है विशेष व्यंजन, नृृत्य करके होता है जश्न: बूढ़ी दिवाली के उपलक्ष्य पर ग्रामीण पारंपरिक व्यंजन बनाने के अतिरिक्त आपस में सूखे व्यंजन मूड़ा, चिड़वा, शाकुली, अखरोट वितरित करके दिवाली की शुभकामनाएं देते हैं। दिवाली के दिन उड़द भिगोकर, पीसकर, नमक मसाले मिलाकर आटे के गोले के बीच भरकर पहले तवे पर रोटी की तरह सेंका जाता है फिर सरसों के तेल में फ्राई कर देसी घी के साथ खाया जाता है। इसके बाद 4 से 5 दिनों तक नाच गाना और दावतों का दौर चलता है। परिवारों में औरतें विशेष तरह के पारंपरिक व्यंजन तैयार करती हैं। सिर्फ बूढ़ी दिवाली के अवसर पर बनाए जाने वाले गेहूं की नमकीन यानी मूड़ा और पापड़ सभी अतिथियों को विशेष तौर पर परोसा जाता है। इसके अतिरिक्त स्थानीय ग्रामीण द्वारा हारूल गीतों की ताल पर लोक नृत्य होता है। ग्रामीण इस त्यौहार पर अपनी बेटियों और बहनों को विशेष रूप से आमंत्रित करते हैं। ग्रामीण परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ साथ हुड़क नृृत्य करके जश्न मनाते हैं। कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्यौहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है जबकि कुछ गांव में अर्ध रात्रि के समय एक समुदाय के लोगों द्वारा बुड़ियात नृत्य करके देव परंपरा को निभाया जाता है। क्यों मनाते हैं एक माह बाद दिवाली ! दिवाली मनाने के बाद पहाड़ में बूढ़ी दीवाली मनाने के पीछे लोगों के अपने अपने तर्क हैं। जनजाति क्षेत्र के बड़े-बुजुर्गों की माने तो पहाड़ के सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाकों में भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की सूचना देर से मिलने के कारण लोग एक माह बाद पहाड़ी बूढ़ी दिवाली मनाते हैं। वहीं कुछ लोगों का मत है कि दिवाली के वक्त लोग खेतीबाड़ी के कामकाज में बहुत ज्यादा व्यस्त रहते हैं जिस कारण वह इसके ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली का जश्न परंपरागत तरीके से मनाते हैं। वहीं, कुछ बुजुर्गों की मानें तो, जब जौनसार व जौनपुर क्षेत्र सिरमौर राजा के अधीन था, तो उस समय राजा की पुत्री दिवाली के दिन मर गई थी। इसके चलते पूरे राज्य में एक माह का शोक मनाया गया था. उसके ठीक एक माह बाद लोगों ने उसी दिन दिवाली मनाई। इस दौरान पहले दिन छोटी दिवाली, दूसरे दिन रणदयाला, तीसरे दिन बड़ी दिवाली, चौथे दिन बिरुड़ी व पांचवें दिन जंदौई मेले के साथ दीवाली पर्व का समापन होता है।
बॉलीवुड में जगमगाते सितारे बॉलीवुड और हिमाचल का पुराना नाता है। बड़े - बड़े अभिनेता हिमाचल की हसीं वादियों में अपनी फिल्म की शूटिंग के लिए तो आते ही है मगर ऐसे कई लोग है जो हिमाचल के छोटे- छोटे शहरों से निकल कर मुंबई गए और बॉलीवुड के बड़े सितारे बन गए। दिग्गज बॉलीवुड अभिनेता अनुपम खेर, कंगना रनौत, प्रीति ज़िंटा, टिस्का चोपड़ा और यामी गौतम जैसे बॉलीवुड के कई बड़े सितारे हिमाचल से सम्बन्ध रखते है। हिमाचल के छोटे शहरों से होने के बावजूद बी टाउन में अपनी धाक बना कर इन सभी सितारों ने हिमाचल का नाम रोशन किया है। अनुपम खेर बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता अनुपम खेर का जन्म शिमला में हुआ था। इनके पिता पुष्कर नाथ एक कश्मीरी पंडित थे, वे पेशे से क्लर्क थे। अनुपम ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत 1982 में 'आगमन' नामक फिल्म से की थी, लेकिन 1984 में आई 'सारांश' उनकी पहली हिट फिल्म मानी जाती है। इन्होंने स्पेशल 26, द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर, ए वेडनसडे, दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे, कुछ कुछ होता है, हम, और कश्मीर फाइल्स सहित कई शानदार फिल्में दी है। प्रीति जिंटा लाखो दिलों की धड़कन डिंपल गर्ल यानि प्रीति जिंटा हिंदी सिनेमा की जानी-मानी अभिनेत्रियों में से एक हैं। हिमाचल प्रदेश के शिमला में जन्मी एक्ट्रेस हिन्दी, तेलगू, पंजाबी व अंग्रेजी फिल्मों में कार्य कर चुकी है। शुरुआत में प्रीति ने मॉडलिंग में अपनी किस्मत आजमाई। फिल्म 'दिल से' में प्रीती सहायक अभिनेत्री के तौर पर नजर आयीं थी। उनकी बतौर मुख्य नायिका फिल्म 'सोल्जर' थी। कंगना रनौत कंगना रनौत ने बॉलीवुड में लंबे संघर्ष के बाद कामयाबी हासिल की है। हिमाचल के भाम्बला में जन्मी कंगना के करियर की शुरुआत मॉडलिंग और थियेटर से हुई थी। उनके फिल्मी करियर की शुरूआत फिल्म 'गैंगस्टर' से हुई। इस फिल्म के लिए उन्हें फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ नवोदित अभिनेत्री का पुरस्कार मिला। उन्होंने 'वो लम्हें', 'लाइफ इन अ मेट्रो', 'फैशन', 'थलाईवी', 'तन्नू वेड्स मन्नू' और 'क्वीन' जैसी फिल्मों में उन्होंने जबरदस्त अदाकारी की है। टिस्का चोपड़ा टिस्का चोपड़ा बॉलीवुड में अपने दमदार अभिनय के लिए जानी जाती हैं। 'तारे जमीन पर', 'दिल तो बच्चा है जी' और 'अंकुर अरोड़ा मर्डर केस' जैसी फिल्मों में नजर आ चुकीं अदाकारा टिस्का चोपड़ा का जन्म हिमाचल प्रदेश के कसौली में हुआ। उन्होंने अपने कॅरियर की शुरुआत अजय देवगन के साथ 'प्लेटफॉर्म' (1993) नामक फिल्म से की थी। टिस्का ने टेलीविजन पर कई शार्ट फिल्मों और सीरियल में काम किया है। यामी गौतम : यामी गौतम हिमाचल के बिलासपुर में पैदा हुई थी। बाद में परिवार के साथ चंडीगढ़ चली आईं। पिता मुकेश गौतम पंजाबी फिल्मों के डायरेक्टर थे। उनकी बड़ी बहन सुरीली भी पंजाबी फिल्मों की एक्ट्रेस बन गईं। ऐसे में जो यामी बचपन से आईएएस बनना चाहती थी, वो भी इस फिल्मी माहौल से बच नहीं पाईं और मुंबई चली आई। दो टीवी सीरियल में काम मिला- ‘चांद के पार चलो’ और ‘ये प्यार ना होगा कम’। कुछ साउथ की फिल्में भी मिल गईं। हिंदी फिल्म में यामी पहली बार आयुष्मान खुराना के साथ फिल्म ‘विकी डोनर’ में नजर आई थीं। यहां से उनकी किस्मत चमकी। इसके बाद उन्हें 'बदलापुर', 'काबिल', 'सरकार 3', 'एक्शन जैक्सन', 'उरी' और 'बाला' जैसी कई फिल्मों में काम करने का मौका मिला। रुबीना दिलैक : बिग बॉस 14 की विजेता रह चुकीं रुबीना दिलैक हिमाचल के शिमला के चौपाल से संबंध रखती हैं। रुबीना आईएएस बनना चाहती थीं, लेकिन मन में एक्टिंग का कीड़ा भी घुसा हुआ था। चंडीगढ़ में एक ऑडिशन दिया तो उनको जीटीवी के सीरियल ‘छोटी बहू’ में रोल मिल गया। यहीं से उनका ठिकाना मुंबई का ग्लैमर जगत बना। वह ‘सास बिना ससुराल’, जीटीवी का ‘पुर्नविवाह- एक नई उम्मीद’, ‘देवों के देव महादेव’ जैसे तमाम सीरियल में काम कर चुकी हैं। उन्होंने टीवी शो ‘शक्ति –अस्तित्व के अहसास की’ में सौम्या सिंह नाम की एक ट्रांसजेंडर का किरदार भी निभाया है। रुबीना ‘बिग बॉस 14’ भी जीत चुकी है। सेलिना जेटली: सेलिना जेटली 2001 की फेमिना मिस इंडिया का ताज अपने नाम कर चुकीं हैं। फेमिना मिस इंडिया का ताज जितने के बाद सेलिना ने हिंदी सिनेमा में अपना कदम रखा। सेलिना जेटली भी हिमाचल के शिमला से संबंध रखती है। उन्होंने साल 2003 में फिल्म जानशीन से फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा था। इस फिल्म में उनके अपोजिट फरदीन खान नजर आये थे। प्रिया राजवंश प्रिया राजवंश का नाम देव आनंद के भाई चेतन आनंद से जुड़ा था। चेतन अपनी पत्नी उमा से रिश्ते बिगड़ने के बाद उनसे अलग हो गए थे। फिर चेतन की जिंदगी में आईं प्रिया राजवंश। प्रिया का असली नाम था वेरा सुंदर सिंह। वह शिमला में पली बढ़ी थीं, लेकिन एक्टिंग की ट्रेनिंग उन्होंने लंदन में ली थी, उनके बोलचाल में अंग्रेजी का असर था। जब किसी ने चेतन को प्रिया की फोटो भेजी, तो उन्होंने फौरन उन्हें अपनी नई फिल्म ‘हकीकत’ के लिए साइन कर लिया। फिल्म ‘हकीकत’ आज भी बॉलीवुड की सबसे बेहतरीन वॉर फिल्मों में शुमार होती है। इसके बाद चेतन और प्रिया एक-दूसरे के करीब होते चले गए, जबकि उनकी उम्र में 16 साल का अंतर था। प्रेम चोपड़ा प्रेम चोपड़ा यूं तो लाहौर में पैदा हुए थे, लेकिन बंटवारे के बाद शिमला चले आए और फिर यहीं के होकर रह गए। तब प्रेम के पिता उनको डॉक्टर या आईएएस बनाने का सपना मन में पाले हुए थे। वो एक आईसीएस (जो अब आईएएस होता है) ऑफिसर के बेटे थे। प्रेम के 5 भाई थे और एक छोटी बहन। उन्होंने कॉलेज के थिएटर ग्रुप में एक्टिंग करनी शुरू की थी। पिता ने समझाया कि इस क्षेत्र में काफी अस्थिरता है, पर वो नहीं माने। तब पिता ने कहा कि तुम किसी दूसरी नौकरी के साथ एक्टिंग कर सकते हो। वह मुंबई आ गए। टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में उनकी नौकरी लग गई। वहां वह बंगाल, बिहार, उड़ीसा में अखबार के सर्कुलेशन का काम देखते थे। काम से फुरसत मिलने पर वह अपना पोर्टफोलियो लेकर स्टूडियो के चक्कर काटते और रोल देने की गुजारिश करते। मोहित चौहान मोहित चौहान हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के नाहन में पैदा हुए थे। दिल्ली में पढ़ाई करने के बाद वह वापस हिमाचल चले आए। यह शानदार गायक दरअसल एक्टर बनना चाहते था। वह शौकिया तौर पर गाते-बजाते थे। मोहित अपने कॉलेज के दिनों में ही गिटार, हार्मोनिका और बांसुरी बजाने में दक्ष हो गए थे। एक्टर तो नहीं बन पाए, पर वह सिल्क रूट बैंड से जा जुड़े। मोहित को फिल्मों में गाने का पहला मौका 2002 में आई संजय दत्त की फिल्म ‘रोड’ में मिला था। वह ‘रंग दे बसंती’ के गाने ‘खून चला..’ ने घर-घर लोकप्रिय हो गए थे। सबको लगा कि इस आवाज में दम है। करीना-शाहिद की फिल्म ‘जब वी मेट’ के गाने ‘तुम से ही..’ से वह छा गए। 2010 में आई फिल्म ‘दिल्ली 6’ के गाने ‘मसक्कली’ के लिए उन्हें पहली बार फिल्म फेयर के लिए बेस्ट मेल सिंगर का अवॉर्ड मिला था। वहीँ फिल्म रॉकस्टार के गांव ने उन्हें बुलंदी पर पहुंचा दिया। ReplyForward
हिमालय की बर्फीली चोटियों में कई देव स्थान हैं। कहते है कि हिमाचल में साक्षात महादेव शिव भी विराजमान होते है। यहां पर शिव के कई ऐसे मंदिर है जिनका पौराणिक महत्व भी है और ये स्थान रह्सयमई भी है। बात चाहे किन्नर कैलाश की करे या पीर पंजाल की पहाडिय़ों के पूर्वी हिस्से में स्थित मणिमहेश की, महादेव है हर स्थान भक्तों के लिए स्वर्ग से कम नहीं है। देश -विदेश से लाखों शिवभक्त पुण्य अर्जित करने व शिवशंभु की कृपा प्राप्ति हेतु इन स्थानों के दर्शन करने पहुँचते है। हिमाचल प्रदेश शिवभूमि भी है। 1. किन्नर कैलाश : हिमालय की गोद में बसा किन्नर कैलाश हिमाचल के किन्नौर जिले में स्थित है। 79 फीट ऊंचा ये शिवलिंग बर्फीले पहाड़ों से घिरा हैं। अत्यधिक ऊंचाई पर होने के कारण किन्नर कैलाश शिवलिंग चारों ओर से बादलों से घिरा रहता है। ये दुर्गम स्थान है, इसलिए यहां पर ज्यादा लोग दर्शन के लिए नहीं आते हैं। ख़ास बात ये है कि सूर्य उदय होने से पहले किन्नर कैलाश के आसपास की पहाड़ियों का रंग और कैलाश के रंग में भी काफी फर्क दिखाई देता है। अब इसे कोई चमत्कार कहे या कोई रहस्य या विज्ञान, इसका उत्तर तो शायद किसी के पास भी नहीं है। ये सत्य है कि यहाँ स्थित शिवलिंग बार-बार रंग बदलता है। कहा जाता है कि यह शिवलिंग हर पहर में अपना रंग बदलता है। 2 . बिजली महादेव : महादेव का ये अनोखा मंदिर कुल्लू के ब्यास और पार्वती नदी के संगम के पास ही एक पहाड़ पर बना हुआ है। कहा जाता है कि यहां आसमानी बिजली गिरने की वजह से शिवलिंग चकनाचूर हो जाता है। फिर मंदिर के पुजारी जब शिवलिंग को मक्खन से जोड़ते हैं, तो यह फिर से अपने पुराने रूप में आ जाता है। मान्यता है कि भगवान शिव अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और बिजली के आघात को वे स्वयं सहन कर लेते हैं। 3 . मणिमहेश : हिमाचल की पीर पंजाल की पहाड़ियों के पूर्वी हिस्से में स्थित है भरमौर, और यहाँ मणिमहेश के रूप में महादेव विराजते है। यहाँ महादेव अपने भक्तों को मणिः के रूप में दर्शन देते है। यही वजह है इस पवित्र स्थल का नाम मणि महेश पड़ा। मणिमहेश नाम का पवित्र सरोवर है जो समुद्र तल से लगभग 13,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इसी सरोवर की पूर्व की दिशा में है वह पर्वत जिसे कैलाश कहा जाता है। इस हिमाच्छादित शिखर की ऊंचाई समुद्र तल से करीब 18,564 फीट है। स्थानीय लोग मानते हैं कि देवी पार्वती से विवाह करने के बाद भगवान शिव ने मणिमहेश नाम के इस पर्वत की रचना की थी। मणिमहेश पर्वत के शिखर पर भोर में एक प्रकाश उभरता है जो तेजी से पर्वत की गोद में बनी झील में प्रवेश कर जाता है। यह इस बात का प्रतीक माना जाता है कि भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर बने आसन पर विराजमान होने आ गए हैं तथा ये अलौकिक प्रकाश उनके गले में पहने शेषनाग की मणि का है। 4 .चूड़धार : सिरमौर जिले की सबसे ऊंची चोटी चूड़धार से शिव भक्तों की अटूट आस्था जुड़ी है। इस स्थल को चूर-चांदनी, चूर शिखर और चूर चोटी के नाम से भी जाना जाता है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 12000 फीट है। यहां पर भगवान शिव के रूप में ही देवता शिरगुल महाराज विराजमान है। चोटी पर स्थित भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए हर साल हजारों सैलानी यहां पहुंचते हैं। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए शिव भक्तों को 14 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। खास बात यह है की इस छोटी पर अधिक बर्फ गिरने से इस मंदिर के कपाट करीब तीन माह के लिए बंद हो जाते है।
हिमाचल देवभूमि ही नहीं वीर भूमि भी है। हिमाचल के वीर सपूतों ने जब-जब भी जरूरत पड़ी देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति दी। बात चाहे सीमाओं की सुरक्षा की हो या फिर आतंकवादियों को ढेर करने की, देवभूमि के रणबांकुरे अग्रिम पंक्ति में रहे। सेना के पहले परमवीर चक्र विजेता हिमाचल से ही सम्बन्ध रखते है। कांगड़ा जिला के मेजर सोमनाथ शर्मा ने पहला परमवीर चक्र मेडल हासिल कर हिमाचली साहस से दुनिया का परिचय करवाया था। मेजर सोमनाथ ही नहीं, पालमपुर के कैप्टन विक्रम बत्रा, धर्मशाला के लेफ्टिनेंट कर्नल डीएस थापा और बिलासपुर के राइफलमैन संजय कुमार समेत प्रदेश के चार वीरों ने परमवीर चक्र हासिल कर हिमाचलियों के अदम्य साहस का परिचय दिया है। देश में अब तक दिए गए कुल 21 परमवीर चक्रों में से सबसे अधिक, चार परमवीर चक्र हिमाचल प्रदेश के नाम हैं। 1. मेजर सोमनाथ शर्मा भारतीय सेना की कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर मेजर सोमनाथ शर्मा ने 1947 में पाकिस्तान के छक्के छुड़ा दिए थे। मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत उनकी वीरता के लिए परमवीर चक्र से नवाजा गया। परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी 1923 को कांगड़ा जिले में हुआ था। मेजर शर्मा मात्र 24 साल की उम्र में तीन नवंबर 1947 को पाकिस्तानी घुसपैठियों को बेदखल करते समय शहीद हो गए थे। युद्ध के दौरान जब वह एक साथी जवान की बंदूक में गोली भरने में मदद कर रहे थे तभी एक मोर्टार का गोला आकर गिरा। विस्फोट में उनका शरीर क्षत-विक्षत हो गया। मेजर शर्मा सदैव अपनी पैंट की जेब में गीता रखते थे। जेब में रखी गीता और उनकी बंदूक के खोल से उनके पार्थिव शरीर की पहचान की गई थी। 2. कैप्टेन विक्रम बत्रा विक्रम बत्रा भारतीय सेना के वो ऑफिसर थे, जिन्होंने कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व वीरता का परिचय देते हुए वीरगति प्राप्त की। इसके बाद उन्हें भारत के वीरता सम्मान परमवीर चक्र से भी सम्मानित किया गया। ये वो जाबाज़ जवान है जिसने शहीद होने से पहले अपने बहुत से साथियों को बचाया और जिसके बारे में खुद इंडियन आर्मी चीफ ने कहा था कि अगर वो जिंदा वापस आता, तो इंडियन आर्मी का हेड बन गया होता। परमवीर चक्र पाने वाले विक्रम बत्रा आखिरी हैं। 7 जुलाई 1999 को उनकी मौत एक जख्मी ऑफिसर को बचाते हुए हुई थी। इस ऑफिसर को बचाते हुए कैप्टन ने कहा था, ‘तुम हट जाओ. तुम्हारे बीवी-बच्चे हैं’। 3. मेजर धनसिंह थापा मेजर धनसिंह थापा परमवीर चक्र से सम्मानित नेपाली मूल के भारतीय सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान वर्ष 1962 मे मिला। वे अगस्त 1949में भारतीय सेना की आठवीं गोरखा राइफल्स में अधिकारी के रूप में शामिल हुए थे। भारत द्वारा अधिकृत विवादित क्षेत्र में बढ़ते चीनी घुसपैठ के जवाब में भारत सरकार ने "फॉरवर्ड पॉलिसी" को लागू किया। योजना यह थी कि चीन के सामने कई छोटी-छोटी पोस्टों की स्थापना की जाए। पांगॉन्ग झील के उत्तरी किनारे पर 8 गोरखा राइफल्स की प्रथम बटालियन द्वारा स्थापित एक पोस्ट थी जो मेजर धन सिंह थापा की कमान में थी। जल्द ही यह पोस्ट चीनी सेनाओं द्वारा घेर ली गई। मेजर थापा और उनके सैनिकों ने इस पोस्ट पर होने वाले तीन आक्रमणों को असफल कर दिया। थापा सहित बचे लोगों को युद्ध के कैदियों के रूप में कैद कर लिया गया था। अपने महान कृत्यों और अपने सैनिकों को युद्ध के दौरान प्रेरित करने के उनके प्रयासों के कारण उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। 4. राइफल मैन संजय कुमार परमवीर राइफलमैन संजय कुमार, वो जांबाज सिपाही है जिन्होंने कारगिल वॉर के दौरान अदम्य शौर्य का प्रदर्शन करते हुए दुश्मन को उसी के हथियार से धूल चटाई थी। लहूलुहान होने के बावजूद संजय कुमार तब तक दुश्मन से जूझते रहे थे, जब तक प्वाइंट फ्लैट टॉप दुश्मन से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले से भारतीय सेना में भर्ती हुए सूबेदार संजय कुमार की शौर्यगाथा प्रेरणादायक है। 4 जुलाई 1999 को राइफल मैन संजय कुमार जब चौकी नंबर 4875 पर हमले के लिए आगे बढ़े तो एक जगह से दुश्मन ऑटोमेटिक गन ने जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी और टुकड़ी का आगे बढ़ना कठिन हो गया। ऐसी स्थिति में गंभीरता को देखते हुए राइफल मैन संजय कुमार ने तय किया कि उस ठिकाने को अचानक हमले से खामोश करा दिया जाए। इस इरादे से संजय ने यकायक उस जगह हमला करके आमने-सामने की मुठभेड़ में तीन पाकिस्तानियों को मार गिराया। अचानक हुए हमले से दुश्मन बौखला कर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनिवर्सल मशीनगन भी छोड़ गए। संजय कुमार ने वो गन भी हथियाई और उससे दुश्मन का ही सफाया शुरू कर दिया।
हिमालय की तलहटी पर स्थित कुफरी, स्कीइंग का शौक रखने वालों के लिए बिलकुल उपयुक्त स्थान है। शिमला से यहां एक दिवसीय ट्रिप पर जाया जा सकता है। कुफरी हिमाचल प्रदेश के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक है, जो अपने सुंदर दृश्यों और शांत वातावरण के कारण बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करता है। घुड़सवारी का आनंद लेना, गर्मियों के सीजन में कुफरी की सबसे लोकप्रिय गतिविधियों में से एक है। यह स्थान संकरा है और देवदार के घने जंगल से घिरा हुआ है। इसका सौंदर्य उस समय देखते ही बनता है, जब सर्दियों के मौसम में यह चारों ओर से बर्फ की मोटी चादर से ढक जाता है। इसी समय देश के सभी हिस्सों से पर्यटक स्नो फॉल देखने यहां आते हैं। कुफरी में पर्यटक कई एडवेंचर गतिविधियों जैसे-कैम्पिंग, हाइकिंग, टोबोगनिंग और ट्रेकिंग का आनंद ले सकते हैं। हिमाचल प्रदेश का 'यात्रा और पर्यटन विभाग' प्रति वर्ष फरवरी में वार्षिक 'विंटर स्पोर्ट्स फेस्टिवल' का आयोजन करता है। इस फेस्टिवल में दुनिया के कोने-कोने से स्कीइंग के खिलाड़ी आते हैं। 'दी हिमालयन नेचर पार्क' कुफरी की सबसे प्रसिद्द ठहरने की जगह है, जो पर्यटकों को कई पक्षियों और जानवरों जैसे गोरल, सेराब, कस्तूरी मृग, तेंदुए और काले भालू को देखने को मिलते हैं। हिमालयन नेचर पार्क को कुफरी नेशनल पार्क भी कहा जाता है। यह पार्क 90 हेक्टेयर में फैला हुआ है जिसमें हिमालयी वनस्पतियों और जीवों की एक विस्तृत श्रृंखला पाई जाती है। हिमालयन नेचर पार्क 180 से अधिक पक्षियों की प्रजातियों और यहाँ रहने वाले विभिन्न प्रकार के जानवरों का घर है। यहां आने वाले पर्यटक यहां के वन्यजीवों को देखकर बेहद आकर्षित होते हैं। इस पार्क में आमतौर पर आप तेंदुए, भौंकने वाले हिरण, हंगल, कस्तूरी मृग और भूरे भालू जैसे जानवरों को देख सकते हैं। यह पार्क जिस जगह पर है वो बर्फ से ढकी हिमालयी श्रेणी का शानदार दृश्य पेश करती है। यहां आने वाले पर्यटक इस पार्क में एक स्वतंत्र ट्रेक के लिए जा सकते हैं और इसके साथ-साथ आप इस पार्क में कैम्प भी लगा सकते हैं। कुफरी सेब के बागों से घिरा हुआ एक ऐसा स्थान है जो सर्दियों के मौसम में एक स्कीइंग बिंदु और गर्मियों के समय एक आदर्श पिकनिक स्थल बन जाता है। वहीं दो घाटियों के बीच स्थित फागु कुफरी के पार घूमने की सबसे अच्छी जगहों में से एक है। फागु, कुफरी से सिर्फ 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अगर आप ट्रेकिंग में रुचि रखते हैं तो छराबड़ा तक 3 किमी की यात्रा के लिए जा सकते हैं। अगर आप सवारी या एडवेंचर के शौक़ीन है तो कुफरी फन वर्ल्ड आपके लिए एक खास अनुभव साबित हो सकता है। यह एक मनोरंजन पार्क है जिसमें बच्चो के लिए कई मजेदार राइड्स उपलब्ध हैं। बता दें कि इस पार्क में दुनिया का सबसे ऊँचा गो-कार्ट ट्रैक भी मौजूद है। इसके अलावा महासू पीक भी कुफरी के पास घूमने की सबसे अच्छी जगहों में से एक है। आपको बता दें कि यह पीक कुफरी का सबसे ऊँचा स्थान है जहां से आप कई लुभावने दृश्य देखे सकते हैं, जिनमें बद्रीनाथ और केदारनाथ पर्वतमाला भी शामिल हैं। अगर आपको साहसिक काम करना पसंद है तो आप इसके बिंदु तक पहुँचने के लिए देवदार के घने जंगलों के बीच से पैदल यात्रा करके भी जा सकते हैं। महासू रिज सर्दियों के मौसम में स्कीइंग में शुरुआती लोगों के लिए एक अच्छी जगह है। बता दें कि यह रास्ता दूसरी स्कीइंग ढलानों की तुलना में काफी चिकना है। अपनी इस यात्रा में आप यहां स्थित नाग देवता मंदिर के दर्शन भी कर सकते हैं।
भगवान शिव और माता पार्वती का मिलन पर्व महाशिवरात्रि विश्व भर में मनाया जाता है, मगर छोटी काशी मंडी शहर की शिवरात्रि का अंदाज ही अनूठा है। यहां सात दिवसीय महाशिवरात्रि उत्सव मनाया जाता है, जिसे अंतरराष्ट्रीय मेले का तमगा प्राप्त है। ये सात दिन श्रद्धा और भक्ति से सराबोर होते है और लाखों श्रद्धालु इस उत्सव में भाग लेने पहुँचते है। शिवरात्रि के साथ ही हिमाचल प्रदेश में साल भर चलने वाले मेलों की शुरुआत होती है। मंडी नगरी में पावन शिवरात्रि पर्व से जुड़ी एक कथा भी है। इसके अनुसार पर्वतराज हिमालय की पुत्री माता पार्वती को विदा कर ले जाते समय भगवान शिव को संसार का ध्यान आया तो वे बारातियों के साथ ही नई नवेली दुलहन को वहीं छोड़ कर तपस्या में लीन हो गए। शिव के न लौटने पर माता पार्वती विलाप करने लगी, जिसे सुनकर एक पुरोहित आगे आया। फिर भगवान शिव का आह्वान करने के लिए मंडप की स्थापना कराई गई। मंडप में प्रकट होकर भगवान शिव ने पूछा कि उन्हें क्यों बुलाया गया है, तो पुरोहित ने कहा कि आपकी याद में रोते-रोते पार्वती सो गई हैं। तभी से इस स्थान का नाम मंडप से मांडव्य और फिर मंडी पड़ा। माना जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में राजा अजबर सेन ने बटोहली से अपनी राजधानी ब्यास नदी के उस पार स्थापित की थी। संभवत दौरान महाशिवरात्रि के पर्व का शुभारंभ हुआ। प्रारंभ में इसे दो दिन के लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता था, जिसमें मंडी जनपद के लोक देवताओं की भागीदारी रहती थी। फिर सोलहवीं सदी के दौरान राजा सूरज सेन ने मंडी शिवरात्रि में जनपद के देवी-देवताओं को आमंत्रित करने और एक सप्ताह तक मेहमान बनाकर रखने की परंपरा भी डाली। तब से ये परंपरा चली आ रही है। सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से जुड़ा है मंडी का इतिहास : मंडी रियासत का इतिहास सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से प्रारंभ होता है, जब राजा साहूसेन के छोटे भाई बाहूसेन ने अपने भाई से रूष्ट होकर कुछ विश्वास पात्र सैनिकों को साथ लेकर लोहारा को छोड़कर बल्ह के हाट में अपनी राजधानी बसाई थी। इसी के साथ मंडी रियासत की स्थापना हुई थी। बाहूसेन ने ही हाटेश्वरी माता के मंदिर की स्थापना की थी। इसके बाद वे मंगलौर में जा बसे थे। 1280 ई.में बाणसेन ने मंडी शहर के भियूली में मंडी रियासत की राजधानी स्थपित की, जो बटोहली होते हुए 1527 ई. में अजबर सेन ने बाबा भूतनाथ के मंदिर के साथ ही आधुनिक मंडी शहर की स्थापना की थी। श्रद्धा और भक्ति से सराबोर होता है अन्तर्राष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव भगवान शिव और माता पार्वती का मिलन पर्व महाशिवरात्रि विश्व भर में मनाया जाता है, मगर छोटी काशी मंडी शहर की शिवरात्रि का अंदाज ही अनूठा है। यहां सात दिवसीय महाशिवरात्रि उत्सव मनाया जाता है, जिसे अंतरराष्ट्रीय मेले का तमगा प्राप्त है। ये सात दिन श्रद्धा और भक्ति से सराबोर होते है और लाखों श्रद्धालु इस उत्सव में भाग लेने पहुँचते है। शिवरात्रि के साथ ही हिमाचल प्रदेश में साल भर चलने वाले मेलों की शुरुआत होती है। मंडी नगरी में पावन शिवरात्रि पर्व से जुड़ी एक कथा भी है। इसके अनुसार पर्वतराज हिमालय की पुत्री माता पार्वती को विदा कर ले जाते समय भगवान शिव को संसार का ध्यान आया तो वे बारातियों के साथ ही नई नवेली दुलहन को वहीं छोड़ कर तपस्या में लीन हो गए। शिव के न लौटने पर माता पार्वती विलाप करने लगी, जिसे सुनकर एक पुरोहित आगे आया। फिर भगवान शिव का आह्वान करने के लिए मंडप की स्थापना कराई गई। मंडप में प्रकट होकर भगवान शिव ने पूछा कि उन्हें क्यों बुलाया गया है, तो पुरोहित ने कहा कि आपकी याद में रोते-रोते पार्वती सो गई हैं। तभी से इस स्थान का नाम मंडप से मांडव्य और फिर मंडी पड़ा। माना जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में राजा अजबर सेन ने बटोहली से अपनी राजधानी ब्यास नदी के उस पार स्थापित की थी। संभवत दौरान महाशिवरात्रि के पर्व का शुभारंभ हुआ। प्रारंभ में इसे दो दिन के लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता था, जिसमें मंडी जनपद के लोक देवताओं की भागीदारी रहती थी। फिर सोलहवीं सदी के दौरान राजा सूरज सेन ने मंडी शिवरात्रि में जनपद के देवी-देवताओं को आमंत्रित करने और एक सप्ताह तक मेहमान बनाकर रखने की परंपरा भी डाली। तब से ये परंपरा चली आ रही है। सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से जुड़ा है मंडी का इतिहास : मंडी रियासत का इतिहास सुकेत रियासत की सातवीं पीढ़ी से प्रारंभ होता है, जब राजा साहूसेन के छोटे भाई बाहूसेन ने अपने भाई से रूष्ट होकर कुछ विश्वास पात्र सैनिकों को साथ लेकर लोहारा को छोड़कर बल्ह के हाट में अपनी राजधानी बसाई थी। इसी के साथ मंडी रियासत की स्थापना हुई थी। बाहूसेन ने ही हाटेश्वरी माता के मंदिर की स्थापना की थी। इसके बाद वे मंगलौर में जा बसे थे। 1280 ई.में बाणसेन ने मंडी शहर के भियूली में मंडी रियासत की राजधानी स्थपित की, जो बटोहली होते हुए 1527 ई. में अजबर सेन ने बाबा भूतनाथ के मंदिर के साथ ही आधुनिक मंडी शहर की स्थापना की थी। राज देवता माधोराय, बड़ादेव कमरुनाग और बाबा भूतनाथ से है नाता : मंडी शिवरात्रि में शैव मत का प्रतिनिधित्व जहां शहर के अधिष्ठदाता बाबा भूतनाथ करते हैं, तो वैष्णव का प्रतिनिधित्व राज देवता माधोराय और लोक देवताओं की अगुआई बड़ादेव कमरूनाग और देव पराशर करते हैं। इस लोकोत्सव में देवी देवताओं के साथ जनपद के लोगों की भागीदारी भी रहती थी, जो मंडी नगर में माधोराय के अलावा अपने राजा के दर्शन भी करते थे। मेले के दौरान जनपद के देवी-देवता राजदेवता माधोराय के दरबार में हाजिरी लगाते हैं। यह परंपरा भी राजा सूरज सेन के समय से ही है। शिवरात्रि का शुभारंभ बाबा भूतनाथ और माधोराय के मंदिरों में पूजा अर्चना के साथ होता है। इसमें सबसे पहले बड़ा देव कमरूनाग मंडी नगर में पहुंचते हैं। इसके पश्चात ही शिवरात्रि के कार्य शुरू होते हैं। राजतंत्र के जमाने से ही राजदेवता माधोराय की जलेब निकलती है। देखने को मिलता है देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम : शिवरात्रि मेले के दौरान जनपद के सौ से अधिक देवी-देवता एक सप्ताह तक मंडी नगर में मेहमान बनकर रहते हैं। मंडी शिवरात्रि महोत्सव में देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। इस देव समागम में हिमाचल में पाई जाने वाली देव रथ शैलियों का अवलोकन करने को मिलता है। देव समागम में बैठने वाले देवताओं की वरिष्ठता का विशेष ध्यान रखा जाता है। लोक विश्वास के अनुसार जिस देवता की पालकी पहले बनी है वही वरिष्ठ होता है। राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में होता था शामिल : राजशाही के जमाने में राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में शामिल होता था। शिवरात्रि की जलेब के कुछ चित्र प्राचीन हवेलियों में देखने को मिलते हैं। सेरी चानणी और घंटाघर के आसपास लगे मेले के दृश्य चित्रित हैं। वहीं पर जलेब देखने उमड़ी भीड़ और रनिवास के झरोखों से रानियों और राजपरिवार से जुड़ी महिलाओं के उत्सुकता से इस भव्य जलेब को देखने के दृश्य भी चित्रित हैं। तारा रात्रि से होता है शिवरात्रि का आगाज : पुरातन काल से चली आ रही परंपराओं के अनुसार तारारात्रि से शिवरात्रि का आगाज माना जाता है। तारा रात्रि की रात को मंडी शहर के प्राचीन बाबा भूतनाथ मंदिर के शिवलिंग पर माखन का लेप चढ़ाने की परंपरा रही है। शिवरात्रि वाले दिन माखन को उतारकर इसे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।v देवता माधोरायनाथ से है नाता : मंडी शिवरात्रि में शैव मत का प्रतिनिधित्व जहां शहर के अधिष्ठदाता बाबा भूतनाथ करते हैं, तो वैष्णव का प्रतिनिधित्व राज देवता माधोराय और लोक देवताओं की अगुआई बड़ादेव कमरूनाग और देव पराशर करते हैं। इस लोकोत्सव में देवी देवताओं के साथ जनपद के लोगों की भागीदारी भी रहती थी, जो मंडी नगर में माधोराय के अलावा अपने राजा के दर्शन भी करते थे। मेले के दौरान जनपद के देवी-देवता राजदेवता माधोराय के दरबार में हाजिरी लगाते हैं। यह परंपरा भी राजा सूरज सेन के समय से ही है। शिवरात्रि का शुभारंभ बाबा भूतनाथ और माधोराय के मंदिरों में पूजा अर्चना के साथ होता है। इसमें सबसे पहले बड़ा देव कमरूनाग मंडी नगर में पहुंचते हैं। इसके पश्चात ही शिवरात्रि के कार्य शुरू होते हैं। राजतंत्र के जमाने से ही राजदेवता माधोराय की जलेब निकलती है। देखने को मिलता है देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम : शिवरात्रि मेले के दौरान जनपद के सौ से अधिक देवी-देवता एक सप्ताह तक मंडी नगर में मेहमान बनकर रहते हैं। मंडी शिवरात्रि महोत्सव में देवी-देवताओं का अनूठा देव समागम अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। इस देव समागम में हिमाचल में पाई जाने वाली देव रथ शैलियों का अवलोकन करने को मिलता है। देव समागम में बैठने वाले देवताओं की वरिष्ठता का विशेष ध्यान रखा जाता है। लोक विश्वास के अनुसार जिस देवता की पालकी पहले बनी है वही वरिष्ठ होता है। राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में होता था शामिल : राजशाही के जमाने में राजा हाथी पर सवार होकर जलेब में शामिल होता था। शिवरात्रि की जलेब के कुछ चित्र प्राचीन हवेलियों में देखने को मिलते हैं। सेरी चानणी और घंटाघर के आसपास लगे मेले के दृश्य चित्रित हैं। वहीं पर जलेब देखने उमड़ी भीड़ और रनिवास के झरोखों से रानियों और राजपरिवार से जुड़ी महिलाओं के उत्सुकता से इस भव्य जलेब को देखने के दृश्य भी चित्रित हैं। तारा रात्रि से होता है शिवरात्रि का आगाज : पुरातन काल से चली आ रही परंपराओं के अनुसार तारारात्रि से शिवरात्रि का आगाज माना जाता है। तारा रात्रि की रात को मंडी शहर के प्राचीन बाबा भूतनाथ मंदिर के शिवलिंग पर माखन का लेप चढ़ाने की परंपरा रही है। शिवरात्रि वाले दिन माखन को उतारकर इसे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
शिक्षा के क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, देश भर में दुसरे नंबर पर है। प्रदेश की साक्षरता दर वर्ष 1971 में 31.96 प्रतिशत थी, 2021 में यह 86.60 प्रतिशत हो गई है और लगातार बेहतर होती जा रही है। हिमाचल में स्कूल, कॉलेजों की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा हुआ है। हिमाचल प्रदेश शिक्षा के क्षेत्र में देशभर में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले राज्य के रूप में उभरा है। वर्तमान में राज्य में 131 स्नातक महाविद्यालय, 1,878 वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, 931 उच्च विद्यालय विद्यार्थियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। सरकार द्वारा राज्य में शिक्षा क्षेत्र को सशक्त करने के लिए अनेक बहुआयामी कदम उठाए गए हैं। राष्ट्रीय उच्च स्तर शिक्षा अभियान को वर्ष 2013 में सबसे पहले हिमाचल ने ही लागू किया था। इसके अलावा राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने में हिमाचल देशभर में अग्रणी रहा है। पिछले वर्ष हिमाचल प्रदेश को केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओर से जारी किए जाने वाले परफॉर्मेंस ग्रेडिंग इंडेक्स में ग्रेड वन में शामिल किया गया था। वर्तमान में राज्य में 131 स्नातक महाविद्यालय, 1,878 वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, 931 उच्च विद्यालय, पांच अभियान्त्रिकी महाविद्यालय, चार फार्मेसी महाविद्यालय 16 पॉलिटेकनिक महाविद्यालय और 138 औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान विद्यार्थियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। एनआईटी हमीरपुर राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान हमीरपुर देश के 31 एनआईटी में से एक है, जो 7 अगस्त 1986 को क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज के रूप में अस्तित्व में आया। स्थापना के समय, संस्थान में केवल दो विभाग थे, सिविल और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग। 26 जून 2002 को, आरईसी हमीरपुर को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया और राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में अपग्रेड किया गया। बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध करवाने के लिहाज से विश्व बैंक द्वारा इस संस्थान को सबसे अच्छी एनआईटी का दर्जा प्रदान किया गया है। संस्थान के पास उद्योग की आवश्यकताओं और तकनीकी दुनिया में होने वाली घटनाओं के जवाब में विकसित होने और बदलने का लचीलापन है। आईजीएमसी : हिमाचल प्रदेश मेडिकल कॉलेज शिमला (HPMC) की स्थापना वर्ष 1966 में पहले बैच में 50 छात्रों के प्रवेश के साथ की गई थी। इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला से संबंधित है। इंदिरा गाँधी मेडिकल कॉलेज राज्य के लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं को स्वास्थ्य सेवाओं के मानकों के साथ पूरा कर रहा है। आईजीएमसी से अब तक 923 स्नातकोत्तर और 377 डिप्लोमा छात्र पास हो चुके हैं। आईजीएमसी में एमबीबीएस की सीटों को वर्ष 1978 बढ़ाकर 65 किया गया था। अब एमबीबीएस की सीटें 65 से बढ़ाकर 100 कर दी गई हैं। वर्ष 1981 में आईजीएमसी में 16 विषयों में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम शुरू किए गए थे। अब इन्हें 16 से 20 कर दिया गया है। इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज शिमला को भारत सरकार द्वारा क्षेत्रीय कैंसर केंद्र का दर्जा दिया गया है। आईआईटी मंडी आईआईटी मंडी के स्थाई परिसर के लिए 24 फरवरी 2009 को आधारशिला रखी गई थी। आईआईटी मंडी में बीटेक का पहला बैच वर्ष 2009 में बैठा। वर्ष 2013 में पहला बैच पास आउट हुआ उसके बाद आईआईटी मंडी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। देश भर से छात्र पढ़ाई करने के लिए यहां आ रहे हैं। अपनी स्थापना के बाद से ही यह संस्थान तेजी से प्रगति कर रहा है। आईआईटी मंडी में कई ऐसे पाठ्यक्रम पढ़ाए जा रहे हैं जो वास्तविक समस्याओं को हल करने के लिए सक्षम है। ये संस्थान मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 2008 में प्रौद्योगिकी संस्थान (संशोधन) अधिनियम, 2011 के तहत स्थापित आठ भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIT) में से एक है। हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की स्थापना 22 जुलाई 1970 को हिमाचल प्रदेश की विधान सभा के एक अधिनियम द्वारा की गई थी। यह राज्य का एकमात्र बहु-संकाय आवासीय और संबद्ध विश्वविद्यालय है जो शहरी, ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों को औपचारिक और डिस्टेंस शिक्षा प्रदान करता है। विश्वविद्यालय का मुख्यालय शिमला के सुरम्य उपनगर समर हिल में स्थित है। यह राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद द्वारा एक ग्रेड 'ए' मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय है। विश्वविद्यालय के छात्र खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों में राष्ट्रीय स्तर पर सराहनीय प्रदर्शन करते आ रहे हैं। हर साल पर्याप्त संख्या में छात्र NET, SET, JRF और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करते हैं। बागवानी यूनिवर्सिटी हिमाचल डॉ यशवंत सिंह परमार बागवानी और वानिकी विश्वविद्यालय, सोलन की स्थापना 1 दिसंबर 1985 को बागवानी, वानिकी और सम्बंधित विषयों के क्षेत्र में शिक्षा, अनुसंधान और विस्तार शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी। हिमाचल प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और वास्तुकार स्वर्गीय डॉ यशवंत सिंह परमार ने राज्य की अर्थव्यवस्था को विकसित करने और सुधारने के लिए बागवानी और वानिकी के महत्व को महसूस किया जिसके कारण इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। यह विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले के नौणी में स्थित है। विश्वविद्यालय के चार घटक कॉलेज हैं, जिनमें से दो मुख्य परिसर नौणी में स्थित हैं, एक बागवानी के लिए और दूसरा वानिकी के लिए। तीसरा कॉलेज यानी बागवानी और वानिकी कॉलेज, हमीरपुर जिले के नेरी में नादौन-हमीरपुर राज्य राजमार्ग पर स्थित है। चौथा कॉलेज यानि कॉलेज ऑफ हॉर्टिकल्चर एंड फॉरेस्ट्री, थुनाग (मंडी) थुनाग जिला मंडी में स्थित है। इसके अलावा, राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में पांच क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र, 12 सैटेलाइट स्टेशन और पांच कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) स्थित हैं। पालमपुर यूनिवर्सिटी हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना 1 नवंबर, 1978 को हुई थी। यह आईसीएआर से मान्यता प्राप्त और आईएसओ 9001:2015 प्रमाणित संस्थान है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने इस विश्वविद्यालय को देश के सभी कृषि विश्वविद्यालयों में 14वां स्थान दिया है। विश्वविद्यालय को कृषि और शिक्षा की अन्य संबद्ध शाखाओं में शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रावधान करने के लिए, विशेष रूप से हिमाचल प्रदेश के ग्रामीण लोगों के लिए, इस तरह के विज्ञान के अनुसंधान और उपक्रम के विस्तार और अनुसंधान की प्रगति को आगे बढ़ाने के लिए जनादेश दिया गया है। आज राज्य ने पहाड़ी कृषि विविधीकरण के लिए अपना नाम कमाया है और कृषक समुदाय ने विश्वविद्यालय में अपना विश्वास स्थापित किया है।
स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव का पहला वोटर होने का श्रेय हिमाचल प्रदेश के श्याम सरन नेगी को जाता है। श्याम सरन नेगी, मूलतः किन्नौर (कल्पा) के निवासी है। आज उनकी उम्र करीब 105 वर्ष है। नेगी के चेहरे में तजुर्बे की झुर्रियां और क्षीण आवाज़ के बावजूद जब भी जिक्र मतदान को लेकर होता है तो उनके चेहरे की रौनक यह बयां करती है कि मतदाता देश की रीढ़ की हड्डी है। श्याम सरन नेगी का जन्म 1 जुलाई 1917 को हिमाचल प्रदेश के कल्पा में हुआ। वह एक रिटायर्ड स्कूल मास्टर हैं। स्वतंत्र भारत के पहले मतदाता के तौर पर मशहूर नेगी को भारतीय लोकतंत्र का लीविंग लीजेंड भी कहा जाता है। 1947 में ब्रिटिश राज के अंत के बाद देश के पहले चुनाव फरवरी 1952 में हुए लेकिन सर्दी के मौसम में भारी बर्फबारी की संभावनाओं की वजह से किन्नौर के मतदाताओं को पांच महीने पहले ही वोट करने का मौका दिया गया था। 71 वर्ष पूर्व आजाद भारत का प्रथम चुनाव हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त थे आईसीएस सुकुमार सेन, जिन्होंने 1951-52 और 1957 का चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न कराया था। पहले चुनाव ने देश को बहुत कुछ दिखाया, सिखाया और साबित भी किया। बता दें कि सर्वप्रथम इसी अक्टूबर महीने की 25 तारीख को 1951 की सुबह आजाद भारत में मतदान की शुरुआत हुई थी। हिमाचल प्रदेश अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करने वाला पहला राज्य बना था। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ने 68 चरणों में चुनाव की योजनाएं बनाई थी। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के कल्पा गांव निवासी स्कूल टीचर श्याम शरन नेगी को अपने गांव से अलग प्रशासन द्वारा मतदान केंद्र प्रभारी बनाया गया था। नेगी एक वोट के मूल्य को समझते थे। वे मतदान शुरू होने से एक घंटे पहले यानि सुबह 6:00 बजे ही अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय के मतदान केंद्र पर पहुंच गए। वहां उन्होंने अधिकारियों को बताया की उन्हें जल्द अपने स्कूल भी पहुंचना है। तैनात अधिकारी ने उन्हें 6:30 बजे मतपत्र दिया और नेगी पहले मतदाता बन गए। श्याम सरन नेगी ने 1951 के बाद से हर आम चुनाव में मतदान किया है। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले गूगल ने नेगी पर एक फिल्म बनाई थी- प्लेज टू वोट यह फिल्म इंटरनेट पर खूब वायरल हुई थी, इसे फिल्मों के सुपरस्टार अमिताभ बच्चन सहित तमाम दूसरे ब्रैंड एंबैसडरों ने भी देखा था।