हिमाचल प्रदेश यूथ कांग्रेस के महासचिव एवं सिस्को संस्था के अध्यक्ष महेश सिंह ठाकुर को जवाहर बाल मंच का राज्य मुख्य संयोजक नियुक्त किया गया है। चीफ स्टेट कॉडिनेटर बनाए जाने पर महेश सिंह ठाकुर ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी,प्रदेश के सीएम सुखविन्दर सिंह सूक्खु , राष्ट्रीय प्रभारी केसी वेणुगोपाल,जवाहर बाल मंच के राष्टीय अध्यक्ष जी.वी. हरि. सहित अन्य नेताओं के प्रति आभार जताया है। महेश ठाकुर ने कहा कि जवाहर बाल मंच का मुख्य उद्देश्य 7 वर्षों से लेकर 17 वर्ष के आयु के लड़के लड़कियां तक भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के विचार को पहुंचना। उन्होंने कहा कि जिस तरीके से मौजूदा सरकार के द्वारा देश के इतिहास के साथ छेड़छाड़ हो रहा है देश के युवाओं को भटकाया जा रहा है जो की देश के लिए एक बहुत बड़ा चिन्ता का विषय है कांग्रेस पार्टी ने इस विषय को गंभीरता से लिया और राहुल गांधी के निर्देश पर डॉ जीवी हरी के अध्यक्षता में देशभर में जवाहर बाल मंच के द्वारा युवाओं के बीच में नेहरू जी के विचारों को पहुंचाया जाएगा। उन्होंने कहा वर्ष 2024 के चुनाव में कांग्रेस भारी बहुमत हासिल कर केंद्र से भाजपा को हटाने का काम करेगी। इसमें हिमाचल प्रदेश राज्य की भी प्रमुख भुमिका रहेगी। उन्होंने कहा कि पूरे देश में महंगाई के कारण आमलोगों का जीना मुश्किल हो गया है। गरीब व मध्यम वर्गीय परिवार पर इस महंगाई का व्यापक असर पड़ रहा है। ऐसे में केंद्र सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही है।
जगह जगह सजी हैं अखरोट की दुकानें सायर किसानों की खुशहाली और समृद्धि से जुड़ा अनाज पूजा का त्योहार मंडी जनपद में सायर का त्योहार रविवार को जिला भर में धूमधाम और उल्लास के साथ मनाया जाएगा। इसके लिए पूरे जनपद में सायर को मनाने की तैयारियों जोरों पर हैं। बड़ी संख्या में लोग अखरोट और सायर ( धान, तिल, कोठा, गलगल आदि के पौधों) की खरीदारी कर रहे हैं। सायर पर्व हर वर्ष भाद्रपद के समाप्त होने और माह आश्विन के प्रथम प्रविष्टे को मनाया जाता है। भाद्रपद को काला महीना भी कहा जाता है। इस दौरान पहाड़ोेें पर बरसात के कारण नदी नाले उफान पर होते हैं। बरसात में सुरक्षित रहने पर ईश्वर का आभार प्रकट करने के लिए यह पर्व मनाया जाता है। सायर का यह त्योहार किसानों की खुशहाली और समृद्धि के साथ-साथ अनाज पूजा से जुड़ा हुआ भी है। प्रदेश के कई हिस्सों में सायर पर्व को अलग-अलग ढंग से मनाया जाता है। उसी प्रकार मंडी जनपद में सायर का त्योहार अनाज पूजा से शुरू होता है। मंडयाली बोली में इस मौसम को भी सैर कहा जाता है। इस मौसम में पैदा होने वाले अनाज जैसे मक्की, धान, तिल, कोठा, गलगल आदि के पौधों को इक्टठा कर सायर तैयार कर पूजाघर में रखी जाती है। इसके बाद स्नानादि करके सायर की पूजा की जाती है। सायर पूजा के लिए अखरोट का बहुत महत्व है। अखरोट के साथ द्रुब हाथ में लेकर अपनी परिधि में घूमते हैं और फिर सायर के आगे मत्था टेकते हैं। सायर के दिन मंडी जनपद में बड़े-बुजूर्गों को द्रुब देने की परंपरा है। यह परंपरा बड़े बुजूर्गों का सम्मान कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की भी है। इस अवसर पर सायर पूजन के बाद पांच या सात अखरोट दोनों हाथों में लेकर द्रुब खास की चार पांच डालियों के साथ बड़े बुजूर्गों के हाथ में पकड़ा कर उनके चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लिया जाता है। बड़े बुजूर्ग भी बड़े अदब के साथ अखरोट और द्रुब ग्रहण करते हैं और सचे मन से द्रुब की डालियां अपने कानों या टोपी से लगाकर आशीर्वाद देते हैं। भले ही आपस में कितने भी मतभेद रहे हों, लेकिन सायर के दिन बड़े -बुजूर्गों को द्रुब देकर उनका आशीर्वाद लेकर सारे गिले शिकवे दूर किये जाते हैं।
देशभर में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जब 1857 में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का दौर चल रहा था तो पहाड़ों की शांत वादियों में भी भारतीय सैनिकों व लोगों में क्रांति की ज्वाला धधक रही थी। इस ज्वाला की शुरुआत हुई अंग्रेजों की पहली छावनी कसौली में। यहां 20 अप्रैल 1857 को अंबाला राइफल डिपो के छह देशी सैनिकों ने कसौली पुलिस चौकी को आग लगा दी। भारतीय सैनिकों की इस बगावत से अंग्रेज अधिकारियों ने अन्य छावनी क्षेत्रों व कंपनी सरकार के कार्यालयों की सुरक्षा कड़ी कर दी। इसके बाद डगशाई छावनी, सुबाथू, कालका व जतोग में तैनात देशी सेना हथियार उठाने को उतावली हो गई। उधर कांगड़ा, नूरपुर, धर्मशाला, कुल्लू-लाहुल, सिरमौर व अन्य रियासतों में भी विद्रोही भावना प्रबल हो गई। बुशहर के राजा शमशेर सिंह, कुल्लू-सिराज के युवराज प्रताप सिंह, सुजानपुर के राजा प्रताप चंद गुप्त रूप से क्रांतिकारियों की गतिविधियों में संलिप्त हो गए। 11 मई को मेरठ के विद्रोह की सूचना मिलते ही यहां अंग्रेज विरोधी मुहिम शुरू हुई जिसे बंदूकों के दम पर कुचला जाने लगा। अंबाला व दिल्ली में विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों ने कसौली, सुबाथू, डगशाई व जतोग की छावनियों को अंबाला कूच का आदेश दिया, लेकिन कारतूसों में गाय व सूअर की चर्बी के कारण देशी सैनिकों ने इसका पालन नहीं किया। जतोग में गोरखा रेजिमेंट ने सूबेदार भीम सिंह के नेतृत्व में छावनी व खजाने पर कब्जा कर लिया। इसी बीच एक गोरखा सैनिक ने अपनी खुखरी से शिमला बाजार में एक अंग्रेज अधिकारी की गर्दन उड़ा दी। फिरंगी सब कुछ छोड़कर भागने लगे। इंग्लैंड के समाचार पत्रों में इस घटना का जिक्र 'शिमला आतंक' के तौर पर किया। इसके बाद अंग्रेज अफसरों को परिवार सहित सुरक्षित छावनी क्षेत्रों व राजाओं के महलों में शरण लेनी पड़ी। उधर, बुशहर के राजा ने कंपनी को नजराना सहित अन्य सहायता बंद कर दी और क्रांतिकारियों का सहयोग किया। सिरमौर में नाबालिग राजा होने के कारण सहायक प्रशासकों ने अंग्रेजों की सहायता की, लेकिन वहां की बटालियन विद्रोही रही और बिलासुपर, बाघत सहित कुछ अन्य शासकों ने अंग्रेजों का साथ दिया। 16 मई को कसौली की नसीरी सेना ने विद्रोह की घोषणा कर दी और ब्रिटिश सेना पर धावा बोल दिया। देशी सेना ने सूबेदार भीम सिंह की अध्यक्षता में कसौली ट्रेजरी को लूटा और जतोग की तरफ बढ़ने लगे। स्थानीय पुलिस गार्ड के दरोगा बुद्धि सिंह ने क्रांति की बागडोर संभाली और जतोग पर कब्जे के लिए रवाना हो गए, लेकिन रास्ते में अंग्रेजी सेना ने कुछ को पकड़ लिया तो कुछ मारे गए, जबकि बुद्धि सिंह ने खुद को गोली मार ली। नालागढ़ में भी क्रांतिकारियों ने मलौण किले से अंग्रेजों के हथियार कब्जे में ले लिए और 10 जून को जालंधर के दस्ते ने नालागढ़ पहुंचकर वहां के खजाने को लूट लिया। बाद में शिमला हिल्स की सभी छावनियों में विद्रोह लगभग शांत हो गया था और अगस्त 1857 तक बाहरी क्षेत्रों से आई अंग्रेज टुकड़ियों ने चौकियों व कार्यालयों को कब्जे में लेकर यथावत कर लिया था। इसमें कुछ देशी रियासत के शासकों व महाराजा पटियाला तक ने अंग्रेजों का साथ दिया, जिससे यहां क्रांति मंद पड़ी। पहाड़ी रियासतों की यह क्राति योजनाबद्ध तरीके से हो रही थी, जिसके लिए एक गुप्त संगठन बना हुआ था, जिसके सदस्य सूचनाओं को यहां-वहां पहुंचाया करते थे। इस संगठन के मुखिया सुबाथू में मंदिर के पुजारी रामप्रसाद वैरागी थे, 12 जून को इनका एक पत्र अंबाला के कमिश्नर को मिला, जिससे सारा भेद खुल गया और वैरागी को बंदी बनाकर अंबाला जेल में फांसी दे दी गई। कांगड़ा, कुल्लू, चंबा व मंडी में भी हुआ विद्रोह 1857 की पहली क्रांति का विद्रोह कांगड़ा, कुल्लू-सिराज, चंबा व मंडी-सुकेत तक में हुआ। 11-12 मई के मेरठ व दिल्ली विद्रोह की सूचना कांगड़ा सहित आसपास के पूरे क्षेत्र में फैल गई थी, जिससे ब्रिटिश अधिकारियों ने अपने क्षेत्रों की सुरक्षा के उपाय कर लिए। कांगड़ा किले को उत्तर भारत, खासकर पहाड़ों का सबसे सुरक्षित दुर्ग माना जाता था, जिसे अंग्रेजों ने देशी सैनिकों को निशस्त्र करके अपने कब्जे में ले लिया और धर्मशाला से मुख्यालय भी यहीं शिफ्ट कर दिया गया। इससे सैनिक तो चुप हो गए, लेकिन अंदर ही अंदर ज्वाला भड़कती रही और रात के समय स्थानीय लोगों ने क्रांतिकारियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के कार्यालय, घरों व कचहरी, कोतवाली पर पथराव करना शुरू कर दिया। 19 मई को ऊना-होशियारपुर में क्रांतिकारियों व देशी पुलिस ने भयानक विद्रोह कर दिया। सुजानपुर टीहरा के राजा प्रताप चंद अपने किले में क्रांति की तैयारियां करते रहे, लेकिन इसकी भनक अंग्रेजों को हो गई और महल में ही नजरबंद कर दिया गया। उधर, जसवां, गुलेर, हरिपुर, नूरपुर, पठानकोट सहित अन्य क्षेत्र के लोग भी कंपनी के खिलाफ हो गए। 30 जुलाई को कांगड़ा में विभिन्न स्थानों पर देशी सैनिकों व क्रांतिकारियों की अंग्रेजों के साथ मुठभेड़ हुई और कई ने सुरक्षा के बावजूद शहर में प्रवेश कर लिया। क्रांतिकारी ब्रिगेडियर रमजान को नूरपुर में फांसी दे दी गई, कांगड़ा में पांच व धर्मशाला में छह देशभक्त व क्रांतिकारी फांसी पर चढ़ाए गए। कुल्लू के युवराज प्रताप सिंह ने भी अंग्रेजों के खिलाफ खूब लोहा लिया, लेकिन अपने कुछ साथियों के पकड़े जाने के बाद वह भी गिरफ्तार कर लिए गए और तीन अगस्त को उन्हें व उनके साथी बीर सिंह को फांसी दी गई। यहां की प्रजा में भारी असंतोष था और जगह-जगह पर विद्रोह किया गया, जिसमें तीन देशभक्त भागसू जेल में शहीद हो गए। चंबा के राजा श्रीसिंह ब्रिटिश सरकार के वफादार बने रहे, लेकिन उनकी प्रजा व देशी सैनिकों ने विरोध किया। मंडी के राजा विजय सेन केवल 10 वर्ष के थे और सुकेत रियासत में आपसी गृहयुद्ध के कारण क्रांतिकारियों ने यहां अधिक सहयोग नहीं मिल पाया, लेकिन जनता में देशभक्ति की भावना प्रबल थी। ऐसे में अगस्त 1857 तक पहाड़ों में फैले विद्रोह को शांत कर लिया गया था, लेकिन इन चार महीने में देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के लिए लगभग 50 देशभक्त फांसी के फंदे में झूल गए थे।
'कुल्लू दशहरा' अपनी अनोखी परंपरा के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है। लाखों की तादाद में लोग अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू फेयर में शिरकत करने आते हैं। ख़ास बात ये है कि इस दशहरे में न तो रावण का पुतला जलाया जाता है और न ही कोई रामलीला होती है। अपनी परंपरा, रीतिरिवाज और ऐतिहासिक दृष्टि से कुल्लू दशहरा उत्सव विशिष्ट है। जब पूरे भारत में विजयादशमी की समाप्ति होती है उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस उत्सव का रंग और भी अधिक बढ़ने लगता है। बाकी जगहों की तरह यहां एक दिन का दशहरा नहीं होता बल्कि 7 दिनों तक उत्सव मनाया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार 16 वीं शताब्दी में, राजा जगत सिंह ने कुल्लू के समृद्ध और सुंदर राज्य पर शासन किया। शासक के रूप में, राजा को दुर्गादत्त नाम के एक किसान के बारे में पता चला, जो जाहिर तौर पर कई सुंदर मोती रखते थे। राजा ने सोचा कि उसके पास ये क़ीमती मोती होने चाहिए। दरअसल, दुर्गादत्त के पास ज्ञान के मोती थे। राजा ने अपने लालच में दुर्गादत्त को अपने मोती सौंपने या फांसी देने का आदेश दिया। राजा के हाथों अपने अपरिहार्य भाग्य को जानकर, दुर्गादत्त ने खुद को अग्नि के हवाले कर दिया और राजा को श्राप दिया, "जब भी तुम खाओगे, तुम्हारा चावल कीड़े के रूप में दिखाई देगा, और पानी खून के रूप में दिखाई देगा। "अपने भाग्य से निराश होकर, राजा ने एकांत की मांग की और एक ब्राह्मण से सलाह ली। ब्राह्मण ने उससे कहा कि श्राप को मिटाने के लिए, उसे राम के राज्य से रघुनाथ देवता को पुनः प्राप्त करना होगा। हताश, राजा ने एक ब्राह्मण को अयोध्या भेज दिया। आयोध्या पहुंचकर ब्राह्मण ने देवता को चुरा लिया और वापस कुल्लू की यात्रा पर निकल पड़ा। अयोध्या के लोग, अपने प्रिय रघुनाथ को लापता पाते हुए, ब्राह्मण की खोज में कुल्लू निकल पड़े। सरयू नदी के तट पर, वे ब्राह्मण के पास पहुँचे और उनसे पूछा कि वे रघुनाथ जी को क्यों ले गए हैं। तब ब्राह्मण ने उन्हें कुल्लू राजा की कहानी सुनाई। इसके बाद अयोध्या के लोगों ने रघुनाथ को उठाने का प्रयास किया, लेकिन अयोध्या की ओर वापस जाते समय उनका देवता अविश्वसनीय रूप से भारी हो गया, और कुल्लू की ओर जाते समय बहुत हल्का हो गया। इसके बाद अयोध्या वासियों ने भगवान रघुनाथ को कुल्लू जाने दिया। कुल्लू पहुँचने पर श्री रघुनाथ को कुल्लू के राज्य देवता के रूप में स्थापित किया गया। श्री रघुनाथ जी के देवता को स्थापित करने के बाद, राजा जगत सिंह ने देवता के चरण का अमृत पिया और श्राप हटा लिया। तब से जगत सिंह और कुल्लू राज घराना भगवान रघुनाथ के प्रतिनिधि बन गए। - रथयात्रा के लिए माता भुवनेश्वरी की अनुमति जरूरी कुल्लू दशहरा में भगवान रघुनाथ की रथयात्रा निकालने से पहले माता भुवनेश्वरी की अनुमति ली जाती है। उनके इशारे के बाद यात्रा शुरू होती है। इसके पीछे एक मान्यता है कि कुल्लू के राजा ने एक बार जबरदस्ती भेखली मंदिर से माता का रथ मंगाने की कोशिश की, वे आधे रास्ते ही पहुंचे थे कि तभी राजमहल में सांप निकलने लगे। राजा ने जब पता किया तो पता चला कि मां भुवनेश्वरी का प्रकोप है। इसके बाद कभी उनकी मर्जी के बिना उन्हें मंदिर से नहीं लाया गया। इसी के बाद यात्रा के लिए उनकी अनुमति लेने की परंपरा बन गई । - लंका दहन की परंपरा कुल्लू दशहरे में रावण दहन नहीं, बल्कि लंका दहन की परंपरा है। इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी ‘मनाली की मां हिडिंबा’ कुल्लू आती हैं और राजघराने के सभी सदस्य देवी का आशीर्वाद लेने आते हैं। इस दौरान एक भव्य रथ यात्रा निकाली जाती है। रथ में रघुनाथ जी, माता सीता व मां हिडिंबा की प्रतिमाओं को रखा जाता है। इन रथों को एक जगह से दूसरी जगह लेकर जाया जाता है। ये रथ यात्रा 6 दिनों तक चलती है। उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवताओं की पालकियों को इकट्ठा एक जगह लाया जाता है। कहा जाता है ये सभी छठे दिन एक-दूसरे मिलते हैं। इसके बाद 7वें दिन रघुनाथ जी के रथ को लंका दहन के लिए ब्यास नदी के पास लेकर जाया जाता है, जहां लंका दहन किया जाता है। लंका दहन के बाद रथ को वापस उसके स्थान पर लाया जाता है और रघुनाथ जी को रघुनाथपुर के मंदिर में पुन:स्थापित किया जाता है। -पीएम मोदी भी हुए थे कुल्लू दशहरा में शामिल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुल्लू दशहरा उत्सव में शामिल होने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री हैं। इस दौरान उन्होंने लगभग डेढ़ घंटे तक तुरही और ढोल की थाप के बीच रथ यात्रा को देखा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रघुनाथ जी के दर्शन कर उनका आशीर्वाद भी लिया।
कहते है साहित्य के पौधे को पेड़ बनाने में परिवेश की आबोहवा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। हिमाचल की खूबसूरत वादियों और शुद्ध वातावरण ने भी कई साहित्यकारों को जन्म दिया है। इन कई शानदार साहित्यकारों में से एक है रस्किन बॉन्ड। देश के अंग्रेज़ी साहित्यकारों में रस्किन बॉन्ड का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। रस्किन बॉन्ड का जन्म 19 मई 1934 को हिमाचल प्रदेश के जि़ला सोलन के कसौली नगर में हुआ था। साहित्यिक लेखन में आज तक के 72 से अधिक वर्षों की अवधि में, बॉन्ड ने पांच सौ से अधिक कहानियां, निबंध, आलेख और उपन्यास लिखे हैं जो बच्चों और वयस्कों के लिए समान रूप से रोचक हैं। इनके साथ ही रस्किन बॉन्ड हिमाचल और गढ़वाल की पहाडि़यों से अपनी भूतिया कहानियों से भी पाठकों को रोमांचित करने में सफल रहे हैं। एंग्लों इंडियन परिवार में जन्में रस्किन को भारत की पहाड़ियां, वादियां बहुत पसंद आती थी। यही वजह है कि मौसम-वादियां, नदी-पर्वत, घटाएं-धूप और छोटे कीड़े उनकी कहानियों का हिस्सा बन गए। रस्किन बॉन्ड ने अपना बचपन दिल्ली, शिमला, मसूरी और देहरादून जैसे शहरों में बिताया। रस्किन बॉन्ड केवल चार साल के थे जब उनकी मां उनके पिता से अलग हो गईं और बाद में उन्होंने एक भारतीय से शादी कर ली। रस्किन बॉन्ड को अपने पिता के साथ बहुत ज़्यादा लगाव था। दुर्भाग्य से सन 1944 में कोलकाता में तैनाती के दौरान मलेरिया से ग्रसित हो जाने से उनके पिता की मृत्यु हो गई। युवा रस्किन उस समय दस वर्ष के थे जब उन्हें बोर्डिंग स्कूल में एक शिक्षक के माध्यम से अपने पिता की असामयिक मृत्यु की ख़बर मिली। अपने पिता की मृत्यु के बाद अकेले रह गए रस्किन को और अधिक उदास किया उनकी मां की दूसरी शादी और देहरादून में उनके गार्डियन बने मिस्टर हैरिसन के परिवार ने। भारतीयता के रंग में रंगे रस्किन को पक्का अंग्रेज बनाने में वह कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। इसलिए वह अक्सर रस्किन की पिटाई भी कर देते थे। तब एक दिन विरोध में अपने संरक्षक पर हाथ उठा रस्किन घर से भाग गए। यह सब कुछ बहुत दुखद था। लेकिन इन सब विपरीत परिस्थितियों ने उनके हृदयस्पर्शी लेखन के लिए अच्छी जमीन तैयार कर ली। "रूम ऑन द रूफ" इन्हीं घटनाओं की परिणति है। रस्किन बॉन्ड ने शिमला के प्रसिद्ध बिशप कॉटन स्कूल में पढ़ाई की। स्कूल के बाद रस्किन लगभग चार वर्षों के लिए ब्रिटेन चले गए थे। यह 1951 के आसपास की बात है जब भारत आजाद हो चुका था, लेकिन खूब घने पेड़ों के बीच बसे उनकी दादी के घर में बिताए हुए बचपन के दिन और हिंदुस्तानी साथियों की याद ब्रिटेन में हमेशा के लिए बस जाने से उनका मोहभंग करती रहती। यही यादें सहारा बनीं "द रूम ऑन द रूफ" उपन्यास लिखने में। उपन्यास काफी प्रसिद्ध हुआ और इससे उनकी जो कमाई हुई, उन पैसों से उन्होंने 'स्वदेश' यानी भारत वापसी की। उपन्यास की कथावस्तु का केंद्र देहरादून शहर था जिस पर उन्हें अपने समय का एक प्रसिद्ध पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। उसके बाद जीवन यापन के लिए उन्होंने लेखन को ही सहारा बना लिया। रस्किन बॉन्ड की लेखन शैली बेहद सहज और सरल रही इसलिए जल्द ही वह बेस्टसेलर लेखकों में शामिल हो गए। इस उपन्यास को 1957 में जॉन लेवेलिन राइस पुरस्कार मिला, जो 30 वर्ष से कम आयु के ब्रिटिश राष्ट्रमंडल लेखक को दिया जाता था। इसी उपन्यास को ‘दि इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ में क्रमबद्ध किया गया था और उसके लिए चित्र प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट मारियो मिरांडा ने बनाए थे। रस्किन बॉन्ड 30 साल के थे जब उन्होंने दिल्ली में अपनी नौकरी छोड़ने का फैसला किया और इसके बजाय एक पूर्णकालिक लेखक बनने के लिए देहरादून में बस गए। तब उन्होंने 'द थीफ', 'व्हेन डार्कनेस फॉल्स, 'अ फेस आन द डार्क', द काइट मेकर, द टनल , अ फ्लाइट्स ऑफ पिजन, द वुमन आन प्लेटफार्म, मोस्ट ब्यूटीफुल, डेल्ही इज नॉट फार, एंग्री रिवर जैसी पांच सौ से भी अधिक कहानियां, उपन्यासों, लेख और कुछ कविताओं की रचना की। कथावस्तु बहुत सामान्य और सरल होने के बावजूद भी उनकी हर रचना दिल पर एक खास प्रभाव छोड़ जाने में कामयाब रहती है। कई कहानियों पर बनी फिल्में : रस्किन बॉन्ड की कुछ कहानियों को फिल्मी पर्दे के लिए भी रूपांतरित किया गया है। मसलन फिल्म अभिनेता/निर्माता शशि कपूर और निर्देशक श्याम बेनेगल ने 80 के दशक में रस्किन बांड के उपन्यास 'फ्लाइन ऑफ़ पिजन्स' पर 'जुनून' नाम से खूबसूरत और चर्चित फिल्म बनाई थी। रस्किन बांड की कहानी द ब्लू अंब्रेला पर विशाल भारद्वाज ने इसी नाम से फिल्म बनाई है। इसी तरह विशाल भारद्वाज ने ही रस्किन बांड की रचना 'सुज़ैन्स सेवेन हसबैंड' पर ' सात खून माफ़' फिल्म बनाई। पद्मश्री और पद्म भूषण से सम्मानित रस्किन बॉन्ड को अंग्रेज़ी में उनके उपन्यास ‘आवर ट्रीज़ स्टिल ग्रो इन दि देहरा’ के लिए 1992 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बॉन्ड ने बच्चों के लिए सैकड़ों लघु कथाएं, निबंध, उपन्यास और किताबें लिखी हैं। उन्हें 1999 में पद्मश्री और 2014 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। बिशप कॉटन स्कूल को बताते है अल्मा मेटर रस्किन बांड को अपने स्कूल से भी बेहद लगाव था। ये बात हाल ही में प्रकाशित उनकी आत्मकथा ‘लोन फॉक्स डांसिंग’ में दिखाई देती है जहाँ रस्किन बॉन्ड ने बिशप कॉटन स्कूल शिमला में बिताए दिनों का बहुत ही रोचक तरीके से ज़िक्र किया है। वे स्पष्ट कहते हैं कि उनका स्कूल उनकी ‘अल्मा मेटर’ थी, यानी दूसरी मां जिसने पूरी तरह से प्यार-दुलार और सहारा देकर उन्हें वर्तमान स्तर तक पहुंचाया।
हिमाचल प्रदेश का जिला किन्नौर अपने आप में अनूठा है और यहाँ के रीति-रिवाज़ हिमाचल प्रदेश के जनजातीय संस्कृति को परिभाषित करते है। जनजातीय क्षेत्र किन्नौर के बिना हिमाचल की खूबसूरती का वर्णन निसंदेह अधूरा है। यहाँ की बोली, रहन सहन, परिधान, खानपान और यहाँ के लोगों की जीवन शैली भी बिलकुल अलहदा है। शायद यही कारण है किन्नौर के दीदार के लिए न केवल भारत बल्कि विदेशों से भी लोग यहाँ घूमने आते है। जिला किन्नौर में स्थित कल्पा गांव प्रसिद्ध और लोकप्रिय पर्यटन स्थल है, जो पूरी तरह प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है। यह स्थान सुन्दर मंदिरो और मठो (मोनेस्ट्री) के लिए भी जाना जाता है। वैसे तो किन्नौर में कई अनोखे त्यौहार मनाए जाते है लेकिन कल्पा में मनाये जाने वाले राउलाने मेले का अपना ही एक महत्व है। राउलाने एक ऐसा स्थानीय त्यौहार है जो सदियों से मनाया जा रहा है। किन्नौर में बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म का समागम है, बावजूद इसके यहाँ पर दोनों धर्म के लोग एक ही साथ इस पर्व को मनाते है, वो बात अलग है कि दोनों का तरीका कुछ हद तक एक जैसा नहीं होता। राउलाने मेले में दोनों धर्म के लोग हिस्सा लेते है और राउलाने मनाने की प्रक्रिया सुबह से अपने कुल देवता की पूजा से शुरू की जाती है। कल्पा में गुप्त देवता का मंदिर भी है, जिनकी पूजा फाल्गुन मास के दौरान 7 दिन तक की जाती है। उस दौरान पुरुषों को महिलाओं की पारंपरिक वेश भूषा (दोढू) पहना कर मंदिर ले जाया जाता है। इस दौरान बजंतरी (वाद्ययंत्र बजाने वाले) के सामने विधिवत तरीके से पूजा की जाती है, जिसे निगारो पूजा प्रक्रिया कहा जाता है। खास बात यह है कि इस दौरान मदिरा को भी शामिल किया जाता है। इस पूजा को करने का बहुत महत्व है और इससे किन्नौर वासियों की अटूट आस्था जुड़ी है। कहा जाता है इस पूजा को न करने से दोष लगता है, हालांकि ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ कि इस मेले को न मनाया गया हो। लोग मानते है कि ऐसा करने से इनके कुल देवता प्रसन्न होते है और इलाके में सुख शांति बनी रहती है। राउलाने मेले के दौरान राउलाने ( महिला ) और राउला ( पुरुष ) बनायें जाते है। दिलचस्प बात ये है कि राउलाने और राउला मुख्य रूप से पुरुषों को ही बनाया जाता है। राउलाने में महिलाओं को पारम्परिक वेशभूषा और जेवर के साथ ब्रह्मा, विष्णु के साथ मंदिर ले जाया जाता है। राउलाने के चेहरे को गाछी (बंद कमर वस्त्र) से ढक दिया जाता है। यदि चेहरा ढके हुए पुरुष को कोई पहचान ले तो बेहद शुभ माना जाता है। कल्पा के इस मेले को चीने क्यांग के नाम से भी जाना जाता है। राउलाने मनाने का महत्व- स्थानीय लोग बताते है कि फागुन के माह में देवी देवता स्वर्ग लोक के प्रवास पर होते है। इस माह में परियों ( स्थानीय बोली में सावनी) की नकारात्मक शक्तियां बढ़ जाती है। परियों के शक्तियों से क्षेत्र में कोई अप्रिय घटना न हो इसलिए उनकी शक्तियों को नियंत्रित करने के लिए यह त्यौहार मनाया जाता है। किवदंतियों के अनुसार मेले के आखिरी दिन वापिस उन्हें उनके स्थान पर भेज दिया जाता है। इस मेले को देखने के लिए रिश्तेदारों को न्योता दिया जाता है और सभी महिलाएं और पुरुष स्थानीय और जनजातीय परिधान में सज धज के मंदिर प्रांगण में पहुंचते है और राउलाने बने व्यक्तियों के साथ हंसी ठिठोलियां करते है। इस मेले में किन्नौर के सभी तहसीलों से लोग शिरकत करते है, मेले का आनंद उठाते है और देवता का आशीर्वाद ग्रहण करते है। मेले के साथ खान-पान भी विशिष्ट : मेले के दौरान गांव के प्रत्येक घर में दु (बाड़ी), ओगला और फाफरे के पारंपरिक व्यंजन बनाए और सब्जियों के साथ परोसे जाते है। इसके अलावा मोमो, जुते, हलवा-पूरी और नमकीन चाय बनाई जाती है। इसके बाद ग्रामीण जुटे और तोषिम कार्यक्रम किया जाता है। इस दौरान किन्नौरी नाटी यानी कायंग का दौर चलता है व तीन दिन इस पर्व की धूम रहती है।
सांगला घाटी किन्नौर जिले की सबसे लावण्य घाटी है और यह पूरे वर्षभर अपने यौवन पर रहती है। यहाँ कल कल करती नदी मन को शांति प्रदान करती है और यहाँ की ठंडी फ़िज़ाओं में बैठ कर मानसिक तनाव खत्म हो जाता है। एक पुरानी लोकगीत की पंक्ति में कहा गया है "वाली शारे लोली शो, हाय सांगला देशआंग" यानी की किन्नौर की खूबूसरती में सांगला घाटी को बेहद उम्दा बताया गया है। सांगला घाटी की एक हल्की-सी ऊंची चोटी पर बसा है प्राचीन और सौंदर्य से परिपूर्ण कामरु गांव। सांगला बाजार से मात्र एक किलोमीटर दूर पूर्व दिशा में बसा कामरु गांव दूर से ही दिखाई देता है। यह गांव हिमाचल प्रदेश के सबसे पुराने और ऐतिहासिक गांव में से एक है। बुजुर्गों के अनुसार यह गांव पहले सामने वाली पूर्व दिशा की तरफ की पहाड़ी पर स्थित था, लेकिन शताब्दियों पहले आए भूकंप के बाद यह गांव इस चोटी पर बसा दिया गया था। वहीं कामरु गांव के देवता बद्रीविशाल हैं, जिन्हें श्री विष्णु का अवतार माना जाता है। देवता का मंदिर को कामरु किला के नाम से जाना जाता है, जिसका निर्माण 15वीं शताब्दी में किया गया है। कुल्लू और महासू के भांति किन्नौर के देवी देवता भी आपस में सगी संबंधी है, कोई किसी का पुत्र है, तो कोई किसी का मामा-भांजा। मनुष्य की तरह यहाँ भी देवी देवताओं के बीच रूठने मनाने का सिलसिला देखने को मिलता है। तीन साल में एक बार देवता के रथ को स्नान करवाने हेतु उत्तराखंड के बद्रीनाथ ले जाया जाता है। उत्तराखंड से भी भक्तगण हर साल देवता का आशीर्वाद लेने के लिए इस खतरनाक मार्ग को लांघते हुए सैकड़ों मील की यात्रा तय करते हुए यहां पहुंचते हैं। कामरु गांव को यहां की स्थानीय बोली में 'मोने' कहा जाता है। किंवदंती के अनुसार कुप्पा और सांगला गांव में पहले एक बहुत बड़ी झील हुआ करती थी। इसमें देवता बैरिंगनाग, कमरुनाग और बद्री विशाल का प्रभुत्व था। झील को हटाने के लिए योजना के अनुरूप देवता बैरिंगनाग ने सांप और बद्री विशाल ने चूहे का रूप धारण किया और झील के धरातल में कई सुराख करके झील को खत्म कर दिया। झील के खत्म होने के बाद से यह क्षेत्र मैदानी और बेहद खूबसूरत दिखने लगा। इसे पाने के लिए दोनों देवताओं में जंग छिड़ गई जिसमें बैरिंग नाग विजयी हुए और उन्होंने देव बद्रीविशाल को इस जगह से जाने को कहा। कहा जाता है कि दोनों देव समझौते के अनुसार फिर देव बद्रीविशाल कामरु गांव की इस चोटी में बस गए। कमरुनाग पानी में रहना पसंद करते थे और जब इस जगह झील ही नहीं रही तो उन्होंने जिला मण्डी की सरनाउली नामक जगह में खुद को व्यवस्थित किया, यह स्थान आज कामरु नाग के नाम से विख्यात है। कामरु किला पहले रामपुर बुशहर रियासत का अंगभूत भाग था। सात मंजिला यह किला तराशे गए पत्थरों और लकड़ी के मिश्रण से बना है। किले का स्थान, संरचना और बनावट कमाल की है। किले में ही कई शताब्दियों पहले आसाम से लाई गई माता कामाक्षा की मूर्ति स्थापित की गई थी। इस किले की प्राचीनता को देखते हुए अब पर्यटकों का अंदर प्रवेश वर्जित है। इस वजह से अब श्रद्धालुओं की सुविधा हेतु माता कामाक्षा की मूर्ति को किले के बाहर प्रांगण में ही बने मंदिर में स्थापित कर दिया गया है। रियासतों की समाप्ति के बाद अब किले के रखरखाव और सुरक्षा की जिम्मेवारी स्थानीय देवता बद्रीविशाल को सौंपी गई है। यह ऐसी जगह पर बनाया गया है कि दुश्मन यहां पहुंचने से पहले सौ बार अपनी बात पर मन करने को मजबूर हो जाए। यहां से सुरक्षा कर्मी दूर-दूर व चारों दिशाओं में अपने दुश्मनों पर पैनी निगाह रख सकते थे। किले के साथ ही नीचे की ओर तीन मंजिला जेल भी है। जहां उस अपराधी को रखा जाता होगा जिसने बहुत ही बड़ा गुनाह किया हो। यहां होता था हर राजा का राज्याभिषेक किले से जुड़े बहुत से मिथक और पौराणिक कथाएं हैं। यह बुशहर राजवंश की मूल सीट थी, जो यहाँ से शासन करती थी। राजधानी को बाद में सराहन और फिर रामपुर में स्थानांतरित कर दिया गया, जहां अंतिम राजा पदम सिंह ने शासन किया था। वैसे इस किले में राज्याभिषेक होता था। कहा जाता है कि 121 राजाओं का राज तिलक इसी किले में जो हुआ था। यहां आखिरी बार वीरभद्र सिंह (हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री) के पिता पदम सिंह का राजतिलक हुआ था।
हिमाचल प्रदेश में मेलों का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व है। ये कहना गलत नहीं होगा कि ये मेले हज़ारों वर्षों से हमारी प्राचीन परम्पराओं को संजोये हुए है। इसी तरह अपनी संस्कृति और लम्बे इतिहास को समेटे हुए राजधानी शिमला के रामपुर बुशहर में मनाएं जाने वाला अंतरराष्ट्रीय लवी मेला दुनियाभर में प्रसिद्ध है। अंतरराष्ट्रीय लवी मेले का इतिहास 16वीं शताब्दी से जुड़ा मिलता है। भारत व तिब्बत के बीच व्यापार के प्रतीक के रूप में इस अंतराष्ट्रीय मेले की शुरुआत हुई थी, जिसे प्रत्येक वर्ष नवंबर माह की 11 तारीख को आयोजित किया जाता है। चार दिनों तक चलने वाले इस मेले में देश-विदेश के लोग व्यापार करने एवं खरीददारी करने के लिए यहां आते हैं। लवी केवल व्यापारिक मेला ही नहीं, बल्कि इस मेले में हिमाचल प्रदेश की पुरानी संस्कृति की विशेष झलक भी दिखती है। आज भी यहां पर पारंपरिक वाद्य यंत्रों की खरीद फरोख्त, ऊनी वस्त्रों, ड्राई फ्रूट्स, जड़ी-बूटियों की खरीद प्रमुख है। वर्ष 1983 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद स्व वीरभद्र सिंह ने 1985 में रामपुर के लवी मेले को अंतरराष्ट्रीय घोषित किया था। रोचक है लवी मेले का इतिहास रामपुर रियासत के राजा केहर सिंह ने तिब्बत के साथ व्यापारिक समझौता यह सोच कर किया था कि दोनों देश के व्यापारी बिना टैक्स दिए व्यापार कर सकेंगे। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में रामपुर में तिब्बत और हिंदुस्तान के बीच व्यापार शुरू हुआ। पर लवी मेले में व्यापार टैक्स मुक्त होता था। रामपुर में लवी मेले का आयोजन पहले रामपुर बाजार में किया जाता था। लवी मेले में किन्नौर, लाहौल-स्पीति, कुल्लू और प्रदेश के अन्य क्षेत्रों से व्यापारी पैदल पहुंचते थे। इसके अलावा तिब्बत, अफगानिस्तान और उज्बेकिस्तान के व्यापारी कारोबार करने के लिए आते थे। वे विशेष रूप से ड्राई फ्रूट, ऊन, पशम और भेड़-बकरियों सहित घोड़ों को लेकर यहां आते थे। बदले में व्यापारी रामपुर से नमक, गुड़ और अन्य राशन लेकर लेकर जाते थे। यह नमक मंडी जिले के गुम्मा से लाया जाता था। लवी मेले में चामुर्थी घोड़ों का भी कारोबार किया जाता था। ये घोड़े उत्तराखंड से लाए जाते थे। इसके अलावा ऊन से बने उत्पादों की खरीद-फरोख्त भी होती थी। शिमला जिले की रामपुर रियासत में लवी मेला मध्य शताब्दी से चल रहा है। दूर-दूर से लोग इस मेले में शामिल होने आते हैं। यह मेला हिमाचल प्रदेश को गौरवान्वित करता है। लोई' से शुरू हुआ सफर बदला 'लवी' में लवी का शाब्दिक अर्थ है, 'लोई'। यह ऊन से बनी एक गर्म शॉल होती है। इस शब्द की उत्पत्ति से ही लवी शब्द की उत्पति हुई है। हिमाचल प्रदेश के अधिक सर्दी वाले क्षेत्रों में जो गर्म ऊन से बना 'चोला' पहना जाता है, उसे भी 'लोइया' कहा जाता है। सिरमौर जिला में 'लोइया' बड़े शौक से पहना जाता है। चामुर्थी नस्ल के घोड़े भी हैं आकर्षण का केंद्र लवी मेले का एक मुख्य आकर्षण चामुर्थी नस्ल के घोड़े हैं। 1984 से 'स्पीति' नस्ल के चामुर्थी घोड़ों के नाम से अश्व प्रदर्शनी को भी मेले से जोड़ा गया है। पहाड़ी क्षेत्रों के लिए चामुर्थी घोड़े काफी उपयोगी माने गए हैं और किन्नौर, लाहौल स्पीति और लद्दाख जैसे बर्फानी व पहाड़ी क्षेत्रों के लिए यह घोड़ा वरदान साबित होता है। ये घोड़े उत्तराखंड से लाए जाते थे। - किन्नौर क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान लवी व्यापारिक मेले में किन्नौर क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। किन्नौर क्षेत्र में शक्तिदायक शिलाजीत भी उंचे पत्थर की चट्टानों की कन्दराओं में भारी मात्रा में उपलब्ध रहती है, जिसे शोध कर विक्रय के लिए यहां लाया जाता है। प्राचीनकाल से ही किन्नौर के लोगों का पशुपालन प्रमुख व्यवसाय रहा है। ये लोग अपने पशुओं का व्यापार आज भी इस मेले में करते हैं। ये लोग मेला शुरू होने से एक सप्ताह पहले रामपुर नगर आ जाते हैं। सदियों से हस्तशिल्पियों की आजीविका का साधन रहा है लवी अंतरराष्ट्रीय लवी मेले में भले ही आधुनिकता हावी हो गई है, लेकिन यहां अभी भी पहाड़ी संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। लवी में एक मार्केट अभी भी ऐसी लगती है, जहां पर हिमाचल के दुर्गम क्षेत्रों में बनाई जाने वाली शॉल, टोपियों और अन्य पारंपरिक हस्तशिल्प के उत्पाद मिलते हैं। यहां लोग बुशैहरी टोपियां पहनते हैं जो कि काफी आकर्षक लगती है। इसी मार्किट की बदौलत लवी मेला सदियों से हथकरघा से जुड़े लोगों की आजीविका का साधन बना हुआ है। लवी मेला हथकरघा व्यवसाय को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा हैं। लवी मेले के कारण ही ग्रामीण दस्तकारों की साल भर की रोजी चल रही है। गौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय लवी मेला से पूर्व ग्रामीण दस्तकार साल भर विभिन्न प्रकार के वस्त्र व हस्तशिल्प से बने उत्पाद तैयार करते हैं और लवी मेले में लाकर अपने उत्पाद बेचते हैं। ऐसे में ग्रामीण दस्तकारी को बढ़ावा देने में अंतरराष्ट्रीय लवी मेला उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच एक सेतु का काम कर रहा है।
कुल्लू की पार्वती घाटी में स्थित मणिकर्ण, हिन्दू और सिख दोनों धर्मों के अनुयायियों के लिए विशेष महत्व रखता है। यहाँ महादेव शिव का प्रसिद्ध मंदिर भी है और गुरु नानक देव की याद में बनाया गया गुरुद्वारा भी। मणिकर्ण अपनी खूबसूरती और धार्मिक स्थल के साथ साथ अपने गर्म पानी के चश्मों के लिए भी काफी प्रसिद्ध है। ऐसा माना जाता है कि यहां उपलब्ध गंधकयुक्त गर्म पानी में कुछ दिन स्नान करने से कई बीमारियां ठीक हो जाती हैं। खौलते पानी के चश्मे मणिकर्ण का विशेष आकर्षण हैं। इसे कुदरत का करिश्मा ही कहेंगे कि एक ओर जहां पार्वती नदी की ठंडी जल धारा बहती है, तो वहीं दूसरी ओर खोलते पानी के चश्मे है जहां कच्चा चावल हो या दाल सबकुछ 10 मिनट में पक जाता है। इस स्थान के नामकरण से जुड़ी एक पौराणिक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि शेषनाग ने भगवान शिव के क्रोध से बचने के लिये यहां एक मणि फैंकी थी, जिस वजह से ये चमत्कार हुआ था। ऐसे होने के पीछे का किस्सा ये बताया जाता है कि 11 हजार सालों पहले भगवान शिव और माता पार्वती ने यहां तपस्या की थी। ऐसे में मां पार्वती जब नहा रही थीं, तब उनके कानों की बाली में से एक नग पानी में गिर गया था। फिर भगवान शिव ने अपने गुणों से इस मणि को ढूंढने को कहा लेकिन वह नहीं मिल सका। इसके बाद भगवान शिव बेहद नाराज हुए और उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी। आंख खोलने से नैना देवी नामक शक्ति पैदा हुई। नैना देवी ने शिव को बताया कि उनकी मणि शेषनाग के पास है। शेषनाग ने मणि को देवताओं की प्रार्थना करने पर वापस कर दिया, लेकिन वे इतने नाराज हुए कि उन्होंने जोर की फुंकार भरी जिससे इस जगह पर उबलती पानी की धारा फूटने लगी और तभी से इस जगह का नाम मणिकर्ण पड़ा। वहीं मणिकर्ण में प्रसिद्ध मणिकरण साहिब गुरुद्वारा भी स्थित है। सिख पंथ के अनुयायियों के लिए यह बेहद पवित्र जगह है। सिखों के धार्मिक स्थलों में यह स्थल विशेष स्थान रखता है। गुरुद्वारा मणिकर्ण साहिब गुरु नानक देव की यहां की यात्रा की स्मृति में बना था। कहते है कि मणिकर्ण में गुरुनानक अपने पांच चेलो के साथ आए थे और इस बात का वर्णन 'त्वरिक गुरू खालसा' में हैं। एक दिन लंगर बनाने के लिए गुरु नानक ने अपने एक चेले भाई मर्दाना को दाल और आटा मांग कर लाने के लिए कहा। इसके बाद उन्होंने मर्दाना से कहा कि वो जहां बैठे हैं वहीं से एक पत्थर उठाकर लाए। जैसे ही मर्दाना ने पत्थर उठाया वहां से गर्म पानी की धारा बहने लगी। उस दिन से आज तक इस स्थान पर पानी का ये स्त्रोत बरकरार है। आज इस गर्म पानी का इस्तेमाल यहां लंगर बनाने के लिए किया जाता है। यहां आने वाले भक्त इसे पीते भी हैं। कहा जाता है कि इसमें डुबकी लगाने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। त्वचा के रोगों से मिलता है छुटकारा मणिकर्ण में पार्वती नदी के तट पर प्राकृतिक उबलते हुए गर्म पानी के चश्में हैं, ऐसी मान्यता है कि यहां पर्यटक अपने लिए चावलों से बंधी हुई पोटली डाल कर उन्हें चंद मिनटों में पका लेते हैं। ख़ास बात ये है कि यहां खोलते हुए पानी की पीठ पर हजारों लोगों के लिए लंगर भी तैयार किया जाता है। बड़े बर्तनों में चावल व दालें डाल दी जाती हैं जो कुछ ही देर में पक कर तैयार हो जाती हैं। यहाँ मकर संक्रांति पर श्रद्धालुओं की खासी भीड़ देखने को मिलती है। ऐसा माना जाता है कि यहां उपलब्ध गंधकयुक्त गर्म पानी में कुछ दिन स्नान करने से ये बीमारियां ठीक हो जाती हैं। खौलते पानी ही मणिकर्ण का विशेष आकर्षण हैं।
हिमाचल प्रदेश को प्रकृति ने बेतहाशा उपहार दिए है। हिमाचल के पहाड़ों में कई दुर्लभ जड़ी बूटियों मौजूद है, जिस पर वर्षों से शोध चला आ रहा है। इन जड़ी बूटियों के बुते कई लाईलाज बीमारियों को खत्म करने का दावा भी किया जाता है। वैसे तो हिमाचल के उपजाऊ भूमि से पैदा होने वाली हर फसल में औषधीय गुण है, लेकिन यहाँ पाए जाने वाले फलों में भी बीमारियों से लड़ने की क्षमता है। ऐसे ही विशिष्ट गुणों से भरपूर है "चुल्ली का तेल"। चुल्ली को आम भाषा में जंगली खुबानी भी कहा जाता है। यूँ तो ये फल खुद में भी काफी उपयोगी है मगर इसके बीज का तेल असली कमाल करता है। हिमाचल में जंगली खुबानी से बनाए जाने वाले चुल्ली के इस तेल में कई लाभकारी गुण है। जंगली खुबानी का फल जिस तरह से स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है, उसी प्रकार से इसके तेल के भी कई फायदे होते हैं। ख़ास बात तो ये है की चुल्ली का तेल हिमाचल से जीआई टैग प्राप्त करने वाले उत्पादों में भी शामिल है। चुल्ली को वाइल्ड एप्रिकोट भी कहा जाता है। चुल्ली का तेल खुबानी के बीजों से बनता है। इसके बीजों या गिरी को क्रश कर के तेल निकाला जाता है। ये तेल गंधहीन होता है। ये तेल स्वास्थ्य के लिए तो रामबाण है ही, साथ ही जनजातीय क्षेत्रों में लोगों की आर्थिक मजबूत करने में भी बड़ी भूमिका निभा रहा है। चुल्ली का तेल पौष्टिक तत्वों से भरपूर होता है। खेती के साथ-साथ हिमालय के जंगलों में भी जंगली तौर पर खुबानी उगती है, खासकर कश्मीर और हिमाचल के किन्नौर में तो यह जंगल का एक अंश बन गया है। हिमालय की पहाड़ियों में जंगली खुबानी की कई प्रकार की किस्में पाई जाती हैं। ऊँचाइयों वाले हिमालय के पर्वतीय भाग इसके अच्छे उत्पादक क्षेत्र माने जाते है। इसकी खेती के लिए समशीतोष्ण और शीतोष्ण जलवायु वाली जगह अच्छी होती है। इसके पौधे अधिक गर्मी के मौसम में विकास नहीं कर पाते हैं, जबकि सर्दी के मौसम में आसानी से विकास कर लेते हैं। इसके पौधों को अधिक बारिश की जरूरत नही होती। फूल खिलते वक्त बारिश या अधिक ठंड का होना इसके लिए उपयुक्त नहीं होता। इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान सामान्य होना चाहिए। खुबानी का पेड़ 5 वर्ष की आयु से फल देना आरम्भ करता है और 35 वर्ष की आयु तक देता रहता है। जंगली खुबानी के पेड़ों में अत्यधिक फूल आने के कारण फलों की संख्या भी अधिक होती है। खुबानी के प्रति पेड़ से लगभग 30-40 किलोग्राम फल प्रति वर्ष प्राप्त हो जाते हैं। चुल्ली से तेल निकालने की पारंपरिक विधि तेल निकालने के लिए बीजों को हाथ से तोड़ा जाता है ताकि ये छिटककर दूर न चले जाएँ। इसके बाद भीमल के तार का लूप बनाया जाता है, जिसके अंदर बीजों को डालकर नदी के किनारे पाये जाने वाले छोटे, गोलाकार पत्थरों से इन्हें तोड़ा जाता है। इससे बाहर निकली गिरी को धूप में सुखाया जाता है फिर इसे ‘ओखली’ के अंदर कूटा जाता है। इसके बाद इसका पेस्ट बनाया जाता है और पानी मिलाकर धूप में इस पेस्ट को हाथ से फेंटने से तेल निकलने लगता है। इस पेस्ट को खासकर तेल निकालने के उद्देश्य से तैयार किए गए लकड़ी के बर्तन में रखा जाता है, लेकिन हाल में कुछ समय में किसानों द्वारा व्यवसाय के दृष्टिकोण से शक्तिचालित तेल निष्कर्षक इकाइयाँ सड़कों के आस पास संस्थापित की गई है। परंतु इससे केवल आस–पास के लगभग 1 से 3 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले किसानों को ही फायदा मिल सका, जबकि पहाड़ी क्षेत्र के गांव के किसानों के पास तेल निकालने का एक मात्र विकल्प इसे खुद अपने हाथों से कूटना ही रहता है। चुल्ली की कई प्रकार की किस्में भारत में पर्वतीय क्षेत्रों में जंगली खुबानी यानी चुल्ली की खेती के लिए कई प्रकार की किस्में है। इसमें शीघ्र तैयार होने वाली किस्म कैशा, शिपलेज अर्ली, न्यू लार्ज अर्ली, चौबटिया मधु, डुन्स्टान और मास्काट आदि होती है। मध्यम अवधि में तैयार होने वाली किस्म शक्करपारा, हरकोट, ऐमा, सफेदा, केशा, मोरपार्क, टर्की, चारमग्ज और क्लूथा गोल्ड होती है। इसके अलावा देर से पकने वाली किस्में रायल, सेंट एम्ब्रियोज, एलेक्स और वुल्कान आदि शामिल है। सुखाकर मेवे के रुप में प्रयोग होने वाली किस्में चारमग्ज, नाटी, पैरा पैरोला, सफेदा, शक्करपारा और केशा आदि शामिल है। मीठी गिरी वाली किस्में जिसमें सफेदा, पैराचिनार, चारमग्ज, नगेट, नरी और शक्करपारा आदि शामिल है। तराई और शीतल मैदानी क्षेत्रों वाली किस्में- समुद्रतल से 1000 मीटर की ऊँचाई पर सिपलेज अर्ली और कैशा आदि किस्में उगाई जा सकती हैं और इनके साथ पालमपुर स्पेशल, आस्ट्रेलियन और सफेदा किस्में भी उपयुक्त पाई गई हैं। जीआई टैग प्राप्त है चुल्ली का तेल प्रदेश में चुल्ली के तेल को सदियों से बेचा जा रहा है, लेकिन मार्केट में चुल्ली के तेल की ज्यादा कीमत नहीं मिलती थी। इसे देखते हुए हिमाचल प्रदेश पेटेंट सूचना केंद्र विज्ञान एवं पर्यावरण परिषद ने जीआई एक्ट 1999 के तहत रजिस्ट्रार जीआई में सफलतापूर्वक पेटेंट करवाया है। हिमाचली चुल्ली तेल को सर्टीफिकेट नंबर 337 और जीआई रजिस्ट्रेशन नंबर 467 के तहत पेटेंट किया गया। इस पेटेंट से अब हिमाचली चुल्ली के तेल को अब अंतरराष्ट्रीय बाजार में पहचान मिली है और निर्माताओं को बाजार कीमत। इसके साथ-साथ देश के रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट्स सहित सभी प्रमुख बस अड्डों पर इन्हें बेचने की भी मंजूरी मिली है। हिमाचल में चुल्ली का तेल जिला किन्नौर सहित जिला शिमला और कुल्लू के कई क्षेत्रों में पाया जाता हैं। कुछ समय पहले की बात करे तो चुल्ली के तेल को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती थी, लेकिन चुल्ली के तेल के पेटैंट के बाद बाजार में इसकी कीमत में इज़ाफ़ा तो हुआ ही है और लोगों का रुझान चुल्ली की ओर बढऩे भी लगा है। अब लोग फिर से चुल्ली यानी वाइल्ड एप्रीकॉट के पेड़ लगाकर इसे आर्थिक साधन के तौर पर भी देखने लगे हैं। जीआई टैग मिलने के बाद चुल्ली का तेल अब आसानी से अमेज़न जैसी अन्य ऑनलाइन साइट्स पर भी उपलब्ध है।
हिमाचल प्रदेश के दूरदराज इलाकों और बर्फ से ढकी चोटियों में कई रहस्य छुपे है। ऐसी ही एक जगह है स्पीति घाटी जो अपने ठंडे रेगिस्तान और जादुई प्राकृतिक सौंदर्य के साथ अविस्मरणीय अनुभव प्रदान करती है। इसी स्पीति घाटी में करीब 10,000 फीट की ऊंचाई पर मौजूद है मजबूत ताबो मठ। यह मठ भारत के सबसे पुराने मठों में से एक है। यह भारत और हिमालय का सबसे पुराना मठ है जो अपनी स्थापना के बाद से लगातार काम कर रहा है। यह आकर्षक मठ ‘हिमालय के अजंता’ के रूप में प्रसिद्ध है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्यूंकि इस मठ की दीवारों पर अजंता की गुफाओं की तरह आकर्षक भित्ति और प्राचीन चित्र बने हुए हैं। मिट्टी की मोटी दीवारों से बना ये मठ किले जैसा दिखता है। बौद्ध संस्कृति के ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण स्थलों में से एक होने के नाते, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इसके रखरखाव और संरक्षण की जिम्मेदारी संभाली है। यह मठ 6300 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है और बौद्ध समुदाय के लिए एक अनमोल खजाना है। ताबो घाटी के ठंडे रेगिस्तान में और मिट्टी की ईंटों की ऊंची दीवारों से ढका यह समृद्ध विरासत स्थल बौद्ध भिक्षुओं द्वारा अत्यधिक पूजनीय है और तिब्बत में थोलिंग गोम्पा के बाद दूसरे स्थान पर आता है। इस गोंपा यानि मठ की स्थापना लोचावा रिंगचेन जंगपो ने 996 ई. में की थी। लोचावा रिंगचेन जंगपो एक प्रसिद्ध विद्वान थे। ताबो मठ परिसर में कुल 9 देवालय हैं, जिनमें से चुकलाखंड, सेरलाखंड एवं गोंखंड प्रमुख है। ये सभी मिट्टी से बने हैं और 1000 से अधिक वर्षों से इसी तरह खड़े हैं। मुख्य मंदिर में एक सभा कक्ष है जहां भिक्षु एक साथ प्रार्थना करते थे। मठ के भीतर सभी दीवारें बौद्ध कथाओं से रंगी हुई हैं। कहते है ताबो भित्ति चित्रों ने बौद्ध धर्म की विरासत को संरक्षित रखा हुआ है। चुकलाखंड (देवालय) की दीवारों पर बहुत ही सुंदर चित्र अंकित हैं। इसमें बुद्ध के संपूर्ण जीवन को चित्रों के माध्यम से बताने का प्रयास किया गया है। बुद्ध के आलावा विभिन्न बोधिसत्वों के जीवन की कहानियां भी यहां मौजूद हैं। दिलचस्प बात यह है कि ताबो मठ के चित्र दो अलग-अलग चरणों को दिखाते है। 996 सीई का पहला चरण स्पष्ट स्थानीय और मध्य एशियाई प्रभाव दिखाता है, जबकि 11वीं सदी के दूसरे चरण में स्पष्ट कश्मीरी और पूर्वी भारतीय (पाल वंश) का प्रभाव दिखाई देता है। दीवारों पर बोधिसत्वों की 33 प्लास्टर मूर्तियां भी हैं। गोंपा में बहुत ही पुराने धर्म ग्रंथ ( तिब्बती भाषा में लिखे हुए है) एवं बौद्ध धर्म से संबंधित बहुत पुरानी पांडुलिपि भी मौजूद है। ताबो गोंपा के चित्र अजंता गुफा के चित्रों से मेल खाते हैं इसलिए ताबो गोंपा को हिमालयन अजंता के नाम से भी जाना जाता है। पुराने मठ परिसर के बगल में, एक नया मठ और एक सभा हॉल है। अन्य मंदिर आमतौर पर बंद रहते हैं, लेकिन भिक्षु आपके अनुरोध पर उन्हें आपके लिए खोल सकते हैं। ये मंदिर तारा और बुद्ध मैत्रेय जैसे बौद्ध देवताओं के हैं। ताबो मठ में चित्रों की कोई फोटोग्राफी की अनुमति नहीं है, हालांकि आप परिसर के बाहर की तस्वीरें ले सकते हैं। इन सुंदर चित्रों के चित्र पोस्टकार्ड भिक्षुओं के पास बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि साल 1975 में आए एक भूकंप ने इस मठ की संरचना को काफी नुकसान पहुंचाया था, लेकिन इसकी इमारत की बेहतर गुणवत्ता ने इसे गिरने नहीं दिया। बाद में साल 1983 में, 14वें दलाई लामा ने इसे फिर बनाने का काम शुरू करवाया था। मठ के ठीक ऊपर पहाड़ी पर कुछ ध्यान गुफाएँ भी दिखाई देती हैं जो अभी भी भिक्षुओं द्वारा उपयोग की जाती हैं। इस मठ में लगभग 60 से 80 लामा प्रतिदिन बौद्ध धर्म का अध्ययन करते हैं। इनकी दैनिक चर्या बौद्ध धर्म के धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन एवं स्थानीय लोगों के अनुरोध पर उनके घरों में जाकर धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना एवं पूजा पाठ करना है। मुख्य मंदिर के मध्य में वेरोकाना की मूर्ति है, जो मुख्य मंदिर को चारों दिशाओं से मुखारबिंद किए हुए है। साथ ही उनके चारों तरफ मंदिर की दीवार के मध्य में दुरयिंग की मूर्तियां हैं। इनमें महाबुद्ध अमिताभ, अक्षोभया, रत्ना सभा की मूर्तियां प्रमुख हैं। यह मोनेस्ट्री भारत में सबसे पुरानी कोब संरचना है। कोब यानि प्राकृतिक चीज़ों से बना एक तरह का मिट्टी का घर। बनाने में मुख्य रूप से कच्ची मिट्टी का उपयोग किया गया है। इतना ही नहीं, यहां के पारंपरिक घरों की फ्लैट छतों में भी मिट्टी ही इस्तेमाल की गई है। देवताओं ने एक रात में बनाए थे यहां चित्र ! वर्ष 1983 एवं 1996 में 14वें दलाई लामा ने यहां कालचक्र समारोह का आयोजन किया। इस कालचक्र समारोह में दीक्षा एवं पुनर्जीवन जैसे विषयों पर चर्चा की गई। यहां हर चार वर्ष में एक बार चाहर मेला लगता है, जो अक्टूबर माह में होता है। इस मठ के गर्भगृह में अलौकिक भित्ति चित्र देखने को मिलते हैं। इन्हें लेकर मान्यता है कि यह सभी चित्र देवताओं ने एक ही रात में बनाए थे। शायद यही वजह है कि यहां बने भित्ति चित्रों जैसी भाव-भंगिमाएं विश्वभर में कहीं और देखने को नहीं मिलती। मठ पर नहीं होता बर्फबारी का असर आपको यह जानकर हैरानी होगी है कि गोंपा परिसर के सभी मठों की दीवारें, छतें, सब कुछ मिट्टी से निर्मित है। इन्हें बने हुए हजारों वर्षों से अधिक का समय हो चुका है, लेकिन इसकी अनूठी वास्तुकला पर बारिश और बर्फबारी का कोई असर नहीं होता। इसे दैवीय शक्तियों का आशीर्वाद माना जाता है। बता दें कि 1975 के भूकंप के बाद मठ का पुनर्निर्माण किया गया है। ऐतिहासिक धरोहर के रूप में इस मठ का संरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को सौंपा गया है। इस मठ का नाम यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया है। दूर-दूर से लोग इस मठ को देखने आते हैं। सदियों से कोब की मजबूत दीवारों ने अपने भीतर की इस सुंदरता को संभालकर रखा है। हालांकि, आज इस मठ को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, वे पहले की तुलना में अधिक गंभीर हैं और इसका सबसे बड़ा कारण है जलवायु परिवर्तन। स्पीति घाटी में होने वाली तेज बारिश से मठ की दीवारों पर बनी कलाकृतियां धुंधली होती जा रही हैं। यूएन वर्ल्ड कमीशन ने पर्यावरण और विकास को लेकर चिंता जताई है। उन्होंने भविष्य में ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग करके सस्टेनेबल कंस्ट्रक्शन पर जोर देने की वकालत की है। उनके अनुसार, पुरानी शैली से प्रेरणा लेकर हमें बिना प्रकृति को नुकसान पहुचाएं, मजबूत और अच्छी इमारतें बनाने पर ध्यान देना होगा। --
यहां बकरे चढ़ाए तो जाते हैं, लेकिन उनकी बलि कभी नहीं दी जाती अपितु मंदिर प्रशासन उन बकरों की देखभाल करता है। हिमाचल की पहाड़ियों पर बसे बाबा बालक नाथ मंदिर की महिमा अपार है। हमीरपुर जिले के चकमोह गाँव की पहाड़ी के शिखर पर स्थित इस पूजनीय स्थल को दियोटसिद्ध के नाम से जाना है। मंदिर में पहाड़ी के बीच एक ऐतिहासिक गुफा है जिसे बाबा जी का आवास स्थान माना जाता है। मंदिर में बाबा जी की एक भव्य मूर्ति स्थापित की गई है। वहीं मंदिर में जो भक्तगण बाबाजी के दर्शन के लिए आते है वो बाबा जी की भेदी में रोट चढ़ाते हैं। इस रोट को आटे में चीनी या गुड़ डाल कर घी में बनाया जाता है। वहीँ यहाँ पर बाबाजी को बकरा भी चढ़ाया जाता है, जो उनके प्रेम का प्रतीक है और उनका पालन पोषण किया जाता है। मंदिर से करीब छह किमी आगे एक शाहतलाई नामक स्थान है, ऐसी मान्यता है कि इस जगह पर बाबाजी ध्यान योग किया करते थे। मंदिर में बाबा जी के दर्शन के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु मंदिर में पहुंचते है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि बाबा बालकनाथ गुजरात के जूनागढ़ से भगवान शिव के दर्शन करने के लिए शाहतलाई आए थे। उस समय शाहतलाई में रत्नों माई नाम की एक महिला रहा करती थी। उस महिला की कोई संतान नहीं थी। रत्नों ने बाबा बालक नाथ को अपना धर्म का पुत्र बनाया था। बाबा बालकनाथ गांव में रत्नों की गायों को चराया करते थे। माता रत्नों उन्हें खाने में रोटी और छाछ देती थी। यह सिलसिला 12 साल तक चला। एक दिन बाबाजी अपनी तपस्या में लीन थे, उस दौरान सभी गाय लोगों के खेतों में चरने के लिए घुस गई। इस बात की शिकायत लेकर गांव के लोग माता रत्नों के पास आ गए। लोगों की बाते सुन कर माता रत्नों गुस्से में आ गईं और उन्होंने गुस्से में आकर बाबा बालक नाथ को बुरा भला कह डाला। यहां तक कि उन्होंने बाबाजी को रोटियों और छाछ का ताना भी दे दिया। माता रत्नों की बातों से दुखी होकर बाबा ने वट वृक्ष के खोल में रखीं 12 वर्षों की रोटियां और छाछ से भरा तालाब उन्हें दिखा दिया। तब कहीं जाकर मां रत्नों को बाबा बालकनाथ के दिव्य पुरुष होने का अहसास हुआ। उन्होंने बाबा से क्षमा याचना भी की। जब इस बात की जानकारी गुरू गोरख नाथ को मिली तो वह प्रसन्न होकर बाबा बालक नाथ के पास पहुंच गए और उन्हें अपना चेला बनने के लिए कहा। परन्तु बाबा बालक ने उनका चेला बनने से इंकार कर दिया। गोरख नाथ ने क्रोधित होकर उन्हें जबरदस्ती अपना चेला बनाने की कोशिश भी की लेकिन गुरु गोरख नाथ की कोशिश को नाकामयाब करते हुए बाबा बालकनाथ ने उड़ारी मारी और धौलगिरी पर्वत पर पहुंच गए, जहां पर बाबा जी की पवित्र गुफा है। कहा जाता है कि बाबाजी तपस्या करते हुए इसी गुफा में अंतर्ध्यान हो गए थे। जानकारों का कहना है कि बाबा बालक नाथ की गुफा में दियोट यानि दीपक जलता है, जिसके बाद से यहां का नाम दियोटसिद्ध पड़ा। भगवान शिव ने दिया बालक की छवि में रहने का वरदान पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि बाबा बालकनाथ जी का जन्म सभी युगों में हुआ। हर एक युग में उनको अलग-अलग नाम से जाना गया। सत युग में उन्हें स्कन्द, त्रेता युग में उन्हें कौल और द्वापर युग में बाबाजी महाकौल के नाम से जाना गया। अपने हर अवतार में उन्होंने गरीबों एवं निःसहायों की सहायता करके उनके दुख दर्द और तकलीफों का नाश किया है। हर एक जन्म में बाबा बालकनाथ भगवान शिव के भगत कहलाए। द्वापर युग के दौरान जब महाकौल कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के दर्शन के लिए जा रहे थे, रास्ते में उनकी मुलाकात एक वृद्ध स्त्री से हुई। उस वृद्ध स्त्री ने महाकौल से कैलाश जाने का कारण पूछा। वृद्ध स्त्री को जब बाबाजी की इच्छा का पता चला कि वह भगवान शिव से मिलने जा रहे हैं, तो वृद्ध स्त्री ने बाबा जी को मानसरोवर नदी के किनारे तपस्या करने की सलाह दी। स्त्री ने उन्हें माता पार्वती जोकि मानसरोवर नदी में अक्सर स्नान के लिए आया करती थी, उन से भगवान शिव तक पहुँचने का उपाय पूछने के लिए कहा। बाबाजी ने बिलकुल वैसा ही किया जैसा उस वृद्ध स्त्री ने उन्हें करने के लिए कहा और घोर तपस्या के बाद बाबाजी भगवान शिव से मिलने में सफल हुए। बालयोगी की तपस्या को देखकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बाबा जी को कलयुग तक भक्तों के बीच सिद्ध प्रतीक के तौर से पूजे जाने का आशीर्वाद प्रदान किया और चिर आयु तक उनकी छवि को बालक की छवि के तौर पर बने रहने का भी आशीर्वाद दिया। स्वामी दत्तात्रेय से सिद्ध की बुनियादी शिक्षा ग्रहण की माना जाता है कि बाबा बालक नाथ जी ने कलयुग में गुजरात के काठियाबाद में देव के नाम से जन्म लिया था। उनकी माता का नाम लक्ष्मी और पिता का नाम वैष्णो वैश था। बाबा बालकनाथ बचपन से ही अध्यात्म में लीन रहते थे। यह देखकर उनके माता पिता ने उनका विवाह करने का निश्चय किया, परन्तु बाबाजी उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। परम सिद्धि की राह को अपनाते हुए बाबा जी ने अपने घर परिवार का त्याग कर दिया। परम सिद्धि की राह पर निकले बाबा बालकनाथ का सामना जूनागढ़ की गिरनार पहाड़ी में स्वामी दत्तात्रेय से हुआ और यहीं पर बाबाजी ने स्वामी दत्तात्रेय से सिद्ध की बुनियादी शिक्षा ग्रहण की और वह सिद्ध बने। तभी से उन्हें बाबा बालकनाथ जी कहा जाने लगा। गुफा के अंदर दर्शन के लिए नहीं जाती महिलाएं : बाबा बालक नाथ गुफा के अंदर महिलाएं नहीं जाती है। यह परंपरा काफी लम्बे से चली आ रही है। महिलाएं गुफा में प्रवेश करने के बजाय मंदिर परिसर में चबूतरे से ही गुफा के दर्शन करती थी। महिलाओं का गुफा का दूर से दर्शन करने का कारण बाबाजी का ब्रह्मचारी होना माना जाता है। कुछ समय पहले मंदिर में एक बोर्ड लगा जिस पर महिलाओं का गुफा में प्रवेश न करने का संदेश था। मंदिर में प्रवेश के लिए महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग रास्ते थे। हालांकि अब उस बोर्ड को हटा दिया गया है। मंदिर प्रशासन और सरकार द्वारा भी मंदिर में प्रवेश के लिए महिलाओं पर किसी तरह की रोक नहीं लगायी गयी है। यदि कोई महिला दर्शन के लिए गुफा के अंदर जाना चाहती है, तो वह जा सकती है। यह पूरी तरह महिलाओं की इच्छा पर निर्भर करता है। गुरना पेड़ में डोरी बांधकर होती है हर इच्छा पूरी: बाबा बालकनाथ की तपोस्थली शाहतलाई में प्राचीन काल की दो ऐतिहासिक धरोहरें वट वृक्ष और गुरना पेड़ आज भी उपस्थित हैं। इन पेड़ों से लाखों लोगों की श्रद्धा जुड़ी हुई है। इन ऐतिहासिक धरोहर की खास बात यह है कि प्राचीन काल से यह पेड़ सालभर हरे भरे रहते हैं। शाहतलाई में स्थित गुरना पेड़ का विशेष धार्मिक महत्व है। गुरना पेड़ का दर्शन किए बिना बाबा बालक नाथ की यात्रा अधूरी मानी जाती है। मान्यता के अनुसार बाबा जी ने चरण गंगा के किनारे स्थित गुरने की छाया में बैठकर तपस्या की थी। गुरना पेड़ आज भी उसी तरह हरा भरा है। माना जाता है कि गुरना पेड़ के तने में डोरी बांधने से हर मनोकामना पूरी होती है। जब मनोकामना पूरी हो जाती है तो श्रद्धालु उस डोरी को खोल देते हैं। इतना ही नहीं श्रद्धालु गुरने के पत्तों को तोड़कर प्रसाद के रूप में घर ले जाते थे। इससे गुरने का अस्तित्व खतरे में पड़ने लगा था। इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिए मंदिर न्यास ने गुरने के तने के चारों ओर लोहे की ऊंची ग्रिल लगा दी है। अब श्रद्धालु ग्रिल पर ही डोरी बांधकर मन्नतें मांगते हैं।
हिमाचल की प्राकृतिक ख़ूबसूरती और सरल जीवन शैली ने देश की कई बड़ी हस्तियों को अपनी ओर आकर्षित किया है, जो यहाँ आए तो हमेशा के लिए यहीं के होकर रह गए। इन हस्तियों में से एक है प्रसिद्ध लेखक, पत्रकार, उपन्यासकार, पद्मविभूषण खुशवंत सिंह। 50 से अधिक वर्षों के लिए, खुशवंत सिंह ने कई गर्मियां हिमालय की तलहटी में बसे कसौली के एक घर में बिताई, जिसे उनके पिता ने एक ब्रिटिश दंपति से खरीदा था, जो आजादी के बाद भारत छोड़ गए थे। कसौली के अपर मॉल स्थित राज विला, उनकी कोठी थी। कई किताबें उन्होंने यहीं लिखीं। इनमें 'आई शैल नॉट हियर द नाइटिंगेल', 'हिस्ट्री ऑफ सिक्ख्स' जैसी पुस्तकें शामिल हैं। वर्ष 1947 में भारत और पाक के विभाजन के समय हिमाचल के कसौली से जुड़ी लेखनी की डोर खुशवंत सिंह ने अंत तक कायम रखी। खुशवंत सिंह स्वयं को ‘आधा हिमाचली’ बताते थे। हिमाचल से उनके लगाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी पत्नी की अस्थियां कसौली स्थित घर के पेड़ों की जड़ों में डाल दी थी। खुशवंत की आखिरी पुस्तक ‘द गुड, द बैड एंड द रेडिक्युलस’ नाम से प्रकाशित हुई, जिसका विमोचन भी कसौली में हुआ। यहां का सादा रहन-सहन, खान-पान, प्रदूषण रहित वातावरण और स्वच्छ विचारों वाले लोगों का प्रभाव जीवन के अंतिम पड़ाव तक उन पर रहा। हिमाचल में अपने निवास एवं पदयात्राओं के विषय खुशवंत सिंह ने लिखा था कि हिमाचल में उनका ठिकाना शिमला, मशोबरा और कसौली तक ही सीमित था। आसपास की पहाड़ियों और घाटियों को उन्होंने पैदल चलकर ही देखा और जिया भी। खुशवंत सिंह का नाता हिमाचल से ओर अधिक मजूबत बनाने के लिए हर साल कसौली खुशवंत सिंह का लिट् फेस्ट का आयोजन किया जाता है। ये हिमाचल प्रदेश का सबसे बड़ा लिटरेरी फेस्ट है और इसमें देश विदेश के कई नामी लेखक और विचारक शिरकत करते रहे है। दिलचस्प बात ये है कि खुशवंत सिंह के जीवित रहते हुए ही इसकी शुरुआत हो गई थी और अब भी हर वर्ष ये आयोजित होता है। यही नहीं 14 अक्टूबर 2016 को हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने खुशवंत सिंह की स्मृति में कसौली से कालका तक उनके द्वारा अक्सर प्रयोग किए जाने वाले वनमार्ग को 18 लाख रुपए की लागत से ‘खुशवंत सिंह ट्रैक’ के नाम से विकसित करने के आदेश दिए थे। दबंग पत्रकार और बेबाक साहित्यकार खुशवंत सिंह अक्सर विवादों में घिरे रहते थे। वे एक राजनयिक और वकील भी थे, किन्तु उन्हें उनकी पत्रकारिता एवं साहित्यिक कृतियों के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। खुशवंत सिंह उन चंद लोगों में से एक है जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। 2 फरवरी, 1915 को पंजाब के खुशाब जिले (अब पाकिस्तान में) के हदाली में एक प्रमुख बिल्डर शोभा सिंह और वीरन बाई के घर पैदा हुए थे। खुशवंत सिंह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली के मॉडर्न स्कूल से की थी । 1930 से 1932 के बीच उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से इंटरमीडिएट ऑफ आर्ट्स की पढ़ाई की। उन्होंने 1934 में गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से बीए पूरा किया। कानून की पढ़ाई के लिए, वे लंदन के किंग्स कॉलेज गए और 1938 में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से एलएलबी की उपाधि प्राप्त की। 1947 में बाकि सिख परिवारों की तरह ही खुशवंत सिंह के परिवार को भी अपना घर छोड़ हिंदुस्तान आना पड़ा। विभाजन के बाद वह अपने परिवार के साथ समर कॉटेज कसौली में आ गए। वर्ष 1956 में प्रकाशित ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ उपन्यास का आइडिया उन्होंने विभाजन के समय पाकिस्तान से कसौली तक किए गए सफर से लिया। वे कसौली जीप में पहुंचे थे और वो जीप हथियारबंद सिक्खों से लदी थी, जो अपने परिवार को लेकर पलायन कर रहे थे। इस दौरान दंगों ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था। 'ट्रेन टू' पाकिस्तान में इन्हीं पहलुओं का जिक्र है। इसी रचना से उन्हें साहित्य में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम और ग्रोव प्रेस अवार्ड मिला। खुशवंत सिंह के बारे में एक बेहद खास बात रही है कि उन्होंने अपनी जिंदगी के आखिरी पड़ाव तक लिखना नहीं छोड़ा था। खुशवंत सिंह 99 साल की उम्र में भी सुबह 4 बजे उठकर लिखना पसंद करते थे। सिख परिवार में जन्मे खुशवंत सिंह बिल्कुल अलग तरह के पत्रकार और लेखक थे। उन्होंने खुद को एक "आकस्मिक लेखक" के रूप में वर्णित किया था। उन्होंने भारत और विदेशों में सरकार के लिए काम किया। वह सत्ता के गलियारों के काफी करीब थे। भारतीय विदेश सेवा में शामिल होने से पहले उन्होंने लाहौर उच्च न्यायालय में एक वकील के रूप में अपना पेशेवर करियर शुरू किया और 8 साल तक काम किया। एक पत्रकार के रूप में भी खुशवन्त सिंह ने ख्याति अर्जित की। 1951 में वे आकाशवाणी से जुड़े थे और 1951 से 1953 तक भारत सरकार के पत्र 'योजना' का संपादन किया। 1980 तक मुंबई से प्रकाशित प्रसिद्ध अंग्रेज़ी साप्ताहिक 'इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया' और 'न्यू डेल्ही' के संपादक रहे।1983 तक दिल्ली के प्रमुख अंग्रेज़ी दैनिक 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के संपादक भी वही थे। तभी से वे प्रति सप्ताह एक लोकप्रिय 'कॉलम' लिखते थे, जो अनेक भाषाओं के दैनिक पत्रों में प्रकाशित होता था। खुशवन्त सिंह उपन्यासकार, इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक के रूप में विख्यात रहे। खुशवंत सिंह की एक खास बात ये भी रही कि वो जितने लोकप्रिय भारत में थे उतने ही पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भी थे। खुशवंत को कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया था अपने जीवनकाल के दौरान, खुशवंत सिंह को कई पुरस्कार मिले। उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था जिसे उन्होंने 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में लौटा दिया था। खुशवंत सिंह को पंजाब रत्न पुरस्कार (2006), पद्म विभूषण (2007), साहित्य अकादमी फैलोशिप अवार्ड (2010),टाटा लिटरेचर लाइव अवार्ड (2013), और किंग्स कॉलेज, लंदन की फैलोशिप (2014) से भी सम्मानित किया गया था। इसके अलावा उन्हें 1996 में, रॉकफेलर फाउंडेशन की ओर से अनुदान से सम्मानित किया गया। सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन ने जुलाई 2000 में उनके "शानदार तीक्ष्ण लेखन" में उनकी निर्भीकता और ईमानदारी के लिए उन्हें "मैन ऑफ द ईयर अवार्ड" से सम्मानित किया। पंजाब विश्वविद्यालय ने उन्हें 2011 में मानद डी. लिट की उपाधि से सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उन्हें 2012 में अखिल भारतीय अल्पसंख्यक मंच वार्षिक फैलोशिप पुरस्कार प्रदान किया। उन्हें निशान-ए-खालसा का आदेश भी दिया गया था।
हिमाचल प्रदेश की सुक्खू सरकार ने यूँ तो सत्ता में आने के बाद कई अहम फैसले लिए है मगर इन फैसलों में एक ऐसा फैसला भी है जिसने प्रदेश के प्रत्येक व्यक्ति के दिल को छुआ है। एक ऐसा फैसला जिसने सरकार का मानवीय चेहरा और भी ज्यादा निखार कर सामने लाया। ये फैसला था प्रदेश के उन बच्चों को गले लगाने का जिनकी तरफ अक्सर दया भावना से देखा ज़रूर जाता था, मगर उनकी परिस्थिति बदलने के लिए कुछ खास कभी किया नहीं गया। हम बात कर रहे है नई सरकार की सुखाश्रय योजना की। हर राज्य की तरह हिमाचल में भी कई अनाथ बच्चे है जिनका ध्यान रखने वाला कोई नहीं। ऐसे अनाथ बच्चे या तो अनाथालय में रहते हैं या फिर रिश्तेदारों के रहमो करम पर। ऐसे बच्चों के कल्याण के लिए सत्ता में आते ही मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह ने हिमाचल प्रदेश सुखाश्रय योजना को शुरू किया। इस योजना के अंतर्गत सरकार के द्वारा बेसहारा बच्चों का सहारा बनने की पहल की गई है। इन बच्चों की पढ़ाई ही नहीं बल्कि शादी तक का ज़िम्मा भी सरकार ने अपने हाथों में लिया है। राज्य के 6000 निराश्रित बच्चों को ‘चिल्ड्रन ऑफ स्टेट’ के रूप में अपनाया गया है और इन बच्चों के लिए प्रदेश सरकार ही माता और पिता हैं। वादा किया गया है कि राज्य सरकार इन बच्चों को अभिभावक के रूप में पालने-पोसने, समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए हर संभव प्रयास करेगी। मुख्यमंत्री सुख आश्रय योजना के अंतर्गत अनाथ और विशेष रूप से सक्षम बच्चों, निराश्रित महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों को लाया गया है, जिसमें उन्हें हर संभव सहायता का प्रावधान किया गया है। योजना के अन्तर्गत उनकी उच्च शिक्षा, जेब खर्च, स्वरोजगार तथा घर निर्माण के लिए तीन बिस्वा भूमि सहित तीन लाख रुपये की सहायता राशि का प्रावधान किया गया है। हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा इसके लिए 101 करोड़ रूपए का कोष भी बनाया गया है। सरकार के द्वारा इस योजना के अंतर्गत शुरुआती चरण में तकरीबन 6000 अनाथ बच्चों को गोद लिया जाएगा और उनका भरण पोषण भी सरकार के द्वारा किया जाएगा। भरण पोषण के अंतर्गत अनाथ बच्चों को सरकार पढ़ाई का खर्च प्रदान करेगी। सरकार ने यह भी निर्णय लिया है कि अनाथ बच्चों को हर महीने उनके द्वारा आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करवाई जाएगी। इस योजना के तहत उपेक्षित वरिष्ठ नागरिकों, अनाथ बच्चों, विशेष रूप से सक्षम बच्चों और निराश्रित महिलाओं की बेहतर देखभाल के लिए नए एकीकृत घरों का निर्माण चरणबद्ध तरीके से एक परिसर में अलग-अलग खण्डों में किया जाएगा। इनमें सभी आधुनिक सुविधाओं का समावेश होगा। यह आधुनिक एकीकृत घर जिला कांगड़ा के ज्वालामुखी तथा जिला मंडी के सुंदरनगर में स्थापित होंगे। योजना के अंतर्गत संस्थान में रहने वाले बच्चों की गुणात्मक शिक्षा का प्रावधान किया गया है ताकि उन्हें बेहतर कोचिंग, संदर्भ पुस्तकें अथवा कोचिंग सामग्री मिल सके। समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के माध्यम से ऐसे बच्चों को मेंटरशिप भी प्रदान की जाएगी। दसवीं से बाहरवीं तक के बच्चों को सूचीबद्ध एजेंसियों के माध्यम से करियर काउंसलिंग भी प्रदान की जाएगी। इसके अतिरिक्त उच्च शिक्षा के लिए भी इन बच्चों को सरकार सहायता प्रदान करेगी। इसके अलावा इन बच्चों के समग्र व्यक्तित्व विकास के लिए मासिक पिकनिक आयोजित करने का भी प्रावधान किया गया है। मुख्यमंत्री सुख आश्रय योजना के तहत 18 वर्ष से अधिक आयु के पात्र आवासियों को कोचिंग, छात्रावास शुल्क, शिक्षण शुल्क आदि के लिए प्रति व्यक्ति एक लाख रुपए प्रति वर्ष प्रदान करने के अलावा कोचिंग की अवधि के दौरान चार हजार रुपए प्रति आवासी प्रति माह छात्रवृत्ति प्रदान करने का प्रावधान किया गया है। योजना में इन संस्थानों के आवासियों को विवाह के लिए दो लाख रुपए अथवा वास्तविक खर्च, जो भी कम हो, प्रदान किया जाएगा। इसके अतिरिक्त इन संस्थानों में रहने वाले प्रत्येक बच्चे, निराश्रित महिलाओं का आवर्ती जमा खाता खोला जाएगा, जिसमें सरकार द्वारा 0-14 वर्ष की आयु के बच्चों को एक हजार रुपए प्रति बच्चा प्रति माह, 15-18 वर्ष आयु के बच्चों व एकल महिलाओं को दो हजार पांच सौ रुपए प्रति माह की सहायता राशि देगी। इन संस्थानों के आवासियों को भारत के विभिन्न दर्शनीय अथवा ऐतिहासिक स्थलों का पंद्रह दिन का शैक्षिक भ्रमण प्रति वर्ष आयोजित करने का भी प्रावधान है, जिसमें आवासियों के लिए यात्रा की व्यवस्था शताब्दी ट्रेन, एसी वॉल्वो अथवा हवाई सुविधा के साथ-साथ थ्री स्टार होटलों में ठहरने की व्यवस्था होगी। योजना में इसी तर्ज पर वृद्धाश्रमों एवं नारी सेवा सदनों के आवासियों को भी प्रति वर्ष 10 दिन की यात्रा व ठहरने का प्रावधान किया गया है। मुख्यमंत्री सुख आश्रय योजना के तहत अनाथ बच्चों को 18 वर्ष की आयु के बाद 27 वर्ष तक पश्चावर्ती देखभाल संस्थानों में आवासीय सुविधाओं के साथ-साथ भोजन, आश्रय और वस्त्र भी उपलब्ध करवाए जाएंगे। इस योजना के तहत जिन अनाथ बच्चों के नाम पर कोई भूमि नहीं है, उन्हें 27 वर्ष की आयु के बाद घर के निर्माण के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में तीन बिस्वा भूमि देने के साथ-साथ आवास निर्माण के लिए तीन लाख रुपए की सहायता राशि प्रदान की जाएगी। योजना के तहत इन संस्थानों में रहने वाले सभी आवासियों को वस्त्र अनुदान के रूप में दस हजार रुपए की राशि प्रति वर्ष उनके बैंक खाते में जमा करवाई जाएगी ताकि वह अपने पसंद के वस्त्र व जूते खरीद सकें। इसके अतिरिक्त संस्थान में रहने वाले व्यक्तियों की देखभाल के लिए अतिरिक्त गृह माता अथवा पालक की नियुक्ति का भी योजना में प्रावधान किया गया है, ताकि उन्हें रहन-सहन में किसी प्रकार की कठिनाई का सामना न करना पड़े। मुख्यमंत्री सुख-आश्रय योजना के तहत आवासीय को वर्ष भर आने वाले त्यौहार को मनाने के लिए प्रति त्यौहार 500 रुपए की अनुदान राशि भी दी जाएगी। ऐसे वर्ग की सहायता के लिए 101 करोड़ के प्रारंभिक योगदान के साथ-साथ मुख्यमंत्री सुख-आश्रय सहायता कोष का गठन किया गया है।
हिमाचल हरित ऊर्जा राज्य बनने की ओर अग्रसर है। अपनी आश्चर्यजनक प्राकृतिक सुंदरता और प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के लिए प्रसिद्ध, हिमाचल प्रदेश ने अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करते हुए अपने पर्यावरण की रक्षा के लिए स्थायी प्रथाओं को अपनाने के महत्व को पहचाना है और इसी लिए राज्य सरकार ने हिमाचल को वर्ष 2025 तक देश का पहला हरित राज्य बनाने का लक्ष्य रखा है। हाल ही में पेश हुआ सरकार का पहला बजट भी प्रदेश को हरित राज्य बनाने हेतु प्रदेश सरकार की गंभीरता को दर्शाता है। पहले हरित बजट में प्रदेश के लिए आर्थिक एवं पर्यावरण की दृष्टि से होने वाले मुनाफे के बीच संतुलन साधते हुए परंपरागत बसों को ई-बसों से बदलने के लिए एक हजार करोड़ रुपये का प्रस्ताव किया गया है। इससे हिमाचल प्रदेश विद्युत चालित वाहनों के लिए एक आदर्श राज्य के रूप में उभरेगा। हरित राज्य की ओर कदम आगे बढ़ाते हुए मुख्यमंत्री ने निजी ऑपरेटरों को ई-बसों तथा ई-ट्रकों की खरीद के लिए 50 प्रतिशत उपदान, अधिकतम 50 लाख रुपये तक प्रदान करने की घोषणा भी की है। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री ने राज्य की 18 वर्ष या इससे अधिक आयु की 20 हजार होनहार छात्राओं को इलेक्ट्रिक स्कूटी की खरीद के लिए 25 हजार रुपये का उपदान प्रदान करने की भी घोषणा की है। प्रदेश में इलेक्ट्रिक चार्जिंग स्टेशन स्थापित करने के इच्छुक निजी निवेशकों को 50 प्रतिशत उपदान देने की घोषणा की गई है। व्यवहार्यता को देखते हुए भविष्य में इस उपदान में बढ़ोतरी करने का वादा भी किया गया है। यही नहीं राज्य में युवाओं को विभिन्न रूटों पर ई-बसें चलाने के लिए परमिट भी जारी किए जाएंगे। प्रदेश को हरित राज्य की ओर बढ़ाते हुए नादौन में ई-बस डिपो स्थापित करने और शिमला बस अड्डे को ई-डिपो में परिवर्तित करने की भी घोषणा की। प्रदेश में इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गों को ग्रीन कोरिडोर में विकसित करने का प्रस्ताव है। इसमें परवाणू-नालागढ़-ऊना-हमीरपुर-देहरा-अंब-मुबारकपुर-संसारपुर टैरेस-नूरपुर राजमार्ग, पांवटा- नाहन-सोलन-शिमला, परवाणू-सोलन-शिमला-रामपुर-पिओ-पूह-काजा-ताबो-लोसर राजमार्ग, शिमला-बिलासपुर-हमीरपुर-कांगड़ा-नूरपुर-बनीखेत-चंबा, मंडी-जोगिंदरनगर-पालमपुर-धर्मशाला- कांगड़ा-पठानकोट राजमार्ग और कीरतपुर-बिलासपुर-मंडी-कुल्लू-मनाली- केलंग-बारालाचा स्थित ज़िंग-जिंगबार शामिल है। इस तरह की हरित पहलें ईंधन क्षमता की दृष्टि से विचारणीय हैं और विद्युत चालित वाहन संचालन परिव्ययों को कम करने तथा ईंधन के दामों में कमी के लिहाज से प्रभावी हैं। साथ ही यह कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के दृष्टिगत गैस, पैट्रोल व डीजल के हरित विकल्प के रूप में भी उपयोग में लाए जा सकेंगे। परिवहन क्षेत्र से प्रदेश के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर, ग्रीन हाउस गैसों के दूरगामी प्रभावों तथा ईंधन की बढ़ती कीमतों को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू द्वारा प्रस्तुत हरित बजट से हिमाचल को हरित ऊर्जा राज्य बनाने की राह संभव हो सकेगी। इसके अतिरिक्त, ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन के साथ ही हिमाचल राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन ऊर्जा अभियान के साथ आगे बढ़ने के लिए भी तैयार है। हिमाचल ने विद्युत चालित वाहनों के लिए ग्रीन हाइड्रोजन संयंत्र स्थापित करने के लिए जाइका से भी सहयोग के लिए हाथ बढ़ाए हैं और यह इस महत्वाकांक्षी परियोजना के लक्ष्यों को हासिल करने में दूरगामी सिद्ध होगा। हरित एवं स्वच्छ हिमाचल की ओर आगे बढ़ते हुए मुख्यमंत्री ने निजी-सार्वजनिक भागीदारी के माध्यम से प्रदेश में विभिन्न सौर परियोजनाएं स्थापित करने का भी प्रस्ताव दिया है जिससे उपभोक्ताओं को सस्ती दरों पर स्वच्छ बिजली उपलब्ध होगी और कार्बन उत्सर्जन भी कम होगा। राज्य के प्रत्येक जिले में पायलट आधार पर दो पंचायतों में 500 किलोवाट से एक मैगावाट क्षमता के सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित कर इन्हें हरित पंचायतों के रूप में विकसित करने की भी घोषणा की है। प्रदेश के युवाओं को अपनी अथवा पट्टे पर ली गई भूमि पर 250 किलोवाट से दो मैगावाट क्षमता की सौर ऊर्जा परियोजनाएं स्थापित करने पर 40 प्रतिशत उपदान का भी प्रावधान किया गया है। इससे राज्य में वृहद् स्तर पर विद्युत ग्रिड सुरक्षा उपलब्ध हो सकेगी और विशेष तौर पर यह प्रकृति अथवा मानव जनित आपदाओं में प्रभावी होगी। सौर ऊर्जा पैनल पर अनुदान के अलावा उत्पादकों को शून्य बिजली बिल के साथ ही बिजली वापिस ग्रिड को बेचने से आय का साधन भी उपलब्ध होगा। प्रदेश सरकार स्वयं भी सौर ऊर्जा संयंत्रों में निवेश करेगी और वर्ष 2023-24 में 500 मैगावाट सौर ऊर्जा परियोजनाएं स्थापित की जाएंगी। 5000 करोड़ का ग्रीन हाइड्रोजन उद्योग हिमाचल को हरित हाइड्रोजन आधारित प्रमुख अर्थव्यवस्था बनाने के दृष्टिगत प्रदेश सरकार ने हरित हाइड्रोजन एवं अमोनिया परियोजना के लिए मैसर्ज एचएलसी ग्रीन एनर्जी एलएलसी के साथ एक समझौता ज्ञापन हस्ताक्षरित किया है। परियोजना से प्रदेश में चार हजार करोड़ से अधिक का निवेश किया जाएगा और 3500 से अधिक रोजगार के अवसर होंगे सृजित होंगे। दरअसल हरित हाइड्रोजन में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी लाने, उर्वरकों की कीमतों में कमी लाने और आयात विकल्प के रूप में देश की अर्थव्यवस्था में सहयोग करने की क्षमता है। राज्य में जल संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने से ऊर्जा के इस विकल्प के उत्पादन के लिए हिमाचल के पास अनुकूल परिस्थितियां हैं।
हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में परंपरागत घराट का चलन सदियों से चला आ रहा हैं। ग्रामीण क्षेत्र के लोग गेहूं की घराट से पिसाई करते हैं। इनसे जो आटा निकलता है उसकी तुलना चक्की के आटे से नहीं की जा सकती। इस आटे को चक्की के आटे से ज्यादा बेहतर माना जाता है। यही वजह है कि आज भी ग्रामीण लोग घराट के आटे का ही इस्तेमाल करते हैं, हालांकि अब इसका चलन काफी कम होता जा रहा है। प्रदेश के दुर्गम क्षेत्रों में वो दौर भी था जब घराट ग्रामीण लोगों के लिए आर्थिकी का मुख्य साधन बना। लोग अपने खेतों में पारंपरिक अनाजों और गेंहू, कोदा का उत्पादन कर उसे पानी से चलने वाले घराटों में पीसकर आटा तैयार करते थे। इन घराटों में पिसा हुआ आटा कई महीनों तक तरोताजा रहता था। खास बात यह थी कि आटे की पौष्टिकता बनी रहती थी और मिलावट के नाम पर कुछ नहीं होता था। शायद यही वजह है कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोग स्वस्थ रहते थे और सेहत का राज भी हुआ करता था। इन घराटों में लोग कोदा, गेहूं, मक्का, चेस्टन जैसे स्थानीय अनाज पीसा करते थे। घराट संचालक घराटों में गेहूं पीसने के साथ ही बिजली उत्पादन के क्षेत्र में भी कार्य करते थे, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में इससे रोजगार भी सृजित होते थे। किन्तु जब से अत्याधुनिक मशीनों का निर्माण हुआ, तब से उन मशीनों पर लोगों ने जाना बंद कर दिया। ग्रामीण क्षेत्रों में अब कम ही घराट नजर आते हैं। अब घराट विलुप्त होने की कगार पर है। पहचान खोते इन पारंपरिक घराटों को अब विरासत के रूप में संजोए रखने की दरकार है, ताकि आने वाली पीढ़ी इससे रूबरू हो सकें। कैसे काम करता है घराट घराट किसी खड्ड या नाले के किनारे से निकलने वाले पानी की तेज धारा से चलते हैं। ये आम तौर पर डेढ़ मंजिला घर की तरह होते हैं। ऊपर की एक मंजिल में बड़ी चट्टानों से काटकर बनाए पहिये लकड़ी या लोहे की बड़ी-बड़ी फिरकियों पर पानी के वेग से घूमते हैं। इससे आटा पिसता है। घराट के आटे से बनी रोटियों का स्वाद चक्की के आटे से अलग होता है। इसे पौष्टिक माना जाता है। पहाड़ी लोग इलेक्ट्रिक चक्की में पीसे आटे के बजाय परंपरागत घराट में हुई पिसाई को पहले खूब पसंद करते रहे हैं।
सतलुज नदी के तट पर बसे नांज गांव की अब एक नई पहचान भी है। दरअसल ये पदमश्री नेकराम शर्मा का गांव है, जिन्हें हालहीं में राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने ये सम्मान दिया है। हिमाचल प्रदेश की मिट्टी ने किसानों की मेहनत को कभी व्यर्थ जाने नहीं दिया। न जाने कितने ही प्रदेश के ऐसे किसान- बागवान है जो सफलता के क्षितिज पर पहुंचे है और नेकराम शर्मा भी ऐसी ही प्रगतिशील किसान है। नेकराम शर्मा ने लुप्त हो रहे अनाजों का न केवल संरक्षण किया बल्कि दूसरे किसानों को भी इसके लिए प्रेरित किया। नेकराम शर्मा की मेहनत और जुनून का ही फल है कि आज बीस हजार से भी अधिक किसान प्राकृतिक खेती से जुड़ चुके हैं। नेकराम शर्मा 1992 के वर्ष में देशव्यापी साक्षरता अभियान से जुड़े और इसी दौर में उनका जुड़ाव प्राकृतिक खेती से भी हुआ तो फिर पीछे मुडक़र नहीं देखा। पारंपरिक अनाज के बीज को किया संरक्षित पिछले करीब तीन दशकों से 10वीं कक्षा तक पढ़े नेकराम शर्मा ने न केवल पारंपरिक अनाज के बीज को संरक्षित कर इसका दायरा बढ़ाया है, बल्कि एक हजार किसानों का जोड़कर लुप्त हो रहे मोटे अनाज को लेकर जागरूकता की अलख भी जगाई है। इन्होंने एक-एक किसान परिवार को जोड़ते हुए जौ अनाज की पारंपरिक फसल प्रणाली को बढ़ाया है। नेकराम शर्मा इन किसानों के माध्यम से पारंपरिक बीज देते और जागरूक करते हैं। इनका मानना है कि मोटा अनाज पोषण से भरपूर होता है और इनका सरंक्षण भी होना चाहिए। बनाया 40 तरह के बीजों का बैंक नेक राम का कहना है कि पहले किसान पारंपरिक तरीके से कई तरह की फसलों की खेती करते थे। इनमें मोटे अनाज रागी, झंगोरा, कौणी, चीणा, धान, गेहूं, जौ, दालें गहत, भट्ट, मसूर, लोबिया, राजमा, माश आदि, तिलहन, कम उपयोग वाली फसलें चैलाई, कुट्टू, ओगला, बथुआ, कद्दू, भंगीरा, जखिया आदि शामिल थे, लेकिन समय के साथ पारंपरिक बीज भी खत्म होता गया और इन्हें उगाने का तरीका भी बदल गया। उन्होंने 40 तरह के अनाज का एक अनूठा बीज बैंक भी बनाया है। इस बीज बैंक में ऐसे कई अनाज हैं, जो विलुप्त होने की कगार पर हैं।
कांगड़ा के ज्वाली क्षेत्र के पास स्थित पौंग डैम झील में बाथू की लड़ी मंदिर अपने आप में किसी अजूबे से कम नहीं है। दरअसल ये मंदिर करीब आठ महीने तक पानी के अंदर रहता है और सिर्फ चार महीने के लिए ही भक्तों को दर्शन देता है। इस मंदिर को बाथू मंदिर के नाम से जाना जाता है और स्थानीय भाषा में ‘बाथू की लड़ी’ के नाम से प्रसिद्ध है। माना जाता है कि इन मंदिरों को पांडवों ने बनाया था। आश्चर्य वाली बात ये है कि लंबे समय तक डूबे रहने के बाद भी मंदिर की संरचना में कोई बदलाव नहीं आया है। ऐसा इसलिए क्याेंकि मंदिर बा थू नाम के शक्तिशाली पत्थर से बना है। यहां पर आप भगवान गणेश और काली की मूर्तियों को पत्थर पर उकेरा हुआ देख सकते हैं। मंदिर के अंदर शेषनाग पर आराम करते हुए विष्णु भगवान की मूर्ति स्थापित है। मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर के अलावा आठ छोटे-छोटे मंदिर भी बने हुए हैं। बताया जाता है कि इस मंदिर का संबंध महाभारत से है। यह मंदिर पंजाब के जालंधर से करीब 150 किमी दूर स्थित महाराणा प्रताप सागर झील में पौंग बांध की दीवार से 15 किमी दूर एक टापू पर बना हुआ है। बाथू की लड़ी का मंदिर साल के 8 महीने तक महाराणा प्रताप सागर झील में डूबा रहता है। जैसे ही पोंग बांध झील का पानी का स्तर बढ़ता है, पानी के नीचे मंदिर की एक अलग ही दुनिया बन जाती है। स्थानीय लोगों का मानना है कि इस मंदिर का निर्माण स्थानीय राजा द्वारा किया गया था। जबकि कुछ लोग इसे पांडवों से जोड़ते हैं। उनका मानना है कि पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान यहीं अपनी स्वर्ग की सीढ़ी बनाने की कोशिश की थी। हालांकि, इसे बनाने में वो सफल नहीं हो सके क्योंकि इन सीढ़ियों का निर्माण उन्हें एक रात में करना था। फिर पांडवों ने स्वर्ग तक सीढ़ियां बनाने के लिए भगवान कृष्ण की मदद मांगी थी। श्रीकृष्ण ने 6 महीने की एक रात कर दी, उसके बाद भी स्वर्ग की सीढ़ियां तैयार नहीं हो सकी। ऐसे में पांडवों का काम अढ़ाई सीढ़ियों से अधूरा रह गया और सुबह हो गई। आपको जानकर हैरत होगी कि आज भी इस मंदिर में तथाकथित स्वर्ग में जाने वाली 40 सीढ़ियां मौजूद हैं, जिसे आप देख सकते है। पक्षी अभ्यारण्य के रूप में आरक्षित क्षेत्र ये सारा इलाका भारत सरकार द्वारा प्रवासी पक्षियों के आश्रय के लिए पक्षी अभयारण्य या आर्द्रभूमि (वैटलैंड) के रूप में संरक्षित है, जिसमें किसी भी तरह का भवन निर्माण वर्जित है। पक्षियों पर अध्ययन के लिए आने वाले छात्रों, वैज्ञानिकों या प्रकृति प्रेमियों के लिए ये सबसे उत्तम जगह है। विदेशी सैलानियों का यहां आना-जाना लगा रहता है। खुले मैदान को पार करके जलाशय के तट पर पहुंच कर वहां का नजारा देखते ही बनता है। जलाशय में उठने वाली लहरें समुद्र तट जैसा रोमांच अनुभव करवाती हैं। अप्रैल से जून के महीनों में इस मंदिर के दर्शन के लिए उत्तम हैं। शेष 8 महीने तक ये मंदिर पानी में जलमग्न रहता है, तो उस दौरान इस मंदिर का ऊपरी हिस्सा ही दिखाई देता है। इस मंदिर के आसपास कुछ छोटे-छोटे टापू बने हुए हैं, इनमें से एक पर्यटन की दृष्टि से प्रसिद्ध है जिसे "रेनसर" के नाम से जाना जाता है। इसमें रेनसर के फोरैस्ट विभाग के कुछ रिजॉर्टस हैं जहां पर्यटकों के रुकने और रहने की उचित व्यवस्था है।
देवभूमि हिमाचल में महादेव शिव के अनेक मंदिर हैं। महादेव के इन्हीं मंदिरों में से एक है जिला ऊना जिला के बंगाणा उपमंडल के तलमेहड़ा गांव की रामगढ़ धार पर स्थित धौम्येश्वर सदाशिव मंदिर, जो भी लाखों शिवभक्तों की आस्था का केंद्र है। मान्यता है कि करीब 5500 वर्ष पहले महाभारत काल में पांडवों के पुरोहित श्री धौम्य ऋषि ने तीर्थ यात्रा करते हुए इसी ध्यूंसर नामक पर्वत पर शिव की तपस्या की थी। तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर दर्शन देते हुए वर मांगने को कहा था, जिस पर ऋषि ने वर मांगा कि इस पूरे क्षेत्र में आकर धौम्येश्वर शिव की पूजा करने वाले की मनोकामनाएं पूरी हो। मान्यताओं के मुताबिक भगवान शिव तथास्तु कह कर अंर्तध्यान हो गए थे। इसके बाद से जो भी श्रद्धालु मंदिर पहुंच कर सच्चे मन से मन्नत मांगता है, तो उस भक्त की मुराद पूरी होती है। मंदिर को धौम्येश्वर शिवलिंग, ध्यूंसर महादेव और सदाशिव के नाम से पुकारा जाता है। मंदिर के वर्तमान पुजारी राकेश शर्मा व सिद्ध राज शास्त्री के मुताबिक 1948 में पहली बार जिला के इस सबसे ऊंचे स्थल पर मौजूद पवित्र शिवलिंग के स्थान पर शिवरात्री का आयोजन किया गया था। पुजारी की मानें तो 1937 में मद्रास के एक सैशन जज स्वामी ओंकारा नंद गिरी को स्वप्र में भगवान शिव ने दर्शन देते हुए कहा कि पांडवों के अज्ञातवास के समय उनके पुरोहित धौम्य ऋर्षि द्वारा स्वयंभू शिवलिंग अर्चना की थी। वे शिवलिंग की खोज कर पूजा अर्चना करें। स्वामी ओंकारा नंद गिरी ने स्वप्र के आधार पर शिवलिंग को काफी जगह खोजा, लेकिन नहीं मिला। घूमते-घूमते सन् 1947 में स्वामी सोहारी पहुंच गए। सोहारी स्थित सनातनन उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य शिव प्रसाद शर्मा डबराल के सहयोग से स्वामी ओंकारा नंद गिरी जी शिवलिंग के पास पहुंचे। उन्होंने कहा कि सबसे पहले आठ बाय आठ फुट का पहला मंदिर बनाया था। 1988 तक स्वामी ओंकारानंद गिरी जी इस मंदिर का संचालन करते रहे, उनके उपरांत मंदिर समिति इसके प्रबंधों का जिम्मा संभाले हुए हैं। अखंड धूना जगाने से हुआ वट वृक्ष हरा-भरा करीब 23 वर्षों से प्रकाश चंद बाबा जी मंदिर में अखंड धूना जला रहे है। प्रकाश चंद बाबा की माने तो पांडवों के समय के पश्चात शिवलिंग के समीप वट वृक्ष सुख गया था। इसके बाद वर्ष 1996 में अखंड धूना जलाया गया, जिसके बाद वृक्ष धीरे-धीरे हरा भरा हो चला गया। माता चिंतपूर्णी की तर्ज पर श्रद्धालुओं द्वारा वट वृक्ष पर मोली बांधकर मुरादें मांगते है, जो कि पूरी होती है। प्रकाश चंद ने बताया कि अखंड धूने से सांस की बीमारी, फोड़ा फूंसी सहित चर्म रोगों से भी राहत मिलती है। बारिश न होने पर पिंडी को भरा जाता है जल से मान्यता है कि गर्मियों के दिनों अगर सूखा पड़ता है तो शिवलिंग को पूरा जल से भर दिया जाता है। सूखा पड़ने पर सभी ग्रामीण सदाशिव मंदिर पहुंचते है और पूजा अर्चना करते हैं। शिवलिंग को ऊपर तक पानी से भरने पर जोरदार बारिश होती है। ऐसा एक बार नहीं, कई बार हुआ। सूखा पड़ने पर मंदिर में ग्रामीण एकत्रित हुए और शिव शक्ति स्वरूप वाले शिवलिंग को पानी से भर दिया, जिसके बाद जोरदार बारिश होती है। शिव शक्ति स्वरूप शिवलिंग बदलता है रंग जंगलो के बीच चट्टानों पर स्थित शिव शक्ति स्वरूप वाला शिवलिंग अक्सर रंग बदलता है। मंदिर के पुजारी की माने तो स्वयंभू शिवलिंग समय-समय पर अनेक रंग बदलता है, जो कि अद्भुत दिखता है। स्वयंभू शिवलिंग कभी हरा, कभी लाल तो कभी पत्थर के रंग का हो जाता है। शिवलिंग को फूलों से सजाया जाता है और सदा चांदी के छतर से इसे शोभित रखते हैं। हैरत की बात है कि हर वर्ष शिवरात्रि के दिन शेष नाग दर्शन देते हैं।
हिमाचल अपनी खूबसूरत वादियों के लिए देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर में प्रसिद्ध है और इस खूबसूरती में अब पालमपुर में बनाया गया ट्यूलिप गार्डन हिमाचल की सुंदरता को चार चाँद लगा रहा है। चाय नगरी के बाद पालमपुर की पहचान ट्यूलिप गार्डन से बन रही है। धौलाधार की तलहटी में बसा पालमपुर के मैदानी इलाकों से दिखने वाले बर्फ से ढके पहाड़ स्विट्जरलैंड का एहसास कराते हैं। वहीं राज्य की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए यहाँ पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं। अब पिछले कुछ समय से पालमपुर एक और वजह से आकर्षण का केंद्र बनता जा रहा है और वह है आईएचबीटी पालमपुर का बेहद खूबसूरत ट्यूलिप गार्डन। दरअसल कश्मीर के बाद आईएचबीटी पालमपुर ने देश का ये दूसरा ट्यूलिप गार्डन तैयार किया है। इस गार्डन की खासियत ये है कि यह ट्यूलिप गार्डन पूरी तरह स्वदेशी ट्यूलिप पौध से विकसित किया गया है और इसकी पौध लाहौल-स्पीति में तैयार की गई है। -पूरी तरह से स्वदेशी है ट्यूलिप गार्डन आम तौर पर ट्यूलिप के पौधे नीदरलैंड, हॉलैंड और अफगानिस्तान से आयात किए जाते है। इस फूल का गहरा रंग और सुंदर आकार लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इसकी एक या दो नहीं बल्कि कई खूबसूरत प्रजातियां होती हैं। पालमपुर के गार्डन की खासियत ये है कि ये ट्यूलिप गार्डन पूरी तरह से स्वदेशी ट्यूलिप पौध से विकसित किया गया है। लाहौल-स्पीति और लद्दाख में ये ट्यूलिप के पौधे तैयार किए गए है। ट्यूलिप पहाड़ी इलाकों में ज्यादा उगता है। बाग में लगे ये स्वदेशी फूल बगीचे की शोभा बढ़ाते हैं। - 11 किस्मों के करीब 50 हजार ट्यूलिप सीएसआइआर-आईएचबीटी संस्थान पालमपुर के वैज्ञानिकों की अथक मेहनत का ही नतीजा है कि मैदानी जमीन ट्यूलिप जैसे पहाड़ी प्रजाति के फूलों को खुद में समाहित करके अंकुरित करने लग गई है। नतीजतन अब लोग कश्मीर के ट्यूलिप गार्डन का एहसास टी-गार्डन सिटी पालमपुर में भी कर पा रहे हैं। यहां वैज्ञानिकों ने 11 किस्मों के करीब 50 हजार ट्यूलिप तैयार कर दिये हैं, जो कि सबके आकर्षण का केंद्र बने हुए है। - पर्यटन को मिल रहा बढ़ावा यूँ तो जिला काँगड़ा में अनेको खूबसूरत पर्यटन स्थल है, लेकिन अब पालमपुर के ट्यूलिप गार्डन से भी पर्यटन क्षेत्र को खूब बढ़ावा मिल रहा है। पहले ट्यूलिप गार्डन को देखने के लिए श्रीनगर जाना पड़ता था, लेकिन अब कश्मीर के बाद आईएचबीटी पालमपुर ने देश का ये दूसरा ट्यूलिप गार्डन तैयार किया है जिसे देखने के लिए दुनिया भर से पर्यटक पालमपुर का रुख करते है।
हिमाचल प्रदेश का प्राकृतिक सौंदर्य ही नहीं अपितु यहाँ की समृद्ध कला शैली भी प्रदेश को एक अलग पहचान दिलाती है। जिला चम्बा के थाल ने प्रदेश को विश्व भर में एक अलग ही पहचान दिलाई है। कहते है रियासत काल में राजाओं के समय में राजा को भेंट के रूप में चंबा थाल दिया जाता था। जो परंपरा उस समय शुरू हुई थी वह आज भी चल रही है। आज भी जब शादी विवाह या किसी मुख्य अतिथि को कोई चीज भेंट करनी होती है, तो चंबा थाल को सबसे पहले प्राथमिकता दी जाती है। देवी-देवताओं की जीवंत छवियों वाले चम्बा थाल का उपयोग मंदिरों, विवाहों या किसी अन्य पवित्र अवसर पर "पूजा" करने जैसे अनुष्ठानों में किया जाता है। बीत कुछ समय से अब इस चम्बा थाल की डिमांड अधिक हो गई है। खासतौर से जब से केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने ओलंपिक विजेताओं को चंबा थाल देने की शुरुआत की है, उसके बाद से चंबा थाल की डिमांड कई गुना बढ़ गई है और इसके बाद से चंबा की धातु शिल्प कला की दुनिया दीवानी हो रही है। इस तरह बनाया जाता है चम्बा थाल पीतल पर हाथों से कलाकृतियां उकेर कर तैयार किया जाने वाला चंबा थाल अपने आप में खास है। इस पर पहले हिंदू देवी-देवताओं की कलाकृतियां उकेरी जाती थीं। समय के साथ इसमें देवी-देवताओं के अलावा गद्दी समुदाय सहित हिमाचली संस्कृति से जुड़ी कलाकृतियां उकेरी जाने लगी। चम्बा थाल को बनाने के लिए कारीगर पहले कागज पर देवता का एक चित्र बनाते हैं, जिसे एक धातु की शीट पर चिपकाया जाता है। वे फिर इन छवियों को प्लेट पर तराशते हैं। बताया जाता है कि अब तक सबसे अधिक उभरा हुआ चित्र भगवान विष्णु के10 अवतार, देवी दुर्गा के नौ अवतार, राधा-कृष्ण और गणेश हैं। तीन आकार में बनता है चम्बा थाल यह थाल तीन आकार में उपलब्ध होता है। सबसे छोटा आकार 11 इंच और वजन चार सौ ग्राम तक होता है। मध्यम थाल 15 इंच तथा करीब आठ सौ ग्राम का होता है। सबसे बड़ा थाल 23 इंच और पौने दो किलो तक का होता है। छोटे थाल की कीमत करीब 1400, मध्यम आकार की कीमत दो हजार तथा बड़े थाल की कीमत करीब तीन हजार रुपये तक होती है। पीएम नरेंद्र मोदी के साथ तेंदुलकर को भी कर चुके है भेंट दिसंबर 2021 में मंडी पहुंचने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने चंबा थाल भेंट किया था। क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को भी जिले के शिल्पकार प्रकाश चंद चंबा थाल पर उनका पोट्रेट उकेरकर भेंट कर चुके हैं। कलाकारों की मानें तो चंबा थाल की पहले इतनी डिमांड नहीं हुआ करती थी, लेकिन अब चम्बा थाल की दुनिया दीवानी हो रही है।
समृद्ध संस्कृति को संजोए हिमाचल प्रदेश के व्यंजनों का जायका भी लाजवाब है। प्राकृतिक सुंदरता के अलावा, हिमाचल प्रदेश अपने अनोखे पहाड़ी व्यंजनों के लिए भी प्रसिद्ध है, जो इस राज्य से प्यार करने का एक कारण है। इन व्यंजनों में हिमाचल का एक विशिष्ट स्वाद है क्योंकि हिमाचली लोग पारंपरिक तरीके से खाना बनाते हैं। खास बर्तनों में लकड़ी की धीमी आंच पर विशेष मसालों की छौंक से पकाने की सदियों पुरानी विधियां इन व्यंजनों को और खास बनाती हैं। यही कारण है कि जंक फ़ूड के जमाने में हिमाचल के पकवान आज भी स्वादिष्ट, पौष्टिक और यहां की खूबसूरती की तरह पसंदीदा और प्रचलित हैं। अब तो यह स्वाद स्ट्रीट फूड के जरिए पर्यटकों और घरों तक पहुंचने लगा है। इससे इनकी मशहूरी और बढ़ गई है और आसानी से लोगों को उपलब्ध हो जाते हैं। पकवानों को लेकर वैसे तो हिमाचल के सभी जिलों की अपनी-अलग पहचान है। स्नैक्स के रूप में कुल्लू, शिमला और सिरमौर के सिड्डू, मंडी की कचौड़ी, चंबा के खट्टे पकौडू, कांगड़ा और अधिकांश स्थानों पर अरबी के पत्तों से बनने वाले पतरोडू अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं। हालांकि, शादी ब्याह या अन्य मांगलिक अवसरों पर सामूहिक भोजन के लिए दी जाने वाली धाम सबसे अधिक प्रचलित है। हर जिले में धाम परोसी जाती है, लेकिन मंडी धाम की सेपू बड़ी, चंबा का मदरा, कांगड़ा का खट्टा और बिलासपुर की धौतुवां दाल की बात की अलग है। सिडु सिड्डू गेहूं के आटे से बनता है। पारम्परिक तौर पर इसमें अफीम दाना और अखरोट की स्टफ्फिंग की जाती है, परन्तु लोग अपने हिसाब से भी इसकी स्टफ्फिंग कर सकते है। इसे देसी घी के साथ खाया जाता है। कुछ लोग तीखी लाल और हरी चटनी के साथ खाना भी पसंद करते है। सिड्डू शरीर को गर्मी पहुंचता है इसलिए पहले सर्दियों में ही इस व्यंजन को बनाया जाता था। समय के साथ इसे बनाने का तरीका बदला है और अब सालभर लोग इसका आनंद लेते हैं। कुल्लू में यह बहुत अधिक मशहूर है। इसे मीठा और नमकीन दोनों तरह से बना सकते हैं। ऊपरी शिमला में सिड्डू बड़े आकार के होते हैं। सिड्डू अर्ध चंद्राकार और गोल होते हैं। चंबे रा मदरा हिमाचल प्रदेश के चंबा और कांगड़ा ज़िले में आपको यह पकवान आसानी से मिल जाएगा l इस पकवान को मुख्यत: भिगोए हुए छोले या राजमा के प्रयोग से बनाया जाता है l इसको तेल में अच्छी तरह पकाया जाता है l लौंग, दालचीनी, इलायची, जीरा, धनिया पाउडर और हल्दी पाउडर जैसे विभिन्न मसाले इस व्यंजन का स्वाद बढ़ाते हैं l हल्कू चौंक कके बाद इसमें दहीं की ग्रेवी बनाई जाती है जिससे ये हल्का खट्टा और स्वादिष्ट बनता है l चंबा के लगभग सभी रेस्टोरेंट में चना मद्रा परोसा जाता है l सोलन के स्वादिष्ट पूड़े सोलन के बाघल और अर्की में पारंपरिक खाने में बिलासपुरी टच है। परवाणू, नालागढ़ और बद्दी का खानपान पंजाब और हरियाणा से पूरी तरह से प्रभावित है। नौणी क्षेत्र में सिरमौर के स्वाद हावी हैं। सुबाथू में तिब्बतियन फूड का बोल बाला है। वहीं सोलन, कसौली, कंडाघाट, धर्मपुर में खाने को लेकर एकदम बदलाव दिखता है। यहां घर-घर हर समारोह की शान मीठे पूड़े और कद्दू का खट्टा है। साथ में खीर भी परोसी जाती है। सिर्फ सोलन ही नहीं इन पुड़ों का आनंद शिमला और सिरमारूर के कुछ क्षेत्रों में भी लिया जाता है l सोलन में जहाँ गुड़ से बने पूड़े मशहूर है तो वहीँ शिमला शोघी क्षेत्र के चीनी से बने पूड़े भी काफी प्रसिद्द है l पटांडे जब भी घर पर कुछ शुभ कार्य हो तो उसकी शुरुआत हिमाचल के घरो में बनने वाले पटांडे और शकर घी खाकर की जाती है l ये पटांडे दक्षिण भारत के दोसे से मिलते जुलते है l बस फर्क इतना है की इन्हें नकीं नहीं मीठे के साथ खाया जाता है l इलायची और दालचीनी जैसे मसालों में गेहूं के आटे, चीनी, दूध, बेकिंग पाउडर से घोल बनाकर इसे तैयार किया जाता है। सेब के जैम, मेपल सिरप या चाय के प्याले के साथ इसका मजा ले सकते हैं। ख़ास बात ये है की पटांडे बनाना बड़ा हुनर का काम है क्यूंकि इसे बनाने के लिए कड़छी या चमच का इस्तेमाल नहीं किया जाता बाकि हाथों से ही पटांडों के बैटर को गरम तवे पर फैलाया जाता है l सेपू बड़ी हिमाचल का स्वाद मंडी की सेपू बड़ी और कचौड़ी के बिना अधूरा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इन दोनों डिश के कायल हैं। उनके लिए विशेष तौर पर मंडी से यह डिश भेजी जाती हैं। कचौड़ी कचौड़ी गेहूं के आटे व उड़द दाल के मिश्रण से बनाई जाती है। इसके लिए सबसे पहले खमीर (बासी आटा) तैयार किया जाता है। इस खमीर को थोड़ी सी मात्रा में आटे में मिलाया जाता है। इसके बाद आटे को गूंथ कर करीब एक घंटा रख दिया जाता है। उधर, उड़द दाल को करीब तीन से चार घंटे तक पानी में भिगोने के बाद पिसाई की जाती है। नमक, मिर्च, धनिया, बड़ी इलायची, जीरा व अन्य मसाले मिलाने के बाद उड़द को कटोरी के आकार के बने आटे के पेड़े में डालकर इसे बंद किया जाता है। फिर इसे बेलन या दोनों हाथ से रोटी की तरह बनाया जाता है। करीब दो घंटे बाद इसे खौलते तेल में फ्राई किया जाता है और कचौड़ी तैयार हो जाती है। कचौड़ी को अचार व चटनी के साथ खाया जाता है। कचौड़ी कोे देसी घी दही व दूध या चाय के साथ भी खा सकते हैं। बबरू बबरू शिमला में पाए जाने वाले सबसे प्रसिद्ध हिमाचली भोजन में से एक है। यह उत्तर भारत के प्रसिद्ध कचौड़ी का एक संस्करण है और एक कप चाय के साथ शाम के नाश्ते के लिए एक आदर्श भोजन के रूप में भी कार्य करता है। बबरू हिमाचल के सभी शुभ अवसरों पर तैयार की जाने वाली महत्पूर्ण मिठाई है l चीनी और गुड़ का इस्तेमाल कर इसे पकाया जाता है l गेहूं का आटा, सरसों तेल या रिफाइंड तेल, चीनी, दूध एक गिलास, बेकिंग पाऊडर इसे डिश में प्रयोग होने वाली खास चीजें हैं lकाँगड़ा का खट्टा मदरा की तरह यह एक हिमाचल की एक अन्य पारंपरिक पहाड़ी डिश है, जो स्वाद में खट्टी होती है l आमतौर पर इसे चावल के साथ परोसा जाता है. कांगड़ा जिले में यह खासी लोकप्रिय है l अकतोरी डिश अकतोरी में एक प्रकार का अनाज के पत्ते और गेहूं का आटा शामिल होता है। यह एक फेस्टिव डिश है और इसे केक के रूप में बनाया जाता है। सबसे पसंदीदा व्यंजनों में से एक, अकटोरी हिमाचल प्रदेश का प्रसिद्ध भोजन है। यह व्यंजन स्पीति घाटी में उत्पन्न हुआ और पूरे राज्य में लोगों द्वारा पसंद किया जाता है।
देवभूमि हिमाचल में देवस्थानों की काष्ठ कला हर किसी को मोहित करती है। प्रदेश के जनजातीय जिलों और ग्रामीण क्षेत्रों में बने मंदिरों में लकड़ी पर की गई नक्काशी काफी अनूठी है। काष्ठकुणी शैली में बने मंदिर आज भी कला का बेजोड़ नमूना पेश करते हैं। ये मंदिर काष्ठ यानी लकड़ी के बने हैं, जिन पर आकर्षक कलाकृतियां उकेरी गई हैं। इनमें मुख्य तौर पर देवदार की लकड़ी का इस्तेमाल किया गया है। मंदिरों के अलावा कुछ दूसरी इमारतों में भी ऐसी कलाकृतियां बनाई गई हैं। काष्ठकुणी शैली मंदिर व इमारत की सुंदरता ही नहीं दर्शाती, अपितु इस के साथ धर्म, प्रेम, आस्था और इतिहास भी जुड़ा हुआ है। इस कला की खासियत यह भी है कि इसमें कुछ भी बनाते हुए लकड़ी को जोडऩे के लिए सिर्फ लकड़ी का ही इस्तेमाल होता है। इसमें कील आदि का इस्तेमाल नहीं होता। काष्ठकुणी से बने मकान की छत सही हो तो इस पर की नक्काशी एक हजार साल तक भी सुरक्षित रहती है। इसमें कोई दूसरा उत्पाद इस्तेमाल न होने के कारण खराब होने की आशंका कम रहती है। प्रदेश में चील, देवदार, अखरोट आदि के पेड़ बहुतायत में देखने को मिलते है। यहां के मंदिरों की काष्ठकला प्रसिद्ध है। काष्ठ मंदिर की स्थानीय परंपरागत शैली में शिखर शैली का भी बड़े सुन्दर ढंग से मिश्रण हुआ है। ऐसे मंदिरों में तिकोनी ढलवां छत होती है। इन छतों में स्लेटों का नहीं बल्कि लकड़ी के तख्तों का प्रयोग हुआ है। इन छतों में ढलान अधिक रखी गई है। इन मंदिरों का निर्माण ऊँचे अधिष्ठान पर हुआ है। गर्भगृह पर ऊँचा विमान होता है। छत में भी लकड़ी के तख्तों का प्रयोग किया जाता है। आम तौर पर गर्भगृह के साथ ही सभामण्डप होता है जिसमें काष्ठ स्तम्भ का प्रयोग होता है। इन काष्ठ मंदिरों की अलग खासियत है कि इनके काष्ठ स्तम्भों, द्वारों, छज्जों, तख्तों और खिड़कियों, बालकनियों आदि पर काष्ठ की सुन्दर नक्काशी होती है। इसमें पौराणिक देवी-देवताओं के चित्रण पशु-पक्षी, फूल-पत्ते आदि अभिप्रायों का अंकन होता है। वहीं कहीं-कहीं काष्ठ पैनल पर डरावने चित्रों का अंकन होता है। माना जाता है कि इससे देवता की भक्ति का पता चलता है, जिसके प्रभाव से नकारात्मक शक्तियां भूत-प्रेत, डाकिनी, आदि सब दूर ही रहते हैं। --
आयुर्वेद में शिलाजीत को अमृत माना गया है और हिमाचल के चट्टानों में पाया जाने वाला शिलाजीत लौह तत्व से परिपूर्ण होता है। शिलाजीत शिलाओं को चीरकर यानी शिलाओं को जीत कर निकलने वाला द्रव्य है। हिमाचल प्रदेश में पाए जाने वाले शिलाजीत की देश भर में डिमांड है। शिलाजीत आयुर्वेद की दृष्टि से अनेक औषधीय गुणों से युक्त माना जाता है। शिलाजीत हिमालयी क्षेत्र के ऊंची एवं विकट चट्टानों से बाहर निकलता है। विकट चट्टानों के मध्य निकलने के कारण इसे निकालने के लिए चट्टानों में रस्सियों और लंबी-लंबी सीढ़ियां बनाकर पहुंचते है। चट्टानों के अंदर से बाहर निकले द्रव को पत्थर के टुकड़ों के साथ तोड़ कर निकाला जाता है और उसके बाद इसे दो विधियों द्वारा शोधित किया जाता है, अग्नि तापी और दूसरा सूर्य तापी। पत्थरो के टुकड़ो में लिपटे शिलाजीत को पानी के बर्तन में घोला जाता है। उस के बाद कपड़े से बार-बार तक तक छाना है जब तक पूरी तरह से शुद्ध न हो। उस के बाद अग्नि तापी को रख कर आग में सुखाया जाता है जबकि सूर्यतापी को सूर्य की किरणों से सुखाया जाता है। लाखों की कीमत और औषधीय गुणों से युक्त है शिलाजीत.. शिलाजीत गहरा भूरे रंग में हिमालय क्षेत्रों की चट्टान से निकलता है और आमतौर पर इसका इस्तेमाल आयुर्वेदिक चिकित्सा में किया जाता है. बाजार में लाखों की कीमत का ये बल पुष्टिकारक औषधीय के सही सेवन से नर्वस सिस्टम सही काम करता है। वहीं मानसिक थकान, तनाव में भी ये लाभकारी है। इतना ही नहीं मधुमेह कोलेस्ट्रॉल नियंत्रण में शिलाजीत लाया जाता है तो अल्जाइम और दिल को स्वस्थ रखने में भी ये गुणकारी है। औषधीय गुणों से युक्त शिलाजीत की इन दिनों मांग बढ़ गई है। इसके चलते इस व्यवसाय से जुड़े लोगों ने पहाड़ों से शिलाजीत निकालने का काम तेज कर दिया है। विकट पहाड़ों से पसीने के रूप में निकलने वाला यह पदार्थ आयुर्वेद के अनुसार त्रिदोष शामक है। यानी वात, पित्त और कफ के दोष को दूर करता है।
3 दिसंबर, 1921 को दो पुलिसकर्मी पंजाब मेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में घुस गए और एक अमेरिकी को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लाहौर पुलिस स्टेशन ले गए। उस अमरीकी को जेल की सजा सुनाई गई और फिर जून 1922 में रिहा कर दिया गया। क्या आप जानते हैं कि यह अमेरिकी कौन था ? ये थे सत्यानंद (सैमुअल इवांस) स्टोक्स। वो सत्यानंद जिन्हें फ़िलाडेल्फिया, पेनसिल्वेनिया से आए हुए एप्पल मैन के रूप में जाना जाता है। हिमाचल की जनता को ये तो मालूम है कि 1916 में स्टोक्स ने ही हिमाचल प्रदेश में सेब लगाने की शुरुआत की थी, मगर वो लोग बहुत कम है जो स्टोक्स को पूरी तरह जानते है। स्टोक्स ने सिर्फ सेब लाकर हिमाचल की अर्थव्यवस्था में क्रन्तिकारी बदलाव ही नहीं लाया बल्कि वो एक स्वतंत्रता सैनानी भी थे, जो भारत की आज़ादी के लिए लड़े। स्टोक्स विदेश से आए थे पर दिल से भारतीय बन चुके थे। उनकी पोती आशा शर्मा अपनी किताब "अमेरिकन इन खादी” में लिखती है कि खुद महात्मा गाँधी ने स्टोक्स के बारे में ये लिखा था कि जब तक भारत में अंद्रेव्स, स्टोक्स और पिअरसन जैसे लोग है तब तक हर अंग्रेज को भारत से बाहर खदेड़ने की कामना हम नहीं कर सकते। अब ऊपर लिखी इन पंक्तियों की पूरी कहानी आपको बताते है कि आखिर ऐसा क्या हुआ की स्टोक्स को गिरफ्तार कर लिया गया। 3 दिसंबर, 1921 को स्टोक्स लाला लाजपत राय और गोपी चंद भार्गव के साथ लाहौर में पंजाब प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में भाग लेने के लिए जा रहे थे। सबको लगा कि उन्हें इसीलिए गिरफ्तार किया जा रहा था, लेकिन वास्तव में उन्हें द ट्रिब्यून के लिए लेख लिखने पर गिरफ्तार किया गया था, जो कि अंग्रेज़ों के हिसाब से देशद्रोह की भावना को बढ़ावा दे रहा था। हालाँकि आशा शर्मा अपनी किताब में लिखती है कि ऐसा कुछ था नहीं था। स्टोक्स के दृढ़ विश्वास और न्याय की उनकी पूर्ण भावना, समानता और निष्पक्षता की उनकी छवि उनके लेखों में दिखाई देती है। पहाड़ियों के सामाजिक और आर्थिक विकास में उनके अपार योगदान के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है। सैमुअल इवांस का जन्म 16 अगस्त, 1882 को फिलाडेल्फिया के एक प्रतिष्ठित और धनी क्वेकर परिवार में हुआ था। क्वेकर ईसाइयों का एक समूह है जो दैनिक जीवन में बड़ी सादगी, मौन और पूजा में विश्वास करते हैं। सैमुअल इवांस का जीवन भी इस सादगी से भरा रहा। 1904 में, सैमुअल इवांस फ़िलेडैल्फ़िया छोड़कर भारत आ गए और यहां आ कर सबाथू में बने लेप्रोसी होम में कोढ़ से पीड़ित मरीज़ों की सेवा करने लगे। स्टोक्स ने अमीर परिवार की सभी सुख-सुविधाओं को छोड़ सबाथु जैसी छोटी जगह में रह कर लोगों की सेवा करना चुना था। डॉ. कार्लेटन उत्तर ( लेप्रोसी होम के प्रभारी) युवा अमेरिकी स्वयंसेवक के काम से खुश थे। 1905 की गर्मियों में, डॉ कार्लेटन ने उन्हें कोटगढ़ भेज दिया। स्टोक्स एकांत जीवन जीना चाहते थे लेकिन कांगड़ा में 1905 के भूकंप ने उन्हें पीड़ितों की मदद करने के लिए प्रेरित किया। उन्हें पीड़ितों को पैसे बांटने का काम दिया गया था जो उन्होंने ईमानदारी से किया। सत्यानंद (सैमुअल इवांस) स्टोक्स की प्रेमकहानी भी बेहद दिलचस्प है। 12 सितंबर, 1912 को कोटगढ़ के सेंट मैरी चर्च में एक पहाड़ी ईसाई लड़की, एग्नेस से शादी की। उन्होंने इसे पारंपरिक पहाड़ी तरीके से किया- स्थानीय बैंड और अचकन और चूड़ीदार पहने। सैमुअल इवांस ने अपनी शादी के बाद भारत के इतिहास का गंभीरता से अध्ययन करना शुरू किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत पश्चिम का अनुकरण करके नहीं बल्कि आंतरिक विकास और अपनी मौजूदा सभ्यता में कमियों को दूर करके वास्तव में महान बन सकता है। हर वास्तविक भारतीय यही सोचता है, लेकिन एक अमेरिकी से भारतीय मान्यताओं के प्रति ये सम्मान नया था। फिर प्रथम विश्व युद्ध आया और महात्मा गांधी ने घोषणा की कि ब्रिटेन की ज़रूरत के वक्त पर मदद की जानी चाहिए। स्टोक्स ने सेना में शामिल होने का फैसला किया और अक्टूबर 1917 में वे वर्दी में थे। उन्हें सेना के लिए लोगों की भर्ती करने की जिम्मेदारी दी गई थी क्योंकि वे हिंदी जानते थे। 1918, में युद्ध समाप्त होने के साथ, भारत में राजनीतिक उत्साह चरम पर पहुंच गया। गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम प्रत्येक सदन का नारा बन गया। स्टोक्स ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया और 1920 में नागपुर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समिति की बैठक में भाग लिया। 1921 में वे जेल गए। उन्हें जेल में डालने की बात को सरकार ने दबाने की कोशिश की लेकिन ये समाचार में आ ही गया। गांधी ने अपनी साप्ताहिक पत्रिका यंग इंडिया के फ्रंट पेज पर लिखा, " यह सरकार की ओर से एक अनूठा कदम है, श्री स्टोक्स एक अमेरिकी हैं जिन्होंने खुद को एक भारत के हिसाब से ढाला है और जिन्होंने भारत को अपना घर इस तरह से बनाया है कि शायद ही कोई अन्य अमेरिकी या अंग्रेजी व्यक्ति ऐसा कर पाए। स्टोक्स ने अपने पुरे जीवन में भारत को सेवा प्रदान की है। इन्हें युद्ध और उच्चतम तिमाहियों में सरकार के शुभचिंतक के रूप में जाना जाता है, कोई भी इन पर देशद्रोह का संदेह नहीं कर सकता है। लेकिन यह कि वह एक भारतीय की तरह महसूस कर रहे है और एक भारतीय की तरह, अपने दुखों को साझा कर रहे है, भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे है, सरकार की आलोचना कर रहे है , ये सरकार को बिलकुल भी पसंद नहीं आ रहा। सरकार के लिए उन्हें स्वतंत्र छोड़ पाना असहनीय था। उसकी गोरी त्वचा भी उसकी बेगुनाही साबित नहीं कर पाई "। जेल से बाहर आकर स्टोक्स ने अपने गांव बारोबाग में एक स्कूल शुरू करने के मिशन पर लग गए , जिसका प्राथमिक खंड 1 अप्रैल, 1923 को शुरू कर दिया गया। स्टोक्स का एक बेटा तारा आठ साल की उम्र खो गया था, उनके खोए हुए बेटे तारा के नाम पर ही स्कूल का नाम तारा स्कूल रखा गया। यह एक हिंदी माध्यम का स्कूल था जिसमें सुबह की प्रार्थना में धार्मिक और देशभक्ति के गीत होते थे। सैमुअल इवांस यहां गुरुओं में से एक थे। तदोपरांत उनके परिवार ने 4 सितंबर, 1932 को बारोबाग में एक साधारण समारोह में हिंदू धर्म ग्रहण किया और वो सत्यानंद बन गए। अपने पूरे जीवन में, उन्होंने अपने स्वास्थ्य को जोखिम पर रख कर मानवता के लिए बहुत कुछ किया। वे एक अमेरिकी की खाल में एक सच्चे भारतीय थे। निश्चित रूप से वह एक एप्पल मैन से कहीं अधिक थे। 14 मई, 1946 को अपनी खराब तबियत के चलते, उन्होंने तारा स्कूल बंद कर दिया। राज्य सरकार ने राज्य बागवानी विश्वविद्यालय में नौणी (सोलन) में पुस्तकालय का नाम सत्यानंद स्टोक्स पुस्तकालय रखा है।
हिमाचल प्रदेश पुलिस बैंड यानी 'हारमनी ऑफ़ द पाइन्ज़' सिर्फ हिमाचल ही नहीं बल्कि पूरे देश में अपनी विशिष्ट पहचान बना चूका है l समय के साथ साथ राज्य भर में कई महोत्सवों में परफॉर्म करने के बाद बैंड को पहचान मिलने लगी, लेकिन कलर्स चैनल के रियलिटी शो हुनरबाज-देश की शान ने पुलिस जवानों की आर्केस्ट्रा टीम "हारमनी आफ द पाइन्स " को बुलंदियों तक पहुंचा दिया। बेशक आर्केस्ट्रा टीम इस खिताब से चूक गई, लेकिन लोगों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब रही है। आज देशभर में हिमाचल पुलिस की इस टीम ने खास पहचान बनाने के साथ साथ प्रदेश का नाम रोशन किया है l आज देशभर में हॉर्मनी ऑफ पाइन्स प्रसिद्ध है, हालांकि इसका वजूद 1996 से है, जब आर्केस्ट्रा पहली बार अस्तित्व में आया। 1996 में हिमाचल में पुलिस के जवानों की ड्यूटी के तनाव को कम करने के इस बैंड को बनाया गया। शुरूआत में टीम में सिर्फ छह सदस्य थे। उस वक्त बैंड छोटे-मोटे पुलिस कार्यक्रमों में प्रस्तुति दिया करते थे। तब बैंड के पास अच्छे संगीत उपकरण या साज भी नहीं थे। तब अपना हुनर निखारने के लिए पुलिस बैंड ने दिल्ली जा कर अभ्यास किया और साथ ही पश्चिमी संगीत भी सीखा और आज ये देश के सबसे ज़बरदस्त बैंड्स में से एक है l -बतौर डीजीपी संजय कुंडू ने दिखाई दिलचस्पी तो फिरे दिन "द हारमनी ऑफ़ पाइनस " की सफलता के पीछे डीजीपी संजय कुंडू का विशेष योगदान रहा है। दरअसल बैंड को तब काफी प्रोत्साहन मिला, जब संजय कुंडू ने पुलिस महानिदेशक का कार्यभार संभाला। संजय कुंडू की हॉर्मनी ऑफ पाइन्स में विशेष दिलचस्पी थी। उस समय संजय कुंडू ने बतौर डीजीपी बैंड के अभ्यास के लिए बेहतरीन उपकरण उपलब्ध करवाए। कुंडू चाहते थे कि हिमाचल के लोगों में पुलिस की छवि ज्यादा मानवीय और मददगार की बने। उन्हें एहसास हुआ कि आर्केस्ट्रा में पुलिस की दोस्ताना, प्यारी छवि बनाने और जागरूकता फैलाने की काबिलियत है। आर्केस्ट्रा के मुताबिक, डीजीपी कुंडू ने उन्हें एक मंच दिया और राष्ट्रीय टीवी पर परफॉर्म करने को प्रोत्साहित किया। बैंड को अभ्यास के लिए भी ज्यादा वक्त मिलने लगा। बतौर डीजीपी संजय कुंडू ने पाइन्स के लिए हफ्ते में पांच दिन आठ घंटे अभ्यास का समय मुकर्रर किया। - बैंड के कप्तान है विजय कुमार हिमाचल पुलिस के बैंड ‘हारमनी आफ द पाइन्स’ की कप्तानी राजगढ़ उपमंडल के करगाणु के रहने वाले सब इंस्पेक्टर विजय कुमार कर रहे हैं। वहीं, सैनधार की नहर स्वार पंचायत के रहने वाले मनमोहन शर्मा सुर बिखेर रहे हैं। 1999 में पुलिस विभाग में बतौर कांस्टेबल कैरियर शुरू करने वाले विजय कुमार का शौक म्यूजिक में ही था। बचपन से ही गरीबी का सामना करने वाले बैंड के प्रभारी विजय कुमार ने कम उम्र में ही अपने पिता को खो दिया था। एक ऐसा वक्त भी था, जब रहने के लिए घर नहीं था। खैर, पुलिस में भर्तीे होने के बाद आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। म्यूजिक में विशारद की डिग्री करने वाले सब इंस्पेक्टर विजय कुमार ने कड़ियां जोड़कर पुलिस का आर्केस्ट्रा तैयार किया। 2016 में आधिकारिक तौर पर इसे पुलिस का आर्केस्ट्रा घोषित तो किया गया, लेकिन सुधार की काफी गुंजाइश थी। तब बतौर पुलिस महानिदेशक संजय कुंडू ने इस बैंड की तस्वीर ही बदल कर रख दी। - मिल चूका है दादा साहेब फाल्के अवार्ड यह देश का पहला मान्यता प्राप्त पुलिस आर्केस्ट्रा है। अपने हुनर से नरबाज पुलिस जवानों ने देशभर में बड़ी छाप छोड़ी है। यही कारण है कि हिमाचल प्रदेश के पुलिस बैंड हारमनी ऑफ द पाइंस को मुंबई में दादा साहब फाल्के इंटरनेशनल बेस्ट परफार्मर बैंड अवार्ड से नवाजा गया है। दादा साहब फाल्के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल अवार्ड 2023 के दौरान यह पुरस्कार हिमाचल प्रदेश पुलिस के बैंड दल को मिला है। - 6 से 17 तक हो गयी है टीम की संख्या "द हारमनी ऑफ़ पाइनस " टीम में शुरूआत में सिर्फ छह सदस्य थे। अब यह संख्या 17 हो गई है। मौजूदा समय में सब इंस्पेक्टर विजय कुमार, एएसआई ठाकुर दास, हेड कांस्टेबल नरेश, राजेश कुमार, कांस्टेबल कार्तिक शर्मा, मंजीत सिंह, मनमोहन शर्मा, हितेश भारद्वाज, आशीष कुमार, दलीप शर्मा, कमल थापा, प्रशांत घोष और कशिश शांडिल, कांस्टेबल कृतिका तंवर और दीपिका मुस्कान पुलिस बैंड टीम का हिस्सा हैं।
हिमाचल के लाहौल स्पीति में हालडा पर्व के समापन पर शशुम के दिन लाहौल घाटी के तिनन खंगसर में असुर नृत्य किया जाता है, जिसे 'छम नृत्य' भी कहा जाता है l छम नृत्य तिब्बती बौद्ध धर्म और बौद्ध त्योहारों के कुछ संप्रदायों से जुड़ा एक नृत्य है जिसमें लामा मखौटे ओर पौशाकें पहन कर नृत्य करते है। छम नृत्य धार्मिक और अन्य त्योहारों के दौरान मठों के प्रांगण में बौद्ध भिक्षुओं त्यानी लामाओं द्वारा किया जाने वाला शानदार नृत्य है l हिमाचल प्रदेश के तिब्बती बस्ती क्षेत्रों जैसे लाहौल और स्पीति, लद्दाख और किन्नौर में ये नृत्य बेहद लोकप्रिय है। ग्रामीण इस शानदार डांस शो को देखने के लिए इकट्ठा होते हैं, जिसे 'डेविल डांस' के नाम से भी जाना जाता है। छम नृत्य की उत्पत्ति ऐतिहासिक या धार्मिक पुस्तकों में स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है, लेकिन यह तांत्रिक रहस्यवादी कलाओं के साथ अपनी जड़ें साझा करता है। कहा जाता है कि छम नृत्य की उत्पत्ति हिमालय श्रृंखला में हुई थी l नृत्य के साथ पारंपरिक तिब्बती वाद्य यंत्रों का उपयोग करते हुए भिक्षुओं द्वारा संगीत बजाया जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, छम नृत्य परंपरा की शुरुआत गुरु पद्मसंभव ने आठवीं शताब्दी के अंत में बुराई पर अच्छाई के प्रभुत्व को दर्शाने के लिए की थी। ऐसा माना जाता है कि छम नृत्य बुरी आत्माओं और राक्षसों को भगाने के लिए किया जाता है। इसकी थीम 'ईविल किंग' को मारने के इर्द-गिर्द घूमती है, जो मनुष्यों में दुष्ट प्रवृत्तियों, प्राकृतिक आपदाओं, बीमारियों और महामारी का प्रतीक है। नृत्य में उपयोग किए जाने वाले अजीब भाव और राक्षसी दिखावे के साथ बड़े आकार के मुखौटे लकड़ीऔर प्लास्टर के पतले कोट से बने होते हैं। ये मखौटे मृत्यु के बाद आत्मा की प्रतीक्षा कर रहे ड्रेगन, शैतानों, बुरी आत्माओं और कंकालों के रूप में कई भयानक राक्षसों का प्रतिनिधित्व करते हैं। किंवदंती के अनुसार, यह भी माना जाता है कि एक बार तिब्बत के राजा त्रिशोंग देत्सेन ने बुरी आत्माओं से छुटकारा पाने के लिए गुरु पद्मसंभव को बुलाया था, तो उन्होंने भूमि को आशीर्वाद देने और इसे एक बार फिर से पवित्र बनाने के लिए नृत्य अनुष्ठान किया। समय के साथ वही अनुष्ठान विस्तृत छम नृत्य बन गया, जो महायान बौद्ध धर्म के संप्रदाय के लिए विशिष्ट अभ्यास था l मान्यता ये भी है कि प्राचीन काल में मानव सिर्फ देवी देवताओं की पूजा करते थे, इस बात से क्रोधित होकर असुर मानव बस्ती की ओर क्षति पहुंचाने के लिए आते थे l मानव जाति को बचाने के लिए लाहौल घाटी के तिनन खांगसर गांव के चार लोग अपने चेहरे पर मुखौटा लगाकर असुरों का छद्म रूप धारण करके असुरों सा नृत्य करके असुरों के साथ घुलमिल जाते थे, और सांड को मारकर उसके मांस खाने का अभिनय करते थे। असुर नृत्य और मांस खाकर तृप्त होकर यह भूल जाते थे कि वह किस लिए आए थे और बिना किसी मानव को क्षति पहुंचाए वापस चले जाते थे। स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि तब से लेकर आज तक तिनन खांगसर गांव के चार लोग यह नृत्य करते-करते गांव से देवता नाग राजा के मंदिर तक जाते हैं और आखिर में नाग देवता के पूजा के बाद इस रस्म को समाप्त करते है ।
हिमाचल प्रदेश की कई विकासात्मक उपलब्धियों में से एक अटल टनल रोहतांग भी है l पीर-पंजाल की पहाड़ी को भेद कर 3600 करोड़ की लागत से देश का मान बनी अटल टनल रोहतांग को अपनी खूबियों व विशेषताओं के चलते दुनिया भर में सम्मान मिला है। दुनिया की सबसे ऊंचाई 10040 फीट पर बनी इस हाईवे टनल से जहाँ देश की सरहदों तक पहुँच पाना आसान हुआ है, वहीँ सदियों से सर्दियों का कहर झेलने वाले लाहौल घाटी के लोगों के दुख भी दूर हुए हैं। अब सर्दियों में भी यहाँ के लोगों का सम्पर्क पूरी तरह से दुनिया से नहीं टूटता l छह महीने बर्फ से ढकी रहने वाली लाहौल घाटी टनल बनने से सालभर के लिए मनाली से जुड़ गई है। घाटी में पर्यटन को पंख लगे और सर्दियों में भी पर्यटक लाहुल आने लगे। अटल टनल का छोर मनाली की तरफ से सुहानी वादियों से शुरू होता है और दूसरा छोर लाहुल स्पीति में निकलता है। बर्फ से ढकी यह वादियां पर्यटकों को खूब भाती हैं। पूर्व पीएम स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी ने तीन जून 2000 को रोहतांग दर्रे के नीचे एक स्ट्रैटजिक टनल का निर्माण करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया था। टनल के दक्षिण छोर तक सड़क की आधारशिला 26 मई 2002 को रखी गई थी। जून 2010 को तत्कालीन यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अटल सुरंग की आधारशिला रखी थी। बीआरओ ने स्ट्रॉबेग व एफकान कंपनी के माध्यम से आधुनिक टनल का निर्माण किया। उस दौरान टनल की लागत 1500 करोड़ रुपये आंकी गई थी, लेकिन पूरी तरह बनने के बाद निर्माण पर 3600 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं l अटल टनल बनने के बाद मनाली से लेह की दूरी करीब 45 किमी कम हुई है और अब लेह जाने के लिए रोहतांग पास नहीं जाना पड़ता है l अब लेह के लिए पांच घंटे कम लगते हैं l अटल टनल को 40 से 60 किलोमीटर प्रति घंटे की गति के साथ प्रतिदिन एक तरफा 5000 वाहनों के यातायात घनत्व के लिए डिजाइन किया गया है। यह टनल सेमी ट्रांसवर्स वेंटिलेशन सिस्टम, एससीएडीए नियंत्रित अग्निशमन, रोशनी और निगरानी प्रणाली सहित अति-आधुनिक इलेक्ट्रो-मैकेनिकल प्रणाली से लैस है। आपातकालीन कम्युनिकेशन के लिए प्रत्येक 150 मीटर दूरी पर टेलीफोन कनेक्शन तथा प्रत्येक 60 मीटर दूरी पर फायर हाइड्रेंट सिस्टम लगाए हैं। प्रत्येक 250 मीटर दूरी पर सीसीटीवी कैमरों से युक्त स्वत: किसी घटना का पता लगाने वाला सिस्टम लगा है। प्रत्येक किलोमीटर दूरी पर एयर क्वालिटी गुणवत्ता निगरानी तथा प्रत्येक 25 मीटर पर निकासी प्रकाश/निकासी इंडिकेटर पूरी टनल में प्रसारण प्रणाली और प्रत्येक 50 मीटर दूरी पर फायर रेटिड डैंपर्स व प्रत्येक 60 मीटर दूरी पर कैमरे लगाए हैं। प्रधान मंत्री मोदी ने किया था उद्घाटन 3 अक्तूबर 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अटल टनल रोहतांग का उद्घाटन किया था l इसके बाद से अटल टनल देशभर के पर्यटकों के लिए पहली पसंद बनी है l अब मनाली जाने वाला हर टूरिस्ट इसके दीदार के लिए जाता है ल इसके निर्माण में 150 इंजीनियरों एक हजार मजदूरों ने अपनी सेवाएं दी। 10040 फीट ऊंचाई पर बनी दुनिया की सबसे लंबी टनल के निर्माण में 2 लाख 37 हजार 596 मीट्रिक टन सीमेंट का इस्तेमाल हुआ है। करीब 3200 करोड़ से तैयार विश्व की इस अत्याधुनिक टनल में पहली बार ऑस्ट्रियन तकनीक का प्रयोग किया गया है। एक साथ दो ट्रैफिक टनल वाली सुरंग के निर्माण में 14508 मीट्रिक टन इस्पात का इस्तेमाल हुआ है। अटल टनल के नीचे एक और आपातकालीन सुरंग है। आपात स्थिति में टनल से बाहर निकलने में आसानी होगी।
"1971 के युद्ध में भारत ने पकिस्तान को वो नासूर रोग दिया है, जो हमेशा उसे दर्द देता रहेगा। पाकिस्तान के दो टुकड़े कर बांग्लादेश बनाने में भारत ने निर्णायक भूमिका निभाई थी। पाकिस्तान घुटनों पर था और उसके सामने समझौते के सिवा कोई विकल्प नहीं था। नतीजन, समझौता हुआ और जगह मुकर्रर हुई शिमला। ये समझौता करने पाकिस्तानी राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो ने कभी घास की रोटी खाकर भी भारत से हजार साल तक जंग करने की कसमें खायी थी। पर हालात ने भुट्टों को हकीकत का आईना दिखा दिया। हालाँकि इस समझौते के बाद भी पाकिस्तान अपनी पूरी निर्लज्जता के साथ नापाक हरकतें करता रहा। भारत में घुसपैठ भी करवाता रहा और कायराना हमले भी। 1999 में हुआ कारगिल वॉर भी इसी का नतीजा है जहाँ फिर पाकिस्तान ने मुँह की खाई। " साल था 1972 और जुलाई के पहले सप्ताह में हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी थी। 1971 में बांग्लादेश लिबरेशन वॉर में भारत के शामिल होने का असर ये हुआ था कि पूर्वी पाकिस्तान, बांग्लादेश के रूप में एक स्वतंत्र देश बन चुका था। उधर इस युद्ध ने न सिर्फ पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए थे बल्कि पाकिस्तान की सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। पाक सैनिकों ने घुटने टेक दिए थे और पाकिस्तान के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, करीब 73 हज़ार युद्धबंदी भारतीय हिरासत में थे, जिसमें 45 हजार सैनिक या अर्धसैनिक शामिल थे। हालाँकि ये संख्या 93 हजार के आसपास मानी जाती है। साथ ही पश्चिमी पाकिस्तान का लगभग 5 हज़ार वर्ग मील क्षेत्र भारत के कब्जे में था। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी दुनिया में एक ताकतवर नेता के रूप में उभरी थी और देश में उनकी लोकप्रियता शिखर पर थी। उधर पाकिस्तान में तत्कालीन राष्ट्रपति ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही थी। इंदिरा गाँधी की कूटनीति और भारतीय सेना के पराक्रम का जो कहर पाकिस्तान पर टूटा था, उसकी भरपाई तो नहीं हो सकती थी लेकिन युद्धबंदी और पाकिस्तान की जमीन पर भारतीय कब्जा छुड़वाना पाकिस्तान के लिए हर हाल में जरूरी था। ऐसे में वार्ता ही एकमात्र विकल्प था। सो 1972 में भारत और पाकिस्तान के बीच 28 जून से वार्ता शुरू हुई और 1 जुलाई तक कई दौर की वार्ता हुई। इस वार्ता का मकसद कश्मीर से जुड़े विवादों को आपसी बातचीत और शांतिपूर्ण ढंग से हल निकालना था। नतीजन, 2 जुलाई 1972 को दोनों देशों के बीच शिमला में समझौता हुआ, जिसे शिमला समझौता के नाम से जाना जाता है। इस समझौते में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी बेटी बेनजीर भुट्टो के साथ शिमला आए थे। दिलचस्प बात ये है कि बाद में बेनजीर भुट्टो भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनी। शिमला समझौते में सहमति बनी थी कि कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच जितने भी विवाद हैं, उनका हल बातचीत कर निकाला जाएगा। समझौता ये भी हुआ था कि दोनों देश इस विवाद को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठाएंगे। समझौते में युद्ध बंदियों की अदला-बदली पर भी सहमति बनी थी, जिसके तहत युद्ध के दौरान बंदी बनाए गए सैनिकों को उनके देश को सौंप दिया जाएगा। इसमें राजनयिक संबंधों को सुधारने और सामान्य किए जाने का जिक्र भी था और फिर से व्यापार शुरू करने की बात भी कही गई थी। इसके अलावा इस समझौते में कश्मीर में दोनों देशों के बीच नियंत्रण रेखा यानी लाइन ऑफ़ कण्ट्रोल स्थापित किए जाना निर्धारित हुआ था और यह भी समझौता था कि दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ बल का प्रयोग नहीं करेंगे। तय ये भी हुआ था कि दोनों ही देशों की सरकारें एक दूसरे देश के खिलाफ प्रचार को रोकेगी। आधी रात को हुआ था शिमला समझौता : 2-3 जुलाई 1972 की आधी रात को यह समझौता हुआ था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच 2 जुलाई की रात करीब 10.30 बजे बातचीत शुरू हुई, जो देर रात 12 बजकर 40 मिनट तक चली। इसी समय भारत-पाकिस्तान के बीच एक समझौते के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए गए। इसी समझौते को शिमला समझौता कहा जाता है। समझौते के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर की तारीख 2 जुलाई 1972 दर्ज है। जबकि वास्तव में इस दस्तावेज़ पर 3 जुलाई की सुबह हस्ताक्षर किए गए थे। खुद मैडम प्राइम मिनिस्टर ने लिया था जायजा : भारत और पाकिस्तान के बीच शिखर-वार्ता 28 जून से 1 जुलाई 1972 तक होनी थी। चार दिन तक चलने वाली इस वार्ता में सात दौर की बातचीत प्रस्तावित थी। इस वार्ता के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी 27 जून को ही शिमला पहुंच गई थी। उन्होंने खुद यहाँ व्यवस्थाओं का जायजा लिया। तब उन्होंने पत्रकारों से कहा कि शिखर वार्ता पाकिस्तान के लिए शत्रुता भुलाकर नई शुरुआत करने का अवसर है। शिमला समझौता के मुख्य बिंदु- * दोनों देश शांतिपूर्ण तरीकों से आपसी बातचीत के जरिये या अन्य शांतिपूर्ण तरीके से अपने मतभेदों को आपसी सहमति से हल करने की प्रतिबद्धता पर सहमत हुए। * दोनों देशों के बीच भविष्य जब बातचीत होगी कोई मध्यस्थ या तीसरा पक्ष नहीं होगा। * शिमला समझौता के बाद भारत ने 93 हजार पाकिस्तानी युद्धबंदियों को रिहा कर दिया था। * 1971 के युद्ध में भारत द्वारा कब्जा की गई पाकिस्तान की जमीन भी वापस कर दी गई। * दोनों देशों ने तय किया कि 17 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण के बाद दोनों देशों की सेनाएं जिस स्थिति में थी उस रेखा को वास्तविक नियंत्रण रेखा माना गया। * तय हुआ कि दोनों ही देश इस रेखा को बदलने या उसका उल्लंघन करने की कोशिश नहीं करेंगे। * सहमति बनी कि दोनों देशों के बीच आवागमन की सुविधाएं स्थापित की जाएगी ताकि दोनों देशों के लोग आसानी से आ जा सकें। * दोनों देश सभी विवादों और समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सीधी बातचीत करेंगे और किसी भी स्थिति में एकतरफा कार्यवाही करके कोई परिवर्तन नहीं करेंगे। * दोनों देश एक-दूसरे के खिलाफ न तो बल प्रयोग करेंगे, न प्रादेशिक अखण्डता की अवहेलना करेंगे और न ही एक दूसरे की राजनीतिक स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप करेंगे। * दोनों ही सरकारें एक दूसरे देश के खिलाफ प्रचार को रोकेगी और समाचारों को प्रोत्साहन देगी जिससे संबंधों में मित्रता का विकास हो। आज भी मौजूद है टेबल : शिमला समझौता जिस टेबल पर हुआ उसे आनन-फानन में राजभवन के किसी कोने से लाकर रखा गया था। उसपर टेबल क्लॉथ तक नहीं था। पर आज वही टेबल ऐतिहासिक हो गया है और राजभवन के मुख्य हाल में शान से रखा गया है। उस वक्त रखे गए दोनों देशों के छोटे ध्वज भी टेबल पर मौजूद हैं। समझौते की गवाह एक श्वेत-श्याम तस्वीर टेबल के पीछे दीवार पर टंगी है, तो दो फ्रेम की गई तस्वीरें टेबल पर हैं। इस टेबल को राजभवन में जाकर देखने के लिए लोगों में खासी उत्सुकता है। "1971 के युद्ध में भारत ने पकिस्तान को वो नासूर रोग दिया है, जो हमेशा उसे दर्द देता रहेगा। पाकिस्तान के दो टुकड़े कर बांग्लादेश बनाने में भारत ने निर्णायक भूमिका निभाई थी। पाकिस्तान घुटनों पर था और उसके सामने समझौते के सिवा कोई विकल्प नहीं था। नतीजन, समझौता हुआ और जगह मुकर्रर हुई शिमला। ये समझौता करने पाकिस्तानी राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो ने कभी घास की रोटी खाकर भी भारत से हजार साल तक जंग करने की कसमें खायी थी। पर हालात ने भुट्टों को हकीकत का आईना दिखा दिया। हालाँकि इस समझौते के बाद भी पाकिस्तान अपनी पूरी निर्लज्जता के साथ नापाक हरकतें करता रहा। भारत में घुसपैठ भी करवाता रहा और कायराना हमले भी। 1999 में हुआ कारगिल वॉर भी इसी का नतीजा है जहाँ फिर पाकिस्तान ने मुँह की खाई। " साल था 1972 और जुलाई के पहले सप्ताह में हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी थी। 1971 में बांग्लादेश लिबरेशन वॉर में भारत के शामिल होने का असर ये हुआ था कि पूर्वी पाकिस्तान, बांग्लादेश के रूप में एक स्वतंत्र देश बन चुका था। उधर इस युद्ध ने न सिर्फ पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए थे बल्कि पाकिस्तान की सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। पाक सैनिकों ने घुटने टेक दिए थे और पाकिस्तान के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, करीब 73 हज़ार युद्धबंदी भारतीय हिरासत में थे, जिसमें 45 हजार सैनिक या अर्धसैनिक शामिल थे। हालाँकि ये संख्या 93 हजार के आसपास मानी जाती है। साथ ही पश्चिमी पाकिस्तान का लगभग 5 हज़ार वर्ग मील क्षेत्र भारत के कब्जे में था। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी दुनिया में एक ताकतवर नेता के रूप में उभरी थी और देश में उनकी लोकप्रियता शिखर पर थी। उधर पाकिस्तान में तत्कालीन राष्ट्रपति ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही थी। इंदिरा गाँधी की कूटनीति और भारतीय सेना के पराक्रम का जो कहर पाकिस्तान पर टूटा था, उसकी भरपाई तो नहीं हो सकती थी लेकिन युद्धबंदी और पाकिस्तान की जमीन पर भारतीय कब्जा छुड़वाना पाकिस्तान के लिए हर हाल में जरूरी था। ऐसे में वार्ता ही एकमात्र विकल्प था। सो 1972 में भारत और पाकिस्तान के बीच 28 जून से वार्ता शुरू हुई और 1 जुलाई तक कई दौर की वार्ता हुई। इस वार्ता का मकसद कश्मीर से जुड़े विवादों को आपसी बातचीत और शांतिपूर्ण ढंग से हल निकालना था। नतीजन, 2 जुलाई 1972 को दोनों देशों के बीच शिमला में समझौता हुआ, जिसे शिमला समझौता के नाम से जाना जाता है। इस समझौते में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी बेटी बेनजीर भुट्टो के साथ शिमला आए थे। दिलचस्प बात ये है कि बाद में बेनजीर भुट्टो भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनी। शिमला समझौते में सहमति बनी थी कि कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच जितने भी विवाद हैं, उनका हल बातचीत कर निकाला जाएगा। समझौता ये भी हुआ था कि दोनों देश इस विवाद को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठाएंगे। समझौते में युद्ध बंदियों की अदला-बदली पर भी सहमति बनी थी, जिसके तहत युद्ध के दौरान बंदी बनाए गए सैनिकों को उनके देश को सौंप दिया जाएगा। इसमें राजनयिक संबंधों को सुधारने और सामान्य किए जाने का जिक्र भी था और फिर से व्यापार शुरू करने की बात भी कही गई थी। इसके अलावा इस समझौते में कश्मीर में दोनों देशों के बीच नियंत्रण रेखा यानी लाइन ऑफ़ कण्ट्रोल स्थापित किए जाना निर्धारित हुआ था और यह भी समझौता था कि दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ बल का प्रयोग नहीं करेंगे। तय ये भी हुआ था कि दोनों ही देशों की सरकारें एक दूसरे देश के खिलाफ प्रचार को रोकेगी। आधी रात को हुआ था शिमला समझौता : 2-3 जुलाई 1972 की आधी रात को यह समझौता हुआ था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच 2 जुलाई की रात करीब 10.30 बजे बातचीत शुरू हुई, जो देर रात 12 बजकर 40 मिनट तक चली। इसी समय भारत-पाकिस्तान के बीच एक समझौते के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए गए। इसी समझौते को शिमला समझौता कहा जाता है। समझौते के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर की तारीख 2 जुलाई 1972 दर्ज है। जबकि वास्तव में इस दस्तावेज़ पर 3 जुलाई की सुबह हस्ताक्षर किए गए थे। खुद मैडम प्राइम मिनिस्टर ने लिया था जायजा : भारत और पाकिस्तान के बीच शिखर-वार्ता 28 जून से 1 जुलाई 1972 तक होनी थी। चार दिन तक चलने वाली इस वार्ता में सात दौर की बातचीत प्रस्तावित थी। इस वार्ता के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी 27 जून को ही शिमला पहुंच गई थी। उन्होंने खुद यहाँ व्यवस्थाओं का जायजा लिया। तब उन्होंने पत्रकारों से कहा कि शिखर वार्ता पाकिस्तान के लिए शत्रुता भुलाकर नई शुरुआत करने का अवसर है। शिमला समझौता के मुख्य बिंदु- * दोनों देश शांतिपूर्ण तरीकों से आपसी बातचीत के जरिये या अन्य शांतिपूर्ण तरीके से अपने मतभेदों को आपसी सहमति से हल करने की प्रतिबद्धता पर सहमत हुए। * दोनों देशों के बीच भविष्य जब बातचीत होगी कोई मध्यस्थ या तीसरा पक्ष नहीं होगा। * शिमला समझौता के बाद भारत ने 93 हजार पाकिस्तानी युद्धबंदियों को रिहा कर दिया था। * 1971 के युद्ध में भारत द्वारा कब्जा की गई पाकिस्तान की जमीन भी वापस कर दी गई। * दोनों देशों ने तय किया कि 17 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण के बाद दोनों देशों की सेनाएं जिस स्थिति में थी उस रेखा को वास्तविक नियंत्रण रेखा माना गया। * तय हुआ कि दोनों ही देश इस रेखा को बदलने या उसका उल्लंघन करने की कोशिश नहीं करेंगे। * सहमति बनी कि दोनों देशों के बीच आवागमन की सुविधाएं स्थापित की जाएगी ताकि दोनों देशों के लोग आसानी से आ जा सकें। * दोनों देश सभी विवादों और समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सीधी बातचीत करेंगे और किसी भी स्थिति में एकतरफा कार्यवाही करके कोई परिवर्तन नहीं करेंगे। * दोनों देश एक-दूसरे के खिलाफ न तो बल प्रयोग करेंगे, न प्रादेशिक अखण्डता की अवहेलना करेंगे और न ही एक दूसरे की राजनीतिक स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप करेंगे। * दोनों ही सरकारें एक दूसरे देश के खिलाफ प्रचार को रोकेगी और समाचारों को प्रोत्साहन देगी जिससे संबंधों में मित्रता का विकास हो। आज भी मौजूद है टेबल : शिमला समझौता जिस टेबल पर हुआ उसे आनन-फानन में राजभवन के किसी कोने से लाकर रखा गया था। उसपर टेबल क्लॉथ तक नहीं था। पर आज वही टेबल ऐतिहासिक हो गया है और राजभवन के मुख्य हाल में शान से रखा गया है। उस वक्त रखे गए दोनों देशों के छोटे ध्वज भी टेबल पर मौजूद हैं। समझौते की गवाह एक श्वेत-श्याम तस्वीर टेबल के पीछे दीवार पर टंगी है, तो दो फ्रेम की गई तस्वीरें टेबल पर हैं। इस टेबल को राजभवन में जाकर देखने के लिए लोगों में खासी उत्सुकता है।
बॉन मेनरी मोनेस्ट्री, न सिर्फ जिला सोलन के प्रमुख पर्यटक आकर्षणों में से एक है अपितु ये बॉन धर्म के अनुयायियों के लिए विशिष्ट महत्व रखती है। ये मठ युंगड्रंग बॉन मठ केंद्र द्वारा चलाया जाता है। 1969 में इसकी स्थापना मठाधीश लुंगटोक तेनपाई न्यिमा ने की थी। आज पूरी दुनिया में बॉन धर्म को माने वाले इस स्थान पर आते है। बॉन धर्म तिब्बत की प्राचीन और पारंपरिक धार्मिक प्रथा है। माना जाता है कि लगभग आठवीं शताब्दी में तिब्बत में बौद्ध धर्म भारत से गया। पर बॉन धर्म उससे पहले से ही तिब्बत में प्रचलित था। यानि बॉन धर्म तिब्बत का अपना स्थानीय धर्म है। बौद्ध धर्म के तिब्बत में आने के बाद राजकीय समर्थन उस ओर मुड़ गया और बॉन धर्म के अनुचरों के साथ भेदभाव किया जाने लगा तो उन्होंने बौद्ध धर्म की कुछ मान्यताएं और कर्मकांड अपना लिया, जिसके चलते यह बौद्ध धर्म का एक सम्प्रदाय लगने लगा। जबकि वास्तव में दोनों धर्म अलग- अलग है। बॉन मतावलंबियों के अनुसार उनका धर्म तोनपा शेनरब के द्वारा स्थापित किया गया था जो शाक्यमुनि गौतम से भी पहले के युग के बुद्ध थे। बॉन धर्म के मूल विहार मेनरी मोनेस्ट्री की स्थापना भी सदियों पहले तिब्बत में हुई थी। फिर चीन के कब्जे के बाद कई बोन धर्मावलम्बी भारत आ गए और दोलांजी का मौजूदा विहार मूल मेनरी विहार के नाम पर फिर से बनाया गया। यहाँ मौजूद युंगडुंग बोन पुस्तकालय भी दुनियाभर में बॉन साहित्य का सबसे बड़ा संग्रह है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार बॉन धर्म के तत्व सिर्फ़ तिब्बत तक ही सीमित नहीं थे बल्कि उनका ऐतिहासिक प्रभाव तिब्बत से दूर कई मध्य एशिया के क्षेत्रों तक भी मिलता था। इतिहासकार बॉन धर्म को तिब्बती साम्राज्य से पहले आने वाले झ़ंगझ़ुंग राज्य से भी संबंधित मानते हैं। जबकि कई विद्वानों का मानना है कि बॉन धर्म और हिन्दू धर्म के भगवान शिव में बहुत-सी तीर्थ व अन्य समानताएं हैं। मसलन मानसरोवर और कैलाश पर्वत दोनों ही धर्मों में पवित्र माने जाते थे और हिंदुओं के लिए भगवान शिवजी के कारण विशेष महत्व रखते हैं। इसी तरह बहुत-सी तिब्बत में उत्पन्न होने वाली नदियां भी हिंदुओं और बोन धर्मियों के लिए धार्मिक आस्था की बिंदु हैं। जीभ दिखाकर करते है अभिवादन : 18वीं शताब्दी में तिब्बत पर द्जुन्गर कबीलों का कब्ज़ा हो गया। द्जुन्गरों ने स्थानीय धार्मिक परम्पराओं का दमन शुरू किया और लामाओं (मॉन्क्स) और बोन धर्मावलम्बियों को पकड़ के जेलों में ठूंस दिया। उनका मानना था कि लगातार मंत्र पढ़ने से जीभ का रंग काला पड़ जाता है इसलिए द्जुन्गर अधिकारियों से मिलने आए हर व्यक्ति को अपनी जीभ दिखानी पड़ती थी, ताकि पहचान हो सके की वह लामा है या नहीं। कालांतर में लोगों के बीच यही अभिवादन का तरीका बन गया। आज भी तिब्बत में लोग एक दूसरे का अभिवादन जीभ दिखाकर ही करते हैं। शिक्षा के बाद मिलती है गेशे की उपाधि : दोलांजी स्थित मेनरी विहार बोन धर्म के अध्ययन का महत्वपूर्ण केंद्र है जहाँ शिक्षा के साथ भिक्षुओं के रहने और खाने का भी इंतजाम होता है। न्यूनतम 12 और अधिकतम 16 वर्ष तक भिक्षुओं को धर्म, दर्शन, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष आदि की शिक्षा दी जाती है। प्रवीणता प्राप्त करने पर भिक्षुओं को ‘गेशे’ की उपाधि मिलती है जो पीएचडी के समकक्ष मानी जाती है। मौजूदा समय में बिहार में 200 से ज्यादा भिक्षु हैं जिनमें मंगोलिया, म्यांमार, तिब्बत, नेपाल के भिक्षु भी शामिल हैं।
किन्नौर, लाहुल-स्पीति, कुल्लू और आस-पास के ट्राइबल क्षेत्र के लोग हिमाचली टोपी पर सफ़ेद फूल लगाते है। क्या आप जानते है यह कौन सा फूल है? दरअसल ये फूल जैसा दिखने वाला एक बीज है। हालांकि इस का पौधा उन क्षेत्रों में नहीं मिलता है जहाँ ये फूल स्थानीय लोगों की पोशाक का एक अनिवार्य हिस्सा हैं। इस पेड़ का नाम है ओरोक्सिलम सिग्नम जिसे अरलू या टाट पटनगा भी कहा जाता है। यह बीज बड़ी तलवार के आकार की फली में मौजूद होते हैं। इसका प्रयोग ट्राइबल क्षेत्र के हिंदू और बौद्ध धर्म से जुड़े लोग भी करते है। सफेद फूल के बिना किन्नौरी टोपी की शान अधूरी मानी जाती है। इसे किन्नौर में ख्वार और सिरमौर में टाट पटनगा के नाम से जाना जाता है। देश-विदेश में पहचान पाने वाली किन्नौरी टोपी पर सफेद फूल किन्नौर में न होकर जिला सिरमौर के मैदानी क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इस फूल को किन्नौर में ख्वार और चाम्खा, सोलन में टाट मरंगा जबकि सिरमौर में टाट पटनगा के नाम से जाना जाता है। अरलू एक छोटा से मध्यम आकार का पर्णपाती पेड़ है जो 12 मीटर की ऊंचाई तक बढ़ता है। हैरानी की बात है कि यह समशीतोष्ण क्षेत्र का पौधा नहीं है। यह लगभग सभी उपोष्णकटिबंधीय भारत में 1,200 मीटर की ऊंचाई तक बढ़ता है। इसमें बड़े यौगिक पत्ते होते हैं, जो कभी-कभी एक मीटर लंबा भी हो सकता है। पेड़ बड़े बैंगनी फूल धारण करता है। फली बड़ी, 60-90 सेमी लंबी और तलवार के आकार की होती है। ये फली के अंदर पंखों की तरह होते है। इसे निकालने के लिए चाकू से खोल दिया जाता है। इसके बाद इसे पिरोने के लिए पेटल्स को बीच में रखकर गेहूं के तनों से घुमाकर गुथ की तरह बनाया जाता है, जिसे स्थानीय भाषा में "तेकेमा" कहा जाता है। इसके बाद इसमें पसंद अनुसार बखरी कान को सम्मिलित किया जाता है जिसे वैज्ञानिक रूप से "चोरिज़िया स्पीसीओसा" के नाम से जाना जाता है। बखरी कान कपास की गेंदों का प्रतिबिंब देती हैं। इन्हें गेंद के रूप में टैग करके बनाया जाता है और विभिन्न रंगों में रंगा जाता है। इस सफेद फूल और बकरी कान से बने फूल के बिना हिमाचली टोपी की शान अधूरी मानी जाती है।
सांस्कृतिक रूप से समृद्ध हिमाचल की अति प्राचीन किन्नर जनजाति की पहचान के साथ जाने -अनजाने खिलवाड़ जारी है। देश में आज थर्ड जेंडर के लिए किन्नर शब्द का प्रयोग आम हो चला है। भारतवर्ष के सांस्कृतिक और साहित्यिक ग्रंथों में कहीं भी थर्ड जेंडर के लिए किन्नर शब्द का उल्लेख नहीं है। हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथ, वेद-पुराण, उपनिषद, साहित्य-कृतियों में भी किन्नर का यह अर्थ नहीं है। फिर भी न जाने कब और कहां से थर्ड जेंडर के लिए किन्नर शब्द का प्रचलन शुरू हुआ और निरंतर किन्नौर के गौरव को खंडित करता आ रहा है। अज्ञानतावश आम लोग भी थर्ड जेंडर के लिए किन्नर शब्द का इस्तेमाल करने लगे है, जो किन्नौर की किन्नर जनजाति को अस्वीकार्य है। असल भय तो ये है कि यदि इस शब्द के गलत प्रचलन पर विराम न लगाया गया तो आने वाली पीढ़ियां भूलवश गौरवशाली किन्नर जनजाति को भी थर्ड जेंडर ही मानेंगी। जिला किन्नौर प्राचीन किन्नर देश के इतिहास और संस्कृति के आधार पर गठित हुआ है और वहां निवास करने वाली जनजाति 'किन्नौरा' और 'किन्नर' के नाम से जानी जाती है। भारत के संविधान में भी जनजातियों के रूप में ‘किन्नर’ और ‘किन्नौरा’ दर्ज हैं। जिला किन्नौर के निवासियों को जब जनजाति प्रमाण पत्र दिया जाता है तो उसमें स्पष्ट लिखा जाता है 'दि पीपल ऑफ किन्नौर डिस्ट्रिक्ट बिलोंग्स टू किन्नौरा और किन्नर ट्राइब', विच इज रिकगनाइज्ड एस शेड्यूल ट्राइब अंडर दि शेड्यूल ट्राइब लिस्ट ऑर्डर 1956 एंड दि स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश एक्ट 1970।' बावजूद इसके जाने -अनजाने इस जनजाति की अस्मिता से खिलवाड़ हो रहा है। विधानसभा ने पास किए निंदा प्रस्ताव, पर निष्कर्ष क्या ? हिमाचल विधानसभा में दो बार भाजपा और कांग्रेस के कार्यकालों में किन्नर शब्द के गलत इस्तेमाल को लेकर निंदा प्रस्ताव भी पारित हो चुके हैं। पर ये निंदा प्रस्ताव किसी खानापूर्ति से ज्यादा सिद्ध नहीं हुए। किन्नर शब्द के गलत प्रचलन को लेकर जिस जोश से मुद्दा उठा था, वह अब लगभग शांत है। आज भी बदस्तूर किन्नर शब्द हिजड़ों के लिए प्रयोग हो रहा है। जाने -अनजाने हम सभी ऐसा कर रहे है। किन्नर/किन्नौरा जनजाति की अस्मिता पर संकट : एसआर हरनोट जाने माने लेखक एसआर हरनोट ने इस विषय को लेकर लम्बी लड़ाई लड़ी है। प्रदेश सरकार से लेकर केंद्र तक एसआर हरनोट इस विषय को उठाते रहे है। उनका कहना है कि थर्ड जेंडर के लिए किन्नर शब्द का प्रयोग किन्नर/किन्नौरा जनजाति की अस्मिता पर संकट है। किसी भी प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ, वेद-पुराण, उपनिषद, शब्द कोष, साहित्य-कृतियों में 'किन्नर' शब्द 'थर्ड जेंडर' के लिए इस्तेमाल नहीं हुआ है। जो लोग इस शब्द का गलत संदर्भ में प्रयोग कर रहे हैं, वह अज्ञानतावश है। हरनोट मानते है कि यह संकट पिछले कुछ साल से मीडिया में हिजड़ा या थर्ड जेंडर के लिए ईजाद किए गए ‘किन्नर‘ शब्द के कारण उत्पन्न हुआ है। ये विडम्बना का विषय है कि आज मीडिया भी थर्ड जेंडर के लिए भूलवश ‘किन्नर’ शब्द का प्रयोग करती हैं, जो संवैधानिक रूप से गलत है। एसआर हरनोट के मुताबिक देश की पहली थर्ड जेंडर विधायक शबनम मौसी ने खुद माना था कि किन्नर शब्द मीडिया ने दिया है। ‘ट्रैफिक सिग्नल’ नहीं हुई थी रिलीज़, पर असर क्या हुआ ? वर्ष 2007 में मधुर भंडारकर की एक फिल्म आई थी ‘ट्रैफिक सिग्नल’। फिल्म निर्देशक मधुर भंडारकर ने अपनी फिल्म के रिलीज होने से पहले जितने भी साक्षात्कार दिए थे उनमें प्रमुखता से हिजड़ा समुदाय को किन्नर कह कर पुकारा गया था। जाहिर है ऐसे में हिमाचल में फिल्म रिलीज होने से पहले ही इस बात को लेकर बवाल मचना ही था। ऐसे में प्रदेश सरकार ने किन्नौर वासियों और संस्कृति के साथ इस तरह का खिलवाड़ होते देख इस फिल्म के हिमाचल में रिलीज होने पर प्रतिबंध लगा दिया था। ये फिल्म बेशक हिमाचल में रिलीज़ नहीं हुई लेकिन आज भी टीवी सिनेमा जगत में थर्ड जेंडर के लिए खुलकर किन्नर शब्द का इस्तेमाल जारी है। शायद व्यावसायिक दृष्टिकोण से हिमाचल एक बड़ा बाजार नहीं है, इसलिए फिल्म और सिनेमा जगत ने हिमाचल की आवाज़ को सुनी अनसुनी कर दिया। 'किन्नर' एक उपनाम भी है किन्नौर के लोगों द्वारा 'किन्नर' उपनाम भी लिखा जाता रहा है। हालांकि अब किन्नर उपनाम देखकर लोग हिजड़ा समझने की भूल कर बैठते हैं। इसलिए लोग इस पहचान से कतराने लगे हैं। ऐसी में कई वाक्ये हुए है जहाँ बुद्धिजीवियों ने भी किन्नर उपनाम को थर्ड जेंडर समझने की बड़ी भूल कर दी। विडम्बना : तमाम साहित्य और शोध पर भी प्रश्नचिन्ह ! किन्नर शब्द का गलत इस्तेमाल एक ऐसा सांस्कृतिक मुद्दा है जिस पर न केवल अकेले किन्नौर वासियों की अस्मिता दांव पर है बल्कि उस तमाम साहित्य और शोध पर भी प्रश्नचिह्न है जो इस सन्दर्भ में उपलब्ध है। पंडित राहुल सांकृत्यायन ने किन्नर जाति के सांस्कृतिक महत्व पर 'किन्नर देश में' पुस्तक लिखी है। उनके अनुसार यह किन्नर देश है। इसी तरह हिमाचल कला, भाषा और संस्कृत अकादमी के सचिव रहे डा. बंशी राम शर्मा ने किन्नौर और किन्नर जनजाति पर शोध किया और उनका यह शोध ग्रन्थ ‘किन्नर लोक साहित्य' शीर्षक से प्रकाशित है। इसे किन्नौर पर प्रमाणिक ग्रन्थ माना जाता है। इस पुस्तक में अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध किया गया है कि वर्तमान किन्नौर में रहने वाले निवासी किन्नर जाति से सम्बन्धित हैं। महाकवि भारवि ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ किरातार्जुनीयम् महाकाव्य के हिमालय वर्णन खण्ड के पांचवे सर्ग में किन्नर, गन्धर्व, यक्ष तथा अप्सराओं आदि देव-योनियों के किन्नर देश में निवास होने का वर्णन किया है। इसी प्रकार कई संस्कृत ग्रंथों में किन्नरी वीणा का उल्लेख हुआ है। चन्द्र चक्रवती ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘लिटरेरी हिस्टरी ऑफ़ एन्शियंट इंडिया' में लिखा है कि किन्नर कुल्लू घाटी, लाहुल और रामपुर में सतलुज के पश्चिमी किनारे पर तिब्बत की सीमा के साथ रहते हैं। ऐसे अनेक साहित्य उपलब्ध है जहाँ किन्नर जाती का जिक्र है। पर आज किन्नर शब्द का गलत इस्तेमाल इस तमाम साहित्यिक विरासत पर भी प्रश्न चिन्ह है। देखते -देखते किन्नर अखाड़ा भी स्थापित हो गया : हिजड़ा समुदाय द्वारा 2018 में एक अखाड़ा स्थापित किया गया जिसे किन्नर अखाड़ा का नाम दिया गया। यह जूना अखाड़ा (श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा) के अधीन है। धर्मनगरी हरिद्वार में हुए महाकुम्भ में भी पहली बार किन्नर अखाड़ा शामिल हुआ था। थर्ड जेंडर या हिजड़ा समुदाय के संवैधानिक अधिकारों के प्रति पूरा मुल्क एक है, सबकी संवेदनाएं इस समुदाय के साथ है। पर ये मसला शायद जाने -अनजाने एक ऐसी भूल का है जिससे आज किन्नौर वासी आहत है। हिमाचल में बीते दो दशक से इस मुद्दे पर चर्चा होती आ रही है, विधानसभा में निंदा प्रस्ताव पास होने से लेकर प्रधानमंत्री तक को पत्र लिखे गए है, बावजूद इसके देखते -देखते जिस तरह थर्ड जेंडर के लिए किन्नर शब्द का इस्तेमाल आम हुआ है, उसके लिहाज से ये तय है कि इस मुद्दे की लड़ाई अभी लम्बी है। यक़ीनन जरुरत है एक सशक्त संवाद स्थापित करने की, ताकि हिजड़ा समुदाय के साथ भी तार्किक मंथन किया जा सके। यक़ीनन जरुरत है प्रसार की, ताकि जाने -अनजाने किसी से ये भूल न हो।
A paperboy turned millionaire - a solitary tail that may enthrall your heart eternally. Each millionaire has their own “rags to riches “ story, but this one goes a bit offbeat as the main character of this anecdote started it all when he was incredibly young. His diligent work didn’t take long to turn him into a massively successful business mogul. This memoir belongs to Vidya Sagar Chauhan, A boy who lost his father earlier than the others, responsibilities knocked on his door when he himself was fledging, without giving a second thought he dropped his school after 10th standard, and with an empathetic notion, he geared up to support his family. A family of three people his mother, sister and he himself lived in small-town Dharampur in district Solan. All his father left for them was a small tea stall, as the sun raised he too would wake up and saunter around the whole town to circulate newspapers, his day was spent making tea for people at the tea stall, and his day ended by making paper bags from the left out newspapers, going to school was luxury after passing his metric that he could hardly afford . The little he earned was not enough for this visionary, his aspirations and inbuilt desire to be successful consistently proceeded him towards the massive success that he has today. He initiated to amplify his business by establishing a small paper bag manufacturing plant and there and then he decided to never look back. At present he is the owner and founder of Sagar FireWorks, the only industry in Himachal Pradesh to produce Novelties firecrackers. From paper bags to fireworks this man suffered numerous ebbs and flows to prevail. He’s not only recognized for the enormous business empire that he constructed but for the revolution that he brought into the Indian fireworks industry. He had an idea to wean away the Indian Fireworks industry from its heavy dependence on Chinese imports and strengthen its self-reliance. He says that” if we have the ability to make it ourselves, then why to bet bottom dollar on someone else “. With this speculation in his mind, he took a stride forward, and instead of importing the necessities required to produce firecrackers from China, he preferred to extract the technology behind it and applied this technology in his manufacturing plant, in order to be a step ahead. It is incredibly fascinating when you become acquainted with the fact that a person who started his business with four employees and that too his family members now owns three manufacturing plants one at Dilmand Sirmaur and others at Parwanoo and has 200 employees working under his assistance, that is how entrepreneurs escalate their business empires. His colossal business empire didn’t just appear through the air he has suffered through an enormous tough grind to accomplish his dreams and Mr. Vidya Sagar Chauhan epitomizes this fact to the best, that a university degree doesn’t always equate to success. He further aims to wean out the import of Chinese toys in India and dreams of establishing a toy industry as well. This ingenious personality strongly believes that you will never fail in a real sense if you always have a second option and after your failure, you must always be ready for Renaissance. Mr. Vidya Sagar Chauhan is also involved in bountiful philanthropic acts but the best on his list acclaims his dedication to empowering women in the best possible ways, he has generated employment for numerous women in the remote areas of Himachal Pradesh. At one of his manufacturing plants, Dilmand he gifts 5000 rupees to every girl child who takes birth in the Dilmand panchayat and donates the same amount for every girl married right there. Another altruistic noble deed from his philanthropic treasure inspires a humongous amount of people, this courteous human being has adopted a whole Government school and takes care of its need to the fullest. A person who was a bit unfortunate to complete his own schooling endeavors to educate many children with all the facilities that they deserve, so “A paperboy enlightening masses “ would be a better appellation for this anecdote. Note- ADVT
My Dad when he was too young while reading books came across Organon and another book on homeopathy, which entirely changed his world. He then shifted to this wonderful science and vigorously remained with it throughout his life or you can say till his last breath. He wrote books in Urdu and did so many provings. I had preserved his literature and unluckily I could not still present this to the Homeopathic world. He struggled hard amidst adversity coming to India. He used to say No work is mean or regarded even if we work as laborers. I was lucky enough to spend more time with him at the clinic, assisting him. My duty was to make doses of pills and powder in folded paper and tell the patients how to take them. His aim was not to get popular and famous as a doctor because he found homeopathy a safe and harmless way to help mankind, so he adopted it. My Father passed away from a massive heart attack on the fateful day 28-05-1994 at Solan. This hill station gave him more than 40 years of success fame and glory in terms of practice. That was the turning point of my life. So I faced many challenges. Firstly I had to fulfill the dreams of my father and establish homeopathy as a respectable and credible homeopath. During the time I spent with my father, I wanted to change certain things in my own way but sincerely speaking I couldn't. Realizing how desperately people depend upon me is what always drives me to do my best. That is why I deal with the patients, not with a doctor's professional guarded approach, but with humanity and optimism. I always wanted to make homeopathy popular among the masses. To learn more and enhance my ability I started joining seminars and meeting with various doctors and started learning the skills. The best part of my learning experience was the guidance of my mentor my guru Dr. Kasim Chinthalewale, who enlighted my path and guided me, on how to be a successful homeopath. Not that my journey has not been easy there are just sick people who need little consolation and need to be treated. Everybody everywhere needs to benefit from the advantages of homeopathy. A conventional allopathic doctor simply looks at the patients and hears their symptoms before choosing a wide range of patent drugs, that will temporarily relieve the condition. A good homeopath, on the other hand, must understand the patient's physical, mental, and psychological history to be able to prescribe the medicine that will control the symptoms and cure the disease. Let us instead build a new faith. As there is no need to fall sick, after all being healthy is a body's natural state. Recovering one's health can be done naturally. There is a holistic system of medicine that shows you how more and more people turn to homeopathy. Many people are attracted to homeopathy because of its emphasis on treating the body, mind, and spirit of a person. Besides, most homeopathic doctors seek to find deeper reasons for a disease: job stress, marital problems, diet or sleeping habits, and pills are potential diseases- beares. In this age of managed care and impersonal group practices, most patients find this individualized approach to homeopathy particularly appealing. for example, red onion makes your eye water thats why it is used in homeopathic remedies for allergies. SPECIALITY OF OUR CLINIC There are no side effects from our medicines The remedies are non-invasive We provide an individualized form of treatment. We treat a patient as a whole not only the disease. We prescribe medicine to the patient after following the rules of homeopathic case taking Which are authentic and scientific Our aim is to cure the patient without any harm. Note- ADVT
आखिरकार नई पेंशन स्कीम कर्मचारी महासंघ का संघर्ष रंग लाया और बरसों का इन्तजार खत्म हुआ। सुक्खू सरकार के सत्ता में आते ही कर्मचारियों को उनके बुढ़ापे का साहरा यानी पुरानी पेंशन लौटा दी गई l जिस मसले ने प्रदेश की चुनावी हवा का रुख बदल कर रख दिया था, अब वो मसला हल हो गया है। कर्मचारी एक लम्बे अर्से से अपने बुढ़ापे की सुरक्षा की मांग रहे थे, कर्मचारी लगातार गुहार लगा रहे थे कि उन्हें उनका हक़ लौटा दिया जाए और अब मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के आशीर्वाद से उनकी ये मांग पूरी हो गई l पुरानी पेंशन की मांग मुठी भर कर्मचारी नहीं बल्कि हिमाचल में एनपीएस के दायरे में आने वाले करीब सवा लाख कर्मचारी कर रहे थे जिनकेलम्बे संघर्ष पर विराम लग गया है। पुरानी पेंशन बहाल करने का श्रेय मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को जाता है मगर जब भी प्रदेश के कर्मचारियों के खाते में उनकी पेंशन आएगी तो उन्हें नई पेंशन स्कीम कर्मचारी महासंघ महासंघ का वो संघर्ष भी याद आएगा जो इस संगठन ने दिन रात एक करते हुए किया l प्रदीप ठाकुर के नेतृत्व में आगे बढ़ते हुए न जाने कितनी वेदनाएं इस संघ ने ने सही मगर न तो ये कर्मचारी कभी रुके और न ही किसी के आगे झुके l इस संघर्ष की चिंगारी साल 2015 में भड़की थी और देखते ही देखते ये चिंगारी ज्वाला में बदल गई। जब प्रदेश में पुरानी पेंशन को हटा कर नई पेंशन लाई गई तो कर्मचारियों ने इसका स्वागत किया, लेकिन कुछ समय बाद जब इसके परिणाम सामने आए तो कर्मचारियों को समझ आ गया कि नई पेंशन स्कीम उनके लिए घाटे का सौदा है और फिर नई पेंशन को हटा पुरानी पेंशन की मांग की सुगबुगाहट तेज़ हो गई और साल 2015 तक कर्मचारी संगठित हो गए। साल 2017 से पहले जब भाजपा विपक्ष में थी तो पुरानी पेंशन कर्मचारियों को लौटाने के वादे किया करती थी। 2017 में जब भाजपा की सरकार बनी तो कर्मचारियों को उम्मीद थी कि पुरानी पेंशन बहाली के लिए प्रदेश सरकार कुछ कदम उठाएगी। परन्तु सत्ता में आने के बाद जब कोई बदलाव होता नहीं दिखा तो शुरुआत हुई उस संघर्ष की जो आगे चल कर प्रदेश के कर्मचारियों के सबसे बड़े आंदोलन में तब्दील हो गया। प्रदीप ठाकुर की रही अहम भूमिका : पुरानी पेंशन की लड़ाई की शुरुआत नई पेंशन स्कीम कर्मचारी महासंघ के बैनर तले हुई। प्रदीप ठाकुर के नेतृत्व में इस संगठन ने कर्मचारियों को एकत्रित किया। उन्हें पुरानी पेंशन की एहमियत का एहसास करवाया, पुरानी पेंशन के लिए लम्बी लड़ाई लड़ी। प्रदीप ठाकुर के कुशल नेतृत्व पेंशन की लड़ाई लड़ी गई और कर्मचारी सफल भी हुए l प्रदीप ठाकुर वो व्यक्ति है जिन्हें शुरुआत में सभी हलके में लेते रहे, विरोधी उन्हें आम कर्मचारी नेता मानते रहे लेकिन देखते ही देखते प्रदीप प्रदेश के सबसे बड़े कर्मचारी नेता बनकर उभरे l प्रदेश के लाखों कर्मचारियों ने प्रदीप पर भरोसा किया और प्रदीप उनके भरोसे पर खरे भी उतरे l प्रदीप और उनकी टीम ने इस आंदोलन का ताना बाना बुना और प्रदेशक के कर्मचारियों को उनका हक़ दिलाया l Note- ADVT
कुछ नाम ऐसे होते है जो किसी तारुफ़ के मोहताज नहीं होते l इनके काम, समाज में इनका योगदान और इनकी अलहदा शख्सियत न सिर्फ वर्तमान को प्रभावित करती है बल्कि आने वाले कल के लिए भी मिसाल होती है l ऐसी ही एक शख्सियत थे स्व नरेंद्र बरागटा, जो जीते जी भी लोकप्रिय रहे और देवलोक गमन के पश्चात भी लोगों के दिलों में जिन्दा हैl विशेषकर जब भी प्रदेश के बागवानों और उनके विकास की बात होती है तो स्व नरेंद्र बरागटा का ज़िक्र ज़रूर होता है l वो नरेंद्र बरागटा ही थे जो पहली बार हिमाचल के बागवानों लिए एंटी हेलगन लाए थे। वो नरेंद्र बरागटा ही थे जिन्होंने बागवानी महत्व की ठियोग-हाटकोटी सड़क के निर्माण के लिए लंबी लड़ाई लड़ी थी l वो नरेंद्र बरागटा ही थे जो बागवानों के हित के लिए अपनी ही सरकार से लड़ जाया करते थ। स्व बरागटा के लिए ताउम्र बागवान पहले रहे और राजनीति बाद में। स्वयं एक बागवान हाेने के नाते नरेंद्र बरागटा ने हमेशा से ही किसान एवं बागवानाें के दर्द काे समझा और विधानसभा में भी बागवानों की आवाज़ उठाने में काेई कमी नहीं छाेड़ी। प्रदेश के किसी भी क्षेत्र में किसान हाे या बागवान सभी की समस्याओं का हल करवाने के लिए उन्हाेंने हमेशा से ही दलगत राजनीति से उठकर काम किया। ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि बरागटा प्रदेश के बागवानों की सबसे बुलंद आवाज थे l सत्ता में हाे या फिर विपक्ष में, स्व. बरागटा प्रदेश के बागवानों के हर मसले को दमदार तरीके से उठाया करते थे। प्रदेश विधानसभा सदन से लेकर केंद्र सरकार तक बागवानों की आवाज बुलंद करने में उन्होंने काेई कमी नहीं छाेड़ी। पूर्व जयराम सरकार में वे मुख्य सचेतक थे और विधानसभा के हर सत्र में वे बागवानाें के हितों की बात करते दिखते थे। सेब पर कमीशन हाे या फिर फसल बीमा कंपनियों की ओर से भ्रष्टाचार का मसला, इन सभी एजेंडों पर स्व. बरागटा ने सरकार के समक्ष ठाेक-बजा कर बागवानाें का पक्ष रखा। देश की विभिन्न मंडियाें में बिकने वाले विदेशी सेब पर आयात शुल्क बढ़ाने का मुद्दा भी स्व. बरागटा उठाते रहे। 1998 की धूमल सरकार में बागवानी मंत्री रहते हुए नरेंद्र बरागटा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.अटल बिहारी वाजपेयी के समक्ष भी ये मामला उठाया था, ताकि प्रदेश के बागवानों को होने वाले नुकसान से बचाया जा सके। इसके बाद अगली धूमल सरकार में भी वे बागवानी मंत्री थे और यूपीए सरकार के सामने ये विषय रखा। जब भी बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि के चलते बागवानों की फसल नष्ट होती, ताे उस समय एक ही नेता सामने आता रहा, वह थे नरेंद्र बरागटा। हर बार बारिश और ओलावृष्टि के बाद स्व. बरागटा प्रदेश सरकार से मांग करते कि वह तुरंत सेब क्षेत्रों में टीमें भेजे और बागवानों किसानों को तुरंत मुआवजा प्रदान करे। एक बार अपनी ही सरकार को आईना दिखाते हुए उन्होंने कहा था कि केवल आंकलन करने से कुछ नहीं होगा क्योंकि पहले हुए नुकसान पर भी सरकार केवल आंकलन ही करती रह गई थी। प्रदेश में करीब चार हजार करोड़ रुपये का सेब बागवानी का कारोबार हर साल कम होता देखकर नरेंद्र बरागटा इस समस्या से निदान दिलाने के लिए बहुत चिंतित रहा करते थे। धूमल सरकार में वह एंटी हेलनेट पर सब्सिडी बढ़ाने के हिमायती रहे। दरअसल उन्होंने विदेशों से प्रदेश में एक ऐसी तकनीक लाकर सबको चौंका दिया, जिससे ओले रोके जाने के दावे किए जाने लगे। इसे एंटी हेलगन कहा जाता है। बरागटा प्रदेश के बागवानों के लिए एंटी हेल गन लेकर आए थे l विदेशी तकनीक से उन्होंने प्रदेश के सेब बागवानों की ओलावृष्टि की समस्या का निदान करने का प्रयास किया था जिसका लाभ आज भी बागवान उठा रहे है। जुब्बल-कोटखाई में एंटी हेलगन की स्थापना भी की गई। इससे ध्वनि तरंगें आसमान में छोड़ी जाती हैं। ओलावृष्टि का पूर्वाभास होने से पहले ही ये बंदूूकें चलाई जातीं तो इनसे विस्फोट जैसे आवाज होती। इससे ओले बनने से पहले ही नष्ट हो हो जाते थे। इस तकनीक के बारे में बरागटा बहुत चर्चित रहे। बागवानी महत्व की ठियोग-हाटकोटी सड़क के निर्माण के लिए भी बरागटा ने लंबी लड़ाई लड़ी थी। चीन की कंपनी को काम मिलने के बाद नरेंद्र बरागटा 'छैला चौक टू चाइना' कहकर यह जताने की कोशिश करते थे कि इस सड़क के निर्माण के लिए यूनिवर्सल टेंडर लगवाने की उनकी मुहिम कामयाब रही। बागवानी महत्व की ठियोग-हाटकोटी सड़क का पहले बुरा हाल था। प्रदेश की सत्तर फीसदी से अधिक सेब की फसल का परिवहन इसी सड़क से होता है। पर इसमें सेब सीजन के दौरान घंटों जाम लगा रहता था। नरेंद्र बरागटा एचपीआरआईडीसी के तहत इस सड़क को स्टेट प्रोजेक्ट में शामिल करवाने, इसके यूनिवर्सल टेंडर करवाने जैसे मुद्दों पर खासे संघर्षरत रहे। बाद में एक चीनी कंपनी लोंग जियान ने इस सड़क का काम लिया तो इसकी भी वह कड़ी निगरानी करते रहे। बार-बार गुणवत्ता का मामला उठाते रहे। बाद में यह कंपनी काम छोड़कर गई तो सीएनसी कंपनी को इसका काम दिया गया। नरेंद्र बरागटा इसका भी लगातार फालोअप करते रहे। सेब के लिए नई विदेशी किस्में लाई , टिश्यू कल्चर लैब स्थापित की नरेंद्र बरागटा ने हिमाचल प्रदेश के निचले क्षेत्रों के लिए नई विदेशी किस्में भी धूमल सरकार में मंत्री रहते मंगवाई थी। इन क्षेत्रों में बागवानी विस्तार करने का भी उन्होंने एक विशेष अभियान चलाया। इसके अलावा राज्य में टिश्यू कल्चर सेब उत्पादन की प्रयोगशालाएं भी उन्होंने स्थापित करवाईं। लगातार उठाते रहे आयात शुल्क का मामला सेब पर आयात शुल्क बढ़ाने और हिमाचल के बागवानों को उनकी उपज का अच्छा मूल्य दिलाने के लिए भी नरेंद्र बरागटा हमेशा संघर्षरत रहे। विदेशी सेब पर इंपोर्ट ड्यूटी बढ़वाने का मामला वह केंद्रीय मंत्रियों से भी लगातार उठाते रहे। पिता के नक्शेकदम पर आगे बढ़ रहे चेतन स्व नरेंद्र बरागटा के निधन के बाद उनकी राजनैतिक विरासत को उनके ज्येष्ठ पुत्र चेतन आगे बढ़ा रहे है। यूँ तो चेतन पहले से ही राजनीति में सक्रीय थे लेकिन पिता के निधन के बाद वे उसी ज़िम्मेदारी से क्षेत्र के बागवानों की आवाज बने है, जैसा स्व बरागटा किया करते थे। चेतन के लिए भी बावन और लोग पहले है और राजनैतिक दल बाद में। उन्हें भी लोगों को वैसा ही प्यार हो समर्थन प्राप्त है जैसा स्व नरेंद्र बरागटा को था। Note- ADVT
हिमाचल यानी हिम का आँचल l हिमाचल प्रदेश की वादियां जितनी ख़ूबसूरत है उतना ही ख़ूबसूरत इसका नाम है और उतनी ही दिलचस्प इसके नामकरण की कहानी भी l ये कहानी एक लम्बे संघर्ष की है जिसका साक्षी बना दरबार हॉल आज भी प्रदेश में मौजूद है l कई ऐतिहासिक फैसलों का गवाह रहा सोलन का दरबार हॉल खुद में हिमाचल के नामकरण का इतिहास समेटे हुए है। इसी दरबार हॉल में हिमाचल का नामकरण हुआ था और इसी दरबार हॉल में 28 रियासतों के राजाओं ने राज -पाट छोड़ प्रजामण्डल में विलय होने के लिए सहमति दी थी। बघाट रियासत के राजा दुर्गा सिंह संविधान सभा के चेयरमैन थे और उन्हें प्रजामण्डल का प्रधान भी नियुक्त किया गया था। उनकी अध्यक्षता में 28 जनवरी 1948 को दरबार हॉल में हिमाचल प्रदेश के निर्माण हेतु एक महत्वपूर्ण बैठक हुई थी। इस बैठक में डॉ यशवंत सिंह परमार व स्वतंत्रता सैनानी पदमदेव की उपस्तिथि को लेकर भी तरह-तरह की कहनियां है। कहा जाता है कि डॉ परमार वर्तमान उत्तराखंड राज्य का जौनसर-बाबर क्षेत्र का कुछ हिस्सा भी हिमाचल प्रदेश में मिलाना चाहते थे, किन्तु राजा दुर्गा सिंह इससे सहमत नहीं थे। साथ ही डॉ परमार प्रदेश का नाम हिमालयन एस्टेट रखना चाहते थे, जबकि राजा दुर्गा सिंह की पसंद का नाम हिमाचल प्रदेश था। ये नाम संस्कृत के विद्वान आचार्य दिवाकर दत्त शर्मा ने सुझाया था जो राजा दुर्गा सिंह को बेहद भाया। अंत में राजा दुर्गा सिंह की चली और नए गठित राज्य का नाम हिमाचल प्रदेश ही रखा गया। 28 रियासत के राजाओं ने जब एक स्वर में प्रांत का नाम हिमाचल प्रदेश रखने की आवाज बुलंद की, तो डॉ. परमार ने भी इस पर हामी भर दी। एक प्रस्ताव पारित कर तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को मंजूरी के लिए भेजा गया। सरदार पटेल ने इस प्रस्ताव पर मुहर लगाकर हिमाचल का नाम घोषित किया। राजसी शान-ओ-शौकत का गवाह रही इमारत : मौजूदा समय में दरबार हॉल का इस्तेमाल लोक निर्माण विभाग कर रहा है। ऐतिहासिक दरबार हॉल में जर्जर दीवारें अपनी अनदेखी की कहानी बयां कर रही हैं। सोचने वाली बात तो ये है की जिलेभर के सरकारी भवनों को बनाने और रखरखाव करने वाले लोक निर्माण विभाग का कार्यालय इस जर्जर भवन में चल रहा है। दरबार हॉल को उचित पहचान मिलना तो दूर इस स्थान का अस्तित्व तक खतरे में है। दरबार हॉल में राजशाही के दौर की तीन कुर्सियां आज भी मौजूद हैं। आज भी दरबारी द्वार पर की गई बेहद सुंदर नक्काशी को देखा जा सकता है। आज भी ये दरबार हॉल अपनी खूबसूरती और अपने शानदार इतिहास का लोहा न सिर्फ सोलन बल्कि समूचे प्रदेश में कायम करता है। पर विडम्बना ये हैं कि राजसी शान-ओ-शौकत का गवाह रही यह ईमारत आज धीरे-धीरे लचर व्यवस्था की बलि चढ़ रही है।
देवभूमि हिमाचल में ऐसे कई रहस्यमयी मंदिर है जिसके आगे विज्ञान भी फैल है। ऐसा ही एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है हिमाचल प्रदेश के जिला काँगड़ा में स्थित श्री ज्वालामुखी मंन्दिर। इस मंदिर को ज्योता वाली माता के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में काफी अनोखा है क्योंकि यहां पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है, बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा होती है। ज्वाला देवी मंदिर में बिना तेल और बाती के नौ ज्वालाएं दिन रात जलती रहती है। इन्हें माता के नौ स्वरूपों का प्रतीक माना जाता हैं। मंदिर में जल रही सबसे बड़ी ज्वाला को माता ज्वाला माना जाता है और अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां अन्नपूर्णा, मां विध्यवासिनी, मां चण्डी देवी, मां महालक्ष्मी, मां हिंगलाज, मां सरस्वती, मां अम्बिका देवी एवं मां अंजी देवी स्थापित हैं। कहा जाता है कि बादशाह अकबर ने भी इस ज्वाला को बुझाने की कोशिश की थी, लेकिन वो नाकाम रहे थे। इतना ही नहीं वैज्ञानिकों ने भी इस ज्वाला के लगातार जलने का कारण खोजने की कोशिश की लेकिन वे भी इसके पीछे का रहस्य नहीं जान पाए हैं। यह सब बातें सिद्ध करती हैं कि यहां ज्वाला प्राकृतिक रूप से ही नहीं, चमत्कारी रूप से भी निकलती है। पूरे भारतवर्ष मे कुल 51 शक्तिपीठ है। ज्वाला देवी मंदिर इन शक्तिपीठ मंदिरों में से एक है। इन सभी शक्तिपीठों की उत्पत्ति की कथा एक ही है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुऐ है। धार्मिक ग्रंथ के अनुसार इन सभी स्थानों पर देवी सती के अंग गिरे थे। दरअसल भगवान शिव के ससुर राजा दक्ष ने अपनी राजधानी में यज्ञ का आयोजन किया था जिसमें उन्होंने भगवान शिव और माता सती को आमंत्रित नही किया। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयी। जब यज्ञ स्थल पर माता सती पहुंची तो वहां उनके पिता द्वारा शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और हवन कुण्ड में कूद गई। जब यह बात भगवान शंकर को पता चली तो यज्ञ स्थल पर पहुंचकर उन्होंने सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करना शुरू कर दिया। इस कारण सारे ब्रह्मांड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागों में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। मान्यता है कि ज्वालाजी में माता सती की जीभ गिरी थी। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता हैं कि मुग़ल बादशाह अकबर को जब ज्वालामुखी में माता के इस चमत्कार के बारे में पता चला तो उसने नई ज्योतियों को बुझाने का प्रयास किया था। अकबर ने ज्योति को बुझाने के लिए नहर का निर्माण किया और सेना से पानी डलवाना शुरू कर दिया, लेकिन नहर के पानी से मां की ज्योतियां नहीं बुझीं। इसके बाद अकबर ने मां से माफी मांगी और पूजा कर सोने का सवा मन का छत्र चढ़ाया । कहा जाता है कि घमंड में चढ़ाया हुआ ये सवा मन भारी शुद्ध सोने का छत्र खंडित हो गया था। माता ने उसका छत्र स्वीकार नहीं किया था। यह छत्र सोने का न रहकर किसी दूसरी धातु में बदल गया था। इसके बाद वह कई दिन तक मंदिर में रहकर क्षमा मांगता रहा, लेकिन माता ने उसकी क्षमा स्वीकार नहीं की। कहते हैं कि इस घटना के बाद ही अकबर के मन में हिंदू देवी-देवताओं के लिए श्रद्धा पैदा हुई थी। अकबर का चढ़ाया गया छत्र किस धातु में बदल गया, इसकी जांच के लिए साठ के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू की पहल पर यहां वैज्ञानिकों का दल पहुंचा। छत्र के एक हिस्से का वैज्ञानिक परीक्षण किया तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आए। वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर इसे किसी भी धातु की श्रेणी में नहीं माना गया। जो भी श्रद्धालु शक्तिपीठ में आते हैं, वे अकबर के छत्र और नहर देखे बगैर यात्रा को अधूरा मानते हैं। आज भी छत्र ज्वाला मंदिर के साथ भवन में रखा हुआ है। मंदिर के साथ नहर के अवशेष भी देखने को मिलते हैं। नगरकोट में तुम्हीं विराजत, तिहूं लोक में डंका बाजत... दुर्गा स्तुति में जिस नगरकोट का वर्णन किया गया है, वो हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा में स्थित है। कांगड़ा स्थित ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ मां का एक ऐसा धाम है जहां पहुंच कर भक्तों की हर दुख-तकलीफ मां की एक झलक मात्र से ही दूर हो जाती है। ब्रजेश्वरी धाम माता के शक्तिपीठों में से एक है। यहाँ माता सती का दाहिना वक्ष गिरा था। ब्रजेश्वरी धाम इसलिए भी खास है क्यूंकि यहाँ तीन धर्मों के प्रतीक के रूप में मां की तीन पिंडियों की पूजा होती है। कहा जाता है पहले यह मंदिर बहुत समृद्ध था। इस मंदिर को बहुत बार विदेशी लुटेरों द्वारा लूटा गया। महमूद गजनवी ने 1009 ई. में इस शहर को लूटा और मंदिर को नष्ट कर दिया था। फिर यह मंदिर वर्ष 1905 में जोरदार भूकंप से पूरी तरह नष्ट हो गया था। 1920 में इसे दोबारा बनवाया गया। माना जाता है कि महाभारत काल में पांडवों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि माँ ब्रजेश्वरी ने पांडवों को सपने में दर्शन दिए थे। उन्होंने पांडवों को बताया कि वाहन कांगड़ा जिला में विराजमान है। फिर पाडंवों ने काँगड़ा जाकर माता के मंदिर का निर्माण किया था। तीन धर्मों के प्रतीक है ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद माता ब्रजेश्वरी का यह शक्तिपीठ अपने आप में अनूठा और विशेष है, यहां मात्र हिन्दू भक्त ही शीश नहीं नवाते बल्कि मुस्लिम और सिख धर्म के लोग भी इस धाम में आकर अपनी आस्था के फूल चढ़ाते हैं। ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद तीन धर्मों के प्रतीक माने जाते हैं। पहला हिन्दू धर्म का प्रतीक है, जिसकी आकृति मंदिर जैसी है, तो दूसरा मुस्लिम समाज का और तीसरा गुंबद सिख संप्रदाय का प्रतीक है। तीन गुंबद वाले और तीन संप्रदायों की आस्था का केंद्र कहे जाने वाले माता के इस धाम में मां की पिण्डियां भी तीन ही हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित यह पहली और मुख्य पिंडी मां ब्रजेश्वरी की है। दूसरी मां भद्रकाली और तीसरी और सबसे छोटी पिण्डी मां एकादशी की है। मां के इस शक्तिपीठ में ही उनके परम भक्त ध्यानु ने अपना शीश अर्पित किया था। इसलिए मां के वो भक्त जो ध्यानु के अनुयायी भी हैं, वो पीले रंग के वस्त्र धारण कर मंदिर में आते हैं और मां के दर्शन पूजन कर स्वयं को धन्य करते हैं। कहते हैं जो भी भक्त मन में सच्ची श्रद्धा लेकर मां के इस दरबार में पहुंचता है उसकी कोई भी मनोकामना अधूरी नहीं रहती। फिर चाहे मनचाहे जीवनसाथी की कामना हो या फिर संतान प्राप्ति की लालसा, मां ब्रजेश्वरी अपने हर भक्त की मुराद पूरी करती हैं। नैना देवी में गिरे थे देवी सती के नैन हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में नैना देवी मंदिर स्थित है। यह शिवालिक पर्वत श्रेणी की पहाड़ियों पर स्थित एक भव्य मंदिर है। यह देवी के 51 शक्तिपीठों में शामिल है। यह तीर्थ स्थल हिंदूओं के पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। मान्यता है कि इस स्थान पर देवी सती के नेत्र गिरे थे। मंदिर में पीपल का पेड़ मुख्य आकर्षण का केंद्र है जो शताब्दियों पुराना है। मंदिर के मुख्य द्वार के दाई ओर भगवान गणेश और हनुमान की मूर्ति है। मंदिर के गर्भगृह में मुख्य तीन मूर्तियां हैं। दाई तरफ माता काली की, मध्य में नैना देवी की और बाई ओर भगवान गणेश की प्रतिमा है। यहां एक पवित्र जल का तालाब है, जो मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है। मंदिर के समीप एक गुफा है जिसे नैना देवी गुफा के नाम से जाना जाता है। श्री नैना देवी मंदिर महिशपीठ नाम से भी प्रसिद्ध है क्योंकि यहां पर मां श्री नैना देवी जी ने महिषासुर का वध किया था। किंवदंतियों के अनुसार महिषासुर एक शक्तिशाली राक्षस था, जिसे श्री ब्रह्मा द्वारा अमरता का वरदान प्राप्त था और शर्त यह थी कि वह एक अविवाहित महिला द्वारा ही परास्त हो सकता था। इस वरदान के कारण, महिषासुर ने पृथ्वी और देवताओं पर आतंक मचाना शुरू कर दिया। राक्षस का सामना करने के लिए सभी देवताओं ने अपनी शक्तियों को संयुक्त किया और एक देवी को बनाया जो उसे हरा सके। देवी को सभी देवताओं द्वारा अलग-अलग प्रकार के शस्त्रों की भेंट प्राप्त हुई। महिषासुर देवी की असीम सुंदरता से मंत्रमुग्ध हो गया और उसने शादी का प्रस्ताव देवी के समक्ष रखा। देवी ने उसे कहा कि अगर वह उसे हरा देगा तो वह उससे शादी कर लेगी। लड़ाई के दौरान, देवी ने दानव को परास्त किया और उसकी दोनों आंखें निकाल दी। हिमाचलियों की श्रद्धा का केंद्र है माँ तारा का ये मंदिर देवी देवताओं की भूमि कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में स्वर्ग की देवी माँ तारा का वास है। शिमला के अंतरगर्त शोघी की तारब पहाड़ी पर स्थित तारा देवी मंदिर अपनी दिव्य सुंदरता और आध्यात्मिक शांति के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ माता तारा के दर्शन करने के लिए दूर दूर से लोग आते है। कहते है कि जो भी माता तारा के दरबार में आता है, मां उसे कभी खाली हाथ नहीं लौटने देती। हिमाचल के लोगों की मां तारा के ऊपर अटूट आस्था व विश्वास है। तारा देवी मंदिर का इतिहास करीब 250 साल पुराना है। मान्यता है कि मां तारा देवी को पश्चिम बंगाल से हिमाचल लाया गया था। बंगाल के सेन राजवंश के एक राजा एक बार हिमाचल आए। एक दिन जुग्गर के अँधेरे और घने जंगलों में शिकार खेलते हुए राजा भूपेन्द्र सेन को नींद आ गई और उन्हें एक सपना आया। सपने में उन्होंने मां तारा और उनके द्वारपाल श्री भैरव और भगवान हनुमान को आम और आर्थिक रूप से अक्षम आबादी के सामने उनका अनावरण करने का अनुरोध करते देखा। उनके सपने से प्रेरित होकर, राजा भूपेंद्र सेन ने 50 बीघा जमीन दान की और भूमि में एक मंदिर के निर्माण को प्रायोजित किया। मां की पहली मूर्ति लकड़ी की बनी थी जिसे वैष्णव परंपराओं के अनुसार स्थापित किया गया था। सेन राजवंश की बाद की पीढ़ियों ने धीरे-धीरे संरचना में सुधार किया। कहते है कि भूपेंद्र सेन के बाद उनके वंशज बलवीर सेन को भी माता के दर्शन हुए, जिसके फलस्वरूप बलवीर सिंह ने माता के मंदिर का पूर्ण रूप से निर्माण करवाया था और मंदिर में मां तारा देवी के अष्टधातु की मूर्ति स्थापित करवाई थी। पुराणों के अनुसार भगवान शिव की पत्नी मां पार्वती ने मां सती के रूप में दूसरा जन्म लिया था। माता सती राजा दक्ष की पुत्री थी। उनकी बहन थी देवी तारा। तारा एक महान देवी है जिनकी पूजा हिंदू और बौद्ध दोनों धर्म में होती हौ। तारने वाली कहने के कारण भी माता तारा को तारा देवी के नाम से जाना जाता है। माँ दुर्गा की नौ बहनों में से एक है माँ तारा : माना जाता है कि माता तारा देवी दुर्गा की नौ बहनों में से नौवीं बहन थी। माता तारा के तीन स्वरूप है। तारा, एकजुट और नीलसरस्वती। बृहन्नील ग्रंथ में माता तारा के तीन स्वरूपों की विशेष चर्चा है। साल के दोनों नवरात्रों में माता के दरबार में खूब भीड़ देखी जाती हैं। यहां पर माता पर श्रद्धा रखने वाले लोग नवरात्र में माता की दिव्य मूर्ति के दर्शन पाने के लिए दूर-दूर से आते हैं। यहां पर ज्योति कलश का भी अपना एक खास महत्व है। यह मंदिर कई मायनों में खास है। प्रतिवर्ष शारदीय नवरात्र के समय पर यहां पर मेले का आयोजन किया जाता है। नवरात्रों के समय यहां भक्तों का तांता लगा रहता है। अलौकिक अहसास करवाती है शिव कुटिया : तारा देवी मंदिर के साथ ही कुछ दूरी पर शिव कुटिया मौजूद हैं। घने जंगल में स्थित भगवान शिव का यह छोटा सा मंदिर भगवान शिव के वास्तव में कैलाश में रहने का आभास कराता है। जंगल के अन्य हिस्सों की तुलना में इस मंदिर का तापमान स्वाभाविक रूप से कम है। ऐसा माना जाता है कि कई साल पहले एक संत यहां ध्यान किया करते थे, वे सबसे खराब तापमान में भी यहां रहते थे। बहुत ठंड में भी वह केवल लंगोट में ही यहाँ तपस्या करते थे। माना जाता है कि वह दक्षिण भारत से थे और मर्चेंट नेवी के एक योग्य इंजीनियर थे। इस मंदिर के साथ एक छोटा सा कमरा है जहाँ एक लकड़ी का लट्ठा लगातार जलता हुआ दिखाई देगा, इसे बाबा जी का धूना कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि बाबाजी यहां ध्यान में हैं, और धुने की राख को उनके अनुयायियों के लिए प्रसाद माना जाता है। महिषासुर मर्दिनी के रूप में है मां हाटकोटी शिमला के जुब्बल कोटखाई विधानसभा क्षेत्र में मां हाटेश्वरी का पुराना मंदिर है। माता हाटकोटी का मंदिर लाखों भक्तों के लिए आस्था का केंद्र हैं। माना जाता है कि मां हाटेश्वरी मंदिर का निर्माण 700-800 वर्ष पहले हुआ था। मंदिर के साथ लगते सुनपुर के टीले पर कभी विराट नगरी थी। जहां पर पांडवों ने अपने गुप्त वास के कई वर्ष व्यतीत किए। माता हाटेश्वरी का मंदिर विशकुल्टी, राई नाला और पब्बर नदी के संगम पर सोनपुरी पहाड़ी पर स्थित है। माता हाटकोटी का यह मंदिर पहले शिखराकार नागर शैली में बना हुआ था, लेकिन बाद में इसे पहाड़ी शैली के रूप में परिवर्तित कर दिया। मां हाटकोटी मंदिर के गर्भगृह में महिषासुर मर्दिनी का स्वरूप है। मां की प्रतिमा किस धातु की है. इसका भी पता लगाना मुश्किल है। गाथा के अनुसार इस देवी के संबंध में मान्यता है कि बहुत वर्षो पहले एक ब्राह्मण परिवार में दो सगी बहनें थीं। उन्होंने अल्प आयु में ही संन्यास ले लिया और घर से निकल पड़ी। उन्होंने संकल्प लिया कि वे गांव-गांव जाकर लोगों के दुख दर्द सुनेंगी और उसके निवारण के लिए उपाय बताएंगी। एक बहन हाटकोटी गांव पहुंची जहां मंदिर स्थित है,उसने यहां एक खेत में आसन लगाकर ईश्वरीय ध्यान किया और ध्यान करते हुए वह लुप्त हो गई। जिस स्थान पर वह बैठी थी वहां एक पत्थर की प्रतिमा निकल पड़ी। इस अलौकिक चमत्कार से लोगों की उस कन्या के प्रति श्रद्धा बढ़ी और उन्होंने इस घटना की पूरी जानकारी तत्कालीन जुब्बल रियासत के राजा को दी। जब राजा ने इस घटना को सुना तो वह तत्काल पैदल चलकर यहां पहुंचा। राजा ने यहां पर मंदिर बनाने का निश्चय ले लिया। लोगों ने उस कन्या को देवी रूप माना और गांव के नाम से इसे 'हाटेश्वरी देवी' कहा जाने लगा। यह मंदिर समुद्रतल से 1370 मीटर की ऊंचाई पर पब्बर नदी के किनारे समतल स्थान पर स्थित है। कहा जाता है मंदिर के साथ लगते सुनपुर के टीले पर कभी विराट नगरी थी, जहां पर पांडवों ने अपने गुप्त वास के कई वर्ष व्यतीत किए। माता हाटेश्वरी का मूल स्थान ऊपर पहाड़ों में घने जंगल के मध्य खरशाली नामक जगह पर है। मन्दिर के बिल्कुल बायी ओर बड़े-छोटे पत्थरों को तराश कर, छोटे-छोटे पांच कलात्मक मंदिर बनाए गये है। इन मंदिरों का निर्माण पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान किया है। यहां के स्थायी पुजारी ही गर्भगृह में जाकर मां की पूजा कर सकते हैं। मंदिर में महिषासुर मर्दिनी की दो मीटर ऊंची कांस्य की प्रतिमा है। इसके साथ ही शिव मंदिर है। मंदिर द्वार को कलात्मक पत्थरों से सुसज्जित किया गया है। मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मी, विष्णु, दुर्गा, गणेश आदि की प्रतिमाएं हैं। इसके अतिरिक्त यहां मंदिर के प्रांगण में देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं। नवरात्रों में यहाँ विशेष पूजा का आयोजन होता हैं। यहाँ मूर्ति नहीं होती है माता के चरणों की पूजा हिडिम्बा देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के मनाली में स्थित है। यह एक प्राचीन गुफा मंदिर है, हिडिम्बा मंदिर पांडवों के दूसरे भाई भीम की पत्नी हिडिम्बा को समर्पित है। इसे डूंगरी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर एक चार मंजिला संरचना है, जो जंगल के बीच में स्थित है। स्थानीय लोगों ने मंदिर का नाम आसपास के वन क्षेत्र के नाम पर रखा है। हिल स्टेशन में स्थित होने के कारण बर्फबारी के दौरान इस मंदिर को देखने के लिए भारी संख्या में सैलानी यहां जाते हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति स्थापित नहीं है बल्कि हिडिम्बा देवी मंदिर में हिडिम्बा देवी के पदचिन्हों की पूजा की जाती है।’ माता हिडिम्बा अपने भाई हिडिम्ब के साथ इस क्षेत्र में रहती थी। उसने कसम खाई थी कि जो कोई उसके भाई हिडिम्ब को लड़ाई में हरा देगा, वह उसी के साथ अपना विवाह करेगी। उस दौरान जब पांडव निर्वासन में थे, तब पांडवों के दूसरे भाई भीम ने हिडिम्ब की यातनाओं और अत्याचारों से ग्रामीणों को बचाने के लिए उसे मार डाला और इस तरह महाबली भीम के साथ हिडिम्बा का विवाह हो गया। भीम और हिडिम्बा का एक पुत्र घटोत्कच हुआ, जो कुरुक्षेत्र युद्ध में पांडवों के लिए लड़ते हुए मारा गया था। देवी हिडिम्बा को समर्पित यह मंदिर हडिम्बा मंदिर के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि भीम और पांडव मनाली से चले जाने के बाद हिडिम्बा राज्य की देखभाल के लिए वापस आ गए थे। ऐसा कहा जाता है कि हिडिम्बा बहुत दयालु और न्यायप्रिय शासिका थी। जब उसका बेटा घटोत्कच बड़ा हुआ तो हिडिम्बा ने उसे सिंहासन पर बैठा दिया और अपना शेष जीवन बिताने के लिए ध्यान करने जंगल में चली गयी। हिडिम्बा अपनी दानवता या राक्षसी पहचान मिटाने के लिए एक चट्टान पर बैठकर कठिन तपस्या करती रही। कई वर्षों के ध्यान के बाद उसकी प्रार्थना सफल हुई और उसे देवी होने का गौरव प्राप्त हुआ। हिडिम्बा देवी की तपस्या और उसके ध्यान के सम्मान में इसी चट्टान के ऊपर इस मंदिर का निर्माण 1553 में महाराजा बहादुर सिंह ने करवाया था। मंदिर एक गुफा के चारों ओर बनाया गया है। मंदिर बनने के बाद यहां श्रद्धालु हिडिम्बा देवी के दर्शन पूजन के लिए आने लगे। पगोडा शैली में किया गया है मंदिर का निर्माण हिडिम्बा देवी मंदिर की खासियत यह है कि इस मंदिर का निर्माण पगोडा शैली में कराया गया है जिसके कारण यह सामान्य मंदिर के काफी अलग और लोगों के आकर्षण का केंद्र है। यह मंदिर लकड़ी से बनाया गया है और इसमें चार छतें हैं। मंदिर के नीचे की तीन छतें देवदार की लकड़ी के तख्तों से बनी हैं और चौथी या सबसे ऊपर की छत का निर्माण तांबे एवं पीतल से किया गया है। मंदिर के नीचे की छत यानि पहली छत सबसे बड़ी, उसके ऊपर यानी दूसरी छत पहले से छोटी, तीसरी छत दूसरे छत से छोटी और चौथी या ऊपरी छत सबसे छोटी है, जो कि दूर से देखने पर एक कलश के आकार की नजर आती है। हिडिम्बा देवी मंदिर 40 मीटर ऊंचे शंकु के आकार का है और मंदिर की दीवारें पत्थरों की बनी हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार और दीवारों पर सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर में एक लकड़ी का दरवाजा लगा है जिसके ऊपर देवी, जानवरों आदि की छोटी-छोटी पेंटिंग हैं। चौखट के बीम में भगवान कृष्ण की एक कहानी के नवग्रह और महिला नर्तक हैं। मंदिर में देवी की मूर्ति नहीं है लेकिन उनके पदचिन्ह पर एक विशाल पत्थर रखा हुआ है जिसे देवी का विग्रह रूप मानकर पूजा की जाती है। मंदिर से लगभग सत्तर मीटर की दूरी पर देवी हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच को समर्पित एक मंदिर है।
हिमाचल विविधताओं का राज्य है। प्रदेश के बारह जिलो में पहन पोशाक से लेकर खानपान सब भिन्न है। हिमाचल प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहाँ हर कला को नजदीकी से देख सकते है। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण कई चुनौतियाँ सामने होते हुए भी यहाँ के कला प्रेमियों का मनोबल डगमगाता नहीं है। हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था और विकास में पर्यटन के साथ-साथ हस्तकरघा, और वस्त्र का भी बहुत बड़ा योगदान है। प्रदेश के कई दस्तकारों ने दशकों से हस्तशिल्प के समृद्ध रीति-रिवाजों को डिजाइन किया है, जो अद्वितीय हैं। यही वजह है कि उनके द्वारा बनाये गए उत्पादों की देश भर में डिमांड है। आइये जानते है हिमाचल के विभिन्न जिलों के मशहूर वस्त्र, कला और उनके इतिहास के बारे में... **पश्मीना शॉल पश्मीना शॉल की बुनाई में उपयोग किया जाने वाला ऊन लद्दाख में पाए जाने वाले पालतू चांगथांगी बकरियों से प्राप्त किया जाता है। बुनकरों द्वारा कच्चा पश्म को मध्यस्थों के माध्यम से खरीदा जाता है। इसके बाद कच्चे पश्म फाइबर को ठीक से साफ किया जाता है। तदोपरांत इस फाइबर को सुलझाते हैं और उसकी गुणवत्ता के आधार पर इसे अच्छी तरह से अलग करते हैं। फिर इसे हाथ से काता जाता है और ताने (कटाई की पिन )में स्थापित किया जाता है एवं हथकरघा पर रखा जाता है। इसके बाद तैयार धागे को हाथ से बुना जाता है और खूबसूरती से शानदार पश्मीना शॉल का निर्माण किया जाता है जो दुनिया भर में प्रसिद्ध है। पश्मीना शॉल बुनाई की यह कला हिमाचल में एक परंपरा के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चली आ रही है। पश्मीना शॉल ने दुनिया भर के लोगों का ध्यान आकर्षित किया है और यह पूरी दुनिया में सबसे अधिक मांग वाले शॉल में से एक बन गई है। इसकी उच्च मांग ने स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा दिया है। **लिंगचे: लिंगचे हिमाचल के जनजातीय क्षेत्र लाहुल स्पीति क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध है। यह एक प्रकार का शॉल है लेकिन इसकी लम्बाई ज्यादा बड़ी नहीं होती है। लिंगचे हाथ से बुनी हुई शॉल है जिसे स्थानीय रूप से कंधे पर लपेटने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह हिमाचल प्रदेश में पहाड़ी स्पीति की ग्रामीण महिलाओं द्वारा हाथ से करघे पर बुना जाता है। इसमें बुद्धिज्म से जुड़े हुए डिजाइंस देखने को मिलता है। **हिमाचली कालीन गलीचे और कालीन हिमाचल प्रदेश के हस्तशिल्प का एक महत्वपूर्ण तत्व हैं। हिमाचल में ऊन से बनी विभिन्न वस्तुएँ होम डेकोर में इस्तेमाल की जाती है। इनमें कालीन बेहद प्रसिद्ध है। ये कालीन सुंदर और असाधारण डिजाइनों के साथ सूक्ष्म रंगों, विभिन्न आकारों में बुनकरों द्वारा बनाया जाता हैं। डिजाइन से भरपूर ये कालीन बनावट में टिकाऊ होते हैं। कालीन को विभिन्न प्रकार के रूपांकनों से सजाया जाता है। इसमें ड्रैगन, हिंदू संस्कृति से प्रेरित स्वस्तिक, पुष्प, प्रकृति आधारित पैटर्न या तिब्बती पक्षी जिन्हें डाक, जीरा, ड्रेगन और बिजली के देवता आदि को धागों से डिजाइंस बना कर कालीन को खूबसूरती दी जाती है। सिरमौर जिले के पांवटा ब्लॉक के भूपपुर, पुरुवाला, सतौन और कंसन के विभिन्न गांवों में बड़ी संख्या में तिब्बती शिल्पकार ऊनी कालीन बुनते हैं। इसे बनाने के लिए बकरी के बाल और भेड़ की ऊन का उपयोग किया जाता है। **हिमाचली पट्टू हिमाचली टोपियों को हिमाचलियों का ताज कहा जाता है। हिमाचल टोपी स्थानीय लोगों की पोशाक,परिधान और वस्त्रों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन टोपी को तैयार करने के लिए जिस कपड़े का इस्तेमाल होता है उसे हिमाचल में पट्टू कहा जाता है। इसे हथकरघे पर बुना जाता है। पट्टी के कपड़े का उपयोग आमतौर पर बंद गले के कोट, पैंट, पायजामा, जैकेट बनाने के लिए किया जाता है। इसका इस्तेमाल स्थानीय लोग चोला यानी मेल गाउन बनाने में भी करते हैं। यह मेमने के पहले कतरन से प्राप्त ऊन से बनाया जाता है। **लोइया सिरमौर की समृद्ध संस्कृति एवं सभ्यता का परिचायक लोईया प्रदेश ही नहीं देश-विदेश में भी काफी प्रसिद्ध है। लोईया सिरमौर के ट्रांस गिरि क्षेत्र की पहचान और पारंपरिक वेशभूषा है, जिसे विशेषकर सर्दियों के दौरान इस क्षेत्र के लोग शौक से पहनते हैं। वही सिरमौर जिला में सामाजिक कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि को सम्मान के तौर पर लोईया भेंट करने की परंपरा आज भी जारी है। लोईया कश्मीर में पहने जाने वाली फेरन से मिलता जुलता है, लेकिन उसमें बाजू होते हैं। ग्रामीण लोईये का उपयोग कई प्रकार से करते हैं। उन्हें इससे सर्दियों में ठंड से राहत मिलती है और किसान बागवान जब कोई बोझ पीठ में उठाते हैं तो पीठ पर इसका दबाव भी कम पड़ता है। पारंपरिक तौर पर सर्दियों के मौसम में वस्त्रों के ऊपर पहना जाने वाला लोईया ऊन का बना होता है। आजकल यह अन्य ऊनी व सूती मिश्रित पट्टियों का भी बनाया जा रहा है। भेड़-बकरियों के पेशे से जुड़े अधिकांश लोग ऊन को स्वयं काता करते हैं और ग्रामीण स्तर पर ही स्थानीय बुनकरों से नौ ईंच चौड़ी पट्टी बुनवाई जाती है। उन पट्टियों को जोड़कर ही लोईया बनाया जाता है। **चम्बा की चप्पल चमड़े पर जरी और रेशम के धागे से महीन कारीगरी से तैयार चंबा चप्पल का डंका देश-विदेश में बजता है। चंबा चप्पल का इतिहास 500 साल पुराना बताया जाता है। जनश्रुति के अनुसार 16वीं शताब्दी में चंबा के राजा की पत्नी के दहेज में कारीगर चंबा लाए गए थे। ये कारीगर राज परिवार के लोगों के लिए चंबा चप्पल बनाते थे। समय के साथ-साथ कारीगर चंबा चप्पल लोगों के लिए भी बनाने और बेचने लगे। चंबा चप्पल के संरक्षण के लिए सरकार ने इसकी जीआई टैगिंग हासिल कर ली है। अब यह ऑनलाइन शॉपिंग प्लेटफार्म पर भी उपलब्ध है। लुप्त हो रही इस कला को बचाने के लिए आज भी लगभग सैंकड़ो कारीगर प्रयासरत हैं। **चम्बा का रुमाल : चंबा रुमाल अपनी अद्भुत कला और शानदार कशीदाकारी के लिए जाना जाता है। चंबा रुमाल की कारीगरी मलमल, सिल्क और कॉटन के कपड़ों पर की जाती है। श्री कृष्णलीला को बहुत ही सुंदर ढंग से रुमाल के ऊपर दोनों तरफ कढ़ाई करके उकेरा जाता है। महाभारत युद्ध, गीत गोविंद से लेकर कई मनमोहक दृश्यों को इसमें बड़ी संजीदगी के साथ बनाया जाता है। रुमाल बनाने में दो सप्ताह से दो महीने का समय लग जाता है। कीमत अधिक होने के कारण चंबा रुमाल को बेचना मुश्किल होता है। कहा जाता है कि 18वीं सदी में चंबा रुमाल तैयार करने का काम अधिक था। राजा उमेद सिंह (1748-64) ने कारीगरों को प्रोत्साहन दिया था। 1911 में दिल्ली दरबार में चंबा के राजा भूरी सिंह ने ब्रिटेन के राजा को चंबा रुमाल तोहफे में दिया था। 1965 में पहली बार चंबा रुमाल बनाने वाली महेश्वरी देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। चंबा रुमाल का विकास राजा राज सिंह और रानी सारदा के समय सर्वाधिक हुआ। चंबा रुमाल को प्रोत्साहित करने के लिए चंबा के राजा उमेद सिंह ने रंगमहल की नींव रखी। चंबा रुमाल पर कुरुक्षेत्र युद्ध की लघु कृति जो विक्टोरिया अल्बर्ट संग्रहालय लंदन में सुरक्षित हैं। चंबा के शासक गोपाल सिंह ने 1873 ई. में ब्रिटिश सरकार को ये भेंट किया था। **कुल्लू के पूल कुल्लू का हस्तशिल्प दुनिया भर में प्रसिद्ध है। यहां की टोपी, शॉल, मफलर और जुराबों का हर कोई दीवाना है। कुछ समय से यहां की पारंपरिक पूलों की ओर भी लोग एकाएक आकर्षित हुए हैं। कुल्लू की स्थानीय बोली में इन चप्पलों को पूलें कहा जाता है। ये चप्पल आरामदेह होने के साथ-साथ पवित्र भी हैं। मंडी-कुल्लू में पूलों को भांग के रेशे के साथ-साथ जड़ी बूटियों से तैयार किया जाता है। भांग के पत्ते के तने के साथ ही ब्यूल के रेशों का भी इसे बनाने में इस्तेमाल होता है। इन्हें पवित्र माना जाता है। इन्हें पहनकर देव स्थल के भीतर जाने में कोई पाबंदी नहीं होती। इसी खासियत को जानकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुल्लू की पूलों को काशी विश्वनाथ के पुजारियों, सेवादारों और सुरक्षाकर्मियों के लिए खड़ाऊ का बेहतरीन विकल्प माना। एक पूल का जोड़ा बनाने में तीन से चार दिन का समय लग जाता है। **नुमधा नुमधा गद्दे का स्थानीय नाम है, जो ऊन को बुनने के बजाय उसे फेल्ट कर बनाया जाता है। यह कम गुणवत्ता वाले ऊन को थोड़ी मात्रा में कपास के साथ मिलाकर तैयार किया जाता है। नमधा आमतौर पर सादे होते हैं या कशीदाकारी रंगीन डिजाइनों से सजाए जाते हैं। ये गद्दे 1.82 x 0.91 मीटर या 3.65 x 3.04 मीटर के विभिन्न आकारों में आते हैं। नुमधा की कीमत उसके आकार, ऊन की गुणवत्ता और पैटर्न पर निर्भर करती है। **गुदमा गुड़मा स्थानीय लोगों द्वारा बनाई जाने वाली भारी कंबल को कहा जाता है, जिसे विशेष रूप से कुल्लू, किन्नौर और लाहुल स्पीति और पांगी घाटी में बुना जाता है। यह ऊन से बना होता है जिसमें लंबे रेशे होते हैं। गुड़मा को प्राकृतिक ऊनी रंगों में बुना जाता है और लाल या काले रंग की सजावट के साथ तैयार किया जाता है।
सुक्खू सरकार ने अपना वादा पूरा कर दिया है l करीब 20 साल बाद प्रदेश के कर्मचारियों को उनके बुढ़ापे का सहारा यानी पुरानी पेंशन लौटा दी गई है l छत्तीसगढ़ को आधार बनाकर हिमाचल प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन स्कीम को लागू कर दी गई है और अधिसूचना भी जारी हो चुकी है। एक लम्बे संघर्ष पर विराम लगा है और प्रदेश के कर्मचारी लगातार सरकार का धन्यवाद कर रहे है। विधानसभा चुनाव के दौरान ओल्ड पेंशन स्कीम को बहाल करना कांग्रेस की दस में से पहली गारंटी थी। इस गारंटी से कांग्रेस कर्मचारियों को अपनी तरफ करने में कामयाब रही थी और कांग्रेस को चुनाव में इसका फायदा भी मिला। कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने पहली ही कैबिनेट बैठक में ओल्ड पेंशन स्कीम को बहाल करने का फैसला लिया। इसके बाद सरकार की ओर से इसकी अधिसूचना जारी की गई। नगर निगम चुनाव के परिणाम घोषित होने के बाद प्रदेश सरकार ने इसकी एसओपी भी जारी कर दी। ओल्ड पेंशन को लागू करने के लिए राज्य सरकार ने सेंट्रल सिविल सर्विस पेंशन रूल्स 1972 में संशोधन किया है। इसके प्रावधानों के अनुसार एनपीएस से ओल्ड पेंशन स्कीम में आने वाले कर्मचारियों को एनपीएस में दिया अपना कंट्रीब्यूशन पूरा मिलेगा, लेकिन राज्य सरकार का कंट्रीब्यूशन और उस पर कमाया गया डिविडेंड वापस लौटाना होगा। राज्य सरकार इसे अलग हेड में जमा करेगी। जो कर्मचारी एनपीएस में रिटायर हो गए हैं या जिनकी मृत्यु हो गई है, वे भी ओल्ड पेंशन के हकदार होंगे, लेकिन आवेदन करने के बाद। यानी इन्हें पिछली पेंशन या एरियर नहीं मिलेगा। साथ ही इन्हें भी एनपीएस का गवर्नमेंट कंट्रीब्यूशन सरकार को वापस करना होगा। 15 मई, 2003 से 31 मार्च, 2023 तक रिटायर हो चुके एनपीएस कर्मचारियों के लिए हिमाचल प्रदेश सिविल सर्विसेस कंट्रीब्यूटरी पेंशन रूल्स 2006 में संशोधन किया गया है। इस संशोधन से एनपीएस में रिटायर हो चुके या मृत्यु को प्राप्त हो चुके कर्मचारियों के परिवारों को भी कुछ शर्तों के साथ ओल्ड पेंशन मिल जाएगी। हिमाचल सरकार ने ओल्ड पेंशन लागू करने के फैसले को ऑप्शनल रखा है। यानी कर्मचारियों को इसके लिए 60 दिन के भीतर अपना विकल्प देना होगा। एक बार दिया हुआ विकल्प बदला नहीं जा सकेगा। इससे 1.36 लाख एनपीएस कर्मचारियों को सीधे तौर पर राहत मिल गई है। ऐसे में कर्मचारी पेंशन लेने का नहीं होगा हकदार : अगर कोई कर्मचारी ओपीएस में आना चाह रहा है, लेकिन इस अंशदान और लाभांश को सरकारी खाते में जमा करने में असफल होगा और अगर वह इस राशि को ग्रेच्युटी, लीव एनकैशमेंट और जीआईएस के विरुद्ध जमा करने में भी पूरी तरह से सफल नहीं हो पाता है, तो ऐसा कोई भी कर्मचारी केंद्रीय सिविल सेवा पेंशन नियमों के तहत किसी पेंशन को लेने का हकदार नहीं होगा।
भंजाल लोअर जिला परिषद उपचुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है। वीरवार को घोषित हुए नतीजों में भाजपा उम्मीदवार सुशील कालिया करीब 2700 मतों से विजयी रहे है। दिलचस्प बात ये है कि ये वार्ड गगरेट विधानसभा क्षेत्र के अधीन आता है और इसी वार्ड से वर्ष 2021 में चैतन्य शर्मा करीब 12 हज़ार के बड़े अंतर से जीते थे। फिर पिछले वर्ष हुए विधानसभा चुनाव से पहले चैतन्य कांग्रेस में शामिल हो गए थे और गगरेट विधानसभा सीट से बड़े अंतर जीतकर विधायक भी बन गए। लेकिन अब महज चंद महीनो में ही जनता का कांग्रेस से मोहभंग हो गया और पार्टी प्रत्याशी की हार हुई। स्वाभाविक बात है कि इस हार की आंच के दायरे में विधायक भी आते है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि कभी इस वार्ड से 12 हार के अंतर से चुनाव जीतने वाले विधायक चैतन्य भी यहाँ कांग्रेस उम्मीदवार को जीत नहीं दिला सके, ये चिंतन का विषय जरूर है। ये हार कांग्रेस की हुई है या हार के पीछे कोई और वजह है, इस पर पार्टी को मंथन करना होगा। माहिर मानते है कि यहाँ भीतरघात की सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। विदित रहे कि ये प्रदेश के उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री का गृह जिला है और ऐसे में जाहिर है कांग्रेस संगठन भी इस हार के कारणों की तह तक जायेगा। उधर, युवा विधायक चैतन्य के लिए भी ये बड़ा झटका है और ये कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि विधायक बनने बाद अपनी पहली परीक्षा में चैतन्य पार्टी की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरे है। पार्टी के साथ -साथ चैतन्य को भी चिंतन और मंथन की आवश्यकता है।
शिमला नगर निगम चुनाव भाजपा के लिए एक और बड़ा झटका है। ये झटका शायद भाजपा की नींद खोल दे। शायद अब भाजपा को ये इल्म हो जाए कि राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत नेतृत्व होना ही काफी नहीं है, प्रदेश में मजबूत होने के लिए स्थानीय नेतृत्व भी सशक्त होना चाहिए। शायद अब भाजपा अपनी जड़े टटोले और ढूंढ निकाले उस दीमक को जो बाहर से विशाल दिखने वाले इस वृक्ष को अंदर ही अंदर खोखला करती जा रही है। हिमाचल प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के मानचित्र पर कोई छोटा राज्य नहीं हो सकता। ये भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का गृह राज्य है और केंद्र सरकार में मंत्री अनुराग ठाकुर का भी। भाजपा के कई बड़े चेहरे इस प्रदेश से है, मगर इसके बावजूद एक तरफ जहाँ पूरे देश में भाजपा एक के बाद एक जीत का परचम लहरा रही है, वहीं हिमाचल में पार्टी को एक के बाद एक हार नसीब हो रही है। ज़ाहिर है अब भारतीय जनता पार्टी को चिंतन -मंथन से आगे निकल का एक्शन लेने की ज़रूरत है। एक बड़े राजनीतिज्ञ कहते है कि अगर सरकार वृक्ष के तनों सी है तो कार्यकर्त्ता और संगठन उसी वृक्ष के जड़ों से। पिछले पांच सालों में हिमाचल में भाजपा सरकार तो हरी-हरी नज़र आई, मगर इसकी जड़ें कमज़ोर पड़ती गई। नतीजन प्रदेश में भाजपा के हाथ से सत्ता भी गई और अब तो तिलिस्म भी ध्वस्त होता दिखाई दे रहा है। ऐसा नहीं है कि कोशिश नहीं की गई। बीच नगर निगम शिमला चुनाव में भाजपा आलाकमान ने प्रदेश संगठन की कमान डॉ राजीव बिंदल को दे दी मगर इसका कोई लाभ पार्टी को मिला हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वहीँ कमान भले ही बिंदल के पास हो मगर हार की जिम्मेदारी उनकी है, ये भी पूरी तरह ठीक नहीं होगा। दरअसल अध्यक्ष बनते ही बिंदल ने स्पष्ट कर दिया था कि इस चुनाव में जीत हो या हार, उनके बहिखाते में नहीं होगी। बिंदल को लंबा तजुर्बा है और संभवत वे पहले ही स्थिति भांप गए हो। हुआ भी ऐसा ही, भाजपा दहाई के आंकड़े को भी नहीं छू पाई। हिमाचल प्रदेश में जयराम ठाकुर भाजपा का मुख्य चेहरा है और उनकी रजा से ही 2020 के मध्य में सुरेश कश्यप को संगठन का सरदार बनाया गया था। भाजपा के सत्ता में रहते हुए सत्ता और संगठन में जबरदस्त तालमेल था, या यूं कहे एक किस्म से दोनों एक ही थे। माहिर मानते है कि जरूरत से बेहतर ये तालमेल ही भाजपा की कमजोरी बना। दरअसल सत्ता के सामने संगठन की अपनी कोई दमदार पहचान ही नहीं बची। नतीजा भाजपा ने प्रदेश की सत्ता गवांकर खामियाजा भुगता। सवाल राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की भूमिका पर भी उठे, जिन्होंने पार्टी के भीतर बदलाव की दरकार को नजरअंदाज कर विधानसभा चुनाव में उतरने का निर्णय लिया। बाकी इतिहास है, भाजपा ने रिपीट करने का सुनहरा अवसर गवां दिया। जयराम ठाकुर और सुरेश कश्यप की जोड़ी कभी कोई कमाल नहीं कर पाई। अप्रैल 2021 में पार्टी सिंबल पर हुए चार नगर निगम चुनाव में से पार्टी दो हारी। फिर 2021 के अंत में तीन विधानसभा उपचुनाव और मंडी संसदीय क्षेत्र का चुनाव भी भाजपा हारी। इसके बाद 2022 जाते जाते प्रदेश की सत्ता भी गवां दी। अब इस जोड़ी के नेतृत्व में लड़ा गया शिमला नगर निगम चुनाव भी भाजपा बुरी तरह हारी है। जाहिर है सुरेश कश्यप बतौर अध्यक्ष अपना कार्यकाल भुलाना चाहेंगे और इसी आस में होंगे कि शिमला संसदीय क्षेत्र से पार्टी उन्हें 2024 में एक मौका और दें। वहीं जयराम ठाकुर अब नए सिरे से आगे बढ़ने के प्रयास में होंगे। वैसे जयराम ठाकुर मंडी क्षेत्र में बेहद मजबूत है और विरोधी उनकी इसी मजबूती के जरिए 2024 में उन्हें दिल्ली भेजने के प्रयास में जुटे जरूर होंगे। आगे ऊंट किस करवट बैठता है, ये देखना रोचक होगा।
'न भूतो न भविष्यते', मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व में जो कांग्रेस ने नगर निगम शिमला के चुनाव में कर दिखाया, वो इतिहास बन गया है। 11 साल बाद सत्ता में लौटी कांग्रेस ने 34 में से 24 वार्डों में अपना परचम लहराया। आज से पहले कभी भी किसी राजनीतिक दल को नगर निगम शिमला में 24 सीटें नहीं मिली थी। वीरभद्र सिंह जैसे 'मास लीडर' भी जो कभी नहीं कर पाए, वो मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कर दिखाया। शिमला नगर निगम के चुनाव नतीजों के बाद इस जीत का श्रेय सभी मुख्यमंत्री को दे रहे है। इसी नगर निगम से सुक्खू ने मुख्यधारा की राजनीति में कदम रखा था और निसंदेह शिमला वासी भी सीएम सुक्खू को अपना मानते है। ये सुक्खू की राजनैतिक सूझबुझ, उनका जमीनी अनुभव और अनूठी कार्यशैली का ही नतीजा है कि कांग्रेस को शिमला नगर निगम में ग्रैंड विक्ट्री मिली है। छात्र राजनीति से निकल कर प्रदेश की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने वाले सुखविंदर सिंह सुक्खू ने एक लम्बी राजनीतिक दूरी तय की है। एक आम कार्यकर्ता से मुख्यमंत्री बनने का उनका सफर और अनुभव निसंदेह कांग्रेस के लिए पूंजी है। सुक्खू प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे है और सियासत के सभी दाव पेंचो में निपुण माने जाते है। इसकी झलक शिमला नगर निगम चुनाव में भी दिखी जहाँ कांग्रेस हर रणनीतिक मोर्चे पर भाजपा से इक्कीस दिखी। चाहे क्षेत्रीय समीकरणों के लिहाज से नेताओं को प्रभार देने का निर्णय हो या खुद प्रचार को रफ़्तार देने का जिम्मा उठाना, सुक्खू हर मोर्चे पर हिट रहे और भाजपा चारों खाने चित हो गई। शिमला नगर निगम के चुनाव को मिनी विधानसभा का चुनाव भी कहा जाता है। दरअसल शिमला में प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से लोग बसते है। साल 2017 में हुए नगर निगम चुनाव में कांग्रेस ने सिर्फ 13 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा ने 17 सीटों पर कब्जा जमाया था। सुखविंदर सिंह सुक्खू के मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रदेश में यह पहला चुनाव था। सुक्खू भी प्रचार में उतरे थे और इस चुनाव को उनकी प्रतिष्ठा से जोड़ा जा रहा था। इस बार कांग्रेस ने एकतरफा जीत हासिल करते हुए 24 सीटें जीती हैं। ज़ाहिर है ये कांग्रेस की रणनीति का कमाल है। प्रदेश में सुक्खू सरकार बनने के पांच महीने के भीतर हुए इस चुनाव के नतीजे बयां करते है कि जनता का सुक्खू सरकार पर भरोसा बरकरार है। खुद सीएम सुक्खू भी इसे सरकार की नीतियों की जीत मानते है। चाहे सुखाश्रय कोष की स्थापना जैसी मानवता से परिपूर्ण पहल हो या ओपीएस सहित कर्मचारियों को मिली सौगातें, अपने फैसलों से सुक्खू सरकार लगातार जनता के बीच लोकप्रिय भी हुई है और मजबूत भी। बहरहाल अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले मिली ये जीत कांग्रेस में नया जोश भरने वाली है। जीत की पटरी पर लौटी कांग्रेस को उम्मीद है कि 2024 में भी पार्टी बेहतर करेगी।
पहाड़ी लोक संस्कृति के नायक लायक राम रफ़ीक़ वो शक्सियत है जिन्होंने अपने जीवन का अंतिम दशक खुद तो अंधेरे में बिताया, मगर वो पहाड़ी गायकी को वो पहचान दे गए जो आज भी रोशन है। हिमाचल में पहाड़ी नाटियों का दौर बदलने वाले रफ़ीक़ एक ऐसे गीतकार थे जिन्होंने अपने जीवन में करीब 2500 से अधिक पहाड़ी गीत लिखकर इतिहास रचा। हिमाचल में शायद ही ऐसा कोई गायक होगा, जिसने पारंपरिक गीतों के पीछे छिपे इतिहास के जन्मदाता लायक राम रफीक के गानों को न गाया हो। आज भी रफीक के लिखे गानों को गुनगुनाया जाता है, गाया जाता है। उनके लिखे अमर गीत अब भी महफिलें लूटते है। प्रदेश का ऐसा शायद ही कोई क्षेत्र हो जहां शादी के डी जे या स्कूलों के सांस्कृतिक या अन्य आयोजनों में रफ़ीक के गीतों ने रंग न जमाया हो। नीलिमा बड़ी बांकी भाई नीलिमा नीलिमा.., होबे लालिए हो जैसे गीत हो या मां पर लिखा मार्मिक गीत 'सुपने दी मिले बोलो आमिएं तू मेरिए बेगे बुरो लागो तेरो आज, जिऊंदिए बोले थी तू झालो आगे रोएला बातो सच्ची निकली से आज' ... रफीक कई कालजयी गीत लिख गए। रफीक आकाशवाणी शिमला से गायक और अपने गीतों की अनेक लाजवाब धुनों के रचयिता भी रहे। अपना पूरा जीवन पहाड़ी संगीत पर न्योछावर करने वाले लायक राम रफीक का अंतिम समय बेहद दुखद व कठिनाओं से भरा रहा। ग्लूकोमा ने उनकी आंखों की रोशनी चुरा ली थी। उन्हें अपना अंतिम समय अँधेरे में बिताना पड़ा, मगर ये अंधापन भी उन्हें अपने आजीवन जुनून का पीछा करने से नहीं रोक सका - अंतिम सांस तक वो पहाड़ी गीत लिखते रहे। रफ़ीक़ शिमला में ठियोग के पास एक छोटे से गाँव (नालेहा) में रहा करते थे। कृषि परिवार में जन्मे और स्थानीय स्कूल में पढ़े लिखे। एक पुराने साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि वे मीट्रिक की परीक्षा भी पास नहीं कर पाए थे, स्कूल की किताबों में उनका मन ही नहीं लगता था। पर ठियोग की लाइब्रेरी में रखी साहित्यिक किताबों से मजबूत रिश्ता था। रफ़ीक़ पूरा दिन उस लाइब्रेरी में बैठ उर्दू और हिंदी की कविताओं से भरी किताबें पढ़ते रहते। इन्हीं कविताओं को पढ़ रफ़ीक़ को पहाड़ी बोली में कविताएं लिखने की प्रेरणा मिली और बस तभी से रफ़ीक़ ने अपने ख्यालों को शब्दों के ज़रिये गीत माला में पिरोना शुरू कर दिया। हजारों लोकप्रिय गीतों के गीतकार लायक राम रफ़ीक उपेक्षा का शिकार रहे है। उनके गीतों को आवाज देकर न जाने कितने गायकों ने शोहरत कमाई और रफीक के हिस्से आई सिर्फ उपेक्षा। ये बेहद विडम्बना का विषय है कि रफीक के अनेक लोकप्रिय गीतों के विवरण में उनका नाम तक दर्ज नहीं है। न सिर्फ रफीक साहब बल्कि पहाड़ी संगीत जगत में गीतकार सबसे अधिक उपेक्षित वर्ग है। एसडी कश्यप को देते थे इंडस्ट्री में लाने का श्रेय : रफीक ने 78 साल की उम्र में अपनी आखिरी सांस लेने से पहले तक लगभग 2,500 गीत लिखे थे। रफ़ीक़ ने न सिर्फ नाटियों (लोक गीतों) की लोकप्रियता को बढ़ाने का कार्य किया बल्कि उन्हें व्यावसायिक रूप से व्यावहारिक बनाने के लिए भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। रफीक के हिमाचल म्यूजिक इंडस्ट्री में आने से पहले, संगीत निर्देशक एसडी कश्यप ने मंडी में हिमाचल प्रदेश का पहला स्टूडियो ( साउंड एंड साउंड स्टूडियो खोला था )। रफीक अक्सर इंटरव्यूज में ये कहा करते थे की उन्हें रचनाकार बनाने में एसडी कश्यप का बड़ा हाथ था। वे ही उन्हें इस इंडस्ट्री में लेकर आए थे। वे ठियोग से मंडी जा उन्हीं के स्टूडियो में अपने गाने रिकॉर्ड करवाया करते। रफ़ीक़ ने एक लम्बे अर्से तक आकाशवाणी में बतौर गायक भी कार्य किया। रफीक के लिखे गीत सबको समझ आये: हिमाचली नाटियों में वास्तविक प्रेम कहानियां, बहादुरी और अच्छे कामों की यादें संजोई जाती है। उस दौर में पहाड़ी नाटियों से जुड़ी सबसे बड़ी समस्या थी भाषा। दरअसल हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में हर 10-15 मील के बाद भाषा बदल जाती है। इसलिए, किसी विशेष क्षेत्र की भाषा में बनाए गए और गाए गए पारंपरिक गीतों को अन्य क्षेत्रों में उतना सराहा और समझा नहीं जाता था। इस दुविधा को दूर करने में रफीक का बड़ा हाथ रहा। वो ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर लिखते की हर किसी को वो समझ आ जाए। पारंपरिक नाटियों से हटकर, उन्होंने रोमांटिक गीतों को अपनी खूबी बना लिया और उन्हें एक सरल भाषा में लिखा। हर कोई उनके लिखे गाने समझने व गुनगुना लगा। ऊपरी शिमला क्षेत्र के विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी। इसने उन्हें नाटियों के लिए एक बड़ा दर्शक वर्ग बनाने में मदद की, जिससे यह शैली व्यावसायिक रूप से व्यावहारिक हो गई। उन लिखे गीतों को गाना हर नए पुराने सिंगर की डिमांड बन गई। गीत लिखने और बनाने के अपार प्रेम ने उन्हें पहाड़ी गीतों का सबसे उम्दा लेखक बना दिया।
- हिमाचल से सांसद बन देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री बनी थी राजकुमारी अमृत कौर - एम्स को दान दे दिया था अपना पैतृक आवास 'मैनरविल' एक ऐसी राजकुमारी जो देश को आज़ाद करवाने के लिए तपस्वी बन गयी, एक प्रख्यात गांधीवादी, स्वतंत्रता सेनानी और एक सामाजिक कार्यकर्ता बनी, महात्मा गाँधी से प्रभावित हो कर आज़ादी के आंदोलन से जुडी, जेल गई। आज़ादी के बाद हिमाचल से सांसद चुनी गई और दस साल तक स्वास्थ्य मंत्री रही। देश की पहली महिला कैबिनेट मंत्री होने का सम्मान भी उन्हें प्राप्त है। वो महिला थी राजकुमारी अमृत कौर। ये बहुत कम लोग जानते है की अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान बनाने में राजकुमारी अमृत कौर का बड़ा हाथ है। शिमला के समर हिल में एक रेस्ट हाउस है, राजकुमारी अमृत कौर गेस्ट हाउस जो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के स्टाफ के लिए है। देशभर में सेवाएं दे रहे एम्स के डॉक्टर, नर्स व अन्य स्टाफ यहाँ आकर छुट्टियां बिता सकते है, वो भी निशुल्क। दरअसल, ये ईमारत 'मैनरविल' स्वतंत्र भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर का पैतृक आवास थी। इसे अमृत कौर ने एम्स को डोनेट किया था। आज निसंदेह एम्स देश का सबसे बड़ा और सबसे विश्वसनीय स्वास्थ्य संस्थान है। इस एम्स की कल्पना को मूर्त रूप देने में राजकुमारी अमृत कौर का बड़ा योगदान रहा रहा है। उनके स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए ही एम्स बना, वे एम्स की पहली अध्यक्ष भी बनाई गई। उस दौर में देश नया - नया आज़ाद हुआ था और आर्थिक तौर पर भी पिछड़ा हुआ था। तब एम्स की स्थापना के लिए राजकुमारी अमृत कौर ने न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, पश्चिम जर्मनी, स्वीडन और अमेरिका जैसे देशों से फंडिंग का इंतजाम भी किया था। एम्स की वेबसाइट पर भी इसके निर्माण का श्रेय तीन लोगों को दिया गया है, पहले जवाहरलाल नेहरू, दूसरी राजकुमारी अमृत कौर और तीसरे एक भारतीय सिविल सेवक सर जोसेफ भोरे। एम्स की ऑफिसियल वेबसाइट पर लिखा है कि भारत को स्वास्थ्य सुविधाओं और आधुनिक तकनीकों से परिपूर्ण देश बनाना पंडित जवाहरलाल नेहरू का सपना था और आजादी के तुरंत बाद उन्होंने इसे हासिल करने के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार किया। नेहरू का सपना था दक्षिण पूर्व एशिया में एक ऐसा केंद्र स्थापित किया जाए जो चिकित्सा शिक्षा और अनुसंधान को गति प्रदान करे और इस सपने को पूरा करने में उनका साथ दिया उनकी स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर ने। राजपरिवार में जन्मी, करीब 17 साल रही महात्मा गांधी की सेक्रेटरी: लखनऊ, 2 फरवरी 1889, पंजाब के कपूरथला राज्य के राजसी परिवार से ताल्लुख रखने वाले राजा हरनाम सिंह के घर बेटी ने जन्म लिया, नाम रखा गया अमृत कौर। बचपन से ही बेहद प्रतिभावान, इंग्लैंड के डोरसेट में स्थिति शेरबोर्न स्कूल फॉर गर्ल्स से स्कूली पढ़ाई पूरी की। किताबों के साथ -साथ खेल के मैदान में भी अपनी प्रतिभा दिखाई। हॉकी से लेकर क्रिकेट तक खेला। स्कूली शिक्षा पूरी हुई तो परिवार ने उच्च शिक्षा के लिए ऑक्सफ़ोर्ड भेज दिया। शिक्षा पूरी कर 1918 में वतन वापस लौटी और इसके बाद हुआ 1919 का जलियांवाला बाग़ हत्याकांड। इस हत्याकांड ने राजकुमारी अमृत कौर को झकझोर कर रख दिया और उन्होंने निश्चय कर लिया कि देश की आज़ादी और उत्थान के लिए कुछ करना है, सो सियासत का रास्ते पर निकल पड़ी। राजकुमारी अमृत कौर महात्मा गाँधी से बेहद प्रभावित थी। उस समय उनके पिता हरनाम सिंह से मिलने गोपालकृष्ण गोखले सहित कई बड़े नेता आते थे। उनके ज़रिए ही राजकुमारी अमृत कौर को महात्मा गांधी के बारे में अधिक जानकारी मिली। हालांकि उनके माता-पिता नहीं चाहते थे कि वो आज़ादी की लड़ाई में भाग लें, राजकुमारी अमृत कौर तो ठान चुकी थी। वे निरंतर महात्मा गांधी को खत लिखती रही। 1927 में मार्गरेट कजिन्स के साथ मिलकर उन्होंने ऑल इंडिया विमेंस कांफ्रेंस की शुरुआत की और बाद में इसकी प्रेसिडेंट भी बनीं। इसी दौरान एक दिन अचानक राजकुमारी अमृत कौर को एक खत मिला, ये खत लिखा था महात्मा गांधी ने। उस खत में महात्मा गांधी ने लिखा, 'मैं एक ऐसी महिला की तलाश में हूं जिसे अपने ध्येय का भान हो। क्या तुम वो महिला हो, क्या तुम वो बन सकती हो? ' बस फिर क्या था राजकुमारी अमृत कौर आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गईं। इस दौरान दांडी मार्च और भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने की वजह से जेल भी गईं। वे करीब 17 सालों तक महात्मा गांधी की सेक्रेटरी रही। महात्मा गांधी के प्रभाव में आने के बाद उन्होंने भौतिक जीवन की सभी सुख-सुविधाओं को छोड़ दिया और तपस्वी का जीवन अपना लिया। ब्रिटिश हुकूमत ने लगाया था राजद्रोह का आरोप : अमृत कौर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रतिनिधि के तौर पर सन् 1937 में पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत के बन्नू गईं। ब्रिटिश सरकार को यह बात नागवार गुजरी और राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। उन्होंने सभी को मताधिकार दिए जाने की भी वकालत की और भारतीय मताधिकार व संवैधानिक सुधार के लिए गठित ‘लोथियन समिति’ तथा ब्रिटिश पार्लियामेंट की संवैधानिक सुधारों के लिए बनी संयुक्त चयन समिति के सामने भी अपना पक्ष रखा। अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की सह-संस्थापक: महिलाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए 1927 में ‘अखिल भारतीय महिला सम्मेलन’ की स्थापना की गई। कौर इसकी सह-संस्थापक थीं। वह 1930 में इसकी सचिव और 1933 में अध्यक्ष बनीं। उन्होंने ‘ऑल इंडिया विमेंस एजुकेशन फंड एसोसिएशन’ के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया और नई दिल्ली के ‘लेडी इर्विन कॉलेज’ की कार्यकारी समिति की सदस्य रहीं। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘शिक्षा सलाहकार बोर्ड’ का सदस्य भी बनाया, जिससे उन्होंने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान इस्तीफा दे दिया था। उन्हें 1945 में लंदन और 1946 में पेरिस के यूनेस्को सम्मेलन में भारतीय सदस्य के रूप में भेजा गया था। वह ‘अखिल भारतीय बुनकर संघ’ के न्यासी बोर्ड की सदस्य भी रहीं। कौर 14 साल तक इंडियन रेड क्रॉस सोसायटी की चेयरपर्सन भी रहीं। देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री बनी कौर : जब देश आज़ाद हुआ, तब उन्होंने हिमाचल प्रदेश से कांग्रेस टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। राजकुमारी अमृत कौर सिर्फ चुनाव ही नहीं जीतीं, बल्कि आज़ाद भारत की पहली कैबिनेट में हेल्थ मिनिस्टर भी बनीं। वे लगातार दस सालों तक इस पद पर बनी रहीं। वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली की प्रेसिडेंट भी बनीं। इससे पहले कोई भी महिला इस पद तक नहीं पहुंची थी। यही नहीं इस पद पर पहुंचने वाली वो एशिया से पहली व्यक्ति थीं। स्वास्थ्य मंत्री बनने के बाद उन्होंने कई संस्थान शुरू किए, जैसे इंडियन काउंसिल ऑफ चाइल्ड वेलफेयर, ट्यूबरक्लोसिस एसोसियेशन ऑफ इंडिया, राजकुमारी अमृत कौर कॉलेज ऑफ़ नर्सिंग, और सेंट्रल लेप्रोसी एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट। इन सभी के अलावा नई दिल्ली में एम्स की स्थापना में अमृत कौर ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। टाइम मैगज़ीन ने दी वुमन ऑफ द ईयर लिस्ट में जगह : दुनिया की मशहूर टाइम मैगज़ीन ने 2020 में बेटे 100 सालों के लिए वुमन ऑफ द ईयर की लिस्ट ज़ारी की थी। भारत से इस लिस्ट में दो नाम हैं, एक पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जिन्हें साल 1976 के लिए इस लिस्ट में रखा गया। लिस्ट में शामिल दूसरा नाम है राजकुमारी अमृत कौर का, जिन्हें साल 1947 के लिए इस लिस्ट में जगह दी गई है।
ठंडा पाणी कियां करी पीणा हो, तेरे नौणा (पनिहारा) हेरी-हेरी जीणा हो हिमाचल प्रदेश में मनाए जाने वाले मेलों का अपना अलग ही स्थान है। यहां के मेलों का सम्बंध अक्सर मिथकों या तथ्यों से जुड़ा है। ऐसा ही एक मेला चम्बा के स्थानीय लोगों द्वारा मनाया जाने वाला सूही का मेला है। यह मेला उस देवी की याद दिलाता है जिसने अपनी प्रजा को पानी उपलब्ध कराने के लिए अपना बलिदान दे दिया था। कर्तव्य के प्रति इतने महान बलिदान का उदाहरण संसार में शायद ही कहीं अन्य दिखाई दे। उस रानी के बलिदान की याद को हृदय से लगाए रखा चम्बा की प्रजा ने और इसकी परिणति मेले में कर दी। ताकि आने वाली पीढिय़ां इस बात को याद रखें कि उनके पूर्वजों को पानी मुहैया करने की खातिर चम्बा की रानी ने प्रजा के प्रति अपने फर्ज के लिये बलिदान दे दिया था। मेले का आरम्भ लगभग एक हजार वर्ष पूर्व हुआ था, जब राजा साहिल बर्मन द्वारा चम्बा नगर की स्थापना की गई थी। इससे पूर्व समस्त चम्बा क्षेत्र की राजधानी ब्रह्मपुर (भरमौर) हुआ करती थी। राजा साहिल बर्मन ने अपनी बेटी चम्पा के आग्रह पर चम्बा को अपनी राजधानी बनाया। इससे पूर्व चम्बा में ब्राह्मण समुदाय के कुछ टोले रहा करते थे। चम्बा तो बस गया पर प्रजा की तकलीफें बढ़ गईं। मुख्य कठिनाई थी पानी की। लोगों को रावी दरिया से पानी लाना पड़ता था। राजा प्रतिदिन लोगों को मीलों दूर से पानी ढोते देखता और दुखी रहता। पर उस समस्या का हल शीघ्र ही ढूंढ निकाला गया। शहर से कुछ दूरी पर सरोथा नाले से नहर बनाकर चम्बा के लोगों को पानी उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान जल्दी ही क्रियान्वित हो गया। परन्तु नहर के माध्यम से पानी चम्बा तक नहीं पहुंच पाया। जमीन समतल होने पर भी पानी आगे नहीं जाता था। राजा के दुखों का पारावार न रहा। इसी उधेड़बुन में कि कैसे पानी उपलब्ध हो, कैसे प्रजा को सुख पहुंचे, वह लगा रहता। राजा को स्वप्न में दैवीय आदेश मिला की राजपरिवार से बलि दी जाए तो पानी आ सकता है। इस बात की आम चर्चा हो गई। बात जब रानी के कानों पहुंची तो उसने अपनी प्रजा के लिए अपना बलिदान देना सहर्ष स्वीकार कर लिया। लोगों की रानी के प्रति श्रद्धा का सबूत यह गाना है जो आज भी प्रचलित है 'ठंडा पाणी कियां करी पीणा हो, तेरे नौणा (पनिहारा) हेरी-हेरी जीणा हो।' बलिदान को जाते समय रानी ने लाल वस्त्र पहने थे। लाल रंग को स्थानीय बोली में सूहा भी कहा जाता है। इसी कारण रानी सुनयना का नाम सूही पड़ गया। पर कुछ लोग सूही सुनयना का बिगड़ा रूप मानते हैं। रानी के बलिदान के बाद राजा बहुत परेशान रहने लगा। रानी की याद उसे पागल किए रहती। एक रात राजा को सपने में रानी दिखाई दी। उसने राजा को दुखी न होने की बात कही और सांत्वना देते कहा कि वह प्रतिवर्ष चैत्र माह में उसके (रानी के) नाम एक मेले का आयोजन करे जिसमें गद्दी जाति की औरतों को अच्छा-अच्छा खाना खिलाए। इन्हीं गद्दणों में मैं (रानी) भी हूंगी। यदि राजा पहचान सकता है तो पहचान ले। राजा ने चैत्र माह मेले का आयोजन किया और गद्दणों को खूब सारा बढिय़ा खाना खिलाया। पता नहीं राजा को रानी के दर्शन हुए या नहीं पर तब से आज तक यह मेला प्रतिवर्ष मनाया जा रहा है। शायद संसार का ये एकमात्र मेला है जो 'औरतों का मेला' नाम से प्रसिद्ध है। समय के साथ इसके मनाए जाने के ढंग में भारी परिवर्तन हुए हैं। आजादी से पहले प्रतिवर्ष प्रथम चैत्र से इस मेले का आरम्भ होता था। प्रथम चैत्र से 14 चैत्र तक फलातरे री घुरेई मनाई जाती थी। इन दिनों शहना और बाईदार (शहनाई और ढोल नगाड़े बजाने वाले) सपड़ी टाले से पक्का टाला तक शहनाई व ढोल बजाते जाते थे। इन्हीं चौदह दिनों तक धड़ोग मुहल्ला की औरतें, चम्बा शहर के शीर्ष में स्थित भगवती चामुंडा के मंदिर से फूल चुनती हुई घुरेई डालती सपड़ी मुहल्ले तक आती। 15 चैत्र से माता सूही के मंदिर में घुरेइयों का आयोजन आरम्भ होता। सूही का यह मंदिर उस जगह स्थित है जहां रानी सुनयना को बलिदान जाते समय पांव में ठोकर लगी थी और अंगूठे से खून बहने लगा था। जिस पत्थर से ठोकर लगी थी वह आज भी मां सूही के रूप में पूज्य है। 15 चैत्र से 20 चैत्र तक सफाई करने वाली औरतें (मेहतरानियां) सूही मां के मंदिर की निचली सीढिय़ों की सफाई भी करती थीं और घुरेई भी डालती हुई नीचे मढ (नौण, पनिहारा) तक जाती। इसके पश्चात घुरेई डालने की बारी आती थी कन्याओं की। 21 चैत्र से 25 चैत्र तक पहले इन्हीं दिनों औरतों की घुरेई भी हुआ करती थी। लड़कियां 'भाइयो नूरपुरे दे शैर, बागे अम्बी पक्की हो' या इसी तरह की कई अन्य घुरेईयां गाया करती थीं। मेले के अंतिम दिन, 26 चैत्र से 30 चैत्र तक 'राजे री सुकरात' के नाम से जाने जाते हैं। इन दिनों बाहर की संभ्रांत औरतें तथा राजकुमारियां सूही के मढ़ में आती हैं। महीने का अंतिम दिन सकरात के रूप में मनाया जाता था और यही मेले का मुख्य आकर्षण हुआ करता था। राजा तथा राजघराने के अन्य लोग और शहर के गणमान्य लोग इस दिन सूही माता के मंदिर से पूजा के बाद मां की मूर्ति के साथ 'सुकरात कुडिय़ो चिडिय़ों, सुकरात लच्छमी नरैणा हो। ठण्डा पाणी किआं करी पिणा हो, तेरे नैणा हेरी-हेरी जीणा हो..' गाते हुए राजमहल की जनानी री प्रौली (औरतों का दरवाजा) तक आते हैं। यहां मां की मूर्ति वापिस लाकर रख दी जाती है। मेले के अंतिम दिनों में गद्दी महिलाओं को भोजन कराने का विशेष प्रबंध किया जाता। बदलते परिवेश में मात्र एक सप्ताह तक सूही मेले का आयोजन हो रहा है। कन्याएं घुरेई डालने में अपनी बेइज्जती समझने लगी हैं। सभ्रांत महिलाएं इस मेले में हिस्सा लेना अपनी शान के विरुद्ध मानती हैं। राजघराने का कोई सदस्य देखने को नहीं मिलता। जो सीढिय़ां अठारहवीं सदी के अन्त में चम्बा के राजा जीत सिंह की रानी शारदा ने अपनी पूर्वज पूज्य देवी सूही की याद में बनवाई थी वह आज जर्जर अवस्था में देखी जा सकती है। सूही मढ़ में जहां शहर की औरतें बैठती व घुरेई डालती थीं वह किन्हीं अज्ञात कारणों से बंद कर दिया गया है। मालूणा जहां मां सूही ने बलिदान दिया था कि प्रजा को पानी मिल सके और आज भी वहीं से पानी का अधिकतर वितरण होता है देखने से रोना आता है।
स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव का पहला वोटर होने का श्रेय हिमाचल प्रदेश के श्याम सरन नेगी को जाता है। श्याम सरन नेगी, मूलतः किन्नौर (कल्पा) के निवासी है। आज उनकी उम्र करीब 105 वर्ष है। नेगी के चेहरे में तजुर्बे की झुर्रियां और क्षीण आवाज़ के बावजूद जब भी जिक्र मतदान को लेकर होता है तो उनके चेहरे की रौनक यह बयां करती है कि मतदाता देश की रीढ़ की हड्डी है। श्याम सरन नेगी का जन्म 1 जुलाई 1917 को हिमाचल प्रदेश के कल्पा में हुआ। वह एक रिटायर्ड स्कूल मास्टर हैं। स्वतंत्र भारत के पहले मतदाता के तौर पर मशहूर नेगी को भारतीय लोकतंत्र का लीविंग लीजेंड भी कहा जाता है। 1947 में ब्रिटिश राज के अंत के बाद देश के पहले चुनाव फरवरी 1952 में हुए लेकिन सर्दी के मौसम में भारी बर्फबारी की संभावनाओं की वजह से किन्नौर के मतदाताओं को पांच महीने पहले ही वोट करने का मौका दिया गया था। 71 वर्ष पूर्व आजाद भारत का प्रथम चुनाव हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त थे आईसीएस सुकुमार सेन, जिन्होंने 1951-52 और 1957 का चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न कराया था। पहले चुनाव ने देश को बहुत कुछ दिखाया, सिखाया और साबित भी किया। बता दें कि सर्वप्रथम इसी अक्टूबर महीने की 25 तारीख को 1951 की सुबह आजाद भारत में मतदान की शुरुआत हुई थी। हिमाचल प्रदेश अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करने वाला पहला राज्य बना था। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ने 68 चरणों में चुनाव की योजनाएं बनाई थी। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के कल्पा गांव निवासी स्कूल टीचर श्याम शरन नेगी को अपने गांव से अलग प्रशासन द्वारा मतदान केंद्र प्रभारी बनाया गया था। नेगी एक वोट के मूल्य को समझते थे। वे मतदान शुरू होने से एक घंटे पहले यानि सुबह 6:00 बजे ही अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय के मतदान केंद्र पर पहुंच गए। वहां उन्होंने अधिकारियों को बताया की उन्हें जल्द अपने स्कूल भी पहुंचना है। तैनात अधिकारी ने उन्हें 6:30 बजे मतपत्र दिया और नेगी पहले मतदाता बन गए। श्याम सरन नेगी ने 1951 के बाद से हर आम चुनाव में मतदान किया है। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले गूगल ने नेगी पर एक फिल्म बनाई थी- प्लेज टू वोट यह फिल्म इंटरनेट पर खूब वायरल हुई थी, इसे फिल्मों के सुपरस्टार अमिताभ बच्चन सहित तमाम दूसरे ब्रैंड एंबैसडरों ने भी देखा था।
हिमाचल का किन्नौर जिला अपनी परंपराओं, मदिरा प्रेम, संस्कृति, त्योहारों व बौद्ध मठों के लिए प्रसिद्ध है। किन्नौर के गोल्डन सेब,सूखे मेवे व हरी टोपी सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि पुरे विश्व में प्रसिद्ध है। यूँ तो किन्नौर में पर्यटकों की आमद बहुत कम है लेकिन ऐसा कहा जाता है की हिमाचल की असल संस्कृति, खूबसूरती और अविश्वसनीय नज़ारों की झलक सिर्फ किन्नौर में ही मिल सकती है। किन्नौर का ऐतिहासिक दस्तावेज कहता है कि उसका अस्तित्त्व राजाओं के ज़माने से है। एक-एक करके किन्नौर में शुंग, नंद और मौर्य वंश का शासन हुआ। हिमाचल की ही किराट, कंबुज, पानसिका और वल्हिका जातियों की मदद से मौर्य वंश ने शासन जमाया। उसके बाद अशोक ने अपनी विजय पताका के झंडे गाड़े। बाद में आने वाले कनिष्क ने इसे और आगे बढ़ाया। उत्तर में कश्मीर और एशिया के दूसरे छोरों तक पहुँच बनाई। कुल मिलाकर दुनिया के कुछ गिने चुने नामी राजाओं, जिन्होंने पूरी दुनिया पर राज करने की कोशिश की, उनके विशाल साम्राज्य के एक छोटे हिस्से के तौर पर किन्नौर की पहचान रही। 1947 को जब भारत आज़ाद हुआ, तब भी महासु तहसील का एक छोटा सा हिस्सा किन्नौर था, जिसे अपनी पहचान 1960 में एक अलग ज़िले के रूप में मिली। रिकांगपिओ इस जिले का मुख्यालय है। किन्नौर के दो भाग हैं। लोअर व अप्पर किन्नौर। पूह से आगे का क्षेत्र अप्पर किन्नौर कहलाता है। ऊपरी व निचले किन्नौर की संस्कृति अलग है। अपर किन्नौर की महिलाएं दोहडू परिधान नहीं पहनतीं, वहां पर खो नामक वस्त्र कमीज के स्थान पर पहना जाता है। सिर पर एक कपड़ा बांधा जाता है जिसे फैटक कहा जाता है। यह वस्त्र वधू को शृंगार करते वक्त बांधा जाता है। गले में एक सौ मूंगों का हार पहना जाता है। हाथ में कंगन की जगह चांदी के 40-40 तोले भार के मोटे कंगन होते हैं जिन पर ड्रैगन या शेर मुख बना होता है। कान में एक तोले सोने का झुमका होता है। लोअर किन्नौर की महिलाएं यूचूरु नाम की माला पहनती हैं। लोअर किन्नौर में विशेष टोपी महिलाएं पहनती हैं जिसे टपंग कहते हैं। किन्नौरी विवाह : विवाह के अवसर पर जब दूल्हा वधू के पक्ष घर आता है तो महिलाएं विशेष आभूषण एवं वस्त्र पहनकर उनका स्वागत करती हैं तथा दोनों पक्षों के बुजुर्गों द्वारा लोकगीत गाने की प्रतिस्पर्धा होती है। फिर वर पक्ष के लोग हार मान लेते हैं तथा बारात आगे चौखट पर बढ़ती है। जहां वधू की सहेलियां व परिवार की महिलाएं फूलमाला द्वारा उनका रास्ता रोककर वर पक्ष से पैसे व उपहार मांगती हैं। फिर बारात को एक कमरे में अंदर बंद कर दिया जाता है तथा दोबारा बारात से पैसे ऐंठे जाते हैं। इसके बाद नृत्य, गायन तथा मदिरा का दौर चलता है। बाराती मफलर, कोट तथा दूल्हा लंबा वस्त्र पहनकर आता है जिसे खो कहते हैं। जब बारात वापस लौटने को होती है तब वधू की सहेलियां वधू के पांव सफेद कपड़े से बांध कर उसे रोकती हैं। फिर से बाराती उन्हें रुपये देकर उस वस्त्र को खुलवाकर उनसे वधू को ले जाने की अनुमति मांगते हैं। तीनों रस्मों में ली गई राशि एवं उपहार राशि जो रिश्तेदार और गांव के लोग देते हैं, सब वधू को विदाई के समय दे दी जाती है। शादी के दौरान एक लिखित समझौता होता है जिसमें शादी टूटने पर या वधू को तंग करने पर वर पक्ष को इज्जत राशि देनी पड़ती है तथा विवाह में दिये गये उपहार लौटाने का समझौता होता है। इसे बंदोबस्त कहते हैं। रास्ते में वापस लौटते समय यदि कोई मंदिर हो तो बारात द्वारा वहां पूजा भी की जाती है। दलोज प्रथा में लड़की वापस मायके आती है जिसमें वर के 10 लोग होते हैं। इसके बाद जब वधू वापस ससुराल जाती है तो मायके से 10 लोग फिर उसको छोडऩे जाते हैं। विवाह की रस्में मुख्य लामा द्वारा अदा की जाती हैं। फुलाइच और लोसर : हर साल सितंबर के महीने में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर क्षेत्र में फूलों का त्योहार मनाया जाता है। इस दौरान बड़ी संख्या में पर्यटक यहां आते हैं और हिमाचल प्रदेश के लोगों, जगहों, खानपान और संस्कृति को इस मेले के ज़रिए जानने का सबसे यह सही समय है। इसके अलावा किन्नौर क्षेत्र घूमने का भी सबसे बेहतर महीना सितंबर का ही है। फुलैच के दौरान ऊंची पहाड़ी से गांव में 3-4 व्यक्ति फूल लाते हैं एवं देवता को चढ़ाते हैं। फिर मंदिर परिसर में नृत्य होता है। किन्नौर का दूसरा प्रसिद्ध त्योहार लोसर है जो दिसंबर में मनाया जाता है जिसमें रिश्तेदारों को उपहार दिये जाते हैं और मंगलमय नए वर्ष की कामना की जाती है। कुछ लड़कियां नहीं करती हैं शादी किन्नौर में कुछ लड़कियां शादी नहीं करती हैं जिन्हें जाम्मो कहते हैं और वे बौद्ध मंदिरों में अपना जीवन व्यतीत करती हैं। ये लंबा भूरा चोगा पहनती है। किन्नौर की महिलाएं गले में त्रिमणी पहनती हैं, जिसमें तीन सोने के गोलाकार मणके काले धागे में पिरोकर पहने जाते हैं। 25 फरवरी को किन्नौर के चांगो गांव में शेबो मेला मनाया जाता है जिसमें तीरअंदाजी होती है। चांगो में छ: बौद्ध मंदिर हैं जिनमें छाप्पा देवता एवं पदम संभव की मूर्तियां तथा प्राचीन पुस्तकें हैं। किन्नौर के शाल भी बहुत प्रसिद्ध हैं जिन्हें पूह तथा चांगो की महिलाएं बनाती हैं। इस प्रकार से किन्नौर की अनूठी संस्कृति है जो इसे एक नया रूप देती है। यहां के लोगों की बोली भी बहुत भिन्न है। लोअर किन्नौर के कोठी गांव में चंडिका देवी की मान्यता है। निचार में उषा देवी का मंदिर है। चितकुल में चितकुल देवी है तथा मैम्बर गांव में महेश्वर की पूजा होती है। चंडिका देवी को मदिरा का प्रसाद चढ़ता है। यह मंदिर पियो के निकट है। छोटी शादी : किन्नौर में प्रेम-विवाह को छोटी शादी कहते हैं। कुछ वर्ष बाद जब युग्लक बच्चे हो जाते है, तब पारंपरिक विवाह किया जाता है जिसे बड़ी शादी कहते हैं।
हिमाचल प्रदेश पर प्रकृति मेहरबान है और यहाँ पर्यटकों के लिए बहुत कुछ है। रोमांचक और साहसिक खेलों के शौकीनों के लिए भी हिमाचल स्वर्ग के समान है। पर्वतारोहण, आइस स्केटिंग, ऊबड़-खाबड़ रस्तों में ड्राइव रेसिंग, उफनती नदियों में राफ्टिंग, फिशिंग, जंगली सफारी, सितारों भरे आसमान के नीचे कैंपिंग, बोन फायर जैसे आकर्षण यहाँ पर्यटकों को खींच लाते है, और इस फेहरिस्त में सबसे खास है पैराग्लाइडिंग। मनुष्य हमेशा से ही स्वछंद परिंदों की भांति आसमान को नापने की चाह रखता आया है और प्रकृति हिमाचल में मनुष्य की इस कल्पना को पंख देती है। हिमाचल के कई स्थानों पर आसमान छूते मानव परिंदो को देखना अद्धभुत है। विशेषकर बीड़ बिलिंग में दुनिया भर से पैराग्लाइडिंग के शौक़ीन पहुँचते है। बीड़ को पैराग्लाइडिंग के लिए दुनिया के सबसे अच्छे स्थानों में से एक माना जाता है। ये ही कारण है कि गर्मियों के दौरान यहां सैलानियों और एडवेंचर के शौकीनों का तांता लगा रहता है। बीड़ पैराग्लाइडिंग की टेक ऑफ साइट और बिलिंग लैंडिंग साइट है, जिसकी कुल ऊंचाई परिवर्तन लगभग 800 मीटर है। ये जगह पैराग्लाइडिंग के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर है। पैराग्लाइडिंग के लिए एक सही जगह होने की वजह से मार्च से नवंबर तक के महीनों में हजारों पर्यटकों यहां पैराग्लाइडिंग के लिए आते हैं। पैराग्लाइडिंग के अलावा बीड़ आध्यात्मिक अध्ययन और मैडिटेशन के लिए भी एक महत्वपूर्ण केंद्र भी है। इस जगह के खूबसूरत पहाड़, हरियाली, मौसम के साथ यहां का शांत वातावरण पर्यटकों का मन मोह लेता है और हर वर्ष हजारों लोग यहाँ मैडिटेशन के लिए भी पहुँचते है। वर्ल्ड कप का भी हो चूका है आयोजन बिलिंग घाटी में छह बार पैराग्लाइडिंग प्री वर्ल्ड कप का आयोजन हो चुका है। वहीं वर्ष 2015 में पहली बार देश के पहले पैराग्लाइडिंग वर्ल्ड कप का आयोजन यहां हुआ था। यहां इटली के बाद विश्व की दूसरी बेहतरीन पैराग्लाइडिंग साइट है। यहां से दो सौ किमी तक उड़ान की सुविधा है। बिलिंग घाटी में देश से ही नहीं बल्कि विदेशों से लोग पैराग्लाइडिंग करने के लिए पहुंचते है। तिब्बती कॉलोनी बेहद मशहूर बीड़ में स्थित तिब्बती कॉलोनी बेहद मशहूर है। दुनियाभर से यहां बौद्ध भिक्षु आते हैं। यह कॉलोनी 1962 में बसी। उस वक्त चीन के आक्रमण से भयभीत तिब्बती शरणार्थियों ने यहां शरण ली। बीड़ बिलिंग आने वाले लोग इस इस तिब्बती कॉलोनी को देखने जरूर जाते है। 1984 में अस्तित्व में आई थी साइट बिलिंग घाटी रोमांचक खेलों के लिए वर्ष 1984 में अस्तित्व में आई थी। उस समय घाटी से केवल हैंगग्लाइडिंग शुरू हुई थी। उस दौरान यहां हैंगग्लाइडिंग की अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता करवाई गई थी। वर्ष 1992 में पहली बार पैराग्लाइडिंग की उड़ान भरी गई थी। विदेशी पायलट ब्रूस मिल्स ने यहां पैराग्लाइडिंग का सिलसिला शुरू किया था तथा स्थानीय युवाओं को इसका प्रशिक्षण दिया था। कब जाएँ बीड़ बिलिंग : बीड़, पालमपुर से 35 किलोमीटर की दूरी पर है। वहीं, बिलिंग की दूरी बीड़ से 14 किलोमीटर की दूरी पर है। अगर आप यहां जाकर पैराग्लाइडिंग करना चाहते हैं तो यह सबसे बेहतरीन वक्त है। यहां मार्च से जून और अक्टूबर से लेकर नवंबर के बीच पैराग्लाइडिंग की जा सकती है। बीड़ बिलिंग की यात्रा करने का सबसे अच्छा समय अप्रैल से जून के महीनों के दौरान यानी ग्रीष्मकाल का होता है। मानसून के मौसम में यहां भारी वर्षा होती है और भूस्खलन का खतरा हो सकता है और सर्दियां तापमान के साथ शून्य तक गिर सकता है। अक्टूबर और नवंबर शरद ऋतु और मार्च से मई तक पैराग्लाइडिंग के लिए सही महीने हैं।
बांका हिमाचल : यह रुमाल नहीं कमाल है चंबा रुमाल का नाम अचानक सुने तो लगता है कि यह महज़ एक आम सा रुमाल होगा, लेकिन चंबा रुमाल सही मायनों में कमाल है। यह कोई मामूली रुमाल नहीं बल्कि विश्व विख्यात व कढ़ाई हस्तशिल्प से निर्मित और बेहद ख़ूबसूरत रुमाल है। अनूठी हस्तकला के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध चंबा रूमाल किसी पहचान का मोहताज नहीं है। चम्बा रुमाल की हस्तकला का बोलबाला रियासतकाल से चल रहा है। वैसे तो हिमाचल प्रदेश में कला की कई तकनीक हैं जो यहां की समृद्ध शैली की परिचायक हैं, लेकिन चंबा रुमाल ने हिमाचल प्रदेश को विश्व भर में एक अलग ही पहचान दिलाई है। अंतरराष्ट्रीय मिंजर मेले में भी चंबा रूमाल की बड़ी बिक्री होती है। चंबा रूमाल की ख़ास बात ये है कि इसे रेशम व सूती कपड़े पर कढ़ाई कर इसे तैयार किया जाता है। ये रुमाल कितना ख़ास है आप इस बात से समझ सकते है कि इस रूमाल को बनाने में एक सप्ताह से दो महीने का समय लग जाता है। देश के विभिन्न हिस्सों में चम्बा रुमाल खरीदना आसान नहीं होता है। इसे चंबा आकर खरीदना या फिर मंगवाना पड़ता है। चंबा के संपन्न परिवार बेटी की शादी में विदाई के समय इस रूमाल का प्रयोग करते हैं। वर्तमान में ही नहीं बल्कि ब्रिटिश काल में भी अधिकारियों व पड़ोसी रियासतों के राजाओं को रूमाल उपहार के रूप में दिया जाता था। इतना ही नहीं जर्मन व इंग्लैंड संग्रहालयों में भी चंबा रूमाल मौजूद है।1965 में चम्बा रूमाल बनाने वाली कारीगर महेश्वरी देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया और अब ऐसे कलाकारों की कमी नहीं, जो कई दिनों की कड़ी मेहनत के बाद इसे तैयार करते हैं। 'नीडल पेंटिंग’ के नाम से भी जाना जाता है चम्बा रुमाल पहाड़ी लघु चित्र और भित्ति चित्रों को अगर कपड़े पर सूई के माध्यम से बहुत ही बारीकी से कढ़ाई करके उकेरा जाए तो वह कपड़ा किसी कलात्मक तस्वीर से कम नहीं लगता है। इसका सही मायनों में उदहारण चंबा का रुमाल है। प्रसिद्ध चम्बा के रुमाल को ‘नीडल पेंटिंग’ के नाम से भी जाना जाता है। चंबा रुमाल रेशम एवं सूती कपड़े पर दोनों ओर समान कढ़ाई कर तैयार किया जाता है। विशेष तौर पर कढ़ाई का काम औरतें करती हैं और यह कला आमतौर पर रुमाल, टोपी, हाथ के पंखे, चोली आदि पर भी की जाती है। हर किसी के बस की बात नहीं इस रखना चम्बा रुमाल पर की गई कढ़ाई को चंबा साम्राज्य के पूर्व शासकों के संरक्षण में पनपने का मौका मिला था। यह अपनी अद्भुत कला और शानदार कशीदाकारी के कारण निरंतर प्रसिद्धि की नई इबारत लिखता रहा है। चंबा का रुमाल वास्तव में कोई जेब में रखने वाला रुमाल नहीं है, बल्कि कढ़ाईदार "वॉल पेटिंग " होती है। चूंकि इससे बना रुमाल चौकोर आकार में नहीं होता है, इसलिए इसे कभी वॉल पेंटिंग की तरह सजाया जाता है तो कभी उपहार में दिया जाता है। चंबा के रुमाल के बारे में एक रोचक बात यह है कि दूर से देखने पर बेशक ये बहुत आकर्षक न लगे पर जब पास से देखते हैं तो देखने वाले को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं होता है। इसे जेब में रखना हर किसी के बस की बात नहीं होती, दरअसल इसकी कीमत बहुत अधिक होती है। ललिता वकील ने सात समुंदर पार पहुंचाया चम्बा रुमाल का नाम पद्मश्री ललिता वकील ने चम्बा रुमाल को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ललिता वकील को बचपन में ही शोक था कि वह चंबा रुमाल पर बेहतरीन काम करे और आज इसी काम की बदौलत इन्होंने अपने चंबा शहर के नाम के साथ अपने प्रदेश और देश का नाम सात समुंदर तक पहुंचाया। इसका श्रेय वे अपने बजुर्गो के साथ सबसे पहले चंबा कढ़ाई में राष्ट्रपति से सम्मानित माहेश्वरी देवी को देती है, जिनको की साल 1965, में सम्मान मिला था। 14 अप्रैल 1954 को चंबा के सपड़ी मोहल्ला में जन्मी ललिता वकील ने चंबा रुमाल को देश-विदेश में नई पहचान दिलाई है। ललिता ने बचपन से ही चंबा रुचंबा रुमाल को नई बुलंदियों पर पहुंचाने वाली ललिता वकील को 2018 में नारी शक्ति पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। यह पुरस्कार राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने प्रदान किया था। इससे पहले ललिता को 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा और 2012 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी शिल्प गुरु सम्मान दे चुके हैं। अपने पूरे जीवन में उन्हें 25 से 30 अवार्ड मिल चुके हैं। रुमाल के संरक्षण और संवर्धन के लिए काम करना शुरू किया था। इस वर्ष उन्हें पदम् श्री के सम्मान से अलंकृत किया गया।