प्रदेश में होने वाले चार उप चुनाव से पहले प्रदेश भाजपा महिला मोर्चा में हाई वोल्टेज ड्रामा शुरु हाे चुका है। यह संगठन के लिए खतरे की घंटी है। बताया जा रहा है कि भाजपा महिला माेर्चा के भीतर ये खींचतान और अंतर्कलह पिछले साल से ही शुरु हाेने लगी थी, जाे अब खुलकर उजागर हो रही है। बहरहाल महिला माेर्चा की पदाधिकारियाें के बीच बहस और संगीन आरोपों का ऑडियो वायरल हुआ ताे खुन्नस की राजनीति भी सामने आ गई। हालांकि भाजपा में गुटबाजी बहुत कम सामने आती है, लेकिन महिला माेर्चा की पदाधिकारियाें की ऑडियो लीक होने के बाद अब गुटबाज़ी खुल कर सामने आ रही है। गौरतलब है की प्रदेश की वर्तमान भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान कभी पत्र बम ताे अब महिला मोर्चा का ऑडियो वायरल होने से संगठन काे भी कटघरे में खड़ा कर दिया है। महिला मोर्चा की जिन दाे पदाधिकारियाें के बीच ऐसा सब कुछ हुआ उनमें से एक महामंत्री और एक साेशल मीडिया एवं आईटी सेल की प्रभारी थी। दोनों ही अपने समय में छात्र राजनीति का जाना माना नाम रही हैं। वहीँ ऑडियो सामने आने के बाद प्रदेश संगठन ने दाेनाें पदाधिकारियाें के खिलाफ सख्त कार्रवाई करते हुए उनकी प्राथमिक सदस्य्ता रद्द कर दी है, लेकिन मामला अभी शांत होगा, ऐसा लगता नहीं है। प्रदेश में हाेने वाले चार उपुचनावाें से पहले महिला माेर्चा में चल रही इस खींचतान से संगठन काे कहीं न कहीं नुकसान उठाना पड़ सकता है। निसंदेह इससे भाजपा की अनुशासित पार्टी की छवि धूमिल हुई है। संगठन में अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं होगी : कश्यप प्रदेश भाजपा अध्यक्ष एवं सांसद सुरेश कश्यप ने बताया कि संगठन में अनुशासनहीनता बिलकुल बर्दाश्त नहीं होगी। उन्होंने कहा कि हाल में सोशल मीडिया में वायरल हुए भाजपा महिला मोर्चा के कथित ऑडिओ का कड़ा संज्ञान लेते हुए महिला मोर्चा की प्रदेश महामंत्री शीतल व्यास तथा सोशल मीडिया एवं आईटी प्रभारी डॉ. अर्चना ठाकुर की प्राथमिक सदस्यता को तुरंत प्रभाव से निलंबित कर दिया है। साथ ही दोनों पदाधिकारियों को संगठन के सभी दायित्वों से भी तुरंत प्रभाव से मुक्त कर दिया गया है। भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी एक अनुशासित राजनीतिक दल है और यहां पर किसी भी स्तर पर अनुशासनहीनता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह की प्रतिमा स्थापित करने के लिए प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने कदमताल शुरू कर दी है। प्रदेश कांग्रेस कमेटी हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला के ऐतिहासिक रिज मैदान पर स्वर्गीय वीरभद्र सिंह की प्रतिमा लगाना चाहती है। इस संदर्भ में कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से अनुमति मांगी है। सीएम को लिखे पत्र में राठौर ने कहा है कि हिमाचल प्रदेश के जन नायक हम सबके लोकप्रिय नेता वीरभद्र सिंह 8 जुलाई 2021 की सुबह अपनी सांसारिक यात्रा पूरी कर इस दुनिया को अलविदा कह गए। प्रदेश के नव निर्माण में उनके योगदान को कभी न तो भुलाया जा सकता है और न ही कम आंका जा सकता है। उनके अंतिम संस्कार में उमड़े जन सैलाब से साफ है कि वीरभद्र सिंह कितने लोकप्रिय व जन मानस के नेता थे। पीसीसी चीफ कुलदीप सिंह राठौर कहते हैं कि हमारे बीच से एक ऐसा लोकप्रिय नेता चला गया जो सबके दिलों में वास करता था। अब हमारे पास उनकी स्मृतियां शेष रह गई हैं। उन स्मृतियों को याद रखना हमारा नैतिक कर्तव्य ही नहीं है, बल्कि समाज के प्रति एक जिम्मेदारी भी है। लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक दल की सरकार आती है जाती हैं। किसी भी राजनीतिक दल के कुछ ही नेता लोगों के दिलों में अपनी अमिट छाप छोड़ पाते है ,जो लोगों के दिलो में बस जाती है। वीरभद्र सिंह उनमें से एक हैं जो लोगों के दिलों में बस गए हैं। उन्होंने कहा कि एक ओर जहां प्रदेश के निर्माण में डॉ.यशवंत सिंह परमार के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता, वहीं प्रदेश के नव निर्माण में राजा वीरभद्र सिंह को भी कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। पहाड़ी राज्यों के विकास में आज हिमाचल प्रदेश एक विशेष स्थान रखता है जिसका श्रेय वीरभद्र सिंह को ही जाता है। रिज पर स्मारक के लिए मांगा उपयुक्त स्थान पीसीसी चीफ कुलदीप सिंह राठौर ने कहा कि प्रदेश कांग्रेस कमेटी की यह इच्छा है कि वीरभद्र सिंह की याद में शिमला के ऐतिहासिक रिज मैदान में उनकी स्मृति में कोई स्मारक बने। अतः प्रदेश कांग्रेस उनकी एक प्रतिमा रिज मैदान में स्थापित करना चाहती है। उन्होंने मुख्यमंत्री से आग्रह किया है कि रिज मैदान पर कांग्रेस को कोई उपयुक्त स्थान उपलब्ध करवाया जाए, जिससे वह अपने जन नायक और आधुनिक हिमाचल के निर्माता स्व. वीरभद्र सिंह की प्रतिमा को स्थापित कर सकें। साथ ही सीएम यह भी आग्रह किया है कि सरकार किसी बड़े सरकारी संस्थान का नाम स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के नाम पर रखे, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उल्लेखनीय है कि इससे पहले रिज मैदान पर अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा इंदिरा गांधी व डा. वाईएस परमार की प्रतिमा भी लगी हुई है।
मात्र पांच विधानसभा सीटाें वाले जिला सिरमौर का कद प्रदेश की राजनीति में तेजी से बढ़ा है। प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार सिरमौर से ही ताल्लुख रखते थे लेकिन उनके बाद प्रदेश की सियासत में सिरमौर को उचित स्थान तो मिला पर सिरमौर सियासत के शिखर तक नहीं पहुंचा। पर अब जयराम राज में सियासत के गगन पर सिरमौर का सितारा फिर चमका है। हालांकि पांच विधानसभा सीट वाले इस जिला में भाजपा ने 2017 में तीन सीटें ही जीती थी, पर सरकार और संगठन दोनों में सिरमौर का जलवा दिखा है। वर्तमान में जिला सिरमौर से एक मंत्री तो है ही, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद भी सिरमौर से है। कई बॉर्ड निगमों में भी सिरमौर को उचित प्रतिनिधित्व दिया गया है। दिलचस्प बात ये है कि भाजपा के तेजतर्रार नेता और नाहन विधायक डॉ राजीव बिंदल एक किस्म से पूरी तरह साइडलाइन है, न सरकार में उन्हें अहमियत दी जा रही है और न ही संगठन में कोई महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी। उन्हें दरकिनार कर जयराम राज में कई अन्य नेताओं की ताकत बढ़ी है जिससे समीकरण संतुलित रह सके। 2017 के चुनाव में नाहन, पांवटा साहिब और पच्छाद सीट पर भाजपा को जीत मिली ताे नाहन विधायक डा. राजीव बिंदल काे विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी मिली।हालांकि तब प्रो प्रेमकुमार धूमल के चुनाव हारने के बाद बिंदल भी सीएम पद के दावेदारों में थे, पर राजनैतिक बिसात पर वे पिट गए और उन्हें कैबिनेट मंत्री तक का पद नहीं दिया गया। सांत्वना स्वरुप तब उन्हें माननीय विधानसभा अध्यक्ष बना दिया गया था। पर 2019 में डॉ राजीव बिंदल ने स्पीकर पद से इस्तीफा दिया और उन्हें भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की कमान मिल गई। पर साल 2020 में काेविड-19 के दौर में स्वास्थ्य विभाग घाेटाले के चलते डा. बिंदल काे भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पद से भी इस्तीफा देना पड़ा। पर पार्टी ने उनका रिप्लेसमेंट भी सिरमौर से ही ढूंढा। सांसद सुरेश कश्यप काे भाजपा प्रदेश अध्यक्ष का ज़िम्मा मिल गया। सिरमौर काे तवज्जो मिलने का सिलसिला जारी रहा और पिछले साल मंत्रिमंडल विस्तार में पांवटा साहिब विधानसभा क्षेत्र से विधायक सुखराम चाैधरी काे मंत्री की कुर्सी मिल गई। यहीं से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिला सिरमौर काे सरकार और संगठन में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। सुरेश कश्यप बने प्राइम फेस : पच्छाद विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे सुरेश कश्यप काे भाजपा ने 2019 में लाेकसभा चुनाव के मैदान में उतारा और उन्होंने शानदार जीत दर्ज की। शिमला संसदीय क्षेत्र से पहली बार सिरमौर का कोई नेता सांसद बना। उसके बाद हुए उपचुनाव में संगठन ने एक युवा महिला नेता काे टिकट के काबिल समझा और रीना कश्यप काे पच्छाद उपचुपनाव में जीत मिली। हालांकि भाजपा से बागी उम्मीदवार दयाल प्यारी भी मैदान में थी पर यहां भी सुरेश कश्यप ने जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर अपनी काबिलियत सिद्ध की। इसके बाद 2020 में डॉ राजीव बिंदल के इस्तीफा देने के बाद अपनी स्वच्छ छवि और सीएम जयराम ठाकुर से नजदीकी के बुते सुरेश कश्यप भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनने में कामयाब रहे। पच्छाद में दयाल प्यारी फैक्टर पर रहेगी नजरें : पच्छाद उपचुनाव में भाजपा की बागी रही दयाल प्यारी अब कांग्रेस में शामिल हो चुकी है। यहां से कांग्रेस के लिए हार की हैट्रिक लगा चुके वरिष्ठ नेता गंगूराम मुसाफिर की जगह पार्टी 2022 में दयाल प्यारी को मौका दे सकती है। माना जाता है कि मुसाफिर को वीरभद्र सिंह का करीबी होने के नाते मौके मिलते आ रहे थे, पर अब वीरभद्र सिंह के निधन के बाद स्तिथि बदल चुकी है। ऐसे में भाजपा और सुरेश कश्यप के लिए 2022 में पच्छाद जीतना मुश्किल हो सकता है। वैसे पच्छाद में भाजपा की स्तिथि कुछ कमजोर जरूर हुई है, जिला परिषद और स्थानीय निकाय के नतीजे भी इसकी तस्दीक करते है। आसान नहीं होगी 2022 की राह : मंत्री सुखराम चौधरी के क्षेत्र पावंटा साहिब में भीतरखाते मंत्री की मुखालफत की झलकियां अभी से दिखने लगी है। निकाय चुनाव में भी भाजपा को मनमाफिक नतीजे नहीं मिले थे। नाहन में जरूर डॉ राजीव बिंदल खुद को साबित करते आ रहे है लेकिन मौजूदा स्तिथि में वे पूरी तरह हाशिए पर दिख रहे है। रेणुकाजी और शिलाई में फिलहाल कांग्रेस का कब्जा है और 2022 के लिए अभी से भाजपा को यहां कड़ी तैयारी करनी होगी।
रुझान आने शुरू हो गए है। मुख्यमंत्री पद पर जिला कांगड़ा का दावा आ चुका है। बाकी भी पूरी तैयारी में दिख रहे है। वीरभद्र सिंह का निधन प्रदेश कांग्रेस के लिए बड़ी आपदा है, और राजनीति में आपदा में अवसर तलाशना कोई नई बात नहीं है। ये अलग बात है कि सिर्फ तलाशने से कुछ नहीं मिलता। ये अलग बात है कि मुख्यमंत्री बनने के लिए पहले पार्टी को सत्ता में लाना होगा। पर फिलवक्त, तो डर यही है कि नेताओं की निजी महत्वकांक्षाएं कहीं इतनी हावी न हो जाएं कि न खुदा मिले, न विसाल-ए-सनम। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह बेशक बीते दो-तीन साल से अधिक सक्रिय नहीं थे फिर भी पार्टी का चेहरा वीरभद्र सिंह ही रहे। उनके रहते कई नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा दबी सी रही, कोई सियासी शूरवीर ऐसा नहीं दिखा जो उनके वर्चस्व के आगे ठहर पाया हो। यानी बेशुमार गुटबाजी के बावजूद वीरभद्र सिंह पार्टी के सर्वमान्य नेता बने रहे। पर अब पुराने निष्ठावानों का महत्वाकांक्षी होना तो जायज है, पर कई दूसरी -तीसरी पंक्ति के नेता भी सीएम बनने का ख्वाब संजोये बैठे है। वीरभद्र सिंह के निधन से उपजे शून्य में ये गुटबाजी पार्टी की नैया डुबाने के लिए काफी है। अगर समय रहते आलाकमान ने पार्टी की दशा सुधारने हेतु उचित दिशा तय नहीं की तो 2022 में डगर बेहद मुश्किल होने वाली है। दरअसल, कांग्रेस में ऐसे कई चेहरे है जो सीएम बनने के इच्छुक माने जाते है या जिनके समर्थक अभी से उन्हें बतौर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करना शुरू कर चुके है। 2017 से ही इनमें से कुछ के सितारे अच्छे चल रहे है तो कुछ हाशिए पर है, पर वीरभद्र सिंह के निधन के उपरांत सारा गुणा भाग बदल गया है। वीरभद्र के बाद कौन, फिलवक्त ये ही यक्ष प्रश्न है। संगठन मेक ओवर नहीं हुआ तो सत्ता का टेक ओवर मुश्किल : बीते कुछ वक्त में कांग्रेस का जनाधार तेजी से घटा है। इस पर गुटबाजी और अंतर्कलह ने पार्टी की परेशानी में और इजाफा किया है। इसका सबसे बड़ा कारण है लचर और प्रभावहीन नेतृत्व। प्रदेश नेतृत्व से लेकर जिला और ब्लॉक तक नेतृत्व को लेकर सवाल उठ रहे है। ऐसे में समय रहते संगठन का मेक ओवर नहीं होता है तो 2022 में सत्ता का टेक ओवर मुश्किल होगा। वैसे जानकार मानते है कि वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर को अब तक वीरभद्र सिंह की गुड बुक्स में होने का लाभ मिलता रहा, पर अब उन्हें बदले जाने को लेकर सुर तेज हो सकते है। प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी से सीएम की कुर्सी तक का सफर आसान हो सकता है, ऐसे में माना जा रहा है कि कई चाहवानों की नजर राठौर की कुर्सी पर टिकी है। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू के चाहवान उन्हें फिर से प्रदेश संगठन की कमान दिए जाने की मांग करने लगे है। वीरभद्र सिंह उन्हें ख़ास पसंद नहीं करते थे और ये ही सुक्खू के अपदस्थ होने का मुख्य कारण भी था। पर अब बदले समीकरण में सुक्खू का दावा कमतर नहीं होगा। पहला दावा कांगड़ा का, पर बाली या सुधीर ! सीएम पद के लिए खुलकर पहला दावा जिला कांगड़ा का आया है। या यूं कहे कि जिले के नाम पर ही सही पर पूर्व मंत्री जीएस बाली ने मुख्यमंत्री पद के लिए दावा ठोक दिया है। बीते दिनों बाली ने कहा कि जिला कांगड़ा का मुख्यमंत्री की सीट पर पूरा अधिकार है। सूबे की सियासत की गाड़ी यहीं से निकलती है, तभी वह शिमला पहुंचती है। बाली की बात ठीक भी है, इतिहास तस्दीक करता है कि हिमाचल प्रदेश में सत्ता सुख उसी राजनैतिक दल का नसीब होता हैं जिसपर जिला कांगड़ा की कृपा बरसती हैं। जो कांगड़ा फ़तेह नहीं कर पाता उसे सत्ता विरह ही मिलता है। वर्ष 1985 से ऐसा ही ट्रेंड है। 1985, 1993, 2003 और 2012 में कांग्रेस पर कांगड़ा का वोट रुपी प्यार बरसा तो सत्ता भी कांग्रेस को ही मिली। वहीं 1990, 1998, 2007 और 2017 में कांगड़ा में भाजपा इक्कीस रही और प्रदेश की सत्ता भी भाजपा को ही मिली। असल सवाल तो ये है कि अगर कांगड़ा को सीएम पद मिल भी जाता है तो क्या बाली ही सर्वमान्य चेहरा है ? दरअसल कांगड़ा में एक और कांग्रेसी पंडित भी है जो फिलवक्त अपनी सियासी जमीन समतल करने की जद्दोजहद में लगे है। पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के करीबी माने जाने वाले सुधीर शर्मा पिछली सरकार में नंबर दो माने जाते थे और सीएम फेस के लिए उनका दावा भी बाली से कम नहीं होने वाला। ये भी जगजाहिर है कि कांगड़ा के ये दोनों दिग्गज एक दूसरे की जमीन खोदते आ रहे है। इसी खींचतान का नतीजा है कि पिछले विधानसभा चुनाव में ये दोनों ही धराशाई हो गए थे। अब इन दोनों में से कोई भी एक दूसरे के नाम पर सहमत होगा, ऐसा नहीं लगता। और इन दोनों के बिना कांगड़ा फ़तेह हो सकता है, ऐसा भी नहीं लगता। बाकी राजनीति में कुछ भी मुमकिन है, दूरियां कब नजदीकियों में बदल जाए मालूम नहीं। मंडी भी कम नहीं, कौल सिंह का दावा तय ! जिला कांगड़ा के बाद सबसे ज्यादा सियासी वजन जिला मंडी का है जिसमें 10 विधानसभा सीटें आती है। यहां का सियासी मिजाज भी जिला कांगड़ा जैसा ही है, जिस भी राजनैतिक दल ने मंडी जीता वही सत्ता पर काबिज हुआ। मंडी में अगर कांग्रेस की बात करें तो कौल सिंह ठाकुर इस वक्त सबसे बड़ा चेहरा है। 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले भी वे सीएम पद के दावेदार थे, हालांकि तब उनके अरमान अधूरे रहे। फिर 2017 में वे खुद भी चुनाव हारे और उनकी बेटी चंपा ठाकुर भी, जो कौल सिंह ठाकुर के लिए बड़ा झटका था। पर बीते कुछ समय से कौल सिंह ठाकुर की सक्रियता बढ़ी है और उनके समर्थक वीरभद्र सिंह के जीवित रहते भी उन्हें बतौर सीएम प्रोजेक्ट करते रहे है। अलबत्ता वे 2017 में हार गए थे लेकिन उनकी जमीनी पकड़ पर कोई संशय नहीं है। जानकार मानते है कि सीएम पद के लिए कौल सिंह ठाकुर का दावा भी तय है। कौल सिंह ठाकुर बीते वर्ष लंच डिप्लोमेसी को लेकर भी चर्चा में रहे थे। तब पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुखविंद्र सुक्खू के साथ उनके सहभोज ने नए समीकरणों को हवा दी थी। अब माहिर मानते है कि सत्ता शीर्ष पर पहुंचने के लिए कौल सिंह ठाकुर व कुछ अन्य नेता एक साथ आ सकते है। माना जा रहा है कि आगामी कुछ वक्त में कांग्रेस में कई आंतरिक गठबंधन बनते बिगड़ते दिखेंगे। संगठन की कमान मिली तो आसान हो सकती है राह ! 2017 में सत्ता गंवाने के बाद मुकेश अग्निहोत्री नेता प्रतिपक्ष बने। वास्तव में तब कौल सिंह ठाकुर, जीएस बाली, सुधीर शर्मा सहित कई नेता जीतकर सदन में ही नहीं पहुंचे थे, सो अग्निहोत्री की नेता प्रतिपक्ष बनने की राह ज्यादा कठिन नहीं थी। इस पर उन्हें वीरभद्र सिंह की कृपा भी प्राप्त रही। समर्थक लगातार उन्हें भावी सीएम प्रोजेक्ट करते आ रहे है और अग्निहोत्री एक मंझे हुए नेता की तरह नाप तोल कर सियासत कर रहे है। पर अग्निहोत्री की स्वीकार्यता अब तक पूरे प्रदेश में नहीं दिखी है। उनकी राजनीति शिमला और ऊना तक ही सीमित रही है, बाकी जिलों में न तो उनके निष्ठावानों की ब्रिगेड दिखती है और न ही उनकी खास दखल। अब वीरभद्र सिंह के निधन के बाद अग्निहोत्री की डगर भी मुश्किल होगी। माना जाता है कि मुकेश अग्निहोत्री भी उन नेताओं में है जो संगठन की कमान अपने हाथ में चाहते है। निसंदेह यदि ऐसा करने में अग्निहोत्री सफल हुए तो समीकरण उनके पक्ष में बनने लगेंगे, पर फिलवक्त तो उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। आशावान है आशा के समर्थक : आशा कुमारी भी उन नेताओं में से है जिन्हें सत्ता वापसी की स्थिति में सीएम पद का दावेदार माना जाता है। समर्थक अभी से उन्हें प्रदेश की भावी सीएम और प्रदेश की होने वाली पहली महिला मुख्यमंत्री करार देने लगे है। आशा कुमारी निसंदेह तेजतर्रार भी है और अच्छी वक्ता भी। सदन में भी सक्रिय दिखती है और जब शिमला में होती है तो सरकार को घेरने में भी पीछे नहीं रहती। इस पर गांधी परिवार से उनकी नजदीकी भी उनका दावा जरूर मजबूत करेगी। पर अतीत के कई विवाद आशा कुमारी का पीछा आसानी से नहीं छोड़ेगे। इस पर पार्टी में व्याप्त अंतर्कलह भी उनके रास्ते में आएगी। उनकी स्तिथि भी मुकेश अग्निहोत्री जैसी है, शिमला और अपने जिले में तो ठीक है पर पूरे प्रदेश में उन्हें अपनी स्वीकार्यता सिद्ध करनी होगी। गुटबाजी से दूर, डार्क हॉर्स है कर्नल शांडिल कर्नल धनीराम शांडिल; दो बार सांसद, दो बार विधायक, पूर्व मंत्री और कांग्रेस वर्किंग कमेटी के पूर्व सदस्य रहे है । शांडिल गांधी परिवार के करीबी है और बेदाग़ छवि उनका दावा और मजबूत करती है। विपक्ष में रहते हुए जब भाजपा कांग्रेस के मंत्रियों के खिलाफ चार्जशीट लाई थी तो उसमें भी कर्नल शांडिल का नाम नहीं था। यानी कह सकते है कि भाजपा भी उन्हें ईमानदार मानती रही है। पर कर्नल शांडिल का सबसे बड़ा प्लस पॉइंट ये है कि वे किसी गुट में नहीं है। गुटबाजी से ये दूरी उन्हें सीएम की रेस में डार्क हॉर्स साबित कर सकती है। हालांकि राजनीति के लिहाज से शांडिल बहुत बेहतर वक्ता नहीं है और न ही उनकी पकड़ सोलन के बाहर दिखती है, पर विरोधी भी अक्सर कर्नल धनीराम को किस्मत का धनी कहते है।
प्रदेश में हाेने वाले चार उपचुनावाें के लिए भाजपा ने पहले ही तैयारियां शुरु कर दी है। इसी तर्ज पर अब संगठन का फाेकस अर्की विधानसभा क्षेत्र हाेगा। इस सीट से पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह विधायक रहे। अब उनके निधन से यहां भी उपचुनाव हाेना हैं। इसके मद्देनजर भाजपा प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना कल यानी 20 जुलाई को अर्की मंडल की होने जा रही मंडल की बैठक के समापन सत्र को दोपहर 2 बजे संबोधित करने जा रहे हैं। यह बैठक अर्की स्थित गाै सदन में होगी। भाजपा प्रभारी कल चंडीगढ़ से 11 बजे अर्की के लिए आगमन करेंगे और बैठक को संबोधित करने के बाद वापस चंडीगढ़ जाएंगे।
पूर्व मंत्री एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जीएस बाली की सियासती चाल अब दिल्ली पहुंच गई है। वे पिछले दाे दिनों से पार्टी के केंद्रीय नेताओं से मिशन 2022 के लिए मंथन कर रहे हैं। सूत्राें से मिली जानकारी के मुताबिक जीएस बाली अभी कुछ दिन दिल्ली में ही डटे रहेंगे। गाैरतलब है की बीते दिनों जीएस बाली ने मीडिया में सीएम पद पर जिला कांगड़ा का जिक्र किया था और वे कुछ दिन बाद दिल्ली दाैरे पर निकल गए। हालांकि अगले साल चुनाव हाेने के लिए अभी समय हैं, लेकिन उससे पहले तीन विधानसभा सीटाें और मंडी संसदीय सीट पर उपचुनाव भी हाेना है। जिला कांगड़ा का फतेहपुर, शिमला का जुब्बल-काेटखाई और साेलन जिले का अर्की विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव हाेना है। साथ ही 17 विधानसभा सीटाें वाला मंडी संसदीय क्षेत्र भी है।
मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने शनिवार को नई दिल्ली में केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण और युवा कार्य एवं खेल मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर से भेंट की। मुख्यमंत्री ने अनुराग सिंह ठाकुर को कैबिनेट मंत्री बनने पर बधाई दी और कहा कि यह राज्य के लिए गर्व की बात है। मुख्यमंत्री ने राज्य में खेलों के लिए बुनियादी ढांचे को मजबूत करने, विशेषकर इंडोर स्टेडियम के निर्माण के बारे में भी चर्चा की, जिससे राज्य के युवा खिलाड़ियों को आगे बढ़ने में मदद मिल सके। अनुराग सिंह ठाकुर ने राज्य को हर संभव सहायता प्रदान करने का आश्वासन दिया। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुरेश कश्यप और उप-आवासीय आयुक्त पंकज शर्मा भी मुख्यमंत्री के साथ उपस्थित थे।
चार माह में तीन मुख्यमंत्री, उत्तराखंड की राजनीति एक बार फिर से लाइमलाइट में है। सियासत महाठगिनी है, ये कब किसे फर्श से अर्श पर ले जाएं और कब किसे अर्श से फर्श पर पटक दे कोई नहीं जानता। हाथ से रेत की तरह फिसलती सत्ता को संभाल पाना हर किसी के बस की बात नहीं होती और मौजूदा परिवेश में उत्तराखंड राज्य इस बात का सबसे बढ़िया उदहारण है। अपने 21 साल के इतिहास में इस राज्य ने कुल 13 मुख्यमंत्री देखे है और दो बार इस प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग चुका है। ये कहना बिलकुल गलत नहीं होगा कि विभिन्न राजनैतिक पार्टियों ने उत्तराखंड को शायद मुख्यमंत्री परिवर्तन की प्रयोगशाला समझ लिया है। मुख्यमंत्री के खिलाफ जनता आवाज उठाए तो इस्तीफा, कोई आरोप लगे तो इस्तीफा, तो कभी संवैधानिक संकट के नाम पर इस्तीफ़ा। हालहीं में सीएम पद से इस्तीफा देने वाले तीरथ सिंह रावत को हटाने का कारण संवैधानिक संकट ही बताया गया है। नियम के मुताबिक मुख्यमंत्री बनने के 6 महीने के अंदर उन्हें विधानसभा का सदस्य बनना था, लेकिन संविधान के आर्टिकल 151 के मुताबिक अगर विधानसभा चुनाव में एक साल से कम का समय बचता है तो वहां उपचुनाव नहीं कराए जा सकते। सो तीरथ सिंह रावत ने इस्तीफा दे दिया। पर सवाल ये है कि क्या चार महीने पहले भाजपा को इसका ख्याल नहीं था? दरअसल, इनसाइड स्टोरी कुछ और ही बताई जा रही है। अपने छोटे से कार्यकाल में तीरथ सिंह रावत कोई ऐसा करिश्मा नहीं कर पाए कि उन्हें आगामी चुनाव में फेस बनाया जा सके, बल्कि अपने बेतुके बयानों से उन्होंने पार्टी की किरकिरी ही करवाई। पार्टी में भी उनके के खिलाफ विरोध की आवाज तेज हो गई थी, इसलिए संवैधानिक संकट को ढाल बनाकर पार्टी ने उनकी छुट्टी कर दी। अंतरिम विधानसभा में मिले दो मुख्यमंत्री उत्तराखंड की राजनीति में सीएम बदलना कोई नई बात नहीं है। 21 साल से भी कम समय में 13 मुख्यमंत्री शपथ ले चुके है जिनमें सबसे अधिक 3 बार हरीश रावत ने शपथ ली है। साल 2000 में आस्तित्व में आए उत्तराखंड प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने नित्यानंद स्वामी, पर महज एक साल के भीतर ही मुख्यमंत्री पद से उनकी छुट्टी हो गई। 30 अक्टूबर 2001 में सत्ता संभालते हैं भगत सिंह कोश्यारी जो आजकल महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं, पर बतौर मुख्यमंत्री उनका सफर भी महज 122 दिन में समाप्त हो गया। यानी अंतरिम विधानसभा में ही उत्तराखंड को दो मुख्यमंत्री मिले। सिर्फ तिवारी ने 5 साल संभाली कुर्सी दो मार्च 2002 को उत्तराखंड में हुए पहले विधानसभा चुनाव में बाद कांग्रेस की सरकार बनी और नारायण दत्त तिवारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने। दिलचस्प बात ये है कि राज्य के गठन से लेकर अब तक केवल नारायण दत्त तिवारी ही ऐसे मुख्यमंत्री रहे, जिन्होंने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया। दूसरी विधानसभा में तीन मुख्यमंत्री मार्च 2007 में विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा की सत्ता में वापसी हुई और भुवन चंद खंडूरी मुख्यमंत्री बने। पर पार्टी के भीतर हावी खींचतान के चलते जून 2009 में उन्हें हटाकर आलाकमान ने रमेश पोखरियाल को मुख्यमंत्री बनाया। पर पोखरियाल कुछ ख़ास नहीं कर सके और विधानसभा चुनाव से करीब 6 माह पहले फिर से भुवन चंद खंडूरी सीएम की कुर्सी मिल गई। पार्टी ने विधानसभा चुनाव से पहले असंतोष साधने को सीएम फेस बदला था, लेकिन ये कारगार सिद्ध नहीं हुआ। तीसरी विधानसभा में तीन बार मुख्यमंत्री बने रावत मार्च 2012 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई और विजय बहुगुणा को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया। पर करीब दो साल बाद ही जनवरी 2014 में विजय बहुगुणा को हटाकर हरीश रावत को सीएम बना दिया गया। इससे पहले हरीश रावत केंद्र में सक्रिय थे लेकिन प्रदेश की सत्ता उन्हें उत्तराखंड खींच लाई। पर कांग्रेस की अंतर्कलह के बीच हरीश रावत के लिए कुर्सी संभाले रखना बिलकुल भी आसान नहीं हुआ। तीन साल में हरीश रावत ने तीन बार सीएम पद की शपथ ली और दो बार राष्ट्रपति शासन लगा। आम जनता को भी हरीश रावत की सरकार पसंद नहीं आयी और नतीजन 2017 के विधानसभा चुनाव में खुद हरीश रावत भी हार गए। रावत दो सीटों से चुनाव लड़े थे और दोनों जगह जनता ने उन्हें नकार दिया। चौथी विधानसभा में अब तक तीन सीएम फेस मार्च 2017 में हुए चौथे विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के साथ भाजपा सत्ता में लौटी। त्रिवेंद्र सिंह रावत को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया। करीब चार साल त्रिवेंद्र रावत मुख्यमंत्री रहे और लगने लगा कि शायद नारायण दत्त तिवारी के बाद वे दूसरे मुख्यमंत्री होंगे जो अपना कार्यकाल पूरा करें। पर राज्य में सरकार की लोकप्रियता के गिरते ग्राफ के चलते विधानसभा चुनाव के एक साल पहले भाजपा ने फेस बदल दिया। उनकी जगह सांसद तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन तीर्थ सिंह रावत की भी चार महीने से भी कम समय में विदाई हो गई। अब वर्तमान में मुख्यमंत्री है पुष्कर सिंह धामी। यहां भी पार्टी की मुश्किल कम होती नहीं दिख रही। दरअसल सतपाल महाराज और धन सिंह रावत को सीएम फेस का प्रबल दावेदार माना जा रहा था लेकिन दोनों को ही पार्टी ने नहीं चुना। ऐसे में जाहिर है उत्तराखंड भाजपा में अब गुटबाजी चरम पर है। 'बयानवीर' तीरथ सिंह रावत के विवादित बयान महज 115 दिन के लिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे तीरथ सिंह रावत भाजपा लिए राहत कम लाये और आफत ज्यादा बने। उनके कई बयानों ने आम जनता में भी पार्टी की छवि को ख़राब किया। कभी कुंभ की भीड़ तो कभी महिलाओं की फटी जींस पहनने को लेकर तीरथ सिंह रावत के बयानों से बीजेपी बैकफुट पर आ गई। सीएम बनते ही तीरथ सिंह रावत ने एक चौंकाने वाला बयान दिया। उन्होंने कहा कि मां गंगा की कृपा से कुंभ में कोरोना नहीं फैलेगा। इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की तुलना भगवान से कर दी। इन बयानों की वजह से उनकी खूब किरकिरी हुई। इसके बाद सामने आया उनका संस्कार पुराण जिसमे उन्होंने फटी जींस पहनने वाली महिलाओं को संस्कार का ज्ञान बांटा। न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि पूरे देश में उनकी इस संकीर्ण सोच की जमकर निंदा हुई, उनके खिलाफ प्रदर्शन हुए। तीरथ सिंह रावत यही नहीं थमे। इसके बाद उन्होंने जब अपने सामान्य ज्ञान का प्रदर्शन किया तो अच्छे-अच्छों ने सिर पकड़ लिया। एक बयान में उन्होंने भारत को अमेरिका का गुलाम बता दिया। उन्होंने कहा था कि 130-135 करोड़ लोगों की आबादी वाला भारत देश आज भी राहत महसूस करता है। अन्य देशों की अपेक्षा हम लोग 200 साल अमेरिका के गुलाम थे। पूरे विश्व के अंदर अमेरिका का राज था, लेकिन आज के समय में वो डोल गया। कोरोना काल में राशन वितरण को लेकर उन्होंने जो विचार साझा किये वो तो और भी अचंभित करने वाले थे। उन्होंने कहा कि ' सरकार ने हर घर में 5 किलो प्रति यूनिट अनाज देने का काम किया। जिसके 10 थे 50 किलो आ गया, जिसके 20 थे उसको 1 क्विंटल मिला। 2 थे तो 10 किलो ही आया। लोगों ने स्टोर बना लिए। खरीददार तलाश लिए। ज्यादा राशन मिलने से लोगों को एक दूसरे से जलन होने लगी। मेरे 2 हैं तो मुझे 10 किलो ही मिला। 20 वाले को 1 क्विंटल क्यों मिला? इसमें दोष किसका है, उसने 20 पैदा किए और आपने 2 पैदा किए। उसको 1 क्विंटल मिल रहा तो जलन क्यों? जब समय था तब आपने 2 ही किए 20 क्यों नहीं किए?
दिवंगत वीरभद्र सिंह रियासत के ही नहीं, बल्कि सियासत के भी राजा रहे हैं । कांग्रेस हाईकमान की हां में हां मिलाने के बजाय उन्होंने अपनी बात मनवाने का हमेशा दम दिखाया। सियासी विरोधियों के हर पैंतरे का वह हमलावर जवाब देते रहे। देवभूमि के दिग्गज नेता वीरभद्र सिंह को लोग यूं ही राजा नहीं कहते। लोगों के दिलों में अलग जगह बनाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के साथ कई किस्से जुड़े है। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह में गरीबों और असहायों के लिए करुणा कई बार देखने को मिली। यह 2014 के आसपास की बात है जब चंबा की एक औरत शिमला में उनके पास गईं और चंबा जाने के लिए किराया न होने की बात करने लगी ,तब वीरभद्र सिंह इस महिला को दूसरे दिन अपने साथ हेलीकॉप्टर में बैठाकर चंबा ले गए जहां उनका एक कार्यक्रम भी था। आज वीरभद्र सिंह के निधन से पूरा प्रदेश गमगीन है।
हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का अंतिम संस्कार 10 जुलाई को रामपुर में होगा। इससे पहले आज गुरुवार को पार्थिव शरीर दिनभर होलीलॉज में दर्शन के लिए रखा जाएगा। 9 जुलाई शुक्रवार को पार्थिव शरीर सुबह नौ बजे से 11:30 बजे के दर्शन के लिए रिज मैदान पर आम लोगों के बीच रखा जाएगा। उसके बाद पार्थिव शरीर एक बजे तक राजीव भवन कांग्रेस में दर्शन के लिए रखा जाएगा। दोपहर एक बजे पार्थिव शरीर को लेकर परिवार रामपुर के लिए रवाना होगा। शाम छह बजे पार्थिव शरीर को लेकर परिवार रामपुर पहुंचेगा। 10 जुलाई शनिवार को पदम पैलेस रामपुर में सुबह आठ से दोपहर दो बजे तक पार्थिव शरीर दर्शन के लिए रखा जाएगा। दोपहर तीन बजे रामपुर में अंतिम संस्कार होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में 43 नेताओं को शामिल किया गया है। इनके नाम हैं, नारायण राणे, सर्बानंद सोनोवाल, डॉ. वीरेंद्र कुमार, ज्योतिरादित्य सिंधिया, रामचंद्र प्रसाद सिंह, अश्विनी वैष्णव, पशुपति कुमार पारस, किरेन रिजिजू, राजकुमार सिंह, हरदीप सिंह पुरी, मनसुख मंडाविया, भूपेंदर यादव, परषोत्तम रुपाला, जी किशन रेड्डी, अनुराग सिंह ठाकुर, पंकज चौधरी, अनुप्रिया सिंह पटेल, सत्यपाल सिंह बघेल, राजीव चंद्रशेखर, शोभा करांडलाजे, भानु प्रताप सिंह वर्मा, दर्शना विक्रम जरदोश, मीनाक्षी लेखी, अन्नपूर्णा देवी, ए नारायणस्वामी, कौशल किशोर, अजय भट्ट, बीएल वर्मा, अजय कुमार, चौहान देवसिंह, भगवंत खुबा, कपिल मोरेश्वर पाटिल, प्रतिमा भौमिक, सुभाष सरकार, भागवत किशनराव कराड, राजकुमार रंजन सिंह, भारती प्रवीण पवार, बिश्वेश्वर तुडु, शांतनु ठाकुर, मुंजपारा महेंद्रभाई, जॉन बरला, डॉ. एल मुरुगन, नीशीथ प्रमाणिक।
साढ़े तीन साल का कार्यकाल और पांच उपचुनाव, जयराम सरकार को लगातार सियासी इम्तिहानों से गुजरना पड़ा रहा है। दो उपचुनाव हो चुके है और तीन जल्द होने है। अब तक हुए दो उपचुनाव में तो सरकार पास हुई है लेकिन अब शेष तीन उपचुनाव में कड़ा इम्तिहान तय है। वर्तमान में मंडी संसदीय क्षेत्र के साथ जुब्बल-काेटखाई और फतेहपुर विधानसभा सीट पर उपचुनाव हाेना है। जबकि इससे पहले यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में धर्मशाला और पच्छाद सीट पर उपचुनाव हुए थे। आगामी तीन उपचुनाव के लिए कांग्रेस और भाजपा दाेनाें राजनीतिक दलों में सियासी सरगर्मी चरम पर है। विशेषकर सत्तासीन पार्टी भाजपा ने तीनों सीटों पर कब्जा जमाने के मोर्चा संभाल लिया है, जबकि कांग्रेस ने भी कवायद शुरू कर दी है। बीते दिनों भाजपा ने धर्मशाला में दाे दिन तक बैठक कर फतेहपुर विधानसभा सीट पर जीत दर्ज करने को रणनीति बनाई है। फतेहपुर सीट पर भाजपा पिछले दो विधानसभा चुनाव और एक विधानसभा उपचुनाव हार चुकी है। यही कारण है कि भाजपा फतेहपुर में पूरी ताकत झोंकने जा रही है। धर्मशाला में दो दिवसीय कार्ययोजना की बैठक में विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव प्रभारी एवं उद्योग मंत्री बिक्रम ठाकुर सहित समन्वयक सतपाल सत्ती व प्रदेश भाजपा महामंत्री त्रिलोक कपूर द्वारा कार्यकर्ताओं से फीडबैक लिया गया। इसकी रिपोर्ट भी संगठन के वरिष्ठ नेतृत्व को बैठक के दौरान सौंपी गई। पार्टी ने तय किया है कि जो विकास कार्य फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र में चल रहे हैं उन्हें शीघ्र पूरा किया जाए, ताकि उपचुनाव के दौरान इन विकास कार्यों को जनता के बीच भुनाया भी जा सके। इसी तरह जुब्बल कोटखाई विधानसभा चुनाव का प्रभार शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज को दिया गया है। भाजपा किसी भी तरह इस सीट पर कब्ज़ा बरकरार रखना चाहती है, यही कारण है कि निरंतर राजधानी शिमला में मंथन चला हुआ है। यहाँ ये देखना भी दिलचस्प होगा कि क्या भाजपा स्व नरेंद्र बरागटा की राजनैतिक विरासत सँभालने के लिए उनके पुत्र चेतन बरागटा को टिकट देगी, या फिर कोई नया चेहरा सामने आता है। मंडी संसदीय उपचुनाव की बात करें तो इसके तहत 17 विधानसभा क्षेत्र आते है। बताया जा रहा है कि भाजपा कार्य योजना की बैठक में मंत्रियों, विधायकों सहित 2017 में उम्मीदवार रहे नेताओं को स्पष्ट निर्देश दिए गए है कि वे अभी से उपचुनाव को लेकर मैदान में डट जाएं। मंडी संसदीय उपचुनाव के लिए जल शक्ति मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर को प्रभारी बनाया गया है और महेंद्र सिंह बीते कुछ समय से निरंतर समस्त संसै क्षेत्र में प्रो एक्टिव दिख रहे है। काेट: फतेहपुर विधानसभा उपचुनाव को लेकर भाजपा पूरी तरह से गंभीर है, उपचुनाव में भाजपा जीत भी हासिल करेगी। विकास के मुद्दों को लेकर भाजपा चुनावी मैदान में उतरेगी, पार्टी द्वारा अपनी गतिविधियां भी यहां पर तेज की गई हैं। जयराम सरकार के विकास कार्यों पर जनता मुहर लगाएगी। -विक्रम ठाकुर, उद्याेग मंत्री एवं उपचुनाव प्रभारी फतेहपुर। काेट: जुब्बल-काेटखाई विधानसभा सीट पर हाेने वाले उपचुनाव के लिए भाजपा पूरी तरह से तैयार है, इस सीट काे फिर से पार्टी की झाेली में डालने के लिए कार्यकर्ता मेहनत कर रहे हैं। संगठन की ओर से दी गई ज़िम्मेदारियों को सभी बखूबी निभा रहे हैं। जीत भाजपा की ही हाेगी। -सुरेश भारद्वाज, शहरी विकास मंत्री एवं उपचुनाव प्रभारी जुब्बल-काेटखाई। काेट: मंडी लोकसभा क्षेत्र में भाजपा की ही जीत तय है, 2014 के लोकसभा चुनाव में जीत के बाद 2019 के चुनाव में संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले 17 विधानसभा क्षेत्रों के लाेगाें ने भाजपा पर ही भरोसा जताया है, भाजपा ने ही विकास कार्य किये है। उपचुनाव कभी भी हो उसमें भाजपा प्रत्याशी की ही जीत हाेगी। -महेंद्र सिंह ठाकुर, राजस्व मंत्री एवं उपचुनाव प्रभारी मंडी संसदीय सीट।
तीरथ सिंह रावत के इस्तीफे के बाद उत्तराखंड भाजपा विधायक दल की बैठक में भाजपा विधायक दल ने युवा नेता पुष्कर सिंह धामी को अपना नया नेता चुन लिया है। धामी उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री होंगे। धामी कुमाऊं क्षेत्र के उधम सिंह नगर जिले की खटीमा सीट से दो बार विधायक रह चुके हैं और उनकी उम्र मात्र 45 वर्ष है। पुष्कर के संघ से बेहद अच्छे रिश्ते है और पुष्कर सिंह धामी को केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह का करीबी माना जाता है। वह पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी भी रह चुके हैं। धामी युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं। उन्होंने एलएलबी की शिक्षा प्राप्त की है और 2017 के चुनाव में उन्होंने वकालत को अपना पेशा बताया था।
उत्तराखंड में मुख्यमंत्री ने एक बार फिर इस्तीफा दे दिया। बीते शुक्रवार शाम को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने अपना इस्तीफा राजयपाल को सौंपा। कांग्रेस ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद से तीरथ सिंह रावत के इस्तीफे के बाद शनिवार को भाजपा पर ‘सत्ता की बंदरबांट' करने का आरोप लगाया और दावा किया कि “खिलौनों की तरह मुख्यमंत्री बदलने” के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा जिम्मेदार हैं। पार्टी के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि अब उत्तराखंड की जनता चुनाव का इंतजार कर रही है ताकि वह स्थिर और प्रगतिशील सरकार के लिए कांग्रेस को मौका दे सके। उन्होंने दिल्ली, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में अतीत की भाजपा सरकारों में कई मुख्यमंत्रियों को बदलने जाने का उल्लेख करते हुए कहा, ‘‘भाजपा के एक ही कार्यकाल में मुख्यमंत्री बदलने का इतिहास है. भाजपा खिलौनों की तरह मुख्यमंत्री बदलती है. यही उत्तराखंड में हो रहा है.'' सुरजेवाला ने आरोप लगाया कि इस स्थिति के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जेपी नड्डा जिम्मेदार हैं। उन्होंने भाजपा पर तंज कसते हुए कहा, ‘‘भाजपा ने उत्तराखंड में पहले भी तीन-तीन मुख्यमंत्री बदले थे और इस बार भी तीसरा मुख्यमंत्री बनाने की तैयारी में हैं। हम तो कहेंगे कि अगले छह महीनों में दो-तीन और बदल दीजिए ताकि देश में सबसे ज्यादा मुख्यमंत्री बदलने का रिकॉर्ड बन जाए.'' इसके अलावा कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव ने आरोप लगाया की ‘‘यह भाजपा नेतृत्व की लापरवाही और नासमझी है। एक ऐसे मुख्यमंत्री को उत्तराखंड पर थोपा गया जो विधानसभा का सदस्य नहीं है। भाजपा ने खुशहाल देवभूमि को बदहाल करने के लिए यह सब किया है.'' गौरतलब है कि उत्तराखंड में पैदा हुए संवैधानिक संकट के बीच मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने चार माह से भी कम समय तक पद पर रहने के बाद शुक्रवार देर रात राज्यपाल बेबी रानी मौर्य को अपना इस्तीफा सौंप दिया। राजभवन पहुंचकर अपना इस्तीफा देने के बाद मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने पत्रकारों को बताया कि उनका इस्तीफा देने की मुख्य वजह संवैधानिक संकट था जिसमें निर्वाचन आयोग के लिए उपचुनाव कराना मुश्किल था। उन्होंने कहा,‘‘संवैधानिक संकट की परिस्थितियों को देखते हुए मैंने अपना इस्तीफा देना उचित समझा.''
1993 से 2003 तक अर्की में लगातार तीन चुनाव हारने के बाद भाजपा बैकफुट पर थी। अर्की कांग्रेस का वो किला था जिसे फतेह करना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती थी। तब 2007 के चुनाव में भाजपा ने एक कर्मचारी नेता गोविन्द राम शर्मा को आगे किया और करीब डेढ़ दशक बाद अर्की में कमल खिला। 2012 के विधानसभा चुनाव में भी गोविन्द राम शर्मा फिर एक बार जीत दर्ज करने में कामयाब रहे। पर इसके बाद 2017 में पार्टी ने सबको चौंकाते हुए गोविन्द राम शर्मा का टिकट काट कर रतन सिंह पाल को मैदान में उतारा और भाजपा अर्की का चुनाव हार गई। हालांकि हार के बावजूद रतन सिंह पाल के लिए ये चुनाव ठीक ही रहा क्यों कि अर्की से खुद वीरभद्र सिंह मैदान में थे और तब भी रतन पाल की हार का अंतर करीब 6 हज़ार वोट ही था। पर भाजपा के टिकट वितरण को लेकर तब खूब सवाल उठे। बताया जाता है तब बगावत साधने को पार्टी ने गोविन्द राम शर्मा को आश्वस्त किया था कि सरकार बनने की स्थिति में उन्हें किसी बोर्ड निगम में तैनाती मिलेगी। सरकार तो बनी लेकिन गोविन्द राम शर्मा को कोई उपयुक्त पद नहीं मिला, न सरकार में और न संगठन में। वही रतन सिंह पाल को हिमाचल प्रदेश कोआपरेटिव डेवलपमेंट फेडरेशन का चेयरमैन बनाया गया। रतन पाल को प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष का दायित्व भी मिला। गोविन्द राम शर्मा एक किस्म से साइडलाइन कर दिए गए। माना जाता है कि इसी वर्ष हुए स्थानीय निकाय चुनाव के टिकट वितरण में भी रतन सिंह पाल की खूब चली। जिला परिषद में पार्टी के कई दिग्गजों के टिकट कटे जिसका खामियाजा भाजपा ने भुगता। हालांकि अंत में इन्ही दिग्गजों के सहारे जिला परिषद् पर भाजपा का कब्ज़ा तो हो गया लेकिन रतन सिंह पाल की कार्यशैली को लेकर पार्टी के भीतर सवाल उठने लगे। वर्तमान में अर्की भाजपा में गुटबाजी चरम पर है। पार्टी के कई नेता रतन सिंह पाल के खिलाफ मोर्चा खोलते दिख रहे है। विशेषकर स्थानीय निकाय चुनाव में पार्टी समर्थित उम्मीदवारों के फीके प्रदर्शन ने रतन पाल की मजबूत होती जड़ों को कुछ हद तक हिला दिया है। दूसरी तरफ गोविन्द राम शर्मा एक्शन में है। गोविन्द राम एक किस्म से खुलकर रतन सिंह पाल के खिलाफ मोर्चा खोले हुए है । बताया जा रहा है कि उन्हें पार्टी के कुछ अन्य दिग्गजों का भी साथ मिला है। ऐसे में आगामी समय में अर्की भाजपा में खींचतान बढ़ना तय है। इस खींचतान के कीचड़ में 2022 में क्या कमल खिला पायेगा, ये फिलवक्त यक्ष प्रश्न है। तेजी से बदले अर्की के समीकरण बीत 6 माह में अर्की में तेजी से बदले राजनीतिक समीकरणों से भाजपा सकते में है। जिला परिषद चुनाव में पार्टी ने कुनिहार वार्ड से अमर सिंह ठाकुर और डुमहेर वार्ड से आशा परिहार को उम्मीदवार बनाने लायक नहीं समझा लेकिन जनता ने इन दोनों नेताओं को जीता कर भाजपा के रणनीतिकारों को आईना दिखा दिया। जैसे -तैसे पार्टी के बड़े नेताओं ने इन दोनों को मनाया ताकि जिला परिषद् पर पार्टी का कब्ज़ा हो सके। इसके उपरांत बीडीसी पर कांग्रेस ने कब्ज़ा कर भाजपा को एक और झटका दिया। अर्की नगर पंचायत चुनाव में भी भाजपा को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी थी। तब से अर्की भाजपा के लिए कुछ भी बेहतर होता नहीं दिखा रहा। नगीन चंद्र पाल और गोविंद राम ने ही खिलाया कमल 1980 में भारतीय जनता पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद से अब तक हुए 9 विधानसभा चुनाव में भाजपा ने चार बार जीत दर्ज की है। 1982 और 1990 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के नगीन चंद्र पाल ने जीत दर्ज की थी। जबकि 2007 और 2012 में गोविन्द राम शर्मा जीत दर्ज करने में कामयाब रहे। वर्ष विधायक पार्टी 1967: हीरा सिंह पाल आजाद 1972: हीरा सिंह पाल लोक राज पार्टी 1977: नगीन चंद्र पाल जनता पार्टी 1982: नगीन चंद्र पाल भारतीय जनता पार्टी 1985: हीरा सिंह पाल कांग्रेस 1990: नगीन चंद्र पाल भारतीय जनता पार्टी 1993: धर्मपाल ठाकुर कांग्रेस 1998: धर्मपाल ठाकुर कांग्रेस 2003: धर्म पाल ठाकुर कांग्रेस 2007: गोविन्द राम शर्मा भारतीय जनता पार्टी 2012: गोविन्द राम शर्मा भारतीय जनता पार्टी 2017: वीरभद्र सिंह कांग्रेस
कौल सिंह ठाकुर मंडी संसदीय क्षेत्र का उप चुनाव लड़ने से इंकार कर चुके है। वीरभद्र सिंह का परिवार उप चुनाव लड़ने में रूचि नहीं दिखा रहा। पार्टी टिकट पर पिछले चुनाव हार चुके आश्रय शर्मा भी उपचुनाव को लेकर ज्यादा उत्सुक नहीं दिख रहे। तो क्या कांग्रेस के दिग्गज अभी से पराजय स्वीकार कर चुके है ? या पार्टी के आदेश पर कोई बड़ा नाम उपचुनाव के सियासी चक्रव्यूह को भेदने के लिए चुनावी रणभूमि में उतरेगा। या फिर पार्टी इस उप चुनाव में किसी नए युवा चेहरे को अभिमन्यु बनाकर उतारेगी? अब कांग्रेस की ओर से इस सियासी रण में कोई अनुभवी 'अर्जुन' उतरेगा या युवा 'अभिमन्यु', विजय श्री मिलेगी या पराजय, इसे लेकर कयास लगने का सिलसिला शुरू हो चुका है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो मंडी संसदीय सीट से भाजपा ने पंडित रामस्वरूप का टिकट बरकरार रखा था। वहीं 2017 में कांग्रेस को झटका देकर भाजपा में आए पंडित सुखराम अपने पोते आश्रय को सांसद बना देखना चाहते थे। इसी अरमान के साथ दादा - पोता कांग्रेस में चले गए। कांग्रेस ने आश्रय को टिकट भी दे दिया, पर हुआ वहीँ जो तमाम राजनीतिक पंडित मानकर चल रहे थे। 4 लाख 5 हज़ार 459 वोट के अंतर से आश्रय बुरी तरह चुनाव हार गए। शायद भाजपा ने भी नहीं सोचा होगा कि उनकी जीत का अंतर इतना विशाल होगा। इस हार के बाद से ही मंडी में कांग्रेस कभी भी प्रभावशाली नहीं दिखी। कमोबेश ऐसा ही हाल आश्रय शर्मा का भी है। आश्रय अब तक स्थापित होने की जद्दोजहद में ही है, राजनीति में भी और पार्टी में भी। यूँ तो आश्रय को पीसीसी का महासचिव बनाया गया है, लेकिन मंडी कांग्रेस में ही उनकी स्वीकार्यता को लेकर संशय है। इसमें कोई शक- ओ -शुबह नहीं है कि कई दिग्गजों नेताओं के दबदबे के चलते वे कभी सहज हो ही नहीं पाएं। इस पर 2019 में मिली करारी हार की टीस अभी कम भी नहीं हुई और अनचाहा उपचुनाव सामने आ गया। अब संभवतः आश्रय पशोपेश में हो, यदि पार्टी आदेश देती है तो उन्हें चुनाव में उतरना पड़ेगा, पर यदि पार्टी के दिग्गजों का सहयोग न मिला तो नतीजा पहले से ही दिख रहा है। 2019 के लाेकसभा चुनाव पर नज़र डाले तो भाजपा ने कांग्रेस काे मंडी संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाली हर विधानसभा सीट पर पराजित किया था। उस चुनाव में रामस्वरूप शर्मा को 6 लाख 47 हजार 189 मत पड़े थे। जबकि कांग्रेस के आश्रय शर्मा को 2 लाख 41 हजार 730 मत मिले थे। यहां तक कि जिन विधानसभा क्षेत्राें में कांग्रेस के विधायक थे, वहां पर भी कांग्रेस के आश्रय काे बढ़त नहीं मिल पाई थी। यानी किन्नौर, कुल्लू और रामपुर विधानसभा क्षेत्राें में कांग्रेस के नुमाइंदे होने पर भी जनता ने कांग्रेस पर भरोसा नहीं जताया था। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली बढ़त विधानसभा क्षेत्र भाजपा को बढ़त पांगी-भरमौर 19726 लाहौल स्पीति 3962 मनाली 16863 कुल्लू 24385 बंजार 21973 आनी 24569 करसोग 26860 सुंदरनगर 23427 नाचन 26395 सराज 37147 द्रंग 25517 जोगिंद्रनगर 36292 मंडी 27491 बल्ह 33168 सरकाघाट 31021 रामपुर 11550 किन्नौर 7048 17 विधानसभा क्षेत्रों का बनेगा रिपोर्ट कार्ड मंडी संसदीय क्षेत्र में दरअसल 17 विधानसभा क्षेत्र आते है। जाहिर है ऐसे में दोनों मुख्य राजनीतिक दलों का सभी 17 विधानसभा क्षेत्रों में इम्तिहान होगा। ये हिमाचल की कुल 68 विधानसभा सीटों का 25 फीसदी है। ऐसे में 2022 से पहले मंडी संसदीय उपचुनाव में बेहतर करने का दबाव दोनों राजनीतिक दलों पर होगा। जीत मिले या हार, पर विश्लेषण सभी 17 विधानसभा क्षेत्रों का होना है। जाहिर है स्थानीय नेताओं पर भी बेहतर करने का दबाव रहेगा। फिलवक्त इन 17 विधानसभा क्षेत्रों में से सिर्फ किन्नौर, रामपुर और कुल्लू में ही कांग्रेस के विधायक है। 2022 के लिए कांग्रेसी की कितनी तैयारी है , इसकी झलक भी लोकसभा उपचुनाव में देखने को मिलेगी। चुनाव के बाद सभी सम्बंधित विधानसभा क्षेत्रों का रिपोर्ट कार्ड बनना भी तय है। पांच साल में दस गुना बढ़ा था हार का अंतर 2014 के लोकसभा चुनाव में मंडी संसदीय सीट से वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह कांग्रेस उम्मीदवार थी और उस चुनाव में उन्हें करीब 40 हज़ार वोटों से शिकस्त मिली थी। जबकि 2019 में आश्रय शर्मा 4 लाख से भी अधिक वोटों से हारे थे। यानी 2014 में जो अंतर करीब 40 हज़ार था वो पांच साल में 10 गुना बढ़कर करीब चार लाख हो गया। दिग्गज भी धराशाई हुए है मंडी में इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के आम चुनाव में इंदिरा विरोधी लहर में वीरभद्र सिंह मंडी से करीब 36 हज़ार वोट से चुनाव हार गए थे। 1989 में पंडित सुखराम करीब 28 हज़ार वोट से चुनाव हारे। उन्हें महेश्वर सिंह ने चुनाव हराया था। इसके बाद 1991 में महेश्वर सिंह को पंडित सुखराम ने परास्त किया। 1998 में महेश्वर सिंह ने प्रतिभा सिंह को चुनाव हराया। 1999 में महेश्वर ने कौल सिंह ठाकुर को हराया। महेश्वर सिंह इसके बाद 2004 में प्रतिभा सिंह से और 2009 में वीरभद्र सिंह के सामने चुनाव हार गए। वर्तमान में सूबे के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर 2013 के उप चुनाव में प्रतिभा सिंह से हारे । वहीं 2014 के आम चुनाव में प्रतिभा सिंह को रामस्वरूप शर्मा ने हराया। अजब -गजब राजनीति, मझधार में कांग्रेस वरिष्ठ नेता पंडित सुखराम पोते सहित कांग्रेस का हाथ थामे हुए है, तो उनके पुत्र अनिल शर्मा कहने को तो भाजपा के विधायक है लेकिन उनकी स्थिति किसी से छिपी नहीं है। पिता अनिल शर्मा भाजपा के लिए बेगाने है तो पुत्र आश्रय भी कांग्रेस में असहज दिखते है। माना जा रहा है कि 2022 चुनाव से पहले अनिल की कांग्रेस में घर वापसी होगी। पर तब तक पंडित सुखराम एंड फैमिली की इस अजब -गजब राजनीति के चलते कांग्रेस मझधार में अटकी है।
मंडी संसदीय सीट पर जीत बरकरार रखने के लिए अब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और सीएम जयराम ठाकुर की सियासी परीक्षा शुरू हाे गई है। हालांकि अभी उप चुनाव का शेड्यूल तैयार नहीं हुआ है, लेकिन उसके पहले भाजपा ने भीतर खाते प्रत्याशी पर मंथन शुरू कर दिया है। मंडी सीट से पूर्व सांसद स्व. रामस्वरूप शर्मा के निधन के बाद यहां अब उप चुनाव होना है। लगातार पिछले दो चुनावों में भाजपा की जीत हुई है ताे अब उसे कायम रखने के लिए दिल्ली से लेकर राजधानी शिमला तक भाजपा पूरी तरह से सक्रिय हाे चुकी है। यह सीट दाेनाें नेताओं के लिए साख का सवाल भी बन चुकी है। जगत प्रकाश नड्डा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, तो मंडी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का अपना गृह जिला है। जाहिर है ऐसे में उप चुनाव की ये सियासी परीक्षा किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है। बीते दिनों भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के दिल्ली स्थित सरकारी आवास में उपचुनाव पर रणनीति बनी। हालांकि अभी निर्वाचन आयोग की तरफ से उप चुनाव के लिए शेड्यूल जारी नहीं किया गया है, मगर प्रदेश भाजपा पहले ही अपनी तैयारियों में हैं। हाल ही में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर दिल्ली प्रवास पर निकले। इस दौरान हालांकि उन्होंने केंद्रीय मंत्रियों से तुफानी मुलाकात कर हिमाचल के हित एवं लंबित प्रोजेक्ट पर विस्तार से चर्चा की, लेकिन दूसरा मकसद मंडी संसदीय सीट, जुब्बल-कोटखाई और फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र में होने वाले उप चुनाव पर मंथन करना था। बताया जा रहा है कि सीएम जयराम ठाकुर और जेपी नड्डा की मुलाकात के समय तीनों उपचुनाव पर लंबी चर्चा की। जाहिर है टिकट मसले पर भी मंथन हुआ। मंडी संसदीय सीट से पूर्व सांसद एवं पूर्व विधायक और सैनिक कल्याण बाेर्ड के चेयरमैन ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर के नाम चर्चा मेँ है। साथ ही उड़ती -उड़ती खबर यह भी हैं कि सरकार में दाे मंत्रियाें में से किसी एक काे मंडी संसदीय सीट से उपचुनाव लड़वाने के लिए मनाया जा सकता है। मगर सरकार किसी मंत्री काे संसद पहुंचा कर उपचुनाव का रिस्क शायद ही ले। इनके अलावा कर्मचारी नेता एन आर ठाकुर व राजेश शर्मा, तथा त्रिलोक जम्वाल के नाम भी चर्चा में है। वहीँ स्व. रामस्वरूप शर्मा के पुत्र शांति स्वरूप भी अब टिकट के इच्छुक बताये जा रहे है। हालांकि वे राजनीति में सक्रिय नहीं है। 17 में से 13 विधानसभा क्षेत्र में बीजेपी, कांग्रेस 3 ताे 1 निर्दलीय विधायक मंडी संसदीय क्षेत्र के 17 विधानसभा क्षेत्रों पर गाैर करें ताे वर्तमान में 13 विधानसभा सीटों पर भाजपा, 3 पर कांग्रेस और एक सीट पर निर्दलीय विधायक हैं। यानी किन्नौर, कुल्लू और रामपुर सीट पर कांग्रेस, जबकि जोगिंदर नगर सीट पर निर्दलीय विराजमान हैं। शेष अन्य 13 सीटों पर भाजपा काबिज है। इस संसदीय क्षेत्र के पांच हलके बल्ह, नाचन, करसोग, आनी व रामपुर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। जबकि किन्नौर, लाहौल-स्पीति और भरमौर सीट एसटी के लिए आरक्षित हैं। मंडी का समीकरण, लगातार दो चुनाव जीतकर रामस्वरूप ने बनाया था रिकॉर्ड पहली बार 1952 के चुनाव में राजकुमारी अमृत कौर व गोपी राम निर्वाचित हुए थे, उस दौरान मंडी से दो सांसद चुने गए थे। इसके बाद मंडी रियासत के राजा जोगिंद्र सेन ने 1962 तक प्रतिनिधित्व किया। फिर सुकेत रियासत के राजा ललित सेन विजयी रहे थे। कांग्रेस ने फिर रामपुर रियासत के वीरभद्र सिंह को यहां से मैदान में उतारा। 1977 से 1979 की अवधि में जनता पार्टी के गंगा सिंह ने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। तब पहली बार यहां कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था। 1980 के चुनाव में फिर वीरभद्र सिंह विजयी हुए। 1985 में पंडित सुखराम संसद पहुंचे। 1989 के आम चुनाव में यहां से भाजपा ने कुल्लू के महेश्वर सिंह को मैदान में उतारा और लोकसभा में पहुंचे। 1991 के चुनाव में पंडित सुखराम ने फिर से जीत हासिल की। 1998 में महेश्वर सिंह ने कांग्रेस की प्रतिभा सिंह को पराजित किया था। 2004 में कांग्रेस की प्रतिभा सिंह ने महेश्वर सिंह को हराया। 2009 में वीरभद्र सिंह ने महेश्वर सिंह को हराया। 2013 के उपचुनाव में कांग्रेस की प्रतिभा सिंह विजयी रही। 2014 और 2019 के चुनाव में लगातार दो बार भाजपा के रामस्वरूप शर्मा विजयी रहे। अब उनके निधन से यहां उपचुनाव होना है। भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस काे भी उपचुनाव की घोषणा का इंतजार है। ये हैं मंडी संसदीय क्षेत्र के हमारे विधायक विस क्षेत्र विधायक पार्टी सराज जयराम ठाकुर बीजेपी धर्मपुर महेंद्र सिंह ठाकुर बीजेपी मंडी अनिल शर्मा बीजेपी सुंदरनगर राकेश जम्वाल बीजेपी द्रंग जवाहर ठाकुर बीजेपी बल्ह इंद्र सिंह गांधी बीजेपी सरकाघाट कर्नल इंद्र सिंह बीजेपी करसोग हीरालाल बीजेपी नाचन विनोद कुमार बीजेपी जोगिंदर नगर प्रकाश राणा निर्दलीय कुल्लू सुंदर सिंह ठाकुर कांग्रेस मनाली गाेविंद सिंह ठाकुर बीजेपी बंजार सुरेंद्र शौरी बीजेपी आनी किशोरी लाल बीजेपी लाहौल-स्पीति रामलाल मार्कंडेय बीजेपी भरमौर जिला लाल बीजेपी किन्नौर जगत सिंह नेगी कांग्रेस
शिमला में तीन दिन चले भाजपा के चिंतन और मंथन के बाद औपचारिक तौर पर ऐलान हो गया है कि पार्टी जयराम ठाकुर के चेहरे पर ही 2022 का चुनाव लड़ेगी। न सरकार का चेहरा बदलेगा और न ही संगठन का। अब तस्वीर साफ हाे चुकी है कि जयराम ठाकुर ही भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे और इसी के साथ नेतृत्व परिवर्तन के तमाम कयासों पर औपचारिक तौर पर विराम लगा दिया गया है। यूं तो बीते दिनों शिमला के लौटते ही मुख्यमंत्री ने दो टूक कह दिया था की वे है और रहेंगे, अब उनके इसी दावे पर तीन दिवसीय बैठक के बाद पार्टी ने भी मुहर लगा दी है। दरअसल, हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव में करीब डेढ़ साल का वक्त रह गया है। इसे देखते हुए भाजपा ने बीते दिनों शिमला में लगातार 3 दिनों तक बैठक की। सरकार, कोर कमेटी और संगठन के मध्य हुए गहन मंथन के बाद ये तय हो गया है कि आगामी चुनाव में सीएम जयराम ठाकुर ही भाजपा के फेस होंगे। राज्य अतिथि गृह यानी होटल पीटरहॉफ में कोर कमेटी, कार्य योजना सहित हर मोर्चे ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर पर अगली बार के लिए भी भरोसा जताया। इस दौरान विधायकों, 2017 के चुनावी मैदान में उतरे प्रत्याशियों, बोर्ड और निगम के नुमाइंदों, और संगठन पदाधिकारियों ने पार्टी को मजबूत करने और मिशन रिपीट को साकार करने के लिए इनपुट दिया। तीन दिवसीय इस चिंतन -मंथन में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर सहित 2017 के सभी प्रत्याशी एवं विधायकों ने अपना रिपोर्ट कार्ड संगठन को सौंपा है और उसमें अपनी 3 वर्ष की उपलब्धियों एवं विकास कार्यों का वर्णन किया है। साथ ही सभी ने अपने विधानसभा क्षेत्र की कमियां भी सरकार के समक्ष रखी हैं, ताकि उन्हें दूर कर मिशन रिपीट को मजबूती दी जा सके। बहरहाल, अगले साल चुनाव तक सरकार और संगठन में कोई बदलाव नहीं हाेगा। जयराम ठाकुर के फेस पर ही पार्टी मैदान में उतरेंगी। फिलहाल उपचुनाव में 'लोटस' खिलाने पर 'फोकस' अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा को तीन उपचुनावों के इम्तिहान से गुजरना होगा। 17 विधानसभा क्षेत्रों वाले मंडी संसदीय क्षेत्र के साथ जुब्बल-कोटखाई तथा फतेहपुर विधानसभा में उपचुनाव होना है। यानी अप्रत्यक्ष तौर पर 19 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान होगा। इस परीक्षा के लिए भाजपा ने मंत्री, विधायकों सहित पदाधिकारियों के दायित्व निर्धारित कर मोर्चा संभाल लिया है। मंडी संसदीय क्षेत्र का दारोमदार जलशक्ति मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर के पास रहेगा। जबकि फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र में उद्योग मंत्री बिक्रम सिंह और जुब्बल-कोटखाई विधानसभा उपचुनाव के लिए शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज काे प्रभार सौंपा गया है। महेंद्र सिंह ठाकुर काे चुनाव प्रभारी नियुक्त किए जाने के बाद यह लगभग साफ है कि उन्हें मंडी लोकसभा सीट से उपचुनाव के लिए मैदान में नहीं उतारा जाएगा। धूमल हुए शामिल, शांता को स्वास्थ्य ने रखा दूर शिमला में संपन्न हुई बैठकों में पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल भी मौजूद रहे। धूमल पर सबकी निगाहें टिकी थी। 2017 का चुनाव हारने के बावजूद धूमल संगठन की हरेक गतिविधि में सक्रियता से भाग लेते रहे है। चाहे 2019 का लोकसभा चुनाव हो या फिर पंचायती राज चुनाव, धूमल ने हमेशा उपस्थिति दर्ज करवाई है। दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार चिंतन बैठक में शामिल नहीं हाे सके। इसके पीछे उनका स्वास्थ्य ठीक न हाेना बताया जा रहा है। उधर, भाजपा ने संगठनात्मक ज़िलाें में मंत्रियाें काे प्रभारी नियुक्त किया है। जयराम ठाकुर का राजनीतिक सफर 1986 में एबीवीपी की प्रदेश इकाई में संयुक्त सचिव बने 1993 के विधानसभा चुनाव में पहली बार चच्चोट हलके से मैदान में उतरे और कांग्रेस दिग्गज मोतीराम ठाकुर को टक्कर दी लेकिन चुनाव हार गए। 1989 से 93 तक एबीवीपीली की जम्मू- कश्मीर इकाई में संगठन सचिव रहे। 1993 से 95 तक भारतीय जनता युवा मोर्चा के प्रदेश सचिव व प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। 1998 में फिर इसी हलके से मैदान में उतरे और विधायक चुने गए और खाद्य एवं आपूर्ति निगम के उपाध्यक्ष बने। 2003 के चुनाव में दूसरी बार जीत हासिल की। 2000 से 2003 तक वह मंडी जिला भाजपा अध्यक्ष रहे। 2004 से 2005 तक भारतीय जनता पाटी के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे। 2006 में प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बने। 2007 में बतौर अध्यक्ष पाटी को सत्ता दिलाई 2007 जीत की हैट्रिक बनाई और सरकार में मंत्री बने। 2012 में पुर्नसीमांकन के बाद चव्योट हलके का नाम बदल कर सराज यहां से चौथी बार विधायक चुने गए। 2017 में कांग्रेस के चैत राम को 11254 से पराजित किया। इसके बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
नगर निगम के जख्म अभी ताजा है और दस्तक दे रहे है उपचुनाव। दो विधानसभा और एक लोकसभा सीट के उपचुनाव ने जयराम सरकार के सामने अनचाही चुनौती खड़ी कर दी है। सरकार को इस लिटमस टेस्ट से गुजरना भी होगा और उठती हुई आवाज़ों को दबाएं रखने के लिए इस पर खरा भी उतरना होगा। लोकप्रियता की शुद्धता में कमी दिखी तो दोतरफा हमला तय है, विपक्ष का हौंसला तो बढ़ेगा ही भीतर से उठ रही आवाज़ें भी बुलंद होंगी। साथ ही 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले जनता के बीच भी सरकार के खिलाफ माहौल बनने का खतरा बढ़ेगा। 1993 से वीरभद्र सिंह और प्रेमकुमार धूमल के बीच स्थान्तरित होती रही हिमाचल की सत्ता में 2017 चुनाव में बड़ा ट्विस्ट आया, जब भाजपा के सीएम फेस प्रेम कुमार धूमल खुद चित हो गए। बतौर सीएम एंट्री हुई मिस्टर क्लीन एंड कूल जयराम ठाकुर की। तब से अब तक जयराम विरोधी उन्हें सेट करने का मौका तलाशते दिखे है, पर हर मौके पर जयराम ठाकुर बचते रहे है। उनके कार्यकाल में पहले भाजपा ने लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप किया, फिर पच्छाद और धर्मशाला में हुए उपचुनाव में शानदार जीत दर्ज की। इसके बाद इसी साल जनवरी में हुए पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में भी भाजपा का प्रदर्शन बेहतर रहा। पर इस जीत के उत्साह में सरकार ने पार्टी सिंबल पर नगर निगम चुनाव करवाने की सियासी भूल कर दी। भूल हुई तो खामियाजा भी भुगतना ही था, नगर निगम चुनाव में कांग्रेस भाजपा से इक्कीस साबित हुई। इस आंशिक जीत से जहां कांग्रेस में जान फूंक गई, वहीं जयराम विरोधियों को भी मौका मिल गया। दरअसल, नगर निगम चुनाव में खुद सीएम जयराम ठाकुर ने वार्ड -वार्ड घूमकर प्रचार किया था, पर नतीजा सिफर रहा। ऐसे सीएम की लोकप्रियता को लेकर सवालों के बाण तो चलने ही थे। साथ ही जयराम ठाकुर की निर्णय लेने की क्षमता को लेकर भी उन पर हमले होते रहे। हालाँकि जयराम ठाकुर की क्लीन इमेज का कवच उन्हें अब तक ऐसे सियासी बाणों से बचाता रहा है, पर निसंदेह आगामी उपचुनाव जयराम सरकार का अब तक का सबसे बड़ा इम्तिहान लेंगे। जयराम और अनुराग : झलकियों में दिखती तल्खियां जयराम कैबिनेट में धूमल गुट के कई बड़े चेहरों को जगह नहीं मिली। फिर निगम और बोर्डों की नियुक्ति में भी धूमल गुट हाशिये पर ही दिखा। बदलती सियासत में कुछ नेताओं ने तो निष्ठा बदल ली लेकिन अधिकांश तटस्थ रहे। जाहिर है इन तमाम नेताओं -कार्यकर्ताओं की निष्ठा पूर्व मुख्यमंत्री के लिए बरकरार है। हालाँकि, इस बीच खुद प्रो प्रेम कुमार धूमल शांत और सहज रहे है और उन्होंने कभी भी ऐसा कोई ब्यान नहीं दिया जिससे पार्टी या सरकार असहज हो, पर उनकी ताकत हमेशा दिखी। इस बीच उनके पुत्र अनुराग ठाकुर का कद भी केंद्र की सियासत में बढ़ता रहा। अनुराग केंद्र में मंत्री बन गए और उनके इस सियासी उदय ने धूमल गुट के निष्ठवानों की आस प्रबल कर दी। समर्थकों को अनुराग में भावी सीएम दिखने लगा। इस दरमियान कई मौके ऐसे भी आये जहां अनुराग ठाकुर और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के बीच की दूरी स्पष्ट दिखी। पहले डॉ राजीव बिंदल की बतौर प्रदेश अध्यक्ष ताजपोशी में सीएम हाथ बढ़ाते रह गए और जाने -अनजाने अनुराग आगे बढ़ गए। इसके बाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी धर्मशाला के मुद्दे पर एक समारोह में अनुराग ने खुलकर प्रदेश सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाये। यानी झलकियों में तल्खियां दिखती आ रही है। हवा - हवाई नहीं है सीएम के तेवर हिमाचल में सीएम फेस बदलने को लेकर तरह -तरह की चर्चाएं होती रही है। पिछले दिनों जब उत्तराखंड में सीएम बदले गए तो इन चर्चाओं ने और जोर पकड़ लिया। हालाँकि फिलवक्त इनका कोई ठोस आधार नहीं दिखता। बीते दिनों जब सीएम जयराम ठाकुर दिल्ली गए तो फिर दबी जुबान ऐसी बातें होने लगी। पर वापस लौटते ही सीएम ने दो टूक कह दिया कि 'मैं यहाँ हूँ और 2022 में भी रहूंगा।' सीएम इस तरह कम ही तेवर दिखाते है, अब दिखाया है तो जाहिर है वे आश्वस्त है। वैसे भी वर्तमान स्थिति में इस बात में कोई शक -और- शुबह नहीं है कि सीएम जयराम ठाकुर की कुर्सी इस कार्यकाल में सेफ है। उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का भी आशीर्वाद मिला हुआ है। 2017 में भी नड्डा के समर्थन से ही बतौर सीएम उनकी राह प्रशस्त हुई थी। ऐसे में वर्तमान राजनीतिक परिवेश में तो उन्हें बदले जाने के कोई आसार नहीं दिखते। बाकी राजनीति में हाल और हालात बदलते देर नहीं लगती। संगठन में भी 'जयराम' की ही 'जय' 2017 में सत्ता वापसी के बाद से अब तक तीन नेता प्रदेश भाजपा की सरदारी संभाल चुके है। सतपाल सिंह सत्ती का कार्यकाल 2019 में पूरा हुआ और उसके बाद जैसे - तैसे माननीय विधानसभा अध्यक्ष बनकर बैठे डॉ राजीव बिंदल प्रदेश अध्यक्ष बनने में कामयाब हुए। कमान सँभालते ही बिंदल एक्शन में आये और पुरे प्रदेश में उन्होंने अपनी टीम तैनात कर दी। पर बिंदल का विवादों से गहरा नाता है। कोरोना काल में स्वास्थ्य घोटाले में भी उनका नाम उछला और बिंदल को इस्तीफा देना पड़ा। बाद में क्लीन चिट जरूर मिली लेकिन बिंदल पूरी तरह साइडलाइन कर दिए गए और अब भी हाशिए पर ही है। बिंदल के बाद इंदु गोस्वामी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की खूब चर्चाएं रही। माना जाता है उनका नाम लगभग तय था लेकिन अंत में कमान मिली सांसद सुरेश कश्यप को। माहिर अब भी मानते है कि सुरेश कश्यप की नियुक्ति जयराम ठाकुर का मास्टर स्ट्रोक था। अब सरकार के साथ -साथ संगठन में भी जयराम ठाकुर की पकड़ है।
हिमाचल प्रदेश में एक लोकसभा सीट और दो विधानसभा सीटों के लिए उप चुनाव होने है। मंडी संसदीय क्षेत्र के सांसद रामस्वरूप शर्मा के निधन के बाद वहां लोकसभा का उपचुनाव होना है। वहीँ फतेहपुर विधायक सुजान सिंह पठानिया और जुब्बल कोटखाई के विधायक नरेंद्र बरागटा के निधन के बाद दोनों सीटें रिक्त हुई है। मंडी लोकसभा सीट और जुब्बल कोटखाई विधानसभा सीट पर जहाँ भाजपा का कब्ज़ा था वहीँ सुजानपुर विधानसभा सीट पर कांग्रेस काबिज थी। निर्वाचन आयोग द्वारा फिलहाल उप चुनाव के लिए तिथि घोषित नहीं की गई है लेकिन माना जा रहा है यदि कोरोना संक्रमण की दर में गिरावट जारी रही तो जल्द इसकी घोषणा हो सकती है। 2022 से पहले ये दोनों प्रमुख राजैनतिक दलों के लिए बड़ा इम्तिहान होगा, विशेषकर मिशन रिपीट के दावे कर रही सत्तारूढ़ भाजपा के लिए यहाँ बेहतर करने का दबाव रहेगा। मंडी में राजनीति कभी ठंडी नहीं होती। अभी उप चुनाव का शेड्यूल भी तैयार नहीं हुआ है, लेकिन मंडी संसदीय उप चुनाव के लिए भाजपा ने भीतर खाते प्रत्याशी पर मंथन शुरू कर दिया है। जाहिर है लोकसभा का चुनाव है तो साख प्रदेश ही नहीं केंद्र सरकार की भी दांव पर है। मंडी सीट से पूर्व सांसद स्व. रामस्वरूप शर्मा लगातार दो चुनाव जीते थे, अब जीत के सिलसिले को कायम रखने के लिए राजधानी शिमला से लेकर दिल्ली तक तक भाजपा पूरी तरह से सक्रिय हाे चुकी है। यह सीट विशेषकर दो नेताओं के लिए प्रतिष्ठता का सवाल बन चुकी है। पहले है जगत प्रकाश नड्डा पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और उनके प्रदेश में लोकसभा उपचुनाव में मनमाफिक नतीजे नहीं आये तो सवाल उठना लाज़मी है। दूसरे है मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, मंडी जिनका अपना गृह जिला है। जाहिर है ऐसे में उप चुनाव की ये सियासी परीक्षा किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है। बीते दिनों सीएम जयराम ठाकुर के दिल्ली दौरे के दौरान भी भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के दिल्ली स्थित सरकारी आवास में उपचुनाव पर रणनीति बनी है। बताया जा रहा है कि इस बैठक में टिकट के मसले पर भी गहन मंथन हुआ है। मंडी संसदीय सीट से पूर्व सांसद एवं पूर्व विधायक महेश्वर सिंह और सैनिक कल्याण बाेर्ड के चेयरमैन ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर के नाम चर्चा मेँ है। साथ ही उड़ती -उड़ती खबर यह भी हैं कि सरकार के दाे मंत्रियाें में से किसी एक काे मंडी संसदीय सीट से उपचुनाव लड़वाने के लिए मनाया जा सकता है, विशेषकर महेंद्र सिंह ठाकुर को। मगर इसके आसार कम ही लगते है। दरअसल ऐसा करने पर जीत की स्थिति में सरकार काे एक और विधानसभा उपचुनाव से गुजरना पड़ सकता है। फिलहाल 2022 के चुनाव के लिए अब मात्र डेढ़ साल का समय रह गया है, ऐसे में सरकार किसी मंत्री काे संसद पहुंचा कर उपचुनाव का रिस्क शायद ही ले। ऐसा निर्णय लेना भाजपा के लिए बेहद मुश्किल होगा, बाकी सियासत में सब संभव है। इनके अलावा कर्मचारी नेता एन आर ठाकुर व राजेश शर्मा, प्रवीण शर्मा तथा त्रिलोक जम्वाल के नाम भी चर्चा में है। मंडी संसदीय सीट में 17 विधानसभा क्षेत्र मंडी संसदीय क्षेत्र के 17 विधानसभा क्षेत्रों पर गाैर करें ताे वर्तमान में 13 विधानसभा सीटों पर भाजपा, 3 पर कांग्रेस और एक सीट पर निर्दलीय विधाय हैं। किन्नौर, कुल्लू और रामपुर सीट पर कांग्रेस, जबकि जोगिंदर नगर सीट पर निर्दलीय विराजमान हैं। शेष अन्य 13 सीटों पर भाजपा काबिज है। इस संसदीय क्षेत्र के पांच हलके बल्ह, नाचन, करसोग, आनी व रामपुर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। जबकि किन्नौर, लाहौल-स्पीति और भरमौर सीट एसटी के लिए आरक्षित हैं। क्या नरेंद्र बरागटा की विरासत के सहारे होगा होगा जीत का बंदोबस्त जिला शिमला की जुब्बल-कोटखाई विधानसभा सीट काे बरकरार रखने के लिए प्रदेश भाजपा हर संभव प्रयास करेगी। जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र से भाजपा विधायक एवं मुख्य सचेतक नरेंद्र बरागटा का निधन बीते 5 जून काे हुआ। ऐसे में अब यहां उपचुनाव तय है। जुब्बल-कोटखाई विधानसभा सीट की बात करें ताे नरेंद्र सिंह बरागटा के निधन के बाद कई नेताओं की निगाहें उपचुनाव टिकट पर टिकी हुई है, मगर संभावित है भाजपा स्व. बरागटा के बेटे चेतन बरागटा काे मैदान में उतारें। चेतन वर्तमान में भाजपा आईटी सेल के प्रमुख भी हैं। पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल के रहते इस सीट पर कभी भाजपा को सफलता नहीं मिली थी लेकिन उनके निधन के बाद नरेंद्र बरागटा ने यहाँ पहली बार 2007 में कमल खिलाया था। ऐसे में चेतन को टिकट देकर भाजपा नरेंद्र बरागटा की राजनैतिक विरासत के सहारे उप चुनाव फ़तेह करना चाहेगी। चेतन को टिकट मिलने की स्तिथि में भाजपा को वोटर्स की सहानुभूति की आस भी रहेगी। हालांकि दौड़ में नीलम सरकईक का नाम भी है जिनका क्षेत्र में अच्छा जनाधार है। नीलम सरकईक आलाकमान की गुड बुक्स में है और जयराम गुट की मानी जाती है। ऐसे में ये देखना रोचक होगा कि सहानुभूति फैक्टर को तवज्जो देकर भाजपा चेतन बरागटा पर भरोसा जताती है या नीलम को मौका मिलेगा। वहीं कांग्रेस की ओर से पूर्व मुख्य संसदीय सचिव रोहित ठाकुर ही उपचुनाव में उतर सकते हैं। जाहिर है रोहित के मैदान में होने से ये मुकाबला भाजपा के लिए आसान नहीं होने वाला। 2003 से सत्ता के साथ जुब्बल-कोटखाई जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र की जनता 2003 से ही सत्ता के साथ चलती आ रही है। वर्तमान में भाजपा की सरकार है ताे भाजपा के नरेंद्र बरागटा जीते, 2012 में कांग्रेस की सरकार में कांग्रेस के रोहित ठाकुर और उससे पहले 2007 में भाजपा की सरकार थी ताे भाजपा के नरेंद्र बरागटा जीते थे। इसी तरह 2003 के चुनाव में रोहित ठाकुर को जनता का आशीर्वाद मिला था। फतेहपुर जीता तो बड़े-बड़ों को मानना पड़ेगा दमखम फतेहपुर विधानसभा उप चुनाव का नतीजा 15 सीट वाले जिला कांगड़ा की सियासी आबोहवा को रुख दे सकता है। कांगड़ा जीते बिना मिशन रिपीट संभव नहीं है, ऐसे में सत्ता पक्ष पर फतेहपुर उप चुनाव में बेहतर करने का दबाव है। कोरोना की दूसरी लहर के तीव्र होने से पहले ही सरकार और संगठन दोनों फतेहपुर में प्रो एक्टिव थे। खुद मुख्यमंत्री सहित बड़े नेता फतेहपुर के दौरे कर रहे थे। जाहिर है ये उप चुनाव बेहद ख़ास है। दरअसल, यहाँ जीत मिल गई तो सरकार का दमखम बड़े -बड़ों को मानना पड़ेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि 2009 के उपचुनाव सहित भाजपा फतेहपुर में तीन चुनाव हार चुकी है। फतेहपुर उपचुनाव में भाजपा के फेस को लेकर भी संशय की स्थिति है। 2017 में पूर्व राज्यसभा सांसद कृपाल परमार भाजपा के प्रत्याशी थे तो 2012 में भाजपा ने बलदेव ठाकुर को टिकट दिया था। 2017 के चुनाव में बलदेव ने बतौर बागी चुनाव लड़ा और 13 हज़ार से अधिक वोट लेकर भाजपा का खेल बिगाड़ दिया। अब उपचुनाव में टिकट का फैसला फिर भाजपा के लिए कठिन होने वाला है। टिकट की दौड़ में एक अधिकारी भी बताएं जा रहे है। शायद भाजपा के तरकश में न रहे वंशवाद का तीर फतेहपुर उपचुनाव में कांग्रेस दोराहे पर थी। स्व. सुजान सिंह पठानिया के पुत्र भवानी को टिकट देने की स्थिति में वंशवाद के नाम पर हल्ला मचना लाज़मी था और टिकट परिवार से बाहर जाता तो सहानुभूति कम होती। निसंदेह भवानी को टिकट देने की स्तिथि में भाजपा वंशवाद पर कांग्रेस को घेरती। पर अब सम्भवतः भाजपा के तरकश में ये तीर न रहे क्यों कि खुद भाजपा जुब्बल कोटखाई में स्व नरेंद्र बरागटा के पुत्र चेतन बरागटा को टिकट दे सकती है।
देश की सबसे पुरानी पोलिटिकल पार्टी कांग्रेस कई बार टूट कर कमजोर होती रही है। आजादी से पहले ही कांग्रेस दो बार टूट चुकी थी। 1923 में सीआर दास और मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी का गठन किया था। फिर 1939 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने सार्दुलसिंह और शील भद्र के साथ मिलकर अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक का निर्माण किया। आजादी के बाद भी सिलसिला बरक़रार रहा और कांग्रेस से टूटकर 50 से ज्यादा राजनैतिक दल बने। कुछ का अस्तित्व है तो कुछ खत्म हो चुके है। कांग्रेस को 1951 में बड़ी टूट का सामना करना पड़ा, जब जेबी कृपलानी ने अलग होकर किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनाई। इसी तरह एनजी रंगा ने हैदराबाद स्टेट प्रजा पार्टी बनाई। सौराष्ट्र खेदुत संघ भी इसी साल बनी। फिर 1956 में पार्टी को बड़ा झटका लगा और सी. राजगोपालाचारी ने अलग होकर इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी बनाई। इसके बाद बिहार, राजस्थान, गुजरात , ओडिशा, केरल सहित कई राज्यों में कांग्रेस टूट गई। फिर 1967 में किसान नेता चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर भारतीय क्रांति दल बनाया। बाद में उन्होंने लोकदल के नाम से पार्टी बनाई। चौधरी चरण सिंह भारत के प्रधानमंत्री भी बने। पार्टी से टूटने वाले नेताओं और उनके द्वारा बनाई गई पार्टियों की फेहरिस्त काफी लंबी है। कांग्रेस की सबसे मजबूत नेता माने जाने वाली इंदिरा गाँधी के दौर में भी पार्टी की टूट जारी रही। पार्टी की अंतर्कलह के चलते 12 नवंबर, 1969 को कांग्रेस ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से बर्खास्त कर दिया। उस समय इंदिरा ने कांग्रेस (आर) नाम से एक नई पार्टी बनाई, जिसका चुनाव चिन्ह 'गाय और बछड़ा' था। बाद में कांग्रेस (आर) कांग्रेस (आई) हुई और कालांतर यही कांग्रेस आईएनसी यानी इंडियन नेशनल कांग्रेस हो गई। इंदिरा के दौर में इंदिरा और संजय गाँधी की कार्यशैली से खफा कई नेताओं ने अलग पार्टियां बनाई। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनकी ही सरकार में रक्षा मंत्री रहे वीपी सिंह ने बगावत का झंडा बुलंद किया। वीपी सिंह कांग्रेस से बाहर निकलकर जनमोर्चा नाम से नया दल बनाया और बोफोर्स मुद्दे के सहारे वे भाजपा और वामपंथी दलों की बैसाखी के सहारे प्रधानमंत्री भी बने। बाद में इसी जनमोर्चा से टूटकर जनता दल, जनता दल (यू), राजद, जद (एस), सपा आदि कई दल बने। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस, महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार), छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की जनता कांग्रेस भी पार्टी से टूटकर ही बने। ओडिशा में सत्तासीन बीजू जनता दल भी एक तरह से कांग्रेस की टूट का ही नतीजा है। पार्टी के संस्थापक बीजू पटनायक पहले कांग्रेस में थे, फिर जनता दल में शामिल हुए बाद में ओडिशा में बीजद नाम से दल बना। इसके अलावा भी कई प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस से टुकर बने है।
दुनिया पर कोरोना वायरस का संकट छाया है और कांग्रेस 'छोड़ो ना' वायरस से संक्रमित है। ये वायरस पार्टी के भीतर इस कदर घर कर गया है कि पार्टी खाली और खोखली होती जा रही है। हिमाचल जैसे कुछ राज्यों को छोड़ दे तो देश के अधिकांश राज्यों में न सिर्फ नेता पार्टी का साथ छोड़ रहे है बल्कि वोटर के लिए भी पार्टी अछूत सी होती जा रही है। उत्तर प्रदेश में पार्टी के वरिष्ठ नेता जितिन प्रसाद सबसे ताजा उदहारण है। गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल जैसे नेता पार्टी की नीतियों और नेतृत्व को लेकर मुखर हो रहे हैं। हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की घोर फजीहत हुई है। पश्चिम बंगाल में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुला। कांग्रेस की इस दुर्गति का प्रमुख कारण है कमजोर संगठन, पर जब नेतृत्व ही नहीं है तो संगठन कैसे मजबूत होगा। 3 जुलाई 2019 को राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था, उसके बाद से करीब दो वर्ष बीत चुके है पर कांग्रेस अध्यक्ष तक नहीं चुन सकी। तब से सोनिया गांधी ही अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई है। वर्तमान में जिस दौर से पार्टी गुजर रही है ,पार्टी की ऐसी दुर्दशा भी यकीनन इससे पहले नहीं हुई। जिस तरह कांग्रेस का पतन हो रहा है, उस लिहाज से पार्टी के भविष्य पर ही सवाल उठ रहे है। पुरे देश की कांग्रेस वेंटीलेटर पर नज़र आ रही है। इसमें भी कोई संशय नहीं है कि कांग्रेस में इंटरनल डेमोक्रेसी खत्म सी हो चुकी है। कोई आवाज़ उठाये तो पार्टी में उसका रहना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में आलाकमान से असंतुष्ट नेता एक -एक करके पार्टी से अपनी राह अलग कर रहे है। शायद नेतृत्व परिवर्तन हो तो इस बीमारी से पार्टी को ईजाद मिल जाए लेकिन मानो कांग्रेस खुद ही भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना पूरा करने का संकल्प लिया हो। 135 साल के पार्टी के इतिहास पर गौर करें तो अधिकांश वक्त पार्टी की कमान नेहरू - गाँधी परिवार के हाथ में रही है।1919 में पहली बार मोतीलाल नेहरू पार्टी के अध्यक्ष बने थे, तब से अब तक शायद ही ऐसा कोई दौर आया हो जब कांग्रेस पूरी तरह नेहरू -गाँधी परिवार के वर्चस्व से बाहर निकली हो। पर कहते है समय बड़ा बलवान है। वर्ष 1919 में मोतीलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे और अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि इसके ठीक सौ साल बाद 2019 में उनके वंशज राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा। इन सौ सालों में लगभग 42 वर्ष तक गांधी नेहरू परिवार ने ही कांग्रेस की सरदारी संभाली है और राहुल गाँधी एक अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद अंतरिम अध्यक्ष भी गांधी नेहरू परिवार से ही है। यदि आज़ादी के बाद के 72 वर्षों की बात करें तो इनमें से 37 वर्ष तक गांधी -नेहरू परिवार को ही को सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष रहा है। इतना ही नहीं इस दौरान करीब 38 वर्ष तक नेहरू- गांधी परिवार के सदस्यों ने बतौर प्रधानमंत्री देश की भागदौड़ संभाली है। देश को तीन प्रधानमंत्री देने वाला ये परिवार बीते पांच साल में सबसे बुरे राजनैतिक अनुभव से गुजरा है। लोकसभा चुनाव में पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी उन परिवार का गढ़ माने जाने वाली अमेठी सीट भी नहीं बचा पाए। यहीं कारण है राहुल को अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा और अब पार्टी के भीतर बगावत के सुर उठने लगे है। 2014 से पहले कई दिग्गजों ने छोड़ी थी पार्टी करीब ढाई दशक पहले जब कांग्रेस अपने बुरे दौर से गुजर रही थी तो कमान सोनिया के हाथ में आई। पर तब पार्टी में विद्रोह हो गया। उस दौर में कई दिग्गज पार्टी को अलविदा कह गए जिसका खामियाजा अब तक कांग्रेस भुगत रही है। इनमें शरद पवार भी शामिल थे। खेर सोनिया और नेहरू गांधी परिवार का जादू चला और पार्टी ने दस वर्ष सत्ता का सुख भी भोगा लेकिन संगठनात्मक तौर पर पार्टी दिन ब दिन बिखरती रही। पर कांग्रेस की असली दुर्दशा शुरू हुई 2013 के बाद से। तब चौधरी वीरेंद्र सिंह, राव इंद्रजीत सिंह, रीता बहुगुणा जोशी, जगदम्बिका पाल सहित कई बड़े नाम कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए। इतना ही नहीं पार्टी जगनमोहन रेड्डी और चंद्रशेखर राव को भी साथ रखने में नाकामयाब सिद्ध हुई। आज जगमोहन आंध्र प्रदेश की सत्ता पर काबिज है तो चंद्रशेखर राव 2014 से तेलंगाना के मुख्यमंत्री है। इन गलतियों से भी पार्टी ने सबक नहीं लिया। हालांकि इस बीच पार्टी की कमान युवा राहुल गांधी के हाथ में भी आई, लेकिन बतौर अध्यक्ष राहुल पूरी तरह विफल रहे। कांग्रेस को नेतागिरी की ज़रूरत थी, लेकिन राहुल के दौर में चमचागिरी हावी रही। बहरहाल पार्टी की कमान फिर उनकी मां सोनिया गांधी के पास है, पर बदला कुछ नहीं है। गोवा और अरुणाचल ने जीतकर भी नहीं बनी थी सरकार कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व पार्टी के इतिहास का सबसे कमजोर नेतृत्व दिख रहा है। इसका उदहारण है गोवा और अरुणाचल प्रदेश, जहाँ कांग्रेस चुनाव भी जीती लेकिन सरकार बनी भाजपा की। ऐसा मज़ाक पार्टी का शायद ही कभी उड़ा हो। फिर गांधी परिवार के ख़ास माने जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस से रुक्सत कर गए और मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार भी ढेर हो गई। बावजूद इसके पार्टी सबक लेती नहीं दिख रही। पंजाब और राजस्थान में भी घमासान वर्तमान में देश के तीन राज्यों में कांग्रेस के मुख्यमंत्री है, राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़। इनमें से राजस्थान और पंजाब में खींचतान कभी भी पार्टी को भारी पड़ सकती है। पंजाब में सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच की अंतर्कलह अब खुलकर सामने आ गई है। अगले साल शुरू में चुनाव होने है और पार्टी अभी झगडे सुलझाने में लगी है। सिद्धू पार्टी में ज्यादा पुराने नहीं है तो जाहिर है उन्हें तवज्जो दिए जाना पुराने कांग्रेसियों को रास नहीं आ रहा। हालांकि आलाकमान कप्तान को वर्तमान और सिद्धू को भविष्य का नेता बता रहा है, पर सवाल ये है कि भविष्य की चाह में पार्टी वर्तमान क्यों खराब कर रही है। दूसरा, पार्टी के पास प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ सहित कई ने नेता भी है जिन्हें भविष्य में बड़ा दायित्व दिया जा सके तो सिद्धू पर विशेष मेहरबानी क्यों ? इसी तरह राजस्थान में सचिन पायलट को लेकर भी तरह तरह के कयास लग रहे है। पिछली बार जब सचिन पायलट नाराज़ हुए थे तो किसी तरह पार्टी ने गहलोत सरकार को बचा लिया था। पायलट को आश्वासन दिया गया था और एक कमिटी बनाई गई थी। पर अब अहमद पटेल के निधन के बाद न उक्त कमिटी का कोई पता है और न ही राजस्थान में सचिन को पहले का मान - सम्मान मिलता दिख रहा है। वर्तमान में सचिन पायलट के पास न राजस्थान सरकार में और न संगठन में कोई महत्वपूर्ण ओहदा है और न ही केंद्र की राजनीति में में उनकी कोई भागीदारी दिख रही है। यानी सचिन पूरी तरह साइडलाइन है। ऐसे में हालात जल्द ठीक न हुए तो जल्द बगावत के सुर मुखर हो सकते है। ये नेहरू-गांधी रहे अध्यक्ष ... - मोतीलाल नेहरू 1919 से 1920 तक कांग्रेस अध्यक्ष बने। - वर्ष 1928 से 1929 तक एक बार फिर मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस की भागदौड़ संभाली। -वर्ष 1929 से 1930 तक मोतीलाल नेहरू के पुत्र जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष रहे । -वर्ष 1936 और इसके बाद वर्ष 1937 में भी जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस की सरदारी संभाली। -जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री रहते हुए वर्ष 1951 से 1952, वर्ष 1953 और वर्ष 1954 में भी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। -जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी वर्ष 1959 में पहली बार कांग्रेस की अध्यक्ष बनी। - इंदिरा गांधी ने वर्ष 1978 से 1983 तक और वर्ष 1984 में भी पार्टी का अध्यक्ष पद संभाला। - तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी ने वर्ष 1985 से 1991 तक पार्टी की भागदौड़ संभाली। वर्ष 1991 में राजीव गांधी की भी हत्या कर दी गई थी। - राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी ने वर्ष 1998 में पार्टी की भागदौड़ संभाली। वे वर्ष 2017 तक कांग्रेस की अध्यक्ष रही। - 2017 में सोनिया व राजीव गांधी के पुत्र राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी पराजय के बाद उन्होंने अध्यक्ष पद छोड़ने का फैसला लिया था। अतः 3 जुलाई को उन्होंने आधिकारिक तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया। - वर्तमान में सोनिया गांधी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष है।
हिमाचल की सियासत में अब एक नया पत्र बम चर्चा में है। कोरोना काल की गंभीरता के बीच भी कुछ लोग सस्ती सियासत करने से बाज नहीं आ रहे। एक गुमनाम पत्र में जयराम कैबिनेट के एक मंत्री का चरित्र हनन करने का प्रयास किया गया है। इस पत्र में स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल और एक महिला नेता को लेकर बेहद अमर्यादित और अस्वीकार्य बातें कही गई है। साथ ही भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए गए है। बिना किसी ठोस आधार के लिखे गए इस गुमनाम पत्र को लिखने वाला खुद को भाजपा का सच्चा सिपाही बता रहा है। चलिए बिना किसी सबूत के भ्रष्टाचार के आरोप लगा भी दिए, पर किसी के चरित्र पर कीचड़ उछालने का अधिकार भाजपा के इस तथाकथित सच्चे सिपाही को किसने दिया ? ये पत्र किसी की कुंठित और विकृत मानसिकता का परिचायक है, इससे अधिक कुछ नहीं। यदि ऐसा न होता तो पत्र लिखने वाला सामने आकर अपना पक्ष रखता, वो भी मर्यादित ढंग से। यदि इस पत्र को भेजने वाला भाजपा का सच्चा सिपाही है भी, तो निसंदेह ऐसी विकृत मानसिकता के लोग न भाजपा को चाहिए है और न ही किसी अन्य राजनीतिक दल को। दिन -ब -दिन गिरती राजनीति के बीच हुए इस प्रकरण में सुखद पहलु ये है कि विपक्ष ने अपनी मर्यादा कायम रखी। बड़े नेताओं से तो ऐसा अपेक्षित था लेकिन डर था कि कहीं जाने -अनजाने आम कार्यकर्ता इस गंदगी में न पड़ जाए, पर ऐसा हुआ नहीं। इसके लिए कांग्रेस निसंदेह साधुवाद की पात्र है। वहीं भाजपा की बात करें तो जिला सोलन के कुछ भाजपाई जो डॉ राजीव सैजल के साथ परछाई बनकर घूमते है, वे चुप है। सोलन में डॉ राजेश कश्यप ने जब डॉ राजीव सैजल के समर्थन में पत्रकार वार्ता की तो देखादेखी कुछ और नेता-कार्यकर्ता सपोर्ट में उतरे। पर विशेषकर कसौली में डॉ सैजल के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाले कुछ भाजपाई अपने नेता के लिए सार्वजनिक तौर पर आगे नहीं आये। यही राजनीति है, शायद किसी के पतन में ही किसी को अपना उदय दिखता हो। औछा राजनैतिक हथकंडा लगता है ये पत्र इसमें कोई संशय नहीं है कि डॉ राजीव सैजल बेहद स्वच्छ छवि के नेता है। डॉ सैजल कसौली से तीसरी बार विधायक है और उनकी अब तक की पब्लिक लाइफ में कभी उन पर कोई आरोप नहीं लगा। बेशक बतौर मंत्री उनके कामकाज पर सवाल उठते रहे हो लेकिन उनके व्यक्तित्व को लेकर कभी प्रश्न नहीं उठा। दरअसल, सैजल का अच्छा आचरण और स्वच्छ छवि ही उनकी असल मजबूती है। ये पत्र एक तरीके से औछा राजनीतिक हथकंडा लगता है ताकि उनकी इसी मजबूती पर प्रहार किया जा सके। यदि ऐसा नहीं है तो पत्र लिखने वाला प्रमाणों के साथ सामने क्यों नहीं आया ?
बढ़ती महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। ऐसे में विपक्ष भी महंगाई के मुद्दे को भुनाकर सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा। हिमाचल प्रदेश की बात करें तो यहां नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने खुद मोर्चा संभाला हुआ है। कोरोना काल में सड़क पर उतर सरकार को घेरना मुमकिन नहीं है सो अग्निहोत्री ने मीडिया बयानों और सोशल मीडिया को विरोध का मंच बनाया है और वे लगातार सरकार पर हमलावर है। नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहाेत्री ने कहा कि महंगाई ने तमाम रिकार्ड तोड़ डाले हैं। उन्होंने कहा कि भाजपा ने सात साल पहले केंद्र की सत्ता में आने के समय महंगाई नियंत्रित करने का वादा किया था। पेट्रोल-डीजल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुत वीडियो क्लिप हैं। हालांकि उस वक्त कच्चे तेल के रेट उफान पर थे। पर आज तो कच्चा तेल 32-33 रुपये है। बावजूद इसके जनता को राहत देने की बजाय सरकार जनता का ही तेल निकालने में लगी है। मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि भारी भरकम इक्साइज़ ड्यूटी ने पेट्रोल की दरों में आग लगा रखी है। बीते साल केंद्र ने इस से चार लाख करोड़ के आसपास की कमाई की, जो इससे पिछले साल के मुकाबले 77 फीसदी अधिक बताई जाती है। इसलिए कच्चे तेल के दाम कम होने के बावजूद उपभोक्ता को फायदा नहीं दिया गया। एक साल पेट्रोल का रेट 25 रुपये बढ़ा है। अग्निहोत्री ने कहा कि तेल का रेट निर्धारण करने के लिए कच्चे तेल का रेट में तेल शुद्ध करने की लागत, इक्साइज़ डयूटी, डीलर मुनाफ़ा, सेंट्रल इक्साइज़ व राज्यों का टैक्स जोड़ा जाता है। वर्तमान में केंद्र सरकार करीब 33-34 रुपये प्रति लीटर सेंट्रल इक्साइज़ ले रही है। तेल शुद्ध करने के दाम तो अढ़ाई रुपये के आसपास है, डीलर की कमीशन पेट्रोल पर पौने चार और ड़ीजल पर अढ़ाई रुपये बताई जाती है। बाक़ी राज्य के टैक्स है। अग्निहोत्री का कहना है कि हिमाचल सरकार पेट्रोल पर 15 रुपये 50 पैसे और डीजल पर 9 रुपये टैक्स लगा रही है। इसलिए पेट्रोल 90 और डीजल 82 रुपये प्रति लीटर के आसपास चल रहा है। केंद्र और राज्य दोनों आम जनता पर महंगाई का बोझ डाल रहे है। अग्निहोत्री का कहना है कि कोरोना के इस मुश्किल समय में आम आदमी को रहत देने की आवश्यकता है, पर महंगाई आफत बन चुकी है। रोजगार रहे नहीं और बढ़ती महंगाई से जीवन यापन मुश्किल हो गया है। न सिर्फ पेट्रोल डीजल बल्कि खाद्य तेल, दालें और आटे तक के दाम आसमान छू रहे है। झूठे थे वादे, प्रदर्शन करने वाले मौन क्यों ? नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री का कहना है कि विपक्ष में रहते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनसभाओं में चिल्ला -चिल्ला कर नारे देते थे "सस्ता पेट्रोल-डीजल चाहिए कि नहीं चाहिए, बहुत हुई महंगाई की मार, और भी बहुत कुछ। पर वो सब झूठ था और सत्ता मिलने के बाद मोदी ने आम जनता को कोई रहता नहीं दी। आज आम आदमी त्रस्त ही। जो भाजपाई सड़कों पर महंगाई के खिलाफ प्रदर्शन करते थे, अब मौन क्यों है ?
किन्नौर के बागवानों के लिए सेब कोल्ड कोल्ड स्टोर के निर्माण की घोषणा के बाद राजनीति होट हो गई है।कांग्रेस और भाजपा नेताओं में सियासी वार - पलटवार का सिलसिला चल पड़ा है। दरअसल, कांग्रेस सेब काेल्ड स्टोर का विरोध नहीं कर रही है, लेकिन जिस लोकेशन पर कोल्ड स्टोर प्रस्तावित है उससे कांग्रेस कप आपत्ति है। कांग्रेस का तर्क है कि प्रस्तावित साइट बागवानों के लिए विपरीत दिशा में है। अप्पर किन्नौर यानी पवारी से ऊपर वाले सेब उत्पादक क्षेत्रों के बागवानाें काे रिकांगपिओ काेल्ड स्टोर पूरी तरह से विपरीत दिशा में पड़ेगा। प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव सत्यजीत नेगी का कहना है कि जिले के सभी बागवानाें की इस समस्या काे समझते हुए उन्होंने सेब काेल्ड स्टोर पाेवारी के समीप बनाने के बारे में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर काे पत्र लिखा है। उन्होंने कहा कि सेब के कोल्ड स्टोर को रिकांगपिओ की बजाए पाेवारी के पास नेशनल हाईवे-5 पर स्थापित किया जाना चाहिए, जिससे सभी लोगों को फायदा मिल सके। सेब तो एनएच से होकर देश की मंडियों में जाना है, इसलिए रिकांगपिओ की बजाए बजाय नेशनल हाईवे पर इसे स्थापित किया जाना चाहिए। सत्यजीत नेगी का कहना है कि इस कोल्ड स्टोर को रिकांगपिओ की बजाए एनएच-5 पोवारी के निकट कहीं पर भी स्थापित किया जाए ताकि पूह, कल्पा और निचार ब्लॉक के सभी बागवानों काे लाभ मिल सके।
जिला कांग्रेस कमेटी शिमला ग्रामीण के अध्यक्ष यशवंत छाजटा ने कहा कि कोरोना संकट काल में भी जनता को राहत देने के बजाए सरकार अपनी आय के रास्ते तलाश रही है। उन्होंने शिमला से जारी बयान में कहा है कि महामारी के इस दौर में जहां पहली ही बढ़ती महंगाई से जनता त्रस्त थी वहीं अब डिपूओं में मिलने वाले तेल और दालों दामों में वृद्धि कर सरकार ने उन पर दोहरी मार की है। छाजटा ने आरोप लगाया है कि सरकार जनता पर महंगाई थोपने का कोई मौका नहीं छोड़ रही है। पेट्रोल और डीजल के दाम पहले ही आसमान छू रहे है। ये समय जनता को राहत देना है, ऐसे में सरकार सरकार गलत फैसले लेने से बचें और बढ़ती महंगाई पर अंकुश लगाने के प्रयास करें न कि महंगाई थोपने के अवसर ढूंढे जाए। छाजटा ने कहा है कि सत्ता में आने के बाद भाजपा को महंगाई नजर नहीं आ रही है। विपक्ष में रहते हुए भाजपा के जो नेता सड़कों पर प्याज की माला और सिलैंडर के कट आउट लेकर उतरते थे, उन्हे आज मंहगाई के चरम पर पहुंच जाने के बाद भी इसका अहसास नहीं हो रहा है। छाजटा ने कहा है कि जब सरकार को कोई राहत नहीं दे सकती है तो जनता पर मंहगाई भी न थोपे। राहत पैकेज जारी किया जाए छाजटा ने कहा कि कोरोना की दूसरी लहर के बीच जिनके काम धंधे बंद पड़े है, उनकी मदद के लिए सरकार आगे आए और कोई राहत पैकेज प्रदान किया जाए। केंद्र सरकार के गुणगान के साथ प्रदेश के लिए आर्थिक पैकेज लाए जाने के प्रयास होने चाहिए ताकि प्रदेश की जनता को कुछ राहत मिल सके।
कांग्रेस आपदा में अवसर खोज षड्यंत्र कर रही है। उसका यह षड्यंत्र प्रदेश की जनता को भ्रमित करने में असफल साबित हुआ है, अब भाजपा जनता के बीच जाकर उसके झूठ का पर्दाफाश करेगी। ये कहना है प्रदेश भाजपा प्रवक्ता विनोद ठाकुर का। विनोद ठाकुर का आरोप है कि जब से देश में कोरोना महामारी का कहर शुरू हुआ है तभी से कांग्रेस ने लोगों में सिर्फ भ्रम और झूठ फैलाया है। कभी महामारी से जनता की रक्षा के लिए लगाए गए कोरोना कर्फ्यू, कभी स्वास्थ्य कर्मियों की निष्ठा, तो कभी वैक्सीनेशन को लेकर जनता को गुहार करने का प्रयास किया है। आपदा की इस मुश्किल घड़ी को झूठ के दम पर राजनीतिक अवसर के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की है। कांग्रेस ने हर मोर्चे पर भाजपा सरकार की आलोचना कर लोगों की जान को खतरे में डालने का प्रयास किया है। विनोद ठाकुर का कहना है कि कांग्रेस न प्रदेश के निष्ठावान स्वास्थ्य कर्मियों और दिन रात जनता की सेवा में जुटे अन्य कर्मचारियों को भी अपने इस झूठ से नाकारा साबित करने की कोशिश की है। जयराम सरकार प्रदेश के इन निष्ठावान कर्मचारियों की हमेशा ऋणी रही है और रहेंगी। इन्हीं के कारण प्रदेश में हालात सुधर रहे हैं। जीवन पटरी पर लौट रहा है। उन्होंने कांग्रेस नेताओं को नकारात्मकता से बाहर निकल सच्चाई से रूबरू होने की नसीहत दी है।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष एवं विधायक राजेंद्र राणा ने कहा कि कोरोना महामारी के दौरान भी केंद्र व प्रदेश सरकार 'आल इज वैल' तो कहती आ रही है, लेकिन धरातल पर हालात किसी से छिपे नहीं हैं। बेहतर होता कि अपनी पीठ थपथपाने की बजाय समय रहते सरकार महामारी से निपटने के प्रबंध करती। जारी प्रेस विज्ञप्ति में विधायक राजेंद्र राणा ने कहा कि तीसरे चरण की वैक्सीनेशन में ही केंद्र ने पल्ला झाड़ चुकी है जिस पर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी सवाल उठाए हैं, तो इस मामले में प्रदेश सरकार भी बैकफुट पर है। प्रदेश में ही 18 से 44 आयु वर्ग के 30 लाख से ऊपर के लोगों की वैक्सीनेशन पेंडिंग है। केंद्र ने तीसरे चरण की जिम्मेवारी प्रदेश सरकार पर थोपी है और प्रदेश सरकार के प्रयास कागजों तक सीमित है। उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार पहले ही तंगहाली में है, महामारी से निपटने की नीतियां पहले ही उलझी हुई हैं। प्रदेश की माली हालत खराब हो चुकी है। प्रदेश का लगभग हर वर्ग सरकार से हताश है। प्रदेश की महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता मांगे न मानने से काले बिल्ले लगाकर काम रही है, जिनकी अन्य मांगें तो दूर, कोरोना वारियर्स भी सरकार घोषित नहीं कर पा रही है। बागबान कार्टन की कीमतों को लेकर उग्र हैं और निजी ऑपरेटर व उनके प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लाखों लोग सड़कों पर आ चुके हैं। उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार पहले ही अपने दायित्वों को निभाने में पिछड़ी हुई है, उस पर इस महामारी से निपटने की कभी आशा भी नहीं की जा सकती। केंद्र सरकार में प्रदेश से केंद्रीय राज्य मंत्री व भाजपा संगठन में शीर्ष पर बैठे नेताओं को तो हिमाचल का मर्म समझना चाहिए था। उन्होंने कहा कि अभी भी देर नहीं हुई है और जनता के जज्बातों को समझते हुए सरकार इस महामारी से निपटने के बेहतर प्रबंध करते हुए हर वर्ग के बारे में सोचे। चरमराया स्वास्थ्य ढांचा, सरकार फेल राजेंद्र राणा ने कहा कि इस समय स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करना चाहिए था, लेकिन सरकार का विजन ही कमजोर व आधारहीन बन गया है। हिमाचल के 3 प्रमुख मेडिकल कॉलेजों में सीटी स्कैन और एमआरआई की सुविधा नहीं है। हमीरपुर में 8 महीनों से मशीन खराब पड़ी है, जबकि चंबा में मशीन की खरीद बजट के फेर में फंसी हुई है, जिसके लिए 10 करोड़ रुपए एन.जे.पी.सी. ने दिया हुआ है तथा 5 करोड़ रुपए और देने को तैयार है। केवल 5 करोड़ रुपए सरकार से चाहिए और आर्डर प्लेस हो जाएगा। बाकायदा इसके लिए 3 माह पहले टेंडर भी हो चुका है, फिर भी विडंबना यह है कि सरकार की लापरवाही जारी है और कोई भी फैसला में असमर्थ रही है। उन्होंने कहा कि टांडा मैडीकल कालेज में भी मशीन 7 महीनों से खराब है, लेकिन नई मशीन की खरीद पर सरकार अंतिम फैसला तक नहीं ले पा रही है, जबकि स्वास्थ्य मंत्री ने कहा था कि पिछले सप्ताह होने वाली बैठक में अंतिम फैसला लिया जाएगा मगर हुआ नहीं। अस्थाई अस्पताल बनाने की बजाए होटलों का भला करती सरकार राणा का कहना है कि सरकार ने तिरपाल से तैयार होने वाले 200 बिस्तर वाले अस्थायी मेक शिफ्ट अस्पताल जिला मंडी, कांगड़ा व सोलन में बनाए हैं, ताकि ज्यादा मरीज होने पर उन्हें उपचार के लिए यहां शिफ्ट किया जाए। यहां प्रति बिस्तर प्रतिदिन का किराया लगभग 1950 रुपए है। ऐसे समय में जब होटल जगत पूरी तरह तबाह हो चुका है, करोड़ों रूपए खर्च कर ऐसे अस्थाई अस्पताल बनाने की बजाए निजी होटलों को इस काम के लिए हायर करना चाहिए था, होटल उद्योग बर्बाद होने से उबरते और होटलों के जरिए आजीविका कमा रहे लाखों परिवारों का भी भला होता।
"कोरोना संकट के डेढ़ साल में जय राम सरकार ने कुछ भी नहीं सीखा, मुख्यमंत्री का किन्नौर दौरा किसलिए था अब तक स्पष्ट नहीं, मुख्यमंत्री जी घंटो तक अफसरों के साथ मीटिंग करते रहते है मगर धरातल पर कुछ नहीं होता, डीपीआर बनने के बाद ही जंगी थोपन परियोजना पर राय देना उचित, किन्नौर के विकास में वीरभद्र सिंह का बड़ा हाथ। " किन्नौर ही नहीं हिमाचल प्रदेश की सियासत में भी किन्नौर विधायक जगत सिंह नेगी किसी परिचय के मोहताज नहीं है। नेगी चार बार विधायक रहे है और पिछली सरकार में विधानसभा के डिप्टी स्पीकर भी रह चुके है। अक्सर अपने बेबाक बयानों को लेकर चर्चा में रहने वाले जगत सिंह नेगी से फोर्ट्स वर्डिक्ट ने विशेष बातचीत की और कोरोना संकट, नौतोड़, प्रस्तावित जंगी थोपन परियोजना सहित कई अहम मसलों पर उनकी राय जानी। पक्ष है बातचीत के मुख्य अंश ... सवाल : कोरोना की दूसरी लहर से किन्नौर जिला किस तरह निपट रहा है और फिलवक्त किन्नौर जिले में स्वास्थ्य सुविधाओं के क्या हालात है ? जगत सिंह : मुझे उम्मीद थी की शायद कोरोना की दूसरी लहर में प्रदेश सरकार पहले से बेहतर परफॉर्म करेगी पर मुझे बड़े दुख के साथ ये कहना पड़ रहा है कि कोरोना संकट के इस डेढ़ साल में जय राम सरकार ने कुछ भी नहीं सीखा। आज भी स्थिति वैसी ही है जैसी पहले थी। आज भी किन्नौर से कोरोना मरीज़ों को शिमला स्थित आईजीएमसी हस्पताल में शिफ्ट करना पड़ रहा है। किन्नौर में सुविधाएं होने के बावजूद भी सरकार उनका उपयोग कर पाने में असक्षम है। जैसे कि करछम वांगतू प्रोजेक्ट के प्रभावित लोगों के लिए यहां एक संजीवनी हॉस्पिटल है जिसमें सेंट्रलाइज़्ड ऑक्सीजन, हाई फ्लो ऑक्सीजन, वेन्टीलेटर, स्पेशलिस्ट डॉक्टर्स जैसी सभी सुविधाएं उपलब्ध है लेकिन इसे कोविड डेडिकेटेड हॉस्पिटल नहीं बनाया गया। यहां मरीज़ों को सुविधाएं न मिल पाने के चलते उन्हें आईजीएमसी शिफ्ट करना पड़ता है। आईजीएमसी में पुरे प्रदेश के मरीज़ आते है इसलिए न तो उन्हें आईसीयू बेड मिल पाते है और न ही बेहतर चिकित्सा सुविधाएं। किन्नौर के लोग इस वजह से परेशान है लेकिन सरकार सुध नहीं ले रही। सवाल : क्या आप कहना चाहते है कि किन्नौर में कोई भी कोविड केयर अस्पताल नहीं है ? जगत सिंह : कोविड केयर अस्पताल तो यहां है पर सुविधा का अभाव है। न तो इन अस्पतालों में वेंटीलेटर है और न ही पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन उपलब्ध है। कमियों के कारण मरीज़ों को किन्नौर से उपचार के लिए शिमला ले जाना पड़ता है। सवाल : कोरोना की इस दूसरी लहर के दौरान बतौर विधायक आप जनता की सेवा किस तरह कर रहे है ? जगत सिंह: हमारी तरफ से जो भी बन पा रहा है हम कर रहे है। कांग्रेस पार्टी की तरफ से कोविड अस्पताल रिकांगपिओ के मरीज़ो को रोज़ाना ब्रेकफास्ट और लंच दिया जाता है। कांग्रेस के कार्यकर्त्ता स्वयं ये पौष्टिक भोजन बना कर मरीज़ों तक पहुंचा रहे है। इसके आलावा एक बस और दो गाड़िया भी कोरोना के मरीज़ों को उनके घर से कोविड अस्पताल पहुँचाने का कार्य कर रही है। सवाल : पिछले कुछ दिनों में अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री पर किन्नौर को नज़र अंदाज़ करने के आरोप लगाए है, आपसे जानना चाहेंगे की ये आरोप किस तथ्य के आधार पर लगाए गए है ? जगत सिंह : देखिये, मुख्यमंत्री ने कुछ समय पहले समदो बॉर्डर का एक दौरा किया, ये दौरा किसलिए था अब तक स्पष्ट नहीं है। मुख्यमंत्री हेलीकाप्टर द्वारा समदो पहुंचे, पत्रकारवार्ता के दौरान मुख्यमंत्री ने कहा की चीन के लोग बॉर्डर के उस पार पक्के मकान बना रहे है, निर्माण कार्य कर रहे है। अब चीन तो अपनी ज़मीन पर निर्माण कार्य करेगा ही, इसमें मुख्यमंत्री को निरिक्षण करने की क्या ज़रूरत। दूसरा उन्होंने कहा की इस दौरे की रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी जाएगी। अब ये बात सोचने वाली है की ऐसी क्या महत्वपूर्ण जानकारी है जो बॉर्डर पर मौजूद आईटीबीपी और इंटेलिजेंस केंद्र सरकार को नहीं दे पा रही और मुख्यमंत्री को वो जानकारी भेजनी पड़ी। खैर ये एक अलग विषय है, समस्या तो ये है की मुख्यमंत्री इस दौरे के दौरान किन्नौर के मुख्यालय रिकांगपिओ में इर्धन भरने के लिए रुके मगर उन्होंने किन्नौर की सुध नहीं ली। हमें भी सूचित नहीं किया गया कि मुख्यमंत्री आये है, हमें पता होता तो हम भी क्षेत्र की समस्याओं को मुख्यमंत्री के समक्ष रखते। मुख्यमंत्री किन्नौर आये , भाजपा के कार्यकर्ताओं से मिले और कोरोना के नियमों का उल्लंघन किया। न तो मुख्यमंत्री ने अधिकारियों के साथ कोई बैठक की और न ही कोविड केयर सेंटर में मरीज़ों को देखने गए। साफ़ तौर पर मुख्यमंत्री के इस दौरे का किन्नौर की जनता को कोई फायदा नहीं हुआ, मगर दुष्प्रचार किया गया की मुख्यमंत्री किन्नौर की सुध लेने आए है। यूँ झूठ बोलना सही बात नहीं है। भाजपा सरकार का तो काम ही जनता को गुमराह करना है और उन्होंने किन्नौर की जनता को भी गुमराह करना चाहा। वो सिर्फ इर्धन भरने आए थे, किन्नौर की जनता की सुध लेने के लिए नहीं। सवाल : किन्नौर के राशन डिपुओं में पूरा राशन उपलब्ध न होने की खबरें सामने आई है, क्या सच में ऐसा है ? अगर है तो इस समस्या तो दूर करने के लिए आप क्या कर रहे है? जगत सिंह : ये तो प्रदेश सरकार का दायित्व है कि प्रदेश के सभी परिवारों तक सस्ती राशन की दुकानों के माध्यम से राशन पहुँच पाए ,मगर सरकार ये कर पाने में विफल है। किन्नौर के राशन डिपुओं में जनता को आधा अधूरा राशन मिल रहा है। जहां चावल है वहां आटा नहीं है, जहां चीनी है वहां तेल नहीं है। तेल महंगा भी बहुत हो गया है। बड़ी- बड़ी बातें की जाती है मगर असल में होता कुछ भी नहीं। सरकार द्वारा जनता को मुफ्त राशन पहुँचाने की बात भी कही गई थी मगर वो राशन किसको दिया गया मालूम नहीं। मुख्यमंत्री जी घंटो तक अफसरों के साथ मीटिंग करते रहते है मगर धरातल पर कुछ नहीं होता। सवाल : एसजेवीएनएल के जंगी थोपन प्रोजेक्ट का स्थानीय लोग विरोध कर रहे है , इस पर आपका पक्ष क्या है ? जगत सिंह : जंगी थोपन प्रोजेक्ट का डीपीआर अब तक तैयार नहीं हुई है। ये एक ऐसा हाइड्रो प्रोजेक्ट है जिसका कुछ पंचायतें विरोध कर रही है और कुछ पंचायतें इसके पक्ष में भी है। जब तक इस प्रोजेक्ट का डीपीआर नहीं बन जाती तब तक ये नहीं कहा जा सकता की ये प्रोजेक्ट जनता के लिए अच्छा है या बुरा। डीपीआर बनने के बाद ही इस प्रोजेक्ट की अच्छाई और बुराई के बारे में पता लग पाएगा और तब ही इस पर अपना पक्ष देना उचित रहेगा। सवाल : किन्नौर भाजपा लगातार ये आरोप लगा रही है की जब से जगत सिंह किन्नौर के विधायक बने है तब से किन्नौर में विकास की गति थम गई है, इस पर आपका क्या कहना है ? जगत सिंह : देखिये भारतीय जनता पार्टी एक ऐसी पार्टी है जो जुमलेबाज़ी, बयानबाज़ी के अलावा और कुछ करना नहीं जानती। इनका काम बस लोगों को गुमराह करना और झूठ का प्रचार करना है। किन्नौर की जनता ने मुझे 4 बार चुना है। मुझे जब भी मौका मिला मैंने किन्नौर के हर क्षेत्र में विकास करवाया। इस विकास में पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का भी बड़ा हाथ रहा है। उन्हीं के सहयोग से किन्नौर आज देश के सबसे विकासशील जिलों में से एक है। किन्नौर में 90 प्रतिशत से ज्यादा गांव सड़क सुविधा से जुड़े है, हर घर में बिजली है, पानी हर घर में है। शिक्षा और स्वास्थ्य का जो इंफ्रास्ट्रक्चर किन्नौर में है वो किसी भी अन्य जिला से कम नहीं है। सवाल : आप अपना बता रहे है , ये भी बताइये भाजपा सरकार के पिछले तीन साल के कार्यकाल में क्या - क्या विकास कार्य किन्नौर हुए है ? जगत सिंह : जब से जयराम सरकार आई हिमाचल 30 साल पीछे चला गया। किन्नौर की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। कांग्रेस सरकार के कार्यकाल के दौरान जो कार्य शुरू किये गए थे हम उन्हीं को पूरा कर रहे है, मगर ये हिमाचल सरकार उन्हीं परियोजनाओं का रिबन काट कर वाह वाही लूट रही है। भाजपा ने कोई विकास कार्य किन्नौर में नहीं किया, बल्कि जो भाजपा के छुटभैय्ये नेता है वे विकास के कार्यों में अड़चनें डालते है। इनके पास ट्रांसफर करवाने के अलावा और कोई काम नहीं है। किन्नौर में तैनात अच्छे अधिकारी, कर्मचारी, डॉक्टर अध्यापकों का ये ट्रांसफर करवा देते है, ट्रांसफर को इन्होंने अपना धंधा बना लिया है। ठेको में कमीशन खाना भी इनका एक धंधा है। भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के अलावा भाजपा के तीन साल के कार्यकाल में और कुछ भी नहीं हुआ है। सवाल : उरनी में जो पॉलीटेक्निकल कॉलेज बनना था वो अब तक क्यों नहीं बन पाया है? किन्नौर के छात्रों को रोहड़ू के पॉलीटेक्निकल कॉलेज में क्यों पढाई करनी पड़ रही है ? जगत सिंह : जिस समय किन्नौर को ये पॉलीटेक्निकल कॉलेज सैंक्शन हुआ उस समय किन्नौर के बच्चों का एडमिशन रोहड़ू पॉलीटेक्निकल कॉलेज में लिया गया। 2013 में मैंने पहली बार कोशिश की कि इस पॉलीटेक्निकल कॉलेज को रोहड़ू से किन्नौर शिफ्ट कर पाऊं। लेकिन किन्नौर में कोई ऐसा उचित स्थान उपलब्ध नहीं था जहां इस कॉलेज को शिफ्ट किया जा सके। 2007 में उरनी 8 करोड़ की लागत से जय प्रकाश कंपनी द्वारा एक आईटीआई बनाई गई थी। इस बिल्डिंग को हम लेना चाहते थे लेकिन कंपनी नहीं मानी। पर साल 2017 में जब ये बिल्डिंग जे एस डव्लू कंपनी के पास चली गई तो बात बन गई। कंपनी पॉलीटेक्निकल कॉलेज चलाने के लिए सरकार को ये बिल्डिंग एक रूपए लीज पर देने के लिए सहमत हो गई।अक्टूबर 2017 में सरकार ने अप्रूवल भी दे दिया। मगर फिर भाजपा की सरकार आई और काम रुक गया। मैं लगातार तीन सालों से विधानसभा में ये मुद्दा उठा रहा हूँ मगर सरकार सुनती नहीं। सरकार कल्पा में पॉलीटेक्निकल कॉलेज बनाने पर अड़ी हुई है। सवाल : किन्नौर में नौतोड़ पर ज़मीन का न मिलना भी एक बड़ी समस्या है, लोग असमंजस में है की उन्हें ज़मीन मिलेगी या नहीं, आपका इस बारे में क्या कहना है ? जवाब : प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री और प्रदेश निर्माता यशवंत सिंह परमार की सोच थी कि हिमाचल के जनजातीय क्षेत्रों के लोग ज़मीन से वंचित ना रहे। इसीलिए ये नियम बनाया गया कि हिमाचल में जिन लोगों के पास 20 बीघे से कम ज़मीन है उन्हें नौतोड़ के आधार पर सरकारी ज़मीन दी जाए, थोड़ा बहुत नज़राना देने पे। 1968 में ये स्कीम शुरू हुई मगर बाद में इस स्कीम को बंद कर दिया गया। 1983 में जब वीरभद्र पहली बार मुख्यमंत्री बनें तो उन्होंने जनजातीय क्षेत्र के लोगों के लिए नौतोड़ की सुविधा खुली रखी। फिर 1998 में जब धूमल साहब की सरकार बनी तो उन्होंने फारेस्ट कंज़र्वेशन एक्ट 1980 को सख्ती से लागू करने के आदेश जारी किये जिससे नौतोड़ मिलना बंद हो गया क्यों कि हिमाचल में जो भी ज़मीन है वो सब फारेस्ट के अंतर्गत आती है। इसके लिए केंद्र सरकार से परमिशन चाहिए जो बहुत जटिल है। साल 2012 में नौतोड़ लागू करवाने के लिए मैंने कुछ ऐसा किया जो पहले हिंदुस्तान में कभी नहीं हुआ था। भारत के संविधान के अनुछेद 5 के तहत गवर्नर व प्रेसिडेंट को जनजातीय क्षेत्र के लोगों के लिए रियायत देने की अनुमति है। मैंने उस समय के गवर्नर से दरख्वास्त की और पहली बार जनजातीय क्षत्र के लोगो को नौतोड़ पर ज़मीन देने के लिए फारेस्ट कन्सेर्वटिव एक्ट 1980 को निरस्त किया गया। ये एक ऐतिहासिक कदम था। लोगों को ज़मीनें मिली। 2017 तक 500 लोगों को सैंक्शंड पट्टे दिए। किन्नौर में जो 7500 मामले लंबित पड़े थे उनकी जॉइंट इंस्पेक्शन करवाकर उन्हें निपटाया गया। पर जयराम सरकार ने आने के बाद इस संदर्भ में कुछ नहीं किया। दरअसल इस सरकार कि मंशा ही नहीं है कि जनजातीय क्षेत्र के लोगों को राहत दी जाए। विशेषकर किन्नौर के साथ जयराम सरकार ने पहले दिन से ही सौतेला व्यवहार किया है।
2007 का विधानसभा चुनाव चल रहा था, कसौली निर्वाचन क्षेत्र से वीरभद्र सरकार के पशुपालन मंत्री और पांच बार के विधायक रघुराज मैदान में थे और उनका मुकाबला था भाजपा के डॉ राजीव सैजल से। 36 साल के सैजल का ये पहला चुनाव था। पर कसौली की जनता ने रघुराज पर डॉ राजीव सैजल को वरीयता दी और डॉ सैजल चुनाव जीत गए। दिलचस्प बात ये है कि पहली बार कसौली का कोई नेता मंत्री बना था, रघुराज कसौली से पहले ऐसे नेता थे जिन्हे मंत्री पद मिला था, पर वह जनता की अपेक्षों पर खरे नहीं उतरे। माना जाता है कि मंत्री बनने के बाद लोगों की रघुराज से अपेक्षाएं काफी बढ़ गई थी और जब वो उन पर खरे नहीं उतरे तो जनता ने नए और कम अनुभवी डॉ राजीव सैजल पर वोटों का प्यार बरसाया। वहीँ डॉ राजीव सैजल तीन चुनाव लगातार जीतने के बाद अब प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री बन चुके है। जाहिर है डॉ सैजल से भी लोगों को खूब उम्मीद है और विशेषकर कोरोना काल में तो लोग अपने मंत्री विधायक से एक्सट्रा आर्डिनरी उम्मीद बांधे हुए है। अब 2022 के विधानसभा चुनाव में लगभग डेढ़ वर्ष बचा है, ऐसे में यकीनन कोरोना संकट के इस कठिन समय में स्वास्थ्य मंत्री डॉ सैजल के लिए अपने निर्वाचन क्षेत्र का सियासी स्वास्थ्य दुरुस्त रखना बेहद मुश्किल होने वाला है। जनता की उम्मीद टूटती है तो डॉ राजीव सैजल का सियासी तिलिस्म भी टूटना तय है। बड़ी मुश्किल से पिछले डॉ चुनाव जीते है सैजल 2007 में अपने पहले चुनाव में डॉ राजीव सैजल ने 6374 वोट से शानदार जीत दर्ज की थी। पर अगले दोनों चुनाव में डॉ राजीव सैजल बमुश्किल अपनी सीट बचा पाए। 2012 में वे महज 24 वोट से जीते तो 2017 में अंतर 442 वोट का रहा। इन दोनों ही मौकों पर कांग्रेस की अंतर्कलह उनके लिए संजीवनी सिद्ध हुई। सुल्तानपुरी अभी से चार्ज बीते दो चुनाव में डॉ राजीव सैजल को कड़ी टक्कर देने वाले कांग्रेस नेता विनोद सुलतानपुरी अभी से 2022 के लिए चार्ज दिख रहे है। माना जाता है कि आम जनता से सुलतानपुरी की दुरी और कांग्रेस का भीतरघात पिछले चुनावों में उन पर भारी पड़ा, पर अब सुल्तानपुरी सक्रीय भी है और निरंतर लोगों के बीच भी। साथ ही कांग्रेस में उनके विरोधी खेमे का दमखम भी अब पहले जैसा नहीं दिखता। कई नेताओं की हसरत मन में ही रह गई 1977 से अस्तित्व में आया कसौली निर्वाचन क्षेत्र हिमाचल प्रदेश के ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में से है जो हमेशा आरक्षित रहे है। ऐसे में कई कद्दावर नेताओं की विधायक-मंत्री बनने की हसरत कभी पूरी नहीं हुई। कुछ की उम्र संगठन की सेवा में बीत गई, तो कुछ को सत्ता सुख के नाम पर बोर्ड -निगमों में एडजस्ट कर दिया गया। ऐसे में माना जाता है कि सामान्य वर्ग के आने वाले कई नेताओं ने कई मौकों पर अपनी पार्टी प्रत्याशी की राह में ही कांटे डाले ताकि उनकी कुव्वत बनी रहे।
घटता जनाधार, सिमित संसाधन और लचर नेतृत्व, इस पर भरपूर अंतर्कलह। 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद से हिमाचल कांग्रेस की ये ही तस्वीर दिखती आ रही है। ऐसा इसलिए भी है क्यों कि अर्से से कांग्रेस के प्राइम फेस रहे वीरभद्र सिंह को उम्र और सेहत ने सक्रिय राजनीति कुछ दूर रखा हुआ है, और पार्टी में उनका विकल्प कोई दिखता नहीं। इस पर कभी लंच डिप्लोमेसी तो कभी पोस्टर पॉलिटिक्स जैसे सियासी प्रकरण कांग्रेस को और विभाजित करते दिख रहे है। 2022 का विधानसभा चुनाव अब नजदीक है और डगर फिलवक्त कठिन है। वर्तमान में प्रदेश कांग्रेस के तीन खेमे माने जाते है, वीरभद्र गुट, पूर्व अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू का गुट और पूर्व मंत्री जीएस बाली का गुट। वीरभद्र की असक्रियता में निसंदेह बाकी नेता संभावनाएं तलाशते दिखे है। इस बात का इल्म वीरभद्र सिंह के ख़ास सिपहसालारों को भी है, सो वक्त रहते न सिर्फ कुनबे को सँभालने की कवायद शुरू हो गई, बल्कि पुराने निष्ठावानों को भी साथ लिया जा रहा है। वीरभद्र खेमे ने गियर बदल लिया है, तस्वीरों में नेताओं के गीले-शिकवे मिटते दिख रहे है और फोटो पॉलिटिक्स से शक्ति प्रदर्शन हो रहा है। संदेश स्पष्ट है कि बेशक वीरभद्र सिंह असक्रिय हो पर सर्वेसर्वा वे ही है। चाहे मुख्यमंत्री कोई भी बने पर उन्हीं के फेस पर चुनाव लड़ा जायेगा। दावा है कि कुल 68 में से 50 से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में वीरभद्र खेमे को समर्थन है। पर यक्ष प्रश्न ये है कि क्या जितनी नजदीकी और एकजुटता तस्वीरों में दिखी है उतनी दिलों में भी है ? या फिर वीरभद्र सिंह के सियासी रसूख के सहारे नेता अपना कारज सिद्ध करना चाहते है। न्यूटन का गति का तीसरा नियम है, हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती। एक्शन में दिख रहे कांग्रेस के एक धड़े के जवाब में बाकी दिग्गज क्या रिएक्शन देते है ये देखना रोचक होगा। दावा, वैसे ये है कि मिशन 2022 के लिए पूरी पार्टी एकजुट होकर एक मंच पर आएगी, पर इन दावों में कितनी हकीकत है ये जल्द पता चलेगा। जानकार मानते है कि इस एक्शन का रिएक्शन निश्चित तौर पर होगा। प्रत्यक्ष निशाना भाजपा, अप्रत्यक्ष कई 31 मई को पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा ने एक फोटो पोस्ट किया था। फोटो में तीन लोग थे, खुद सुधीर शर्मा, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री और वरिष्ठ नेता आशा कुमारी। कैप्शन डाला गया 'एक मुलाक़ात, नई शुरुआत।' वीरभद्र सिंह के इन तीन करीबियों की बैठक ऊना में हुई थी, जिसके बाद से ही कांग्रेस में नए समीकरण बनने के कयास लगने लगे थे। जैसा कैप्शन में सुधीर शर्मा ने लिखा था, होता भी ऐसा ही दिखा। तीन जून को शिमला में एक और बैठक हुई। इस बैठक में पांच लोग शामिल हुए, इन तीनों के साथ वीरभद्र सिंह के पुत्र व शिमला ग्रामीण विधायक विक्रमादित्य सिंह तो उपस्थित थे ही, पर ख़ास बात रही वरिष्ठ कांग्रेस नेता कौल सिंह ठाकुर की मौजूदगी। माना जा रहा है समय काल परिस्थिति के अनुसार कौल सिंह ठाकुर भी वीरभद्र खेमे के साथ हो लिए है। अगले ही दिन यानी चार जून को इन पाँचों नेताओं ने संयुक्त पत्रकार वार्ता भी कर दी। प्रत्यक्ष तौर पर तो निशाना भाजपा पर था लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर ये संयुक्त पत्रकार वार्ता कई निशाने साध गई। समानांतर गुटों की राजनीति से हमेशा ग्रसित रही कांग्रेस नए किरदार आते जा रहे हैं, मगर नाटक पुराना चल रहा है। अतीत में झांके तो हिमाचल कांग्रेस बीते कई दशकों से हमेशा समानांतर गुटों की राजनीति से ग्रसित रही है। डॉ यशवंत सिंह परमार के दौर में ठाकुर रामलाल का गुट हावी हुआ और नतीजन डॉ परमार को हटा कर उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया गया। वहीं वीरभद्र सिंह के दौर में कभी पंडित सुखराम, तो कभी विद्या स्टोक्स के गुट के साथ उनकी खींचतान रही।1998 से पहले यदि पंडित सुखराम ने अलग पार्टी नहीं बनाई होती और भाजपा का साथ नहीं दिया होता तो तब भी कांग्रेस रिपीट करती। इसी तरह पिछली सरकार के वक्त से ही सुखविंदर सिंह सुक्खू और जी एस बाली के साथ भी वीरभद्र सिंह की तल्खियां चर्चा में रही है। वहीँ, कौल सिंह ठाकुर 2012 में मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, लेकिन वीरभद्र केंद्र की राजनीति से प्रदेश में लौट आये और कौल सिंह के अरमान पूरे नहीं हुए। हालांकि लंबे वक्त तक कौल सिंह वीरभद्र सिंह के करीबी रहे। वर्चस्व की ये जंग दशकों से पार्टी में चली आ रही है। हालांकि वीरभद्र सिंह के तिलिस्म के आगे कभी बाकी गुटों की ज्यादा चली नहीं। लचर संगठन: क्या फेरबदल पार्टी की जरुरत प्रदेश कांग्रेस का संगठन लचर है। संगठन की कमान कुलदीप राठौर के हाथ में है लेकिन अब तक राठौर बेअसर रहे है। लचर कार्यशैली का अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि उनके कमान संभालने के बाद कई ज़िलों में जिला व ब्लॉक स्तर पर संगठनात्मक बदलाव हो चुके है और अभी भी अधिकांश स्थानों पर स्तिथि बदतर है। राठौर निरंतर पत्रकार वार्ता कर सरकार पर हमला बोलते जरूर है पर कांग्रेस को ऐसे नेतृत्व की दरकार हैं जो सड़क पर उतर कर मुद्दों की सियासत करें, बंद कमरों की सियासत से तो पार्टी का भला होना मुश्किल है। माना जा रहा है कि पार्टी का एक बड़ा गुट भी 2022 से पहले संगठन में व्यापक फेरबदल का पक्षधर है और मुमकिन है की चुनाव से पहले राठौर की विदाई हो जाए।
वर्ष 1952, पहला आम चुनाव हुआ और हिमाचल से निर्वाचित सांसदों में से एक सांसद थी राजकुमारी अमृत कौर। पंडित नेहरू की कैबिनेट में राजकुमारी अमृत कौर को स्वास्थ्य जैसा बेहद महत्वपूर्ण महकमा दिया गया। उस वक्त हिमाचल में 2 ही लोकसभा सीटें हुआ करती थी, बावजूद इसके एक सांसद को केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान मिला।तब शुरू हुआ सिलसिला अब तक बरकरार है। बेशक हिमाचल प्रदेश में महज चार लोकसभा सीट हो पर केंद्र की सियासत में हिमाचल के नेताओं ने खूब रंग जमाया है। राजकुमारी अमृत कौर के बाद वर्ष 1976 -1977 में इंदिरा गाँधी के कैबिनेट में वीरभद्र सिंह पर्यटन और नागरिक उड्डयन मंत्रालय के डिप्टी मिनिस्टर रहे। इंदिरा की अगली कैबिनेट में भी वीरभद्र सिंह को स्थान मिला और वर्ष 1980 से 1983 तक वे केंद्र में उद्योग राज्यमंत्री बने। इसके बाद 2009 में जब वीरभद्र सिंह फिर सांसद चुने गए तो उन्हें यूपीए सरकार में कैबिनेट रैंक के साथ इस्पात मंत्रालय मिला। वीरभद्र सिंह के अतिरिक्त कांग्रेस से ही पंडित सुखराम, आनंद शर्मा और चंद्रेश कुमारी भी केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहे। भाजपा की बात करें तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में हिमाचल से शांता कुमार को कैबिनेट मंत्री पद मिला। इसके बाद जब 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो राज्यसभा सांसद जगत प्रकाश नड्डा कैबिनेट मंत्री बने। वर्तमान में मोदी सरकार में हमीरपुर सांसद अनुराग ठाकुर वित्त राज्य मंत्री हैं। दो-दो केंद्रीय मंत्री भी रहे एक ही वक्त में हिमाचल प्रदेश से दो -दो कैबिनेट मंत्री भी रहे हैं। यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक ही वक्त में आनंद शर्मा और चंद्रेश कुमारी तथा वीरभद्र सिंह और आनंद शर्मा मंत्री रहे। कभी 6 लोकसभा सीटें थी, कभी 2 और अब 4 लोकसभा में हिमाचल की सीटें दाे से शुरु हुई थी। यानी पहले आम चुनाव में मात्र दाे ही सीटें थी, वह थी मंडी-महासू और चंबा-सिरमाैर। मंडी -महासू डबल सीट थी, मतलब वहां से दो सांसद चुने गए थे। उस दौरान बिलासपुर अलग स्टेट थी और वहां से राजा आनंद चंद संसद में गए थे। उसके बाद 1957 के लाेकसभा चुनाव में हिमाचल की 3 सीटें बनी। चंबा सीट का सिरमौर वाला हिस्सा महासू में चला गया। तदोपरांत 1962 में 4 सीट हो गई। दरअसल, 1962 के चुनाव में सिरमौर अलग से आरक्षित सीट हो गई और मंडी, महासू, चम्बा को मिलकर कुल चार सीटें हो गईं। इसके बाद 1967 में कांगड़ा और हमीरपुर सीट भी जुड़ गई और लोकसभा सीटें बढ़कर 6 हो गई। वर्ष 1971 के चुनाव में 6 से घटकर हिमाचल की 4 सीटें हुई जाे अब भी बरकरार है। संगठन के शीर्ष पर पहुंचे नड्डा - अनुराग भारतीय जनता पार्टी दुनिया का सबसे बड़ा राजैनतिक दल हैं और इस पार्टी की कमान भी एक हिमाचली नेता के हाथ में हैं। केंद्रीय मंत्री रहे जगत प्रकाश नड्डा वर्तमान में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इसी तरह वर्तमान में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं। अनुराग बीसीसीआई के भी अध्यक्ष रह चुके हैं। आनंद शर्मा राज्यसभा में विपक्ष के उपनेता कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति की बात करें तो आनंद शर्मा लंबे समय से राष्ट्रीय पटल पर सक्रिय रहे हैं। 2014 में जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई ताे आनंद शर्मा राज्यसभा में विपक्ष के उपनेता चुने गए। वर्तमान में सोलन विधायक डॉ कर्नल धनीराम शांडिल कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य रह चुके हैं। अटल का घर हिमाचल में, कई बड़े नेताओं का रहा नाता देश के कई प्रधानमंत्रियों सहित कई सियासी दिग्गजों का हिमाचल से नाता रहा है। इंदिरा गांधी को हिमाचल से विशेष लगाव था और वो अक्सर कहा करती थी कि वे यहीं बसना चाहती हैं। इंदिरा का सपना तो पूरा नहीं हुआ, लेकिन उनकी पौती और कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने अब शिमला में घर बनाया है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मनाली का प्रीणी गांव में अपना घर बनाया है। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिमाचल भाजपा के प्रभारी रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की हिमाचल में काफी जायदाद हैं। हरियाणा के चौटाला और पंजाब के बादल परिवारों की संपत्ति भी हिमाचल में हैं।
फटा पोस्टर और निकला हीरो, शिमला में जीएस बाली की फोटो वाला पोस्टर फटा और कांग्रेस के सियासी चलचित्र के लीड हीरो फिर निकल कर सुर्ख़ियों में आ गए। फिर वीरभद्र सिंह लाइमलाइट में है और उनके समर्थक उनकी ताकत का एहसास करवा रहे है। उम्र बेशक 87 साल है लेकिन समर्थकों के लिए तो मानो अब भी वीरभद्र सिंह ही कांग्रेस है। निसंदेह इतनी बड़ी फैन फॉलोइंग हिमाचल में कभी किसी नेता की नहीं रही। खेर पोस्टर प्रकरण के बीच वीरभद्र सिंह फिर हिट और फिट साबित हुए है, पर इस एक पोस्टर ने हिमाचल कांग्रेस की एकजुटता के दावों का तिया पांचा कर दिया है। वीरभद्र समर्थक लाल है और दो टूक सन्देश दे रहे है कि आत्ममुग्ध नेता किसी मुगालते में न रहे, बगैर राजा के आशीर्वाद 2022 में सत्ता का वनवास ख़त्म नहीं होगा। इस एक पोस्टर ने ऐसा बवाल मचाया है कि मजबूती के दावे कर रही कांग्रेस मजबूर दिखने लगी है। माजरा दरअसल यूं है कि 21 मई को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की पुण्यतिथि पर कांग्रेस कोरोना रिलीफ कमेटी द्वारा राहत कार्य अभियान का आगाज़ किया गया जिसके प्रभारी पूर्व मंत्री जी एस बाली है। ये वो कमेटी है जिसे कोरोना काल में आमजन को राहत पहुंचाने के लिए बनाया गया है। ये कमेटी कितनी राहत पहुंचाती है ये तो वक्त ही बताएगा पर फिलहाल इसके एक पोस्टर से आफत जरूर आ गई है और आफत टूटी है खुद कांग्रेस पर। दरअसल, शिमला में इस रिलीफ कमेटी के कुछ होर्डिंग लगाए गए जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री स्व राजीव गाँधी के साथ रिलीफ कमेटी के प्रभारी जी एस बाली की बड़ी फोटो लगी थी। बाली इस होर्डिंग में एक किस्म से पोस्टर बॉय थे। इसमें सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी, प्रियंका गाँधी वाड्रा, राजीव शुक्ला, कुलदीप राठौर और मुकेश अग्निहोत्री को भी जगह दी गई। पर इस पोस्टर में 6 दफे मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह को जगह नहीं मिली, सो बवाल तो मचना ही था। वीरभद्र सिंह के समर्थकों ने पोस्टर फाड़ दिए और सोशल मीडिया पर वीरभद्र सिंह के समर्थन में एक के बाद एक सैकड़ों पोस्ट डलने का सिलसिला शुरू हो गया। किसी ने सवाल किया की इस पोस्टर पर वीरभद्र सिंह क्यों नहीं है, किसी ने इसे नेताओं की संक्रिण मानसिकता कहा, तो कुछ ने तो ये तक लिख डाला की हमारे लिए कांग्रेस का मतलब सिर्फ और सिर्फ राजा वीरभद्र सिंह है। पोस्टर एपिसोड के बाद वीरभद्र सिंह के पुत्र और शिमला ग्रामीण विधायक विक्रमादित्य सिंह ने एक फेसबुक पोस्ट की जिसमें उन्होंने लिखा कि 'तस्वीर कागज़ के पन्नों से ज्यादा दिल में अच्छी लगती है।' उनकी इस पोस्ट को भी इसी प्रकरण से जोड़कर देखा जा रहा है। अर्से से वीरभद्र ही पोस्टर बॉय, 8 चुनाव में रहे फेस 2022 में सत्ता वापसी के ख्वाब संजोए बैठी कांग्रेस के सामने फिलवक्त सबसे बड़ा सवाल ये ही है कि पार्टी का चेहरा कौन होगा ? पिछले आठ विधानसभा चुनाव पार्टी ने वीरभद्र सिंह के चेहरे पर लड़े है। पर 2022 के चुनाव आते - आते वीरभद्र 88 पार कर चुके होंगे और इस पर उनकी सेहत भी नासाझ है। ऐसा नहीं है वीरभद्र का स्थान लेने को कोई तैयार नहीं है, असल समस्या ये है कि तैयार तो बहुत है पर उन जैसा तिलिस्म अब तक कोई नहीं दिखा पाया। पार्टी में एक से बढ़कर एक बयानवीर तो है पर ऐसा कोई नहीं जो पुरे प्रदेश में असरदार हो। मुख्यमंत्री पद के ये तमाम चाहवान सक्रीय तो है पर अपने निर्वाचन क्षेत्र तक, या ज्यादा से ज्यादा 2 -4 निर्वाचन क्षेत्रों में इनका असर दिखता है। शायद ही ऐसा कोई नेता हो जिसका प्रभाव 5 निर्वाचन क्षेत्रों में भी हो। अब अर्से से कांग्रेस के पोस्टर बॉय रहे वीरभद्र सिंह का स्थान लेना है तो इन नेताओं को अपनी जमीन पकड़ भी साबित करनी होगी। सियासी अदा : लड़ते है और हाथ में तलवार भी नहीं वीरभद्र सिंह का हर बयान सुर्खियां लुटता हैं। बीते दिनों जब कुनिहार में उन्होंने कहा की वे 2022 का चुनाव नहीं लड़ेंगे तो प्रदेश कांग्रेस की जान मानो हलक में आ गई हो। खेर इसके बाद वीरभद्र ने यू टर्न लिया और कहा वे चुनाव लड़ेंगे भी, लड़वाएंगे भी और जनता चाहेगी तो सातवीं बार सीएम बनने को तैयार हैं। वीरभद्र का हर बयान किसी को सुकून देता हैं तो किसी की नींद चुरा लेता हैं। यही तो उनकी सियासी अदा है, लड़ते है और हाथ में तलवार भी नहीं। नई नहीं है पोस्टर की राजनीति पोस्टर की राजनीति कांग्रेस में नई बात नहीं है। अर्से से प्रदेश कांग्रेस में पोस्टर की राजनीति होती आ रही है। एक वक्त पर वीरभद्र सिंह के साथ विद्या स्टोक्स की फोटो न लगने पर बवाल होता था तो अब वीरभद्र सिंह ही कांग्रेस के पोस्टर से गायब है। सियासी पैंतरा या अब वीरभद्र जरूरी नहीं इस मुद्दे पर प्रदेश कांग्रेस कमेटी को मानो सांप सूंघ गया हो। कांग्रेस ने पोस्टर फाड़ने वाले देवन भट्ट और दीपक खुराना को प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर 15 दिन में जवाब मांगा है। दरअसल पोस्टर में राजीव गांधी का चित्र भी था जिसके चलते ये कार्रवाई करना पार्टी की मजबूरी बन गई। पर असल सवाल ये है कि क्या इन पोस्टर्स को लगवाने से पहले पीसीसी से स्वीकृत करवाया गया था। वीरभद्र सिंह को पोस्टर में स्थान न देना किसी का सियासी पैंतरा था या कांग्रेस समझती है की उनके लिए अब वीरभद्र जरूरी नहीं है।
काेराेना संकट के बीच हमारे माननीय हिमाचल में सियासी टीका लगाने में काेई गुरेज नहीं कर रहे हैं। हालांकि केंद्र की माेदी और प्रदेश की जयराम सरकार काेराेना मरीजाें की सुविधा के लिए हर संभव प्रयास कर रही है, लेकिन राजनीतिक दलाें ने अलग से राहत देने के लिए कदम उठा दिए हैं। इसमें चाहे भाजपा के हाे या फिर कांग्रेस के नेता। केंद्र में बैठे हिमाचल के दाे नेता जेपी नड्डा और अनुराग सिंह ठाकुर से लेकर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व मंत्रियाें ने भी सियासी टीका लगाने में काेई कसर नहीं छाेड़ी। हम इसे सियासी टीका का नाम इसलिए दे रहे हैं, क्याेंकि अगले साल प्रदेश में विधानसभा चुनाव हाेने हैं। दरअसल काेराेना महामारी काे राजनीति से जाेड़ना उचित नहीं हाेगा, मगर इस दाैर में भी कांग्रेस और भाजपा का निशाना मिशन-2022 ही दिख रहा है। बयानबाजी और आरोप - प्रत्यारोप चरम पर है। खेर मकसद जो भी हो पर चंद नेताओं ने अच्छी पहल करके आमजन को कुछ राहत जरूर पहुंचाई है। निसंदेह मदद का हाथ बढ़ाने वाले ये नेता साधुवाद के हकदार है। बीते दिनों भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री अनुराग सिंह ठाकुर ने हिमाचल के लिए एम्बूलेंस समेत ऑक्सीजन और स्वास्थ्य सामग्री को रवाना किया। उसके बाद प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने वेक्सीनेशन में हाे रही देरी के लिए धारा-144 में भी रिज पर धरना दिया। इस बीच कांगड़ा के कांग्रेसी नेताओं ने काेराेना मरीजाें काे स्वास्थ्य सुविधा देने के लिए अपना ही घर दे दिया। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में कोरोना के बढ़ते संक्रमण में पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा द्वारा अपने घर को कोविड सेंटर की पेशकश करने के बाद पूर्व मंत्री जीएस बाली ने भी साथ दिया है। जीएस बाली ने फोर्टिस अस्पताल कांगड़ा में काेराेना मरीजाें के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं देने का एलान किया है और यहां उपचार भी हाे रहे हैं। यही नहीं, बल्कि उनके घर को कोविड सेंटर बनाने में बेड, ऑक्सीजन सिलेंडर, नर्सिंग स्टाफ, हेल्थ स्टाफ की निशुल्क सुविधा फोर्टिस अस्पताल द्वारा उपलब्ध करवाए जाने का भी ऐलान किया। इसी तरह कांग्रेस के एक और नेता पालमपुर विधायक आशीष बुटेल ने भी अपना भवन कोविड मरीजों के लिए देने का ऐलान किया है। उधर, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहाेत्री, पीसीसी चीफ कुलदीप सिंह राठाैर ने काेराेना वाॅरियर्स काे पीपीई किट और ऑक्सीमीटर बांट रहे हैं। अनाथ बच्चाें की सेवा के लिए आगे आये जीएस बाली पूर्व मंत्री एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ने काेराेना संकट के बीच स्वास्थ्य सेवाओं के साथ-साथ अब अनाथ बच्चाें की सेवा करने की बात की है। ऐसे बच्चे जिनके माता-पिता की माैत काेराेना संक्रमण से हुई हाे उन्हें जीएस बाली ने 2 हजार रुपये प्रति माह देने का ऐलान किया है। हालांकि काेराेना से माता-पिता दाेनाें की माैत हाेने वालाें की संख्या काफी कम हाेगी, लेकिन जीएस बाली की ये पहल काबिल -ए - तारीफ़ है।
भाजपा की राजनीति में अब बिलासपुर का कद काफी विराट है। इसी जिला से आने वाले जेपी नड्डा वर्तमान में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष है, सो जाहिर है कि प्रदेश की सियासत में भी उनकी खूब चलती है। जयराम कैबिनेट के विस्तार में नड्डा फैक्टर का असर सबने देखा है। दरअसल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा सत्ता में आई और जिला बिलासपुर की चार में से तीन सीटाें पर भाजपा काबिज हुई। तब प्रेम कुमार धूमल के चुनाव हारने के बाद लगने लगा था कि बिलासपुर को सीएम पद ही मिल जायेगा। बाकायदा नड्डा समर्थक विधायकों ने सीट छोड़ने तक का एलान कर दिया था। पर तमाम कयासों पर विराम लगा और जयराम ठाकुर सीएम बने। जयराम कैबिनेट में बिलासपुर को स्थान नहीं मिला। उस वक्त नड्डा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री थे। पर 2019 के आम चुनाव के बाद नड्डा भाजपा संगठन के सुप्रीम बन गए। 2020 में जब जयराम मंत्रिमंडल का विस्तार होना था तो भाजपा के कई दिग्गज कतार में खड़े थे पर नंबर आया पहली बार विधायक बनें राजेंदर गर्ग का। सियासी माहिर मानते है कि मंत्रीमंडल विस्तार में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने हस्तक्षेप किया था और इसीलिए जयराम कैबिनेट में घुमारवीं से पहली बार चुनाव जीतने वाले राजेंद्र गर्ग काे मंत्री की कुर्सी मिल गई। आपको बता दें की बिलासपुर में झंडूता से जीत राम कटवाल और बिलासपुर सदर से सुभाष ठाकुर भी पहली बार ही चुनाव जीत कर आए थे पर यहां लाॅटरी राजेंद्र गर्ग की लग गई। 2017 में भी चला नड्डा फैक्टर गाैरतलब है कि 2017 के चुनाव में कांग्रेस बिलासपुर जिले की चार में से मात्र एक सीट पर सिमट कर रह गई, और बिलासपुर में नड्डा का वर्चस्व खूब दिखा था। झंडूता,बिलासपुर सदर और घुमारवीं तीनों सीटें भाजपा ने जीती थी। कांग्रेस सिर्फ नैनादेवी सीट ही जीत पाई थी। उस वक्त चुनाव प्रचार में नड्डा को खुलकर सीएम पद का दावेदार कहा गया जिसका असर बिलासपुर में खूब दिखा। रिटायर अफसर राजनीति में भी हिट 2017 के विधानसभा चुनाव में एक रिटायर आईएएस अफसर काे भी राजनीतिक मैदान में उतरने का माैका मिला ताे उन्होंने दिखा दिया कि हम किसी से कम नहीं। यहां बात जीत राम कटवाल की हाे रही है। जे आर कटवाल आईएएस के रूप में प्रदेश सरकार काे अपनी सेवाएं देकर सेवानिवृत हो गए है। जिस साल वो रिटायर हुए उसी साल चुनाव भी हाेना था और उन्हें भाजपा से टिकट भी मिल गया। जीत राम कटवाल झंडूता विधानसभा सीट से विधायक है। वीरभद्र सरकार में नहीं मिला था मंत्रिपद पिछली वीरभद्र सरकार में जिला बिलासपुर काे कैबिनेट में जगह नहीं मिल पाई थी। हालांकि वरिष्ठता के हिसाब से राजेश धर्माणी काे कैबिनेट में जगह मिलनी चाहिए थी, लेकिन वीरभद्र विरोधी खेमा हाेने के चलते उन्हें सिर्फ सीपीएस से ही संतुष्ट हाेना पड़ा। उससे पहले जब धूमल सरकार थी ताे जिला बिलासपुर काे विधानसभा उपाध्यक्ष का पद मिला था। रिखी राम काैंडल झंडूता सीट से जीते थे। उससे पहले 2003 में कांग्रेस के रामलाल ठाकुर काे खेल एवं वन मंत्री का पद मिला था। ये हैं जिला बिलासपुर के माननीय राजेंद्र गर्ग- घुमारवीं, भाजपा सुभाष ठाकुर- बिलासपुर सदर, भाजपा जे आर कटवाल- झंडूता, भाजपा रामलाल ठाकुर- नैनादेवी, कांग्रेस
हिमाचल की राजनीति में युवा नेताओं ने विरासत संभालने में काेई कमी नहीं छाेड़ी है। चाहे वीरभद्र परिवार हाे, धूमल परिवार या अन्य कई नेता, राजनीतिक विरासत संभालने के लिए उनकी अगली पीढ़ी तैयार है। वरिष्ठ नेता रिटायर हाेने पर सियासी चाबी अपनी अगली पीढ़ी को साैंप कर अपने परिवार का भविष्य सुरक्षित कर देते है। वीरभद्र परिवार की बात करें ताे अभी पिता -पुत्र दाेनाें सियासी फिल्ड में हैं, लेकिन अगले बार हाेने वाले चुनाव में ऐसा संभव कम ही है। वीरभद्र सिंह की बढ़ती उम्र और खराब सेहत उन्हें सक्रीय राजनीति से दूर कर सकती है, हालांकि जब बात वीरभद्र सिंह की हो तो कुछ भी मुमकिन है। इसी तरह से धूमल परिवार में भी ऐसी ही स्थिति दिखाई दे रही है। पिछली बार यानी 2017 के विधानसभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार पराजित हुए जिसके बाद धूमल परिवार की सियासी धाक कुछ कम हुई। मगर सांसद अनुराग सिंह ठाकुर ने विरासत की सियासत काे ज़िंदा भी रखा और सियासी रसूख भी बढ़ाया । 2019 के आम चुनाव के बाद अनुराग केंद्रीय मंत्री हो चुके है। अन्य नेताओं की बात करें तो हिमाचल प्रदेश विधानसभा के पूर्व स्पीकर बीबीएल बुटेल पिछले चुनाव से ही रिटायर हो गए और उनके बेटे आशीष बुटेल ने पूरा माेर्चा संभाल लिया। पूर्व सांसद चंद्र कुमार के बेटे एवं पूर्व सीपीएस नीरज भारती भी 2012 में विधायक बने, हालांकि उन्हें 2017 में हार मिली। सुधीर शर्मा, अनिल शर्मा, गाेविंद सिंह ठाकुर, जगत सिंह नेगी, अजय महाजन, समेत कुछ ऐसे नेता हैं जाे सक्रीय राजनीति कर रहे हैं और अपने बुजुर्गों की राजनैतिक विरासत को संभाले हुए है। विधानसभा में पहली बार पिता -पुत्र की जाेड़ी हिमाचल प्रदेश विधानसभा के इतिहास में पहली बार पिता -पुत्र की जाेड़ी देखने काे मिली। 2017 के चुनाव में कांग्रेस से पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह दाेनाें चुनाव जीते और विधानसभा में एक साथ दिखे । यह पहला माैका है कि जब हिमाचल विधानसभा सदन में पिता और पुत्र की जाेड़ी देखि गई । वहीं अब पूर्व मंत्री जीएस बाली भी उनके बेटे रघुवीर सिंह बाली काे अपने साथ सदन में देखना चाहते हैं। अब बेटियां भी पीछे नहीं परिवार की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने में बेटियां भी पीछे नहीं है। मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर की बेटी वंदना गुलेरिया और पूर्व मंत्री कौल सिंह ठाकुर की बेटी चंपा ठाकुर भी सक्रीय राजनीति में है और वर्तमान में दोनों जिला परिषद सदस्य है। चंपा ठाकुर तो 2017 में मंडी सदर सीट से विधानसभा चुनाव भी लड़ चुकी है। इनके अतिरिक्त कई अन्य नेताओं की बेटियां भी सक्रीय दिखती रही है। इनके हाथाें में है विरासत वीरभद्र सिंह- विक्रमादित्य सिंह प्रेम कुमार धूमल- अनुराग ठाकुर पंडित सुखराम- अनिल शर्मा और आश्रय शर्मा सत महाजन- अजय महाजन पंडित संतलाल- सुधीर शर्मा जीएस बाली- रघुवीर बाली चंद्र कुमार- नीरज भारती कर्ण सिंह- आदित्य विक्रम सिंह कुंजलाल ठाकुर- गाेविंद सिंह ठाकुर बीबीएल बुटेल- आशीष बुटेल ज्ञान सिंह नेगी- जगत सिंह नेगी जगतराम ठाकुर- नरेंद्र ठाकुर आईडी धीमान- डा. अनिल धीमान मिल्खी राम गाेमा- यादवेंद्र गाेमा रामलाल ठाकुर- राेहित ठाकुर
केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर द्वारा दिल्ली से हिमाचल के लिए मदद भेजने पर बीजेपी कार्यकर्ताओं ने आभार जताया है। बिलासपुर के डॉ सुकृत ने कहा की अनुराग ठाकुर द्वारा इस कोरोना काल में हिमाचल के लिए स्वास्थय उपकरण लगातार भेजे जा रहे है। इन दिनों हिमाचल में कोरोना का संक्रमण लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसे में हिमाचल के अस्पतालों में उपकरणों की कमी न हो इसके लिए अनुराग ठाकुर अपने निजी प्रयासों से प्रदेश की मदद कर रहे है। उन्होंने कहा की अनुराग ठाकुर ने इस सामग्री में थ्री प्लाई मास्क 5000, एन-95 मास्क 300, ग्लव्स 2000, फेस शील्ड 100, पीपीई-किट 400, ऑक्सीजन मास्क 150, एनआरएम 100, पल्स ऑक्सीमीटर 50, ऑक्सीजन रेगुलेटर 100 बिलासपुर के लिए भेजे है. जिसके लिए डॉ सुकृत ने अनुराग ठाकुर का आभार जताया है।
प्रदेश की जयराम सरकार अपने तीन साल से अधिक के कार्यकाल के दाैरान चाहकर भी शिक्षकों के लिए ट्रांसफर पाॅलिसी लागू नहीं कर पाई। हालांकि शिक्षा विभाग ने पाॅलिसी मैटर समेत साॅफ्टवेयर तैयार कर दिया है, लेकिन न जाने यह पाॅलिसी कहां फंसी है? जयराम सरकार के अब तक के कार्यकाल में दाे शिक्षा मंत्री कार्यभार संभाल चुके है। पूर्व शिक्षा मंत्री सुरेश भारद्वाज के समय ही यह ट्रांसफर पाॅलिसी तैयार हाे रही थी, अब वर्तमान शिक्षा मंत्री गाेविंद सिंह ठाकुर भी इसे जल्द लागू करने की साेच रहे हैं। शिक्षा मंत्री का दावा हैं कि अब पाॅलिसी तैयार है, मगर काेराेना संकट के कारण लागू नहीं हाे सकी। ट्रांसफर पाॅलिसी पर फर्स्ट वर्डिक्ट मीडिया ने शिक्षा मंत्री गाेविंद सिंह ठाकुर से चर्चा की। पेश है इस विशेष चर्चा के कुछ अंश... सवाल: प्रदेश की ट्रांसफर पाॅलिसी तैयार है, लागू हाेने में कितना समय लगेगा ? शिक्षा मंत्री: राज्य के अध्यापकाें के लिए तैयार हाे चुकी ट्रांसफर पाॅलिसी लागू हाेने में थाेड़ा समय लग लगता हैं। काेराेना संकट के कारण यह पाॅलिसी लागू नहीं हाे सकी। एमआईसी यानी नेशनल इन्फाॅर्मेटिक सेंटर ने साॅफ्टवेयर काे लगभग तैयार कर दिया है। टीचर्स की सेवानिवृति मसला भी इसमें हाेगा। ट्रांसफर पाॅलिसी में अध्यापकाें की सेवानिवृति 31 मार्च फिक्स करने का प्रावधान किया जा रहा है। हम भी चाहते हैं कि जल्द से जल्द ट्रांसफर पाॅलिसी लागू हाे। उत्तराखंड और हरियाणा राज्य की तर्ज पर साॅफ्टवेयर तैयार किया गया। प्रदेश के शिक्षक संगठनाें ने इस मसले पर विरोध भी जताया था, लेकिन पाॅलिसी जल्द लागू की जाएगी। आने वाले दिनों में कैबिनेट से मंजूरी मिलने के तुरंत बाद ट्रांसफर पाॅलिसी लागू हाेगी। सवाल: पाॅलिसी लागू हाेने के बाद टीचर्स के तबादले कैसे हाेंगे? शिक्षा मंत्री: पाॅलिसी लागू होने के बाद शिक्षकों के तबादलों पर कागजी कार्य पूरी तरह से बंद हो जाएगा। यानी कि तबादले ऑनलाइन सॉफ्टवेयर के माध्यम से किए जाएंगे। शिक्षकों की ट्रांसफर पॉलिसी के लिए पूरा राेडमैप तैयार हो गया है। यह पॉलिसी लागू होने के बाद पांच साल बाद खुद पोर्टल शिक्षकों के नाम अपडेट कर देगा। पांच साल पूरे होने के बाद फिर शिक्षा विभाग स्टेशन देखकर शिक्षकों के तबादले करेगा। इसके साथ ही पॉलिसी ड्राफ्ट में यह भी लागू किया गया है कि तीन साल बाद कोई भी शिक्षक अपने नजदीकी किसी स्कूल में जाने के लिए अप्लाई कर सकते हैं। तैयार की जा रही ट्रांसफर पाॅलिसी में पीटीए, पैट और पैरा टीचर्ज काे शामिल करने या नहीं करने बारे में अभी कुछ नहीं कह सकते। सवाल: क्या पाॅलिसी के दायरे में अनुबंध अध्यापक भी आएंगे या नहीं? शिक्षा मंत्री: ट्रांसफर पाॅलिसी में अनुबंध पर सेवाएं दे रहे अध्यापकों काे भी बाहर रहा गया है। अनुबंध शिक्षक तीन साल की सेवाओं के बाद ही नीति में शामिल किये जाएंगे। पीटीए, पैट और पैरा टीचर्ज की संख्या 19 हजार के करीब हैं। 80 हजार से अधिक टीचर्ज ने एनआईसी काे बायोडाटा दे दिया है। इन शिक्षकों का नाम ऑनलाइन पोर्टल पर डाला जाएगा ताकि जब भी शिक्षक की ट्रासंफर पेंडिंग हो, तो ऑनलाइन जानकारी सरकार को भी आसानी से मिल जाएं। फिलहाल नई तबादला नीति के तहत कम नंबर लेने वाले शिक्षकों के प्रदेश के दुर्गम व जनजातीय क्षेत्रों में तबादले होंगे। सवाल: शिक्षक के तबादले का रिकॉर्ड काैन रखेगा? शिक्षा मंत्री: शिक्षकों की ट्रासंफर से पहले सर्विंस रिकोर्ड सॉफ्टवेयर बताएगा कि इससे पहले शिक्षकों ने कहां-कहां सेवाएं दी हैं। इसके अलावा शिक्षक से जुड़ा अन्य बायोडाटा भी सॉफ्टवेयर अपडेट करेगा। सरकार के आदेशों के बाद यह सॉफ्टवेयर तैयार हो गया है। शिक्षकों की ट्रांसफर पॉलिसी लागू होने से पहले प्रदेश सरकार शिक्षकों का पूरा रिकार्ड ऑनलाइन रखने के लिए सॉफ्टवेयर तैयार हाे चुका है। सरकार इस नीति को सख्ती से लागू करने की तैयारी में हैं। पॉलिसी लागू होने के बाद शिक्षकों के तबादलों पर कागजी कार्य पूरी तरह से बंद हो जाएगा। तबादले ऑनलाइन सॉफ्टवेयर के माध्यम से किए जाएंगे। काेराेना काल समाप्त हाेने के बाद सीएम जयराम ठाकुर से हर पहलु पर चर्चा कर पाॅलिसी काे लागू करेंगे।
हिमाचल में पानी वाले मुख्यमंत्री कहे जाने वाले पूर्व सीएम शांता कुमार के राजनीतिक गढ़ पालमपुर में बुटेल परिवार ने कांग्रेस का झंडा बुलंद रखा है। पिछले विधानसभा चुनाव से लेकर हाल ही में सम्पन्न हुए नगर निगम चुनाव पर गाैर करें ताे बुटेल परिवार ने पालमपुर की सियासत में किसी काे घुसने नहीं दिया। राजनीति में बुटेल परिवार की तीसरी पीढ़ी से आशीष बुटेल वर्तमान में विधायक भी है और जनता का भी उनको पूरा साथ मिल रहा है। विधानसभा के पूर्व स्पीकर बृज बिहारी लाल बुटेल के बाद अब आशीष बुटेल ने परिवार की राजनीतिक विरासत काे संभाल लिया है। जाहिर है अब उनका अगला टारगेट मिशन 2022 ही हाेगा। 2022 में कांग्रेस की सरकार बनी ताे लाज़मी है आशीष को विशेष महत्व मिलेगा। नगर निगम चुनाव से लेकर काेराेना काल के दाैरान तक की सियासत पर कांग्रेस और भाजपा का विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट है कि पालमपुर में भाजपा के तीन दिग्गजों काे पस्त करने में आशीष बुटेल ने काेई कसर नहीं छाेड़ी। नगर निगम के चुनाव में भाजपा की ओर से पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार, राज्यसभा सांसद इंदू गाेस्वामी, भाजपा के प्रदेश महामंत्री त्रिलोक कपूर समेत कई नेताओं ने मोर्चा संभाला, मगर आशीष की रणनीति के आगे भाजपा के दिग्गज बाैने हाेते नजर आये। हालांकि शांता कुमार अब सक्रीय राजनीति में नहीं है लेकिन जिस तरह उन्होंने नगर निगम बनाने को लेकर मोर्चा खोला था जाहिर है उनकी साख भी इस चुनाव में दांव पर थी। पालमपुर एमसी में पहली बार चुनाव हुए और कांग्रेस काे शानदार जीत मिली। कांग्रेस सत्ता में आई ताे मिली सकती है कैबिनेट की कुर्सी प्रदेश कांग्रेस कमेटी में महासचिव और पालमपुर से विधयक आशीष बुटेल का अगला टारगेट मिशन-2022 है। हालांकि बुटेल कहते है कि उन्हें किसी पद की लालसा नहीं हैं, लेकिन अगले साल कांग्रेस सत्ता में आती है ताे उन्हें कैबिनेट में जगह भी मिल सकती है। आशीष बुटेल की काबिलीयत, संगठन में पैठ और जनता के बीच रुसूख काे देखते हुए यह तय माना जा रहा है कि आशीष बुटेल का कद अगले साल हाेने वाले चुनाव के बाद प्रदेश की सियासत में इस युवा नेता का कद और बढ़ सकता है। निसंदेह बुटेल परिवार की सियासत मात्र पालमपुर तक सिमित नहीं है, बल्कि पूरे हिमाचल में इनका प्रभाव हैं। इससे पहले यानी 2012 के विधानसभा चुनाव में पालमपुर से चुनाव जीतने के बाद बीबीएल बुटेल काे वीरभद्र सरकार में विधानसभा स्पीकर की कुर्सी मिली थी। उसके बाद 2017 के चुनाव में युवा आशीष बुटेल काे टिकट मिला और उन्होंने जीतकर अपनी काबिलियत सिद्ध की। विधायक आशीष बुटेल के दादा कन्हैया लाल बुटेल 1952 के चुनाव में विधायक बने। आशीष के ताया कुंज बिहारी लाल बुटेल पूर्व में विधायक और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके हैं और 1985 से लेकर 2017 तक आशीष के पिता बृज बिहारी लाल बुटेल ने जमकर राजनीति की। अब आशीष बुटेल सियासत में माेर्चा संभाले हुए हैं। 1967 और 1972 में कुंज बिहारी लाल विधायक रहे। वहीँ बृज बिहारी बुटेल ने पहला चुनाव 1985 में लड़ा और दो बार के विधयक सरवण कुमार को परास्त किया। हालांकि 1990 का का चुनाव वे शांता कुमार से हार गए पर इसके बाद 1993, 1998 और 2003 में उन्हें फिर जनता ने आशीवार्द दिया। 2007 में एक बार फिर बृज बिहारी बुटेल को हार का सामना करना पड़ा लेकिन 2012 में वे फिर से जीतकर विधानसभा पहुंचे और स्पीकर भी बने। काेराेना काल में संकट माेचक बन रहे आशीष काेराेना काल में आशीष बुटेल अपने क्षेत्र में जरुरतमंदो के लिए संकट माेचक के रूप में उभर कर सामने आये हैं। पालमपुर विधायक ने अपना आलीशान व्यवसायिक भवन कोविड सेवा में लगाने का ऐलान कर अपनी तरफ से इस महामारी के खिलाफ लड़ाई में आहुति देने के प्रयास किया है। बुटेल उन चुनिंदा नेताओं में से है जो संकट की इस स्तिथि में जनता के बीच दिख रहे है, संजीदा दिख रहे है और फ्रंट से लीड करते दिख रहे है।
कई ऐतिहासिक फैसलों का गवाह रहा सोलन का दरबार हॉल आज उचित संरक्षण के लिए तरस रहा है। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जिस ईमारत में कभी बघाट रियासत का दरबार सजता था, वहां आज लोक निर्माण विभाग सोलन के अधीक्षण अभियंता का दफ्तर है। इसी दरबार हॉल में हिमाचल का नामकरण हुआ था और इसी दरबार हॉल में बघाटी राजा दुर्गा सिंह ने 28 रियासतों के राजाओं को राज -पाट छोड़ प्रजामण्डल में विलय होने के लिए मनाया था। बावजूद इसके किसी भी हुकूमत ने अब तक इसे हेरिटेज तक घोषित करने की जहमत नहीं उठाई। हालांकि वर्ष 2015 में बघाटी सामाजिक संस्था सोलन की मांग पर तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने दरबार हॉल को धरोहर संग्रहालय बनाने की घोषणा की थी। योजना थी कि इसे संग्रहालय के तौर पर विकसित किया जाएगा तथा बघाट व आसपास के क्षेत्रों की संस्कृति से संबंधित दुर्लभ वस्तुओं को इस हॉल में प्रदर्शित किया जाएगा। तब जिला भाषा एवं संस्कृति विभाग को योजना तैयार करने के निर्देश दिए गए थे। आदेशानुसार विभाग ने रिपोर्ट भी बनाई और सरकार को भेजी भी। किंतु इसके बाद इस संदर्भ में कुछ नहीं हुआ। दरबार हॉल को हेरिटेज घोषित करने की आधिकारिक नोटिफिकेशन जारी ही नहीं हुई। आचार्य दिवाकर दत्त शर्मा ने सुझाया था नाम बघाट रियासत के राजा दुर्गा सिंह संविधान सभा के चेयरमैन थे और उन्हें प्रजामण्डल का प्रधान भी नियुक्त किया गया था। उनकी अध्यक्षता में 28 जनवरी 1948 को दरबार हॉल में हिमाचल प्रदेश के निर्माण हेतु एक महत्वपूर्ण बैठक हुई थी। इस बैठक में डॉ यशवंत सिंह परमार व स्वतंत्रता सैनानी पदमदेव की उपस्तिथि को लेकर भी तरह-तरह की कहनियां है। कहा जाता है कि डॉ परमार वर्तमान उत्तराखंड राज्य का जौनसर-बाबर क्षेत्र का कुछ हिस्सा भी हिमाचल प्रदेश में मिलाना चाहते थे, किन्तु राजा दुर्गा सिंह इससे सहमत नहीं थे। साथ ही डॉ परमार प्रदेश का नाम हिमालयन एस्टेट रखना चाहते थे जबकि राजा दुर्गा सिंह की पसंद का नाम हिमाचल प्रदेश था। ये नाम संस्कृत के विद्वान आचार्य दिवाकर दत्त शर्मा ने सुझाया था जो राजा दुर्गा सिंह को बेहद भाया। अंत में राजा दुर्गा सिंह की चली और नए गठित राज्य का नाम हिमाचल प्रदेश ही रखा गया। 28 रियासत के राजाओं ने जब एक स्वर में प्रांत का नाम हिमाचल प्रदेश रखने की आवाज बुलंद की तो डॉ. परमार ने भी इस पर हामी भर दी। एक प्रस्ताव पारित कर तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को मंजूरी के लिए भेजा गया। सरदार पटेल ने इस प्रस्ताव पर मुहर लगाकर हिमाचल का नाम घोषित किया। लचर व्यवस्था की बलि चढ़ रही राजसी शान-ओ-शौकत का गवाह रही इमारत मौजूदा समय में दरबार हॉल का इस्तेमाल लोक निर्माण विभाग कर रहा है। ऐतिहासिक दरबार हॉल में जर्जर दीवारें अपनी अनदेखी की कहानी बयां कर रही हैं। सोचने वाली बात तो ये है की जिलाभर के सरकारी भवनों को बनाने और रखरखाव करने वाले लोक निर्माण विभाग का कार्यालय इस जर्जर भवन में चल रहा है। दरबार हॉल को उचित पहचान दिलाना तो दूर इस स्थान का अस्तित्व तक खतरे में है। दरबार हॉल में राजशाही के दौर की तीन कुर्सियां आज भी मौजूद हैं। आज भी दरबारी द्वार पर की गई बेहद सुंदर नकाशी को देखा जा सकता है। आज भी ये दरबार हॉल अपनी खूबसूरती और अपने शानदार इतिहास का लोहा ना सिर्फ सोलन बल्कि समूचे प्रदेश में कायम करता है। पर विडम्बना ये हैं कि राजसी शान-ओ-शौकत का गवाह रही यह इमारत आज धीरे-धीरे लचर व्यवस्था की बलि चढ़ रही है।
टीम जयराम में चंबा ज़िले काे वो स्थान नहीं मिला जिसकी अपेक्षा थी। पिछली बार यानी 2017 के विधानसभा चुनाव में इस जिले की 5 में से 4 सीटाें पर भाजपा काबिज हुई, लेकिन एक भी कैबिनेट मंत्री नहीं बनाया गया। यहां सिर्फ हंसराज काे विधानसभा में डिप्टी स्पीकर की कुर्सी दी गई। हालांकि भाजपा के सत्ता में आते ही संभावनाएं जताई जा रही थी कि चंबा जिला से किसी एक विधायक को मंत्रीमंडल में जगह मिलेगी, मगर ऐसा नहीं हाे पाया। चम्बा को डिप्टी स्पीकर पद से ही संतुष्ट हाेना पड़ा। भटियात विधानसभा से भाजपा विधायक विक्रम जरयाल काे कैबिनेट मंत्री बनाने की चर्चाएं शुरु से ही थी। पर शुरुआत में उन्हें जगह नहीं मिली। इसके बाद अनिल शर्मा के इस्तीफे, विपिन सिंह परमार के विधानसभा अध्यक्ष बनने और किशन कपूर के सांसद बनने के चलते 2019 में तीन मंत्रिपद खाली हो गए। पिछले साल मंत्रीमंडल विस्तार में भी जरयाल का नाम काफी आगे था, लेकिन शायद जयराम ठाकुर की सियासी गणित में वे फिट नहीं बैठे। जरियाल को कैबिनेट में स्थान नहीं मिला। गाैरतलब है कि पिछली कांग्रेस सरकार में ठाकुर सिंह भरमाैरी काे मंत्री पद मिला था। उससे पहले धूमल सरकार में तुलसीराम शर्मा काे विधानसभा स्पीकर बनया गया था। पर चार सीट जीतने के बावजूद जयराम सरकार में चम्बा को अपेक्षित स्थान नहीं मिला। स्थानीय राजनीति में कांग्रेस ने भी इस मसले पर खूब चुटकी ली है और ये 2022 में महत्वपूर्ण फैक्टर बन सकता है। अब देखना है कि अगले साल हाेने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता की चाबी किसके पास जाएगी और चंबा काे मंत्रीमंडल में स्थान मिलेगा या नहीं ? पर उससे पहले चम्बा किसके साथ जाता है, ये देखना भी रोचक होगा। आखिरकार राजनीतिक पिच पर भी सफल हुए पवन नैयर चंबा सदर से भाजपा विधायक पवन नैयर ने क्रिकेट की पिच से राजनीतिक सफर तय किया है। हालांकि वे इससे पूर्व कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ते रहे, लेकिन जीत नसीब नहीं हुई। यही वजह है कि 2017 के चुनाव में दल बदल लिया और विधानसभा में भी पहुंचे। बता दें कि पवन नैयर अपने समय के हिमाचल से रणजी खिलाड़ी रह चुके हैं। वर्तमान में वे हिमाचल प्रदेश टेबल टेनिस एसाेसिएशन के प्रेसिडेंट भी हैं। आशा ने बचाई कांग्रेस की लाज, नहीं ताे क्लीन स्वीप पूर्व मंत्री एवं कांग्रेस विधायक आशा कुमारी ने 2017 में कांग्रेस की लाज बचाई। पांच में चार सीटाें पर भाजपा का कब्जा रहा, जबकि डलहाैजी सीट पर जीत दर्ज कर आशा कुमारी ने कांग्रेस काे क्लीन स्वीप से बचा लिया। यह बात अलग है कि 2012 में वीरभद्र सरकार में आशा कुमारी काे कैबिनेट में जगह नहीं दी गई थी, फिर भी उन्हाेंने अपनी सीट कायम रखने में सफलता हासिल की। ये हैं चंबा जिले के माननीय हंसराज -डिप्टी स्पीकर हिमाचल विधानसभा विक्रम सिंह जरयाल- भाजपा विधायक जिया लाल- भाजपा विधायक पवन नैयर- भाजपा विधायक आशा कुमारी- कांग्रेस विधायक
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस 135 साल की हो चुकी है। आजादी के बाद पहली बार 1951-52 के पहले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस उतरी। ये चुनाव तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में कांग्रेस ने लड़ा था और उस वक्त कांग्रेस का चुनाव चिंह पंजा नहीं था बल्कि दो बैलों की जोड़ी थी। तब किसानों और ग्रामीण भारत को जहन में रखकर कांग्रेस ने ये चुनाव चिन्ह चुना था, ताकि बैलों के जरिए वोटरों से कनेक्ट किया जा सके। पर तब से अब तक कांग्रेस कई बार अपना चुनाव चिन्ह बदल चुकी है। 1952 में कांग्रेस ने भारी बहुमत से चुनाव जीता और इसके बाद 1957, 1962 के चुनाव में भी पार्टी विजयी रही। इस दौरान पंडित नेहरू के निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने पर उनकी ताशकंद में हुई मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी की बतौर प्रधानमंत्री एंट्री हुई। तब कांग्रेस का नियंत्रण के कामराज के नेतृत्व एक सिंडीकेट के हाथों में था। इंदिरा को प्रधानमंत्री बनाए जाने के खिलाफ कांग्रेस में एक गुट मजबूत होता जा रहा था। यानी इंदिरा की एंट्री के बाद कांग्रेस की लोकप्रियता में गिरावट और विभाजन का दौर शुरू हो गया था। 1967 के आमचुनाव में कांग्रेस को पहली बार कड़ी चुनौती मिली और पार्टी 520 में 283 सीटें जीत पाई जो उसका सबसे खराब प्रदर्शन था। किसी तरह इंदिरा प्रधानमंत्री तो बनी रहीं लेकिन कांग्रेस की अंर्तकलह खुलकर सामने आ गई और आखिरकार 1969 में कांग्रेस टूट गई। मूल कांग्रेस की अगुवाई कामराज और मोरारजी देसाई कर रहे थे और इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आर) के नाम से नई पार्टी बनाई। हालांकि तब अधिकांश सांसद इंदिरा के साथ थे। कांग्रेस टूटने के साथ पार्टी के चुनाव चिन्ह पर कब्जे को लेकर भी विवाद शुरू हो गया। कांग्रेस में दो गुट बने, कांग्रेस (ओ) यानि कांग्रेस ओरिजनल और कांग्रेस (आर)। ये दोनों गुट दोनों बैलों की जोड़ी के चुनाव चिंह पर अपना दावा जता रहे थे। मामला भारतीय चुनाव आयोग के पास पहुंचा तो उसने बैलों की जोड़ी का कांग्रेस का सिंबल कांग्रेस (ओ) को दिया। और इंदिरा के कब्जे वाली कांग्रेस के लिए गाय-बछड़ा का चुनाव चिन्ह मिला। इसके बाद1971 के आम चुनाव में इंदिरा की कांग्रेस (आर) गाय - बछड़ा चुनाव चिन्ह के साथ लोकसभा चुनावों में उतरी और उसे 352 सीटें हासिल हुईं। वहीं कांग्रेस के दूसरे गुट को महज 16 सीटें मिलीं। इन नतीजों ने इंदिरा की कांग्रेस ने असली कांग्रेस का रूतबा दिया। इसके बाद इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल लगा दिया और 1977 का आम चुनाव आते-आते कांग्रेस की स्तिथि बदतर हो गई। 1977 के आम चुनाव में भी कांग्रेस का सिंबल गाय - बछड़ा ही था और इस चुनाव में इंदिरा गांधी को बुरी शिकस्त मिली। कांग्रेस में एक बड़े गुट को लगने लगा कि इंदिरा अब खत्म हो चुकी है, लिहाजा फिर कांग्रेस में फिर इंदिरा गांधी के खिलाफ विद्रोह की स्थिति बन आई। राजनैतिक हालात को भांपते हुए इंदिरा गाँधी ने जनवरी 1978 में कांग्रेस को फिर तोड़ते हुए नई पार्टी बनाई, जिसे कांग्रेस (आई) का नाम दिया। इंदिरा ने इसे असली कांग्रेस बताया। यानी कांग्रेस फिर दो हिस्सों में विभाजित हो गई। इस विभाजन के बाद इंदिरा गांधी ने चुनाव आयोग से नए चुनाव चिन्ह की मांग की। दरअसल तब गाय-बछड़े का चुनाव चिन्ह देशभर में कांग्रेस के लिए नकारात्मक चुनाव चिन्ह के रूप में पहचान बन गया था। विरोधी गाय को इंदिरा और बछड़े को संजय गांधी करार दे रहे थे माना जाता है कि इंदिरा खुद अब चुनाव चिंह से छुटकारा चाहती थीं। सो जब उन्होंने कांग्रेस को 1978 में तोड़ा तो चुनाव आयोग ने इस सिंबल को फ्रीज कर दिया। इसके बाद इंदिरा की कांग्रेस को हाथ का सिंबल मिला जो हिट साबित हुआ। 1980 के चुनाव में इंदिरा भारी बहुमत से चुनाव जीतकर फिर सत्ता में लौटीं। तब से अब तक कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हाथ ही है। इंदिरा ने क्यों चुनाव हाथ का चुनाव चिन्ह कांग्रेस के वर्तमान चुनाव चिन्ह की कहानी भी दिलचस्प है। 1977 में देश से इमरजेंसी खत्म होने के बाद रायबरेली से इंदिरा गांधी चुनाव हार गई। इसके बाद इंदिरा कांचि कामकोटि के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती से मिलने गईं। कहते है वह काफी देर तक शंकराचार्य से अपनी बात कहती रहीं। पर शंकराचार्य ने उनकी एक भी बात का जवाब नहीं दिया। अंततः इंदिरा ने विदा होने से पहले हाथ जोड़ कर जैसे ही अपना सिर उनके आगे झुकाया शंकराचार्य ने दाहिना हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। बताते हैं कि गांधी ने तत्काल इसी हाथ (पंजा) को अपना चुनाव चिन्ह बनाने का फैसला कर लिया। इंदिरा और शंकराचार्य की इस मुलाकात के बारे में आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एन भास्करराव ने भी अपनी जीवनी में बहुत विस्तार से उल्लेख किया है। उनके अनुसार यह 1978 की बात है। उस समय आंध्र समेत चार राज्यों का चुनाव हो रहे थे। गांधी ने उस समय कांग्रेस-आई की स्थापना की थी और उन्हें चुनाव आयोग में अपना चुनाव चिन्ह बताना था। आंध्र के दौरे पर गई गांधी ने शंकराचार्य से मिलने की इच्छा जताई थी। शंकराचार्य उस समय मदनपल्लै में थे। गांधी भास्कर राव के साथ मदनपल्लै गई। उन्होंने शंकराचार्य से आशीर्वाद मांगा। साथ ही, पार्टी सिंबल के लिए सुझाव भी। शंकराचार्य ने दाहिना हाथ हिलाया। गांधी ने इसे उनका इशारा मान कांग्रेस के झंडे में पंजे को शामिल करने का निर्देश दे दिया। यही बाद में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बन गया। वहीं इसको लेकर एक कहानी और भी है। कहते है हार के बाद इंदिरा गाँधी भी उत्तर प्रदेश के देवरिया में देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं। बाबा का आशीर्वाद देने का तरीका निराला था। मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो जाता था। पर बाबा ने इंदिरा को हाथ उठाकर पंजे से आशीर्वाद दिया। कहते है ये बाबा का इशारा था जिसे इंदिरा समझ गई और वहां से लौटने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा ही तय किया। अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक का सिंबल था हाथ कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हाथ का सिंबल पहले चुनाव में अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक (रुईकर ग्रुप) के पास था। किन्तु उसके बाद से इसका इस्तेमाल किसी पार्टी ने नहीं किया था। इसी लिए ये सिंबल कांग्रेस को मिल पाया।
2017 के विधानसभा चुनाव में भले ही भाजपा ने सत्ता पर कब्जा कर लिया, मगर सत्ता की चाबी हमीरपुर से छिन गई, इसका दुख कई भाजपाईयाें काे अब तक भी है। पूर्व मुखमंत्री एयर पार्टी के सीएम फेस प्रेम कुमार धूमल भी हारेंगे ऐसा किसी ने भी साेचा नहीं था, लेकिन वाेटर्स ने कर दिखाया। यही नहीं, बल्कि पांच में से भाजपा काे मात्र दाे ही सीटाें से संतुष्ट हाेना पड़ा। धूमल हारे ताे मंडी की किस्मत चमक गई और सीएम का सिंहासन जयराम ठाकुर काे मिल गया। 2017 के विधानसभा चुनाव में जिला हमीरपुर की सुजानपुर सीट से कांग्रेस के राजेंद्र राणा बनाम प्रेम कुमार का चुनावी घमासान संभवतः प्रदेश के सियासी इतिहास का सबसे रोचक मुकाबला है। यानी यहां राजेंद्र राणा हीराे बन गए और वहां जयराम ठाकुर राज्य के मुखिया। तब धूमल की सीट बदलकर उन्हें सुजानपुर से क्यों मैदान में उतारा गया, इसे लेकर अब भी तरह -तरह की बातें होती है। उधर 2017 के चुनावी नतीजे पर गाैर करते हुए भाजपा और कांग्रेस दाेनाें ने भीतरखाते अभी से ही रणनीति तैयार कर दी है। ऐसे में देखना है कि 2022 के चुनाव में हमीरपुर और खासतौर से सुजानपुर की सियासत में कौन चमकता है। वर्तमान सरकार में जिला हमीरपुर से काेई मंत्री नहीं है। यहां से सिर्फ पूर्व विधायक विजय अग्निहाेत्री काे हिमाचल परिवहन निगम में उपाध्यक्ष की कुर्सी साैंपी गई है। पूर्व मंत्री स्व.आईडी धीमान के गृह क्षेत्र से पिछली बार उपचुनाव में उनके बेटे डा.अनिल धीमान काे जीत मिली थी ताे 2017 के चुनाव में यहां कमलेश कुमारी काे मैदान में उतारा गया और वह जीत भी गई। वहीं हमीरपुर सीट से नरेंद्र ठाकुर भाजपा के विधायक हैं। कभी दो महिला नेताओं की होती थी चर्चा, अब दोनों गायब जिला हमीरपुर से दाे दिग्गज महिला नेताओं का सियासी वजन बीते कुछ समय में हल्का हुआ है। महिला कांग्रेस की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अनिता वर्मा और पूर्व विधायक उर्मिल ठाकुर प्रदेश की सक्रीय राजनीति से गायब हाेती नजर आ रही हैं। एक समय था जब हमीरपुर शहर में अनिता वर्मा और उर्मिल ठाकुर के आमने -सामने वाले मकान में कमल और हाथ चुनाव चिन्ह वाले झंडे दिखाई देते थे। दोनों के बीच जबरदस्त घमासान देखने को मिलता था, मगर इन दिनों ऐसा कुछ नहीं हैं। एक सुक्खू, जिन्हें कभी नहीं मिला सत्ता का सुख कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू की किस्मत में कभी भी सत्ता का सुख नहीं रहा। पिछली सरकार में पीसीसी चीफ की कमान संभाले हुए थे, 2017 के चुनाव में कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई और सुक्खू जीत गए। ऐसा ही 2007 के चुनाव में हुआ। उस समय भी उन्हें विपक्ष में ही रहना पड़ा। पिछली बार पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और सुक्खू में तकरार आम बात रही। मीडिया में भी एक-दूसरे के खिलाफ दोनों की बयानबाजी सुर्ख़ियों में रही। ये हैं हमीरपुर जिले से माननीय -सुखविंद्र सिंह सुक्खू - नादाैन से कांग्रेस विधायक -इंद्रदत्त लखनपाल -बड़सर से कांग्रेस विधायक -राजेंद्र राणा -सुजानपुर से कांग्रेस विधायक -नरेंद्र ठाकुर -हमीरपुर से भाजपा विधायक -कमलेश कुमारी -भाेरंज से भाजपा विधायक
हिमाचल प्रदेश में सत्ता सुख उसी राजनैतिक दल का नसीब होता हैं जिसपर जिला कांगड़ा की कृपा बरसती हैं। इतिहास भी इस बात की तस्दीक करता हैं कि प्रदेश की सत्ता का रास्ता कांगड़ा से होकर गुजरता हैं। जो कांगड़ा फ़तेह नहीं कर पाता उसे सत्ता हासिल नहीं होती। वर्ष 1985 से ये सिलसिला चला आ रहा हैं। 1985, 1993, 2003 और 2012 में कांग्रेस पर कांगड़ा का वोट रुपी प्यार बरसा तो सत्ता भी कांग्रेस को ही मिली। वहीं 1990, 1998, 2007 और 2017 में कांगड़ा में भाजपा इक्कीस रही और प्रदेश की सत्ता भी भाजपा को ही मिली। यानी 1985 से 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सत्ता में जिला कांगड़ा का तिलिस्म बरकरार रहा हैं। इससे पहले 1982 के चुनाव में भाजपा को 10 सीटें मिली थी लेकिन प्रदेश में सरकार कांग्रेस की बनी थी। जिला कांगड़ा का सियासी मिजाज समझना बेहद मुश्किल हैं। कांगड़ा वालों ने मौका पड़ने पर किसी को नहीं बक्शा, चाहे मंत्री हो या मुख्यमंत्री। जो मन को नहीं भाया उसे कांगड़ा वालों ने घर बैठा दिया। अतीत पर नज़र डाले तो 1990 में जब भाजपा-जनता दल गठबंधन प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुआ तब शांता कुमार ने जिला कांगड़ा की दो सीटों से चुनाव लड़ा था, पालमपुर और सुलह। जनता मेहरबान थी शांता कुमार को दोनों ही सीटों पर विजय श्री मिली थी। पर 1993 का चुनाव आते -आते जनता का शांता सरकार से मोहभंग हो चूका था। नतीजन सुलह सीट से चुनाव लड़ने वाले शांता कुमार खुद चुनाव हार गए। वहीँ पिछले चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के दो दमदार मंत्री सुधीर शर्मा और जीएस बाली को भी हार का मुँह देखना पड़ा। वर्ष कुल सीट कांग्रेस भाजपा अन्य 1985 16 11 3 2 1990 16 1 12 3 ( जनता दल जिसका भाजपा के साथ गठबंधन था ) 1993 16 12 3 1 1998 16 5 10 1 2003 16 11 4 1 2007 16 5 9 2 2012 15 10 3 2 2017 15 3 11 1 2017 में मिले थे चार मंत्रिपद, अब तीन मंत्री 2017 के विधानसभा चुनाव में जिला कांगड़ा की 15 में से 11 सीटें भाजपा के खाते में आई थी। सरकार गठन के बाद जिला को चार कैबिनेट मंत्री पद मिले। विपिन सिंह परमार को स्वास्थ्य, किशन कपूर और खाद्य आपूर्ति, सरवीण चौधरी को शहरी विकास और विक्रम सिंह को उद्योग मंत्रालय मिला। यानी जयराम कैबिनेट में जिला कांगड़ा को दमदार महकमे मिले। इसके बाद 2019 में किशन कपूर सांसद बनकर लोकसभा चले गए। जबकि विपिन सिंह परमार से मंत्री पद लेकर उन्हें माननीय विधानसभा स्पीकर बना दिया गया। तदोपरांत 2020 में हुए मंत्रिमंडल विस्तार में सरवीण चौधरी से शहरी विकास जैसा महत्वपूर्ण महकमा लेकर उन्हें सामजिक न्याय मंत्रालय का ज़िम्मा दे दिया गया। वंही राकेश पठानिया की कैबिनेट में वन, युवा एवं खेल मंत्री के तौर पर एंट्री हुई। विक्रम सिंह ही एकमात्र ऐसे मंत्री है जो शुरू से जयराम कैबिनेट में बने हुए है और जिनका वजन भी बढ़ा है। मंत्रिमंडल विस्तार में उनके पोर्टफोलियो में परिवहन जैसा महत्वपूर्ण महकमा भी जोड़ दिया गया। वर्तमान में तीन मंत्रिपद और विधानसभा स्पीकर का पद कांगड़ा के हिस्से में है। सियासी माहिर मानते है की स्वास्थ्य और शहरी विकास जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय छीनने की टीस जरूर कही न कही कांगड़ा में मन में रह सकती है। मिशन 2022 में क्या ध्वाला के लिए जगह होगी ज्वालामुखी के विधायक रमेश चंद ध्वाला के ज़िक्र के बिना कांगड़ा में भाजपा का सियासी जोड़ भाग अधूरा है। कांगड़ा में भाजपा का बड़ा ओबीसी चेहरा माना जाने वाले ध्वाला को कैबिनेट रैंक तो मिली लेकिन पद नहीं। इतना ही नहीं पार्टी संगठन के साथ उनकी खींचतान भी जगजाहिर है। कई मौकों पर ध्वाला ने खुलकर अपनी ही सरकार काे घेरने से भी गुरेज नहीं किया। हालांकि अब तक ध्वाला सीएम के खिलाफ खुलकर बोलने से बचते दिखे है, पर उनके मन की टीस साफ दिखती है। 2022 आते-आते ध्वाला की ज्वाला और भड़कती है या नहीं, ये देखना दिलचस्प होगा। इसी तरह क्या भाजपा की 2022 योजना में उनके लिए स्थान है या नहीं, ये भी बड़ा सवाल है। कांग्रेस: एकजुट रहकर ही 2022 फ़तेह संभव कांगड़ा में कांग्रेस की बात करें तो हालहीं में हुए दो नगर निगमों के चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहा है। पालमपुर में कांग्रेस को शानदार जीत मिली तो धर्मशाला में भी मामला ठीक ठाक रहा। अब फतेहपुर में उप चुनाव होना है जिसके लिए भी पार्टी तैयार दिख रही है। खासबात ये है कि पिछले चुनाव में धराशाई होने वाले कांग्रेसी दिग्गज भी अब वापस मुख्यधारा में दिख रहे है। पर पार्टी के दो बड़े नेताओं के बीच वर्चस्व की लड़ाई हमेशा ही पार्टी की परेशानी बढ़ाती रही है। इन दो ब्राह्मण नेताओं की खींचतान से न सिर्फ पार्टी का नुक्सान हुआ है बल्कि इन दिग्गजों की निजी साख भी धूमिल हुई है। ऐसे में 2022 फ़तेह करने के लिए जरूरी है कि पार्टी एकजुट रहे।
दयाल प्यारी को कांग्रेस पर प्यार क्या आया पच्छाद निर्वाचन क्षेत्र में राजनैतिक हलचल तेज हो गई। दयाल प्यारी की कांग्रेस में एंट्री के साथ ही उनके 2022 में कांग्रेस उम्मीदवार होने के कयास भी लगने लगे हैं। दयाल प्यारी भी जमकर मैदान में डटी हैं, पर शायद कांग्रेस के एक गुट को उनका आना रास नहीं आ रहा। अभी मुख़ालफ़त भीतरखाते हैं पर चुनाव नजदीक आते-आते कांग्रेस की ये अंतर्कलह उजागर होने के पुरे आसार दिख रहे हैं। हालांकि एक तबका ऐसा भी हैं जो दयाल प्यारी की एंट्री को कांग्रेस के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं मानता l पच्छाद में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गंगूराम मुसाफिर हार की हैट्रिक लगा चुके है। मुसाफिर के लगातार तीन बार हारने के बाद कोंग्रेसियों को भी पच्छाद में संभावनाएं नज़र आना बंद हो गई थी, मगर दयाल प्यारी के आते ही अब इस खेमे को पच्छाद में संभावनाएं भी दिखती है और उम्मीद का ऑक्सीजन भी मिल गया है। बहरहाल दयाल प्यारी के आने से पच्छाद कांग्रेस में खूब हलचल हैं। सिरमौर भाजपा के विभिन्न पदों पर रहीं पूर्व जिला परिषद अध्यक्ष दयाल प्यारी ने अप्रैल में ही कांग्रेस का हाथ थामा है। दरअसल, सुरेश कश्यप के सांसद बनने के बाद 2019 में हुए पच्छाद विधानसभा क्षेत्र के उप चुनाव में भाजपा ने दयाल प्यारी को टिकट नहीं दिया था। अंत तक ये कयास लग रहे थे की भाजपा दयाल प्यारी को ही टिकट देगी। दयाल प्यारी और उनके समर्थक भी आश्वस्त थे, मगर अंत में टिकट मिला रीना कश्यप को। टिकट न मिलने पर दयाल प्यारी ने बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव लड़ा और 11,651 मत हासिल कर अपना सियासी वजन दिखा दिया। दयाल प्यारी तीसरे नंबर पर रही थी मगर यहां गौर फरमाने वाली बात तो ये है कि भाजपा में बगावत के बावजूद भी कांग्रेस के गंगू राम मुसाफिर को पच्छाद में जीत नहीं मिली थी। ऐसे में अब दयाल प्यारी के कांग्रेस में शामिल होने से पच्छाद कांग्रेस की राजनीति में उलटफेर संभावित हैं। निसंदेह दयाल प्यारी की ज़मीनी पकड़ मज़बूत है और उनके बेबाक अंदाज़ के चलते वे लोकप्रिय भी है। वहीं कांग्रेस यहाँ हार की हैट्रिक लगा चुकी हैं जिसके बाद पार्टी 2022 में दयाल प्यारी पर दांव खेल सकती हैं। प्रत्याशी का चुनाव होगा टेढ़ी खीर गंगू राम मुसाफिर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता है। भले ही वो पिछले तीन चुनाव हारे है मगर 1982 के बाद से 2007 तक गंगू राम मुसाफिर ने निरंतर 7 बार पच्छाद विधानसभा सीट से चुनाव जीते भी थे। 30 साल तक लगातार विधायक रहने के बाद 2012 में वर्तमान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सुरेश कश्यप ने उन्हें हराया था। गंगू राम मुसाफिर तीन दशक तक पच्छाद के विधायक रहे है, निसंदेह क्षेत्र में अब भी उनका जनाधार बरकरार है। अब 2022 में मुसाफिर या दयाल प्यारी में से किसी एक को चुनना कांग्रेस के लिए किसी टेढ़ी खीर से कम नहीं होने वाला। पहली बार 2012 में मिली भाजपा को जीत पच्छाद निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा को पहली बार 2012 में जीत मिली। तब सुरेश कश्यप ने यहाँ भाजपा को जीत दिलवाई थी। इसके बाद 2017 में सुरेश कश्यप लगातार दूसरी बार जीते। 2019 में सुरेश कश्यप लोकसभा चुनाव जीतकर सांसद बन गए जिसके बाद पच्छाद में उपचुनाव हुआ। इस उप चुनाव में भाजपा ने रीना कश्यप को टिकट देकर सबको चौंका दिया, जबकि दयाल प्यारी और आशीष सिक्टा टिकट के प्रबल दावेदार थे। हालांकि उपचुनाव में भाजपा की रीना कश्यप को जीत मिली। अब सुरेश कश्यप सांसद होने के साथ-साथ प्रदेश भजपा अध्यक्ष भी हैं। ऐसे में 2022 में पच्छाद सीट भाजपा को जितवाना उनके लिए भी प्रतिष्ठता का सवाल होगा।
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सुरेश कश्यप ने कहा यूथ कांग्रेस अध्यक्ष से दिल्ली पुलिस की पूछताछ पर कांग्रेस की राजनीति शर्मनाक है। उन्होंने कहा दिल्ली पुलिस ने दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश पर चल रही जाँच में कोविड -19 दवाओं की अवैध खरीद और वितरण के आरोपों को लेकर 14 मई 2021 को युवा कांग्रेस अध्यक्ष श्रीनिवास बी से पूछताछ की। पुलिस पहले ही इस मामले में कुछ AAP और भाजपा नेताओं से पूछताछ कर चुकी है । भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने कहा कि भाजपा सांसद गौतम गंभीर , भाजपा नेता हरीश खुराना , आप विधायक दिलीप पांडेय सहित कई लोगों से दिल्ली पुलिस अब तक पूछताछ कर चुकी है । कांग्रेस पार्टी ने यूथ कांग्रेस अध्यक्ष श्रीनिवास बी से पूछताछ पर नाराजगी जताई एवं कोविड-19 सहायता वितरित करने के लिए किसी की जाँच करने की उपयुक्तता पर सवाल उठाया । कांग्रेस का आरोप राजनीति से प्रेरित हैं क्योंकि ये पूछताछ दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश पर हो रहा है, कांग्रेस द्वारा पूछताछ पर लगाए गए आरोप एक तरह से अदालत के आदेश की अवमानना है। उन्होंने कहा दिल्ली पुलिस द्वारा पूछताछ दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार की जा रही है , जिसने उन्हें COVID - 19 दवाओं के कथित अवैध वितरण में राजनेताओं की संलिप्तता की जाँच करने के लिए कहा है । हृदुआ फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ . दीपक सिंह ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी , जिसमें कथित ' मेडिकल माफिया - राजनेता गठजोड़ ' और राजनेताओं द्वारा कोविड दवाओं के अवैध वितरण की सीबीआई जाँच की माँग की गई थी । याचिकाकर्ता ने गंभीर , श्रीनिवास , साथ ही भाजपा नेताओं सुजय विखे , गौतम गंभीर और शिरीष चौधरी , कांग्रेस नेता प्रियंका गाँधी वाड्रा और कांग्रेस विधायक मुकेश शर्मा , एनसीपी नेता शरद पवार और रोहित पवार का उल्लेख किया था । इसमें उनके द्वारा वितरित किए गए रेमडेसिविर का उदाहरण दिया गया था । उन्होंने कहा याचिका में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून , 1980 के अनुसार कोविड -19 दवाओं की कालाबाजारी में लिप्त होने और विधायकों और सांसदों को अयोग्य ठहराने के लिए ऐसे व्यक्तियों को हिरासत में लेने के लिए भी अपील की गई थी । अदालत ने 4 मई को एफआईआर और सीबीआई जाँच की याचिका को खारिज कर दिया था , लेकिन दिल्ली पुलिस से इस मुद्दे की जाँच करने के लिए कहा था । अदालत ने पुलिस से कहा था कि राजनेताओं द्वारा कथित तौर पर सीधे रेमडेसिविर की खरीद और उन्हें कोविड -19 मरीजों को वितरित करने के मामलों पर ध्यान दें और यदि कोई अनियमितता मिलती है तो प्राथमिकी केस दर्ज करे । अदालत ने राज्य को एक सप्ताह के भीतर स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने को कहा और मामले को सुनवाई के लिए 17 मई को सूचीबद्ध किया ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को एक ऑनलाइन किसान इवेंट को संबोधित करते हुए कहा कि कोरोना महामारी के कारण देशवासी जिस दर्द से गुज़र रहे हैं, उसे वे भी महसूस कर रहे हैं। देश में कोरोना का कहर लगातार जारी है और इस बीच देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साढ़े नौ करोड़ से ज्यादा किसानों के खातों में 19,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की राशि ट्रांसफर की। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों को संबोधित किया और इसी मौके पर कोरोना के खिलाफ लड़ाई में हिम्मत रखने को भी कहा। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कोरोना महामारी देश का एक अदृश्य दुश्मन है, जो बहरुपिया भी है, इससे हम सबको मिलकर लड़ना होगा। पीएम मोदी ने कहा कि भारत हार ना मानने वाला देश और मुझे पूरा यकीन है कि भारत इस महामारी का डटकर सामना करेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कोरोना वायरस परीक्षा ले रहा है लेकिन हम हारेंगे नहीं। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि इस महामारी के दौरान देशवासी जिन तकलीफों से गुजर रहे हैं, मुझे उसका एहसास है। उन्होंने कहा कि सरकार सभी गतिरोधों को दूर करने में जुटी हुई है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि बीते कुछ समय से जो कष्ट देशवासियो ने सहा है,अनेको लोग जिस दर्द से गुजरे है, तकलीफ से गुजरे है वो मैं भी उतना ही महसूस कर रहा हूं। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने जानकारी दी कि देश में ऑक्सीजन प्लांट लग रहे हैं और जल्द ही हालात पर काबू पा लिया जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि देशभर के सरकारी अस्पतालों में मुफ्त टीकाकरण किया जा रहा है। इसलिए जब भी आपकी बारी आए तो टीका जरूर लगाएं। ये टीका हमें कोरोना के विरुद्ध सुरक्षा कवच देगा, गंभीर बीमारी की आशंका को कम करेगा। प्रधानमंत्री ने कहा, 'ऑक्सीजन रेल ने कोरोना के खिलाफ बहुत बड़ी ताकत दी है। देश के दूरदराज के हिस्सों में यह विशेष ट्रेनें ऑक्सीजन पहुंचाने में जुटी हैं। ऑक्सीजन टैंकर ले जाने वाले ड्राइवर बिना रुके काम कर रहे हैं।'प्रधानमंत्री ने कहा कि संकट के समय दवाइयां और जरूरी वस्तुओं की जमाखोरी और कालाबाजारी में भी कुछ लोग अपने निहित स्वार्थ के कारण लगे हुए हैं। इसे मानवता के खिलाफ बताते हुए उन्होंने राज्य सरकारों से ऐसे लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने को कहा।
कोरोना मैनेजमेंट पर मोदी सरकार को घेर रही कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को भाजपा ने जवाब दिया है। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने मंगलवार को कहा कि आज के हालात में कांग्रेस की करनी से हैरान नहीं हूं, दुखी हूं। उन्होंने कहा कि एक ओर उनकी पार्टी के कुछ मेंबर्स लोगों की मदद करने का काम कर रहे हैं तो वहीं, दूसरी ओर उनके वरिष्ठ नेताओं की फैलाई नकारात्मकता से ये सराहनीय काम धूमिल हो रहा है। जेपी नड्डा ने कहा कि ये खत गहरी पीड़ा और दुख के साथ लिख रहा हूं। मैंने कभी ऐसा पत्र नहीं लिखा है, लेकिन जिस तरह से कांग्रेस के मेंबर्स भ्रम फैला रहे हैं, उनके मुख्यमंत्री ऐसा कर रहे हैं उसके बाद मुझे यह खत लिखना पड़ा। जिस वक्त भारत कोरोना महामारी के साथ पूरी ताकत से लड़ रहा है, उस वक्त कांग्रेस की टॉप लीडरशिप को लोगों को गुमराह करना और झूठा डर फैलाना बंद कर देना चाहिए। गौरतलब है कि एक दिन पहले ही कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में सोनिया गांधी ने कहा था कि मोदी सरकार कोरोना काल में फेल हो गई। CWC में केंद्र सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया था।
प्रदेश की जयराम सरकार और भाजपा संगठन में जिला सिरमौर खूब चमक रहा है। मात्र पांच विधानसभा सीटाें वाले इस ज़िले में भाजपा ने 2017 में तीन सीटें ही जीती थी, पर सरकार और संगठन दोनों में सिरमौर का जलवा दिखा है। वर्तमान में जिला सिरमौर से एक मंत्री तो है ही, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद भी सिरमौर से है। 2017 के चुनाव में नाहन, पांवटा साहिब और पच्छाद सीट पर भाजपा की जीत हुई ताे नाहन विधायक डा. राजीव बिंदल काे विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी मिली। 2019 में डॉ राजीव बिंदल ने स्पीकर पद से इस्तीफा दिया और उन्हें भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की कमान मिल गई। पर पिछले साल यानी काेविड-19 के दाैरान स्वास्थ्य विभाग में घाेटाले के चलते डा. बिंदल काे भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पद से भी इस्तीफा देना पड़ा। पर पार्टी ने उनका रिप्लेसमेंट भी सिरमौर से ही ढूंढा। सांसद सुरेश कश्यप काे भाजपा प्रदेश अध्यक्ष का ज़िम्मा मिल गया। सिरमौर काे तवज्जो मिलने का सिलसिला ज़ारी रहा और पिछले साल मंत्रिमंडल विस्तार में पांवटा साहिब विधानसभा क्षेत्र से विधायक सुखराम चाैधरी काे मंत्री की कुर्सी मिल गई। यहीं से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिला सिरमौर काे सरकार और संगठन में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। बिंदल चले गए ताे सुखराम चाैधरी की हुई एंट्री 2017 के विधानसभा चुनाव में जब भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में लाैटी तो संभावनाएं जताई जा रही थी कि डा.बिंदल काे कैबिनेट में जगह मिलेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्हें विधानसभा में स्पीकर की कुर्सी दे दी गई। फिर वे प्रदेश अध्यक्ष रहे। पर वक्त बदला और डॉ बिंदल न सरकार में है और न संगठन में, लेकिन सिरमौर काे जगह दिलाने में उनका काफी याेगदान रहा। दरअसल, माना जाता है कि संतुलन बनाये रखने के लिए ही सुखराम चाैधरी को कैबिनेट में एंट्री मिली। पहली बार सिरमौर से सांसद पच्छाद विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे सुरेश कश्यप काे भाजपा ने 2019 में लाेकसभा चुनाव के मैदान में उतारा और वे जीत भी गए। शिमला संसदीय क्षेत्र से पहली बार सिरमौर का कोई नेता सांसद बना। उसके बाद हुए उपचुनाव में संगठन ने एक युवा महिला नेता काे टिकट के काबिल समझा और रीना कश्यप काे पच्छाद उपचुपनाव में जीत मिली। क्या सिरमौर भी रखेगा 2022 में ख्याल बेशक भाजपा ने सरकार और संगठन में जिला सिरमौर का पूरा ख्याल रखा है पर सिरमौर भाजपा का कितना ख्याल रखेगा इसका पता 2022 में ही चलेगा। पच्छाद क्षेत्र से भाजपा की फायर ब्रांड नेता रही दयाल प्यारी अब कांग्रेस में शामिल हो चुकी है। यहाँ से कांग्रेस के लिए हार की हैट्रिक लगा चुके वरिष्ठ नेता गंगूराम मुसाफिर की जगह पार्टी 2022 में दयाल प्यारी को मौका दे सकती है। वैसे भी पच्छाद में भाजपा की स्तिथि कमजोर हुई है, जिला परिषद् और स्थानीय निकाय के नतीजे भी इसकी तस्दीक करते है। कमोबेश ऐसा ही हाल मंत्री सुखराम चौधरी के क्षेत्र पावंटा साहिब का है। यहाँ अभी से भीतरखाते मंत्री की मुख़ालफ़त का बंदोबस्त दिखने लगा है। नाहन में जरूर डॉ राजीव बिंदल खुद को साबित करते आ रहे है लेकिन इसमें कोई शक-ओ-शुबह नहीं है कि मौजूदा स्तिथि में वे हाशिए पर ही है। रेणुकाजी और शिलाई में फिलहाल कांग्रेस का कब्ज़ा है और 2022 में भी यहाँ जबरदस्त मुकाबला होना तय है।
2022 के विधानसभा चुनाव में राज्य सचिवालय का सबसे फेमस कमरा नंबर 202 क्या फिर एक मंत्री के सियासी अरमानों की बलि लेगा ? क्या जयराम सरकार में आईटी मिनिस्टर डा. रामलाल मारकंडेय अगले साल चुनाव जीत पाएंगे या फिर मनहूस कमरे का ग्रहण लगेगा? ये बड़े सवाल है और इस कमरे पर बवाल है। जनाब ये कमरा नम्बर 202 है ही ऐसा, सत्तालोभी नेता इसका नाम सुनते ही भागे भागे फिरते है। दरअसल, राज्य सचिवालय में मंत्रियाें काे हर दफे कमरे अलॉट होते हैं, जिसको जो मिला वो उसमे खुश, लेकिन यहां एक कमरा ऐसा भी है जिसमें बैठने के लिए कोई भी मंत्री तैयार नहीं होता। प्रदेश सचिवालय में सभी मंत्रियों के इन कमरों से ही प्रदेश सरकार का कामकाज कैबिनेट मंत्री संभालते हैं। इन कमरों में कमरा नंबर 202 वो कमरा है जिसमें बैठने वाला मंत्री चुनाव हारता है। ये हम नही पिछले चुनाव के नतीजे बताते है और हिमाचल के सियासी गलियारों में भी ये बात आम है। पिछले चुनाव के नतीजों पर गाैर करें ताे 2012 में जब वीरभद्र सरकार बनी तो ये कमरा शहरी विकास मंत्री सुधीर शर्मा को मिला, और 2017 का चुनाव सुधीर शर्मा हार गए। सुधीर शर्मा इसी कमरे में बैठते थे। हालांकि उस वक्त सुधीर शर्मा बार-बार यही कहते थे कि ये सबकुछ अन्धविश्वास है, ऐसा कुछ नहीं हाेगा, मगर हुआ तो वो जो सोचा न था। इस कमरे में मंत्री बनने पर जगत प्रकाश नड्डा, आशा कुमारी और नरेंद्र बरागटा भी बैठे है और ये तीनों तत्कालीन मंत्री रहते हुए अगला चुनाव हार गए। हालांकि इसके बावजूद सियासत में इन नेताओं का दबदबा बना रहा। जगत प्रकाश नड्डा इस समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, जबकि आशा कुमारी एआईसीसी सचिव के साथ पंजाब कांग्रेस की प्रभारी हैं। नड्डा का केंद्र में दबदबा है और आशा कुमारी के पंजाब कांग्रेस के प्रभारी रहते हुए पार्टी को सत्ता मिली। गौरतलब है कि वर्ष 1998 से 2003 तक तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री एवं भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा इस कमरे में बैठे। नड्डा दाे बार राज्य सरकार में मंत्री रहने के अलावा प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी रह चुके हैं। हालांकि राज्य में स्वास्थ्य मंत्री बनने के बाद वे वर्ष 2003 में चुनाव हार गए थे। जीत हुई पर कैबिनेट में नहीं मिल पाई जगह 2012 के चुनाव में आशा कुमारी जीत कर विधानसभा पहुंची, लेकिन वीरभद्र सिंह के कैबिनेट में उन्हें जगह नहीं मिल पाई। इसी तरह से पूर्व बागवानी मंत्री नरेंद्र बरागटा 2017 का चुनाव जीत कर आए ताे जयराम सरकार में मंत्री पद नसीब नहीं हुआ। उन्हें चीफ व्हिप की कुर्सी दी गई, वह भी डेढ़ साल बाद। वर्ष 2002 के चुनाव में आशा कुमारी को भी शिक्षा मंत्री बनने के बाद यही कमरा मिला था, लेकिन वे 2007 में विधानसभा चुनाव हार गई थीं। जेपी नड्डा और आशा कुमारी के बाद यही कमरा नरेंद्र बरागटा को 2007 में बागवानी मंत्री बनने पर आबंटित हुआ और 2012 का विधानसभा चुनाव हार गए। उसके बाद सुधीर शर्मा को शहरी विकास मंत्री बनने पर ये कमरा मिला था, जो चुनाव हार गए हैं। अभी डा. रामलाल मारकंडा निपटा रहे हैं कामकाज प्रदेश की जयराम सरकार में आईटी मिनिस्टर डा. रामलाल मारकंडा कमरा नंबर 202 में बैठकर सरकार का कामकाज निपटा रहे हैं। अब देखना है की अगले साल हाेने वाले चुनाव में क्या डा. मारकंडा चुनाव जीत पाते हैं या फिर इतिहास बरकरार रहेगा?