मुख्य सचिव एवं राज्य कार्यकारी समिति के अध्यक्ष प्रबोध सक्सेना ने आज यहां राज्य आपदा प्रबंधन अधिनियम-2005 की धारा 24 (1) के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए राज्य में निर्माण गतिविधियों के संबंध में आदेश जारी किए हैं। इन आदशों के अनुसार आपदा प्रभावित इमारतों और सड़कों के पुनर्निर्माण कार्यों को छोड़कर किसी भी प्रकार के निजी विकास और निर्माण गतिविधि के लिए पहाड़ियों के कटान पर पूरे राज्य में 16 सितंबर तक प्रतिबंध लगाया गया है। इसके अतिरिक्त शिमला, मंडी, कुल्लू, कांगड़ा, सोलन और चंबा जिलों में वाणिज्यिक, पर्यटन इकाइयों के निर्माण के संबंध में 16 सितंबर तक नई योजना अनुमति एवं भवन अनुमति पर प्रतिबंध रहेगा।यह निर्णय प्रदेश में भारी बरसात के कारण आई प्राकृतिक आपदा के दृष्टिगत मानवीय जीवन, आधारभूत संरचना, पारिस्थितिकी की सुरक्षा के मद्देनजर लिया गया है।
चार उपचुनाव में शानदार जीत के बाद कांग्रेस में जश्न का माहौल है और पार्टी में नई ऊर्जा का संचार हुआ है। जिस अदद जीत के टॉनिक की पार्टी को जरुरत थी वो आखिरकार मिल गया। इस जीत में कई नेताओं की बड़ी भूमिका रही है और सभी उक्त नेताओं के निष्ठावान भी अपने-अपने चहेते नेताओं को जीत का श्रेय दे रहे है। पर कांग्रेस में एक कद्दावर नेता ऐसे भी है जो चुपचाप उपचुनाव में अपना काम करते रहे और जीत के बाद भी क्रेडिट लेने के लिए ज्यादा हाथ पाँव नहीं मारते दिखे। ये नेता है सोलन विधायक डॉ कर्नल धनीराम शांडिल। शांडिल अर्की उपचुनाव के लिए प्रभारी थे और पार्टी के स्टार प्रचारक भी। उपचुनाव में संजय अवस्थी को टिकट देने के बाद अर्की में खुलकर बगावत हुई, ब्लॉक कांग्रेस के कई पदाधिकारियों ने इस्तीफा दिया और भाजपा ने पूरी ताकत लगाईं, बावजूद इसके कांग्रेस को शानदार जीत मिली। इस जीत में शांडिल की भी बड़ी भूमिका है। जब राजेंद्र ठाकुर ने खुलकर संजय अवस्थी के खिलाफ मोर्चा संभाला तो शांडिल वो नेता है जो राजेंद्र ठाकुर को मनाने कुनिहार पहुंच गए। हालांकि ठाकुर माने नहीं लेकिन शांडिल ने पूरा प्रयास किया और मतदान के दिन तक ठाकुर के समर्थकों को भी साधने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सोलन निर्वाचन क्षेत्र के साथ लगते अर्की के कई ग्रामीण क्षेत्रों में भी शांडिल अच्छा प्रभाव रखते है और उक्त क्षेत्रों में भी इसका लाभ अवस्थी को मिला। प्रचार के बीच भाजपा के पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा के साथ शिमला में कर्नल शांडिल की मुलाकात को लेकर भी खूब चर्चे हुए। कर्नल धनीराम शांडिल जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में भी पार्टी के लिए निरंतर प्रचार करते दिखे। अपनी चिर परिचित शैली में कर्नल ने यहाँ मुद्दों की बात की और निसंदेह पार्टी को इसका लाभ भी मिला। कर्नल की खूबी ये है कि वे न तो हवा हवाई वादे करते है और न बिना तर्क के कोई मुद्दा उठाते है। अलबत्ता वे बहुत अच्छे वक्ता नहीं है लेकिन बदलते दौर की सियासत और जागरूक होते मतदाताओं के बीच शांडिल अच्छा प्रभाव छोड़ते है। मंडी संसदीय सीट के उपचुनाव में पार्टी प्रत्याशी प्रतिभा सिंह का कारगिल युद्ध को लेकर दिया गया एक बयान पार्टी की मुश्किलें बढ़ता दिख रहा था। हालांकि उन्होंने इस पर अपना स्पष्टीकरण दे दिया था, फिर भी विशेषकर सैनिक वोट पार्टी से नाराज़ न हो ये बड़ी चिंता थी। ऐसे में पार्टी के थिंक टैंक को याद आये कर्नल शांडिल। कर्नल ने प्रतिभा सिंह के समर्थन में कई जनसभाएं की और राजनीति में सेना के नाम के इस्तेमाल पर भाजपा पर जबरदस्त अटैक किया। कर्नल ने 1965 और 1971 के युद्ध में मिली जीत भी याद दिलाई और ये भी याद दिलाया कि कांग्रेस ने कभी इसके नाम पर वोट नहीं मांगे। वो बेदाग नाम जिसपर विरोधी भी कीचड़ नहीं उछाल पाएं डॉ कर्नल धनीराम शांडिल हिमाचल की सियासत का वो बेदाग़ नाम है जिस पर विरोधी भी कभी कीचड़ नहीं उछाल पाएं। वीरभद्र सरकार के खिलाफ वर्ष 2016 में भाजपा एक चार्जशीट लाई जिसमे कांग्रेस के मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप थे। तब भाजपा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह, बेटे विक्रमादित्य सिंह, प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू, 10 मंत्रियों, 6 सीपीएस और 10 बोर्ड-निगम-बैंकों के अध्यक्ष-उपाध्यक्षों समेत कुल 40 नेताओं और एक अफसर पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे। पर उस चार्जशीट में भी कर्नल धनीराम शांडिल का नाम नहीं था। यानी विपक्ष भी कभी उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा पाया। एक बात और कर्नल शांडिल की खूबी है, वो है उनकी गुटबाजी से दुरी। प्रदेश कांग्रेस में कई धड़े है, पर शांडिल किसी भी गुट में शामिल नहीं है।
जुब्बल-कोटखाई सीट पर कांग्रेस ने फिर परचम लहराया और एक बार फिर रोहित ठाकुर का दमखम दिखा। रोहित ठाकुर 6293 मतों से विजयी हुए हैं। मुकाबला निर्दलीय प्रत्याशी और भाजपा के बागी चेतन बरागटा के साथ था। चेतन के साथ सहानुभूति भी थी और उनका चुनाव प्रबंधन भी शानदार था लेकिन रोहित की क्षेत्र में लगतार सक्रियता और जमीनी पकड़ के तिलिस्म को चेतन भेद नहीं पाएं। जानकार मान कर चल रहे थे कि जीत हार का अंतर नजदीकी होगा लेकिन 6293 वोट का अंतर रोहित का असल दम बताता है। उपचुनाव में जहाँ भाजपा और चेतन एक दूसरे पर आरोप -प्रत्यारोप लगाने में उलझे रहे वहीं रोहित ख़ामोशी के साथ जनसम्पर्क में जुटे रहे। भाजपा की कोशिश शुरू से जमानत बचाने से ज्यादा नहीं दिखी तो चेतन का फोकस भी कुछ हद तक भाजपा को काउंटर करने का रहा। दोनों की लड़ाई ने रोहित की राह आसान कर दी। 2017 के विधानसभा चुनाव में रोहित ठाकुर नजदीकी मुकाबले में हार गए थे। तब मुकाबला खुद नरेंद्र बरागटा से था, भाजपा भी एकजुट थी और कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर भी थी। सो नतीजा रोहित के विरुद्ध में गया। पर उपचुनाव में बंटे हुए प्रतिद्वंदी रोहित के आगे नहीं टिके। 2003 में पहला विधानसभा चुनाव लड़ने वाले रोहित का ये पांचवा चुनाव था और तीसरी बार उन्हें जीत मिली। अपने पहले चुनाव से अब तक जनता ने उन्हें चाहे विधानसभा भेजा हो या नहीं, रोहित ठाकुर हमेशा क्षेत्र में सक्रिय रहे है। इसी सक्रियता और मजबूत पकड़ का इनाम उन्हें मिला है। 2022 में यदि कांग्रेस की सत्ता वापसी होती है और रोहित फिर जीत दर्ज करने में कामयाब रहे तो ये तय है कि उन्हें सरकार में कोई महत्वपूर्ण भूमिका मिलेगी। पर अगले विधानसभा चुनाव की आचार संहिता लगने में एक वर्ष से भी कम वक्त है और उम्मीदें ज्यादा, सो रोहित को डे वन से मैदान में डटना होगा। इस उपचुनाव में बेशक रोहित ठाकुर ने शानदार जीत दर्ज की है लेकिन निर्दलीय उम्मीदवार चेतन बरागटा हारने के बावजूद सबका दिल जरूर जीत गए। जुब्बल-कोटखाई में कुल 56,612 मत पड़े जिनमें से कांग्रेस प्रत्याशी रोहित ठाकुर ने 29,955 मत हासिल किए और चेतन बरागटा को 23662 मत पड़े। पर यक़ीनन तौर पर 20 दिन में जिस तरह से चेतन ने चुनाव लड़ा वो हैरान करने वाला है, विशेषकर उनका चुनाव प्रबंधन। बाकायदा वॉर रूम बनाया गया, कार्यकर्ताओं की पूरी ब्रिगेड तैयार की गई, जिम्मेदारियों का निर्धारण हुआ और रैलियों व चुनाव आयोजनों के लिए बेहतर क्राउड मैनेजमेंट भी दिखा। चेतन को बतौर निर्दलीय प्रत्याशी जितने मत प्राप्त हुए वो आज से पहले किसी भी निर्दलीय प्रत्याशी को नहीं मिले। चेतन अभी से 2022 के लिए ऐलान कर चुके है और जिस सहजता के साथ उन्होंने अपनी हार स्वीकार की है वो भी तारीफ के काबिल है। अलबत्ता चेतन के लिए चुनावी राजनीति की शुरुआत हार के साथ हुई हो लेकिन इतना तय है कि चेतन अब थमने वाले नहीं है।
जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में जो हुआ वो भाजपा को अर्से तक याद रहेगा। ऐसी करारी हार भुलाई भी नहीं जा सकती। सत्तासीन भाजपा के लिए भी ये हार झटका भी है और सबक भी। इससे बुरी स्थिति क्या होगी कि भाजपा उपचुनाव में अपनी जमानत तक नहीं बचा पाई है। भाजपा प्रत्याशी के मतों का आंकड़ा 2644 में सीमट कर रह गया जो किसी राष्ट्रीय पार्टी के उम्मीदवार की ओर से लिए गए अब तक सबसे कम मतों का रिकॉर्ड है। जिस सीट पर भाजपा का कब्जा था वहां भाजपा की इतनी बुरी हालत होगी ये तो उन नेताओं ने भी नहीं सोचा होगा जिनकी मनमानी ने पार्टी की लुटिया डुबाई। दरअसल उपचुनाव में भाजपा टिकट आवंटन के बाद से ही अपने कार्यकर्ताओं की नाराजगी झेल रही थी। टिकट आवंटन के बाद मानों जुब्बल कोटखाई में भाजपा का पूरा संगठन ही ध्वस्त हो गया। जब अपना कार्यकर्ता ही साथ नहीं था तो नतीजा कैसे अनुकूल आता ? खुद मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री सुरेश भारद्वाज ने पूरा दमखम लगाया लेकिन इन कार्यक्रमों में जनता तो दूर की बात पार्टी कार्यकर्ता तक नहीं पहुंच रहे थे। कैबिनेट मंत्री अनुराग ठाकुर के कार्यक्रम के लिए भी आसपास के क्षेत्रों से लोग पहुंचे लेकिन स्थानीय लोग वहां भी नहीं दिखे। पार्टी की स्थिति का अंदाजा इसी से लगा लीजिये कि टिकट आवंटन से प्रचार बंद होने तक भाजपा में निष्कासन का दौर ही चलता रहा। अंत तक पार्टी अपने ही कार्यकर्ताओं को निष्कासित करती रही। जिला शिमला के एकमात्र मंत्री सुरेश भारद्वाज को भाजपा ने जुब्बल-कोटखाई क्षेत्र में चुनाव प्रभारी बनाया था। चुनाव प्रचार की पूरी कमान सुरेश भारद्वाज के हाथों में रही। पर भारद्वाज पूरी तरह बेअसर रहे। चेतन का टिकट काटने के बाद कार्यकर्ताओं में खूब रोष था और चेतन के समर्थक तो इसका जिम्मेदार मंत्री को ही बताते रहे। हालांकि भाजपा में टिकट का निर्णय पार्टी आलाकमान करता है और चेतन का टिकट काटने का तर्क परिवारवाद पर लगाम लगाना बताया गया पर समर्थक ऐसा नहीं मानते। दरअसल अतीत में स्व नरेंद्र बरागटा और सुरेश भारद्वाज के बीच का मतभेद कई मौकों पर सामने आता रहा, जिसके चलते बरागटा परिवार के समर्थकों की धारणा है कि चेतन के टिकट की राह भारद्वाज ने ही मुश्किल की। कारण जो भी हो लेकिन उपचुनाव में भाजपा की खूब किरकिरी हुई। करारी हार, उम्मीद से बदतर रहा प्रदर्शन जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में भाजपा मात्र 2644 मतों में सीमट कर रह गई। जबकि भाजपा को जमानत बचाने के लिए करीब 9414 मत चाहिए थे। भाजपा प्रत्याशी नीलम जमानत बचाने के लिए आवश्यक मतों के एक तिहाई वोट भी नहीं ले सकीं। हालांकि ऐसा नहीं है कि नीलम की जमीनी पकड़ नहीं है या निजी तौर पर उन्हें लेकर लोगों में कोई रोष हो लेकिन भाजपा की खराब रणनीति ने उनकी भी फजीहत करवाई। माना जा रहा था कि नीलम की जमानत बचना मुश्किल होगा लेकिन इतनी बुरी स्थिति तो विश्लेषकों ने भी नहीं सोची होगी। जब अनुराग स्वीकार है तो चेतन क्यों नहीं ? परिवारवाद के जिस अजब तर्क के नाम पर भाजपा ने चेतन का टिकट काटा वो न जनता को हजम हुआ और न भाजपा कार्यकर्ताओं को। जो व्यक्ति करीब डेढ़ दशक से पार्टी में सक्रिय हो, लम्बे वक्त से पार्टी के प्रदेश आईटी सेल का प्रमुख हो, परिवारवाद के नाम पर उसका टिकट काटे जाना समझ से परे है। चेतन पैराशूटी नेता नहीं है जो अपने पिता के निधन के बाद टिकट लेने आ गए, वो निरंतर पार्टी में सक्रिय थे। एक आम कार्यकर्त्ता की तरह ही अपने कई वर्ष पार्टी को दे चुके है। अगर उनके टिकट की राह में परिवारवाद रोड़ा था तो पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के पुत्र अनुराग ठाकुर भी तो वर्तमान में केंद्रीय मंत्री है। समर्थक तो उन्हें भावी मुख्यमंत्री तक मानते है। जब अनुराग स्वीकार है तो चेतन क्यों नहीं ? अब ठेके कौन देगा माना जा रहा है कि भाजपा की स्थिति बदतर करने में बड़े नेताओं के बयानों ने भी खासी भूमिका अदा की है। जुब्बल कोटखाई में प्रचार के दौरान मंत्री सुरेश भारद्वाज का एक बयान भी खूब चर्चा में रहा। भारद्वाज का ठेकेदारों को लेकर दिया विवादित बयान सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। एक जनसभा में भारद्वाज इस वीडियो में कहते नजर आये कि यहां विकास के हर काम और ठेके भाजपा प्रत्याशी नीलम सरैईक और भाजपा सरकार के माध्यम से ही मिलेंगे। बहुत से ठेकेदार सोचते हैं कि वे उधर से आ जाएंगे और उनका चलता रहेगा। वैसे ठेके नहीं मिलेंगे।
फतेहपुर उपचुनाव में हार के साथ ही मंत्री बिक्रम ठाकुर के चुनाव प्रबंधन की पोल फिर खुल गई। एक बार फिर मंत्री बिक्रम सिंह ठाकुर चुनावी इम्तिहान में फेल हो गए। अभी तो पालमपुर नगर निगम में हार की टीस भी कम नहीं हुई थी और फतेहपुर ने फिर बड़ा झटका दे दिया। बढ़ती महंगाई, भीतरघात और जमीनी स्तर पर कार्यकर्तओं की नाराजगी के बीच बलदेव ठाकुर की नैय्या पार लगाने के लिए मैदान में डटे प्रभारी बिक्रम ठाकुर के लिए ये उपचुनाव किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। फिर भी उम्मीद थी कि मंत्री जी के प्रबंधन का कमाल यहाँ दिखेगा, पर ऐसा हुआ नहीं। रणनीतिक तौर पर भी भाजपा पुरे चुनाव में पिछड़ी दिखी। बड़े नेताओं के आयोजनों से आम जन की दुरी और नाराज दिख रहे कार्यकर्ता पहले ही हार के संकेत दे रहे थे, और हुआ भी ऐसा ही। जयराम सरकार में बिक्रम ठाकुर वो चेहरा है जिनका कद और पद लगातार बढ़ा है। 2019 में जयराम कैबिनेट के कुछ मंत्रियों का डिमोशन हुआ,पर बिक्रम ठाकुर को उद्योग मंत्रालय के साथ- साथ परिवहन जैसा अहम महकमा भी दे दिया गया। फिर उन्हें पालमपुर नगर निगम चुनाव की ज़िम्मेदारी सौंपी गई जिसमें भाजपा बुरी तरह परास्त हुई। इस हार के बाद अब फतहपुर उपचुनाव की ज़िम्मेदारी भी बिक्रम सिंह ठाकुर को दी गई थी जहाँ वे फिर नाकामयाब रहे है। कांगड़ा जैसे बेहद महत्वपूर्ण ज़िले में मिली इन दो हारों की कसक जरूर भाजपाई खेमे में होगी। जाहिर है फतेहपुर के बाद अब पार्टी आलाकमान भी विस्तृत विश्लेषण करेगा। ऐस में ये मंत्री बिक्रम सिंह के सियासी बहीखाते में जुड़ी एक और हार उनके लिए परेशानी का कारण है। वन मंत्री राकेश पठानिया फतेहपुर उपचुनाव में सह प्रभारी थे। कभी कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर के खिलाफ बयान को लेकर तो कभी सभी को मास्क पहनने वाले डंगर बताकर पठानिया लगातार चर्चा में रहे और अब हार को लेकर चर्चा में है। नूरपुर के साथ लगते क्षेत्रों में उनके प्रभाव से भाजपा को बड़ी आस थी पर वे भी बलदेव को जीत नहीं दिला सके। यहाँ जीत मिलती तो निसंदेह पठानिया का असर भी बढ़ता, पर ये हार कई सवाल छोड़ गई। एक सवाल ये भी है कि क्या भाजपा के बड़े चेहरे अति आत्मविश्वास से ग्रस्त है ? कांग्रेस के बनिस्पत फीका जमीनी प्रचार फतेहपुर में कांग्रेस ने पूर्व विधायक स्व सुजान सिंह पठानिया के पुत्र भवानी पठानिया को टिकट दिया था। भाजपा के हाथ में परिवारवाद एक बड़ा मुद्दा था लेकिन खुद से ही झूझती दिखी पार्टी आक्रामक तरीके से मतदातों के बीच इस मुद्दे को लेकर नहीं पहुंची। किसी तरह रैलियों में क्राउड मैनेजमेंट कर पार्टी जीत की उम्मीद में थी लेकिन जमीनी स्तर पर पार्टी प्रचार कांग्रेस के बनिस्पत फीका ही दिखा। कांग्रेस के कई नेता भवानी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे, बावजूद इसके भाजपा इस स्थिति का लाभ उठाने में कामयाब नहीं रही। कांगड़ा के मतदाता नामों का लिहाज नहीं करते 2017 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सरकार के बड़े बड़े चेहरे कांगड़ा में धराशाई हुए थे। इनमें सुधीर शर्मा और स्व. जीएस बाली भी थे। कांगड़ा के मतदाताओं ने कभी बड़े नामों का लिहाज नहीं किया है। जिस कांगड़ा में कभी खुद मुख्यमंत्री रहते हुए शांता कुमार चुनाव हार सकते है वहां भाजपा की दूसरी पंक्ति के नेताओं का अति आत्मविश्वास समझ से परे है। फिलहाल कांगड़ा से बिक्रम सिंह ठाकुर, राकेश पठानिया और सरवीण चौधरी मंत्री है जबकि विपिन सिंह परमार विधानसभा अध्यक्ष है। बावजूद इसके पहले नगर निगम चुनाव में भाजपा को झटका लगा और अब फतेहपुर उपचुनाव में भी। वर्ष 2017 में इसी कांगड़ा ने भाजपा पर भरपूर प्यार बरसाया था, अगर कांगड़ा की हवा बदली तो 2022 में भाजपा की राह वहां मुश्किल होगी।
रतन सिंह पाल के साथ-साथ अर्की निर्वाचन क्षेत्र में वरिष्ठ भाजपा नेता डॉ राजीव बिंदल की साख भी दांव पर लगी थी। दरअसल बिंदल अर्की में भाजपा के प्रभारी थे, पर अर्की में बिंदल का जादू नहीं चला। संगठनात्मक कार्यक्रमों में भी पार्टी की कमजोरी खुलकर सामने आई। जिस 'बिंदल मैनेजमेंट' का राग उनके समर्थक गाते थे वो फिर एक बार फ्लॉप सिद्ध हुआ। इससे पहले बिंदल सोलन नगर निगम चुनाव में भी बिंदल प्रभारी थे पर नतीजा पार्टी के पक्ष में नहीं रहा था। सोलन बिंदल का गृह क्षेत्र था बावजूद इसके तब न सिर्फ भाजपा हारी बल्कि बिंदल के कई करीबियों को भी जनता ने नकार दिया। अब अर्की में भी बिंदल बेअसर रहे। अर्की में चुनाव प्रचार के दौरान हुए कार्यक्रमों में प्रबंधन की खामियां लगातार उजागर हुई। नामांकन के दिन केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर अर्की पहुंचे थे। तब अनुराग के स्वागत के लिए काफी संख्या में उनके समर्थक और चाहवान विभिन्न क्षेत्रों से अर्की पहुंचे थे सो कार्यक्रम जैसे-तैसे ठीक ठाक हुआ। किन्तु अनुराग के दूसरे दौरे में भाजपा के चुनाव प्रबंधन की पोल खुल गई। उसी दिन देवभूमि क्षत्रिय संगठन की कुहिनार में रैली थी जिसमें काफी संख्या में लोग पहुंचे जबकि अनुराग के कार्यक्रम में तुलनात्मक तौर पर काफी कम लोग थे। यानी डॉ राजीव बिंदल की अगुवाई में भाजपा के चुनाव प्रबंधक केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के कार्यक्रमों में इतनी भीड़ भी नहीं जुटा पाए जितनी एक नए संगठन ने एकत्र कर ली। इसके बाद 25 अक्टूबर को मुख्यमंत्री के कुनिहार में आयोजित कार्यक्रम में उचित प्रबंध करना भाजपा के लिए नाक का सवाल था। पर हकीकत ये है कि चप्पे -चप्पे पर पोस्टर बैनर की भरमार होने के बावजूद पुरे प्रचार अभियान में भाजपा आम जनता से कनेक्ट करने में नाकामयाब रही। साथ ही पार्टी के आम कार्यकर्त्ता की बॉडी लैंग्वेज भी वैसी नहीं थी जिसके लिए भाजपा जानी जाती है। स्वास्थ्य घोटाले के बाद इस्तीफा, अब हाशिये पर ! डॉ राजीव बिंदल लम्बे वक्त से पार्टी के कद्दावर नेता रहे है। वर्ष 2000 में हुए सोलन उपचुनाव को जीतकर बिंदल पहली बार विधानसभा पहुंचे थे और इसके बाद 2003 और 2007 में भी सोलन निर्वाचन क्षेत्र से जीते। 2012 में जब सोलन सीट आरक्षित हो गई तो बिंदल ने नाहन का रुख किया और वहां जीतकर अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया। 2017 में बिंदल दूसरी बार नाहन से जीते और एक वक्त पर प्रो धूमल के हारने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार भी माना जा रहा था। पर समय के फेर में मुख्यमंत्री की रेस में शामिल बिंदल मंत्री तक नहीं बने। उन्हें विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया। जैसे तैसे 2019 के अंत में बिंदल प्रदेश अध्यक्ष बनने में कामयाब रहे लेकिन कोरोना काल में हुए स्वास्थ्य घोटाले की वजह से 2020 में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। तब बिंदल ने इसे नैतिकता के आधार पर दिया गया इस्तीफा बताया था और बाद में उन्हें क्लीन चिट भी मिल गई। पर इसके बाद से बिंदल एक किस्म से हाशिए पर दिख रहे है, न उन्हें मंत्री पद मिल रहा है और न ही संगठन में कोई अहम् भूमिका। समर्थकों को आस, परिवर्तन हो तो शायद कुछ बेहतर हो ! डॉ राजीव बिंदल के समर्थक निरंतर इसी आस में है कि या तो बिंदल को कबिनेट में एंट्री मिल जाएं या फिर संगठन में कोई बड़ी भूमिका। पर ऐसा हो नहीं रहा। अब प्रदेश में हुए चार उपचुनाव में भाजपा को करारी शिकस्त मिली है जिसके बाद सरकार संगठन में फेरबदल के कयास है। बिंदल समर्थक इसी उम्मीद में है कि इस बारे डॉ बिंदल को भी कहीं बेहतर स्थान मिलेगा पर ये नहीं भुलाया जा सकता कि सोलन नगर निगम चुनाव और अर्की उपचुनाव की हार भी बिंदल के खाते में है। जिला संगठन में बदलाव की दरकार अर्की में भाजपा के संगठन की बात करें तो यहाँ संगठन में बदलाव की दरकार है। अर्की मंडल के पदाधिकारी इस उपचुनाव में जमीनी स्तर पर प्रभाव छोड़ने में नाकामयाब रहे है। न सिर्फ अर्की बल्कि भाजपा के जिला संगठन का भी ऐसा ही हाल है। पिछले कई सालों में सोलन जिला में भाजपा का संगठन कभी इतना कमजोर नहीं दिखा है। अमूमन ये ही हाल जिला भाजयुमो का है। जो भाजयुमो युवा शक्ति के सहारे पार्टी के आयोजनों में जोश भरता था वो भी अब फीका सा दिख रहा है। यूँ तो भाजयुमो का वन बूथ ट्वेंटी यूथ कार्यक्रम हर माह जारी है लेकिन सवाल ये है कि क्या यह अभियान केवल युवाओं को कागजों में जोड़ना मात्र ही साबित हो रहा है। फिलवक्त जिला सोलन में मिल रही हार के बाद संगठन में फेरबदल की जरुरत को भाजपा नकार नहीं सकती।
फतेहपुर में बीते चार चुनाव में चार चेहरे बदल चुकी भाजपा अब लगातार चार चुनाव हार चुकी है। 2009 के उपचुनाव से शुरू हुआ हार का ये सिलसिला 2021 के उपचुनाव में भी कायम रहा। कांगड़ा जिला से होकर ही शिमला की गद्दी का रास्ता जाता है, ऐसे में सत्ता के इस सेमीफाइनल में ये हार पार्टी के लिए करारा झटका है। इस जीत ने जहाँ कांग्रेस के नेताओं-कार्यकर्ताओं में ऊर्जा भर दी है, वहीँ भाजपा अब सकते में है। यहाँ जयराम सरकार के दो कैबिनेट मंत्रियों की साख भी दांव पर थी, बिक्रम सिंह ठाकुर और राकेश पठानिया। पर ये दोनों ही मंत्री भाजपा की नैया पार नहीं लगा सके। विशेषकर बिक्रम ठाकुर के लिए तो ये बड़ा झटका है, बिक्रम ठाकुर ही यहाँ चुनाव प्रभारी थे। इससे पहले ठाकुर पालमपुर नगर निगम चुनाव में भी प्रभारी थे लेकिन वहां भी भाजपा को करारी शिकस्त मिली थी। फतेहपुर उपचुनाव में भाजपा ने पूरी ताकत झोंकी, पर न तो मुख्यमंत्री के दौरे भाजपा की हार टाल सके और न ही कैबिनेट मंत्री अनुराग ठाकुर की रैलियां काम आईं। हिमाचल प्रभारी अनिवाश राय खन्ना के जीत के दावे भी नतीजे के बाद हवा हवाई सिद्ध हुए। इसमें कोई संशय नहीं है कि इस चुनाव में टिकट आवंटन से लेकर नतीजे आने तक हर मोर्चे पर भाजपा की सांगठनिक योजना भी धराशायी हुई। दरअसल इस वर्ष फरवरी में पूर्व विधायक सुजान सिंह पठानिया का निधन हुआ था और उसके बाद से ही भाजपा उपचुनाव के लिए एक्शन में थी। लगातार मुख्यमंत्री और संगठन की विभिन्न इकाइयों के आयोजन हो रहे थे। गौर करने लायक बात ये है कि इन सभी आयोजनों में पार्टी पूर्व में प्रत्याशी रहे कृपाल परमार को आगे रखकर चलती दिखी। जिस तरह की तवज्जो कृपाल को दी जा रही थी उससे मोटे तौर पर ये तय माना जा रहा था कि कृपाल ही चेहरा होंगे। पर अंतिम समय में पार्टी ने बलदेव ठाकुर को टिकट दिया। नतीजन कृपाल के समर्थन में कई प्राधिकारियों ने इस्तीफे दिए, कई नाराज़ हुए। हालांकि बाहरी तौर पर मुख्यमंत्री ने कृपाल को मना लिया लेकिन इस स्थिति को ठीक से पार्टी मैनेज नहीं कर पाई। पार्टी के एक तबके ने प्रचार नहीं किया और भीतरघात से भी इंकार नहीं किया जा सकता। लगातार तीसरी बार हार के साथ ही भाजपा प्रत्याशी बलदेव ठाकुर के राजनीतिक भविष्य भी सवाल उठने लगने है। इससे बलदेव 2012 में पार्टी प्रत्याशी थे और 2017 में बतौर बागी चुनाव लड़े थे। हार की हैट्रिक बना चुके बलदेव के लिए आगे की राह आसान नहीं होनी। यहाँ दिलचस्प बात ये भी है की 2017 के चुनाव में बलदेव की बगावत ने पार्टी की लुटिया डुबाई थी, तब पार्टी ने उन्हें निष्कासित भी किया था। बावजूद इसके खुद को पार्टी विथ डिफरेंस एंड डिसिप्लिन कहने वाली भाजपा ने बलदेव को टिकट दिया। दोनों साथ थे तो मजबूत थे ! फतेहपुर क्षेत्र में डॉ राजन सुशांत एक समय में भाजपा के तेज तर्रार नेता माने जाते थे। दोनों साथ थे तो मजबूत थे, पर जब से दोनों की राह जुदा हुई है, दोनों का हाल खराब है। स्व सुजान सिंह पठानिया को 2007 के विधानसभा चुनाव में हारने वाले नेता भी डॉ राजन सुशांत ही थे। इस उपचुनाव में भी डॉ राजन सुशांत करीब 13 हजार वोट ले गए और भाजपा की हार का कारण बने। पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार राजन सुशांत के प्रदर्शन में ख़ासा सुधार दिखा। हालांकि उनकी इस हार के बाद उनकी पार्टी 'हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी' के भविष्य पर भी संशय की स्थिति है।
3219 वोट से कांग्रेस प्रत्याशी संजय अवस्थी अर्की उपचुनाव जीतने में कामयाब रहे। उन्हें राजेंद्र ठाकुर की बगावत से भी झूझना पड़ा और भीतरघात से भी इंकार नहीं किया जा सकता, इस पर संजय अवस्थी ने चुनाव भी बेहद कमजोर तरीके से लड़ा। ऐसा लचर चुनाव प्रबंधन कम ही देखने को मिलता है, बावजूद इसके अवस्थी जीत गए। इसमें कोई संदेह नहीं है की अगर अवस्थी ने मजबूती से ये चुनाव लड़ा होता तो उनकी जीत का अंतर कहीं ज्यादा होता। पर जीत तो आखिर जीत है। वहीं भाजपा के लिए शायद ये हार पचाना अधिक मुश्किल नहीं रहा होगा क्योंकि जमीनी स्थिति कभी भाजपा के पक्ष में दिखी ही नहीं। बल्कि कांग्रेस की कमजोरी की वजह से पार्टी का प्रदर्शन अनुमान से बेहतर ही रहा है। दरअसल पार्टी प्रत्याशी रतन पाल के खिलाफ पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के एक गुट खुलकर मुखालफत करता रहा है जिसकी अगुवाई पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा करते रहे। हालांकि चुनाव से पहले गोविन्द राम शर्मा को मना लिया गया लेकिन तब तक उनके समर्थकों में रतन पाल विरोधी माहौल चरम पर था। ये लोग भाजपा के साथ होने का तो दावा करते रहे लेकिन रतन पाल इन्हे मंजूर नहीं थे। 2017 में जयराम राज आने के बाद से अर्की में भाजपा ने सिर्फ रतन पाल को ही तव्वज्जो दी और जमीनी पकड़ रखने वाले कई मजबूत नेता दरकिनार कर दिए गए। इस पर रतन पाल से पार्टी का एक बड़ा तबका कभी खुश नहीं दिखा, इनमें आम कार्यकर्त्ता भी शामिल है। जब कार्यकर्त्ता ही रतन पाल के पक्ष में एकजुट नहीं था तो जीत सिर्फ चमत्कार से ही हो सकती थी। इस जमीनी स्थिति से पार्टी यदि वाकिफ नहीं थी तो ये संगठन की बड़ी नाकामयाबी है। और यदि इससे वाकिफ होने के बावजूद उचित कदम नहीं उठाये गए तो बड़ा सवाल ये है कि क्या पार्टी चुनाव हारने के लिए लड़ रही थी ? जिला परिषद चुनाव के बाद लामबंद हुए रतन पाल विरोधी रतन सिंह पाल के खिलाफ अर्की में इस साल की शुरुआत से ही खुलकर विरोध के स्वर उठने लगे थे। तब जिला परिषद् चुनाव में पार्टी के दो वरिष्ठ नेताओं के टिकट काटे गए। कुनिहार वार्ड से अमर सिंह ठाकुर और डुमहेर वार्ड से आशा परिहार का टिकट काटा गया। इन्होंने इसके पीछे रतन पाल का हाथ बताया। इन दोनों नेताओं ने चुनाव लड़ा भी और जीता भी। जिला परिषद् पर कब्जे के लिए भाजपा को इन दोनों की जरुरत पड़ी और दोनों ने पार्टी का साथ भी दिया। पर अर्की में जमीनी स्तिथि नहीं बदली। अर्की नगर पंचायत चुनाव में भी पार्टी को करारी हार झेलनी पड़ी थी। जब अनदेखी से आहत गोविंद राम ने खोला मोर्चा ! 1993 से 2003 तक भाजपा की लगातार तीन शिकस्त के बाद लगातार दो बार पार्टी को जीत दिलाने वाले पूर्व विधायक गोविन्द राम शर्मा का 2017 में टिकट काटा गया था। उस चुनाव में गोविंदराम शर्मा पूरी तरह पार्टी के लिए प्रचार करते दिखे थे और भाजपा एकजुट थी। तब रतन पाल तो चुनाव हार गए लेकिन प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी। उम्मीद थी गोविन्द राम को या किसी बोर्ड निगम में ज़िम्मेदारी मिलेगी या संगठन में अहम दायित्व मिलेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नतीजन उनके समर्थकों की नाराजगी बढ़ती रही और इस वर्ष पंचायत चुनाव के बाद उन्होंने खुलकर मोर्चा खोल दिया। 2022 में नोटा भी बड़ी चुनौती ! अर्की उपचुनाव में 1626 लोगों ने नोटा का इस्तेमाल किया, जबकि 2017 में ये आंकड़ा 530 था। सवर्ण आयोग के गठन की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे देवभूमि क्षत्रिय संगठन ने नोटा दबाने का आग्रह किया था जिसके बाद इसकी संख्या में करीब तीन गुना बढ़ोतरी हुई। यदि मुकाबला नजदीकी होता तो ये जीत हार का कारण बन सकता था। माहिर मानते है कि इसमें से अधिक हिस्सा सत्ता के विरोध में जा सकता था। ऐसे में 2022 में नोटा को सभी प्रत्याशियों को ध्यान में रखना होगा। 2022 में नहीं होगी गलती की गुंजाइश ! संजय अवस्थी ने 2012 में पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा था और नजदीकी मुकाबले में हार गए थे। पर उसके बाद से ही अवस्थी लगातार अर्की में सक्रीय थे। नौ साल की ये मेहनत ही अवस्थी को बचा गई अन्यथा जिस लचर तरीके से कांग्रेस ने ये उपचुनाव लड़ा है वो चौकाने वाला रहा। बंटी हुई भाजपा और रतन पाल को लेकर पार्टी के एक तबके में विरोध ने भी उनकी स्थिति बेहतर की। अगर 2022 में भाजपा इन गलतियों से सबक लेकर लड़ती है तो कांग्रेस को भी मजबूती से चुनाव लड़ना होगा। तब गलती की शायद कोई गुंजाइश नहीं रहे। कांग्रेस को जहाँ में रखना होगा कि जीत का जो अंतर आठ से दस हज़ार का हो सकता था वो महज तीन हज़ार ही रहा है। क्या नया चेहरा लाना ही विकल्प है ? अर्की में भाजपा की वर्तमान स्थिति बेहद पेचीदा है। रत्न पाल और गोविन्द राम, ये दोनों ही चेहरे आगे भी क्या पार्टी को जीत दिला सकते है इस पर अभी से मंथन करना होगा। ये तय है कि दोनों के चलते पार्टी बंट चुकी है और इस स्थिति में 2022 में भी परिणाम अनुकूल आना मुश्किल होगा। ऐसे में मुमकिन है कि कोई नया चेहरा लाकर पार्टी सबको एक साथ ला सकती है? दो चुनाव हारने के बाद रतन पाल पर फिर दांव खेलना मुश्किल ही लगता है। बाकी सियासत में सब संभव है।
'बुलंदी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है, बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है'...मुनव्वर राणा का शेर मंडी में भाजपा की स्थिति पर सटीक बैठता है। 2014 में जो मंडी करीब चालीस हज़ार के अंतर से भाजपा की हुई थी, 2019 में चार लाख के अंतर से भाजपा की हुई। इस बीच 2017 भी आया जहाँ भाजपा ने जिला मंडी की दस में से नौ सीटें जीती और संसदीय क्षेत्र की 17 में से 13। इस साल हुए पंचायत और शहरी निकाय चुनाव में भी नगर निगम मंडी सहित अधिकांश क्षेत्रों में भाजपा का ही डंका बजा। पर 2021 जाते जाते भाजपा को आइना दिखा गया। मुख्यमंत्री लगातार कहते रहे की मंडी हमारी थी है और रहेगी लेकिन मंडी वालों ने सारा भ्रम तोड़ दिया। मंडी लोकसभा उपचुनाव में पूरा दमखम दिखाने के बावजूद भी मुख्यमंत्री भाजपा को जीत नहीं दिलवा पाए। राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नारों के साथ मैदान में उतरी भाजपा इस दफे चूक गई। ये हार बड़ी इसलिए है क्योंकि मंडी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का गढ़ है। दो मंत्री रामलाल मारकंडा और गोविन्द सिंह ठाकुर भी इसी संसदीय क्षेत्र से आते है। भरपूर संसाधन और ज़बरदस्त प्रचार प्रसार के बावजूद भी भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा। अंतर बेशक कम रहा हो लेकिन भाजपा की इस हार की आवाज दिल्ली तक गुंजी है और अब गहन चिंतन मंथन के बाद समीक्षा भी दिल्ली दरबार में ही होगी। मंडी संसदीय हलके के 17 निर्वाचन क्षेत्रों में से कई जगह पार्टी के विधायक पार्टी की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे। 9 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस को बढ़त मिली। जिला मंडी के 9 में से आठ विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा को बढ़त मिली पर नाचन में कांग्रेस आगे रही। जिला कुल्लू कि सभी चार, शिमला की एक, चम्बा की एक, लाहौल स्पीति और किन्नौर में कांग्रेस को लीड मिली। सुंदरनगर, बल्ह, करसोग विधानसभा क्षेत्र में भाजपा को लीड तो मिली लेकिन अपेक्षा से कम। यहाँ भाजपाई विधायक अपनी जमीनी पकड़ साबित नहीं कर पाए। विशेषकर सुंदरनगर विधायक राकेश जम्वाल से भाजपा अच्छी लीड की उम्मीद कर रही थी। विनोद कुमार, कर्नल इंद्र सिंह ठाकुर, जवाहर ठाकुर जैसे कई विधायक उपचुनाव में अपना दमखम नहीं दिखा पाए। जबकि मंडी सदर से यानि अनिल शर्मा के गढ़ से ब्रिगेडियर को 3 हजार से अधिक मतों की बढ़त प्राप्त हुई। भाजपा के विधायक ही नहीं शिक्षा मंत्री गोविंद ठाकुर व तकनीकी शिक्षा मंत्री डॉ. रामलाल मार्कंडेय अपने-अपने हलके व गृह जिले में भाजपा की साख नहीं बचा पाए। दोनों के हलकों व जिलों में कांग्रेस प्रत्याशी को बढ़त मिली। लाहुल स्पीति के विधायक एवं तकनीकी शिक्षा मंत्री डॉ रामलाल मार्कडेंय ने जिला परिषद के चुनाव में भाजपा को मिली हार से भी कोई सबक नहीं सीखा। प्रतिभा सिंह को मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर के गढ़ मनाली में भी 1841 मत अधिक प्राप्त हुए है। मंडी संसदीय सीट पर चुनाव के लिए भाजपा ने मंत्री महेन्दर सिंह को चुनाव प्रभारी बनाया था। पर लग रहा था मानो मंत्री जी को प्रचार प्रसार में बोलने के बजाए चुप रहने के लिए कहा गया था। दरअसल बीते कुछ समय में मंत्री जी के कई बयानों से भाजपा को काफी नुक्सान झेलना पड़ा है। शायद इसीलिए मंत्री प्रचार प्रसार से दूर दूर नज़र आए। तो भाजपा के टिकट पर लड़ेंगे राणा जोगिंद्र नगर में निर्दलीय विधायक प्रकाश राणा भी भाजपा के साथ ही है और उनके क्षेत्र में भाजपा को अच्छी लीड मिली है। यहाँ सात हज़ार से अधिक की लीड लेकर राणा ने अपनी काबिलियत सिद्ध की है। संभावित है कि विधानसभा चुनाव से पूर्व राणा भाजपा में शामिल हो और अगली बार भाजपा टिकट पर चुनाव लड़े। विधानसभा क्षेत्र भाजपा कांग्रेस अंतर भरमौर 5893 21150 5257 लाहौल स्पिति 5588 7734 2147 मनाली 21251 23092 1841 कुल्लू 21778 25675 3897 बंजार 19713 21591 1878 आनी 20922 27965 7043 रामपुर 11552 31507 19555 किन्नौर 12566 17543 4977 नाचन 24422 26933 2511 करसोग 20643 19230 1413 सुंदरनगर 23761 21849 1912 सराज 38394 18735 21659 द्रंग 26352 23731 2621 जोगिंद्रनगर 27993 20849 7144 मंडी 22073 18827 3246 बल्ह 22875 21919 956 सरकाघाट 21109 19260 1849
लोकसभा के नतीजे सामने आने के बाद स्पष्ट हो गया की मंडी सबकी है और सबकी रहेगी। जिस तरह मुख्यमंत्री के गढ़ को कांग्रेस प्रत्याशी प्रतिभा सिंह ने भेदा है मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर का 'मंडी हमारी है, हमारी थी और हमारी ही रहेगी' का नारा भी हवा हवाई हो गया। मंडी लोकसभा का उपचुनाव जीतकर पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह ने ज़बरदस्त वापसी की है। इस जीत से प्रदेश की राजनीति में प्रतिभा सिंह का कद और भी बढ़ गया है। विक्रमादित्य सिंह की गिनती भी अब प्रदेश के बड़े नेताओं में होने लगी है। स्पष्ट है कि वीरभद्र के जाने के बावजूद भी होली लॉज के तिलिस्म में कोई कमी नहीं आएगी। होली लॉज अब भी प्रदेश की सियासत की धुरी बना रहेगा। सिर्फ वीरभद्र परिवार ही नहीं इस जीत के बाद मंडी लोकसभा में लगभग हाशिये पर जा चुकी कांग्रेस भी मानों दोबारा जीवित हो उठी है। संगठन और कार्यकर्ताओं में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ है।भाजपा के लिए ये हार जितनी बड़ी है उतनी ही बड़ी ये जीत कांग्रेस को मिली है। पर इसमें कोई संशय नहीं है कि यदि यहाँ उम्मीदवार प्रतिभा सिंह नहीं होती तो नतीजा भी संभवतः अलग होता। यानि मोटे तौर पर ये जीत प्रतिभा सिंह की जीत है, होली लॉज की जीत है। कारगिल युद्ध पर दिए गए बयान को छोड़ दिया जाएं तो जिस तरह उन्होंने इस चुनाव को लड़ा है वो भी काबिल ए तारीफ है। प्रतिभा सिंह ने वीरभद्र सिंह द्वारा किये गए विकास कार्यों के साथ- साथ महंगाई और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों को मुख्य तौर पर उठाया और सीधे जनता से कनेक्ट करने में कामयाब रही। इस जंग में उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह का सबसे बड़ी भूमिका रही। खास बात ये है कि मां - बेटे ने एकसाथ प्रचार न करके अलग -अलग मोर्चा संभाला और इस दोतरफा सियासी आक्रमण के आगे भाजपा परास्त हुई। दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के गढ़ रहे रामपुर और जनजातीय क्षेत्रों से प्रतिभा सिंह को मिली बढ़त ने भी कांग्रेस की जीत की राह आसान कर दी। रामपुर के लोगों ने बंपर वोटिंग करते हुए प्रतिभा सिंह को 20000 मतों की बढ़त देकर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के गृह विधानसभा क्षेत्र सराज से भाजपा को मिली लीड को न्यूट्रलाइज कर दिया। किन्नौर जिले से करीब 5000, लाहौल स्पीति से 2100 और भरमौर से कांग्रेस को 4100 की लीड प्रतिभा को मिली। बाकी की कसर कुल्लू जिले के कुल्लू, मनाली, बंजार और आनी विधानसभा क्षेत्र ने पूरी कर दी। यहां से कांग्रेस को चौदह हजार से ज्यादा की बढ़त मिली जो ब्रिगेडियर कुशल चंद ठाकुर कवर नहीं कर पाए। सियासी क्षितिज पर बिखेरी काबिलियत की चमक पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के निधन के उपरांत सबकी निगाहें विक्रमादित्य सिंह पर टिकी थी और आलोचकों का मानना था कि विक्रमादित्य के लिए अकेले दम पर खुद को साबित करना मुश्किल होने वाला है। कहा जा रहा था की वीरभद्र विरोधी गुट उन्हें टिकने नहीं देगा और अपनों की महत्वकांक्षाएं उनके सियासी कद को बौना ही रखेगी। पर जिस तरह विक्रमादित्य सिंह ने सियासी क्षितिज पर अपनी काबिलियत की चमक बिखेरी है वो कई माहिरों को भी हैरान कर रही है। लोगों से सीधा संवाद उन्हें लोकप्रिय बना रहा है, खासतौर से सोशल मीडिया का उन्होंने बेहद उम्दा इस्तेमाल किया है। पर सियासत महाठगिनी है और विक्रमादित्य सिंह का असल इम्तिहान अभी बाकी है। अपनी ही अलग तरह की सियासत कर रहे विक्रमादित्य के हर कदम पर इस वक्त हर सियासी अपने बेगाने की नजर होगी। उनकी जरा सी चूक का इंतज़ार कई विरोधियों को होगा। पर उन्हें हल्के में लेने की गलती शायद ही कोई कर रहा हो।
संगठन ही शक्ति, संगठन ही सर्वोपरि भाजपा को दुनिया की सबसे बड़ी राजैनतिक पार्टी बनाने का मूल आधार ये ही मंत्र रहा है। पर हिमाचल में पार्टी का संगठन लचर नजर आ रहा है जो पार्टी को लाचार बनाता दिख रहा है। हालहीं में हुए उपचुनाव में भाजपा संगठन का नेटवर्क काम नहीं आया। चाहे त्रिदेव हों या बूथ प्रभारी, कोई तंत्र पार्टी की हार नहीं टाल पाया। न मुख्य संगठन में माहिरों का अनुभव दिखा और न ही भाजयुमो की युवा ब्रिगेड में पहले सा जोश। वास्तविक स्थिति ये है कि बूथ स्तर से ऊपर तक यानी बॉटम टू टॉप पार्टी का संगठन कमजोर दिखने लगा है। यूँ तो कागजों में हजारों -लाखों कार्यकर्त्ता है यानी लाखों परिवार पार्टी से जुड़े है, लेकिन सवाल ये है कि क्या ये सक्रीय है या फिर महज कागजी आंकड़ा। या फिर नेतृत्व में ही कोई खामी है ? इन सवालों से इस वक्त भाजपा झूझ रही है। 2022 के सत्ता संग्राम से पहले भाजपा को इन सवालों का जवाब तलाशना होगा और खामियों को दूर भी करना होगा। ये ही हाल रहा तो मिशन रिपीट में पार्टी का पीटना तय होगा। पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष सुरेश कश्यप को 2020 में डॉ राजीव बिंदल के इस्तीफे के बाद पार्टी की कमान सौंपी गई थी। कश्यप युवा और इमानदार चेहरा है और लगातार खुद को साबित भी करते रहे है, पर जब नेतृत्व करने का मौका आया तो ज्यादा प्रभावशाली नहीं दिखे। दिलचस्प बात ये है कि उन्हें कमान मिलने के बाद से अब तक जमीनी स्तर पर पार्टी संगठन में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। अधिकांश नियुक्तियां डॉ राजीव बिंदल के अध्यक्ष रहते हुए थी और वे तमाम लोग अब भी संगठन में मौजूद है। इनमें बिंदल के कई खास सिपहसालार भी है। सुरेश कश्यप ने संगठन में न तो ज्यादा बदलाव दिया और न ही जमीनी संगठन को धार देने में अब तक कामयाब दिखे है। मोटे तौर पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा जारी दिशा निर्देश के अनुसार ही एक तरह से संगठन अपना कर्तव्य पूरा करने की औपचारिकता करता दिखा है। भाजपा के लिए एक और बड़ी परेशानी है, अमूमन हर जिले में जमीनी कार्यकर्ता में नाराजगी भी है और इसका कारण है वर्ग विशेष को मिल रही तवज्जो। मसलन कई शहरी निकायों में आम कार्यकर्ता की अनदेखी कर पैराशूट से पार्टी में उतरे लोगों को मनोनीत किया गया। जाहिर है ऐसे में पार्टी का झंडा बुलंद रखने वाला आम कार्यकर्ता हतोत्साहित हुआ है। ऐसे और कई मसले है। पार्टी के जिला संगठनो की बात करें तो कई जिलों में नेतृत्व ऐसे नेता कर रहे है जिनकी न तो जमीनी पकड़ दिख रही है और न ही वे प्रभावशाली दिख रहे है। कांग्रेस में तो इस तरह चहेतों को पद लाभ देने का रिवाज रहा है लेकिन भाजपा में भी अब स्थिति ऐसी ही है। कॉर्पोरेट कल्चर वाली भाजपा में भी अब नॉन परफॉर्मर्स को लादा जाना सवाल तो खड़े करता ही है। बहरहाल उपचुनाव में क्लीन स्वीप के बाद प्रदेश संगठन में व्यापक फेरबदल की बहस भी छिड़ गई है। एक बड़ा तबका इसका हिमायती दिख रहा है। ये तो तय है की पार्टी इस हार से सबक लेगी और आवश्यक बदलाव भी करेगी। सवाल ये भी है क्या संगठन में व्यापक बदलाव होने जा रहा है ? दरअसल अध्यक्ष पद संभालने के बाद सुरेश कश्यप का पहला बड़ा इम्तिहान पार्टी सिंबल पर हुए नगर निगम चुनाव थे जहाँ पार्टी कांग्रेस के मुकाबले उन्नीस ही दिखी थी। अब उपचुनाव में पार्टी को अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा है। ऐसे में सुरेश कश्यप पर भी सबकी निगाहें टिकी है।
प्रदेश के सियासी क्षितिज पर जगमगा रहे कई तारे उपचुनाव नतीजों के बाद जमीन पर आते दिख रहे है। नगर निगम चुनाव के बाद उपचुनाव में भाजपा को जोर का झटका लगा है वो भी जोर से। कई आत्ममुग्ध नेता और दिग्गज जनता दरबार में धराशाई हो गए। खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर समेत कई कैबिनेट मंत्रियों और पार्टी संगठन को जनता ने आइना दिखा दिया। उपचुनाव में मुख्यमंत्री समेत कई मंत्रियों और वरिष्ठ नेताओं की साख दाव पर थी। कई नेताओं को प्रभारी बनाया गया था तो कई पर अपने -अपने निर्वाचन क्षेत्रों में लीड दिलवाने का जिम्मा था। पर अधिकांश खरे नहीं उतरे। ऐसा ही हाल पार्टी संगठन का भी है, नगर निगम चुनाव के बाद दूसरे बड़े इम्तिहान में भी संगठन बेअसर दिखा। भाजपा पार्टी विद डिसिप्लिन है, और प्रदेश में जो भी हाल हो मगर राष्ट्रीय स्तर पर इसे अनदेखा नहीं किया जाने वाला। सवाल तो पूछे ही जायेंगे, जवाबदेही भी तय होगी और निश्चित तौर पर सुधार भी होगा। बीते कुछ महीनों में पार्टी ने जिस तरह कई राज्यों में परिवर्तन किया है उसे देखते हुए अभी से सियासी पंडित कयास लगाने लगे है। किन्तु ये नहीं भूलना चाहिए कि जयराम ठाकुर का बचाव न सिर्फ उनकी स्वच्छ छवि की ढाल कर रही है बल्कि मंडी के नौ में से आठ निर्वाचन क्षेत्रों में मिली बढ़त भी उनके पक्ष में गई है। सही मायनों में उपचुनाव में वे अकेले ही भाजपा की तरफ से लोहा लेते दिखे है, बाकी तो मानो फर्ज अदायगी चल रही थी। भाजपा ये दावा करती है कि चुनाव में प्रत्याशी तय करने से पहले ग्राउंड सर्वे होता है, फिर गहन मंथन के बाद प्रत्याशी तय किये जाते है। इसमें चुनाव प्रभारियों से लेकर आम कार्यकर्ताओं के फीडबैक को तवज्जो दी जाती है। सब कुछ पूरी प्लांनिग के साथ होता है परन्तु जो नतीजे सामने आए है उनसे तो भाजपा के सर्वे पर भी सवाल उठ रहे है। ये सर्वे और फीडबैक पार्टी की जीत के लिए हुए थे या कोई इनसाइड स्टोरी है, ये भी बड़ा सवाल है। भाजपा का कोई एक प्रभारी भी अपनी साख नहीं बचा पाया। पार्टी ने जल शक्ति मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर को मंडी संसदीय सीट के लिए, बिक्रम ठाकुर को फतेहपुर के लिए, डॉ राजीव बिंदल को अर्की के लिए और मंत्री सुरेश भारद्वाज को जुब्बल कोटखाई उपचुनाव के लिए प्रभारी नियुक्त किया था। इनके आलावा मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर और मंत्री राम लाल मारकंडा पर भी अपने -अपने क्षेत्रों से लीड दिलवाने का जिम्मा था। पर ये सभी असफल रहे। थम गया जयरथ जयराम ठाकुर सरकार के मुखिया है और जाहिर है जीत का श्रेय और हार का जिम्मा दोनों उनके खाते में ही दर्ज होने थे। ये चार- शून्य से मिली हार निसंदेह उनके लिए बड़ा झटका है। उपचुनाव में मुख्यमंत्री ने करीब 70 जनसभाएं की लेकिन सब व्यर्थ गया। मंडी में तो मुख्यमंत्री ने स्वयं मोर्चा संभाला था। इससे मुकाबला कड़ा जरूर हुआ परन्तु भाजपा को जीत नहीं मिल पाई। पर जिला के नौ में से आठ निर्वाचन क्षेत्रों में मिली लीड जरूर बताती है कि जिला मंडी में जयराम ठाकुर की पकड़ जबरदस्त है। ये जगजाहिर है कि भाजपा का एक गुट जयराम ठाकुर का विरोधी है, पर अब तक ये गुट खुलकर उनके खिलाफ मुखर नहीं हो पा रहा था। दरअसल चुनावी विजय रथ पर सवार जयराम ठाकुर ने कभी उन्हें ऐसा मौका ही नहीं दिया। पर इस हार के बाद दबे हुए विरोध के सुर बुलंद हो सकते है, जिन्हें थामना जयराम ठाकुर के लिए बड़ी चुनौती होगी। दमखम दिखा पाते तो मंडी भाजपा की होती शिक्षा मंत्री गोविंद ठाकुर के जिला कुल्लू की चारों सीटों पर भाजपा पिछड़ी। मंत्री के अपने निर्वाचन क्षेत्र में भी पार्टी को लीड नहीं मिली। यानि मंडी संसदीय उपचुनाव के इम्तिहान में गोविन्द सिंह ठाकुर पूरी तरह फेल हो गए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि मंत्री के जिला में पार्टी अच्छा करती तो जीत हार का अंतर खत्म किया जा सकता था। यदि गोविन्द ठाकुर अपना दमखम दिखा पाते तो मंडी भाजपा की होती। प्रतिभा सिंह को मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर के गढ़ मनाली में भी 1841 मत अधिक प्राप्त हुए है। भाजपा ने कुल्लू जिले का दायित्व भी शिक्षा मंत्री गोविंद ठाकुर को सौंपा था। बता दें की कुल्लू जिले के चारों हलकों में कांग्रेस ने 14,659 मतों की बढ़त प्राप्त की है। मार्कण्डेय फिर विफल तकनीकी शिक्षा मंत्री डा. रामलाल मारकंडा भी उपचुनाव में नाकाम रहे। मंत्री अपने हलके व गृह जिले में भाजपा की साख नहीं बचा पाए। लाहौल स्पीति में कांग्रेस प्रत्याशी को बढ़त मिली। लाहुल स्पीति के विधायक एवं तकनीकी शिक्षा मंत्री डा. रामलाल मारकंडा ने जिला परिषद के चुनाव में भाजपा को मिली हार से भी कोई सबक नहीं सीखा। वह क्षेत्र के 23,790 मतदाताओं की नब्ज टटोलने में पूरी तरह विफल रहे। 23,790 से 13,547 ने मतदान किया था। कांग्रेस यहां 2147 मतों की बढ़त ले गई। बेअसर दिखे मंत्री महेंद्र उपचुनाव में मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर भी अपना प्रभाव नहीं दिखा पाए। महेंद्र ठाकुर को मंडी संसदीय उपचुनाव का प्रभारी बनाया गया था। पर वे भी चुनाव प्रचार प्रसार में अधिक प्रभावशाली नहीं दिखे। जिला मंडी के बाहर हर जगह भाजपा पिछड़ी जो हार का कारण सिद्ध हुआ। लगातार अपने बयानों से चर्चा में रहने वाले मंत्री कहने को चुनाव प्रभारी जरूर थे पर चुनाव पूरी तरह जयराम ठाकुर के इर्दगिर्द ही घूमता दिखा। हालांकि मंत्री का अपना निर्वाचन क्षेत्र धर्मपुर मंडी संसदीय क्षेत्र में नहीं आता लेकिन कुछ अन्य क्षेत्रों से महेंद्र सिंह दूर ही दिखे। बतौर प्रभारी दूसरी हार, उठेंगे कई सवाल फतेहपुर में उद्योग मंत्री बिक्रम सिंह ठाकुर व वन मंत्री राकेश पठानिया ने कमान संभाल रखी थी। यहां भी दोनों ही मंत्री फेल हो गए। विशेषकर बिक्रम ठाकुर के लिए ये बड़ी हार है। इससे पहल पालमपुर नगर निगम चुनाव में भी मंत्री प्रभारी थे और भाजपा को करारी शिकस्त मिली थी। बिक्रम ठाकुर जिला कांगड़ा में भाजपा के सबसे मजबूत मंत्री है और उद्योग व परिवहन जैसे महत्वपूर्ण महकमे उनके पास है। बतौर प्रभारी उनका लगातार विफल होना पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है। सत्ता का रास्ता कांगड़ा से होकर ही जाता है। अर्की में नहीं हुई जीत वाली नाटी अर्की में भी लोग बस इंतज़ार करते रह गए और बिंदल का जादू नहीं चला। लगा था जीत की नाटी करने का जो मौका सोलन नगर निगम चुनाव के बाद नहीं मिला वो शायद अर्की में मिल जाए, पर ऐसा जनादेश आया नहीं। बिंदल को संगठन का डॉक्टर भी कहा जाता है लेकिन उनके प्रभारी रहते पार्टी को फिर हार मिली है। आमतौर पर अपने संवाद से ही कार्यकर्ताओं में जोश भर देने वाले बिंदल को जो लोग करीब से जानते है, जो उनकी कार्यशैली को जानते है उन्हें भी समझ नहीं आ रहा कि आखिर हुआ क्या है। भुलाएं नहीं भूलेगी ये हार बाकि हलकों में जो हुआ उसे भुलाया जाना उतना कठिन नहीं है परन्तु जुब्बल कोटखाई की हार को भाजपा के इतिहास का काला अध्याय कहा जाने लगा है। यहां देश की सबसे बड़ी पार्टी के प्रत्याशी की जमानत जब्त हो गई। यहां संगठन भी टूटा और कार्यकर्त्ता भी पार्टी से रूठ गया। स्थिति सुधरने के बजाए दिन प्रति दिन बिगड़ती चली गई। चुनाव प्रभारी सुरेश भारद्वाज अपने कार्यकर्ताओं को मनाने में पूरी तरह विफल रहे और नतीजा अब सभी के सामने है। सवाल ये भी है कि उपचुनाव के दौरान परिवारवाद को लेकर भाजपा का जो जमीर जागा है क्या वो आगे भी जाएगा रहेगा। दूसरा क्या चेतन बरागटा का निष्कासन 6 वर्ष तक बरकरार रहेगा या पार्टी को 2022 आते -आते फिर उनकी याद आएगी।
हिमाचल प्रदेश में उपचुनाव में बीजेपी चरों खाने चित हुई है। एक लोकसभा और 3 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस ने कब्ज़ा किया है। सीएम जयराम के गढ़ मंडी में प्रतिभा सिंह ने बाज़ी मारी है। मंडी लोकसभा सीट पर प्रतिभा सिंह ने 8766 मतों से जीती हासिल की है। उन्हें कुल 365650 मत पड़े। वंही बीजेपी प्रत्याशी कुशल ठाकुर की झोली में 356884 मत गए। इस उपचुनाव में कुल 742771 मतदाताओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया जबकि 12626 लोगों ने नोटा दबाया। फतेहपुर सीट से कांग्रेस उमीदवार भवानी सिंह पठानिया 5789 वोटों से चुनाव जीते। यहाँ 24 चरणों में मतगणना हुई थीं। 24 वीं चरण की मतगणना में भाजपा प्रत्याशी बलदेव ठाकुर को 18660, भवानी सिंह पठानिया को 24449, जनक्रांति पार्टी के पंकज दर्शी 375, अशोक सोमल को 295 और निर्दलीय प्रत्याशी डॉ. राजन सुशांत को 12927 वोट मिले। वहीं उपचुनाव में 389 ने नोटा दबाया। हिमाचल प्रदेश के जुब्बल-कोटखाई विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस की शानदार जीत हुई। बता दें जुब्बल कोटखाई में 4 प्रत्याशी मैदान में थे। इस सीट से कांग्रेस प्रत्याशी रोहित ठाकुर ने 6293 मतों से चुनाव जीत लिया है। उन्होंने कुल 29955 वोट हासिल किए। वहीं, निर्दलीय प्रत्याशी चेतन बरागटा को 23662 वोट मिले। भाजपा की नीलम सरैइक को 2644 और निर्दलीय प्रत्याशी सुमन कदम को 175 वोट मिले। उपचुनाव में 176 ने नोटा दबाया है। अर्की में कांग्रेस के प्रत्याशी संजय अवस्थी ने जीत हासिल की है। उपचुनाव में उन्होंने 30493 वोट हासिल किए। वंही भाजपा के प्रत्याशी रतन सिंह पल को 27216 वोट मिले। इसी तरह निर्दलीय उम्मीदवार जीत राम को 1622 वोट मिले। बता दें कि अर्की विधानसभा की यह सीट पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र के निधन के बाद रिक्त हुई थी।
प्रदेश में 4 उपचुनावों के चलते आज शाम 5 बजे शराब के ठेके बंद कर दिए जाएंगे। हिमाचल प्रदेश में उपचुनावों से जुड़े 20 विधानसभा क्षेत्रों में पांच बजे से 48 घंटे तक चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों के अनुसार शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगने जा रहा है। यह प्रतिबंध मतदान के दिन 30 अक्तूबर तक शाम पांच बजे तक रहेगा। इसके बाद 2 नवंबर को मतगणना के दिन भी शराब की ब्रिक्री पर प्रतिबंध रहेगा। संबंधित क्षेत्रों में आने वाले होटल, रेस्टोरेंट, क्लब में शराब की बिक्री व वितरण पर रोक रहेगी। निर्वाचन अधिकारियों की ओर से इस संदर्भ में अधिसूचना जारी कर दी गई है। अधिसूचना के मुताबिक उपचुनावों से जुड़े लोकसभा और विस क्षेत्रों में प्रतिबंध एक साथ लागू होगा। यदि कहीं पर भी शराब की दुकान से बिक्री होते मिली तो उसका लाइसेंस रद्द किया जाएगा। इस बाबत निर्वाचन अधिकारियों ने सभी मजिस्ट्रेट, एडीएम, एसडीएम और पुलिस अधिकारियों को निर्देश जारी कर दिए हैं। गौरतलब है कि संसदीय क्षेत्र मंडी में 17 विधानसभा क्षेत्र आते हैं। सदर मंडी, करसोग, सुंदरनगर, नाचन, सराज, द्रंग, जोगिंद्रनगर, बल्ह, सरकाघाट, भरमौर, लाहौल-स्पीति, मनाली, कुल्लू, बंजार, आनी, रामपुर और किन्नौर शामिल हैं। जुब्बल कोटखाई, फतेहपुर और अर्की में भी उपचुनाव हैं। इन विधानसभा क्षेत्रों में शराब की बिक्री प्रतिबंधित रहेगी।
भाजपा अक्सर प्रदेश के असली मुद्दों को भटकाती रही है। भाजपा की हालत अब प्रदेश की जनता भी जान चुकी है। उपचुनाव में जनता इसका जवाब देगी। ये कहना है कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष कुलदीप राठौर का। कांग्रेस के लिए जोर शोर से प्रचार करने में जुटे राठौर ने कहा कि महंगाई पर कोई कार्रवाई करने एवं इसे नियंत्रित करने की बजाय सरकार तर्क देती है कि इस पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। सीमेंट, पेट्रोल-डीजल को लेकर सरकार का यह तर्क होता है। अगर सरकार का किसी चीज पर नियंत्रण नहीं है तो भाजपा स्पष्ट करें कि उनका नियंत्रण किस चीज पर है। जिस सरकार का किसी भी चीज पर नियंत्रण नहीं है तो वह सरकार क्यों है ? राठौर का कहना है कि जयराम सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि भाजपा विकास के नाम पर उपचुनाव में उतर रही है एवं जनता के समक्ष विकास कार्य लाए जा रहे हैं। प्रदेश सरकार बताए कि पिछले 4 सालों में ऐसे कौन से 4 विकास कार्य किए हैं। प्रदेश सरकार बताए कि पिछले 4 साल में हिमाचल के लिए कौन सी बड़ी योजना लाए, कौन सा शैक्षणिक संस्थान या अस्पताल खोला ? उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार कर्मचारियों को प्रताड़ित कर रही है। जनमंच के माध्यम से अधिकारियों व कर्मचारियों को जनता के समक्ष ले जाकर जलील किया जा रहा है। उपचुनावों में कांग्रेस पर परिवारवाद के आरोप लगाने वाली सरकार यह क्यों भूल जाती है कि उनके खुद के मंत्री व विधायक परिवारवाद की उपज हैं। उन्होंने कहा कि भाजपा के केंद्रीय खेल व सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर खुद परिवारवाद की उपज है।
चुनाव प्रचार के दौरान प्रतिभा सिंह ने कारगिल युद्ध पर एक ऐसा ब्यान दे दिया जिसने कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा दी और भाजपा को बैठे बिठाये मुद्दा दे दिया। प्रतिभा ने अपनी जनसभा के दौरा ये कहा था कि भाजपा ने फौजी को टिकट इसलिए दिया कि उन्होंने कारगिल युद्ध में भाग लिया। कारगिल युद्ध कोई बहुत बड़ा ऐसा युद्ध नहीं था। वह हमारी धरती थी, जिस पर पाकिस्तानियों ने कब्जा किया था। उनको खदेड़ने व हटाने की बात थी। अगर उसमें किसी ने भाग लिया तो भाजपा उसका श्रेय लेना चाहती है। सैनिकों के वोट पर भाजपा की नजर है। उन्होंने कहा है कि मुख्यमंत्री जयराम अपने प्रत्याशी को कारगिल युद्ध के मुख्य हीरो के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं। कारगिल युद्ध के नाम पर भाजपा इस चुनाव में सेना के पराक्रम को अपनी जीत बता कर उनकी भावनाओं से खेल रही है। इस बयान को भाजपा ने खूब भुना रही है। बात यहां तक पहुँच गई कि मंडी लोकसभा के उपचुनाव को राष्ट्रवाद के सियासी चश्में से देखा जाने लगा। इस बयान पर चौतरफा घिरने के बाद प्रतिभा सिंह ने डैमेज कण्ट्रोल करे की पूरी कोशिश की है। प्रतिभा ने कहा कि उन्होंने कारगिल योद्धाओं पर कोई टिप्पणी नहीं की है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि यह युद्ध भाजपा सरकार की विफलता का परिणाम था। इसके बाद भी जब बात नहीं बनी तो कांग्रेस प्रत्याशी प्रतिभा सिंह ने डैमेज कंट्रोल करने के लिए सैनिकों की तारीफों के पुल बांधना शुरू कर दिया। उन्होंने अपनी अगली जनसभा में कहा कि देश के जवानों का ऋण हमारी सात पीढ़ियां भी नहीं चुका सकतीं। देश के जवान दिन-रात सरहद पर जान हथेली पर लेकर जनता की रक्षा करते हैं। उनकी कुर्बानियों का कर्ज भला कौन चुका सकता है।
उपचुनाव के इस रण में अब 18 प्रत्याशी ही मैदान में रह गए है। छंटनी और नामांकन वापिस लेने की आखरी तिथि के बाद मैदान में टिके योद्धा कौन है ये स्पष्ट हो गया है। मंडी लोकसभा के अलावा जुब्बल-कोटखाई, अर्की और फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र में हो रहे उपचुनाव के लिए प्रत्याशियों की तस्वीर अब साफ हो गई है। सभी सीटों पर कुल 18 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं जिनमें से कई पार्टी सिंबल तो कई निर्दलीय चुनाव लड़ रहे है। चुनाव आयोग द्वारा निर्दलीय प्रत्याशियों को सेब पेटी से लेकर गैस सिलिंडर जैसे चुनाव चिह्न आवंटित किये गए है। मंडी संसदीय क्षेत्र से भाजपा के उम्मीदवार ब्रिगेडियर कुशाल चंद ठाकुर, कांग्रेस की प्रतिभा सिंह, राष्ट्रीय लोकनीति पार्टी की अंबिका श्याम, हिमाचल जनक्रांति पार्टी के मुंशी राम ठाकुर, निर्दलीय उम्मीदवार अनिल कुमार और सुभाष मोहन स्नेही मैदान में हैं। वहीं, अर्की विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के प्रत्याशी रत्न सिंह पाल और कांग्रेस पार्टी के संजय अवस्थी के अलावा निर्दलीय प्रत्याशी जीत राम, फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के बलदेव ठाकुर, कांग्रेस के भवानी सिंह पठानिया, हिमाचल जनक्रांति पार्टी के पंकज कुमार दर्शी और निर्दलीय प्रत्याशी डॉ.अशोक कुमार और डॉ. राजन सुशांत मैदान में है। यहां निर्दलीय प्रत्याशी पंकज कुमार को सेब, डॉ अशोक कुमार सोमल को सीटी और डॉ राजन सुशांत को गैस सिलिंडर चुनाव चिन्ह मिला है। जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र से भाजपा की नीलम सरैईक, कांग्रेस के रोहित ठाकुर, निर्दलीय प्रत्याशी चेतन सिंह बरागटा और सुमन कदम के बीच चुनावी दंगल होगा। यहां निर्दलीय प्रत्याशी चेतन बरागटा को सेब तो सुमन कदम को बैट चुनाव चिन्ह के तौर पर प्रदान किया गया है। चार उपचुनाव में कुल 18 प्रत्याशी मैदान में है जिनमें से 4-4 कांग्रेस-भाजपा के है तो अन्य निर्दलीय ताल ठोक रहे है। दिलचस्प बात ये है कि निर्दलीय प्रत्याशी भी कमतर नहीं है और ऐसे में भाजपा और कांग्रेस दोनों के सामने इनसे निबटने की भी चुनौती है। जुब्बल कोटखाई में तो भाजपा के बागी चेतन बरागटा मैदान में है, तो फतेहपुर में पूर्व भाजपाई डॉ राजन सुशांत। कांग्रेस भाजपा दोनों में ही अंतर्कलह की स्थिति है ऐसे में ये निर्दलीय चुनावी समीकरण बदलने का मादा रखते है।
आगामी चार उपचुनाव 20 विधानसभा क्षेत्रों में दोनों राजनीतिक दलों का इम्तिहान है। ये उपचुनाव आठ जिलों में दोनों मुख्य दलों की जमीनी स्थिति बताएगा। ये विधानसभा चुनाव से पहले शक्ति परिक्षण का बेहतरीन मौका है, दरअसल ये सही मायनों में सत्ता का सेमीफाइनल है। ये किसी अन्य उपचुनाव की तरह नहीं है, ये कहीं चेहरे तय कर सकता है तो कहीं चेहरे बदल सकता है। किसी का दावा मजबूत कर सकता है तो 2022 से पहले किसी की राह कठिन। 30 अक्टूबर को मतदान होना है और उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। चाहे मंडी संसदीय क्षेत्र हो या जुब्बल कोटखाई, अर्की और फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र का उपचुनाव, हर तरफ जोर आजमाइश चली है। कोई प्रत्याशी कोई राजनीतिक दल कसर नहीं छोड़ना चाहता। यहां कसर रह गई तो इसका असर दूर तक दिखेगा। जुब्बल-कोटखाई: नित नए समीकरण और दिलचस्प होता उपचुनाव उपचुनाव में जुब्बल - कोटखाई इस वक्त हॉट सीट है। सबकी नजरें यहाँ टिकी है। कारण है यहाँ दिख रही रोचक जंग। कांग्रेस ने यहाँ से पूर्व विधायक और जांचे -परखे उम्मीदवार रोहित ठाकुर पर ही भरोसा जताया है। उनके टिकट को लेकर शुरू से कोई संशय नहीं था और रोहित कई माह पहले ही प्रचार शुरू कर चुके थे। साथ ही क्षेत्र में उनकी लगातार सक्रियता और स्थानीय संगठन पर उनकी पकड़ भी उन्हें पक्ष में रहे है। पर रोहित और कांग्रेस को अति आत्मविश्वास की स्थिति से बचना होगा और याद रखना होगा कि 2017 में ऐसा ही आत्मविश्वास उन्हें ले बैठा था। ये तय है की ये चुनाव उनके लिए आसान नहीं है। यहां से दूसरे उम्मीदवार जिन पर सबकी निगाहें टिकी है वो है चेतन बरागटा। इनकी एंट्री ने इस चुनाव को दिलचस्प मोड़ दे दिया है। दरअसल भाजपा ने यहां बरागटा का टिकट काट नीलम सरैक को टिकट दिया। टिकट कटा तो पहले चेतन आहत हुए और फिर चेतन के समर्थक। चेतन बतौर निर्दलीय मैदान में है और भाजपा की मुश्किलें बढ़ा चुके है। भले ही ये चेतन का पहला हो लेकिन उन्हें चुनाव लड़वाने का ठीक अनुभव है, जो उनकी रणनीति में भी दिख रहा है। लगातार सुर्ख़ियों ने बने रहकर चेतन इस चुनाव को अलग मोड़ पर ले जा रहे है जिससे कांग्रेस -भाजपा दोनों तो सतर्क और सावधान रहना होगा। भाजपा और नीलम की बात करें तो इन्हें गियर बदलने की ज़रूरत है। अभी चुनाव प्रचार का अंतिम चरण बाकी है और इसमें कोई संशय नहीं कि भाजपा को भी कम नहीं आंकना चाहिए। उम्मीद ये ही है कि मतदान का दिन आते -आते भाजपा भी रंग में होगी और पार्टी की चिर परिचित आक्रामकता इस चुनावी संग्राम में देखने को मिलेगी। नीलम की जमीनी पकड़ को भी यहां दरकिनार नहीं किया जा सकता। यहां एक और निर्दलीय प्रत्याशी सुमन कदम भी मैदान में है, वो भी भरपूर प्रयास कर रही है। चुनाव में वो कितनी प्रभावशाली साबित होती है, ये तो वक़्त ही बताएगा। फतेहपुर: विपक्षी हमले से साथ झेलने पड़ रहे है भीतरघाती बाण कांग्रेस ने यहां भवानी पठानिया को प्रत्याशी बनाया है जो परिवारवाद की बिसात पर अपनी राजनीतिक पारी का आगाज करने जा रहे है। पर यहां कांग्रेस के लिए अच्छी खबर ये है की परिवारवाद के नाम पर जो कार्यकर्ता कांग्रेस प्रत्याशी का विरोध करने पर उतारू थे वो अब 'मिस्टर इंडिया' होते दिख रहे है। परन्तु कांग्रेस को ये याद रखना होगा कि सियासत महाठगिनी है। यहां अक्सर जो दिखता है वो होता नहीं है। पार्टी के पास चूक की जरा भी गुंजाईश नहीं होनी चाहिए।भाजपा की बात करें तो फतेहपुर की दीवारों पर अब भी आये दिन नए पोस्टर नजर आ रहे है। यहां पोस्टर पॉलिटिक्स खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। जब भाजपा के कृपाल परमार को टिकट देने की सुगबुगाहट थी तो 'अबकी बार चक्की पार' के पोस्टर लग रहे थे और अब जब बलदेव भाजपा के फाइनल कैंडिडेट है तो 'अबकी बार जवाली पार' के पोस्टरों ने फतेहपुर की दीवारों को रंगीन बना रखा है। अब ये विपक्षी हमला है या भीतरघाती बाण कुछ कहा नहीं जा सकता। भाजपा के धुआंधार प्रचार के बावजूद कुछ क्षेत्रों में भाजपा कार्यकर्ताओं का किसानों द्वारा विरोध किया जा रहा है। पर इसमें कोई शक ओ शुबा नहीं है कि पार्टी ने यहां पूरी ताकत झोंक रखी है और भाजपा की ये आक्रामक प्रचार शैली विरोधियों के पसीनी छुड़ा सकती है। फतेहपुर की टक्कर में एक बड़ा नाम डॉ राजन सुशांत भी है। हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी के संस्थापक बतौर निर्दलीय मैदान में है और कर्मचारियों और कास्ट फैक्टर से आस लगाए बैठे है। बेशक बीता कुछ वक्त अनुकूल न रहा हो पर राजन सुशांत राजनीति के पुराने घाघ है। वे पांच बार विधायक और एक बार कांगड़ा से सांसद भी रहे है। सियासी माहिरों का मानना है की फतेहपुर के समीकरण बनाने और बिगाड़ने में राजन सुशांत का बड़ा हाथ रहेगा। फतेहपुर से हिमाचल जनक्रांति पार्टी के पंकज कुमार दर्शी और निर्दलीय प्रत्याशी डॉ. अशोक कुमार भी चुनावी मैदान में है, नतीजे के दिन इनके प्रदर्शन पर भी निगाहें रहेगी। मंडी : 'जयराम' की पकड़ और 'वीरभद्र' के नाम का है सवाल ! मंडी लोकसभा का उपचुनाव इस वक्त वीआईपी उपचुनाव बना हुआ है, जिसे राष्ट्रवाद बनाम श्रद्धांजलि के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है। यहां एक तरफ वीरभद्र परिवार मैदान में है तो दूसरी ओर पूर्व सैनिक ब्रिगेडियर कुशाल सिंह ठाकुर को भाजपा ने चेहरा बनाया पर। पर मोटे तौर पर बात करें तो कि कुशाल ठाकुर के नाम के साथ खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर मैदान में है। मुख्यमंत्री स्वयं घूम घूम कर भाजपा प्रत्याशी के लिए वोट मांग रहे है, एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया जा रहा है। मंडी लोकसभा का उपचुनाव निसंदेह भाजपा के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, यहां मुख्यमंत्री से लेकर विधायकों के रिपोर्ट कार्ड बनने है और इसीलिए भाजपा यहां हर मुनासिब तरकीब अपना रही है। दूसरी तरफ ये उपचुनाव वीरभद्र परिवार के लिए वर्चस्व की जंग है। आगामी समय में होली लॉज का रसूख कितना बरकरार रहता है ये भी काफी हद तक इस उपचुनाव पर निर्भर करेगा। प्रतिभा सिंह स्वयं हो या कोई भी अन्य कांग्रेसी नेता, मंडी में प्रचार प्रसार के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा किये गए विकास के नाम पर वोट मांगे जा रहे है। बढ़ती महंगाई और बेरोज़गारी के जैसे मुद्दे भी जनता को याद करवाए जा रहे है। कई अन्य प्रत्याशी भी मैदान में है जैसे राष्ट्रीय लोकनीति पार्टी की अंबिका श्याम, हिमाचल जनक्रांति पार्टी के मुंशी राम ठाकुर, निर्दलीय उम्मीदवार अनिल कुमार और सुभाष मोहन स्नेही। हालांकि मुख्यमंत्री के प्रचार और वीरभद्र के नाम के आगे ये कितना टिक पाते है ये देखना रोचक होगा। अर्की : उपचुनाव हो रहा रोचक, अपने ही बिगाड़ रहे समीकरण अर्की विधानसभा के उपचुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही परिस्थिति कुछ हद तक एक समान नजर आ रही है। दोनों ही राजनीतिक दलों के लिए अंतर्कलह बड़ी चुनौती बना हुआ है। एक तरफ जहां कांग्रेस के प्रत्याशी संजय अवस्थी के खिलाफ खुलेआम मुखालफत करने वाले राजेंदर ठाकुर कांग्रेस के समीकरण बिगाड़ रहे है तो दूसरी ओर भाजपा से नाराज चल रहे गोविंद राम शर्मा और उनके साथी भी रतन पाल के पक्ष में प्रचार नहीं कर रहे। भाजपा या यूँ कहे की अनुराग ठाकुर के प्रयास के बाद गोविंद राम शर्मा चुनाव न लड़ने पर सहमत ज़रूर हो गए थे, मगर वो पूरी तरह मान गए है ऐसा नहीं कहा जा सकता। ये स्पष्ट है की यदि इस बार रतन पाल अच्छा नहीं कर पाते है तो 2022 में गोविंदराम की टिकट राह ओर प्रशस्त होगी। ऐसा ही कुछ संजय अवस्थी के साथ भो होगा। संजय दूसरी दफे अर्की से चुनाव लड़ रहे है। इससे पहले उन्हों 2012 में चुनाव लड़ा था। अगर संजय अच्छा परफॉर्म करते है तो आल गुड पर यदि इस बार भी वे अच्छा परफॉर्म नहीं कर पाते है तो सवाल तो उठेंगे ही। ताजा स्थिति की बात करें तो निसंदेह भाजपा का प्रचार कुछ तेजी पकड़ता हुआ दिख रहा है, पर संजय अवस्थी को क्षेत्र में लगातार सक्रीय होने का लाभ भी मिल रहा है। राजेंद्र ठाकुर की नाराजगी यहां कांग्रेस की चिंता का सबब है तो गोविंदराम का खफा होना भजाईयों के लिए परेशानी।
उपचुनाव में बढ़ती महंगाई को कांग्रेस ने मुख्य मुद्दा बनाया है। इन्ही मुद्दों को लेकर कांग्रेस जनता के बीच है। लगातार बढ़ रहे पेट्रोल डीजल के दामों ने महंगाई को रफ़्तार दे दी है। दाल, चीनी, खाद्य तेल सहित एलपीजी के दामों ने रसोई का जायका खराब किया है। ऐसे में कांग्रेस अपने प्रचार अभियान में महंगाई की बात कर जनता से कनेक्ट करने का प्रयास कर रही है। जाहिर है हिमाचल में सत्ता के सेमीफाइनल के तौर पर हो रहे चार उपचुनाव में महंगाई का मुद्दा खूब चर्चा में रहने वाला है। प्रदेश की आधी आबादी की अगुवाई करने वाली महिलाएं रसोई में इस्तेमाल होने वाले घरेलू सिलेंडर का मूल्य एक हजार रुपये पार जाने से निराश हैं। यह देखना दिलचस्प रहेगा कि रसोई गैस सिलेंडर के साथ-साथ एक सौ रुपये प्रति लीटर पहुंच चुके पेट्रोल मूल्य को लेकर आमजन की प्रतिक्रिया क्या रहती है, क्या जनता इन मुद्दों पर वोट डालेगी या अन्य मुद्दे ही वोट का आधार बनेंगे। वहीँ बेरोजगारी के मुड़े पर बह कांग्रेस सरकार को घेर रही है। उधर भाजपा की बात करें तो प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के जरिये किसानों के खातों में छह हजार रुपये की धनराशि निरंतर आ रही है। इसी तरह वृद्धावस्था पेंशन से भी लोगों को राहत मिली है। इस पर सरकार ने 1.91 लाख सरकारी कर्मचारियों को छह फीसद महंगाई भत्ता का लाभ दिया है। इन योजनाओं के अलावा भी कई ने जनकल्याणकारी योजनाएं है जिनके सहारे भाजपा जीत की आस में है। जनता के बीच इन योजनाओं और विकास ने नाम पर वोट माँगा जा रहा है और यह भाजपा का मुद्दा है। विकास के मुद्दे पर चुनाव, जनता साथ : जयराम ठाकुर हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का कहना है भाजपा उपचुनाव में विकास को आधार बनाकर चुनाव लड़ेगी। कोरोना महामारी के कारण समूचा विश्व संकट के दौर से जूझता रहा और ऐसे गंभीर संकटकाल में केंद्र सरकार ने किसानों को प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना के तहत सालाना छह हजार रुपये बैंक खातों में समयानुसार डाले। प्रदेश सरकार के सीमित संसाधन होने के बावजूद सरकारी कर्मचारियों व पेंशनरों को छह फीसद महंगाई भत्ता दिया। अन्य कल्याणकारी योजनाओं से भी हमने प्रदेश का हर संभव विकास किया है, हर वर्ग का ख्याल रखा है। भाजपा सरकार के कार्यकाल में हिमाचल प्रदेश में अथाह विकास हुआ है और जनता मौका दे तो आगे भी ऐसा ही होगा। उन्नति के नए आयाम स्थापित कर रही भाजपा सरकार : अनुराग ठाकुर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जहां देश उन्नति के नए आयाम स्थापित कर रहा है, वहीं हिमाचल प्रदेश में भी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के नेतृत्व में विकास के नए आयाम प्रस्तुत किए जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार किसानों की हितैषी है। किसानों की फसलों को सुरक्षित रखने के लिए शीघ्र ही पूरे देश में एक लाख करोड़ की लागत से कोल्ड स्टोर बनाए जाएंगे। साथ ही केंद्र सरकार की ओर से जल्द किसान रेलगाड़ियां चलाई जाएंगी, जिससे किसान अपनी फसलें पूरे देश में अपनी कीमत पर बेच सकेंगे। अनुराग ठाकुर ने कहा कि इन उपचुनाव में भाजपा के प्रत्याशी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, केंद्रीय मंत्री अमित शाह व राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने तय किए हैं ओर ये सभी प्रत्याशी विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे। महंगाई ही मुद्दा, जनता मांग रही जवाब : मुकेश नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि उपचुनाव में कांग्रेस महंगाई के मुद्दे पर जनता के बीच है। कमर तोड़ महंगाई से आम आदमी त्रस्त है। आज गरीब परिवार के लिए दो वक्त का खाना पकाना मुश्किल हो गया है। केंद्र सरकार नाकाम रही और प्रदेश की भाजपा सरकार या फिर डबल इंजन की सरकार ने आम आदमी को दोहरे ढंग से धोया है। उपचुनाव में भाजपा को समझ नहीं आ रहा है कि किस तरह से जनता का सामना करे। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी इस उपचुनाव में बड़े मुद्दे है और कांग्रेस इन्हें लेकर जनता के बीच है। जनता भाजपा को सबक सीखाने के मन बना चुकी है। खामियाजा भुगतने को तैयार रहे भाजपा : शांडिल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डॉ कर्नल धनीराम शांडिल का कहना है कि एक संसदीय क्षेत्र और तीन विधानसभा क्षेत्रों में होने जा रहे उपचुनाव में बेरोजगारी और महंगाई बड़े मुद्दे है। भाजपा राज में जनता त्रस्त है, अमीर और आमिर हो रहा है, जबकि गरीब के सामने दो वक्त की रोटी का संघर्ष है। उपचुनाव में कांग्रेस इन दोनों मुद्दों पर जनता के बीच है और आज प्रदेश की जनता भाजपा से जवाब मांग रही है। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी का खामियाजा भुगतने को भाजपा तैयार रहे। मुद्दों से भटकाने का प्रयास, पर जनता भटकेगी नहीं : विक्रमादित्य शिमला ग्रामीण के विधायक विक्रमादित्य सिंह ने कहा कि मंडी संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव महिलाओं का चुनाव है। जब रसोई में तड़का लगता है तो महिलाएं महंगाई के आंसू रोती हैं। महंगाई और बेरोजगारी इस उपचुनाव में बड़े मुद्दे है। प्रदेश में अन्य राज्यों के लोगों को नौकरी दी जा रही है। यह चुनाव बेरोजगारों का है। विक्रमादित्य ने कहा कि भाजपा व मुख्यमंत्री लोगों को मुद्दों से भटकाने का प्रयास कर क्षेत्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। यह व्यक्ति विशेष का नहीं, केंद्र सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ चुनाव है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के पास धनबल की कमी है, मगर जनता का बल साथ है। विपरीत परिस्थितियों में भी चुनाव लड़ेंगे और जनता के आशीर्वाद से चुनाव जीतेंगे।
भाजपा के प्रचारकों की लिस्ट में अनुराग ठाकुर के अलावा केंद्र से किसी नेता का नाम नहीं है। दिलचस्प बात ये है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा हिमाचल से हैं लेकिन उनका नाम भी इस लिस्ट में शामिल नहीं हैं। पार्टी के प्रचार करने वाले नेताओं की फेहरिस्त में पार्टी के अध्यक्ष सुरेश कश्यप, मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, हिमाचल भाजपा प्रभारी अविनाश राय खन्ना व सह प्रभारी संजय टंडन शामिल हैं। ऐसे में केंद्रीय नेतृत्व से कम ही नेताओं के आने की उम्मीद है। पार्टी की ओर से चुनाव प्रचार में आने वाले नेताओं की जो सूची चुनाव आयोग को सौंपी गई है, जिसमें सभी नेता हिमाचल से संबंधित हैं। प्रदेश सरकार में मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर, सुरेश भारद्वाज, वीरेंद्र कंवर, बिक्रम सिंह ठाकुर, गोविंद सिंह ठाकुर, डॉक्टर राजीव सैजल, डॉक्टर राजीव बिंदल, सुखराम चौधरी, राकेश पठानिया, इंदु गोस्वामी, त्रिलोक कपूर और राकेश जम्वाल के नाम इस सूची में शामिल हैं। ये सभी नेता मंडी फतेहपुर अर्की और जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में उतरे प्रत्याशियों के प्रचार में उतरेंगे। उधर कांग्रेस ने भी स्टार प्रचारकों की सूची जारी कर निर्वाचन आयोग को भी भेज दी है। इनमें कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू, राज बब्बर, कन्हैया कुमार, पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी, सचिन पायलट और पूर्व केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा प्रमुख हैं। स्टार प्रचारकों में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ला, सह प्रभारी गुरकीरत सिंह कोटली और संजय दत्त भी शामिल हैं। इनके अलावा प्रदेश कांग्रेस से पार्टी प्रदेशाध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, आशा कुमारी, कर्नल धनीराम शांडिल, पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू, विधायक राजेंद्र राणा, विधायक विक्रमादित्य सिंह, पूर्व मंत्री कौल सिंह ठाकुर और सेवानिवृत्त मेजर जरनल धर्मवीर सिंह राणा को इस लिस्ट में शामिल किया गया है। शाह- राजनाथ कर सकते है रैली बेशक भाजपा के स्टार प्रचारकों की लिस्ट में केंद्रीय नेताओं के नाम न हो लेकिन पार्टी कुछ बड़े नेताओं की जनसभा करवा सकती है, विशेषकर मंडी संसदीय क्षेत्र में। मंडी में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की जनसभा होगी। इनके अतिरिक्त भी कई नेता चुनावी संग्राम में कूद सकते है। मांग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली की भी है लेकिन प्रधानमंत्री उपचुनाव में प्रचार करेंगे ऐसी संभावना कम ही है।
हिमाचल प्रदेश के संसदीय क्षेत्र मंडी और अन्य तीन विधानसभा क्षेत्रों में होने वाले उपचुनाव में 24 उम्मीदवार चुनावी मैदान में है। मंडी संसदीय क्षेत्र में सबसे ज्यादा 8 उम्मीदवारों ने नामांकन पत्र दाखिल किया है। विधानसभा क्षेत्र फतेहपुर में 7, अर्की में 4 और जुब्बल कोटखाई में 5 उम्मीदवारों ने पर्चा भरा है। 11 को नामांकन छंटनी होगी और 13 तक प्रत्याशी नामांकन वापस ले सकेंगे। 28 अक्टूबर की शाम चुनाव प्रचार थम जाएगा। सभी सीटों पर 30 अक्टूबर को मतदान होगा, जबकि मतगणना और परिणाम दो नवंबर को घोषित होंगे। नामांकन के अंतिम दिन शुक्रवार को 15 प्रत्याशियों ने पर्चे दाखिल किए। मंडी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी प्रतिभा सिंह ने नामांकन पत्र भरा। कांग्रेस के सुंदर सिंह ठाकुर (कवरिंग) राष्ट्रीय लोक नीति पार्टी अंबिका श्याम, भारतीय जनता पार्टी से प्रियंका शर्मा ने (कवरिंग) सुभाष मोहन और अनिल कुमार ने निर्दलीय पर्चा भरा। फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी बलदेव ठाकुर और जीत कुमार ने कवरिंग नामांकन पत्र दाखिल किया है। इसी तरह अंतिम दिन इसी तरह अर्की विधानसभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी रतन सिंह पाल और निर्दलीय जीतराम ने नामांकन पत्र दाखिल किया है। जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी रोहित ठाकुर, भाजपा प्रत्याशी नीलम सरैक, चेतन बरागटा, सुमन कदम और केवल राम नेगी ने निर्दलीय नामांकन पत्र भरा। संसदीय क्षेत्र मंडी व अर्की, फतेहपुर और जुब्बल कोटखाई उपचुनाव के लिए बेशक 24 उम्मीदवार मैदान में है लेकिन जाहिर में इनमें से सिर्फ चार को जनता का आशीर्वाद मिलेगा। धनतेरस के दिन 2 नवंबर को उपचुनाव के नतीजे आएंगे, ऐसे चार उम्मीदवारों को जहाँ दिवाली से पहले होली मनाने का मौका मिलेगा तो अन्य को मायूस होना पड़ेगा। मान गए गोविन्द और परमार नामांकन के आखिरी दिन तक भाजपा के लिए अर्की , फतेहपुर और जुब्बल कोटखाई में बगावत की स्थिति बनी हुई थी। हालांकि अंतिम दिन भाजपा ने अर्की से पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा और फतेहपुर से पूर्व राज्यसभा सांसद कृपाल परमार को मना लिया। जुब्बल-कोटखाई से चेतन बरागटा ने आजाद उम्मीदवार के रूप में अपना नामांकन भरा। फतेहपुर और जुब्बल पहुंचे सीएम, अर्की में अनुराग फतेहपुर में भाजपा प्रत्याशी बलदेव ठाकुर और जुब्बल-कोटखाई में नीलम सरैक के परचा भरने के दौरान मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर खुद मौजूद रहे। कृपाल परमार को तो सीएम जयराम अपने साथ हेलीकाप्टर में शिमला के जुब्बल-कोटखाई लेकर गए। उधर अनुराग ठाकुर अर्की से पार्टी प्रत्याशी रतन सिंह पाल के नामांकन में पहुंचे। अनुराग ने गोविन्द राम शर्मा से भी मुलाकात की और उन्हें मनाने में बड़ी भूमिका निभाई। भारद्वाज के खिलाफ लगे नारे नीलम सरैईक के परचा भरने के बाद आयोजित कार्यक्रम में लोगों की मौजूदगी कम रहने से यहां कुर्सियां भी खाली रह गईं। जुब्बल-कोटखाई में भाजपा का टिकट न मिलने से नाराज चेतन बरागटा के नामांकन के दौरान बड़ी संख्या में लोग जुटे। सड़कों पर इन्होंने भाजपा प्रत्याशी के साथ जा रही गाड़ियां तक रोक डालीं। चेतन बरागटा के समर्थकों ने जुब्बल-कोटखाई के चुनाव प्रभारी सुरेश भारद्वाज के खिलाफ नारे तक लगा दिए। प्रतिभा सिंह के साथ उमड़ी भीड़ कुछ तो कहती है वहीं मंडी में कांग्रेस टिकट पर पूर्व सांसद एवं पूर्व सीएम दिवंगत वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह ने अंतिम दिन शुक्रवार को नामांकन भरा। इस दौरान मंडी के सेरी मंच में प्रतिभा सिंह के कार्यक्रम में जबरदस्त भीड़ उमड़ी। हालात ऐसे थे कि कुर्सियां भी कम पड़ गईं और समर्थकों की भीड़ को देखते हुए बाद में गेट तक बंद करना पड़ा। मुख्यमंत्री के गढ़ में प्रतिभा सिंह के समर्थन में उमड़ी भीड़ ने संकेत दिया कि आगामी उपचुनाव में जबरदस्त घमासान देखने को मिलेगा। नेताओं वाले है ब्रिगेडियर के तेवर मंडी संसदीय क्षेत्र से भाजपा उम्मीदवार ब्रिगेडियर खुशाल चंद के लिए चुनावी राजनीति नई जरूर है लेकिन ब्रिगेडियर एक मंजे हुए नेता की तरह तेवर में है। बीते दिनों नामांकन भरने के बाद पहले ब्रिगेडियर ने भारत माता की जय के नारे के साथ अपने भाषण की शुरुआत की। फिर देवी-देवताओं, शहीदों को नमन किया और मंडी से सांसद रहे दिवंगत रामस्वरूप शर्मा को श्रद्धांजलि दी। ब्रिगेडियर ने पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वीरभद्र सिंह को भी श्रद्धांजलि दी और कई दिल जीत लिए। उन्होंने कहा कि वे फौजी है, राजनीति की उतनी समझ नहीं, मगर सेरी मंच उनके लिए नया नहीं है।1970 से इससे जुड़े और सेना में जाने से पहले जब पटवारी थे तो सामने ही उनका दफ्तर हुआ करता था। ब्रिगेडियर ने कहा कि मैं जानता हूं कि यहां की जरूरतें और अपेक्षाएं क्या हैं। मैं केंद्र के सामने हिमाचल के मुद्दे रखूंगा।
भरपूर जोश और बेजोड़ प्रयास, सियासी वार -पलटवार की भरमार, कहीं बगावत तो कहीं अंतर्कलह, कोई चुप है तो कोई मुखर, कहीं दिल मिल रहे है तो कहीं हाथ मिलाने की सियासी रस्म निभाई जा रही है, इससे पहले ऐसा तो चुनाव में होता आया है, पर पहली बार उपचुनाव में हो रहा है। हिमाचल ने ऐसा उपचुनाव पहले नहीं देखा। कभी ऐसा मौका भी नहीं आया जब तीन विधानसभा और एक लोकसभा सीट का उपचुनाव एकसाथ हो, वो भी विधानसभा उपचुनाव से सिर्फ एक साल पहले। यानी दोनों राजनैतिक दलों को कुल 20 विधानसभा क्षेत्रों में इम्तिहान देना है, कई मंत्रियों को इम्तिहान देना है। ये खुद मुख्यमंत्री का इम्तिहान है और ये इम्तिहान है विपक्ष में बैठे कई नेताओं का जिनकी नज़रें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिकी है। ये ही कारण है कि ये उपचुनाव सही मायनों में हिमाचल प्रदेश में सत्ता का सेमीफाइनल है। बिगुल बज चुका है, 30 अक्टूबर को मतदान है और 2 नवंबर को नतीजे घोषित होंगे। ये नतीजे कांग्रेस-भाजपा दोनों राजनीतिक दलों में बहुत कुछ तय करेंगे, ये नतीजे चेहरे तय कर सकते है, ये नतीजे किसी के लिए 2022 की राह आसान करेंगे तो किसी की डगर कठिन। यही कारण है इस बार उपचुनाव में हर जीत में कई की जीत छिपी होगी तो हर हार में कई उम्मीदों की हार होगी। तो विरोधी भी बोलेंगे जयराम की जय निसंदेह इस वक्त प्रदेश के किसी नेता पर सबसे ज्यादा बेहतर करने का दबाव है तो वे है मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर। उपचुनाव के नतीजे यदि ठीक ठाक नहीं रहे तो उसके खिलाफ मौका ढूंढ रहे उनके अपने भी आवाज उठा सकते है। पर इस बार भी यदि भाजपा को जीत मिलती है तो विरोधियों को भी जयराम की जय बोलनी होगी। जयराम ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने के बाद पहले भाजपा ने लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप किया, फिर धर्मशाला और पच्छाद के उपचुनाव में। पंचायती राज और शहरी निकाय चुनाव में भी भाजपा का डंका बजा। नगर निगम चुनाव में जरूर कुछ रंग में भंग डाला पर पार्टी पर जयराम ठाकुर का कण्ट्रोल बरकरार है। सवाल जो भी उठे पर चार साल में ऐसा मौका कभी नहीं आया जब खुलकर जयराम ठाकुर के खिलाफ कोई आवाज बुलंद हो पाई हो। पर इस उपचुनाव में यदि नतीजे प्रतिकूल रहे तो शायद दबे रहे विरोध के स्वर मुखर हो। तो कुलदीप के पांव होंगे मजबूत वीरभद्र सिंह के निधन के बाद प्रदेश कांग्रेस का चेहरा कौन है ये तो फिलवक्त शायद कांग्रेस भी नहीं जानती हो। तमाम बड़े नेताओं के बड़े अरमान और इन सियासी अरमानों के बीच हिचकोले खाता संगठन। पर इस स्थिति में भी एक चेहरा जैसे -तैसे अपनी जगह बचा कर आगे बढ़ता रहा है, वो है कुलदीप सिंह राठौर। इन्हीं कुलदीप राठौर में न तो विरोधियों को कोई एक्स फैक्टर दिखता था और न ही संगठन में हावी रहने की काबिलियत। पर कमजोर कांग्रेस संगठन और दिग्गजों की खींचतान के बीच भी कुलदीप संतुलन बनाकर चलते रहे है। अगर हार का श्रेय उन्हें मिलता है तो नगर निगम में मिली ठीक ठाक जीत का भी। उपचुनाव में भी यदि कांग्रेस अच्छा करती है तो कुलदीप के पाँव निसंदेह मजबूत होंगे और अगर पार्टी को मुँह की खानी पड़ी तो संगठन में बदलाव की आवाज बुलंद होगी। तो कायम रहेगा होलीलॉज का रसूख होलीलॉज लम्बे वक्त से प्रदेश की सियासत का केंद्र रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के निधन के बाद ये बड़ा सवाल था कि क्या होलीलॉज का पहले सा सियासी रसूख कायम रह पायेगा ? पर जिस तरह से प्रदेशभर में वीरभद्र सिंह के लिए सहानुभूति दिखी और जिस परिपक्वकता के साथ अब तक विक्रमादित्य सिंह आगे बढ़ते दिखे है उसके चलते अब तक विरोधी आवाजें खामोश रही है। पर अब मंडी चुनाव वीरभद्र परिवार का बड़ा इम्तिहान लेगा, यहां प्रदर्शन फीका रहा तो सवाल भी उठेंगे। पर यहां प्रतिभा सिंह का परचम लहराया तो होलीलॉज का रसूख अच्छे -अच्छे मानेंगे। इसी तरह फतेहपुर के पूर्व विधायक सुजान सिंह पठानिया भी वीरभद्र कैंप के सिपहसलहार थे, ऐसे में भवानी पठानिया के प्रदर्शन पर भी नज़र रहेगी। वीरभद्र सिंह अर्की से विधायक थे और अर्की सीट पर पार्टी ने संजय अवस्थी पर दाव खेला है जबकि वीरभद्र परिवार के नजदीकी राजेंद्र ठाकुर को टिकट से महरूम रखा गया है। अब राजेंद्र ठाकुर खुलकर संजय अवस्थी के विरोध में दिख रहे ही और उनके अनुसार इसका कारण ये है कि अवस्थी में 2017 में वीरभद्र सिंह के विरोध में काम किया था। अर्की टिकट के मसले पर विक्रमादित्य सिंह अब तक चुप है, पर आगे उनका क्या रुख रहेगा यह देखना रोचक होगा। अजब - गजब चुनाव 'मंडी का सीएम' कहना मंडी में भारी न पड़ जाएं कांग्रेस जयराम ठाकुर को मंडी का सीएम कहकर उन पर निरंतर निशाना साधती रही है। प्रदेश के बाकी हिस्सों में शायद कांग्रेस को इससे कोई लाभ हो सके लेकिन मंडी में कांग्रेस का ये नारा उलटा न पड़ जाए। एक किस्म से कांग्रेस खुद सीएम जयराम ठाकुर द्वारा मंडी में कराए गए विकास को प्रमाण पत्र देती रही है। अब उपचुनाव प्रचार में भी कांग्रेस अपने शब्दों पर टिकी रहती है या नहीं, ये देखना रोचक होगा। इधर -उधर, किधर की अजब सियासत इस गजब उपचुनाव में कई नेताओं की अजब चिंता है। चिंता दरअसल ये है कि विरोधी जीत भी गए तो कोई बात नहीं पर कहीं अपने जीत गए तो 2022 में बड़ी मुश्किल होगी। ये ही राजनीति है, जो इधर है वो उधर का है और जो उधर दिख रहा है वो ही इधर का है। कुछ ऐसे भी है जो इधर है या उधर पता नहीं, किधर है ये तो राम ही जाने। गरजने वाले क्या अब बरसेंगे कई कर्मचारी नेता और संगठन सत्ता से रुष्ट दिखते रहे है, उपचुनाव में देख लेने की बात कहते रहे है। अब उपचुनाव भी आ गए, पर क्या लम्बे समय से गरजते आ रहे ये कर्मचारी संगठन बरसेंगे या फिर अब 2022 का राग बरसाती गाया जायेगा। नज़रें विपक्ष पर रहने वाली है, क्या कर्मचारी वोट साधने को कुछ विपक्ष कुछ जुगत लगाएगा। महानुभाव खामोश रहे तो ज्यादा कृपा बरसेगी लगातार अपने अजब बयानों से अपनों की परेशानी बढ़ाते आ रहे नेताओं पर भी उपचुनाव में नज़र रहने वाली है। दरअसल चुनाव में असल तड़का तो तभी लगेगा जब ये बयानवीर अपने रंग में आएंगे। उधर राजनीतिक दल इसी प्रयास में है कि ऐसे महानुभाव खामोश रहे तो ज्यादा कृपा बरसेगी। नए-नए कांग्रेसी कन्हैया अब क्या और कितना बोलेंगे कांग्रेस के स्टार प्रचारकों की लिस्ट में एक नाम ने खूब हल्ला मचाया हुआ है, ये नाम है कन्हैया कुमार का। नए-नए कांग्रेसी हुए कन्हैया हिमाचल आकर क्या बोलेंगे और कितना बोलेंगे इसमें सबकी दिलचस्पी है। कन्हैया के हर वार पर भाजपा का क्या पलटवार होगा, इसमें सबकी ज्यादा दिलचस्पी है। कन्हैया कांग्रेस की नैया पार लगते है या भाजपा को हावी होने का मौका देते है, ये देखना रोचक होगा।
पांच बार के विधायक और एक मर्तबा सांसद रहे डॉ राजन सुशांत का राजनीतिक सफर भाजपा से राह अलग करने के बाद हिचकोले खा रहा है। भाजपा छोड़ने के बाद राजन सुशांत पहले आम आदमी पार्टी में गए और अब हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी के संस्थापक है। राजन सुशांत एलान कर चुके हैं कि उनकी पार्टी 2022 में सभी 68 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी और आजकल वे पुरे प्रदेश में घूमकर अपनी जमीन तैयार करने में जुटे हैं। पर इस बीच उनके अपने गृह क्षेत्र फतेहपुर में उपचुनाव आ गया। अब बड़ा विज़न लेकर जनता के बीच घूम रहे डॉ राजन सुशांत को पहले खुद को घर में साबित करना होगा। बहरहाल माना जा रहा है कि डॉ राजन सुशांत यदि इस चुनाव में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाए तो सवाल उन पर ही नहीं उनकी पार्टी के भविष्य पर भी उठेंगे। गौरतलब है कि डॉ राजन सुशांत खुद फतेहपुर से 2017 का चुनाव लड़े थे लेकिन जनता ने उन्हें नकार दिया था। तब उनकी जमानत जब्त हो गई थी पर अब स्थिति थोड़ी बदली जरूर है। फतेहपुर निर्वाचन क्षेत्र में ब्राह्मण मतदाताओं की बड़ी तादाद है, ऐसे में राजन सुशांत को ब्राह्मण वोट से खासी आस होगी। साथ ही लगातार कर्मचारियों के मुद्दे उठाकर भी राजन सुशांत नए समीकरण साधने की कोशिश में है। यानी ब्राह्मण प्लस कर्मचारी फैक्टर के सहारे इस उपचुनाव में नई एक्शन देखने को मिल सकता है।
15 विधानसभा क्षेत्रों वाला जिला कांगड़ा हिमाचल में सत्ता का रुख तय करता है। जिसने कांगड़ा जीता प्रदेश की सत्ता भी उसी को मिलती है और ये सिलसिला 1985 से चला आ रहा हैं। विधानसभा चुनाव में अभी एक वर्ष का समय है पर जिला कांगड़ा की फतेहपुर सीट पर उपचुनाव होने जा रहा है। ऐसे में दोनों दल कांगड़ा के सियासी समीकरण साधकर चलने का प्रयास करते दिख रहे है। कांग्रेस की बात करें तो 2017 केविधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद पार्टी का लोकसभा चुनाव में भी सफाया हो गया था। फिर जिला परिषद में भी स्थिति कुछ खास नहीं थी। हालांकि नगर निगम चुनाव में जरूर पार्टी ठीक करने में कामयाब रही। ऐसे में फतेहपुर सीट बरकरार रखना कांग्रेस के लिए बेहद जरूरी है। वहीँ यदि भाजपा फतेहपुर उपचुनाव जीत जाती है तो निसंदेह ये पार्टी की बड़ी कामयाबी होगी। ऐसे में 2022 के लिहाज से ये उपचुनाव जिला में हवा बनाने बिगाड़ने का काम कर सकता है। पिछला उपचुनाव जीती थी कांग्रेस करीब 12 साल बाद एक बार फिर फतेहपुर में उप चुनाव होने जा रहा हैं। इससे पहले 2009 में तत्कालीन विधायक डॉ राजन सिंह सुशांत के सांसद बनने के चलते उप चुनाव हुआ था। तब प्रदेश में भाजपा की सरकार थी और प्रो प्रेम कुमार धूमल मुख्यमंत्री थे। बावजूद इसके भाजपा उप चुनाव हार गई थी और सुजान सिंह पठानिया के दम पर कांग्रेस ने कमाल कर दिखाया था। पीएम मोदी की रैली भी रही थी बेअसर 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने फतेहपुर से कृपाल परमार को टिकट दिया था, पर तब बागी हुए बलदेव ठाकुर और राजन सुशांत ने पुरा खेल बिगाड़ दिया था। तब खुद पीएम मोदी ने फतेहपुर में जनसभा की थी लेकिन बाजी कांग्रेस मार ले गई। अब फिर भाजपा पर दबाव है। 2007 का विधानसभा चुनाव छोड़ दे तो फतेहपुर का वोटर अर्से से भाजपा पर मेहरबान नहीं दिखा है।
फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र, कांग्रेस का वो गढ़ जिसे जीत पाना भाजपा के लिए कभी आसान नहीं रहा। पिछले तीन चुनाव में कांग्रेस यहां जीत की हैट्रिक लगा चुकी है। कारण चाहे भाजपा का कमज़ोर संगठन और आपसी मतभेद रहे हो या फतेहपुर की जनता का सुजान सिंह पठानिया पर भरोसा, कांग्रेस यहां हर बार जीती। अब सुजान सिंह पठानिया के निधन के बाद ये उपचुनाव भाजपा के लिए वापसी का एक मौका है और शायद इसीलिए भाजपा ने यहां अंतर्कलह साधने में पूरा ज़ोर लगा दिया। रूठों को मनाने की जो जुगत भाजपा ने फतेहपुर में लगाईं है उसे देख सभी हैरान है। कांग्रेस ने भी जैसे - तैसे विद्रोह और अंतर्कलह की स्थिति को कुछ हद तक साध ही ली है, बाकी नतीजे तय करेंगे। परन्तु फतेहपुर का चुनाव सिर्फ इन दो मुख्य राजनीतिक दलों तक ही सीमित नहीं है। इन उपचुनाव के लिए कुल 6 प्रत्याशियों ने नामांकन भरा है और ये स्पष्ट है कि यहां निर्दलीय उम्मीदवार समीकरण बना और बिगाड़ सकते है। फतेहपुर में कांग्रेस ने भवानी पठानिया तो भाजपा ने बलदेव ठाकुर को मैदान में उतारा है। इनके अलावा यहां राजन सुशांत (निर्दलीय ), पंकज दर्शी (हिमाचल जनक्रांति पार्टी), प्रेमचंद (निर्दलीय), डॉ. सोमाल (निर्दलीय) भी मैदान में है। भाजपा को बलदेव के 'बल' से उम्मीद भाजपा ने यहां पूर्व प्रत्याशी कृपाल परमार का टिकट काट बलदेव ठाकुर को तरजीह दी है। पूर्व में पार्टी के मंडल अध्यक्ष व वर्तमान में प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य बलदेव ठाकुर लम्बे समय से पार्टी से जुड़े है और एक किसान परिवार से संबंध रखते हैं। बलदेव ठाकुर ने अब तक दो चुनाव लड़े हैं। पहला 2012 में भाजपा प्रत्याशी के तौर पर और दूसरा 2017 में एक आजाद उम्मीदवार के तौर पर। वे दोनों ही चुनाव हारे हैं। बलदेव ठाकुर वर्तमान में प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य भी हैं। 2017 में पार्टी से बाहर होने के बाद लोकसभा के चुनाव में उन्हें वापस संगठन में जगह दी गई थी और अब उन्हें भाजपा ने विधानसभा उपचुनाव के लिए अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया है। परन्तु कृपाल परमार के समर्थक भाजपा के इस निर्णय से बिलकुल भी संतुष्ट नहीं थे। शुरुआत से ही राज्यसभा के सांसद रह चुके प्रदेश भाजपा के पूर्व उपाध्यक्ष, पूर्व महासचिव कृपाल परमार का नाम प्रत्याशियों की सूची में सबसे आगे चल रहा थ। समर्थक उनका टिकट लगभग तय मान रहे थे परन्तु क्षेत्र में विरोध होने के चलते उनका टिकट कट गया। उनके अलावा जगदेव ठाकुर और रीता ठाकुर का नाम भी आगे आया परन्तु अंत में बलदेव बाज़ी मार गए। कृपाल परमार का टिकट काटने पर फतेहपुर भाजपा मंडल के सभी सदस्यों ने संयुक्त इस्तीफे सौंप दिए थे। पार्टी हाईकमान की मनमानी को मानने के लिए कृपाल परमार के समर्थक बिलकुल भी तैयार नहीं थे। परन्तु मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने स्थिति समय रहते अंडर कण्ट्रोल कर ली। मुख्यमंत्री प्रत्याशी बलदेव ठाकुर के नामांकन के लिए फतेहपुर गए और कृपाल परमार से बात की। वे कृपाल परमार को शांत कर हेलिकॉप्टर में उन्हें अपने साथ फतेहपुर से जुब्बल कोटखाई भी ले आए। बाद में वह शिमला भी सीएम के साथ ही आए जिससे फतेहपुर यहां बगावत का खतरा टल गया। बता दें की 15 साल से भी ज्यादा वक्त में ये पहली दफे है जब इस सीट पर भाजपा का कोई बड़ा बागी नहीं होगा। फतेहपुर भाजपा में अंतर्कलह की ये गाथा 2012 से शुरू हुई है । फतेहपुर में भाजपा ने बलदेव ठाकुर को 2012 में टिकट दिया था। वे चुनाव लड़े परन्तु जीत नहीं पाए। इसके बाद 2017 में बलदेव ठाकुर का टिकट काट कृपाल परमार को टिकट दिया गया और बलदेव ठाकुर ने भाजपा प्रत्याशी के खिलाफ बतौर आजाद उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा। बलदेव तो नहीं जीत पाए परन्तु उनकी बगावत ने भाजपा के समीकरण भी बिगाड़ दिए। इस बार पार्टी ने उल्टा किया और कृपाल का टिकट काट कर बलदेव को दे दिया। बहरहाल मुख्यमंत्री ने भले ही बाहरी तौर पर कृपाल परमार को समझा लिया हो, बेशक हाथ मिल गए हो लेकिन दिल मिले है या नहीं ये आकलन का विषय होगा। क्या कृपाल के समर्थक दिल से बलदेव का साथ देंगे, ये ही यक्ष प्रश्न है। कांग्रेस में जय भवानी का नारा बुलंद कांग्रेस ने फतेहपुर उपचुनाव में पूर्व विधायक सुजान सिंह पठानिया के बेटे भवानी सिंह पठानिया को टिकट दिया है। भवानी सिंह पठानिया कॉर्पोरेट जगत की नौकरी छोड़कर अपने पिता स्व सुजान सिंह पठानिया की राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए फतेहपुर लौटे है। लगातार वंशवाद का हल्ला मचने के बावजूद पार्टी ने उन्ही पर भरोसा जताया है। इस पर कई कांग्रेसी बेहद नाराज़ हुए। निशावर सिंह ने तो बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतरने का ऐलान भी कर दिया था। टिकट आवंटन से नाराज़ कार्यकर्ताओं ने भवानी पठानिया को चुनावी रणक्षेत्र में चुनौती देने की बात भी कही थी परन्तु अब सब शांत है। अब भवानी कांग्रेस से अकेले ही मैदान में है और मात तौर पर कांग्रेस में जय भवानी का नारा बुलंद है। पर भवानी और विधानसभा के बीच अंतर्कलह की खाई होगी जिसे पाटना भवानी के सामने चुनौती है। अलबत्ता कोई बागी मैदान में नहीं है लेकिन सभी एकजुट होकर बहनी का साथ देंगे ऐसी स्थिति नहीं दिख रही। 7 बार विधायक स्व. पठानिया भवानी पठानिया के पिता एवं पूर्व मंत्री स्व. सुजान सिंह पठानिया 1977 से लेकर 2017 तक सात बार विधायक रहे। वह 1977, 1990, 1993, 2003 में ज्वाली विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीत कर आए। उसके बाद 2009 के उप चुनाव में भी ज्वाली से जीते थे। बदले परिसीमन के बाद वर्ष 2012 और 2017 के चुनाव में वे फतेहपुर सीट से जीते। सुजान सिंह पठानिया वीरभद्र सिंह के बेहद करीबी माने जाते थे। वीरभद्र सरकार में वह दो बार प्रदेश के मंत्री भी रहे हैं। 1977 में सुजान सिंह पठानिया ने जनता पार्टी में शामिल होने के लिए सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था। 1980 में सुजान सिंह पठानिया कांग्रेस में शामिल हो गए थे। पिता की इस मजबूत राजनैतिक विरासत की बिसात पर भवानी एक मंजे हुए नेता की तरह नाप -तोल कर अपने राजनीति कदम आगे बढ़ाते दिख रहे है।
पहली बार 1952 के चुनाव में राजकुमारी अमृत कौर व गोपी राम निर्वाचित हुए थे, उस दौरान मंडी से दो सांसद चुने गए थे। इसके बाद मंडी रियासत के राजा जोगिंद्र सेन ने 1962 तक प्रतिनिधित्व किया। फिर सुकेत रियासत के राजा ललित सेन विजयी रहे थे। कांग्रेस ने फिर रामपुर रियासत के वीरभद्र सिंह को यहां से मैदान में उतारा। 1977 से 1979 की अवधि में जनता पार्टी के गंगा सिंह ने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। तब पहली बार यहां कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था। 1980 के चुनाव में फिर वीरभद्र सिंह विजयी हुए। 1985 में पंडित सुखराम संसद पहुंचे। 1989 के आम चुनाव में यहां से भाजपा ने कुल्लू के महेश्वर सिंह को मैदान में उतारा और लोकसभा में पहुंचे। 1991 के चुनाव में पंडित सुखराम ने फिर से जीत हासिल की। 1998 में महेश्वर सिंह ने कांग्रेस की प्रतिभा सिंह को पराजित किया था। 2004 में कांग्रेस की प्रतिभा सिंह ने महेश्वर सिंह को हराया। 2009 में वीरभद्र सिंह ने महेश्वर सिंह को हराया। 2013 के उपचुनाव में कांग्रेस की प्रतिभा सिंह विजयी रही। 2014 और 2019 के चुनाव में लगातार दो बार भाजपा के रामस्वरूप शर्मा विजयी रहे। अब उनके निधन से यहां उपचुनाव हो रहा है। 17 विधानसभा क्षेत्रों का बनेगा रिपोर्ट कार्ड मंडी संसदीय क्षेत्र में 17 विधानसभा क्षेत्र आते है। जाहिर है ऐसे में दोनों मुख्य राजनीतिक दलों का सभी 17 विधानसभा क्षेत्रों में इम्तिहान होगा। ये हिमाचल की कुल 68 विधानसभा सीटों का 25 फीसदी है। ऐसे में 2022 से पहले मंडी संसदीय उपचुनाव में बेहतर करने का दबाव दोनों राजनीतिक दलों पर होगा। जीत मिले या हार, पर विश्लेषण सभी 17 विधानसभा क्षेत्रों का होना है। जाहिर है स्थानीय नेताओं पर भी बेहतर करने का दबाव रहेगा। फिलवक्त इन 17 विधानसभा क्षेत्रों में से सिर्फ किन्नौर, रामपुर और कुल्लू में ही कांग्रेस के विधायक है। 2022 के लिए कांग्रेसी की कितनी तैयारी है, इसकी झलक भी लोकसभा उपचुनाव में देखने को मिलेगी। चुनाव के बाद सभी सम्बंधित विधानसभा क्षेत्रों का रिपोर्ट कार्ड बनना भी तय है। 2017 से कांग्रेस के सितारे गर्दिश में, भाजपा लगातार हावी मंडी में 2017 का विधानसभा चुनाव बुरी तरह हारने के बाद कांग्रेस 2019 का लोकसभा चुनाव भी रिकॉर्ड अंतर से हारी थी। हालहीं में हुए नगर निगम चुनाव में कांग्रेस को 15 में से सिर्फ 4 वार्ड में जीत मिली। जबकि इसी वर्ष जनवरी में हुए जिला परिषद् चुनाव में 36 वार्ड में से कांग्रेस ने सिर्फ एक वार्ड पर जीत दर्ज की थी। कमोबेश ऐसी ही स्थिति पंचायत समिति में भी रही जहां भाजपा का दबदबा रहा। अब प्रतिभा सिंह से कांग्रेस को उम्मीद है। कर्मचारी नेता भी लड़ चुके है चुनाव हिमाचल की कर्मचारी राजनीति के कई दिग्गज असली सियासी पटल पर भी अपनी किस्मत आजमाते रहे है। मंडी संसदीय क्षेत्र में भी कर्मचारी नेता अपनी किस्मत आजमा चुके है। मंडी संसदीय क्षेत्र में इससे पहले भाजपा दो कर्मचारी नेताओं को टिकट दे चुकी है, 1984 में व 1996 में और दोनों ही मर्तबा भाजपा को शिकस्त मिली। प्रदेश कर्मचारी महासंघ में अध्यक्ष के पद पर रह चुके फायर ब्रांड कर्मचारी नेता मधुकर और ठाकुर अदन सिंह ने यहां से चुनाव लड़ा था। इन दोनों ने हिमाचल की राजनीति के चाणक्य पंडित सुखराम के खिलाफ चुनाव लड़ा। हालांकि दोनों को ही चुनावों में सफलता नहीं मिली थी, लेकिन संसदीय क्षेत्र के चुनाव में कर्मचारी नेताओं ने दिग्गज नेता को टक्कर दी थी। मधुकर ने 1984 में भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा था, तो वहीं अदन सिंह ठाकुर ने 1996 में भाजपा के ही टिकट पर चुनाव लड़ा था।
मंडी में कांग्रेस की परिस्थिति टिकट के तलबगार भी बिगाड़ सकते है। कांग्रेस की टिकट के लिए लगी लम्बी कतार में पंडित सुखराम के पोते आश्रय शर्मा भी शामिल थे। पिछली बार की तरह इस बार भी पंडित जी आश्रय को टिकट दिलवाना चाहते थे। आश्रय कई दिनों तक दिल्ली भी घूमें परन्तु टिकट नहीं मिला। दरअसल 2017 में कांग्रेस को झटका देकर भाजपा में आए पंडित सुखराम अपने पोते आश्रय को सांसद बना देखना चाहते थे। इसी अरमान के साथ दादा-पोता कांग्रेस में चले गए। कांग्रेस ने आश्रय को टिकट भी दे दिया, पर हुआ वहीँ जो तमाम राजनीतिक पंडित मानकर चल रहे थे। 4 लाख 5 हज़ार 459 वोट के अंतर से आश्रय बुरी तरह चुनाव हार गए। शायद भाजपा ने भी नहीं सोचा होगा कि उनकी जीत का अंतर इतना विशाल होगा। 2019 के लाेकसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस काे मंडी संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाली हर विधानसभा सीट पर पराजित किया था। उस चुनाव में रामस्वरूप शर्मा को 6 लाख 47 हजार 189 मत पड़े थे जबकि कांग्रेस के आश्रय शर्मा को 2 लाख 41 हजार 730 मत मिले थे। यहां तक कि जिन विधानसभा क्षेत्राें में कांग्रेस के विधायक थे, वहां पर भी कांग्रेस के आश्रय काे बढ़त नहीं मिल पाई थी। यानी किन्नौर, कुल्लू और रामपुर विधानसभा क्षेत्राें में कांग्रेस के नुमाइंदे होने पर भी जनता ने कांग्रेस पर भरोसा नहीं जताया था। इस हार के बाद से ही मंडी में कांग्रेस कभी भी प्रभावशाली नहीं दिखी। कमोबेश ऐसा ही हाल आश्रय शर्मा का भी है। इस बार टिकट काटने के बाद परिस्थिति बदल गई है। कांग्रेस ने मंडी लोकसभा उपचुनाव के लिए आश्रय को प्रयवेक्षक नियुक्त किया है परन्तु सियासी माहिरों की माने तो आश्रय भाजपा में जाने की तैयारी कर रहे है। खुद उनके पिता अनिल शर्मा द्वारा दिए गए एक ब्यान में ये कहा गया है कि अब दोनों बाप -बेटा एक ही पार्टी में रहेंगे। आश्रय भाजपा में जाते है या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा, मगर कयासों से सियासी बाजार गर्म है। दो परिवारों ने ही कांग्रेस को दिलाई जीत मंडी संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस का झंडा पंडित सुखराम और वीरभद्र सिंह के परिवार ने ही बुलंद रखा है। 1971 से अब तक हुए 13 लोकसभा चुनाव और एक उप चुनाव में कांग्रेस को उप चुनाव सहित 8 में जीत मिली है और ये सभी जीत पंडित सुखराम, वीरभद्र सिंह और वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह के नाम दर्ज है। यानी 50 साल से मंडी में कांग्रेस की सियासत सिर्फ दो परिवारों के भरोसे चली है। अब फिर कांग्रेस ने प्रतिभा सिंह को ही टिकट दिया है।
मंडी संसदीय उपचुनाव में एक तरफ सहानुभूति की लहर पर सवार होकर कांग्रेस ने प्रतिभा सिंह पर दाव खेला है तो दूसरी तरफ भाजपा ने कारगिल हीरो रि. ब्रिगेडियर कुशाल चंद ठाकुर को मैदान में उतार जय हिन्द का नारा बुलंद किया है। निसंदेह मुकाबला कड़ा है, दिलचस्प है। मंडी संसदीय चुनाव जहां कांग्रेस के लिए वापसी का एक मौका है तो वहीं भाजपा के लिए ये वर्चस्व बरकरार रखने की जंग है। हारने वाले का नुक्सान दोनों तरफ बराबर होगा। मंडी के इस मुकाबले को अभी से सैनिक सम्मान बनाम वीरभद्र सिंह को श्रद्धांजलि के सियासी चश्मे से देखा जा रहा है। यूँ तो ये मुकाबला प्रतिभा सिंह विरुद्ध ब्रिगेडियर कुशाल चंद ठाकुर में है पर राजनीतिक नजरिए से इसे प्रतिभा सिंह विरुद्ध जयराम ठाकुर भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। दरअसल दो बार की सांसद प्रतिभा के सामने मोटे तौर पर खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने ही कमान संभाली हुई है। भाजपा इस चुनाव को मुख्यमंत्री के चेहरे पर ही लड़ने जा रही है। ऐसे में ये ब्रिगेडियर से ज्यादा जयराम ठाकुर का इम्तिहान है। वीरभद्र नहीं है, पर उन्हीं के नाम पर लड़ा जा रहा चुनाव मंडी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस ने प्रतिभा सिंह को मैदान में उतारा है। प्रतिभा सिंह को काफी समय पहले से ही मंडी संसदीय उपचुनाव के लिए सबसे मज़बूत प्रत्याशी माना जा रहा था। प्रतिभा सिंह खुलकर कह रही है कि वे वीरभद्र के नाम पर ही चुनाव लड़ रही है। बाकायदा सोशल मीडिया पर वीरभद्र सिंह को श्रद्धांजलि के नाम पर वोट की अपील हो रही है। प्रतिभा सिंह और कांग्रेस कह रही है कि पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह भले ही उनके और कांग्रेस परिवार के बीच नहीं है परंतु उनका आशीर्वाद और उनके प्रदेश में किए विकास कार्य सबके सामने हैं। यानी वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उपजी सहानुभूति के बल पर मंडी चुनाव जीतने की तैयारी है। इसके अलावा कांग्रेस करुणामूलक नौकरियां, बेरोजगारी, महंगाई और सेब के गिरते दामों को मुद्दा बनाकर मैदान में है। मंडी के रण में प्रतिभा सिंह पांचवीं बार मैदान में उतरी है। इससे पहले उन्हें दो बार जीत और दो बार हार मिली है। पहली जीत उन्हें 2004 के आम चुनाव व दूसरी 2013 के उपचुनाव में मिली थी। मंडी संसदीय क्षेत्र वीरभद्र परिवार की कर्मभूमि रही है। वीरभद्र सिंह ने 1971 में मंडी संसदीय क्षेत्र से पहली बार चुनाव लड़ा था। यहीं से चुनाव लड़कर वह केंद्र में मंत्री बने थे। प्रतिभा सिंह 1998 में सक्रिय राजनीति में आई थी। पहला चुनाव इसी संसदीय क्षेत्र से लड़ा था, जब भाजपा के महेश्वर सिंह ने उन्हें करीब सवा लाख मतों से पराजित किया था।1998 में केंद्र में एनडीए की सरकार 13 माह ही चल पाई थी जिसके पश्चात 1999 में लोकसभा का दोबारा चुनाव हुआ था। पर तब प्रतिभा सिंह ने चुनाव नहीं लड़ा। 2004 के आम लोकसभा चुनाव में उन्होंने दूसरी बार अपनी किस्मत आजमाई। तब उन्होंने महेश्वर सिंह से 1998 की हार का बदला लिया था। 2009 का लोकसभा चुनाव वीरभद्र सिंह ने लड़ा था और शनदार जीत दर्ज की थी। 2012 में प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद वीरभद्र सिंह ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया। फिर 2013 में उपचुनाव हुआ तो प्रतिभा तीसरी बार मैदान में उतरी और वर्तमान मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को करीब 1.39 लाख मतों से शिकस्त देकर दूसरी बार संसद सदस्य निर्वाचित हुई थी। इसके साल भर बाद 2014 में लोकसभा के आम चुनाव हुए और माेदी लहर में भाजपा के रामस्वरूप शर्मा ने उन्हें 39 हजार से अधिक मतों से पराजित किय । प्रदेश में उस समय कांग्रेस सरकार थी। प्रतिभा सिंह की हार से सब दंग रह गए थे। अब करीब सात साल बाद प्रतिभा सिंह दोबारा चुनावी अखाड़े में उतरी हैं। ये उनका पहला चुनाव है जिसमें वीरभद्र सिंह उनके साथ नहीं है लेकिन उनका नाम अब भी प्रतिभा की ताकत दिख रहा है। ब्रिगेडियर चुनावी मोर्चे पर, भाजपाई सेना एकजुट भाजपा ने इस बार मंडी से एक नए चेहरे पर दाव खेला है। कारगिल हीरो सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर को मैदान में उतारना भाजपा का एक बड़ा कदम माना जा रहा है। उन्हें मैदान में उतारकर भाजपा ने 45,000 सैनिक परिवारों को साधने का प्रयास किया है। इस संसदीय क्षेत्र में सैनिक परिवारों के करीब डेढ़ लाख से अधिक वोट हैं। काफी समय से यहां सेना की पृष्ठभूमि रखने वाले व्यक्ति को टिकट देने की मांग उठती रही है। ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर 2014 से टिकट की दौड़ में थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी पैनल में नामांकित हुए, लेकिन टिकट रामस्वरूप शर्मा की झोली में चला गया। 2017 के विधानसभा चुनाव में द्रंग हलके से टिकट मिलने की उम्मीद थी। पैनल में नामांकित हुए, टिकट जवाहर ठाकुर ले गए। 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर टिकट के प्रबल दावेदार थे। भाजपा ने टिकट दोबारा रामस्वरूप शर्मा को थमा दिया। कवरिंग उम्मीदवार बना भाजपा ने ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर को मान सम्मान देने का प्रयास किया था। 2017 में प्रदेश में भाजपा सरकार बनने पर किसी अहम पद पर उनकी तैनाती होने की उम्मीद जताई जा रही थी। इसके लिए भी उन्हें करीब ढाई साल तक इंतजार करना पड़ा। हिमाचल प्रदेश एक्स सर्विसमैन कारपोरेशन का अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक नियुक्त कर सरकार ने उनकी नाराजगी दूर करने का प्रयास किया था। सात साल बाद चौथे प्रयास में टिकट उनकी झोली में आया है। खास बात ये है कि ब्रिगेडियर को टिकट देने पर भाजपा में कोई विरोध नहीं दिखा। यानी पार्टी उनके नाम पर एकजुट दिखी है। टिकट की दौड़ में शामिल अन्य भाजपा प्रत्याशी भले ही रेस से बाहर हो गए परन्तु बगावत जैसी स्थिति मंडी में देखने को नहीं मिली। टिकट के चाहवान महेश्वर सिंह, पंकज जम्वाल और अजय राणा के हाथ बेशक मायूसी लगी पर वे अब भी भाजपा के समर्थन में ही दिख रहे है। अजय राणा को बार-बार आस्था बदलने का खामियाज़ा भुगतना पड़ा तो महेशवर सिंह के लिए भी टिकट न मिलने का कारण कुछ ऐसा ही है। अजय राणा को 2014 के चुनाव की तरह इस बार भी टिकट का प्रबल दावेदार माना जा रहा था। इस बार के पैनल में उनका नाम दिल्ली तक गया, लेकिन वहां मुहर नहीं लग पाई। बिग्रेडियर खुशाल ठाकुर को मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर सहित संसदीय क्षेत्र के ज्यादातर नेताओं का आशीर्वाद था। पार्टी का सर्वे भी उनके पक्ष में था। इन्हीं दो बातों के आधार पर टिकट उनकी झोली में आ गया जिसे बाकि लोगो ने स्वीकार लिया। पांच साल में दस गुना बढ़ा था हार का अंतर 2014 के लोकसभा चुनाव में मंडी संसदीय सीट से वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह कांग्रेस उम्मीदवार थी और उस चुनाव में उन्हें करीब 40 हज़ार वोटों से शिकस्त मिली थी। जबकि 2019 में आश्रय शर्मा 4 लाख से भी अधिक वोटों से हारे थे। यानी 2014 में जो अंतर करीब 40 हज़ार था वो पांच साल में 10 गुना बढ़कर करीब चार लाख हो गया। दिग्गज भी धराशाई हुए है मंडी में इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के आम चुनाव में इंदिरा विरोधी लहर में वीरभद्र सिंह मंडी से करीब 36 हज़ार वोट से चुनाव हार गए थे। 1989 में पंडित सुखराम करीब 28 हज़ार वोट से चुनाव हारे। उन्हें महेश्वर सिंह ने चुनाव हराया था। इसके बाद 1991 में महेश्वर सिंह को पंडित सुखराम ने परास्त किया। 1998 में महेश्वर सिंह ने प्रतिभा सिंह को चुनाव हराया। 1999 में महेश्वर ने कौल सिंह ठाकुर को हराया। महेश्वर सिंह इसके बाद 2004 में प्रतिभा सिंह से और 2009 में वीरभद्र सिंह के सामने चुनाव हार गए। वर्तमान में सूबे के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर 2013 के उप चुनाव में प्रतिभा सिंह से हारे। वहीं 2014 के आम चुनाव में प्रतिभा सिंह को रामस्वरूप शर्मा ने हराया।
जुब्बल कोटखाई में भाजपा का एक धड़ा अब भी नीलम सरैक के साथ है। ये वो लोग है जो या तो पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्त्ता है जिनके लिए पार्टी हाईकमान का निर्णय सर्वोपरि है या वो लोग जो शुरुआत से लेकर ही नीलम सरैक को टिकट मिलने की पैरवी कर रहे थे। भाजपा में अंतर्कलह की स्थिति कितनी प्रखर है ये इस बात से समझा जा सकता है की नीलम के समर्थक भाजपाई चेतन समर्थकों पर मारपीट के आरोप लगा रहे है। जान को खतरे की बात भी कही गई है। इस मुद्दे को भुनाया भी जा रहा है। हालांकि नीलम स्वयं अब भी चेतन को अपना छोटा भाई ही करार दे रही है। नीलम का चुनावी उद्धघोष भी स्वर्गीय नरेंद्र ब्रागटा द्वारा किये गए कार्यों को पूरा करने के आसपास ही घूम रहा है। नीलम इस क्षेत्र से तीन बार जिला परिषद की सदस्य रह चुकी है और 1997 से पार्टी के साथ जुड़ी हुई है। उन्हें चुनावी राजनीति का अनुभव भी है और हाईकमान का आशीर्वाद भी, बस दो धड़ों में बट चुकी भाजपा उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। नीलम की योगयता पर भी कोई संदेह नहीं है, बस चूक यहां भाजपा आलाकमान से हुई लगती है क्यों कि अगर शुरू से चेतन को टिकट के लिए आश्वस्त नहीं किया जाता तो शायद कि इस तरह का विद्रोह होता। बहरहाल स्थिति जो भी हो पर भाजपा के चुनाव मैनेजमेंट पर कोई संशय नहीं है। जमीनी स्तर पर पार्टी बेहद बारीकी से डैमेज कण्ट्रोल में जुटी है और निसंदेह चेतन को मनाने के प्रयास हो रहे है। नीलम को चुनाव लड़ने का ख़ासा अनुभव भी है जो इस चुनाव में उनके काम आ सकता है।
भाजपा की लड़ाई से इतर जुब्बल-कोटखाई निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस द्वारा सरकार पर ताबड़तोड़ हमले कर रही और बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दे लेकर जनता के बीच है। यहां कांग्रेस एकजुट है और रोहित ठाकुर एक मजबूत उम्मीदवार दिख रहे। रोहित 2003 और 2012 में जुब्बल कोटखाई से विधायक रहे है। रोहित ठाकुर ही वो नेता जिन्होंने साल 2003 में पूर्व विधायक स्व नरेंद्र बरागटा को हराया था। 2017 में भी रोहित ठाकुर मात्र 1062 वोटो से हारे थे। ऐसे में टिकट के लिए उन्हें किसी अन्य चेहरे से ज्यादा चुनौती नहीं मिली और अब पूरी कांग्रेस एक जुट होकर उन्हें जीत दिलाने में लगी है। 2017 में हारने के बाद भी रोहित लगातार क्षेत्र में सक्रीय रहे है, उनकी जमीनी पकड़ भी क्षेत्र में स्पष्ट देखने को मिलती है। पर अति आत्मविश्वास की स्थिति हमेशा कांग्रेस के लिए बड़ी परेशानी रही है, इससे कांग्रेस को बचना होगा। 2017 के चुनाव में भी कांग्रेस जीत को लेकर आश्वस्त थी और नतीजा सबके सामने है। वीरभद्र सरकार ने दी थी सीए स्टोर को मंजूरी पराला मंडी में सीए स्टोर स्थापित करने के मुद्दे पर श्रेय लेने की होड़ लगी है। भाजपाई इसे अपनी उपलब्धि बता रहे है तो कांग्रेस प्रत्याशी रोहित ठाकुर का कहना है कि किसी भी बड़ी परियोजना के लिए मंजूरी मिलना मुश्किल कार्य होता है, जबकि घोषणाएं करना आसान। वीरभद्र सरकार में प्रदेश को मिले सबसे बड़े 1134 करोड़ के बागवानी प्रोजेक्ट के तहत सीए स्टोर को पराला में बनाने की मंजूरी मिली थी। इसके साथ ही अन्य क्षेत्रों में भी सीए स्टोर निर्माण की मंजूरी दी गई थी। भाजपा सरकार का इस प्रोजेक्ट से कोई लेना देना नहीं है, यह सरकार केवल श्रेय लेने की होड़ में लगी है। जयराम सरकार ने तो प्रदेश के बागवानों को मिलने वाली निशुल्क कीटनाशक दवाइयों पर भी रोक लगा दी है। इससे पता लगता है कि यह सरकार बागवानों की कितनी हितेषी है? इस प्रोजेक्ट को मंजूर करवाने में पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह व पूर्व बागवानी मंत्री विद्या स्टोक्स का योगदान रहा है। रोहित कहते है कि वर्तमान बागवानी मंत्री के ब्यान तो साफ दर्शाते हैं कि उन्हें बागवानी की कोई समझ ही नहीं है। कांग्रेस सरकार ने एपीडा के तहत हिमाचल में सात सीए स्टोर स्थापित करने का प्लान तैयार किया था। इनमें से 3 सीए स्टोर जुब्बल कोटखाई में ही स्थापित करने का प्रावधान रखा गया था, चूंकि यह क्षेत्र सेब बाहुल्य के लिए जाना जाता है।
बरसात का मौसम खत्म हुआ और उपचुनाव आ गए, साथ ही शुरू हो गई कच्चे -पक्के वादों की बरसात और इस बरसात में उठ रही बगावत की गंध ने सियासी तौर पर माहौल और भी रोचक बना दिया है। जुब्बल कोटखाई में भाजपा दो धड़ों में बंट गई गई है। एक तरफ बरागटा को श्रद्धांजलि देने वाले लोग जमा हो गए है तो दूसरी तरफ भाजपा के निष्ठावान सिपाही बचे है। दो गुटों में बंटें ये भाजपाई पहले आपस में लड़ेंगे और फिर कांग्रेस से मुकाबले पर बात होगी। वहीं जुब्बल कोटखाई कांग्रेस एकजुट होकर भजपाईओं के इस तमाशे का आनंद ले रही है। पर कांग्रेस की राह इतनी भी आसान नहीं होगी जितना कुछ समर्थक सोच कर चल रहे है। विशेषकर बरागटा के प्रति दिख रही सहानुभूति कुछ भी गुल खिला सकती है, बशर्ते वे मैदान में डटे रहे। बहरहाल यदि बरागटा डटे रहे तो ये सहानुभूति कितनी वोट में तब्दील होती है और किस किसको नुकसान पहुंचाएगी, ये ही विश्लेषण का विषय होगा। जुब्बल कोटखाई की राजनीति समझने वाले मानते है कि इसे सीधे तौर पर सिर्फ भाजपा का नुक्सान नहीं समझना चाहिए, जब सहानुभूति प्रखर होती है तो राजनैतिक सीमायें नहीं देखती। जो माहौल और जन सैलाब चेतन बरागटा को टिकट न मिलने पर आहत हुए लोगों ने खड़ा किया उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता और न ही अनदेखा किया जा सकता है भाजपा की सुनियोजित रणनीतियों को। खैर आगे जो भी हो इतना स्पष्ट है की जुब्बल कोटखाई का चुनाव बेहद दिलचस्प होने वाला है। ये उपचुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। भाजपा के सामने सीट बचाने की चुनौती है तो कांग्रेस के सामने अपनी परंपरागत सीट को फिर कब्जाने की, वहीँ चेतन बरागटा ने इसे मान सम्मान की जंग बना लिया है। कांग्रेस ने जुब्बल कोटखाई से पूर्व विधायक रोहित ठाकुर को टिकट दिया है, जबकि भाजपा ने गहन मंथन और जोड़ तोड़ के बाद चेतन बरागटा का टिकट काट कर नीलम सरैक को टिकट दिया है। नीलम सरैक को टिकट देकर पार्टी एक मापदंड स्थापित करना चाहती थी कि भाजपा वंशवाद और परिवारवाद के खिलाफ है। हालाँकि ये पोलिटिकल स्टंट पार्टी को उल्टा पड़ता दिखाई दे रहा है। भाजपा ने शायद कभी नहीं सोचा होगा की चेतन के समर्थन में इतने लोग मैदान में उतर भाजपा के खिलाफ बगावत कर देंगे। चेतन पूरी तैयारी कर चुके थे, टिकट न मिलने पर उन्होंने ये तक कह डाला कि उन्हें बर्बाद कर दिया, उन्हें धोखा दिया गया। चेतन समर्थकों के बीच आकर रो दिए और पूरा माहौल बदल दिया। भाजपा के कई समर्थक भी चेतन को टिकट न मिलने से खुद को ठगा सा महसूस कर रहे है। दरअसल जुब्बल कोटखाई ऐसा उपचुनाव क्षेत्र है जहां चुनाव की घोषणा से पहले ही प्रचार प्रसार शुरू हो गया था। भाजपाई पिछले तीन महीनों से चेतन के साथ गांव -गांव घूम प्रचार प्रसार कर रहे थे परंतु टिकट बदल पार्टी ने उस पूरी मेहनत पर पानी फेर दिया। ये समर्थक पार्टी के वंशवाद के तर्क को भी सिरे से खारिज कर रहे है। इनका कहना है की चेतन पिछले 14 सालों से पार्टी के लिए काम कर रहे है। वे भाजपा आईटी सेल के अध्यक्ष भी है। उन्होंने पिछले कई सालों से पार्टी को मज़बूत करने का काम किया है। उन्हें टिकट देना वंशवाद नहीं कहला सकता। यहां नीलम सरैक पर भी तरह - तरह के आरोप लगाए जा रहे है। कुछ का कहना है की नीलम ने कांग्रेस के साथ मिलकर पार्टी को कमज़ोर करने का काम किया है तो कुछ उनपर पार्टी कार्यकर्ताओं को नज़रअंदाज़ करने का आरोप लगा रहे है। हाल फिलहाल चेतन ने मैदान में उतर कर यहां के समीकरण बदल दिए है। दो बार खिला कमल, दोनों बार बरागटा थे मैदान में जुब्बल-कोटखाई वो विधानसभा क्षेत्र है जहां कमल खिलाना भजपा के लिए कभी आसान नहीं रहा। इस विधानसभा क्षेत्र को कांग्रेस का गढ़ तो कहा ही जाता है मगर जुब्बल - कोटखाई को पूर्व मुख्यमंत्री स्व. ठाकुर रामलाल का गढ़ कहना भी गलत नहीं होगा। ठाकुर रामलाल कुल नौ मर्तबा जुब्बल कोटखाई से विधायक रहे है। उनके निधन के बाद दो बार इस विधानसभा क्षेत्र की कमान उनके पोते रोहित ठाकुर भी संभाल चुके है। अब तक भाजपा को यहां केवल दो ही बार जीत मिल पाई है। कांग्रेस के इस गढ़ में कमल खिलाने वाले नेता थे पूर्व विधायक नरेंद्र बरागटा। वर्ष 2003 में बरागटा ने इस विस क्षेत्र से पहली बार चुनाव लड़ा मगर वे जीत नहीं पाए। इसके बाद विपक्ष में रहते हुए वे पांच साल जुब्बल - कोटखाई की आवाज बने रहे। नतीजन 2007 में उन्हें जुब्बल - कोटखाई की जनता ने वोट रुपी आशीर्वाद दिया और पहली बार इस सीट पर भाजपा विजयी हुई। 2017 में भी इस विधानसभा क्षेत्र से नरेंद्र बरागटा ही जीते। 2003 से सत्ता के साथ जुब्बल-कोटखाई जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र की जनता 2003 से ही सत्ता के साथ चलती आ रही है। वर्तमान में भाजपा की सरकार है तो भाजपा के नरेंद्र बरागटा जीते, 2012 में कांग्रेस की सरकार में कांग्रेस के रोहित ठाकुर और उससे पहले 2007 में भाजपा की सरकार थी तो भाजपा के नरेंद्र बरागटा जीते थे। इसी तरह 2003 के चुनाव में रोहित ठाकुर को जनता का आशीर्वाद मिला। यहां वीरभद्र सिंह भी हारे है 1990 में वीरभद्र सिंह हैट्रिक लगाने के इरादे से मैदान में उतरे। उस चुनाव में वीरभद्र दो सीटों से लड़े, रोहड़ू और जुब्बल कोटखाई। रोहड़ू में तो वीरभद्र जीत गए लेकिन जुब्बल कोटखाई में करीब पंद्रह सौ वोट से हार गए। दिलचस्प बात ये है की वीरभद्र सिंह को हराने वाले थे वहीं ठाकुर रामलाल जिन्हें कुर्सी से हटाकर वीरभद्र सिंह पहली बार सीएम बने थे। दरअसल मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद ठाकुर रामलाल को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया था और प्रदेश की राजनीति से एक किस्म से वे दूर हो गए थे। धीरे -धीरे ठाकुर रामलाल और कांग्रेस के बीच भी खाई बनती गई और ठाकुर रामलाल जनता दल में शामिल हो गए। 1990 के विधानसभा चुनाव में ठाकुर रामलाल ने जनता दल से टिकट पर जुब्बल कोटखाई से चुनाव लड़ा और तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को परास्त करके अपनी पकड़ का लोहा मनवाया। दो मुख्यमंत्री देने वाल इकलौता क्षेत्र जुब्बल कोटखाई, हिमाचल प्रदेश का इकलौता ऐसा निर्वाचन क्षेत्र जिसने दो मुख्यमंत्री दिए है, ठाकुर रामलाल और वीरभद्र सिंह। नौ बार के विधायक और तीन बार मुख्यमंत्री रहे ठाकुर रामलाल की कर्मभूमि रहे जुब्बल कोटखाई की सियासत हमेशा से ही रोचक रही है। 1977 में ठाकुर रामलाल जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब वे इसी सीट से विधायक थे। फिर 1980 में जब शांता सरकार को गिराकर ठाकुर रामलाल दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तब भी वे इसी सीट से विधायक थे। 1982 में विधानसभा चुनाव हुए और कांग्रेस ने रिपीट किया और जुब्बल कोटखाई से विधायक ठाकुर रामलाल तीसरी बार मुख्यमंत्री बने। फिर 1983 में हिमाचल की सियासत में टिम्बर घोटाले के चलते बवाल मच गया। तब इसी बवाल में मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल की कुर्सी चली गई और वीरभद्र सिंह पहली बार सीएम बने थे। सियासत के जादूगर वीरभद्र सिंह ने जनता की नब्ज को भांपते हुए विधानसभा जल्दी भंग करवा दी और 1985 में ही विधानसभा चुनाव करवा दिए। दिलचस्प बात ये है कि 1985 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह ने अपना चुनाव क्षेत्र बनाया जुब्बल कोटखाई को। उसी जुब्बल कोटखाई क्षेत्र को ठाकुर रामलाल का गढ़ था। वीरभद्र सिंह जीत गए और दूसरी बार मुख्यमंत्री भी बन गए। यानी जुब्बल कोटखाई को दूसरा मुख्यमंत्री मिल गया।
अनुराग ठाकुर अर्की पहुंचे और गोविन्द राम शर्मा के तेवर ढीले पड़ गए। पार्टी से दशकों पुराना नाता भी याद आ गया और कमल के फूल के प्रति निष्ठा भी बगावत में आड़े आ गई। नामांकन के अंतिम दिन तक बना सस्पेंस खत्म हुआ और भाजपा संभावित बगावत साधने में कामयाब रही। किन आश्वासनों के भरोसे गोविन्द राम शर्मा चुनावी मैदान से हटे, ये पार्टी के अंदर की बात है लेकिन इतना तय है कि कम से कम बाहरी तौर पर तो भाजपा अब अर्की में सशक्त और संगठित दिख रही है। मोटे तौर पर अब भाजपा के रतन सिंह पाल और कांग्रेस के संजय अवस्थी के बीच टक्कर होनी है।उधर कांग्रेस की सियासत फिर दिलचस्प हो गई है। पिछले कई चुनावों की तरह इस बार फिर पार्टी में विद्रोह - भीतरघात की स्थिति है। नतीजन जो कांग्रेस कुछ दिन पहले मजबूत लग रही थी उसे डर जरूर होगा कि कहीं विद्रोह उसे मजबूर न बना दे। कारण साफ है, खुला विद्रोह भीतरघात से अधिक नुकसान करता है। चलिए मान भी लेते है कि भाजपा को भीतरघात का 'फ्लू' हो सकता है पर कांग्रेस को तो विद्रोह का 'डेंगू' होता दिख रहा है। ऐसे में अर्की का संग्राम रोचक होना तय है। अर्की निर्वाचन क्षेत्र की सियासत बेहद रोचक रही है। अतीत पर नजर डाले तो यहां कांग्रेस -भाजपा दोनों को बराबर प्यार मिलता रहा है। वर्ष 1980 में भाजपा की स्थापना हुई थी और उसके बाद से अब तक हुए 9 विधानसभा चुनाव हुए है। इनमें कांग्रेस पांच मर्तबा तो भाजपा ने चार मर्तबा बाजी मारी है। पहले करीब ढाई दशक तक अर्की की सियासत हीरा सिंह पाल और नगीन चंद्र पाल के बीच घूमती रही, तो 1993 में कांग्रेस नेता धर्मपाल ठाकुर के विधायक बनने के बाद अर्की वालों ने उन पर लगातार तीन बार भरोसा जताया। फिर कर्मचारी राजनीति से सियासत में कदम रखने वाले गोविंद राम शर्मा दो बार जीते। पर 2017 के विधानसभा चुनाव में खुद सूबे के मुख्यमंत्री ( तत्कालीन ) वीरभद्र सिंह ने अर्की से मैदान में उतरने का निर्णय लिया और अर्की के विधायक बने। अब उनके निधन के बाद उपचुनाव होने जा रहा है, पर असंतोष और अंदरूनी खींचतान की आग दोनों ही राजनीतिक दलों को झुलसा सकती है। अवस्थी को टिकट, ठाकुर नाराज वीरभद्र सिंह के निधन के बाद अर्की उपचुनाव जीतना कांग्रेस के लिए प्रतिष्ठा का सवाल होगा। बहरहाल, कांग्रेस ने फिर संजय अवस्थी को मैदान में उतारा है। जमीनी बात करें तो संजय अवस्थी शुरू से मजबूत दावेदार लग रहे थे। हालांकि राजेंद्र ठाकुर भी स्व. वीरभद्र सिंह से नजदीकी के बुते टिकट की दौड़ में रहें लेकिन अवस्थी के रहते पार्टी ने उन्हें मौका नहीं दिया। नाराज़ होकर राजेंद्र ठाकुर सहित ब्लॉक कांग्रेस अर्की के कई पदाधिकारियों ने इस्तीफा दे दिया। यानी पार्टी में बगावत की स्थिति है और ऐसे में संजय अवस्थी की राह भी आसान नहीं होगी। दूसरा पक्ष ये भी है कि राजेंद्र ठाकुर और उनके समर्थकों के इस्तीफे के बाद पार्टी संगठन में नई नियुक्तियां संजय अवस्थी के मन मुताबिक हो गई। एक किस्म से अवस्थी फ्री हैंड होकर अपने निर्णय लेंगे। 2007 में कांग्रेस को भारी पड़ी गलती वर्ष 1993, 1998 और 2003 में कांग्रेस के धर्मपाल ठाकुर लगातार तीन बार जीत दर्ज कर चुके थे। 2003 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी और धर्मपाल ठाकुर को विधानसभा उपाध्यक्ष बनाया गया था। वे पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के करीबी नेताओं में थे। अर्की क्षेत्र में भी उनकी अच्छी पकड़ थी। पर बावजूद इसके 2007 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से बड़ी चूक हो गई और धर्मपाल ठाकुर का टिकट काट दिया गया। कहते है वीरभद्र सिंह इसके पक्षधर नहीं थे, वे धर्मपाल ठाकुर को ही टिकट देने के हिमायती थे। पर कांग्रेस आलाकमान ने वीटो इस्तेमाल करते हुए प्रकाश चंद करड को टिकट थमा दिया। आखिरकार हुआ वही जिसका अंदेशा था, हवा - हवाई उम्मीदवार देने का खामियाजा कांग्रेस ने भुगता और पार्टी तीसरे स्थान पर रही। प्रकाश चंद बुरी तरह चुनाव हारे। वहीँ दूसरे स्थान पर रहने वाले थे धर्मपाल ठाकुर जो कांग्रेस से टिकट कटने के बाद बतौर निर्दलीय मैदान में थे। प्रकाश चंद को जहां करीब साढ़े सात हज़ार वोट ही मिले थे वहीँ धर्मपाल ठाकुर को निर्दलीय लड़ने के बावजूद करीब साढ़े चौदह हजार वोट मिले थे। जाहिर सी बात है कि कांग्रेस की इस अंदरूनी लड़ाई का फायदा तब भाजपा को मिला था। माहिर मानते है की अगर कांग्रेस ने धर्मपाल ठाकुर का टिकट नहीं काटा होता तो संभवतः कांग्रेस अर्की में जीत का चौका लगाती। 2012 में बगावत ने बिगाड़े अवस्थी के समीकरण 2012 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो कांग्रेस ने संजय अवस्थी को उम्मीदवार बनाया था। दरअसल 2008 में धर्मपाल ठाकुर का देहांत हो चूका था और 2007 का चुनाव लड़ चुके प्रकाश चंद भी तब तक खुद को स्थापित नहीं कर पाए थे। ऐसे में पार्टी को एक दमदार चेहरा चाहिए था और संजय अवस्थी पर पार्टी ने भरोसा जताया। पर अंदरूनी खींचतान और बगावत पार्टी को भारी पड़ी। दरअसल उस चुनाव में पार्टी के ही अमर चंद पाल बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे और 10 हजार से ज्यादा वोट लेकर कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया। नतीजन संजय अवस्थी करीब दो हजार वोट से चुनाव हार गए, पर तब से संजय अवस्थी ही स्थानीय कांग्रेस का मुख्य चेहरा बने हुए है। 2017 में वीरभद्र ने करवाई वापसी 2017 विधानसभा चुनाव से कई माह पहले से ही अर्की में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की विशेष मेहरबानी दिखने लगी थी। वीरभद्र सिंह के लगातार दौर और कई सौगातों ने संकेत दे दिए थे कि खुद वीरभद्र सिंह अर्की से मैदान में उतर सकते है। दरअसल वीरभद्र सिंह शिमला ग्रामीण की अपनी सीट से अपने पुत्र विक्रमादित्य सिंह को विधानसभा भेजना चाहते थे। हुआ भी ऐसा ही। उन्होंने विक्रमादित्य के लिए शिमला ग्रामीण सीट छोड़ दी और खुद अर्की से मैदान में उतर गए। जब खुद वीरभद्र सिंह मैदान में थे तो जाहिर सी बात है खुलकर कोई विरोध नहीं हुआ। जैसा अपेक्षित था वीरभद्र सिंह चुनाव जीत गए और दस साल बाद अर्की सीट वापस कांग्रेस के कब्जे में आ गई। पर उनके आने से संजय अवस्थी का इंतज़ार बढ़ गया। 2012 के बाद से ही संजय अवस्थी तैयारी में जुटे थे लेकिन तब उन्हें चुनाव लड़ने का मौका ही नहीं मिला। वर्ष विधायक पार्टी 1967: हीरा सिंह पाल निर्दलीय 1972: हीरा सिंह पाल लोक राज पार्टी 1977: नगीन चंद्र पाल जनता पार्टी 1982: नगीन चंद्र पाल भारतीय जनता पार्टी 1985: हीरा सिंह पाल कांग्रेस 1990: नगीन चंद्र पाल भारतीय जनता पार्टी 1993: धर्मपाल ठाकुर कांग्रेस 1998: धर्मपाल ठाकुर कांग्रेस 2003: धर्मपाल ठाकुर कांग्रेस 2007: गोविंद राम शर्मा भाजपा 2012: गोविंद राम शर्मा भाजपा 2017 : वीरभद्र सिंह कांग्रेस
छात्र राजनीति के जमाने से संजय अवस्थी कांग्रेस से जुड़े है। 2012 में कांग्रेस ने संजय अवस्थी को पहली बार टिकट दिया था लेकिन तब अवस्थी करीब दो हजार वोट से चुनाव हारे थे। कारण था कांग्रेस का भीतरघात। फिर 2017 में खुद वीरभद्र सिंह अर्की से मैदान में उतरे और संजय अवस्थी के अरमानों पर पानी फिर गया। खास बात ये है कि राजा गुट ने तब संजय अवस्थी पर पार्टी विरोधी या यूँ कहे वीरभद्र सिंह के विरोध में काम करने का आरोप लगाया था। अब वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उपचुनाव के लिए पार्टी ने फिर संजय अवस्थी को टिकट दिया है। यहां संजय अवस्थी के सामने 'करो या मरो' की स्थिति है। इस बार नतीजे प्रतिकूल रहे तो भविष्य में उनकी राजनीतिक राह आसान नहीं होने वाली। इसी तरह भाजपा ने 2017 में दो बार के विधायक गोविंद राम शर्मा का टिकट काट रतन सिंह पाल को दिया था। तब निसंदेह रत्न सिंह पाल ने वीरभद्र सिंह को जोरदार टक्कर दी थी। पर रतन पाल के खिलाफ पार्टी के भीतर से आवाज उठती रही है, बावजूद इसके पार्टी को रतन पाल पर भरोसा है और उपचुनाव में उन्हें ही टिकट दिया गया है। पर यहां रतन पाल यदि जीत नहीं दर्ज कर पाए तो 2022 में उनकी दावेदारी निसंदेह कमजोर होगी।
भाजपा की ओर से अर्की उपचुनाव के लिए डॉ राजीव बिंदल को प्रभारी नियुक्त किया गया है। डॉ बिंदल सोलन नगर निगम चुनाव में भी प्रभारी थे और नतीजे मनमाफिक नहीं आये थे। बावजूद इसके पार्टी ने फिर इन्हे ही जिम्मेदारी दी है। दिलचस्प बात ये है कि सोलन नगर निगम चुनाव की तर्ज पर इस बार भी सह प्रभारी डॉ राजीव सैजल को बनाया गया है जो जयराम सरकार में कैबिनेट मंत्री भी है। यानी एक किस्म हाशिये पर चल रहे डॉ राजीव बिंदल प्रभारी है और सरकार में दमदार मंत्री डॉ सैजल सहप्रभारी। खेर इसमें कोई संशय नहीं है कि डॉ राजीव बिंदल संगठन के भी डॉक्टर है और अपने लम्बे राजनीतिक सफर में उन्होंने कई मौकों पर अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया है। उनकी जमीनी पकड़ और पोलिटिकल मैनेजमेंट को लेकर कोई सवाल नहीं है। पर डॉ राजीव सैजल के समर्थक जरूर इस आस में थे कि उन्हें अर्की में फ्री हैंड काम करने का मौका मिलता। खेर फिलवक्त डॉ राजीव बिंदल ही अर्की के रण में कमांडर इन चीफ की भूमिका में है, ऐसे में जाहिर है जीत का श्रेय उन्हें मिले न मिले पर हार की स्थिति में ठीकरा उनके सिर ही फूटेगा। सियासी माहिर मानते है कि ये बड़ी अजब बात है कि डॉ राजीव बिंदल को न सरकार में ज़िम्मेदारी मिल रही है और न ही संगठन में कोई अहम पद, बस चुनाव लड़वाने का प्रभार मिलता जा रहा है। प्रभार भी ऐसे चुनाव लड़वाने का मिलता है जहां पार्टी की डगर कठिन होती है। पहले सोलन नगर निगम चुनाव का प्रभारी बनाया गया और अब अर्की उपचुनाव का। सोलन में भी अंदरूनी अंतर्कलह और खींचतान के चलते पहले से पार्टी बैकफुट पर थी और अर्की में भी यदि बगावत के सुर इसी तरह प्रखर रहे तो पार्टी की नाव पार लगाना आसान नहीं होगा। फर्क इतना है कि सोलन में पार्टी के दो गुटों में से एक गुट बिंदल के निष्ठावानों का ही है, जबकि अर्की की राजनीति में डॉक्टर साहब की सीधी दखल नहीं है। ऐसे में अर्की में शायद बिंदल सोलन से ज्यादा असरदार दिखे। यहां एक बात पर गौर करना भी जरूरी है, यदि सोलन नगर निगम भाजपा जीत भी जाती तो शायद क्रेडिट मुख्यमंत्री के तूफानी दौरों को मिलता, जहां उन्होंने वार्ड -वार्ड छान मारा था। वहीँ हार के बाद मुख्यमंत्री के जनाधार पर तो सवाल उठे ही, पर खुलकर ये भी कहा जाने लगा कि डॉ बिंदल का जादू अब फीका पड़ा चूका है। दरअसल बिंदल के बेहद करीबी माने जाने वाले नेता भी चुनाव हार गए थे। ऐसे में अर्की में 'बिंदल मैनेजमेंट' नहीं चली तो विरोधी स्वर बुलंद होंगे। कर्नल ने संभाला कांग्रेस से मोर्चा अर्की में कांग्रेस ने सोलन विधायक और पूर्व मंत्री डॉ कर्नल धनीराम शांडिल को प्रभारी बनाया है। कर्नल शांडिल का कमाल सोलन नगर निगम चुनाव में भी दिखा था, तब बेशक प्रभारी राजेंद्र राणा थे लेकिन चुनावी व्यूह रचना में कर्नल शांडिल का इम्पैक्ट खूब दिखा था। अब पार्टी ने शांडिल को अर्की का प्रभारी बनाया है।
2017 में रतन सिंह पाल का मुकाबला खुद वीरभद्र सिंह से था। माना जा रहा था वीरभद्र सिंह आसानी से चुनाव जीतेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उनकी जीत का अंतर करीब छ हजार वोट रहा जो उनके कद के लिहाज से कम था। वहीं वीरभद्र सिंह को टक्कर देने के बाद रतन सिंह पाल एक किस्म से हार कर भी जीत गए। प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी तो उन्हें हिमाचल प्रदेश कोआपरेटिव डेवलपमेंट फेडरेशन का चेयरमैन बनाया गया। संगठन में भी रतन पाल को प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष का दायित्व मिला। कुल मिलाकर रतन सिंह पाल अर्की भाजपा का प्राइम फेस बन गए और अब भी बने हुए है। निकाय चुनाव में खरे नहीं उतरे पाल इसी वर्ष हुए स्थानीय निकाय चुनाव के टिकट वितरण में रतन सिंह पाल की ही चली। पर जिला परिषद में पार्टी के कई दिग्गजों के टिकट काटने का खामियाजा भाजपा ने भुगता। अंत में इन्हीं दिग्गजों के सहारे जैसे तैसे जिला परिषद् पर भाजपा का कब्ज़ा तो हो गया लेकिन रतन सिंह पाल के खिलाफ खुलकर आवाज उठने लगी। वहीँ अर्की नगर पंचायत चुनाव में भी भाजपा को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। बीडीसी पर भी कांग्रेस का कब्ज़ा रहा। हालांकि ये चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं हुए थे। विरोधी एकजुट नहीं हुए तो रतन पाल की राह आसान इसमें कोई संशय नहीं है कि वर्तमान में अर्की भाजपा में गुटबाजी चरम पर है। पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा और उनके समर्थक खफा है। बेशक केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के प्रयास से गोविन्द राम शर्मा और उनके समर्थकों को मना लिया गया हो लेकिन उक्त गुट की नाराजगी पार्टी से ज्यादा रतन सिंह पाल से दिख रही है। ऐसे में इस में रतन पाल को उनका कितना समर्थन मिलता है ये देखना दिलचस्प होगा। दो बार कमल खिलाने वाले गोविन्द राम साइडलाइन 1993 से 2003 तक अर्की में लगातार तीन चुनाव हारने के बाद भाजपा बैकफुट पर थी। अर्की कांग्रेस का गढ़ बन चूका था और इसे ढहाना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती थी। पर जब कांग्रेस ने सीटिंग विधायक धर्मपाल ठाकुर का टिकट काटा तो भाजपा को वापसी की उम्मीद दिखी। 2007 के चुनाव में भाजपा ने कर्मचारी नेता रहे गोविन्द राम शर्मा को टिकट दिया था और गोविंद राम के चेहरे और कांग्रेस में हावी बगावत के बूते अर्की में भाजपा का वनवास खत्म हुआ। इसके बाद 2012 में चुनाव में भी पार्टी ने गोविन्द राम शर्मा को मैदान में उतारा और वे दूसरी बार चुनाव जीत गए। पर 2017 में भाजपा ने गोविन्द राम शर्मा का टिकट काट कर रतन सिंह पाल को मैदान में उतारा और भाजपा अर्की का चुनाव हार गई। हालांकि अर्की से खुद वीरभद्र सिंह मैदान में थे लेकिन भाजपा के टिकट वितरण को लेकर सवाल उठे। कहते है तब बगावत साधने को भाजपा ने गोविन्द राम शर्मा को आश्वस्त किया था कि सरकार बनने की स्तिथि में उन्हें कोई महत्वपूर्ण पद और ज़िम्मेदारी मिलेगी, पर ऐसा हुआ नहीं। गोविन्द राम शर्मा एक किस्म से साइडलाइन कर दिए गए। बहरहाल गोविन्द राम शर्मा की प्रत्यक्ष बगावत भले ही साध ली गई हो पर नाराज़गी कितनी दूर हुई है, नतीजों के बाद ये विश्लेषण का विषय होगा।