प्रधानमंत्री गतिशक्ति मिशन जैसे जुमलों की बरसात है केंद्रीय बजट! मनाेज कुमार । कांगड़ा आम आदमी पार्टी हिमाचल प्रदेश ने संसद में पेश किए गए केंद्रीय बजट पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उक्त बजट को बेशुमार आकर्षक अल्फाज में लिपटे जुमलों की बरसात करार दिया है। भाजपा नेताओं द्वारा परिभाषित" दूरदर्शी बजट" पर कटाक्ष करते हुए आम आदमी पार्टी ने कहा कि 25 वर्ष के छह आवरण में प्रस्तुत यह बजट हकीकत में साधारण व्यक्ति से कोसों दूर का है। आम आदमी पार्टी हिमाचल प्रदेश के प्रवक्ता कल्याण भंडारी ने कांगड़ा से जारी एक प्रैस विज्ञप्ति में कहा कि लगभग आठ वर्ष से केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार देश की आर्थिकी की दुर्गति करने के बाद अब "प्रधानमंत्री गतिशक्ति मिशन" के जुमले को अमृतकाल का डमरू बजा कर जनता का ध्यान भटकाने की ओर अग्रसर है। शब्दों और आंकड़ों की बाज़ीगरी वाला 2022-23 का बजट आम जनता के लिए हताशा और निराशा से भरा टोकरा मात्र बन गया है। पार्टी प्रवक्ता कल्याण भंडारी ने कहा कि 2022 में किसानों की आय दुगनी करने, युवाओं को करोड़ों नौकरियां देने इत्यादि जैसे वायदों के बारे में बजट में अपराधिक खामोशी बरती गई। मनरेगा योजना, इनकम टैक्स छूट व पेट्रोल- डीजल की कीमतों संबंधी मामलों का इस बजट में जिक्र तक नहीं आया, जिससे सरकार की ऐसे मसलों पर प्राथमिकता होने की जगह बेरुखी व उदासीनता उजागर होती है। लिहाजा भाजपा के केंद्रीय सत्ता प्रतिष्ठान ने साफ संकेत दे दिया है कि अमृतकाल में आम जनता से जुड़े मुद्दों वाले विष का कोई महत्व नहीं रह जाता। पार्टी प्रवक्ता ने बताया कि ऐसी स्थिति में पांच राज्यों के चुनावों में आम जनता अपने वोट की चोट से माकूल जवाब देने वाली है।
चमन शर्मा। आनी आनी विकास खंड निरमंड नेहरू युवा केंद्र कुल्लू युवा कार्यक्रम एवं खेल मंत्रालय भारत सरकार के सौजन्य से आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम का आयोजन पंचायत समिति सभागार निरमंड में आयोजित किया गया। इस मौके पर युवा मंडलों के पदाधिकारियों ने आत्मनिर्भर भारत के विषय में जानकारी प्राप्त की। कार्यक्रम का शुभारंभ मुख्यातिथि आनी विधानसभा क्षेत्र के विधायक किशोरी लाल सागर और विशेष अतिथि ब्लॉक चेयरमैन दलीप कुमार द्वारा किया गया। विधायक किशोरी लाल सागर ने युवाओं को संबोधित करते हुए कहा कि कोरोना महामारी की वजह से देश को कई समस्याओं का सामना करना पड़ा है। वर्तमान मे देश के आत्मनिर्भर भारत अभियान की शुरुआत के बाद ही हमें इसके परिणाम देखने को मिले हैं। देश मे कोरोना से लड़ने के लिए पीपीई किट, मास्क व सैनिटाइजर इत्यादि भारत मे बनने लगे और इतना ही नहीं वैश्विक महामारी को जड़ से मिटाने के लिए कोरोना का टीका भी भारत में ही पहली बार बनाया गया है। देश ने आत्मनिर्भरता की ओर अपना पहला कदम बढ़ा दिया है और हमें भी इसमें अपना योगदान देकर आत्मनिर्भर भारत के सपने को साकार करना होगा। हमें ज्यादा से ज्यादा स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने की आवश्यकता है, जिससे कि हम अपने देश को आत्मनिर्भर और अपने राष्ट्र को आगे बढ़ाने मे अपना योगदान कर सकें। इस कार्यक्रम में उपस्थित 22 युवा मंडल के पदाधिकारियों को युवा गतिविधियों और खेल सामग्री हेतु 2,20,000 की धनराशि स्वीकृत की गई, जो कि हर एक युवा मंडल को 10,000 रुपए की धनराशि प्रदान की जाएगी। इस कार्यक्रम में रिसोर्स पर्सन के रूप में डीएसपी आनी रविंद्र नेगी, एसएचओ निरमंड, एलएसईओ, सुरेंद्र कौर, कृषि विभाग से विद्या प्रकाश, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग टीडब्यू देवेंद्र कुमार, पूर्व राष्ट्रीय युवा स्वयंसेवी मुकेश मेहरा और ग्राम पंचायत सराहन प्रधान प्रेम ठाकुर उपस्थित रहे। सभी अधिकारियों ने अपने विभाग की विकासात्मक एवं जन कल्याणकारी योजनाओं के बारे में युवा मंडल के पदाधिकारियों को विस्तार पूर्वक बताया। और युवा पदाधिकारियों से आग्रह भी किया गया कि विभाग की योजनाओं को ग्रामीण क्षेत्र तक पहुंचाने में युवा मंडल अपनी अहम भूमिका निभाएं, ताकि पात्र व्यक्तियों को सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सके। इस अवसर पर कार्यक्रम आयोजक राष्ट्रीय युवा स्वयंसेवी कमलेश ठाकुर, राजेश कायथ, युवा मंडल अरसू, खनोटा, गागनी, गांवबील, जूणि, जझार, जगातखाना, टिकरू, ढलैर, दोहरानाला, धाराबाग, धारा-सरगा, तुनन, निरमंड, परंतला, बाहवा, बगना, बागीपुल, नेहरु युवा मंडल कैलाश नगर, भदराल, शलाट व सुनैर के पदाधिकारियों ने भाग लिया।
कांग्रेस नेता हरीश रावत ने शनिवार को देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की वर्तमान स्थिति के बारे में खुलकर बात ही। उन्होंने पार्टी का वर्णन करने के लिए एक क्रिकेट सादृश्य का इस्तेमाल करते हुए कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर इसका "फॉर्म डाउन" था लेकिन मुझे यकीन है कि पार्टी इसे फिर से हासिल कर लेगी। उन्होंने कहा कि कभी बल्लेबाज भी आउट ऑफ फॉर्म में चले जाते हैं। लेकिन उत्तराखंड में हमारी बेंच स्ट्रेंथ इन फॉर्म है। रावत ने कहा कि "अच्छी बात ये है कि लोग कांग्रेस की ओर एक बार फिर वापस आ रहे हैं। हर पार्टी के इतिहास में एक समय होता है। जैसे वे कभी-कभी कहते हैं कि एक बल्लेबाज फॉर्म से बाहर हो जाता है, वैसे ही अभी हमारी पार्टी का फॉर्म भी थोड़ा नीचे है लेकिन आउट नहीं है, हम देश को आश्वस्त करना चाहते हैं कि कांग्रेस इसे फिर से हासिल कर लेगी। " वहीं उत्तराखंड विधानसभा चुनाव पर बात करते हुए रावत ने कहा राज्य में होने वाले चुनाव के लिए हमारी पार्टी पूरी तरह से तैयार है।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश एक बार फिर प्रदेश में अपनी सरकार बनाना चाहते हैं। लेकिन उनके पार्टी के बागी विधायकों ने अखिलेश की मुश्किलें बढ़ा दी है। दरअसल टिकट नहीं मिलने से नाराज विधायकों ने अखिलेश और समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। कुल जमा ये कि समाजवादी पार्टी के घर में विद्रोह की वेदी सुलग उठी है। सपा के दो विधायक हाजी इकराम कुरैशी और दूसरी हाजी रिजवान, अखिलेश यादव से नाराज चल रहे हैं। दरअसल इन दोनों नेताओं में एक समानता है कि दोनों नेताओं का इस बार अखिलेश ने टिकट काट दिया है। हाजी इकराम कुरैशी की बात करें तो वह पिछले 28 साल से समाजवादी पार्टी के साथ है। एसपी सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। इकराम मुरादाबाद देहात के बड़े और कद्दावर नेता है। अखिलेश से उनकी नाराजगा की वजह इस बार उन्हें टिकट नहीं मिलना है। वहीं दूसरी तरफ मुरादाबाद देहात से हाजी नासिर कुरैशी को टिकट मिला है। नासिर का कहना है कि विधायक इकराम कुरैशी के आरोप बेबुनियाद हैं। वहीं दूसरे नाराज नेता हाजी रिजवान मुरादाबाद जिले के कुंदरकी विधानसभा के कद्दावर नेता है। वह उसी सीट से 3 बार विधायक रह चुके हैं, लेकिन इस बार उनका भी टिकट कट गया है। लिहाजा रिजवान ने समाजवादी पार्टी से इस्तीफा देकर एसपी प्रत्याशी के विरोध में चुनाव लड़ने का एलान किया है। बता दें कि अखिलेश ने हाजी रिजवान की जगह एसपी सांसद डॉ शफीकुर्रहमान बर्क़ के पोते जियाउर्रहमान बर्क़ को टिकट दिया है। मुरादाबाद जिले में विधानसभा की कुल 6 सीटें है। बिलारी, कुंदरकी, मुरादाबाद नगर, मुरादाबाद ग्रामीण, ठाकुरद्वारा और कांठ सीट। यहां दूसरे चरण यानी 14 फरवरी को वोट डाले जाएंगे। परिणाम 10 मार्च को आएंगे। ऐसे में देखना ये है कि इस बगावत से समाजवादी पार्टी को कितना नुकसान होगा ?
"तुझ को देखा तेरे वादे देखे, ऊँची दीवार के लम्बे साए"..ये कहना है प्रदेश के उन कर्मचारियों का जिनकी मांगें सचिवालय की फाइलों में दबी रह गई, या जिनकी मांगें मंत्री और मुख्यमंत्री के आश्वासनों में उलझी रह गई। अपने अंतिम साल में ये सरकार यूँ तो कई कर्मचारियों पर मेहरबान हुई मगर कुछ कर्मचारी और उनकी मांगें ऐसी रह गई जिन पर मुख्यमंत्री की या तो दृष्टि ही नहीं पड़ी या उन्हें सुलझा पाना अब तक सरकार के लिए सम्भव नहीं रहा। कर्मचारियों को शिकवा विपक्ष से भी है क्योंकि विपक्ष ने भी इनकी आवाज को पुरजोर तरीके से बुलंद नहीं किया। कहते है कि लंबित मांगें अक्सर मुद्दा बन जाया करती है। प्रदेश में भी ऐसी कई लंबित मांगें है जिनके पूरा होने का इंतजार कर्मचारियों को है और यदि ये मांगे पूरी नहीं हुई तो 2022 के विधानसभा चुनाव में ये बड़ा मुद्दा हो सकती है। हिमाचल में कर्मचारियों को भी एक बड़ा वोट बैंक माना जाता है, यहां कर्मचारी और राजनीति का पुराना नाता रहा है। कर्मचारी वोट बैंक सत्ता के लिए कितना महत्वपूर्ण है ये 1993 के विधानसभा चुनाव को याद कर भी समझा जा सकता है। इतिहास गवाह है कि कर्मचारियों को नाराज कर सरकार कभी सत्ता बरकरार नहीं रख पाई। प्रदेश के विभिन्न सरकारी विभागों में 2,00,000 से अधिक कर्मचारी कार्यरत्त हैं, 2 लाख कर्मचारी यानी 2 लाख परिवार। यह आंकड़ा हिमाचल प्रदेश में सत्ता का गुणा-भाग बदलने के लिए काफी है। जाहिर है कि ये बात सरकार बखूबी जानती है और इसीलिए इस अंतिम साल में कर्मचारियों की मांगें पूरी हो रही है। मगर कुछ मुद्दे अब भी ज्यूं के त्यूं पड़े हुए है। विपक्ष भी इन्हें भुनाने का प्रयास तो कर रहा है लेकिन कई मसलों पर खुलकर बोलने से बचता रहा है। ऐसे ही पांच लंबित मसलो पर पेश है फर्स्ट वर्डिक्ट की विशेष रिपोर्ट.... अपने अंतिम वर्ष में यदि जयराम सरकार कर्मचारियों की इन पांच मुख्य लंबित मांगो पर सकारात्मक निर्णय लेती है तो निसंदेह सत्तारूढ़ भाजपा को इसका लाभ मिल सकता है। वहीं बतौर विपक्ष कांग्रेस अब तक इन मुद्दों को भुनाने में पूरी तरह असरदार नहीं दिखी है। कांग्रेस को इन मुद्दों पर खुलकर अपना पक्ष रखने की जरूरत है। धूमल ने कहा था, आती हुई सरकार की बात मानो जाती हुई सरकार की बात मत सुनो आती हुई सरकार की मानो, ये शब्द थे पूर्व मुख्यमंत्री प्रो. प्रेम कुमार धूमल के l 2017 विधानसभा चुनाव के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री ने सुजानपुर में ये चुनावी वादा किया था l वादा था कि भाजपा के सत्ता में आते ही मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया जाएगा और अनुबंध कर्मचारियों को नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता प्रदान करने हेतु कार्य किया जाएगा l वादा चुनावी था इसलिए वादा ही रहा, हकीकत नहीं बन पाया। अलबत्ता प्रेम कुमार धूमल सत्ता के शीर्ष पर न हो, पर भाजपा को सत्ता में आए चार साल से अधिक हो गए है l जयराम राज में कई अनसुनी फरियादों में एक अनसुनी फ़रियाद है नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता की मांग। इसे लेकर वर्षों से चला आ रहा संघर्ष अब भी जारी है। जेसीसी की बैठक में नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता मांगने वाले कर्मचारियों को वरिष्ठता तो नहीं मिल पाई थी, पर इसके लिए कमेटी के गठन का आश्वासन जरूर मिला था। अब कर्मचारियों को कमेटी के गठन का इंतजार है। हिमाचल अनुबंध नियमित कर्मचारी संगठन जो पिछले कई सालों से ये मांग कर रहा है कि विभिन्न विभागों में भर्ती एवं पदोन्नति नियमों के अंतर्गत अनुबंध पर नियुक्त होने के बाद नियमित हुए कर्मचारियों को नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता प्रदान की जाए। इनका कहना है कि सरकार की दहलीज पर हम लगातार दस्तक दे रहे है, जूते घिस गए मगर मांग अब भी पूरी नहीं हुई। बस आश्वासन पर आश्वासन ही दिया जा रहा है। दरअसल ये मसला शुरू हुआ 2008 में, जब बैचवाइज और कमीशन आधार पर लोकसभा आयोग और अधीनस्थ कर्मचारी चयन आयोग द्वारा कर्मचारियों की नियुक्तियां अनुबंध के तौर पर की जाने लगी l पहले अनुबन्ध काल 8 साल का हुआ करता था जो बाद में कम होकर 6 फिर 5 और फिर 3 साल हो गया। ये अनुबन्ध काल पूरा करने के बाद यह कर्मचारी नियमित होते है। अनुबंध से नियमित होने के बाद इन कर्मचारियों की अनुबंध काल की सेवा को उनके कुल सेवा काल में नही जोड़ा जाता, जो संगठन के अनुसार सरासर गलत है। इनका कहना है कि अनुबंध काल अधिक होने से पुराने कर्मचारियों को वित्तीय नुकसान के साथ प्रमोशन भी समय पर नहीं मिल पाती अब मांग है कि उनको नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता प्रदान की जाए ताकि उन्हें समय रहते प्रमोशन का लाभ मिल सके। अनुबंध काल की सेवा का वरिष्ठता लाभ ना मिलने के कारण उनके जूनियर साथी सीनियर होते जा रहे हैं। अनुबंध नियमित कर्मचारी संगठन का कहना है कि कुछ अनुबंध कर्मचारी 8 वर्ष के बाद नियमित हुए, कुछ 6 वर्ष के बाद, कुछ 5 वर्ष के बाद और वर्तमान में 3 वर्ष के बाद नियमित हो रहे हैं और अब आने वाले समय में 2 वर्ष में कर्मचारी नियमित होंगे। ऐसे में ये नीति कर्मचारियों के मौलिक और समानता के अधिकार का हनन है। 70 हजार कर्मचारियों के सम्मान से जुड़ा मुद्दा हिमाचल अनुबंध नियमित कर्मचारी संगठन के प्रदेशाध्यक्ष मुनीष गर्ग और जिलाध्यक्ष सुनील पराशर का कहना है कि नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता ना मिलने से जूनियर कर्मचारी सीनियर होते जा रहे हैं। कर्मचारियों ने कहा कि उनका चयन भर्ती एवं पदोन्नति नियमों के अनुसार हुआ है इसलिए उनके अनुबंध की सेवा को उनके कुल सेवाकाल में जोड़ा जाना तर्कसंगत है। यह प्रदेश के 70 हजार कर्मचारियों के मान सम्मान से जुड़ा विषय है। सरकार जल्द इस मांग को पूरा करे। कंप्यूटर शिक्षकों के हिस्से आया सिर्फ आश्वासन चार उपचुनाव में सूपड़ा साफ होने के बाद प्रदेश की जयराम सरकार एक्शन मोड में कर्मचारियों की कई लंबित मांगो को पूरा करती दिखी है। एक के बाद एक कई एलानों ने निसंदेह कर्मचारी वर्ग की नाराजगी कम जरूर की है। पर एक वर्ग ऐसा है जिसे लगता है कि सरकार उन्हें अपना समझती ही नहीं है। ये शिकवा है प्रदेश के सरकारी स्कूलों में सेवाएं दे रहे 1421 कंप्यूटर शिक्षकों का। इनका प्रतिनिधित्व कर रहे कंप्यूटर शिक्षक संघ का कहना है कि सरकारी स्कूलों में तैनात कंप्यूटर शिक्षक खुद को ठगा सा महसूस कर रहे है। 20 सालों तक लगातार संघर्ष करने के बावजूद भी कंप्यूटर शिक्षकों की मांगें पूरी नहीं हो पाई है। पिछले करीब दो दशक से कम्प्यूटर अध्यापक राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक स्कूलों में शिक्षा देने का कार्य कर रहे हैं, लेकिन किसी भी सरकार ने कम्प्यूटर अध्यापकों के लिए नीति नहीं बनाई है। इस बीच कांग्रेस की सरकार भी आई लेकिन उन्होंने भी कुछ नहीं किया। इनके हिस्से में अब तक सिर्फ आश्वासन ही आया है। दरअसल 1998 में पूर्व भाजपा सरकार के सीएम प्रेम कुमार धूमल द्वारा शुरुआती दौर में सेल्फ फाइनेंसिंग प्रोजेक्ट के तहत 250 स्कूलों में कंप्यूटर टीचरों को तैनात किया गया था। उसके बाद 2001 में सरकार द्वारा 900 स्कूलों में आईटी शिक्षा आरंभ की गई और कंप्यूटर टीचरों को नाइलेट कंपनी के अधीन कर दिया गया था। वर्ष 2010 में कंप्यूटर टीचरों को आउटसोर्स नाम दिया गया। कंप्यूटर शिक्षक संघ का कहना है कि जो पैट, पीटीए व विद्या उपासक टीचर 2006 के बाद नियुक्त किए गए थे उन्हें सरकार ने नीति बनाकर रेगुलर कर दिया, परंतु कंप्यूटर टीचरों के बारे आजतक किसी भी सरकार ने नहीं सोचा। एक ओर सरकार आईटी शिक्षा को बढ़ावा देने पर जोर दे रही है वहीं कंप्यूटर टीचरों का बीते दो दशकों से शोषण हो रहा है। महंगाई के दौर में कम्प्यूटर टीचर मात्र 12870 रुपए मासिक वेतन पर कार्य कर रहे है। चालू वित्त वर्ष के बजट में केवल 500 रुपए बढ़ाए गए हैं। राज्य के सरकारी स्कूलों में 1354 कम्प्यूटर शिक्षक शिक्षा दे रहे हैं तथा समस्त शिक्षक आर एंड पी नियमों का अनुसरण करते हैं। इनमें से 90 प्रतिशत कम्प्यूटर शिक्षक 45 वर्ष की आयु पार कर चुके हैं। कंप्यूटर शिक्षक संघ के पदाधिकारियों का कहना है कि जब उक्त कम्प्यूटर शिक्षक नौकरी पर लगे थे तो उनका वेतन मात्र 2400 रुपए था और 20 सालों के बाद 13000 तक पहुंचा है। कम्प्यूटर शिक्षक इतने कम वेतन पर बच्चों की पढ़ाई के साथ परिवार का भरण पोषण भी नहीं कर पा रहे हैं तथा अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से मांग की कि कंप्यूटर शिक्षकों को शिक्षा विभाग में समायोजित किया जाए ताकि प्रदेश के कंप्यूटर शिक्षकों का भविष्य सुरक्षित हो सके। निजी कंपनी को बार -बार एक्सटेंशन साल 2001 में सरकारी स्कूलों में कंप्यूटर शिक्षा शुरू की गई थी और इसका जिम्मा कंपनी को सौंपा गया था। कंपनी की एक्सटेंशन को बार-बार बढ़ा दिया जाता है। कंप्यूटर शिक्षक संघ का कहना है कि आज दो दशक बीत जाने के बाद भी कंपनी की ओर से उनका शोषण ही किया जा रहा है। कंप्यूटर शिक्षक लगातार सरकार से नियमितीकरण की मांग करते आ रहे हैं लेकिन अभी तक मांग पूरी नहीं हो पाई है। जो हक की बात करेगा, 2022 में उसे ही समर्थन ये सिर्फ डेढ़ हजार शिक्षकों का नहीं अपितु डेढ़ हजार परिवारों से जुड़ा मुद्दा है। यदि वर्तमान सरकार इनकी मांगों को पूरा नहीं करती है तो 2022 के विधानसभा चुनाव में निसंदेह इनका साथ उसकी राजैनतिक दल को मिलेगा जो घोषणा पत्र में भी इनकी मांग को स्थान दे, साथ ही इनकी आवाज को उठाये भी। पर विडम्बना का विषय ये है कि फिलवक्त कोई राजनैतिक दल या नेता दमदार तरीके से इनके मसले को नहीं उठा रहा, बस खानापूर्ति की जा रही है। आउटसोर्स कर्मचारी: समीकरण बदलने के लिए काफी है इनकी तादाद बड़े कर्मचारी मुद्दों की फेहरिस्त में एक बड़ा मसला प्रदेश के आउटसोर्स कर्मचारियों से जुड़ा है। हिमाचल के आउटसोर्स कर्मचारियों की समस्याएं पिछले 18 सालों से बढ़ रही है। पिछले 18 सालों से आउटसोर्स कर्मचारी हिमाचल के विभिन्न विभागों में अपनी सेवाएं दे रहे है मगर उनकी स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। आउटसोर्स कर्मचारी निरंतर अपनी मांगों को लेकर आवाज उठा रहे है मगर सरकार सिर्फ आश्वासन दे रही है। आउटसोर्स कर्मचारियों के मसले हल करने के लिए प्रदेश सरकार द्वारा एक कमेटी का गठन किया है जिसकी अध्यक्षता जल शक्ति मंत्री महेन्दर सिंह ठाकुर कर रहे है। मंत्री के दरबार में आउटसोर्स कर्मचारियों की पेशियाँ लगातार लग रही है। कभी विभिन्न विभागों में कार्यरत आउटसोर्स कर्मचारियों के आंकड़े तलब किये जाते है तो कभी कर्मचारियों को विभागों में ही मर्ज करने का दिलासा दिया जाता है। ये बदस्तूर जारी है मगर ज़मीनी स्तर पर कमेटी के गठन के अलावा और कुछ भी बड़ा नहीं हुआ है। आउटसोर्स कर्मचारी हिमाचल महासंघ प्रदेश सरकार से लगातार स्थायी नीति बनाने, समयावधि पूर्ण होने पर नियमित करने व समान वेतनमान की मांग कर रहा है। संघ के अध्यक्ष शैलेन्द्र शर्मा का कहना है कि आउटसोर्स कर्मचारी कई वर्षों से लगातार अपनी सेवाएं दे रहे हैं परंतु सरकार अभी तक आउटसोर्स कर्मचारियों के लिए कोई स्थाई नीति नहीं बना पाई है, जबकि इनका मासिक वेतन भी बहुत कम हैं। अध्यक्ष शैलेन्द्र शर्मा का कहना है कि आउटसोर्स कर्मचारियों को मलाल तो इस बात का है कि जब भाजपा विपक्ष में थी तो बतौर विधायक खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इस मुद्दे को जोर - शोर से उठाया मगर आज सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के बाद इसकी सुध नहीं ली गई। वहीं विपक्ष में रहकर इनकी बात करने वाली कांग्रेस ने भी सत्ता में रहते इनके लिए कुछ नहीं किया। हिमाचल प्रदेश के विभिन्न विभागों, बोर्डो और निगमों में आउटसोर्स आधार पर नियुक्त करीब 25 हजार कर्मचारियों के लिए नीति निर्धारण का काम शुरू जरूर है। जल शक्ति मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर को आउटसोर्स कर्मचारियों के लिए नीति बनाने की कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। कमेटी में शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज और ऊर्जा मंत्री सुखराम चौधरी भी बतौर सदस्य शामिल किए गए हैं। कमेटी का गठन करके सरकार ने इन कर्मचारियों को उम्मीद दी जरूर है ,मगर मांग पूरी होती है या नहीं इसपर सबकी निगाहें है। बता दें कि आउटसोर्स कर्मचारी हिमाचल महासंघ ही वो संगठन है जिसने उपचुनाव के दौरान नो वोट फॉर बीजेपी अभियान छेड़ा था। हालाँकि बाद में इन्हें आश्वासन देकर मना लिया गया था। ऐसे में 2022 विधानसभा चुनाव से पूर्व यदि भाजपा शासित सरकार इनके लिए कुछ नहीं करती तो इनकी नाराजगी सरकार को भारी पड़ सकती है। कमीशन काटकर वेतन देते हैं ठेकेदार आउटसोर्स कर्मचारी वो कर्मचारी हैं जिनको सरकारी विभागों में कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर रखा जाता है। मतलब ये सरकारी विभाग में तो हैं पर सरकारी नौकरी में नहीं हैं। इनकी नियुक्तियां या तो ठेकेदारों के माध्यम से की जाती है या किसी निजी कंपनी के माध्यम से। रूट जो भी है इन कर्मचारियों का शोषण होना तो तय है। ये कर्मचारी काम तो सरकार का करते है मगर इन्हें वेतन ठेकेदार या कंपनी द्वारा मिलता है। न तो इन्हें सरकारी कर्मचारी होने का कोई लाभ प्राप्त होता है न ही एक स्थिर नौकरी। इन्हें जब चाहे नौकरी से निकाला जा सकता है। सरकार द्वारा वेतन तो दिया जाता है मगर ठेकेदार की कमिशन के बाद इन तक तक पहुंच पाता है। कर्मचारियों को चाहिए 15 फीसदी वेतन वृद्धि वाला विकल्प हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा हाल ही में छठे वेतनमान की अधिसूचना जारी की गई है। कर्मचारियों का कहना है की 6 वर्ष से देय वेतनमान की रिपोर्ट के सरकार द्वारा जारी पे रूल्स और पे मैट्रिक्स उनके लिए राहत नहीं बल्कि परेशानियां लेकर आए है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने करीब दो लाख नियमित कर्मचारियों के लिए नए संशोधित वेतनमान की अधिसूचना जारी की है, पर कर्मचारियों को इसमें कई विसंगतिया नजर आ रही है। अपने-अपने स्तर पर कई कर्मचारी संगठन इस मसले को उजागर कर रहे है। कुछ संगठन एकजुट हो गए है तो कुछ अकेले ही ये लड़ाई लड़ रहे है। इस वेतनमान में कर्मचारियों को अपना संशोधित वेतनमान लेने के लिए दो विकल्प दिए गए हैं। अगर वे वर्ष 2009 के नियमों को चुनते हैं तो उन्हें 31 दिसंबर, 2015 की बेसिक पे को 2.59 के फैक्टर से गुणा करना होगा। अगर वर्ष 2012 को चुनते हैं तो 2.25 फैक्टर को अपनाना होगा। अगर कोई अधिकारी/कर्मचारी 2009 के नियमों को आधार बनाकर लाभ लेना चाहता है और उसने 2012 के वेतन संशोधन का लाभ नहीं लिया है तो 31 दिसंबर 2015 को उसकी बेसिक पे पर फैक्टर 2.59 लगेगा। इसमें भत्ते और अन्य लाभ अलग से शामिल होंगे। वहीं अगर कोई कर्मचारी वर्ष 2012 के पुनः संशोधन को आधार बनाकर नए वेतनमान का लाभ लेना चाह रहा है तो उसके लिए दो विधियां लगाई जाएगी। पहली विधि के अनुसार 31 दिसंबर 2015 को लिए वेतन को आधार बनाएंगे तो बेसिक वेतन में फैक्टर 2.25 लगाया जाएगा। या फिर दूसरी विधि के अनुसार 31 दिसंबर 2015 की नोशनल पे को आधार बनाया जाएगा। ये विकल्प कर्मचारियों को दिए जरूर गए है लेकिन प्रदेश के कर्मचारियों को पंजाब की तर्ज पर सीधे 15 फीसदी वेतन वृद्धि वाला तीसरा विकल्प नहीं दिया गया है। प्रदेश के कर्मचारी लगातार ये मांग कर रहे थे कि उन्हें वेतन वृद्धि का ये तीसरा विकल्प भी दिया जाए परन्तु ऐसा नहीं हुआ। राज्य के सरकारी कर्मचारियों की नाराजगी का एक बड़ा कारण 4-9-14 जैसी एश्योर्ड कैरियर प्रोग्रेशन स्कीम का लाभ खत्म होना भी है। तीन जनवरी, 2022 से 4-9-14 के लाभ कर्मचारियों को मिलना बंद हो गए है। 6 सालों के इंतजार के बाद मिले इस नए वेतनमान में कर्मचारियों को कई विसंगतियां नजर आ रही है। सरकारी कर्मचारी जिस तरह से छठे वेतनमान से वित्तीय लाभ प्राप्त होने की गणना कर रहे थे, शायद उस तरह के वित्तीय लाभ उन्हें मिलते नहीं दिख रहे। ये ही कारण है कि हिमाचल का कर्मचारी इस छठे वेतन आयोग की सिफारिशों से पूर्ण संतुष्ट नजर नहीं आ रहा। कर्मचारियों का कहना है कि 6 वर्ष तक कर्मचारियों की बकाया राशी का जो ब्याज सरकार ने कमाया, ये लाभ उसके भी बराबर नही लग रहा। विपक्ष भी भुना रहा ये मुद्दा इस मुद्दे को कर्मचारी ही नहीं बल्कि विपक्ष भी खूब भुना रहा है। छठे वेतनमान को लेकर माकपा विधायक राकेश सिंघा ने सरकार पर कर्मचारियों को बांटने के आरोप लगाए हैं। सिंघा ने कहा है कि सरकार ने वेतनमान को एक समान लागू नहीं किया है। सरकार ने दो कैटेगिरी बनाकर निचले तबके के कर्मचारियों के साथ अन्याय किया है। जबकि निचले तबके के कर्मचारी ही हिमाचल प्रदेश की रीढ़ है। सरकार ने पहले ही पंजाब के समान वेतनमान लागू नहीं किया है। उनका कहना है कि सरकार ने 4-9-14 का फॉर्मूला खत्म करके कर्मचारियों से अन्याय किया है। वहीं कांग्रेस ने भी इसे छलावा करार दिया है। बहरहाल 2022 के विधानसभा चुनाव में ये फैक्टर क्या रंग लाता है, ये देखना रोचक होगा। हिमाचल पुलिस कांस्टेबल का प्रोबेशन पीरियड अब भी 8 वर्ष प्रदेश पुलिस जवानों के पे बैंड का मसला अब तक नहीं सुलझ पाया है। जवानों का मानना है कि सरकार उनके साथ पराया व्यवहार कर रही है। जहां सभी विभागों का अनुबंध कार्यकाल 3 वर्ष से घटाकर 2 वर्ष किया गया, वहीं पुलिस कांस्टेबल का प्रोबेशन पीरियड अब भी 8 वर्ष ही रखा गया है। पुलिस कर्मचारियों ने सरकार से सवाल किये है कि आखिर प्रदेश के इन रक्षकों के साथ सौतेला व्यवहार क्यों ? प्रदेश सरकार की इस अनदेखी से पुलिस जवान व उनके परिवार काफी खफा है। एक तरफ सभी विभागों को सौगातें दी गयी वहीं दूसरी तरफ पुलिस को अनदेखा किया गया। पुलिस कर्मियों का कहना है कि कोविड के समय यही जवान सड़कों पर खड़े थे और अब भी दिन -रात ड्यूटी पर तैनात है। किसी भी प्रकार की इमरजेंसी में पुलिस को ही सबसे पहले याद किया जाता है फिर सरकार क्यों इनको भूल जाती है ? रोष के चलते बीते दिनों पुलिस कॉन्स्टेबल्स ने अपनी मेस बंद रखने का ऐलान भी किया। हिमाचल प्रदेश में पुलिस कर्मी शायद ही इससे पहले कभी इस तरह मुखर हुए हो। दरअसल साल 2015 में सरकार द्वारा पुलिस कांस्टेबल का प्रोबेशन पीरियड 2 साल से बढ़ा कर 8 साल कर दिया गया था। इन कर्मचारियों ने अपनी मांगें कई बार सरकार के सामने रखने की कोशिश की मगर अब तक इनकी मांग को अमलीजामा नहीं पहनाया गया। अब पे बैंड के अलावा राशन भत्ते का भी मामला उठाया गया है। इसे राशन मनी कहा जाता है। यह प्रतिमाह केवल 210 रुपये ही प्रदान किया जा रहा है। हजारों पुलिस कॉन्स्टेबल्स और उनके परिवारों की नाराजगी सरकार को भारी पड़ सकती है। मान लंबित रही तो बनेगा चुनावी मुद्दा पुलिस कॉन्स्टेबल्स के प्रोबेशन पीरियड कम करने की मांग को विपक्ष का भी साथ मिला है। हालांकि सत्ता में रहते कांग्रेस ने भी कभी इनकी सुध नहीं ली, पर अब सियासत जमकर हो रही है। बहरहाल वर्तमान सरकार यदि इस मांग को पूरा नहीं करती है तो इस मुद्दे को चुनावी रंग दिए जाना तय है। हजारों पुलिस कर्मी और उनके परिवार किसी भी राजनैतिक दल के समीकरण बना-बिगाड़ सकते है।
" बस्ती में तुम ख़ूब सियासत करते हो, बस्ती की आवाज़ उठाओ तो जानें " फ़ैज़ जौनपूरी का ये शेर व्यापक तौर पर सियासत की असल तस्वीर है। पहले वादे करना और फिर उन वादों को तोड़ देना, ये पुरानी सियासी रवायत है। ऐसे कई नेता है जिन्हें कुर्सी मिलने के बाद अपने क्षेत्र की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं होता। वो कहते है न हमारे देश में चुनाव दो चरणों में होते है, पहले नेता जनता के चरणों में होते है और फिर पांच साल जनता नेताओं के चरणों में। पर लोकतंत्र की खूबसूरती ये ही है कि पांच साल में ही सही नेताओं को जनता दरबार में हाजिरी भी भरनी पड़ती है और पांच साल का हिसाब भी देना पड़ता है। 2022 की शुरुआत हो चुकी है और इस वर्ष के अंत में हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने है। नेताओं का रिपोर्ट कार्ड बनेगा भी और जनता दरबार में पेश भी होगा। कोई आरोप लगाएगा तो कोई सफाई पेश करेगा। कोई उपलब्धियां गिनायेगा तो कोई कमियां उजागर करेगा। पुराने मुद्दे भी कब्र से बाहर निकलेंगे और नेताओं को नए सियासी वचन भी देने होंगे। बहरहाल, हिमाचल प्रदेश में कई ऐसे बड़े मुद्दे है जो आगामी विधानसभा चुनाव में जनमानस के जहन में होंगे। इनमें कई प्रदेश स्तरीय मुद्दे है, कई संसदीय क्षेत्रों के तो कई ज़िलों और विधानसभा क्षेत्रों के लिहाज से महत्वपूर्ण है। ऐसे ही कुछ मुद्दों को फर्स्ट वर्डिक्ट ने टटोला जो अगली सरकार चुनते वक्त प्रदेश के मतदाता के लिए महत्वपूर्ण हो सकते है। यहाँ न सिर्फ ये महत्वपूर्ण होगा कि वर्तमान सरकार ने इस संदर्भ में क्या किया बल्कि विपक्ष का रवैया भी अहम होने वाला है। इनमें से कई मुद्दे दशकों पुराने है, सो मतदाता के जहन में ये भी रहेगा कि जो विपक्ष आज हल्ला मचा रहा है, सत्ता में रहते वक्त उसका क्या रुख था। पेश है ऐसे ही कुछ चुनिंदा मुद्दों पर फर्स्ट वर्डिक्ट का विशेष संस्करण सियासी अतीत 1985 में हुआ था रिपीट हिमाचल प्रदेश में हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन का सियासी रिवाज है। अंतिम बार वर्ष 1985 में वीरभद्र सिंह मिशन रिपीट में कामयाब हुए थे, उसके बाद कोई सरकार रिपीट नहीं कर पाई। इसी सत्ता परिवर्तन थ्योरी से कांग्रेस उत्साहित है, तो वहीं जयराम ठाकुर इतिहास रचने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। 1990 में सीटिंग सीएम हारे वीरभद्र सिंह हिमाचल प्रदेश की सियासत के सबसे कद्दावर नेता माने जाते है। वीरभद्र सिंह 6 बार मुख्यमंत्री रहे पर एक मौका ऐसा भी आया जब सीएम रहते हुए भी वे चुनाव हार गए। 1990 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह जुब्बल कोटखाई से चुनाव हार गए और उन्हें हराने वाले थे पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल। हालांकि वीरभद्र सिंह रोहड़ू से भी चुनाव लड़े थे जहां से उन्हें जीत मिली। 1993 में चली कर्मचारी लहर 1990 में शांता कुमार प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आये थे पर इन दो साल में शांता सरकार के खिलाफ कर्मचारी वर्ग सड़कों पर था। शांता सरकार की "नो वर्क नो पे" की नीति ने उनकी सरकार की विदाई का सारा बंदोबस्त कर दिया था। ताबूत में आखिरी कील साबित हुई 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद बीजेपी शासित राज्य सरकारों की बर्खास्ती। 1993 में राज्य में चुनाव हुए, और भाजपा को शिकस्त मिली। इस चुनाव में शांता अपनी सीट भी नहीं बचा पाए। 1998 में किंगमेकर बने पंडित सुखराम 1998 के विधानसभा चुनाव में पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस ने वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट के अरमान पर पानी फेर दिया था। पंडित सुखराम के पांच विधायक जीतकर आये थे जिनके समर्थन से प्रो. प्रेम कुमार धूमल मुख्यमंत्री बने और पांच साल सरकार चलाई। ये इकलौता मौका था जब इस तरह कोई तीसरा दल हिमाचल में किंगमेकर बना हो। 2003 में सीएम नहीं बन पाई मैडम स्टोक्स 2003 में कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई और मुख्यमंत्री पद के लिए कांग्रेस की तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष विद्या स्टोक्स ने वीरभद्र सिंह को चुनौती दे दी। वीरभद्र सिंह के विरोधियों का साथ भी तब मैडम स्टोक्स को मिलता दिखा। बताया जाता है कि तब मैडम स्टोक्स दिल्ली पहुँच चुकी थी पर वीरभद्र सिंह ने शिमला में अपना तिलिस्म साबित कर दिया। वीरभद्र सिंह ने मीडिया के सामने अपने 22 विधायकों की परेड करा कर अपनी ताकत का अहसास आलाकमान को करवा दिया। 2007 में प्रदेश की सत्ता में फिर भाजपा 2007 में प्रदेश की सत्ता में फिर भाजपा की वापसी हुई और प्रो प्रेम कुमार धूमल दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। तब प्रदेश भाजपा में शांता गुट भी मजबूत हुआ करता था और भाजपा की अंदरूनी खींचतान चरम पर थी। किन्तु प्रो. धूमल ही पार्टी आलाकमान का विश्वास जीतने में कामयाब हुए। इस चुनाव में भी सत्तारूढ़ कांग्रेस के कई मंत्रियों की हार हुई थी। वीरभद्र बोले, 'मैं ढोलक बजाऊंगा और सेना नृत्य करेगी' साल 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले वीरभद्र सिंह केंद्र की सियासत छोड़ वापस हिमाचल लौट आए थे। आलाकमान वीरभद्र के हाथ कांग्रेस की कमान सौंपने के लिए राज़ी नहीं था। पिछले कई साल से प्रदेश में कांग्रेस की जड़ें मज़बूत कर रहे कौल सिंह ठाकुर और आलाकमान के करीबी सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। मगर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर वीरभद्र ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी, 'मैं ढोलक बजाऊंगा और सेना नृत्य करेगी। 'आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और वे छठी बार सीएम बने। भाजपा को तो जीता दिया पर धूमल हार गये 18 दिसंबर 2017 को हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आये और भाजपा की सरकार बनी। पर पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के सीएम उम्मीदवार प्रो. प्रेम कुमार धूमल 1911 वोटों से परास्त हो गए। कहते है इस चुनाव में भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं थी, इसी के चलते 30 अक्टूबर को राजागढ़ की रैली में अमित शाह ने धूमल को सीएम फेस घोषित किया। धूमल ने भाजपा को तो जीता दिया लेकिन जनता ने धूमल को ही हरा दिया। इस चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के पांच मंत्री हारे थे।
देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा के संयुक्त तत्वाधान में चल रही सवर्ण आंदोलन जैसा ही एक आंदोलन 2018 के विधानसभा चुनाव से पूर्व मध्य प्रदेश में भी देखने को मिला था। हालांकि दोनों में पूरी तरह समानता नहीं है, दोनों प्रदेशों के सियासी समीकरण भी अलग है, फिर भी जो कुछ हिमाचल में चल रहा है उसे बेहतर तरीके से समझने के लिए मध्य प्रदेश में सवर्ण समाज के आंदोलन पर नज़र डालना बेहद जरूरी है। कुछ लोग मानते है कि हिमाचल में चल रहा आंदोलन मध्य प्रदेश के आंदोलन से प्रेरित है। खासतौर से उपचुनाव में जिस तरह नोटा को लेकर मुहिम छेड़ी गई थी उसके बाद से ही जानकार इस आंदोलन को हल्का लेने की भूल नहीं कर रहे। बेशक सवर्ण आयोग गठन का सरकार ने ऐलान कर दिया हो लेकिन लगता है कि सियासी पिक्चर अभी बाकी है। वर्ष 2018 में एससी/एसटी संशोधन विधेयक संसद से पारित हुआ और सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश निरस्त कर दिया गया जहां इस कानून के तहत बिना जांच गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई थी। देशभर में सवर्ण समाज में इसे लेकर रोष था, पर इसका ज्यादा प्रभाव दिखा मध्य प्रदेश में। दिसंबर 2018 में ही मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव भी होने थे सो जाहिर है चुनावी बेला में असर भी ज्यादा दिखा। सामान्य पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग अधिकारी कर्मचारी संस्था (सपाक्स) के बैनर तले मध्य प्रदेश में तब शिवराज सरकार को विरोध का सामना करना पड़ा था। दिलचस्प बात ये है कि तब सपाक्स इस मुद्दे को आधार बनाकर चुनाव मैदान में भी उतरी, हालाँकि जनता ने उसे पूरी तरह नकार दिया। माहिर मानते है कि चुनावी साल में हिमाचल में भी सवर्ण समाज के नाम पर सियासत होना तय है। पर बड़ा सवाल ये है कि क्या देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा चुनावी रण में दिखेंगे या ये नोटा की मुहिम के साथ ही प्रेशर पॉलिटिक्स बरकरार रखने का प्रयास करेंगे। देवभूमि क्षत्रिय संगठन के अध्यक्ष रुमीत सिंह ठाकुर का कहना है कि दोनों राजनैतिक दलों ने बीते कई दशकों से प्रदेश के हितों पर कुठारघात किया है। वो ये भी कहते है कि आने वाले समय में बागवानों के मुद्दों को भी उठाया जायेगा। साथ ही ये कहने से भी गुरेज नहीं करते कि यदि भाजपा -कांग्रेस ने उनकी नहीं सुनी तो जरुरत पड़ने पर तीसरे राजनैतिक विकल्प का रास्ता भी खुला है। नोटा को बनाया जा सकता है हथियार 2018 के विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश की 22 सीटों पर जीत के अंतर से ज्यादा नोटा दबाया गया था और इनमें से अधिकांश भाजपा हारी थी। सवर्ण समाज का वोट भाजपा के साथ माना जाता है और यदि ये नोटा सवर्ण समाज का था तो निसंदेह इसमें भाजपा का ही घाटा रहा। हिमाचल प्रदेश में बीते दिनों हुए उपचुनाव में जिस तरह नोटा को लेकर अभियान चलाया गया उसके पीछे मध्य प्रदेश की इस केस स्टडी को आधार माना जाता है। संभवतः आगामी विधानसभा चुनाव में भी नोटा के इस्तेमाल को ही हथियार बनाया जा सकता है।
पंजाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के दौरान सुरक्षा में हुई चूक ने हिमाचल कांग्रेस के अंतर्कलह को भी उजागर किया है। शिमला ग्रामीण के कांग्रेसी विधायक विक्रमादित्य सिंह द्वारा फेसबुक पर डाली गई पोस्ट के खिलाफ ऊना सदर के कांग्रेसी विधायक सतपाल सिंह रायजादा ने उन्हें जमकर आड़े हाथों लिया। विधायक रायजादा ने जहां फेसबुक पर विक्रमादित्य की पोस्ट के स्क्रीनशॉट शेयर कर टिप्पणी की, वहीं रायजादा बिना विक्रमादित्य का नाम लिए अपनी ही पार्टी के खिलाफ बोलने वाले कांग्रेस नेताओं को ऐसा न करने की नसीहत दी है। फेसबुक पर पोस्ट में रायजादा ने कहा कि यदि विक्रमादित्य सिंह केंद्र की तानाशाह भाजपा सरकार के खिलाफ चल रही लड़ाई में कांग्रेस कार्यकर्ताओं का साथ नहीं दे सकते तो कम से कम उन्हें चुप रह लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि किसान आंदोलन के दौरान 800 किसान मारे गए तब विधायक विक्रमादित्य सिंह को गलत और सही में फर्क क्यों नहीं नजर आया। रायजादा ने कहा कि पंजाब में भाजपा द्वारा रची गई इस राजनीतिक साजिश के लिए भाजपा के कार्यकर्ता कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी को जिम्मेदार बता रहे हैं, दूसरी तरफ कांग्रेस के ही नेता सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपनी ही पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और सरकार के खिलाफ इस तरह की पोस्ट डाल कर जनता और अपने ही कार्यकर्ताओं को क्या संदेश देना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि पंजाब में जो कुछ हुआ उसकी जांच होनी चाहिए उन्होंने कहा कि घटना के लिए पंजाब पुलिस जिम्मेदार है तो प्रधानमंत्री की सुरक्षा देखने वाला गृह मंत्रालय भी इसके लिए बराबर जिम्मेदार है।
हिमाचल की राजनीति में इन दिनों काफी गर्माहट है और आरोप-प्रत्यारोप की गति भी तेज़ हो रही है। शाहपुर की बात करें तो कांग्रेसी नेता इन दिनों लगातार वर्तमान विधायक की कार्यशैली पर सवाल उठा रहे है। बीते दिनों प्रदेश कांग्रेस महासचिव केवल सिंह पठानिया ने शाहपुर की विधायक एवं सामाजिक एवं न्याय अधिकारिता मंत्री सरवीण चौधरी पर शाहपुर की जनता का अनदेखी का आरोप लगाया है। पठानिया ने कहा कि चार सालों में कोई भी नई परियोजना मंत्री नहीं ला सकी है। कांग्रेस काल में शाहपुर में जो विकास कार्य हुए थे उसके बाद यहाँ कोई नया कार्य नहीं किया गया और ऐसा प्रतीत होता है मानों शाहपुर की जनता से विधायक को कोई लेना देना नहीं है। वे मंत्री है, ऐसे में जनता को उनसे उम्मीदें रही है कि वे विकास के कार्य करवा कर शाहपुर ही तस्वीर बदल दे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। शाहपुर की जनता अब समझ चुकी है कि बीजेपी पार्टी केवल झूठ की राजनीति करती है। पठानिया ने कहा कि विकास कार्यों को लेकर मंत्री श्वेत पत्र जारी करें। चंगर क्षेत्र में आज भी जनता पानी को तरस रही है। पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय राजा वीरभद्र सिंह ने छह करोड़ की सूखा हार की पानी की स्कीम दी, अगर समय रहते इसका काम पूरा हो जाए तो आज चंगर क्षेत्र वासियों को अपनी की क़िल्लत नही होती। शाहपुर क्षेत्र में तीन चार और भी पानी की स्कीमों की स्वीकृति, सड़कों के लिए पैसा, लंज कॉलेज के लिए करोड़ो रुपये की स्वीकृति, शाहपुर के एसडीएम कार्यालय के भवन की स्वीकृति कांग्रेस सरकार ने की थी। कलरू का पुल, मोबा का पुल की सरकार ने कोई सुध नही ली। मेटी, घेरा करेरी सड़क की दशा बहुत ही खराब हो चुकी है। धारकंडी की सड़कों की हालत किसी से छुपी नहीं है। उन्होंने कहा कि जनता के लिए बरनेट, घेरा सड़क का काम जिलाधीश के निर्देश से करवाया जा रहा था लेकिन स्थानीय विधायक एवं मंत्री के दखल अंदाजी से वो भी बंद करवा दिया गया। भाजपा सरकार की विधायक एव मंत्री से साढ़े चार सालों में इनके कार्य पूरा नही हो पाए है। पठानिया ने कहा कि शाहपुर की जनता मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है और प्रदेश सरकार अखबारों के माध्यम से जनता को सुख सुविधा देने के बड़े बड़े वायदे कर रही है, लेकिन धरातल पर जनता परेशान दिख रही है।
दौर- ए- कोरोना में सियासत के सलीके तो बदले ही थे अब चुनाव प्रचार के तौर तरीके भी बदल गए है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। बढ़ते कोरोना के आंकड़ों के बीच ऐलान-ए-चुनाव तो हो गया पर बंदिशों के साथ। पदयात्रा और रोड शो पर पाबंदी है, साइकिल और बाइक रैली पर भी रोक है, रात आठ बजे के बाद चुनाव प्रचार भी संभव नहीं होगा, नुक्कड़ सभाओं और रैलियों पर भी रोक रहेगी, घर-घर प्रचार में भी 5 लोग ही शामिल होंगे। फिलहाल चुनाव आयोग का ये फरमान 15 जनवरी तक के लिए है और उसके बाद स्तिथि की समीक्षा कर बंदिशे बढ़ाई -घटाई जा सकती है। पर जिस तरह देशभर में कोरोना के मामले बढ़ रहे है, ऐसे में मुमकिन है कि ये चुनाव पूरी तरह डिजिटल प्लेटफार्म पर लड़े जाएं। चुनाव आयोग का कहना है कि राजनैतिक पार्टियां डिजिटल, वर्चुअल तरीके से चुनाव प्रचार करे। पर सवाल ये है कि क्या छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों के लिए भी वर्चुअल माध्यम का पर्याप्त इस्तेमाल करना मुमकिन है? वर्चुअल या डिजिटल आयोजनों के लिए जिस आधारभूत ढांचे की जरूरत होती है या जिन संसाधनों की आवश्यकता होती है, क्या छोटे दल या निर्दलीय प्रत्याशी उसका वहन कर सकते है? ये वो सवाल है जो चुनाव की घोषणा के बाद से कई नेता उठा रहे है। बहरहाल, पांच राज्यों के ये विधानसभा चुनाव किस तरह लड़े जायेंगे, ये राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले हर व्यक्ति के लिए जिज्ञासा का विषय बन चुका है। ये नए युग के नए चुनाव है, कोरोना महामारी की मार चुनाव पर इस कदर पड़ी है कि सदियों से चला आ रहा चुनावों का तरीका ही बदल गया। पांच राज्यों में कोविड सेफ इलेक्शन होने जा रहे है। स्पष्ट है कि सोशल मीडिया और आईटी सेल की असल महत्वता सभी राजनीतिक दलों को समझ आने वाली है। स्पष्ट ये भी है कि जिस पार्टी की जड़ें सोशल मीडिया और आईटी के पायदान पर मज़बूत होगी उनके लिए ये चुनाव कम कठिन होंगे। देश की सियासत में जब आईटी या सोशल मीडिया का जिक्र होता है तो बिना एक क्षण गवाएं भारतीय जनता पार्टी का नाम जुबां पर आ जाता है। ये अन्य पार्टियों के लिए फ़िक्र का विषय जरूर है। देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा का सबसे बड़ा आईटी सेल है। वर्चुअल रैलियां और डिजिटल कैंपेन पार्टी के लिए कोई नई बात नहीं है। पार्टी कोरोना की पहली और दूसरी लहर में अपने कार्यकर्ताओं और जनता के बीच वर्चुअल और वेबिनार के माध्यम से अपनी बात नीचे तक पहुंचाती रही है। माना जाता है कि भाजपा के पास आईटी और सोशल मीडिया की पूरी प्रशिक्षित टीम है। पार्टी के पास प्रदेश से लेकर जिले तक वर्चुअल बैठक और मल्टीपल कॉन्फ्रेंस के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार है। ई-रैली के लिए खास तरह का सॉफ्टवेयर बनाया गया है, जिससे कुछ मिनटों में ही बड़े से लेकर छोटा कार्यकर्ता एक ही प्लेटफार्म पर जोड़ा जा सकता है। पार्टी के पास वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से एक हजार लोग और वेबिनार के माध्यम से करीब 50 हजार लोगों को जोड़ने का इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद है। सियासत के वर्चुअल दौर में निसंदेह भाजपा को इसका लाभ मिल सकता है। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के लिए तो ये चुनाव कठिन होंगे ही पर कांग्रेस भी वर्चुअल राजनैतिक आयोजनों में भाजपा की बनिस्पत कमतर ही दिखती आ रही है। हालांकि कोशिश बदस्तूर जारी है। कांग्रेस अपना डिजिटल कैंपेन शुरू कर चुकी है। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी फेसबुक लाइव के माध्यम से भी लोगों से रूबरू हो रही है। बाकि दल भी डिजिटल रैलियों करने का खाका तैयार कर रहे है। परन्तु क्या इतने कम समय में ये भाजपा की सालों की मेहनत का मुकाबला कर पाएंगे। सच तो ये है कि अब तक कई बड़े नेताओं के ट्विटर और फेसबुक अकाउंट भी वेरिफाइड नहीं है। जाहिर है ऐसे में इनके लिए डगर मुश्किल होगी। इन चुनावों में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे की फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम अहम भूमिका में रहेंगे। वर्तमान में पार्टी के आधिकारिक पेज पर कितने लोगों की मौजूदगी है, ये आंकड़े बता रहे है। पार्टी ट्विटर पर फोल्लोवर फेसबुक पेज पर लाइक ( लगभग ) (लगभग ) भारतीय जनता पार्टी 17.3 M 15 M आम आदमी पार्टी 5.8 M 4.3 M कांग्रेस 8.4 M 5.7M बहुजन समाज पार्टी 24.2K 90 K समाजवादी पार्टी 2.8M 2.8M तृणमूल कांग्रेस 544.3K 1.4M रोड शो, रैली, पदयात्रा पर 15 तक रोक चुनाव आयोग ने 15 जनवरी तक रोड शो, रैली, साइकिल रैली पद यात्रा तक रोक पूर्ण रूप से रोक लगा दी है।इसके अलावा रात आठ बजे से सुबह आठ बजे तक कोई प्रचार, जन संपर्क राजनीतिक पार्टियां नहीं कर सकेगी। विजय जुलूस भी नहीं निकाला जा सकेगा। 15 जनवरी के बाद पर इस पर विचार किया जाएगा। 690 विधानसभा में चुनाव 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव हो जा रहे है और इन पांच राज्यों में कुल 690 विधानसभा क्षेत्र है। इन पांच राज्यों में कुल 43 राज्य सभा सीटें है। ऐसे में राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य के लिहाज से भी ये चुनाव महत्वपूर्ण है। कुल 18.34 करोड़ मतदाता पांच राज्यों के चुनाव में कुल 18.34 करोड़ मतदाता हैं, इनमें सर्विस मतदाता भी शामिल हैं। इनमें से 8.55 करोड़ महिला मतदाता हैं। कुल 24.9 लाख मतदाता पहली बार वोट डालेंगे। इनमें से 11.4 लाख लड़कियां पहली बार वोटर बनीं हैं। चुनाव आयोग की तीन प्राथमिकता चुनाव आयोग ने 3 लक्ष्यों पर काम किया है। ये लक्ष्य हैं कोविड सेफ इलेक्शन, सरल इलेक्शन, और मतदाताओं की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी। सभी बूथ ग्राउंड फ्लोर पर होंगे, ताकि लोगों को सुविधा हो। बूथ पर सैनिटाइजर, मास्क उपलब्ध होगा। 90 फीसद से ज्यादा मतदान करवाना इस बार चुनाव आयोग का लक्ष्य है। एक घंटे बढ़ाया मतदान का समय पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में इस बार मतदान के लिए समय को एक घंटा बढ़ा दिया गया है। ऐसा कोरोना की वजह से किया गया है। संवेदनशील बूथों पर होगी वीडियोग्राफी संवेदनशील बूथों पर पूरे दिन वीडियोग्राफी होगी। पांचों राज्यों में एक लाख से ज्यादा बूथों पर लाइव वेबकास्ट होगा। ऑब्जर्वर भी ज्यादा संख्या में तैनात होंगे। ये डालेंगे बैलेट पेपर से वोट सभी बूथ पर पुरुष और महिला सुरक्षाकर्मी तैनात होंगे। दिव्यांगों के लिए हर बूथ पर विशेष इंतजाम होंगे और व्हील चेयर भी उपलब्ध होगी। कोविड संक्रमित या कोविड संदिग्ध के घर वीडियो टीम के साथ आयोग की टीम विशेष वैन से जाएगी और वोट डलवा कर आएगी। इन्हें बैलेट पेपर से वोट डालने का अधिकार मिलेगा। ज्यादा संख्या में मतदान केंद्र कोविड की स्थिति को देखते हुए मतदान केंद्रों की संख्या बढ़ाई जाएगी। चुनाव आयुक्त के अनुसार इस बार 1250 मतदाताओं पर एक बूथ बनाया गया है। पिछले चुनाव की तुलना में 16 फीसदी बूथ बढ़ गए हैं। चुनाव आयोग ने लांच की दो नई ऐप कोरोना के बढ़ते मामले को देखते हुए चुनाव आयोग सुविधा ऐप्लिकेशन लॉन्च की है, इसके जरिए कोई भी उम्मीदवार ऑनलाइन नॉमिनेशन फाइल कर सकेगा। इस तरह की सुविधा भी आयोग द्वारा पहली बार दी जाएगी। इसी तरह चुनाव के दौरान किसी भी गलत गतिविधि के लिए CVIGIL ऐप्लिकेशन पर शिकायत दर्ज की जाएगी। जाने किस दिन कहाँ होगा मतदान उत्तर प्रदेश : 10 फरवरी से सात फेज में वोटिंग, 10 मार्च को मतगणना पहला फेज- 10 फरवरी को होगा दूसरा फेज-14 फरवरी तीसरा फेज- 20 फरवरी चौथा फेज- 23 फरवरी पांचवां फेज- 27 फरवरी छठा पेज- 3 मार्च सातवां फेज- 7 मार्च मणिपुर: 27 फरवरी और 3 मार्च को वोटिंग, 10 मार्च को मतगणना पंजाब : 14 फरवरी को वोटिंग, 10 मार्च को काउंटिंग गोवा: 14 फरवरी को वोटिंग, 10 मार्च को मतगणना उत्तराखंड : 14 फरवरी को वोटिंग, 10 मार्च को मतगणना
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पंजाब में सुरक्षा चूक पर हिमाचल के राज्यपाल राजेन्द्र विश्वनाथ अर्लेकर को मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सुरेश कश्यप, सरकार में मंत्रि सुरेश भारद्वाज, राम लाल मार्कण्डेय, राजीव सैजल, महामंत्री त्रिलोक जम्वाल, महापौर सत्या कौंडल, मीडिया प्रभारी कर्ण नंदा, सचिव प्यार सिंह कंवर, ज़िला अध्यक्ष रवि मेहता, मंडल अध्यक्ष राजेश शारदा, दिनेश ठाकुर की उपस्थिति में ज्ञापन सौंपा जाएगा। इस अवसर पर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सुरेश कश्यप ने कहा कि भारत के इतिहास में पंजाब की पुण्य भूमि पर कांग्रेस के खूनी इरादे नाकाम रहे, जो लोग कांग्रेस में प्रधानमंत्री से घृणा करते हैं, वो आज उनकी सुरक्षा को नाकाम करने के लिए प्रयासरत थे। कश्यप ने कांग्रेस सरकार को पूरी तरह फेल करार दिया और कहा कि सुरक्षा में कमी को जानते हुए भी पंजाब पुलिस मूकदर्शक बनी रही। कश्यप ने कहा कि जानबूझकर प्रधानमंत्री मोदी के सुरक्षा दस्ते को झूठ बोल गया? जिन लोगों ने प्रधानमंत्री की सुरक्षा को भंग किया, उन लोगों को प्रधानमंत्री की गाड़ी के पास तक किसने और कैसे पहुंचाया? वहीं, उन्होंने पूछा कि राज्य सरकार की ओर से सुरक्षा का नेतृत्व करने वालों ने पीएम को सुरक्षित करने के किसी भी आह्वान या प्रयासों का जवाब क्यों नहीं दिया? इस पूरे मामले पर सख्त से सख्त कार्यवाही होनी चाहिए। इस अवसर पर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पंजाब के फिरोजपुर में एक जनसभा को सम्बोधित करना था परन्तु वे सभा स्थल तक नहीं पहुंच सके, क्योंकि रास्ते में पंजाब सरकार द्वारा संरक्षित उपद्रवियों एवं तथाकथित किसान संगठनो ने सुनियोजित ढंग से रास्ते को अवरूद्ध किया हुआ था जिसके कारण प्रधानमंत्री को लगभग 20 मिनट तक एक फ्लाईओवर पर रूकना पड़ा जोकि उनकी सुरक्षा में बहुत बड़ी चूक एवं उनके खिलाफ सोची समझी साजिश का स्पष्ट प्रमाण है। देश के इतिहास में प्रधानमंत्री की सुरक्षा में इतनी बड़ी चूक अब से पहले कहीं पर भी और कभी भी नहीं देखी गई है। पंजाब राज्य में कांग्रेस पार्टी की सरकार है और ऐसे में प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान उनकी सम्पूर्ण सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की थी परन्तु पंजाब राज्य की कांग्रेस सरकार प्रधानमंत्री की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने में पूरी तरह नाकाम रही जिसके कारण प्रधानमंत्री की जान जोखिम में पड़ गई। कई महत्वपूर्ण तथ्यों एवं दस्तावेजों से यह बात सामने आई है कि यह कांग्रेस सरकार की घोर लापरवाही है जोकि उनके केन्द्रीय नेतृत्व के ईशारे पर हुई है। इससे पूर्व भी भारत ने दो पूर्व प्रधानमंत्री सुरक्षा व्यवस्था में चूक के कारण खोए हैं और पंजाब की कांग्रेस सरकार की जानबूझकर की गई इस लापरवाही के कारण एक बार फिर देश के प्रधानमंत्री की जान को खतरा पैदा हो गया था। कांग्रेस सरकार की इस घोर लापरवाही की पूरे राष्ट्र में पूरजोर निंदा हो रही है और लोगों में आक्रोश है कि कैसे कोई सरकार प्रधानमंत्री की सुरक्षा में इतनी बड़ी चूक कर सकती है। मुख्यमंत्री ने कहा यह दिन इतिहास में काले अध्याय के रूप में याद किया जाएगा जब कांग्रेस के खूनी मंसूबे पंजाब की पवित्र भूमि पर विफल हो गए। देश ने आज तक न तो आतंकवाद के सबसे बुरे दौर में और न ही आतंक प्रभावित क्षेत्रो में ऐसी स्थिति का सामना किया है। भारत के इतिहास में किसी भी राज्य के पुलिस बल को प्रधानमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था को पटरी से उतारने के निर्देश नहीं दिए गए थे और न ही किसी राज्य सरकार ने देश के प्रधानमंत्री को चोट पहुंचाने की साजिश रची थी। यह जो कुछ भी हुआ सोची समझी साजिश के तहत हुआ है। प्रधानमंत्री के काफिले के रूट की पूरी सुरक्षा व्यवस्था पंजाब पुलिस द्वारा की गई थी और प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार भी थी। पंजाब पुलिस ने प्रधानमंत्री के सुरक्षा अधिकारियों को भी आश्वस्त किया था कि मार्ग पूरी तरह से सुरक्षित है लेकिन फिर पंजाब पुलिस के डी0जी0पी0 ने प्रधानमंत्री की सुरक्षा टीम को रास्ते के बारे में झूठी जानकारी एवं आश्वासन क्यों दिया और किसके कहने पर दिया, यह अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है। जयराम ठाकुर ने कहा हम सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए एक सैट प्रोटोकाॅल होता है जिसके तहत प्रत्येक राज्य सरकार सुरक्षा के इंतजाम करती है परन्तु पंजाब सरकार ने प्रधानमंत्री के सुरक्षा प्रोटोकाॅल के साथ मजाक किया है। प्रोटोकाॅल के तहत मुख्यमंत्री, सरकार के मुख्य सचिव व पुलिस महानिदेशक को प्रधानमंत्री जी की अगुवानी के लिए ऐयरपोर्ट पर उपस्थित रहना था, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। जब प्रधानमंत्री का काफिला बठिंडा ऐयरपोर्ट से सभा स्थल की ओर रवाना हुआ तो उनके तय रूट पर सरकार के संरक्षण में चल रहे धरना-प्रदर्शन के कारण एक फ्लाईओवर पर उनका काफिला रोकना पड़ा। प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई इस भारी चूक को लेकर जब प्रधानमंत्री के सुरक्षाकर्मियों ने इस बारे पंजाब सरकार में उच्च अधिकारियों से सम्पर्क करना चाहा तो पंजाब मुख्यमंत्री कार्यालय ने बात ही नहीं की, जिससे साबित होता है कि इस पूरे घटनाक्रम में पंजाब सरकार की मिलीभगत थी। गौरतलब है कि जिस जगह प्रधानमंत्री का काफिला रूका था वह क्षेत्र पाकिस्तान की फायरिंग रेंज में आता है। पंजाब की बेहद अक्षम और गैर जिम्मेदाराना सरकार की लापरवाही के कारण प्रधानमंत्री की जान खतरे में पड़ गई। यह तो देश के करोड़ो देशवासियों की दुआएं हैं कि आज देश के प्रधानमंत्री हम सबके बीच सही सलामत हैं अन्यथा देश किसी भयंकर मुसीबत में आ सकता था। इससे अधिक शर्मनाक और निंदनीय बात क्या हो सकती है कि कांग्रेस पार्टी के नेता अपनी सरकार की लापरवाही को नजरअंदाज कर रहे हैं और इस घटना पर अमर्यादित टिप्पणियां एवं गैर जिम्मेदाराना बयान दे रहे हैं। जयराम ने कहा पंजाब में अराजकता का माहौल है। पंजाब में हर साजिश की जड़ में कांग्रेस का हाथ है, आतंकवाद और अलगाववाद की जन्मदाता भी कांग्रेस ही है। ऐसी अक्षम, लापरवाह, गैर जिम्मेदार और अकर्मण्य सरकार को सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है। ऐसी सरकार राष्ट्र एवं राज्य के लिए घातक हो सकती है इसलिए इस ज्ञापन के माध्यम से भारतीय जनता पार्टी हिमाचल प्रदेश आपसे आग्रह करती है कि पंजाब सरकार के इस कृत्य की उच्च स्तरीय जांच की जाए तथा दोषियों के खिलाफ जल्द से जल्द सख्त कार्यवाही की जाए और वहां राष्ट्रपति शासन लागू किया जाए ताकि राज्य में कानून व्यवस्था बनी रहे और भविष्य में इस प्रकार की लापरवाही की ना हो सके।
नया साल है और नई चुनौतियां। राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से वर्ष 2022 बेहद महत्वपूर्ण है, सत्ता पक्ष के लिए भी और विपक्ष के लिए भी। साल 2022 देश के राजनीतिक परिदृश्य को बदल सकता है। दरअसल,ये साल अपने साथ सात राज्यों के चुनाव लेकर आया है। इन 7 राज्यों में लोकसभा की 132 सीट हैं। एक हजार से अधिक नए विधायक चुने जाएंगे जो 2022 में होने वाले राष्ट्रपति के चुनाव और राज्यसभा का शक्ति संतुलन तय करेंगे। नए साल के पहले 3 महीनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर विधानसभा के चुनाव होंगे, वहीं साल के अंत में हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनाव होने है। इनके अलावा आठवें केंद्र शासित राज्य जम्मू-कश्मीर के चुनाव भी 2022 में हो सकते है। हालांकि परिसीमन की रिपोर्ट लंबित होने के चलते अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है। राज्य विधानसभाओं के लिए सदस्यों के चुनाव और स्थानीय सरकारों के गठन के अलावा इन चुनावों का राष्ट्रीय राजनीति पर महत्वपूर्ण असर पड़ेगा। वर्तमान में इन 7 राज्यों में से 6 राज्यों मे भाजपा की सरकारें हैं। इन राज्यों में सत्ता पर काबिज़ रहने के लिए भाजपा को निसंदेह कड़ी मेहनत करनी होगी, साथ ही केंद्र की सियासत में अपने पैर जमाए रखने के लिए भी इन चुनावों में जीतना भाजपा के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। बाकि विपक्षी दलों के लिए भी ये साल सियासी ज़मीन गहरी करने का अवसर है। स्पष्ट है कि साल 2022 में पक्ष और विपक्ष को न सिर्फ बड़े मौके मिलने हैं, बल्कि बड़ी चुनौतियां भी मिलने जा रही हैं, बस देखना है कि कौन इसमें क्या कमाल करता है। सत्तारूढ़ भाजपा की बात करें तो 2014 के बाद कुछ सालों तक गवर्नेंस के स्तर पर भले ही चुनौतियां आती रही हैं, लेकिन राजनीतिक जमीन पर पार्टी धुंआधार बैटिंग करती रही। हालाँकि पिछले कुछ समय से राज्यों में पार्टी का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा है। 2019 आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी को चुनावी अभियान में तमाम राज्यों में उनकी सरकार होने का लाभ मिला था। मगर 2019 के बाद से बीजेपी महाराष्ट्र, झारखंड जैसे राज्यों में सत्ता गंवा चुकी है। हरियाणा में भले पार्टी ने सरकार बनाई, लेकिन बहुमत से दूर रही। पश्चिम बंगाल चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन अपेक्षा अनुसार नहीं रहा। ऐसे में सात राज्यों के चुनाव पार्टी के मिशन 2024 के लिहाज से भी जरूरी है। दूसरी तरफ अगर देश की सबसे बुज़ुर्ग पार्टी कांग्रेस की बात करें तो सत्ता में वापसी तो दूर बतौर विपक्ष भी पार्टी अपना वजूद लगातार खो रही है। सात राज्यों में कांग्रेस का प्रदर्शन ये तय करेगा कि वो देश में विपक्ष का नेतृत्व करने योग्य भी रही है या नहीं। ममता बनर्जी जहाँ देशभर में एक नए गठबंधन की रूपरेखा बनाने में जुटी है तो निरंतर बेहतर होती आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है। ममता की पार्टी जहाँ गोवा में दमदार तरीके से चुनाव लड़ रही है, वहीं आम आदमी पार्टी पंजाब, उत्तराखंड और गोवा में पूरी ताकत झोंके हुए है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में भी आम आदमी पार्टी मैदान में है। आप का प्रदर्शन बेहतर रहा तो जाहिर है पार्टी इस साल के अंत में होने वाले हिमाचल और गुजरात विधानसभा चुनाव में भी मैदान में होंगी। ऐसे में कांग्रेस के सामने अपने पुराने और पारंपरिक वोट को दोबारा हासिल करने की बड़ी चुनौती है। अंदरूनी उथल-पुथल के दौर से गुजर रही बुजुर्ग पार्टी अगर बेहतर न कर पाई तो सत्ता सुख तो दूर, शायद विपक्ष का मुख्य चेहरा होने की प्रतिष्ठता भी खो देगी। नड्डा को भी करना होगा खुद को साबित 2022 में चुनाव वाले राज्यों में अगर बीजेपी की पकड़ कमजोर हुई तो पार्टी और केंद्र सरकार के लिए आगे की राह बेहद कठिन हो सकती है। पार्टी के साथ- साथ आगामी वर्ष पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के लिए भी चुनौतियों से भरपूर होने वाला। जनवरी 2020 में नड्डा निर्विरोध पार्टी के अध्यक्ष बने थे। तब से लेकर अब तक भाजपा के सितारे उभरते नज़र नहीं आए है। यहां तक कि पार्टी नड्डा के गृहक्षेत्र हिमाचल में भी चार उपचुनाव हार गई। ये साल बतौर अध्यक्ष नड्डा के कार्यकाल का अंतिम वर्ष है और उनके लिए खुद को साबित करने का अंतिम मौका भी है। आगामी तीन माह में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने है और यदि यहाँ पार्टी बेहतर नहीं कर पाती है तो सवाल उठना तो लाजमी है। उत्तर प्रदेश केंद्र की सियासत का रस्ता उत्तर प्रदेश से होकर निकलता है, इसीलिए ये सियासी लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण चुनाव है। यहां सत्ता की रेस में मुख्य रूप से बीजेपी और समाजवादी पार्टी दिख रहे है। कांग्रेस के साथ मायावती की बहुजन समाज पार्टी सहित अन्य कई दल भी मैदान में हैं। योगी आदित्यनाथ बीजेपी के पहले नेता है, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में पांच साल का कार्यकाल पूरा किया और पार्टी ने उन्हीं के चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ रही है। ऐसे में यह उनके लिए भी ये चुनाव अग्नि परीक्षा है। पंजाब कांग्रेस के लिए पंजाब में सरकार बचाने की चुनौती है, तो आम आदमी पार्टी उसकी जमीन हड़पने के भरपूर प्रयास कर रही है। आम आदमी पार्टी के लिए भी यह साल तय करेगा कि वह राष्ट्रीय स्तर पर पांव पसारने के लिए किस हद तक तैयार है। हाल ही में हुए चंडीगढ़ नगर निगम चुनाव में भी आप ने कांग्रेस को पटकनी दी है। वहीं, अकाली दल ने बसपा के साथ हाथ मिला रखा है तो बीजेपी ने कैप्टन अमरिंदर सिंह की नवगठित पंजाब लोक कांग्रेस और सुखदेव सिंह ढींडसा के शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) पार्टी के साथ गठबंधन किया है। उत्तराखंड उत्तराखंड में कांग्रेस और बीजेपी के साथ आम आदमी पार्टी, बसपा और कई अन्य दल मैदान में है। उत्तराखंड में 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 57 सीट जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाई जबकि विपक्षी दल कांग्रेस को 11 सीटें मिली थी। त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन चार साल के बाद उन्हें हटाकर बीजेपी ने तीरथ सिंह रावत को सत्ता की कमान सौंपी और महज कुछ ही महीने में रावत की जगह पुष्कर सिंह धामी को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाया गया। उत्तराखंड में भी हिमाचल की ही तरह हर 5 वर्ष बाद सत्ता परिवर्तन का रिवाज़ है। गोवा गोवा का आगामी विधानसभा चुनाव क्षेत्रीय दलों की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के लिए टेस्टिंग लैब बनता जा रहा है। यूं तो इस राज्य में क्षेत्रीय और स्थानीय राजनीतिक दलों की बहुलता रही है, लेकिन इस बार चुनाव मैदान में अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के भी आ जाने से चुनावी माहौल में नया रंग आ गया है। ये दोनों ही पार्टियां गोवा की जमीन से अपनी राष्ट्रीय छवि सुधारने की कोशिश में नज़र आ रहीं है। उधर, बरसों सत्ता में रही कांग्रेस अपने ‘गौरवशाली अतीत’ के भरोसे है तो सत्तारूढ़ भाजपा भी कोई कसर नहीं छोड़ रही। मणिपुर पूर्वोत्तर मणिपुर में विधानसभा की 60 सीटों पर चुनाव होंगे। 2017 में मणिपुर विधानसभा चुनाव में बीजेपी 24 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप उभरी थी और कांग्रेस 17 विधायकों के साथ विपक्षी दल बनी थी। बीजेपी ने एनपीपी, एलजेपी और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से सरकार बनाई और एन बीरेंद्र सिंह मुख्यमंत्री बने थे। अब बीजेपी ने एक बार फिर से मणिपुर की सत्ता बचाए रखने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है, तो वहीं कांग्रेस भी सत्ता में वापसी के लिए बेताब है। गुजरात गुजरात को बीजेपी की सियासी प्रयोगशाला कहा जाता है। पिछले ढाई दशक से बीजेपी यहां सत्ता पर काबिज है। पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों ही गुजरात से हैं, जिसके चलते बीजेपी के लिए गुजरात सियासी तौर पर काफी अहम माना जाता है। गुजरात में कांग्रेस ने पिछली बार कांटे की टक्कर दी थी और इस बार फिर से ओबीसी-दलित-पटेल-मुस्लिम समीकरण बनाकर अपने सत्ता के वनवास को तोड़ने की जुगत में है। इस बार आम आदमी पार्टी भी गुजरात में किस्मत आजमाने की तैयारी में है। 2017 की जीत के बाद बीजेपी ने विजय रूपाणी के नेतृत्व में सरकार बनाई थी। सितंबर में बीजेपी ने पूरी रुपाणी सरकार को हटाकर भूपेंद्र भाई पटेल की अगुवाई में कैबिनेट गठित की थी। अपने सियासी प्रयोग से पार्टी ने सत्ता विरोधी लहर से निपटने का फॉर्मूला निकाला है। पार्टी कामयाब होती है या नहीं ये तो आने वाला चुनाव ही बताएगा। हिमाचल प्रदेश हिमाचल में भाजपा हाल ही में 4 उपचुनाव हारी है। इस हार से पार्टी की छवि तो खराब हुई ही है साथ ही चार सालों से सुस्त पड़ी कांग्रेस के मनोबल में भी वृद्धि हुई है। यहां भाजपा के लिए गुटबाज़ी साधना कठिन होगा वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस में भी अभी से अंतर्कलह के संकेत उभरते दिखाई दे रहे है। पार्टी का एक तबका मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष के कार्य से संतुष्ट नहीं है और पूर्व अध्यक्ष को दोबारा पार्टी की कमान सौंपने की इच्छा जता रहा है। यहां जो भी पार्टी अंतर्कलह को साधने में कामयाब रहती है, उसके लिए चुनाव जीतना आसान होगा।
चुनाव आयोग ने चुनाव वाले 5 राज्यों के मुख्य सचिवों से कहा है कि वो कोविड टीकाकरण में तेजी लाएं। आयोग ने मणिपुर को लेकर खासतौर पर चिंता जताई है। राज्य में पहली खुराक के कम प्रतिशत पर इलेक्शन कमीशन खुश नहीं है। ऐसे में आयोग ने तेजी से लोगों को टीका देने के लिए लिखा है। उत्तराखंड और गोवा में करीब सभी को कोरोना वैक्सीन की पहली खुराक दी जा चुकी है। बाकी तीन राज्यों, उत्तर प्रदेश, पंजाब और मणिपुर में कोरोना वायरस टीके की पहली खुराक लेने वालों का प्रतिशत कम है। बता दें कि पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, गोवा और मणिपुर में इस साल मार्च-अप्रैल में विधानसभा चुनाव होने हैं। माना जा रहा है कि इसी महीने आयोग इन पांच राज्यों में चुनाव की तारीखों का ऐलान कर सकता है। हाल ही में कोरोना वायरस के मामले देश में तेजी से बढ़े हैं। ऐसे में चुनाव टालने की बातें भी कुछ लोगों की ओर से कही जा रही थी। चुनाव आयोग ने साफ किया है कि चुनाव टाले नहीं जाएंगे। बीचे हफ्ते मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा ने लखनऊ में अपने प्रेस वार्ता में कहा था कि उत्तर प्रदेश के सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने हमसे मुलाकात की है। सभी दल कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए समय पर चुनाव कराए जाने के पक्ष में हैं। किसी भी दल ने चुनाव टालने की मांग नहीं की है।
हिमाचल की सियासत में आरोप प्रत्यारोप का दौर तेज़ हो चुका है। गत दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा ने कोरोना वैक्सीनेशन, महंगाई और अन्य मुद्दों को लेकर बयान जारी किया। कांग्रेस नेता एवं पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा ने कहा है कि प्रदेश में अभी भी अधिकांश आबादी को दूसरा टीका नहीं लगा है। सुधीर शर्मा ने कहा की कोरोना बीमारी ने आर्थिक व्यवस्था को खराब किया और न जाने कितने परिवारों ने अपने परिजन खोए हैं। सरकार उन्हें अभी तक उचित मुआवजा देने में भी विफल रही है। उन्होंने कहा की इसी बीच कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रॉन ने लोगों की चिंताएं और बढ़ा दी हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, देश में वैक्सीनेशन का काम तेजी पर है, लेकिन प्रदेश में अभी भी हमारी अधिकांश आबादी को दूसरा टीका नहीं लगा है। उन्होंने कहा कि पिछले साल से अबतक कोरोना महामारी की वजह से लाखों लोगों की जान जा चुकी है। उसी के बाद देश की आबादी को कोरोना का टीका दिए जाने की मांग की गई थी। हाल ही में कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रॉन के मामले भी भारत में मिलने लगे हैं। जब प्रदेश सरकार ने कोरोना वैक्सीन की दूसरी डोज़ कई लोगों को नहीं लगायी है तो बूस्टर डोज़ सरकार कब लगाएगी। सुधीर ने कहा कि देश में जिस तेज़ी से कोविड-19 के नए वैरिएंट ओमिक्रॉन के मामले सामने आ रहे है यह बेहद चिंताजनक है, लेकिन प्रदेश सरकार चिंतामुक्त बैठी है। प्रदेश सरकार को अभी से पुख्ता इंतजाम कर लेने चाहिए, खास तौर पर फ्रंट लाइन वॉरियर्स को शीघ्र बूस्टर डोज दे देनी चाहिए। कड़े कदम समय रहते ना उठाए गए तो महामारी दोबारा फैल सकती है। सुधीर शर्मा के बयान पर नैहरिया का पलटवार पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा के बयान पर धर्मशाला के विधायक विशाल नैहरिया ने पलटवार किया है। नैहरिया ने कहा कि पूर्व मंत्री और कांग्रेस नेताओं की अनाप शनाप बयानबाजी करने की आदत सी हो गयी है। यही कारण है कि कांग्रेस के नेता तथ्यहीन बयानबाजी करते है। उन्होंने कहा कि आज विपक्ष सरकार के विकास कार्यों को देख बौखला गयी है। देश व प्रदेश में कांग्रेस सबसे अधिक सत्तासीन रही है, तब कांग्रेस ने जनता को लूटने और गुमराह करने के अलावा कुछ नहीं किया। कांग्रेस के नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए झूठ का सहारा ले रहे है। नैहरिया ने कहा कोविड महामारी के बावजूद प्रदेश सरकार ने जिस तरह से कोविड वैक्सीनेशन को लेकर काम किया है उसे खुद देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने सराहा है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस नेता जितना मर्जी फरेब की राजनीति कर लें, 2022 के विधानसभा चुनावों में प्रदेश में फिर से जयराम ठाकुर के नेतृत्व में सशक्त सरकार बनेगी। उन्होंने कहा कि भाजपा के पास दिशा भी है और नेतृत्व भी, कांग्रेस दिशाहीन है ।
हाल ही में हुए सत्र के दौरान हिमाचल बेचने का मुद्दा खूब गरमाया था। विपक्ष का आरोप था कि वर्तमान सरकार ने अपने चहेतों को लाभ पहुंचाने के लिए कांग्रेस द्वारा बनाये गए सभी उपक्रमों को बेच दिया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व मंत्री कौल सिंह ठाकुर का कहना है कि हिमाचल प्रदेश में डबल इंजन की सरकार पूरी तरह से फेल हो चुकी है। बीते चार वर्षों में सरकार द्वारा ऐसा कोई भी विकास कार्य नहीं किया गया है जिसको लेकर जयराम सरकार जश्न मना रही है। कौल सिंह ठाकुर का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चार वर्षों में प्रदेश के विकास के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं दी है, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के बनाए हुए उपक्रमों को एक-एक कर बेच दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रेलवे, हवाई अड्डे अदानी व अंबानी को बेच दिए हैं। कौल सिंह ठाकुर का कहना है कि प्रदेश में विकास के बड़े बड़े दावे करने वाले मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी 4 साल में कोई बड़ा संस्थान या कोई बड़ा प्रोजेक्ट केंद्र से नहीं ले पाए हैं। प्रदेश में नाहन, हमीरपुर, चंबा व नेरचौक मेडिकल कॉलेज व आईआईएम खुले है, लेकिन यह सभी संस्थान पिछली कांग्रेस सरकार की देन है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर मंडी नेरचौक मेडिकल कॉलेज की बात करते है लेकिन इस कॉलेज का शिलान्यास व उद्घाटन कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हुआ है। कौल सिंह ठाकुर का कहना है कि जयराम ठाकुर यदि मोदी के इतने ही करीबी हैं, तो कुल्लू या किसी अन्य जिले में मेडिकल कॉलेज खोलकर दिखाएं।
प्रदेश सरकार के चार साल का कार्यकाल पूरा हो चुका है। एक तरफ जहां जयराम सरकार इन चार वर्षों की अपनी उपलब्धियां गिनाने में व्यस्त है वहीँ दूसरी तरफ विपक्ष लगातर वर्तमान सरकार की खामियों को उजागर करने में लगा हुआ है। विपक्ष बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी और कर्मचारियों के कई मुद्दों को लेकर सरकार का घेराव करता जा रहा है। इसी बीच अब काँग्रेस ने बागवानों से जुड़ी समस्याओं को मुद्दा बनाकर जयराम सरकार को आड़े हाथ लिया है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुलदीप राठौर का कहना है कि प्रदेश की जयराम सरकार बागवानों के साथ अन्याय कर रही है। बागवानों को कीटनाशक व फफूंदनाशक नहीं मिल रहा है। किसानों को भी खाद तक नहीं मिल रही है। कुलदीप सिंह राठौर का कहना है की यूँ तो जयराम सरकार विकास कार्यों को लेकर बड़े बड़े दावें करती है लेकिन जमीनी हकीकत की बात करें तो प्रदेश सरकार हर मोर्चे पर असफल रही है। सरकार का महंगाई व बेरोजगारी पर नियंत्रण नहीं है। भाजपा की नीतियां किसान व बागवान विरोधी हैं। देश में भाजपा की किसान विरोधी नीतियों के कारण किसानों को अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरना पड़ा और जब उपचुनाव में भाजपा को हार का तमाचा लगा तो सरकार को किसान विरोधी कानूनों को वापिस लेना पड़ा। कुलदीप सिंह राठौर का कहना है कि प्रदेश में युवाओं की सब से बड़ी समस्या बेरोज़गारी है, लेकिन केंद्र सरकार देश के बड़े-बड़े उन उपक्रमों को बेच रही है, जहां लाखों लोगों को रोजगार मिलता था। केंद्र व प्रदेश की सरकार का इस ओर कोई भी ध्यान नहीं है। प्रदेश की जनता भोली है, लेकिन अब समय आ गया है जब लोग एकजुट होकर भाजपा की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आगे आकर आने वाले 2022 के चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ़ करे। राठौर का कहना है कि जयराम सरकार के चार साल के कार्यकाल में जनता को सिर्फ परेशानियों का ही सामना करना पड़ा है। सरकार सिर्फ अपने ऐशो आराम के लिए कर्ज पर कर्ज लिए जा रही है। झूठी घोषणा करने में माहिर हो चुकी सरकार अब अपनी झूठी महिमा के लिए चार साल का जश्न मना रही है। राठौर का कहना है कि कांग्रेस द्वारा सरकार के चार वर्ष का कार्यकाल पूरा होने पर इसकी नाकामियों को उजागर कर जनता के बीच ले जाया जाएगा और जनता को सरकार विरोधी नीतियों के खिलाफ जागरूक भी किया जायेगा।
जयराम सरकार अपने चार वर्ष का कार्यकाल पूरा कर चुकी है। यूँ तो सत्ता में आने के बाद से ही इस सरकार का सफर कठिन रहा है, मगर इस पांचवे और इस कार्यकाल के आखरी वर्ष में सरकार को कई चुनौतियों का सामना करना होगा। ख़ास बात ये है की इस वर्ष चूक की कोई गुंजाइश नहीं है। ये आखिरी साल तय करेगा कि प्रदेश में मिशन रिपीट सफल होगा या मिशन डिलीट। इस पांचवे साल में जयराम सरकार के सामने पांच बड़ी चुनौतियां है, जिनसे पार पाकर ही मिशन रिपीट का स्वप्न साकार हो सकता है... 1. बढ़ता कर्ज, बिगड़ती अर्थव्यवस्था सत्ता में आने से पहले भाजपा ने अपने स्वर्णिम दृष्टि पत्र में कई वादें किये थे जिसमें से काफी अधूरे है। कुछ पूरे हुए ज़रूर मगर उन्हें पूरा करने के लिए सरकार एक के बाद एक लगातार क़र्ज़ ले रही है। आकड़ों के अनुसार साल 2020 तक सरकार 62 हज़ार करोड़ का क़र्ज़ ले चुकी है और ये सिलसिला अब भी जारी है। प्रदेश के विकास के लिए कर्ज़ लेना गलत नहीं है मगर असल बात ये है की अब तक प्रदेश की आय के साधन बढ़ाने में सरकार मोटे तौर पर नाकाम रही है। प्रदेश की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लिए जयराम सरकार ने इन्वेस्टर मीट की पहल जरूर की, लेकिन धरातल पर इसके व्यापक परिणाम अब तक नहीं दिखे है। ऐसे में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना और बढ़ते कर्ज को थामना सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। यहाँ ये देखना भी रोचक होगा कि क्या चुनावी वर्ष में जयराम सरकार केंद्र से कोई बड़ा राहत पैकेज लाने में कामयाब होगी। 2. कर्मचारी वर्ग साधने की चुनौती कर्मचारी वोट ही हिमाचल प्रदेश में सत्ता की राह प्रशस्त करता है। ऐसे में कर्मचारियों को खुश रखना भी जयराम सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। एक के बाद एक कर्मचारियों को कई सौगातें दी जा रही है मगर इन राहतों के लिए धन राशि एकत्र करना पहले से क़र्ज़ में डूबी सरकार के लिए कठिन होने वाला है। इस पर जिन कर्मचारी वर्गों की मांगे पूरी नहीं हो रही वो खुलकर मुखालफत करते दिख रहे है। स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा विचारधारा से इत्तेफ़ाक़ रखने वाला भारतीय मजदूर संघ भी सरकार के खिलाफ मुखर होता दिखा है। 3. एंटी इंकम्बैंसी से निबटना बड़ा टास्क एंटी इंकम्बैंसी से निपटना अंतिम वर्ष में जयराम सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी। अक्सर कहा जाता है कि जयराम सरकार की नौकरशाही पर पकड़ नहीं है। सरकार को अंतिम वर्ष में इस टैग से छुटकारा पाना होगा और ये सुनिश्चित करना होगा कि आम वोटर के बीच में जयराम सरकार की छवि एक मजबूत सरकार की हो। अक्सर निर्णय लेने की क्षमता को लेकर भी जयराम सरकार पर सवाल उठते रहे है, सो अंतिम वर्ष में मुख्यमंत्री के नेतृत्व में सरकार को कुछ तेवर जरूर दिखाने होंगे। यहाँ महंगाई जैसे मसलों पर भी सरकार को कुछ लचीला रुख रखना होगा और आमजन को राहत भी देनी होगी। प्रदेश सरकार को किसानों बागवानों के मुआवजे को लेकर भी बड़ा दिल दिखाना होगा। 4. मंत्रियों को करना होगा परफॉर्म जयराम सरकार के सामने एक और बड़ी चुनौती है, अपने मंत्रियों और नेताओं को संभालना और उनसे अच्छा करवाना। कई मंत्री अपने बयानों से सरकार की परेशानी बढ़ाते रहे है, तो कुछ अपनी कार्यशैली को लेकर विवादों में रहते है। अंतिम वर्ष में सरकार को मंत्रियों का रिपोर्ट कार्ड भी बनाना होगा और जरुरत पड़ने पर आवश्यक बदलाव भी करना होगा। सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि जिन्हें पद और कद से नवाजा गया है वे आमजन के बीच सरकार की लोकप्रियता बढ़ाए, न कि सत्ता विरोधी लहर के सूत्रधार बने। सत्ता और संगठन के बीच का तालमेल भी सरकार को सुनिश्चित करना होगा, ताकि कम से कम पार्टी काडर में असंतोष की स्थिति न उत्पन्न हो। अक्सर जयराम ठाकुर को मंडी का मुख्यमंत्री कहा जाता है। निसंदेह मुख्यमंत्री ने मंडी को दिल खोल कर दिया है, लेकिन अन्य क्षेत्रों में भी काम हुए है। बावजूद इसके मंडी के मुख्यमंत्री का टैग पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि प्रदेश के हर क्षेत्र, हर वर्ग को भरोसा दिलाया जाए कि सरकार ने बिना भेदभाव के काम किया है। 5. अधूरी विकासात्मक योजनाओं को देनी होगी गति चुनावी घोषणा पत्र में किये गए भाजपा के कई वादे जयराम सरकार ने पुरे किये है तो काफी अधूरे है। करीब दस माह के वक्त में अब जयराम सरकार के सामने अधिकांश वादे पुरे करने की चुनौती है। सरकार के पास कोरोना का बहाना जरूर है, लेकिन जनता के दरबार में अक्सर बहाने नहीं चलते। सरकार को हर निर्वाचन क्षेत्र में किये गए वादों को पूरा करने का प्रयास करना होगा। इसके साथ ही कई ऐसी घोषणाएं है जो जयराम सरकार ने सत्ता में आने के बाद कि है लेकिन जमीनी स्तर पर काम न के बराबर हुआ है। ऐसी विकासात्मक योजनाओं को गति देना भी सरकार के सामने चुनौती है।
ये निर्विवाद तथ्य है कि देश में इस वक्त भाजपा सबसे मजबूत राजनैतिक दल है और उसे टक्कर देने में मोटे तौर पर कांग्रेस विफल रही है। बीते कुछ वर्षों में जहां कांग्रेस लगातार कमजोर होती दिखी है, वहीं कुछ छोटे और क्षेत्रीय राजनैतिक दल प्रभावशाली साबित हुए है। इनमें दो नाम प्रमुख है, आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस। दिल्ली में कामयाबी से अपनी सरकार चलाने के बाद आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के विस्तार में जुटी है। पंजाब में वह पहले ही प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका में है और अब बाकी राज्यों में भी पूरी कोशिश की जा रही है। आगामी दो -तीन माह में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने है जिनमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर शामिल है। इनमें से चार राज्यों में आम आदमी पार्टी मैदान में है , विशेषकर पंजाब, गोवा और उत्तराखंड में पार्टी दमखम के साथ मैदान में है। खास बात ये है कि देश के दो बड़े राजनीतिक दल, यानी भाजपा और कांग्रेस के अलावा आम आदमी पार्टी एक मात्र ऐसी पार्टी है जो चार राज्यों में चुनाव लड़ रही है। माहिर मान रहे है कि इन चुनावों के नतीजे यदि सकारात्मक आये तो आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर लम्बी छलांग लगा सकती है। पंजाब की बात करें तो दिल्ली के अलावा पंजाब ही वो राज्य है जहां आप को वोटर्स का अच्छा प्यार मिला है। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद आप ने पंजाब की चार सीटों पर जीत दर्ज की थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में आप ने 20 सीटों पर जीत दर्ज कि थी और वो पंजाब की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी। विपक्ष में रहते पार्टी लगातार पांच साल सक्रिय रही और पार्टी को उम्मीद है कि पंजाब में वह इस बार सत्ता हासिल करने में सफल होगी। पर यहाँ चेहरा न होना पार्टी के लिए समस्या का सबब है। बावजूद इसके जानकार पंजाब में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और आप के बीच ही मानकर चल रहे है। आम आदमी पार्टी गोवा में भी बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद कर रही है। कोरोना काल में पार्टी लगातार गोवा में सक्रिय रही है और कमजोर कांग्रेस ने भी उसकी राह आसान की है। सत्तारूढ़ भाजपा को लेकर राज्य में कुछ एंटी इंकम्बैंसी जरूर है और आप की नजर इसी सत्ता विरोधी वोट पर है। पार्टी यहाँ चेहरा देने की बात भी कर रही है। पर समस्या ये है कि राज्य में बेशक कांग्रेस कमजोर हो लेकिन उसका काडर वोट नकारा नहीं जा सकता। दूसरा तृणमूल कांग्रेस भी गोवा में पूरी ताकत झोंक रही है। ऐसे में यदि सत्ता विरोधी वोट बंटता है तो आप की राह मुश्किल होगी। बहरहाल आप गोवा में बेहतर करने का दावा कर रही है और निसंदेह जमीनी हकीकत ये ही है कि आप आगामी विधानसभा चुनाव में दमदार उपस्थिति दर्ज करवा सकती है। उत्तराखंड में मिल सकती है कामयाबी उत्तराखंड में पार्टी भले ही सत्ता पर काबिज़ न हो पाए लेकिन उत्तराखंड में इस बार आप अपनी उपस्तिथि दर्ज करवाने में कामयाब रह सकती है। उत्तराखंड में तो पार्टी सीएम फेस भी घोषित कर चुकी है और दिल्ली की सियासी प्रयोगशाला का कामयाब फार्मूला यहाँ दोहरा रही है। उत्तराखंड में आप को कितना समर्थन मिलता है ये देखना दिलचस्प होगा। वहीँ उत्तरप्रदेश में भी पार्टी अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने की जद्दोजहद में है। उत्तर प्रदेश में पार्टी गठबंधन कि राह पर भी आगे बढ़ सकती है और खासतौर से एनसीआर व साथ लगते क्षेत्रों में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद में है। हिमाचल में दिशा तय करेंगे ये नतीजे ! चार राज्यों में आम आदमी का प्रदर्शन यदि बेहतर रहा तो पार्टी का मजबूती से हिमाचल के सियासी दंगल में भी उतरना तय है। हालांकि पार्टी अभी से सभी 68 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है लेकिन ये रण नगर निगम चुनाव की भांति महज औपचारिक होगा या दमखम से लड़ाई होगी, ये पंजाब, गोवा और उत्तराखंड के नतीजे तय करेंगे। ऐसे में प्रदेश के सियासतगरों की नजर भी आप पर जरूर रहेगी।
सत्ता विरह झेल रही कांग्रेस में पद और कद की जंग शुरू हो चुकी है। अलबत्ता, अभी विधानसभा चुनाव में एक वर्ष का वक्त शेष है लेकिन किसके हाथ में क्या है और कितना है, इसका गुणा-भाग पार्टी की अंदरूनी राजनीति के लिहाज से बेहद जरूरी है। सो चाहवान हिसाब-किताब भी बराबर रख रहे है और जरूरत के लिहाज से शक्ति की नुमाईश भी हो रही है। इस बीच भाजपा सरकार की टांग खिंचाई भी बदस्तूर जारी है। बुजुर्ग पार्टी में नया अपडेट ये है कि नेताओं को आजकल दिल्ली खूब भा रही है। दिल्ली में लगातार मुलाकातों का सिलसिला चला हुआ है, और माहिर इन मुलाकातों में संभावित सियासी मुक्का-लातों को अभी से देखने लगे है। दरअसल पार्टी का एक तबका प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन चाह रहा है। इसलिए आलाकमान के दरबार में हाज़री भर दरख्वास्त के साथ-साथ सियासी बल भी दिखाया जा रहा है, ताकि आलाकमान संतुलन सुनिश्चित करें। पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू के समर्थक अभी से उन्हें बतौर भावी मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर आगे बढ़ रहे है। पार्टी के 22 विधायकों में से अगर सुक्खू समर्थकों की तादाद देखी जाए तो भी सुक्खू को दरकिनार करना पार्टी के लिए आसान नहीं है। उपचुनाव में जीत कर आए तीन विधायकों में से भी दो सुक्खू गुट के है। इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि सुक्खू की जमीनी संगठन पर अच्छी पकड़ है और वो उन गिने चुने नेताओं में से है जिनके समर्थक अमूमन प्रदेश के हर निर्वाचन क्षेत्र में है। ऐसे में जाहिर है सुक्खू को न तो नज़रअंदाज किया जा सकता है और न ही चुनावी बेला में उन्हें किसी महत्वपूर्ण पद से वंचित रखा जाना आसान है। समर्थक प्रदेश अध्यक्ष पद या नेता प्रतिपक्ष के पद पर उनकी तैनाती चाहते है, लेकिन मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर की अगुवाई में पार्टी के अच्छे प्रदर्शन के बाद राठौर को हटाना न तो आसान है और न ही जायज। दूसरा होली लॉज से दूरी सुखविंदर सिंह सुक्खू के लिए हमेशा चुनौती रही है। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह उन्हें ख़ास पसंद नहीं करते थे और माना जाता है ये ही सुक्खू के अपदस्थ होने का मुख्य कारण भी रहा। अब वीरभद्र सिंह के निधन के बाद समीकरण कुछ बदले जरूर है, लेकिन ये जहन में रखना होगा कि होली लॉज का जलवा भी बरकरार है। राठौर के अलावा नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री को भी पद से हटाना तर्कसंगत नहीं लगता। अग्निहोत्री भी उन नेताओं में से है जिन्हें सत्ता वापसी की स्थिति में मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा है। बतौर नेता प्रतिपक्ष अग्निहोत्री खुद को साबित करने में सफल रहे है। सरकार को कब, कहाँ और कितना घेरना है, ये भी अग्निहोत्री बखूबी जानते है। अग्निहोत्री की राह इसलिए भी आसान रही है क्यूंकि उन्हें होलीलॉज का आशीर्वाद मिलता रहा है। संभवतः आगे भी होली लॉज का समर्थन उनके साथ ही रहे। ऐसी स्थिति में उन्हें उनके पद से हटाने का फैसला कांग्रेस लेगी, ऐसा नहीं लगता। किसी गुट में नहीं, इसीलिए राठौर मजबूत कांग्रेस हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर के नेतृत्व में चार उपचुनाव जीती है। इससे पूर्व भले ही राठौर के नेतृत्व पर सवाल खड़े होते रहे हो, मगर उपचुनाव के बाद उनके निष्पक्ष स्वभाव और काम करने के तरीके की खूब तारीफ हुई है। राठौर एक ऐसे नेता है जो किसी गुट विशेष के करीबी नहीं माने जाते और ये ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है। राठौर को हटाकर यदि किसी गुट विशेष के हाथ में संगठन की कमान जाती है तो जाहिर है असंतोष बढ़ सकता है। पर ये भी जहन में रखना होगा कि उपचुनाव में वीरभद्र सिंह के लिए उमड़ी सहानुभूति लहर और बढ़ती महंगाई कांग्रेस को मिली जीत के बड़े कारण थे। रही-सही कसर भाजपा की अंतर्कलह और भीतरघात ने पूरी कर दी। सो इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि जमीनी स्तर पर पार्टी के संगठन को धार देने की सख्त जरूरत है। होलीलॉज का भी दावा कयास थे की पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के निधन के बाद होली लॉज का तिलिस्म ध्वस्त हो जाएगा। वीरभद्र परिवार के वर्चस्व पर एक बड़ा और गहरा संकट खड़ा हो जाएगा, मगर हुआ उलट। मंडी संसदीय उपचुनाव में जीत दर्ज कर प्रतिभा सिंह ने साबित कर दिया कि प्रदेश की सियासत में होल्ली लॉज का जलवा बरकरार है। साथ ही जिस तरह का जनसमर्थन अब तक विक्रमादित्य सिंह को मिला है, वो साबित करता है कि वीरभद्र कैंप का सियासी रसूख बरकरार रहने वाला है। सम्भवतः इस वक्त विक्रमादित्य सिंह कांग्रेस के सबसे बड़े क्राउड कैचर है। ऐसे में होली लॉज समर्थक मंडी सांसद प्रतिभा सिंह का नाम न सिर्फ प्रदेश अध्यक्ष के लिए बल्कि मुख्यमंत्री पद के लिए आगे बढ़ा रहे है। युवा कांग्रेस का फार्मूला बनेगा समाधान बीते वर्ष युवा कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुए और इस चुनाव में वीरभद्र गुट और सुक्खू गुट, दोनों के उम्मीदवार मैदान में थे। बाजी सुक्खू के समर्थक निगम भंडारी मार ले गए लेकिन संतुलन बनाये रखने के लिए कार्यकारी अध्यक्ष का पद वीरभद्र गुट के यदुपति ठाकुर को दिया गया। ऐसे में सवाल ये है कि क्या प्रदेश के मुख्य संगठन में भी कार्यकारी अध्यक्ष का पद सृजित किया जा सकता है ताकि संतुलन बना रहे। कुलदीप राठौर को हटाए बगैर पार्टी सुक्खू गुट से किसी नेता को कार्यकारी अध्यक्ष पद का कार्यभार देने पर विचार कर सकती है। एक से अधिक कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाये जा सकते है और ऐसे में क्षेत्रीय समीकरण साधने, विशेषकर कांगड़ा को प्रतिनिधित्व भी दिया जा सकता है।
प्रदेश की सियासत में तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट कई दशकों से है पर हर बार इन दावों की हवा निकलती रही है। सिर्फ 1998 के विधानसभा चुनाव को छोड़ दे तो कभी भी सत्ता गठन में किसी तीसरी पार्टी की भूमिका नहीं रही। अब फिर प्रदेश में आम आदमी पार्टी ने हुंकार भरी है, ठीक वैसे ही जैसा 2017 से पहले हुआ था। हालांकि तब चुनाव आते आते पार्टी ने यू टर्न ले लिया था। फिर इस वर्ष हुए नगर निगम चुनाव में भी पार्टी ने ऐलान किया कि वो चुनाव लड़ेगी, पर जनता ने सारे जोश की हवा निकाल दी। अब विधानसभा चुनाव को एक वर्ष से भी कम वक्त बचा है और पार्टी फिर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है। बैठकें हो रही है, प्रदर्शन हो रहें है। पर हकीकत ये है कि न जमीनी स्तर पर संगठन है और न दमदार चेहरा, पर कोशिश पूरी की जा रही है। आम आदमी पार्टी द्वारा दिल्ली में किये गए विकास से लोग प्रभावित है इसमें भी कोई संशय नहीं। फिलवक्त आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं का फोकस दिल्ली और पंजाब के साथ साथ गोवा, उत्त्तराखंड और उत्तर प्रदेश में नज़र आ रहा है। हर जगह पार्टी के परफॉरमेंस को देख कर ये कयास लगाए जा रहे है कि पार्टी हिमाचल में भी कुछ बेहतर कर सकती है। हिमाचल प्रदेश में राजनीति की बागडोर मुख्य तौर पर दो ही राजनीतिक दल संभालते आए है। यही कारण है कि प्रदेश की जनता के पास नोटा ही तीसरा और अंतिम विकल्प शेष रह जाता है। प्रदेश में लगातार बढ़ती नोटा की संख्या को देख ये स्पष्ट है कि प्रदेश की जनता को किसी तीसरे विकल्प की दरकार है। अब ये तीसरा विकल्प आम आदमी पार्टी होती है या कोई और ये तो वक्त ही बताएगा। बता दें कि आम आदमी पार्टी पहले ही 2022 हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में सभी 68 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर चुकी है। ये घोषणा हिमाचल प्रदेश आम आदमी पार्टी के प्रभारी रत्नेश गुप्ता ने की थी। बहरहाल आम आदमी पार्टी ने हिमाचल में सदस्यता अभियान चलाया है। 68 विधानसभाओं में कार्यकारिणी बनाई जा रही है। अब पार्टी के कार्यकर्ता बूथ स्तर पर जाकर लोगों से सम्पर्क साध रहे है। जनता की समस्याएं सुनी भी जा रही है और उन्हें उजागर भी किया जा रहा है। हाल ही में आम पार्टी के कार्यकर्ताओं ने पुरानी पेंशन बहाली, बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के विरोध में तपोवन विधानसभा का घेराव भी किया। इस दौरान पार्टी के कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच झड़प भी हुई। पार्टी की सक्रियता निरंतर बढ़ती जा रही है। जनता की मांगों को उजागर करने के साथ साथ पार्टी विधायकों को घेरने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रही। हिमाचल में नहीं टिका तीसरा मोर्चा कांग्रेस और भाजपा से इतर तीसरा विकल्प देने के अब तक किए गए सभी प्रयोग असफल रहे हैं। हिमाचल विकास कांग्रेस और हिमाचल लोकहित पार्टी ने तीसरा मोर्चा खड़ा करने का प्रयास किया था, लेकिन बाद में दोनों दलों का कांग्रेस और भाजपा में विलय हो गया। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी प्रदेश के कुछ विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव लड़ने तक सीमित है। तीसरे विकल्प का प्रभावशाली दखल केवल साल 1998 में पंडित सुखराम की हिविकां के सहयोग से बनी भाजपा सरकार में ही देखा गया। 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस के रूप में पंडित सुखराम के नेतृत्व में तीसरा मोर्चा बना और हिमाचल विकास कांग्रेस के पांच विधायक बने। हिविकां के सहयोग से तब मुख्यमंत्री प्रेमकुमार धूमल के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी। हिविकां समर्थित भाजपा सरकार ने अपना कार्यकाल तो पूरा किया, मगर बाद में हिविकां का भी कांग्रेस में विलय हो गया। पंडित सुखराम अपनी पुरानी पार्टी में लौट आए। साल 2007 के चुनाव में उत्तरप्रदेश में बसपा की लहर हिमाचल तक पहुंची तो मेजर विजय सिंह मनकोटिया ने बसपा को तीसरे मोर्चे के रूप में खड़ा करने का प्रयास किया, लेकिन बाद में मनकोटिया खुद ही चुनाव हार गए। बसपा के खाते में केवल कांगड़ा की एक ही सीट आई। बसपा विधायक संजय चौधरी बाद में भाजपा में शामिल हो गए। हिलोपा के रूप में भाजपा के असंतुष्ट महेश्वर सिंह का थर्ड फ्रंट बनाने का प्रयास भी असफल रहा। महेश्वर सिंह ने साल 2012 के चुनाव में नई पार्टी बनाकर 36 विधानसभा सीटों में चुनाव लड़ा था। कई सीटों पर हिलोपा के समर्थन से माकपा के प्रत्याशी चुनावों में थे, लेकिन हिलोपा को जीत सिर्फ एक ही सीट पर मिली। साल 2016 में पार्टी बनाने के चार साल बाद महेश्वर सिंह भी अपनी पुरानी पार्टी भाजपा में जा मिले। और हाल ही में हुए मंडी लोकसभा उपचुनाव के लिए महेश्वर सिंह भाजपा की टिकट के प्रबल दावेदा माने जा रहे थे। पहले भाजपा और फिर आम आदमी पार्टी को छोड़ चुके पूर्व सांसद डॉ राजन सुशांत ने भी अपनी नई पार्टी हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी बनाई है। राजन सुशांत ने 2022 में हर विधानसभा क्षेत्र से अपनी पार्टी के उम्मीदवार उतारने की घोषणा भी की थी। मगर हाल ही में हुए उपचुनाव में डॉ राजन सुशांत अपने गृह क्षेत्र फतेहपुर में जीत हासिल नहीं कर पाए। अब उनकी पार्टी ऐसी स्थिति में पूरे प्रदेश पर फतेह कर पाएगी ऐसा नहीं लगता।
एक कंधे पर प्रदेश की जनता की बेतहाशा उम्मीदें और दूसरी तरफ खाली सरकारी खजाने की चाबी लिए प्रदेश सरकार दिन प्रति दिन कर्ज के दलदल में धंसती जा रही है। प्रदेश में भाजपा सरकार के चार साल पूरे होने को है। सरकार से हर वर्ग की अपनी मांगे है, अपनी उम्मीदें है। कोई सवर्ण आयोग चाहता है, कोई वेतन, कोई पुरानी पेंशन की टेंशन को दूर करने की उम्मीद लगाए बैठा है, तो कुछ ऐसे भी है जिन्हें नौकरी ही नहीं मिली। बर्फबारी के बाद किसान-बागवान मुआवजा मांग रहे है और व्यापारी टैक्स में कटौती। खून चूसती महंगाई तो हर घर का मसला है। सबकी उम्मीद भरी निगाहें सरकार पर टिकी है और हो भी क्यों ना, ये वो ही है जिन्होंने सत्ता में आने से पहले प्रदेश की जनता पर वादों की बौछार की थी। अब जो वादा किया वो निभाना तो पड़ेगा। बात सिर्फ सत्ता में आने से पहले की नहीं है, हाल फिलहाल भी सरकार ने कई बड़ी घोषणाएं की है, कई आश्वासन दिए, जो कैग की रिपोर्ट के सामने आने के बाद तो पूरे होते नहीं दिखाई दे रहे। कैग की रिपोर्ट में पेश किये गए आंकड़ों पर गौर किया जाए तो प्रदेश की खराब स्थिति समझने के लिए किसी को अर्थ शास्त्री होने की जरूरत नहीं है। कोई आम आदमी भी साफ समझ सकता है कि प्रदेश की आर्थिकी किस ओर अग्रसर है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानि कैग की रिपोर्ट में ये स्पष्ट हुआ है कि पिछले वर्ष (₹53,147 करोड़) की तुलना में 14.57% की वृद्धि के साथ वित्तीय वर्ष 2019-20 में हिमाचल प्रदेश का कर्ज का बोझ बढ़कर 62,212 करोड़ हो गया है। प्रदेश का राजकोषीय घाटा 5597 करोड़ दर्ज किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक 2019-20 में प्रदेश की राजस्व प्राप्तियों में 204.92 करोड़ की कमी आई है। 2018-19 के 30,950.28 करोड़ के मुकाबले 2019-20 में राजस्व प्राप्तियां घटकर 30,745.32 करोड़ रहीं। राजस्व प्राप्तियों में भी 67 फीसदी हिस्सा केंद्रीय करों में हिस्सेदारी व केंद्र सरकार से मिलने वाली सहायता अनुदान राशि का है। प्रदेश के अपने संसाधनों से खजाने में सिर्फ 33 फीसदी राजस्व आया है। इसके अलावा, पूंजीगत व्यय पिछले वर्ष के ₹4,583 करोड़ की तुलना में 13% (₹591 करोड़) बढ़कर ₹5,174 करोड़ हो गया और कुल व्यय में 14% का गठन किया। सिर्फ यही नहीं वित्त वर्ष 2019-20 की इस रिपोर्ट के मुताबिक हिमाचल सरकार ने पेयजल, सड़क, पर्यटन, ऊर्जा आदि से संबंधित 96 विकास योजनाओं पर फूटी कौड़ी तक खर्च नहीं की। इन योजनाओं पर बजट को खर्च न करने का कारण भी नहीं बताया गया है। इनमें से कोई भी योजना एक करोड़ से कम बजट की नहीं है। आमदनी अट्ठनी, खर्चा रुपया निसंदेह ये कर्ज का पहाड़ प्रदेश की अर्थव्यवस्था की खिल्ली उड़ाता जा रहा है। 62 हजार करोड़ को पार कर चुके इस कर्ज के आंकड़े से स्पष्ट होता है कि बजटीय प्रावधानों और आर्थिक प्रबंधन को संयोजने में लगे सरकारी अधिकारी वक्त बर्बाद करते रहे और सरकार सोती रही। या सरकार फिजूल खर्चे करती गई और अफसर खामोश बैठे देखते रहे। ऐसी स्थिति तो तब ही पैदा हो सकती है जब महत्वकांक्षाएं व्यक्ति की आमदनी से ज्यादा बढ़ जाए। प्रदेश की आमदनी घटने का एक बड़ा कारण कोरोना काल भी रहा है। इस दौरान केवल प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश की वित्तीय व्यवस्था डगमगाई है जो अब तक पूरी तरह पटरी पर नहीं लौट पाई है। इसी के साथ प्रदेश में राजस्व प्राप्तियां घटी है जबकि खर्च बढ़ा है। कैग के मुताबिक 2019-20 में प्रदेश की राजस्व प्राप्तियों में गिरावट दर्ज हुई और ये सिर्फ 33 फीसद प्राप्त हुआ। दूसरी ओर खर्चों में करीब साढ़े पांच फीसद की वृद्धि दर्ज हुई। ये भी स्पष्ट हुआ है कि 2019-20 में 53708 करोड़ रुपये के बजट व अनुदान प्रविधानों के मुकाबले 45528 करोड़ रुपये की रकम खर्च की गई है । इसमें 8229.36 करोड़ की बचतें भी शामिल हैं और इसके साथ ही 49.91 करोड़ का अधिक खर्च किया गया है । कैग रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि सरकार ने प्रदेश के शहरी व ग्रामीण निकायों, शैक्षणिक संस्थाओं और विकास प्राधिकरण के लिए वित्तीय सहायता देना कम किया है। पांच साल की आकलन रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना काल से एक साल पहले 2019-20 में ग्रामीण व शहरी निकायों को 1509.61 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता दी है, जबकि वर्ष 2018-19 के दौरान इन निकायों को 1514.06 करोड़ की सहायता की थी। दूसरी ओर शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों एवं अन्य धर्मार्थ संस्थान व विकास प्राधिकरण को 2019-20 में 1996.87 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता दी है। इसके विपरीत वर्ष 2018-19 के दौरान इन क्षेत्रों को 2119.89 करोड़ की सहायता दी है। प्रदेश को आर्थिक सुधारों, सुशासन तथा सरकारी कार्यसंस्कृति में बदलाव की आवश्यकता है और विपक्ष के लिए भी जरुरी है कि बतौर ज़िम्मेदार विपक्ष पथ से भटकती सरकार को वापस ट्रैक पर लाया जाए। परन्तु सत्ता का वनवास झेलता विपक्ष उन्हीं मुद्दों को चुनता नज़र आ रहा है जिससे सरकार की स्थिति और खराब होती जाए। प्रदेश के आर्थिक हालात, स्वरोजगार और निजी निवेश के जरिए रोजगार पर चर्चा के बजाय कर्मचारी सियासत को साधने में विपक्ष मसरूफ है। इस खाली जेब के साथ मसले महज घोषणाओं से सुलझ जाएंगे ऐसा नहीं लगता। प्रदेश सरकार ने हाल ही में जेसीसी की बैठक की थी, जिसमें कई बड़ी घोषणाएं की गई। उन वादों को पूरा करने के लिए 18 से 20 हजार करोड़ रुपये की रकम जुटाना 62 हजार करोड़ रुपये के कर्ज में डूबी सरकार के लिए चुनौती होगा, वहीं अब असंतुष्ट कर्मचारियों और अन्य वर्गों को न्यायोचित वित्तीय लाभ देना कैसे संभव हो पाता है ये बड़ा सवाल है। इस पर अगले वित्तीय वर्ष में केंद्र से लगभग 12 हजार करोड़ रुपये कम ग्रांट मिलने वाली है। पर्यटन को बढ़ावा देने से बदल सकती है स्थिति हिमाचल की आर्थिकी को सुदृढ़ करने में पर्यटन एक अहम भूमिका निभा सकता है। कोरोना काल के दौरान पर्यटन को एक बड़ा झटका लगा है। प्राकृतिक सौंदर्य से लबरेज हिमाचल प्रदेश में धार्मिक व साहसिक पर्यटन की भरपूर संभावना है। पर्यटन को प्रदेश की आर्थिकी का अहम हिस्सा माना जाता है और इसे बढ़ावा देने से स्थिति बेहतर हो सकती है। अपार संभावनाओं के बावजूद पहाड़ी प्रदेश हिमाचल में पर्यटन क्षेत्र में विकास की रूपरेखा नहीं बन सकी है। यदि सरकार एक बेहतर सोच के साथ पर्यटन को बढ़ावा दे तो स्थिति बेहतर होगी। सरकार भीड़-भाड़ वाले पर्यटन स्थलों पर बोझ कम कर के कम आकर्षण वाले स्थानों का विकास सुनिश्चित करके पर्यावरण पर्यटन (ईको-टूरिज्म) के विकास की भी परिकल्पना की जा सकती है। न सिर्फ संगठित क्षेत्र में बल्कि मोटे तौर पर असंगठित क्षेत्र में पर्यटन की महत्वपूर्ण भूमिका है। सरकार को एक दूरगामी सोच के साथ कार्य करने की आवश्यकता है। आधारभूत ढांचे और और मजबूत किए जाने की आवश्यकता है। अब तक धरातल पर नहीं दिखी इन्वेस्टर मीट हिमाचल प्रदेश में 2019 में हुई इन्वेस्टर्स मीट के बाद अब तक सिर्फ 13,488 करोड़ का निवेश ही धरातल पर उतरा है। बता दें कि इन्वेस्टर मीट में कुल 703 एमओयू किए गए थे, जिनमें 96720.88 करोड़ रुपए का निवेश प्रस्तावित है। अब तक 236 में से 96 परियोजनाओं में 2710 करोड़ का निवेश हुआ है। 104 परियोजनाओं में निर्माण कार्य प्रगति पर है तथा शेष 36 परियोजनाएं कोरोना महामारी व अन्य कारणों से शुरू नहीं हो सकी हैं। दूसरी ग्राउंड ब्रेकिंग जल्द ही प्रस्तावित है। इन्वेस्टर मीट के बाद समझौतों में कुल 1 लाख 96 हजार से ज्यादा लोगों को रोजगार संभावित है। प्रदेश में इन्वेस्टर मीट करवा आर्थिकी को सुधारने की सरकार की सोच अच्छी ज़रूर थी मगर अब तक इसका खास प्रभाव नहीं दिख पाया है। प्रदेश में नए उद्योगों के आने से आर्थिक व्यवस्था सुधर सकती है। अगर इस प्रस्तावित निवेश को सरकार हिमाचल ला पाई तो निसंदेह प्रदेश में रोज़गार भी बढ़ेगा और आर्थिक स्थिति भी बेहतर होगी।
विधानसभा चुनाव में एक साल से भी कम का वक्त बचा है, और कर्मचारियों की अनसुनी फरियादों की लम्बी फेहरिस्त सरकार के सामने है। उम्मीदें बेतहाशा है और अपनी -अपनी मांगों को लेकर कर्मचारी संगठन नेताओं से मिलने की कवायद में जुटे है। जयराम राज में एक ऐसी ही अनसुनी फ़रियाद है नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता की मांग। इसे लेकर वर्षों से चला आ रहा संघर्ष अब भी जारी है। जेसीसी की बैठक में नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता मांगने वाले कर्मचारियों को वरिष्ठता तो नहीं मिल पाई थी, पर इसके लिए कमेटी के गठन का आश्वासन ज़रूर मिला था। अब कर्मचारियों को कमेटी के गठन का इंतज़ार है। दरअसल, आश्वासन तो लम्बे वक्त से मिलते ही आ रहे है सो अब कर्मचारी चाहते है कि तुरंत एक्शन हो। चुनाव अब नजदीक है और हाल फिलहाल सरकार के ग्रह भी रूठे -रूठे से दिखे है, सो कोशिश ये ही है कि सरकार पर दबाव बनाया जाएँ, और आशा ये है कि सरकार अब आश्वासन से आगे निकल एक्शन ले। बहरहाल विधानसभा के शीतकालीन सत्र में हिमाचल अनुबंध नियमित कर्मचारी संगठन का एक प्रतिनिधिमंडल नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता की मांग को पूरा करवाने हेतु एक बार फिर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से सर्किट हाउस धर्मशाला में मिला। संगठन ने कमेटी के गठन की घोषणा के लिए सीएम का आभार जताया, साथ ही ये भी याद दिलाया कि अभी सिर्फ घोषणा ही हुई है। संगठन ने कमेटी में हिमाचल अनुबंध नियमित कर्मचारी संगठन के सदस्यों को शामिल करने की मांग भी की। दरअसल ये मसला शुरू हुआ 2008 में, जब बैचवाइज और कमीशन आधार पर लोकसभा आयोग और अधीनस्थ कर्मचारी चयन आयोग द्वारा कर्मचारियों की नियुक्तियां अनुबंध के तौर पर की जाने लगी l पहले अनुबन्ध काल 8 साल का हुआ करता था जो बाद में कम होकर 6 फिर 5 और फिर 3 साल हो गया। ये अनुबन्ध काल पूरा करने के बाद यह कर्मचारी नियमित होते है। अनुबंध से नियमित होने के बाद इन कर्मचारियों की अनुबंध काल की सेवा को उनके कुल सेवा काल में नही जोड़ा जाता, जो संगठन के अनुसार सरासर गलत है। इनका कहना है कि अनुबंध काल अधिक होने से पुराने कर्मचारियों को वित्तीय नुकसान के साथ प्रमोशन भी समय पर नहीं मिल पाती अब मांग है कि उनको नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता प्रदान की जाए ताकि उन्हें समय रहते प्रमोशन का लाभ मिल सके। अनुबंध काल की सेवा का वरिष्ठता लाभ ना मिलने के कारण उनके जूनियर साथी सीनियर होते जा रहे हैं। अनुबंध नियमित कर्मचारी संगठन का कहना है कि कुछ अनुबंध कर्मचारी 8 वर्ष के बाद नियमित हुए, कुछ 6 वर्ष के बाद, कुछ 5 वर्ष के बाद और वर्तमान में 3 वर्ष के बाद नियमित हो रहे हैं और अब आने वाले समय में 2 वर्ष में कर्मचारी नियमित होंगे। ऐसे में ये नीति कर्मचारियों के मौलिक और समानता के अधिकार का हनन है। मान सम्मान का विषय, सीएम से हुई सकरात्मक बातचीत : गर्ग हिमाचल अनुबंध नियमित कर्मचारी संगठन के प्रदेशाध्यक्ष मुनीष गर्ग और जिलाध्यक्ष सुनील पराशर का कहना है कि नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता ना मिलने से जूनियर कर्मचारी सीनियर होते जा रहे हैं। कर्मचारियों ने कहा कि उनका चयन भर्ती एवम पदोन्नति नियमों के अनुसार हुआ है इसलिए उनके अनुबंध की सेवा को उनके कुल सेवाकाल में जोड़ा जाना तर्कसंगत है। यह प्रदेश के 70 हजार कर्मचारियों के मान सम्मान से जुड़ा विषय है। सरकार जल्द इस मांग को पूरा करे। संगठन के पदाधिकारियों ने कहा कि उनकी मुख्यमंत्री से सकारात्मक माहौल में बातचीत हुई। प्रतिनिधिमंडल में जिलाध्यक्ष सुनील पाराशर,प्रदेश सचिव संदीप सकलानी, मनदीप,सुरेंद्र, कप, अश्विनी, शम्मी कुमार, शशि, विमल सागर दीपक भगसेन ,अनूप ,पवन, कुशल सहित अन्य शामिल रहे। आस : धूमल का वादा जयराम पूरा करेंगे ! जाती हुई सरकार की बात मत सुनो आती हुई सरकार की मानो, ये शब्द थे पूर्व मुख्यमंत्री प्रो. प्रेम कुमार धूमल के l 2017 विधानसभा चुनाव के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री ने सुजानपुर में ये वादा किया था l वादा था कि भाजपा के सत्ता में आते ही मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया जाएगा और अनुबंध कर्मचारियों को नियुक्ति की तिथि से वरिष्ठता प्रदान करने हेतु कार्य किया जाएगा l जयराम सरकार के चार साल में इस विषय में कुछ नहीं हुआ, पर हाल ही में हुई जेसीसी बैठक में सरकार ने कमेटी गठित करने की बात कही है l इसके बाद कर्मचारियों में कुछ आशा जरूर जगी है। अब कर्मचारी चाहते है कि जल्द कमेटी गठित हो और मांग को पूरा किया जाए l
पूरी सरकार को मानो बंधक बनाया गया हो, बाहर जाने वाले एकमात्र रास्ते को बंद कर दिया गया, प्रदर्शनकारी बैरिकेड्स तोड़कर परिसर में घुस गए, गाड़ियों के शीशे तोड़े गए, शंखनाद हुए। सरकारी सम्पति को भी नुकसान पहुँचाया गया। प्रदर्शनकारियों पर पानी की बौछार हुई तो वापसी में पुलिस कर्मियों पर पत्थर बरसे। हाथ में भगवा झंडा, गले में केसरी पटका और जुबां पर जय भवानी का नारा लेकर सवर्ण समाज के लोगों ने तपोवन विधानसभा परिसर में जो प्रदर्शन किया, वैसा पहले कभी हिमाचल प्रदेश में नहीं देखा गया था। सवर्ण आयोग के गठन की मांग को लेकर प्रदर्शनकारियों का जैसा हुजूम उमड़ा उसकी आशंका सबको पहले से थी, पर शायद सरकार के तंत्र को इसका अहसास नहीं था, या इसे देखकर भी अनदेखा किया गया। शायद सरकार का ख़ुफ़िया तंत्र विफल हो गया, वरना बैठे बिठाये मुसीबत कौन मोल लेता है ? विधानसभा सत्र के पहले दिन तपोवन में परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि हज़ारों के हुजूम और बेइन्तिहाँ दबाव के बीच सरकार को झुकना पड़ा। इसे सवर्ण समाज के संघर्ष और हौसले की जीत समझ लीजिये या फिर दबाव में आकर जयराम सरकार का ऐलान, प्रदेश में अब सवर्ण आयोग के गठन की घोषणा हो चुकी है। निसंदेह ये घोषणा मंज़ूरी से ज़्यादा सरकार की मजबूरी नज़र आ रही है। जो परिस्तिथि तपोवन में बनाई गई उसके बाद सरकार के पास कोई दूसरा रास्ता निकालने का न तो वक्त था और न गुंजाइश। प्रदर्शन आक्रामक था और स्थिति सरकार और प्रशासन के नियंत्रण से बाहर। सवर्ण समाज में इस घोषणा के बाद ख़ुशी की लहर है, मगर इस पुरे घटनाक्रम को सरकार की एक बड़ी विफलता के रूप में देखा जा रहा है। ऐसा नहीं है कि सवर्ण आयोग के गठन की घोषणा करके सरकार ने कुछ गलत किया, मसला ये है कि जिस दबाव में सरकार को ये करना पड़ा उससे सरकार मजबूत से अधिक मजबूर दिखी है। सैकड़ों चेतावनियों के बावजूद भी सरकार सचेत नहीं हुई और प्रस्तावित प्रदर्शन को कम आँका, नतीजन परिणाम अब सभी के सामने है। देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा द्वारा सवर्ण आयोग के गठन की ये मुहीम करीब एक साल पहले शुरू की गई थी। प्रदेश में 70 फीसदी आबादी सामान्य वर्ग की है और इस वर्ग का एक बड़ा तबका लम्बे समय से सवर्ण आयोग की मांग कर रहा है। पहली दफे इस तबके की ताकत का अंदाजा सरकार को 20 अप्रैल 2021 को करवाया गया था जब सामान्य संयुक्त मोर्चे ने राज्य सचिवालय का घेराव किया था। करीब तीन घंटे तक छोटा शिमला में चक्का जाम किया गया था, उस दौरान भी प्रदर्शनकारियों की पुलिस के साथ काफी कहासुनी और धक्का मुक्की भी हुई थी। मांग थी कि प्रदेश की करीब 70 फीसदी सामान्य वर्ग की आबादी जो नेताओं की कठपुतली बनकर रह गई है उनके हित के लिए जातिगत आरक्षण को खत्म किया जाए। सरकार आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करे। एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट को समाप्त किया जाए क्यों कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। बाहरी राज्यों के लोगों को सामान्य वर्ग के कोटे में सरकारी नौकरियों में सेंध लगाने से रोकने के लिए एससी और एसटी की तर्ज पर हिमाचली बोनाफाइड होने की शर्त लगाने की मांग थी। और सबसे बड़ी मांग थी सवर्ण आयोग के गठन की। परन्तु तब भी सरकार ने 3 महीने का समय मांग कर प्रदर्शन बंद करवा दिया था। फिर तीन महीने के इंतज़ार के बाद भी मांग पूरी नहीं हुई और सवर्ण समाज द्वारा उपचुनाव में नोटा दबाने की चेतावनी दी गई। हुक्मरानों ने फिर भी गौर नहीं किया। उपचुनाव में नोटा का ख़ासा प्रभाव देखने को मिला, खासतौर पर अर्की विधानसभा क्षेत्र में, मगर मांग पूरी नहीं हुई। सरकार नज़रअंदाज़ करती रही और आंदोलन तेज़ होता चला गया। यहाँ जयराम सरकार ने बड़ी चूक कर दी, जरुरत थी एक सशक्त संवाद स्थापित करने की, पर स्थिति का सामना करने के बजाय इसे टालने का ही प्रयास दिखा। उधर आंदोलनकारी तैयार थे,हर जिले के सवर्णों को एक सूत्र में पिरोया गया और प्रदर्शन की तैयार की गई। इसके बाद सवर्ण संगठनों द्वारा जातिगत आरक्षण, एट्रोसिटी एससी-एसटी एक्ट और अन्य सवर्ण समाज विरोधी नीतियों की शवयात्रा निकाली गई। 800 किलोमीटर लम्बी पदयात्रा की गई। ये पदयात्रा 10 दिसंबर को धर्मशाला में खत्म होनी थी और यात्रा के खत्म होने पर जो हुआ वो सभी के सामने है। अनगिनत चेतावनियों को अनसुना करने का जो परिणाम निकला, उससे सरकार की खूब फजीहत हुई। बेहतर होता कि सरकार इस मामले की गंभीरता और लगातार बढ़ते जन समर्थन को भांपते हुए समय रहते बंद कमरे में इसका हल निकालती। मगर एक बार फिर जयराम सरकार चूक गई। रूपरेखा अभी स्पष्ट नहीं सरकार ने स्वर्ण आयोग के गठन को अनुमति ज़रूर दी है मगर अभी तक इसकी रूपरेखा स्पष्ट नहीं हो सकी है। यह साफ नहीं है कि सरकार आयोग का अलग से चेयरमैन नियुक्त करेगी या मुख्यमंत्री को ही इसका अध्यक्ष बनाया जाएगा। साथ ही इसके क्षेत्राधिकार और काम की भी व्याख्या होनी बाकी है। अलबत्ता आयोग के गठन को सरकार की हरी झंडी मिली हो लेकिन सवर्ण समाज की कई अन्य मांगे भी है जिन्हें लेकर आगामी वक्त में टकराव देखने को मिल सकता है।
कांग्रेस (Congress) अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में केन्द्र सरकार पर जोरदार हमला बोला है। उन्होंने कहा कि सरकार किसानों को लेकर असंवेदनसील है। सोनिया गांधी ने कहा कि सरकार देश की संपत्तियों को बेचने का काम कर रही है। सीमा विवाद पर बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि विपक्ष सीमा पर असुरक्षा को लेकर चर्चा करना चाहता है, लेकिन सरकार इसको लेकर तैयार नहीं है। उन्होंने केन्द्र सरकार की महंगाई और विनिवेश की नीति को लेकर आड़े हाथों लिया। सोनिया गांधी ने राज्यसभा में 12 सांसदों के निलंबन को अनुचित करार दिया। इसके साथ ही, उन्होंने प्रदर्शनकारी किसानों को याद कर कहा- "आइए बलिदान देने वाले 700 प्रदर्शनकारी किसानों का सम्मान करें।" कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि मोदी सरकार भारत की संपत्ति बेचती है। लगातार बढ़ रही महंगाई करोड़ों परिवार के मासिक बजट को खराब कर रही है।
प्रदेश में बढ़ती महंगाई को लेकर विपक्ष लगातर सरकार का घेराव कर रहा है। पूर्व विधायक अजय महाजन ने महंगाई व बेरोजगारी पर सरकार को आड़े हाथ लिया है। अजय महाजन का कहना है कि बढ़ती महंगाई व बेरोजगारी से आम आदमी त्रस्त हो गया है। महंगाई कम होने का नाम ही नहीं ले रही है। इससे साबित होता है कि प्रदेश सरकार की नीतियां जन विरोधी हैं। जनता त्रस्त है पर सरकार कोई भी जनकल्याण का फैसला नहीं ले रही है। अजय महाजन का कहना है कि जनता ज्यादा परेशान न हो यह सरकार अब कुछ ही दिनों की मेहमान है। कांग्रेस सत्ता में आते ही आम आदमी की परेशानी को दूर करने के लिए जन कल्याण की नीतियां बनाएगी और लोगों को महंगाई व बेरोजगारी की समस्याओं से निजात दिलाएगी। अजय महाजन का कहना कि हाल ही में हुई जेसीसी की बैठक में कर्मचारियों को कोई फायदा नहीं हुआ है। जिस छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। उसमें तो पहले ही पांच साल का विलंब हो चुका है। मुख्यमंत्री ने ओल्ड पेंशन स्कीम को लागू न कर सिर्फ 2009 की नोटिफिकेशन को मानकर कर्मचारियों के हितों के साथ कुठाराघात किया है, 2009 की नोटिफिकेशन तो ओल्ड पेंशन स्कीम का ही एक हिस्सा है। हजारों आउटसोर्स कर्मचारी जो सरकारी कर्मचारी के बराबर काम करते हैं, इसके लिए कोई नीति न लाकर सरकार ने कर्मचारी हितैषी न होने का प्रमाण दिया है। अजय महाजन का कहना है कि पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने जनकल्याण के कार्य किए जिस कारण वह लोगों के दिलों में आज भी राजा की तरह राज करते हैं। जबकि भाजपा ने 2017 के विजन डॉक्यूमेंट में जो वादे कर्मचारियों से किए थे उन्हें ही पूरा करने में चार साल का विलंब कर दिया है। यही कारण है कि जनता ने उपचुनाव में चारों सीटें कांग्रेस को दिलवाकर बता दिया है कि सरकार की मशीनरी हांफ गई है। महंगाई व बेरोजगारी पर कोई लगाम नहीं है। Himachal Pradesh News | Himachal Politics
जेसीसी की बैठक के बाद पुलिस विभाग लगातार सरकार से अपनी मांगों को पूरा करने के लिए आवाज़ उठा रहा है। इसी बीच पुलिस विभाग की समस्याओं को नजरअंदाज करने को लेकर वरिष्ठ कांग्रेस नेता और सुजानपुर विधायक राजेंद्र राणा ने सरकार पर निशाना साधा है। राजेंद्र राणा का कहना है कि प्रदेश की जनता को हर तरफ से न्याय देने की जिम्मेदारी उठाए पुलिस विभाग की समस्याओं को सरकार नजरअंदाज न करे। अगर पुलिस विभाग को ही न्याय नहीं मिल रहा है तो यह सिस्टम की खामी नहीं, सरकार की नाकामी है। 7 रुपए प्रतिदिन की डाईट मनी देकर सरकार पुलिसकर्मियों से क्रूर मजाक कर रही है जो कि पुलिस कर्मियों के लिए न तर्कसंगत है न न्याय संगत और न ही सहन करने के काबिल है। लेकिन बीजेपी सरकार पुलिस की इस जायज मांग को लगातार नजरअंदाज कर रही है। राजेंद्र राणा का कहना है की पुलिस प्रशासनिक अधिकारी भी सरकार की घोर उपेक्षा को लेकर खासे नाराज हैं। सरकार पुलिस अधिकारियों की प्रमोशन को लेकर उपेक्षित व अडियल रुख अपनाए हुए है। राणा का कहना है कि पुलिस में एचपीएस स्तर के अधिकारियों की प्रमोशन 11 साल से लगातार रुकी है। पुलिस प्रमुख संजय कुंडू की अध्यक्षता में सिस्टम में चल रहे असंतुलन को लेकर सरकार को गुहार लगाई जा चुकी है, लेकिन इसके बावजूद भी सरकार मूक और मौन बनी हुई है। आलम यह है कि डीएसपी व एडिशनल एसपी स्तर के 189 अधिकारी वर्षों से अपनी प्रमोशन की राह देख रहे हैं। इनमें डायरेक्ट भर्ती हुए डीएसपी, एडिशनल एसपी व प्रमोट होकर आए कांस्टेबल व सब-इंस्पेक्टर से डीएसपी बने अधिकारियों की फौज सरकार की ओर टकटकी लगाए हुए देख रही है। राणा का कहना है कि विजिलेंस, सीआईडी, स्टेट नारकोटिक्स कंट्रोल सेंटर में अनुभव प्राप्त अधिकारियों की दरकरार है लेकिन सरकार इस समस्या से अनजान बनकर नई पोस्ट क्रिएट नहीं कर रही है। इस कारण से जुगाड़ व सिफारिश के आधार पर अधिकारियों को तैनात किया जा रहा है, जबकि लम्बा अनुभव रखने वाली पुलिस प्रशासनिक अधिकारियों की फौज सरकार की इस घोर उपेक्षा से कुंठित व प्रताड़ित महसूस कर रही है। मौजूदा दौर में 34 एडिशनल एसपी के पदों की जरूरत है और जब यह पोस्टें क्रिएट होंगी तो इनकी प्रमोशन का रास्ता खुलेगा। इसलिए सरकार पुलिस प्रशासनिक अधिकारियों की इस मांग व जरूरत को ध्यान में रखते हुए तुरंत कार्रवाई अमल में लाए। वहीं राजेंद्र राणा ने सवर्ण समाज की समस्या का भी सरकार को घेरते हुए कहा है कि इस मसले को जल्द हल करें अन्यथा सवर्ण समाज का बढ़ता आक्रोश समूचे समाज को तनावग्रस्त कर रहा है। सरकार अपनी जवाबदेही व जिम्मेदारी से लगातार भाग रही है। राणा का कहना है कि सवर्ण आयोग की मांगों को लेकर सरकार ने इस वर्ग से वायदा किया था लेकिन अब सरकार वायदा खिलाफी कर रही है। Himachal Pradesh News | Himachal Politics
उपचुनाव में जीत हासिल करने के बाद कांग्रेस पार्टी लगातार सरकार के खिलाफ हल्ला बोल रही है। खाद्य सामान, पेट्रोल डीजल में लगातार हो रही वृद्धि और बढ़ती महंगाई के खिलाफ प्रदेश कांग्रेस ने जन जागरण अभियान के तहत प्रदेश भर में हल्ला बोल है। इसी बीच कांग्रेस के नेता लगातार सरकार पर तंज कस रहे है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुलदीप राठौर का कहना है की जीत से उत्साहित होकर कांग्रेस चुप नहीं बैठी है और कांग्रेस पूरे प्रदेशभर में जन जागरण यात्रा के माध्यम से जनता को सरकार की गलत नीतियों से अवगत करवा रहे हैं। साथ ही सरकार के दुष्प्रचार से भी बचने के लिए लोगों को जागरूक किया जा रहा है। राठौर का कहना है कि पूरे प्रदेश में 22 विधानसभा क्षेत्रों को चुना गया है और जल्द ही जन जागरण अभियान का दूसरा चरण भी शुरू किया जाएगा। कांग्रेस का सदस्यता अभियान भी जोरों शोरों से चल रहा है। भाजपा सरकार की ओर से कर्मचारियों के लिए की जा रही घोषणाओं पर भी कुलदीप राठौर ने तंज कसा है। कुलदीप राठौर का कहना है कि अंतिम वर्ष में सरकार द्वारा कर्मचारियों और दूसरे वर्ग को खुश करने का प्रयास किया जा रहा है, लेकिन प्रदेश की जनता समझदार है और जनता समझती है कि इन घोषणाओं को जमीनी स्तर पर अमल में नहीं लाया जाएगा। यह सिर्फ लोगों को भ्रमित करने के लिए किया जा रहा है। कुलदीप राठौर का कहना है कि कांग्रेस पार्टी के लिए पूरा प्रदेश एक है लेकिन भाजपा ने प्रदेश को बांटने का काम किया है। राठौर का कहना है कि पुलिसकर्मियों के साथ जयराम राज में नाइंसाफी हुई है और सरकार को चाहिए था कि पुलिस की समस्याओं पर गौर किया जाता, क्योंकि इस तरह की घटनाओं से जनता का मनोबल भी गिरता है। Himachal Pradesh News | Himachal Politics
अपनी मांगों को लेकर कई कर्मचारी वर्ग लगातार सरकार से गुहार लगा रहे है। कर्मचारिओं की मांगों को मुद्दा बनाकर विपक्ष भी सरकार को घेरने में लगा है। कांग्रेस के प्रदेश महासचिव केवल सिंह पठानिया का कहना है कि आज प्रदेश के हर वर्ग के कर्मचारी अपने हक की लड़ाई के लिए सड़कों पर उतर आए हैं और प्रदेश सरकार की नजर इन कर्मचारियों पर नहीं बल्कि अपनी नाकामी को छुपाने के लिए पुलिस बल का प्रयोग करके इन कर्मचारियों की आवाज को दबाने में लगी है। केवल सिंह पठानिया का कहना है कि प्रदेश सरकार को प्रदेश के आशा वर्कर, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को सम्मान देना चाहिए था जिन्होंने कोरोना काल में आगे आकर अपने और अपने परिवार को जोखिम में डाल कर जनता की सेवा की थी, लेकिन प्रदेश सरकार ने अपनी घटिया मानसिकता का परिचय देकर सम्मान देने के बजाय लाठियां बरसाई। इस सरकार को अब सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है। पठानिया का कहना है कि सचिवालय के घेराव को पहुंचे भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं को लाठियां खानी पड़ी, मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं के साथ पुलिस कर्मियों ने धक्कामुक्की की और इस दौरान महासंघ के महासचिव और एक महिला आशा वर्कर कार्यकर्ता गंभीर रूप से घायल भी हो गए। प्रदेश के नौजवान बेरोजगारों को भी परीक्षा देने के लिए सरकार की नाकामी से भारी तकलीफों का सामना करना पड़ा। अगर सरकार ने समय रहते इन कर्मचारियों की मांगों पर गौर किया होता तो किसी को भी किसी भी प्रकार की तकलीफ का सामना नहीं करना पड़ता। इस धरने से प्रदेश की आम जनता भी अछूती नहीं रही कही न कही आम जनमानस को भी धरने की वजह से कई लोगों को परेशान होना पड़ा है। केवल सिंह पठानिया का कहना है कि प्रदेश के कर्मचारी वर्ग अपने हक के लिए आवाज उठा रहा है और सरकार पुलिस द्वारा मजदूर संघ के पदाधिकारियों सहित कार्यकर्ताओं पर एफआईआर दर्ज करने में लग गई। एफआईआर तो उन लोगों पर होनी चाहिए जिनके द्वारा ये सब हुआ इसकी जिम्मेवार सरकार में बैठे सीएम, मंत्री और विधायक हैं। himachal Pradesh News | Himachal Politics
जेसीसी बैठक के बाद कांग्रेस (Congress) लगातार जयराम सरकार को कर्मचारी हितैषी न होने का दावा कर रही है। कांग्रेस नेता एवं कर्मचारी कल्याण बोर्ड के पूर्व उपाध्यक्ष ठाकुर सुरिंद्र सिंह मनकोटिया का कहना है कि हाल ही में हुई जेसीसी बैठक (JCC Meeting) का कर्मचारियों को कोई फायदा नहीं हुआ है। जिस छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का ढिंढोरा सरकार द्वारा पीटा जा रहा है, उसमें तो पहले ही पांच साल का विलंब हो चुका है। मनकोटिया ने जयराम सरकार पर आरोप लगाया है कि मुख्यमंत्री की ओर से ओल्ड पेंशन स्कीम को लागू न कर सिर्फ 2009 की नोटिफिकेशन को मानकर कर्मचारियों के हितों के साथ कुठाराघात किया है। 2009 की नोटिफिकेशन तो ओल्ड पेंशन स्कीम का ही एक हिस्सा है। हजारों आउटसोर्स कर्मचारी जो सरकारी कर्मचारी के बराबर काम करते हैं, इसके लिए कोई नीति न लाकर सरकार ने कर्मचारी हितैषी न होने का प्रमाण दिया है। सरकार ने मकान भत्ता, कंपनसेटरी भत्ता, कैपिटल भत्ता, ट्राइबल भत्ता, विंटर भत्ता, दैनिक भत्ता आदि कई भत्तें हैं जो पिछले चार साल से नहीं बढ़े हैं ,उन पर कोई बात न करके कर्मचारियों को निराश किया है। करुणामूल्क आधार पर नौकरी पाने वाले लगभग 4500 युवा लगभग 80 दिन से हड़ताल पर चल रहे हैं, इसके बारे में कोई पॉलिसी न लाकर सरकार बहरी बनी हुई है। सुरिंद्र सिह मनकोटिया का कहना है कि रात दिन लोगों की सुरक्षा व्यवस्था का जिम्मा संभालने वाली पुलिस को सरकार ने इनकी आठ साल की अवधि को दूसरे समकक्ष कर्मचारियों के बराबर कम न करके पुलिस वर्ग में निराशा पैदा की है और यह निराशा पुलिस कर्मियों के मुख्यमंत्री से मिलने से भी झलक रही है। 4-9-14 वर्ष बाद मिलने वाली वेतन वृद्धि जैसी जटिल समस्या को सरकार हल नहीं कर पाई है, जिससे हजारों कर्मचारियों को नुकसान हो रहा है। सुरिंद्र सिह मनकोटिया का कहना है कि सरकार ने होमगार्ड, पैरा पंप आपरेटर, पैराफिटर, सिलाई अध्यापक, पंचायत चौकीदार, एसएमसी टीचर, आंगनबाड़ी वर्कर, आंगनवाड़ी वर्कर्स व हेल्पर, आशा वर्कर, एससीवीटी लैब तकनीशियन, अध्यापक, पीस मील वर्कर्स आदि बहुत सी ऐसी श्रेणियां हैं, जिनके प्रति मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का रवैया उदासीन रहा है, जबकि ये श्रेणियां कई सालों से पिस रही हैं। Himachal Pradesh | Government Employee News | JCC Meeting News Update
उपचुनाव में चारो सीटों पर मिली जीत के बाद प्रदेश में कांग्रेस (Congress) की जन जागरण अभियान के तहत निकाली पदयात्रा को लेकर उद्योग एवं परिवहन मंत्री बिक्रम सिंह ने कांग्रेस पर जुबानी हमला बोला है। बिक्रम सिंह का कहना है कि कांग्रेस ने इस तरह की पदयात्रा यूपी में भी की थी लेकिन वहां पर एक भी सीट कांग्रेस को नहीं मिल पाई थी। हिमाचल में उपचुनाव जीतने के बाद कांग्रेस अति उत्साहित है। बिक्रम सिंह का कहना है कि 2022 के चुनावों में भाजपा सुधार करते हुए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की अगुवाई में सरकार बनाएगी। उपचुनावों में मिली हार से उन्हें सुधार करने का मौका मिला है और वह इसमें निश्चित तौर पर सुधार करेंगे। वहीं बिक्रम सिंह का कहना है कि इन्वैस्टर मीट की ग्राऊंड ब्रेकिंग सेरेमनी को लेकर भी विपक्ष लगातार सवाल उठा रहा है। इन्वैस्टर मीट जैसा इवेंट हिमाचल में इससे पहले हुआ ही नहीं है। उद्योग मंत्री का कहना है कि जो लोग आलोचना कर रहे हैं उनकी सरकार लंबे समय तक प्रदेश में रही हैं, क्या कभी वह इस तरह का इवेंट करवा पाए हैं। आलोचना करने वाले लोग 5 से 10 लोग भी इकट्ठा नहीं कर पाए हैं। विधानसभा में जब सवाल उठाए गए तो तथ्यों के साथ सरकार ने जवाब दिया है कि इन ग्राउंड ब्रेकिंग सेरेमनी से कितने लोगों को लाभ मिला है। बिक्रम सिंह का कहना है कि हिमाचल में पहली बार प्राइवेट सेक्टर में हिमाचल के युवाओं को तवज्जो मिली है। प्रदेश में प्रस्तावित इस ग्राऊंड ब्रेकिंग सेरेमनी में 15000 करोड़ रुपए की इन्वेस्टमेंट होगी। Himachal News | Himachal Politics
2022 विधानसभा चुनाव का काउंटडाउन शुरू हो चुका है और दोनों राजनैतिक दलों के साथ -साथ टिकट के चाहवान भी मैदान में डटे है। यूं तो हर सीट पर रोचक घमासान तय है और अभी से खींचतान भी चरम पर है, पर सोलन निर्वाचन क्षेत्र की कहानी अलग भी है और अजब भी। यहां कांग्रेस के पास 80 पार कर चुके कर्नल का कोई विकल्प नहीं दिखता तो भाजपा के डॉक्टर अपनों के मर्ज का ही सबब बने हुए है। कर्नल के नेतृत्व में कांग्रेस लगातार अच्छा कर रही है, बावजूद इसके उनके विरोधियों की खासी तादाद है। पर वर्तमान में कोई ऐसा नहीं दिखता जो कर्नल के टिकट को चुनौती दे रहा हो। उधर भाजपा में डॉ राजेश कश्यप को अपने ही पूरी तरह नहीं स्वीकार रहे। विरोधी इसी ताक में है कि कोई मौका हाथ लगे और डॉक्टर को चित कर दे। पार्टी इसका खामियाजा भी उठा रही है। सोलन की वर्तमान सियासत को समझने के लिए बीते दो दशक पर नज़र डालना जरूरी है। वर्ष 2000 में सोलन विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ था और उस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी डॉ राजीव बिंदल ने जीत दर्ज की थी। ये पहली बार था जब बिंदल विधानसभा पहुंचे थे, यानी ये प्रदेश की सियासत में बिंदल की एंट्री थी। इसके बाद 2003 और 2007 में भी बिंदल जीते और सोलन निर्वाचन क्षेत्र भाजपा का मजबूत गढ़ बना गया। बिंदल ने आते ही तमाम विरोधी भी साइडलाइन कर दिए और इस दौरान सोलन में कांग्रेस भी कमजोर होती गई। फिर बदले परिसीमन के बाद सोलन निर्वाचन क्षेत्र आरक्षित हो गया और 2012 के विधानसभा चुनाव में बिंदल चेहरा नहीं रहे। बिंदल ने नाहन को कर्मभूमि बनाया और पार्टी ने कुमारी शीला को चेहरा। वहीं कांग्रेस ने दो बार शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद रहे कर्नल धनीराम शांडिल को मैदान में उतारा। नतीजे आये और शांडिल की जीत के साथ ही कांग्रेस ने जीत का सूखा खत्म किया। तब से अब तक सोलन निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा लगातार कमजोर होती दिखी है। बिंदल के बाद जिस एक अदद चेहरे की जरुरत पार्टी को है उसे लेकर अब भी संशय की स्थिति है। 2017 के विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस ने फिर कर्नल धनीराम शांडिल पर भरोसा जताया था तो भाजपा ने आईजीएमसी में बतौर चिकित्सक सेवाएं देते रहे डॉ राजेश कश्यप को मैदान में उतारा। तब कुमारी शीला और तरसेम भारती भी दावेदार थे लेकिन डॉ राजेश कश्यप की पैराशूट लैंडिंग ने सबके अरमानो पर पानी फेर दिया। माना जाता है कि टिकट के लिए उनकी राह प्रशस्त करने में तब डॉ राजीव बिंदल की भी अहम भूमिका रही थी। हालांकि बिंदल के करीबी ही टिकट आवंटन को लेकर नाराज़ थे। खेर नजदीकी मुकाबले में डॉ राजेश कश्यप हार गए और कर्नल धनीराम शांडिल लगातार दूसरी बार विधानसभा पहुंचे। इस चुनाव के बाद सोलन भाजपा में बहुत कुछ बदला और पार्टी दो धड़ों में बंटी दिखी है। चुनाव के बाद कश्यप आहिस्ता-आहिस्ता सोफट गुट के नजदीक हो गए। वहीं महेंद्र नाथ सोफत जिन्हे बिंदल का धुर विरोधी माना जाता है। इसी गुटबाजी का नतीजा है कि इसी वर्ष हुए जिला परिषद और सोलन नगर निगम चुनाव भी भाजपा के लिए प्रतिकूल रहे है और वर्तमान स्थिति में पार्टी के लिए 2022 की राह भी आसान होने वाली नहीं है। शीला और तरसेम, सक्रियता और पकड़ दोनों बढ़ाने होंगे ! भले ही सोलन भाजपा में एक बड़ा तबका डॉ राजेश कश्यप के विरोध में दिख रहा हो लेकिन सवाल ये है कि 2022 में यदि डॉ राजेश कश्यप नहीं तो कौन ? जिला परिषद् चुनाव में सलोगड़ा वार्ड से कुमारी शीला भाजपा उम्मीदवार थी। लगातार तीन चुनाव जीत चुकी कुमारी शीला जीत का चौका लगाने का दावा कर रही थी लेकिन जनता का आशीर्वाद उन्हें नहीं मिला। ये हार कुमारी शीला के लिए बड़ा झटका है। शीला अगर जीत जाती तो 2022 के लिए उनका दावा भी मजबूत होता, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। शीला अधिक सक्रीय भी नहीं दिख रही है। ऐसी ही स्थिति 2017 तक पार्टी में प्रो एक्टिव दिखते रहे तरसेम भारती की है। पहले ख़राब स्वास्थ्य ने तरसेम को सक्रिय राजनीति से दूर रखा। अब भी वे अधिक सक्रिय नहीं दिखते और न ही पार्टी के जमीनी संगठन में उनकी स्वीकार्यता और पकड़ दिखती है। इन दोनों नेताओं को यदि 2022 के लिए अपना दावा मजबूत करना है तो सक्रियता भी बढ़ानी होगी और दमखम भी दिखाना होगा। वर्तमान स्थिति में तो ये डॉ राजेश कश्यप को ज्यादा टक्कर देते नहीं दिखते। क्या दो भाइयों में होगा टिकट के लिए मुकाबला ? भाजपा के सामने एक अन्य विकल्प पूर्व सांसद वीरेंद्र कश्यप भी हो सकते है। कश्यप दो बार शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद रहे है। रोचक बात ये है कि डॉ राजेश कश्यप और वीरेंद्र कश्यप भाई है। पर वीरेंद्र कश्यप 2019 लोकसभा चुनाव में टिकट कटने के बाद से ही लगभग साइलेंट है। जानकार मानते है कि सियासत महाठगिनी है और 2022 में टिकट के लिए दो भाई भी अगर दौड़ में दिखे तो शायद किसी को हैरानी न हो। कश्यप फेस, पर तालमेल बैठाने में फेल सोलन की सियासत में फिलवक्त डॉ राजेश कश्यप ही भाजपा का प्राइम फेस है। सरकार में कामकाज करवाने का रसूख कश्यप का ही माना जाता है लेकिन जमीनी संगठन में ही उन्हें लेकर स्वीकार्यता नहीं दिखती। दरअसल भाजपा के संगठन में बिंदल के निष्ठावानों की भरमार है। ऐसे में डॉ कश्यप के साथ संगठन पूरी तरह कदमताल करता नहीं दिखता। वहीँ कश्यप भी अब तक संगठन में उस तरह की जमीनी पैठ नहीं बना पाए जैसी समर्थकों को उनसे उम्मीद थी। इसी तालमेल की कमी का खामियाजा पार्टी जिला परिषद और नगर निगम चुनाव में भुगत चुकी है। हालात नहीं बदले तो निजी तौर पर डॉ राजेश कश्यप के लिए भी आगे की राह बेहद मुश्किल होगी। शांडिल का विकल्प नहीं 81 पार कर चुके डॉ कर्नल धनीराम शांडिल इस वक्त सोलन कांग्रेस का सबसे बड़ा और मजबूत चेहरा है। 2012 में शांडिल ने ही सोलन में कांग्रेस की वापसी करवाई थी और अब भी वे ही सोलन निर्वाचन क्षेत्र में एकछत्र नेता है। 2022 में भी संभवतः शांडिल ही कांग्रेस का चेहरा होंगे क्यों कि उनका विकल्प पार्टी के पास नहीं दिखता। वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे शांडिल को गांधी परिवार का करीबी माना जाता है और यदि पार्टी की सत्ता वापसी होती है तो उन्हें कोई महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी भी दी जा सकती है। पर ये जहन में रखना भी जरूरी है कि 2022 विधानसभा चुनाव के वक्त शांडिल की उम्र 82 पार होगी और उनका विकल्प न होना पार्टी के अच्छी स्थिति नहीं है। गिले शिकवे मिटाकर होगी राह आसान वीरभद्र सरकार में मंत्री रहते हुए कर्नल धनीराम शांडिल ने साढ़े चार सौ करोड़ से अधिक के काम करवाए थे, हालांकि इसके बावजूद शांडिल प्रभावशाली जीत दर्ज नहीं कर सके। कई मौकों पर शांडिल पार्टी के एक गुट पर 2017 में उनके विरोध में काम करने की बात कह चुके है। जिला परिषद् चुनाव में सिरिनगर वार्ड के टिकट के लिए वरिष्ठ नेता रमेश ठाकुर और कर्नल में खुलकर ठनी और उस दौरान शांडिल ने रमेश ठाकुर की पत्नी लीला देवी का टिकट कटवाया। बावजूद इसके लीला देवी जीत दर्ज करने में कामयाब रही। रमेश ठाकुर पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के करीबी मानते जाते है, पर अब वीरभद्र सिंह के निधन के बाद बदली स्तिथि में राजनैतिक समीकरण भी बदल सकते है। कंडाघाट ब्लॉक में ठाकुर का अच्छा प्रभाव है और 2022 में यदि पार्टी को बेहतर करना है तो कर्नल और ठाकुर को साथ आना होगा। बेदाग़ भी और गुटबाजी से भी दूर है शांडिल डॉ कर्नल धनीराम शांडिल, हिमाचल की सियासत का वो बेदाग़ नाम जिस पर विरोधी भी कभी कीचड़ नहीं उछाल पाएं। वीरभद्र सरकार के खिलाफ वर्ष 2016 में भाजपा एक चार्जशीट लाई जिसमे कांग्रेस के मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप थे। तब भाजपा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह, बेटे विक्रमादित्य सिंह, प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू, 10 मंत्रियों, 6 सीपीएस और 10 बोर्ड-निगम-बैंकों के अध्यक्ष-उपाध्यक्षों समेत कुल 40 नेताओं और एक अफसर पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे। पर उस चार्जशीट में भी कर्नल धनीराम शांडिल का नाम नहीं था। यानी विपक्ष भी कभी उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा पाया। एक बात और कर्नल शांडिल की खूबी है, वो है उनकी गुटबाजी से दुरी। प्रदेश कांग्रेस में कई धड़े है, पर शांडिल किसी भी गुट में शामिल नहीं है। ऐसे में शांडिल से पार पाने को भाजपा को संगठित भी होना होगा और पूरी ताकत भी झोंकनी होगी। Himachal Pradesh | Solan News | Himachal Politics
इशारों इशारों में एलान हो चूका है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर 2022 विधानसभा चुनाव के समर में उतरने को तैयार है। राठौर अपनी सियासी जमीन तलाशने में जुटे है और दो निर्वाचन हलकों में उनके चुनाव लड़ने की चर्चा जोरों पर है, पहला ठियोग और दूसरा शिमला शहरी सीट। विरोधी कभी मजबूर कहकर जिन कुलदीप राठौर का उपहास उड़ाते थे वो अब बेहद मजबूत दिख रहे है। चुनाव लड़ने के सवाल पर कुलदीप कहते है कि जिस सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी की जमानत जब्त हुई थी वहां से ही चुनाव लड़ेंगे। अब दिलचस्प बात ये है कि 2017 में ठियोग और शिमला शहर, दोनों जगह कांग्रेस की जमानत जब्त हुई थी। ठियोग से कांग्रेस प्रत्याशी दीपक राठौर, तो शिमला शहर से हरभजन सिंह भज्जी की जमानत जब्त हुई थी। यानी राठौर ने दोनों विकल्प खुले रखे है। ठियोग विधानसभा क्षेत्र कांग्रेस की कद्दावर नेता विद्या स्टोक्स का चुनावी क्षेत्र रहा है। पर पिछले चुनाव में पार्टी आलाकमान ने यहाँ से मैडम स्टोक्स का टिकट काटकर दीपक राठौर को उम्मीदवार बनाया था। कहते है राठौर पार्टी आलकमान के नजदीकी है जिसके बुते ही उन्हें टिकट मिला था। तब दीपक राठौर टिकट तो ले आये पर जीत नहीं सके। ख़ास बात ये है की उस चुनाव में राठौर की जमानत जब्त हुई थी। ठियोग की जनता ने कम्युनिस्ट राकेश सिंघा को अपना विधायक चुना था। हालांकि राठौर पिछले चुनाव हारने के बाद से ही क्षेत्र में सक्रिय जरूर है। पर यदि कुलदीप सिंह राठौर ठियोग से चुनाव लड़ने का मन बनाते है तो दीपक राठौर को दूसरा मौका मिलना मुश्किल होगा। पर यहाँ कुलदीप राठौर को ये भी जहन में रखना होगा कि यदि माकपा विधायक राकेश सिंघा फिर से मैदान में उतरते है तो मुकाबला आसान नहीं होने वाला। जानकार मान कर चल रहे है कि सिंघा के अगले कदम पर ही कुलदीप की चुनावी चाल निर्भर करेगी। शिमला शहर की बात करें यहां पिछले चुनाव में पार्टी ने हरीश जनारथा की दावेदारी को नकार हरभजन सिंह भज्जी को टिकट दिया था। नतीजन पार्टी के एक गुट में नाराजगी थी और भज्जी की जमानत भी नहीं बच सकी। अब भी शिमला शहर में कांग्रेस कई गुटों में बंटी है और ये अंतर्कलह शिमला शहर में पार्टी का पुराना मर्ज रहा है। शिमला शहर में बीते कई चुनाव में कांग्रेस के अपने ही बतौर बागी पार्टी प्रत्याशी का खेल बिगाड़ते आ आ रहे है। ऐसे में राठौर के लिए भी शिमला शहर आसान सीट नहीं रहने वाली। हाँ टिकट के लिए उनका दावा जरूर मजबूत रहेगा क्यों की बतौर प्रदेश अध्यक्ष उनके योगदान के बुते उनका सियासी कद निसंदेह बढ़ा है। Himachal Politics | Shimla News | Theog News |
कौन डटा रहेगा और किसे कुर्सी का मोह त्याग आगे बढ़ना होगा कुछ कह नहीं सकते। पर बदलाव होगा ये निश्चित है। स्वयं मुख्यमंत्री भी ये कह चुके है कि उपचुनाव की उस करारी शिकस्त के बाद अब वो होगा जो मंज़ूर-ए-आलाकमान होगा। कयासों की सुई अब संगठन और मंत्रिमंडल पर आकर टिक गई है। हालांकि कौन रहेगा और किसकी विदाई होगी अभी कुछ कह नहीं सकते। नगर निगम चुनाव और उपचुनाव में मिली हार के बाद, प्रेशर पॉलिटिक्स का दंश झेल रही भाजपा और भी कई मुसीबतों से गुज़र रही है। पार्टी विद डिसिप्लिन में व्यापक बदलाव की दरकार भी है और सुगबुगाहट भी। पहले तो मुख्यमंत्री तक बदलने के कयास लग रहे थे मगर अब माहौल थोड़ा ठंडा है तो ऐसा कुछ होता नहीं दिखाई दे रहा। पर मंत्रिमंडल के नॉन परफार्मिंग मंत्रियो पर अब भी बदलाव की तलवार लटक रही है। इस पर मुख्यमंत्री का दिल्ली दौरा भी खूब चर्चा में है। प्रदेश मंत्रिमंडल के कई मंत्री ऐसे है जो खुद को साबित करने में विफल रहे है। कई मौकों के बावजूद भी जो न तो अपना दमखम दिखा पाए और न ही अपनी साख बचा पाए। कई अपने शब्दों को लेकर विवादों में रहते है और कई अपने बर्ताव को लेकर। उपचुनाव में पार्टी ने जल शक्ति मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर को मंडी संसदीय सीट के लिए, बिक्रम ठाकुर को फतेहपुर के लिए, और मंत्री सुरेश भारद्वाज को जुब्बल कोटखाई उपचुनाव के लिए प्रभारी नियुक्त किया था। इनके आलावा मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर और मंत्री राम लाल मारकंडा पर भी अपने -अपने क्षेत्रों से लीड दिलवाने का जिम्मा था। पर ये सभी असफल रहे। हार मिली या जीत कम से कम उपचुनाव में ये मंत्री फील्ड पर दिख रहे थे। इनके अलावा कुछ ऐसे मंत्री भी है जिनका उपचुनाव के दौरान कोई ख़ास प्रभाव देखने को नहीं मिला। जैसे की मंत्री राजेंदर गर्ग, सरवीण चौधरी, और मंत्री सुखराम चौधरी। भाजपा की तीन दिवसीय कार्यसमिति की बैठक के बाद ये तर्क दिया गया भाजपा के कार्यकर्ता व नेताओं में अतिआत्मविश्वास था और इसीलिए भाजपा उपचुनाव हारी। हालाँकि असल में आत्मविश्वास वाली स्थिति भी सिर्फ मंडी में देखने को मिल रही थी। लग रहा था मानों कार्यकर्ताओं को केवल मुख्यमंत्री पर भरोसा है। परिणाम भी कुछ ऐसे ही बाहर आए। शिक्षा मंत्री गोविंद ठाकुर के जिला कुल्लू की चारों सीटों पर भाजपा पिछड़ी। मंत्री के अपने निर्वाचन क्षेत्र में भी पार्टी को लीड नहीं मिली। यानि मंडी संसदीय उपचुनाव के इम्तिहान में गोविन्द सिंह ठाकुर पूरी तरह फेल हो गए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि मंत्री के जिला में पार्टी अच्छा करती तो जीत हार का अंतर खत्म किया जा सकता था। तकनीकी शिक्षा मंत्री डा. रामलाल मारकंडा के क्षेत्र में भी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। मंत्री अपने हलके व गृह जिले में भाजपा की साख नहीं बचा पाए। लाहौल स्पीति में कांग्रेस प्रत्याशी को बढ़त मिली। लाहुल स्पीति के विधायक एवं तकनीकी शिक्षा मंत्री डा. रामलाल मारकंडा जिला परिषद के चुनाव में भी कुछ अच्छा नहीं कर पाए थे। जिला परिषद् के चुनाव में भी भाजपा को हार मिली थी। इस पर मंत्री का लड़ाई वाला वायरल वीडियो भी एक ऐड ऑन फैक्टर है। बात विवादों की हो तो ज़िक्र मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर और मंत्री सुरेश भारद्वाज का भी ज़रूरी है। अपने बयानों को लेकर दोनों ही खूब चर्चा में रहते है। मंत्री महेंद्र ठाकुर को मंडी संसदीय उपचुनाव का प्रभारी बनाया गया था। पर वे भी चुनाव प्रचार प्रसार में अधिक प्रभावशाली नहीं दिखे। वहीं मंत्री सुरेश भारद्वाज के हलके में जो हुआ उसे तो भूलना भी असंभव है। जुब्बल कोटखाई की हार को भाजपा के इतिहास का काला अध्याय कहा गया। यहां देश की सबसे बड़ी पार्टी के प्रत्याशी की जमानत जब्त हो गई। यहां संगठन भी टूटा और कार्यकर्त्ता भी पार्टी से रूठ गया। स्थिति सुधरने के बजाए दिन प्रति दिन बिगड़ती चली गई। चुनाव प्रभारी सुरेश भारद्वाज अपने कार्यकर्ताओं को मनाने में पूरी तरह विफल रहे और नतीजा अब सभी के सामने है। फतेहपुर के चुनाव प्रभारी, उद्योग मंत्री बिक्रम सिंह ठाकुर व सेह प्रभारी वन मंत्री राकेश पठानिया ने भी फेल हुए है। विशेषकर बिक्रम ठाकुर के लिए ये बड़ी हार है। इससे पहले पालमपुर नगर निगम चुनाव में भी मंत्री प्रभारी थे और भाजपा को करारी शिकस्त मिली थी। अब इन मंत्रियों के रिपोर्ट कार्ड पर क्या रिपोर्ट आती है इसपर सबकी निगाहें टिकी हुई है। बिंदल की वापसी के पक्ष में एक तबका कई मंत्रियों के एग्ज़िट के साथ साथ कुछ की मंत्रिमण्डल में एंट्री होने की सुगबुगाहट भी है। एक बड़ा तबका चाहता है कि भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व नाहन से विधायक डॉ राजीव बिंदल ककी संगठन या मंत्रिमंडल में वापसी हो। इसको लेकर प्रेशर पॉलिटिक्स की शुरुआत भी हो चुकी है। बिंदल के समर्थकों के इस्तीफे आना भी शुरू हुए है। ये सच है कि बिंदल भी बतौर प्रभारी अर्की उपचुनाव और सोलन नगरनिगम चुनाव में अच्छा नहीं कर पाए पर उनकी ज़मीनी पकड़ पर कोई संशय नहीं है और उनके समर्थकों का दबाव तो है ही। अब बिंदल की एंट्री होती है तो किसके स्थान पर होगी ये बड़ा सवाल है और अगर नहीं होती तो उन्हें मैनेज कैसे किया जाए ये भी बड़ा सवाल है। | Himachal Politics | Himachal News
2017 में फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा नेता बलदेव ठाकुर ने बगावत का बिगुल फूंका और चुनाव लड़ा। जैसा स्वाभाविक तौर पर होता है पार्टी ने उन्हें निष्कासित कर दिया। उस चुनाव में न तो बलदेव खुद जीते और न भाजपा को जीतने दिया। इसके बाद फिर वैसा ही हुआ जैसा सियासत में आम तौर पर होता है, यानी बलदेव की घर वापसी हो गई। हालहीं में उपचुनाव हुए और 2017 में जिन बलदेव ने पार्टी के समीकऱण बिगाड़े थे उन्हें ही पार्टी ने टिकट दे दिया। जाहिर है पार्टी को बलदेव जिताऊ दिख रहे थे। यानी सियासत में कुछ भी मुमकिन है। यहाँ निष्कासन के क्या मायने होते है ये फतेहपुर के इस प्रकरण से पता चलता है। अब बात करते है भाजपा के ताजा निष्कासन की, मतलब चेतन बरागटा की। हाल ही में हुए जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में भाजपा ने चेतन का टिकट काटा, फिर चेतन ने बगावत की, पार्टी ने निष्कासित किया और दोनों हार गए। सबकुछ ठीक वैसा ही हुआ जैसा 2017 में फतेहपुर में हुआ था, बस अंतर ये है कि तब फतहेपुर में भाजपा लड़ कर हारी थी और जुब्बल कोटखाई में तो मानो भाजपा थी ही नहीं। अब इसके आगे भी शायद वो ही हो जो फतेहपुर में हुआ, यानी घर वापसी। जानकार चेतन बरागटा की जल्द घर वापसी तय मानकर चल रहे है, बस देखना ये है कि ये घर वापसी कब होती है या नहीं होती। हाल ही में हुए उपचुनाव में यूँ तो भाजपा सभी जगह परास्त हुई लेकिन सबसे बुरी स्थिति पार्टी के लिए जुब्बल - कोटखाई में रही। यहां पार्टी की जमानत जब्त हुई। पार्टी के हर मंथन में यहाँ टिकट आवंटन को लेकर सवाल उठे है। कहने को तो पार्टी ने करीब डेढ़ दशक से पार्टी से जुड़े नेता चेतन बरागटा के टिकट काटने का कारण परिवारवाद को बताया था, लेकिन ये तर्क किसी के गले से नहीं उतरा। ऐसा इसलिए क्यों कि चेतन ऐसे पहले नेता पुत्र नहीं है जो भाजपा में टिकट मांगने वालों में शामिल हो। भाजपा में ऐसे कई उदहारण है। चेतन तो पैराशूट से टिकट लेने भी नहीं आये थे, फिर उन्हें टिकट देने में क्या आपत्ति थी ? ये सवाल भाजपा के कार्यकर्ताओं के मन में भी था और अब भी है। इसी के चलते भाजपा का एक बड़ा तबका चेतन के समर्थन में था, जिसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा। इस दौरान पार्टी ने चेतन और उनके समर्थकों को 6 वर्ष के लिए निष्कासित कर दिया था। पार्टी के आला नेताओं के बयान भी आये जिनमें कहा गया कि ये निष्कासन वापस नहीं होगा। पर जानकार मान कर चल रहे है कि 2022 से पहले पार्टी में चेतन की वापसी तय सी है। वापसी होनी है तो देर नहीं करनी चाहिए ! बताया जा रहा है कि हार के बाद पार्टी के ज़ारी चिंतन - मंथन में जुब्बल कोटखाई में टिकट वितरण को हार का बड़ा कारण माना गया है, यानी पार्टी ने चेतन का टिकट काटकर चूक की है। अब जब 2022 का काउंटडाउन शुरू हो चूका है, ऐसे में पार्टी का एक वर्ग चेतन की जल्द वापसी का हिमायती बताया जा रहा है। 68 विधानसभा सीटों वाले हिमाचल प्रदेश में एक -एक सीट बेहद महत्वपूर्ण ही और ऐसे में पार्टी को जल्द तय करना होगा की चेतन की वापसी होगी या नहीं। यदि 'पार्टी विथ डिफ्रेंस' भाजपा 6 साल के लिए अपने दरवाजे चेतन के लिए बंद कर चुकी है तो भाजपा को अभी से 2022 के लिए जुब्बल कोटखाई में अपनी जमीन तैयार करनी होगी, ताकि उपचुनाव जैसी स्थिति टाली जा सके। पार्टी को जहन में रखना होगा कि उक्त क्षेत्र में कांग्रेस जमीनी तौर पर काफी मजबूत है, ऐसे में देरी उचित नहीं।
उपचुनाव में टिकट कटने के बाद खफा -खफा से दिखते रहे कांग्रेस नेता और भाजपा विधायक अनिल शर्मा के बेटे आश्रय शर्मा ने हाल ही गुपचुप सीएम जयराम ठाकुर से मुलाकात की है। इस मुलाक़ात के सियासी माहिर कई मायनें निकाल रहे है। अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहा पंडित सुखराम का परिवार आखिर किसकी तरफ है, ये काफी लम्बे समय से बड़ा सवाल बना हुआ है। उपचुनाव के दौरान भी अनिल और आश्रय के दो अलग पार्टियों में होने से ये बिलकुल भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा था कि आखिर पंडित सुखराम का निष्ठावान वोट किस प्रत्याशी की ओर जाएगा। भाजपा से विधायक अनिल शर्मा जहां उपचुनाव में भाजपा के प्रचार प्रसार नहीं कर रहे थे तो वहीं आश्रय जरूर प्रतिभा सिंह के लिए औपचारिक प्रचार प्रसार करते नज़र आए थे। अब आश्रय की मुख्यमंत्री के साथ मुलाक़ात चर्चा में है और अंदरखाते क्या चल रहा है कुछ कहा नहीं जा सकता। 2017 में पंडित सुखराम के परिवार ने भाजपा का दामन थामा था, पर फिर 2019 में पंडित सुखराम और आश्रय शर्मा कांग्रेस में लौट गए। वहीँ अनिल शर्मा भाजपा में तो है लेकिन लगातार नज़रअंदाजी का दंश झेल रहे है। हालांकि आश्रय शर्मा की भी कांग्रेस में ज्यादा सहज नहीं दिखते। यानी दो अलग -अलगे सियासी नावों में सवार ये परिवार लगभग हाशिए पर है। बीते दिनों अनिल शर्मा भी कह चुके है कि अब बाप -बेटा दोनों एक ही पार्टी में रहेंगे जिसके बाद से ही सबको इस परिवार के अगले कदम का इंतज़ार है। मंडी लोकसभा के उपचुनाव के लिए आश्रय लगातार कांग्रेस से टिकट मांगते रहे। उनके दादा पंडित सुखराम का भी यही मानना था कि टिकट के असली हकदार आश्रय ही है। पर जैसा लग रहा था वैसा ही हुआ और कांग्रेस ने आश्रय को टिकट ना देकर पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह को टिकट दिया। हालाँकि इसके बाद उन्हें कांग्रेस द्वारा उपचुनावों के लिए प्रयवेक्षक नियुक्त किया गया। आश्रय ने प्रतिभा के लिए वोट मांगें ज़रूर मगर वो उपचुनावों में उतना एक्टिव नहीं दिखे। इस उपचुनाव में सदर मंडी से विधायक अनिल शर्मा के क्षेत्र से भाजपा को लीड मिली है। अनिल ने न तो भाजपा प्रत्याशी के लिए प्रचार किया और न ही वो मैदान में उतरे, बावजूद इसके उनके क्षेत्र से भाजपा के प्रत्याशी को करीब तीन हज़ार की बढ़त मिली। जबकि मंडी संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले दो मंत्रियों के गृहक्षेत्रों से भाजपा को लीड़ नहीं मिली है। चुनाव के दौरान अनिल शर्मा को भी सीएम जयराम ठाकुर ने पार्टी के लिए काम करने के लिए कहा था और उनके मान सम्मान को बरकरार रखने की बात कही थी। अब उपचुनाव के बाद आश्रय शर्मा के सीएम जयराम ठाकुर से मिलने के बाद कई कयास लग रहे है। हालांकि आश्रय इसे शिष्टाचार भेंट बता रहे है। बहरहाल ये तथाकथित शिष्टाचार भेंट भविष्य में क्या रंग लाती है, इसको लेकर चर्चा होना तो लाज़मी है।
वो दो नेता जो निष्ठावान सिपाही बने, पार्टी का झंडा तो बुलंद करते रहे मगर उनके मुताबिक़ बीते कुछ समय में उन्हें न तो मान मिला, न सम्मान। नौबत यहां तक आ गई कि दोनों को अपने पदों से इस्तीफे देने पड़े। हम बात कर रहे है भाजपा के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष कृपाल परमार व पूर्व कार्यसमिति सदस्य पवन गुप्ता की। गुप्ता को डॉ राजीव बिंदल का करीबी माना जाता है और वे हालहीं में अनियमितताओ के चलते सुर्ख़ियों में आएं बघाट अर्बन कोआपरेटिव बैंक के चेयरमैन भी रहे है। इन दो नेताओं के इस्तीफों ने कहीं न कहीं ये साफ़ कर दिया कि भाजपा में कुछ ठीक नहीं चल रहा। हालांकि इनके इस्तीफे स्वीकार नहीं हुए और बाद में कृपाल परमार ने तो इस्तीफा वापस भी लिया और 26 नवंबर को कार्यसमिति की बैठक में शामिल भी हुए। दरअसल 2017 विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने से पश्चात ही कई भाजपाइयों के दिन फिर गए थे, तो कई हाशिये पर चले गए। अब तक तो ये नेता चुप्पी साधे हुए थे, मगर अब 2022 के नजदीक आते आते सब्र का बाँध टूटने लगा है, ये इन इस्तीफों से साफ़ दिखाई दे रहा है। इन दोनों नेताओं के इस्तीफों का कारण भी कुछ एक सा ही है। दोनों ने ही नज़रअंदाज़ किये जाने की बात कही। वहीं व्यापक तौर पर देखा जाएँ तो इन इस्तीफों के पीछे उपेक्षा तो बड़ा कारण माना जा रहा है, इसे प्रेशर पॉलिटिक्स के पैंतरे के तौर पर भी देखा जा रहा है। दरअसल उपचुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद जयराम सरकार और प्रदेश संगठन के खिलाफ विरोधियों को हमलावर होने का मौका मिला है। प्रेशर पॉलिटिक्स की बिसात पर स्पष्ट सन्देश दिया गया है कि एक वर्ग को उपेक्षित रखकर मिशन रिपीट का स्वपन साकार नहीं हो सकता। इस्तीफे के कारणों पर फर्स्ट वर्डिक्ट मीडिया ने इन दोनों से बातचीत की। कृपाल परमार के अनुसार उन्हें प्रायोजित तरीके से प्रताड़ित करवाया गया। तो पवन गुप्ता के अनुसार अफसरशाही सरकार पर हावी है और भ्रष्टचारियों को पनाह दे रही है। पेश है बातचीत के कुछ मुख्य अंश.... मैं प्रताड़ित होता रहा और मूकदर्शक बनें रहे संगठन और सरकार के मुखिया : परमार सवाल : इतने लम्बे समय से पार्टी के निष्ठावान सिपाही आप रहे है, अब अचानक ये इस्तीफा क्यों ? जवाब : पार्टी का निष्ठावान सिपाही होने के बावजूद लगातार मुझे प्रताड़ित किया जा रहा था, संगठन द्वारा भी और सरकार द्वारा भी। मैंने अपनी भावनाओं को, अपनी बात को पार्टी के हर स्तर पर रखने की कोशिश की, पर उसका कोई समाधान नहीं निकला। छोटे- मोटे कार्यकर्ताओं द्वारा भी विभिन्न तरीकों से मुझे प्रताड़ित करवाया गया। मैंने चीज़ें ठीक करने की बहुत कोशिश की, अंत तक चुप चाप सहता रहा पर जब चीज़ें नियंत्रण से बाहर हो गई तो मुझे ये इस्तीफ़ा देना पड़ा। सवाल : आप कह रहे है कि आपकी प्रताड़ना हुई, आपको ज़लील किया गया, ऐसे क्या वाक्य हुए जो आज आपको ये कहना पड़ रहा है ? जवाब : पार्टी के कुछ नेताओं द्वारा बहुत सुनियोजित तरीके से बनाई गई रणनीति के तहत कुछ लोगों को हमारे पीछे लगा दिया गया। ऐसे लोग मेरे फेसबुक पर गलत और अभद्र कमैंट्स करते थे। मेरे साथ बुरा बर्ताव करते थे। मैंने कई बार पार्टी से उनकी शिकायत की लेकिन पार्टी खुद ही उन्हें प्रोटेक्ट करती रही। उनके खिलाफ कार्रवाई करना तो दूर उन लोगों को पार्टी में प्रमोशन दिए गए। सवाल : हाल ही में हुए उपचुनाव में जिस तरह से आपका टिकट काटा गया या उसके अलावा जो भी आपके साथ हुआ इसका ज़िम्मेदार आप किसे मानते है ? क्या कोई व्यक्ति विशेष इसका ज़िम्मेदार है ? जवाब : मैं पिछले 35 सालों से पार्टी के लिए काम कर रहा हूँ। 1982 से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से मैं जुड़ा रहा हूँ। इसके बाद भाजपा युवा मोर्चा में मैने अपनी सेवाएं दी है और पिछले 22 -23 साल से में प्रदेश भाजपा का पदाधिकारी हूँ। 3 बार मैं प्रदेश का महामंत्री रहा हूँ और अभी प्रदेश का उपाध्यक्ष था। किसान मोर्चा का भी मैं राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रह चुका हूँ। राज्यसभा का सांसद भी मैं रह चूका हूँ। पार्टी का ऐसा कोई कार्य नहीं है जो मैंने नहीं किया परन्तु फिर भी मेरी अनदेखी हुई। इस सब के पीछे कई लोगों की मिली भगत है, ये सिर्फ किसी एक व्यक्ति का काम नहीं है। सवाल : आपने ऐसे वक्त पर इस्तीफ़ा दिया जब प्रदेश में कार्यसमिति की बैठक होने वाली थी। ऐसा क्यों ? जवाब : 2017 में मैंने फतेहपुर से चुनाव लड़ा। कुछ लोग नहीं चाहते थे की मैं ये चुनाव लड़ूँ। कहीं न कहीं मैं उन लोगों के लिए बड़ी समस्या बना हुआ था। हमारी रैलियों को जान बुझ कर खराब करने की कोशिश की गई। फिर एक कार्यकर्त्ता द्वारा हमें ज़लील करवाया गया, एक मंत्री ने हमारी प्रताड़ना की। ये सभी चीज़ें हमने सरकार और संगठन के सामने रखी, परन्तु फिर भी सरकार का मुखिया और संगठन का मुखिया मूकदर्शक बन कर देखते रहे। मेरे इस्तीफे की टाइमिंग प्लैन्ड नहीं थी, जब स्थिति बर्दाश्त के बाहर हो गई तो हमें इस्तीफ़ा देना पड़ा। सवाल : आपको पूर्व मुख्यमंत्री प्रो. प्रेम कुमार धूमल का करीबी माना जाता है, आपके अलावा एक अन्य कार्यसमिति के सदस्य ने भी इस्तीफ़ा दिया है। भाजपा में ये इस्तीफ़ा पॉलिटिक्स क्या किसी पोलिटिकल स्ट्रेटेजी के तहत शुरू हुई है ? जवाब : देखिये मैंने धूमल जी के साथ भी काम किया है और शांता जी के साथ भी। मैंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत जगत प्रकाश नड्डा जी के साथ की है और केंद्र में मैंने नरेंद्र मोदी जी के साथ भी काम किया है। मैं काम करने वाला कार्यकर्ता हूँ, मैं सभी का करीबी हूँ किसी एक का नहीं। ये इस्तीफ़ा मेरा व्यक्तिगत इस्तीफ़ा है, इससे किसी और का कोई भी लेना देना नहीं है। भ्रष्टाचारियों को पनाह दे रही अफसरशाही : पवन गुप्ता सवाल - आपने हाल ही में पद से इस्तीफा दिया, क्या कारण रहे? जवाब - मैं चालीस सालों से भारतीय जनता पार्टी का सच्चा सिपाही रहा हूँ। पार्टी की नींव मजबूत करने के लिए मैंने जितना हो सकता था उतना प्रयास किया। मैं नगर परिषद सोलन में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद पर भी रह चुका हूँ और इसके अलावा 15 साल तक बघाट अर्बन कोऑपरेटिव बैंक के चेयरमैन पद पर भी रह चुका हूँ। मैं भाजपा कार्यकारी समिति का सदस्य व जिला सिरमौर का प्रभारी भी था। किन्तु बीते छह माह से यह महसूस हो रहा था कि जो अफसरशाही है वो सरकार पर हावी हो गयी है। मैं पुनः ध्यान में लाना चाहता हूँ कि हमने कुछ भ्रष्टचारियों के चेहरे बेनकाब करने के लिए जाँच करवा के जाँच रिपोर्ट सबमिट कर दी और उनको ससपेंड भी कर दिया था, लेकिन तीन दिन के अंदर उन्हें किसी वजह से रिवॉक किया गया। खैर, हम इस मामले को हाई कोर्ट ले गए, हाई कोर्ट में मामला लंबित है और यह छठीं मर्तबा है जब हमें कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। यदि सरकार मदद करती तो आज हमे कोर्ट जाने की नौबत नहीं आती। इसके अलावा मैं बताना चाहूंगा कि सीएमओ ऑफिस में भी एक उच्च अधिकारी है जिसने दोषियों को बचाने का पूरा प्रयास किया है। मुझे दुखी मन से यह कहना पड़ रहा है कि जिस मामले को हमने सरकार व संगठन के सामने उजागर किया हमे वहाँ से भी कोई सहयोग नहीं मिला। अफसरशाही हावी हुई और मेरा बैंक चुनाव के नामकंन को भी रद्द कर दिया गया। मुझे हर सम्भव नीचा दिखाने का प्रयास किया जा रहा था। यही कारण है कि इस प्रताड़ना को मैं सहन नहीं कर पाया और अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। सवाल- क्या आपके कहने का यह तात्पर्य है कि सरकार दोषियों को पनाह दे रही है ? जवाब - दोषियों को अफसरशाही पनाह दे रही है। बस यह बात सही है कि संगठन व सरकार को हर बात मालूम है, इसके बाद भी आज कोई कार्यवाही सही तरीके से अमल में नहीं लायी गयी। इतनी बार बैंक से जुड़े इस मामले को उठाने के बाद भी कोई सहायता नहीं की गयी और दोषी व अफसरशाही अपने गलत मंसूबे पर कामयाब हुए। लेकिन मामला हाई कोर्ट में है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि बैंक के हित में ही फैंसला आएगा। सवाल- आप अफसरशाहों पर आरोप लगा रहें है। क्या आपको लगता है कि सरकार की अफसरों पर पकड़ नहीं है ? जवाब - मैं आज खुद को बहुत असहाय महसूस कर रहा हूँ। जब करप्शन बढ़ता है तो उसके जड़ें भी कई जगह तक जाती है और उसके सामने जो लोग ईमानदार होते है वो बोने हो जाते है, मैं इतना ही कहना चाहूंगा। सवाल - आप डॉ राजीव बिंदल को अपना गुरु मानते है, इस्तीफे से पहले क्या आपने उनसे मशवरा लिया था ? जवाब- डॉ बिंदल मेरे सहपाठी है और मेरे गुरु भी। डॉ बिंदल हर छोटे बड़े कार्यकर्ता से सीधा संवाद करते है। वो कद्दावर नेता है और वो प्रदेश स्तर के नेता है। मुझे लगता है कि मुझ जैसे छोटे से कार्यकर्ता को अपनी हर छोटी बड़ी बात उनसे साँझा करना पड़े, यह शोभा नहीं देता और यह जो इस्तीफे का कारण है यह मेरे दिल को लगी ठेस का नतीजा है। इसलिए इस मामले में मैंने अपनी गरिमा की लड़ाई खुद लड़ना उचित समझा। मुझे पद की लालसा नहीं है, मैं भाजपा का सच्चा सिपाही हूँ और पार्टी को मजबूत करने के लिए हमेशा आगे रहूँगा।
किन्नौर के विधायक जगत सिंह नेगी ने जयराम सरकार पर आरोप लगाए है। जगत सिंह नेगी का कहना है कि जयराम सरकार द्वारा पिछले चार सालों में प्रदेश में ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया गया है जिससे कि प्रदेश के लोग इस सरकार को याद करे। जगत सिंह नेगी का कहना है कि इससे पहले जो भी प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं उनको लोग कुछ अच्छे कार्यों के लिए याद करते हैं और ये एक ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने प्रदेश के साथ साथ जनजातीय क्षेत्र के विकास के लिए कुछ भी कार्य नहीं किया है। उनका कहना है कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का नाम काले अक्षरों में लिखा जाएगा, उन्होंने जब भी किन्नौर जिले का दौरा किया तो वो हेलीकाॅप्टर से किया। ऐसे में उन्हें हेलीकाॅप्टर वाले मुख्यमंत्री के नाम से जाना जाएगा। ये भी एक रिकॉर्ड रहेगा कि ये पहले एक ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो सड़क के रास्ते से जनजातीय क्षेत्रों में नहीं आए हैं। ऐसे मुख्यमंत्री जनजातीय क्षेत्रों का क्या विकास करेंगे जिनके पास जनजातीय क्षेत्र के लोगों के लिए समय ही नहीं है।
मंडी लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर लगातार प्रचार में जुटे हुए थे। अब उपचुनाव में मिली हार की जिम्मेदारी भी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपने सिर ले ली है। सीएम का कहना है कि मंडी उपचुनाव में जीत-हार का अब तक का सबसे कम एक प्रतिशत का अंतर रहा है। ज्यादा दुख इस बात का है कि मंजिल तक पहुंचकर हार हो गई। विकास के जो काम बड़े स्तर पर मंडी संसदीय क्षेत्र के हर विधानसभा क्षेत्र में किए गए थे, उस पर ज्यादा फोकस नहीं हो पाया। मंडी हमारी है हमारी रहेगी को लेकर उनका मत पूरे संसदीय क्षेत्र से था, इसका कांग्रेस ने गलत प्रचार किया। सीएम का कहना है कि मंडी चुनाव सहानुभूति के कारण हारा है। कांग्रेस ने श्रद्धांजलि के नाम पर वोट मांगे, मगर हर बार श्रद्धांजलि का कार्ड नहीं चलेगा। साथ ही मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का कहना है कि सराज में अपेक्षा से कम वोट मिले हैं। नोटा, कम वोटिंग और वामपंथियों का 25 हजार वोट एक मुश्त कांग्रेस को चला जाना भी बड़ा कारण बना। महंगाई भी बड़ा कारण रहा। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का कहना है कि यह परिणाम किसी भी सूरत में विधानसभा चुनाव 2022 को प्रभावित नहीं करेगा। आगामी 2022 को लेकर अभी हमारे पास समय है और निश्चित तौर पर 2022 में हम सरकार बनाने के उस आंकड़े को फिर से पार करेंगे।
उपचुनाव में मिली हार के बाद भाजपाई भी बिखरे हुए नजर आ रहे है और उनके बयान भी। कुछ अपनी हार का कारण अतिआत्मविश्वास बता रहे है तो कुछ इस विषय पर बात ही नहीं करना चाहते। भाजपा की हार का असल कारण क्या रहा, इस पर न तो अभी मंथन पूरा हुआ है और न ही खुलकर सियासी दोषारोपण का सिलसिला आरंभ हुआ है। ऐसे में चुप्पी ही बेहतर है। पर फिर भी बड़े नेताओं द्वारा हार का कारण कभी महंगाई तो कभी सहानुभूति लहर, तो कभी अतिआत्मविश्वास बताया जा रहा है। पर हैरत ये है कि जिस कमजोर संगठन, अंतर्कलह और भीतरघात पर खुलकर बात होनी चाहिए, वो नदारद है। सिर्फ रमेश ध्वाला एकलौते ऐसे नेता है जिन्होंने तालमेल की कमी का मसला उठाया है, बाकी दिग्गज अभी मौन ही है। बीते दिनों जयराम कैबिनेट के मंत्री राकेश पठानिया ने अतिआत्मविश्वास को हार का कारण बताया। ब्यान बाहर आया तो चर्चाएं भी शुरू हो गई। मंत्री के ' अति आत्मविश्वास के कारण मिली हार' वाले ब्यान को प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना ने कवर अप करने की कोशिश की। खन्ना के मुताबिक ये मंत्री के व्यक्तिगत विचार है, इनसे पार्टी का कुछ भी लेना देना नहीं है। पर बात निकली है, तो चर्चा तो होगी ही। क्या सच में भाजपा की हार का कारण अतिआत्मविश्वास रहा है, ये विश्लेषण का विषय है। उपचुनाव में जमीनी हकीकत की बात करें तो भाजपा के अतिआत्मविश्वास को तो छोड़िये, पार्टी में विश्वास में भी नज़र नहीं आ रहा था। मंडी को छोड़ कर हर उपचुनाव क्षेत्र में भाजपा अंतर्कलह और भीतरघात से बचती बचती नज़र आई। इन तीनों उपचुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस शुरुआत से लेकर ही आत्मविश्वास से भरपूर नज़र आ रही थी, मगर ऐसा भाजपा में नहीं था। मंडी संसदीय क्षेत्र में भी भाजपाई मुख्यमंत्री से उम्मीदें लगाए बैठे थे और निसंदेह निजी तौर पर मुख्यमंत्री उम्मीदों पर खरे भी उतरे। पर अन्य मंत्री कुछ खास नहीं कर पाए जो असल में हार का बड़ा कारण है। अन्य तीन उपचुनाव क्षेत्रों की बात करें तो जुब्बल कोटखाई में तो भाजपा की जद्दोजहद जमानत बचाने से आगे दिख ही नहीं रही थी। फतेहपुर में भी कृपाल परमार का टिकट काटने के बाद पार्टी सहज दिखी ही नहीं। अर्की में भी अंतर्कलह हावी थी और कार्यकर्ता बंटा हुआ। उपचुनाव में हार के बाद भाजपा के संगठन और सरकार के मंत्रिमंडल में बदलाव के कयास लग रहे है। भाजपा पार्टी विद डिसिप्लिन है, और प्रदेश में जो भी हाल हो मगर राष्ट्रीय स्तर पर इस हार को अनदेखा नहीं किया जाने वाला। नॉन परफार्मिंग नेता बाहर जाएंगे, ऐसा माना जा रहा है। जिन नेताओं को ज़िम्मेदारी दी गई थी उनसे सवाल तो पूछे ही जायेंगे, जवाबदेही भी तय होगी और निश्चित तौर पर आवश्यक सुधार भी होगा।
केंद्र में सत्तासीन नरेंद्र मोदी सरकार किसान आंदोलन के सामने आखिर झुक गई और सरकार ने तीनों केंद्रीय कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया है। इसके साथ ही संभावना प्रबल है कि पंजाब की सियासत में एक नया ट्विस्ट देखने को मिले। तमाम नजरें पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व कांग्रेस नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह पर टिकी है। सब ये ही जानना चाहते है कि कैप्टेन का अगला कदम क्या होगा। नई पार्टी बनाने का ऐलान कर चुके कैप्टेन क्या भाजपा के साथ गठबंधन करेंगे या नई पार्टी का इरादा छोड़कर भाजपा में ही शामिल हो जायेंगे। दरअसल इसमें कोई संशय नहीं है कि इस वक्त पंजाब में जितनी जरूरत भाजपा को कैप्टेन की है उतनी ही जरुरत कैप्टेन को भी भाजपा की दिख रही है। कैप्टेन के आने से बड़ा फायदा यह होगा कि भाजपा को पंजाब में एक बड़ा चेहरा मिलेगा। अमरिंदर सिंह प्रदेश के कद्दावर नेता माने जाते हैं। निसंदेह उन्हें कमजोर आंकना विरोधियों के लिए भूल हो सकती है। ये भी तय है कि कांग्रेस को कमजोर करने के लिए अमरिंदर सिंह अपनी पूरी ताकत लगा देंगे। ऐसे में यदि वे भाजपा के हो लिए तो उनकी ताकत भी बढ़ेगी। कैप्टन और भाजपा के साथ आने से भाजपा को पंजाब में अपने पांव मजबूत करने मे मदद मिलेगी,पंजाब में पार्टी को एक बूस्ट मिलेगा। कैप्टन भाजपा की राष्ट्रवादी छवि की मापदंड पर भी एकदम फिट बैठते हैं और दोनों का साथ पंजाब की सियासत को एक दिलचस्प मोड़ दे सकता है। फिर साथ आयेंगे या दूरियां बरकरार रहेंगी पंजाब की सियासत में भाजपा की बात करे तो यहाँ अकेले दम पर कभी पार्टी ने कोई कमाल किया ही नहीं। 2017 के विधानसभा चुनाव तक भाजपा पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के साथ चुनाव लड़ती रही। साल 2017 के विधानसभा चुनावों और फिर 2019 के लोकसभा चुनावों में भी अकाली दल के खराब प्रदर्शन के बावजूद भाजपा ने उससे रिश्ता नहीं तोड़ा। पर कृषि कानूनों के विरोध में अकाली नेता और सुखविंदर सिंह की पत्नी हरसिमरत कौर ने मोदी सरकार से इस्तीफा दे दिया और समर्थन वापस ले लिया तो फिर दोनों के रास्ते अलग हो गए। अब ये देखना भी दिलचस्प होगा कि क्या कृषि कानून वापस लेने के बाद शिरोमणि अकाली दल और भाजपा फिर एक साथ आयेंगे या दूरियां बरकरार रहेंगी। पंजाब में मजबूर दिख रही थी भाजपा 2017 के विधानसभा चुनाव में जहां अकाली दल ने 15 सीटें जीती थीं वहीं भाजपा को केवल तीन सीटें मिली थीं। वहीं कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ने पर कांग्रेस ने 117 में से 77 सीटें जीती थीं। जबकि आम आदमी पार्टी ने 19 सीटें जीती थीं। 2017 के चुनाव में भाजपा रेस में कहीं नहीं थी, और कृषि क़ानून वापस लेने के फ़ैसले के बाद भी बीजेपी को वहां कोई ख़ास बदलाव की उम्मीद नहीं कर रही होगी। पर अब बीजेपी नेताओं के लिए पंजाब में प्रचार करना ज़रूर आसान हो जाएगा, साथ ही पुराने गठबंधन अकाली दल सहित कुछ नए राजनीतिक साथी जैसे पंजाब पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी यदि भाजपा में शामिल होते है तो पार्टी कम से कम अपना जनाधार तो बढ़ा ही सकती है। वही यदि भाजपा कृषि कानून वापस नहीं लेती तो ये तय दिख रहा था कि किसानो की नाराज़गी के चलते उनके नेता शायद प्रचार तक नहीं कर पाते। ऐसे में कृषि कानून वापस लेना भाजपा की मजबूरी था। छोटे से कार्यकाल में ही पॉपुलर हो गए चन्नी बेशक कृषि कानून वापस लेने के बाद भाजपा पंजाब में नई राहें तलाश रही हो या इस उम्मीद में हो कि कैप्टेन का साथ और शिरोमणि अकाली दल के साथ संभावित गठजोड़ पार्टी के लिए टर्निंग पॉइंट होगा, लेकिन व्यापक तौर पर ऐसा लगता नहीं है। भाजपा कोई भी गठबंधन करके वहां सत्ता पर काबिज हो सकती है इसकी सम्भावना कम ही है। फिलवक्त पंजाब में मुख्य लड़ाई कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच दिख रही है। कैप्टेन के रिप्लेसमेंट के तौर पर कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी के तौर पर प्रदेश को पहला दलित मुख्यमंत्री दिया है और ऐसे में पंजाब का करीब 32 प्रतिशत दलित वोट कांग्रेस के लिए बड़ी आस है। साथ ही जिस तरह से बहुत छोटे से कार्यकाल में चन्नी ने अपनी छाप छोड़ी है वो भी कांग्रेस के पक्ष में है। आम आदमी से लेकर कर्मचारी तक, हर वर्ग के लिए चन्नी लगातार घोषणाएं करते जा रहे है। आम आदमी से उनका सीधा जुड़ाव इसी बात से समझा जा सकता है कि अभी से चन्नी कई सर्वेक्षणों में सीएम के तौर पर लोगों की पहली पसंद दिख रहे है।
कुल्लू : मलाणा में अग्नि पीड़ितों से मिलने के बाद क्या बोले मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, सुनिए
चार उपचुनाव में शानदार जीत के बाद कांग्रेस में जश्न का माहौल है और पार्टी में नई ऊर्जा का संचार हुआ है। जिस अदद जीत के टॉनिक की पार्टी को जरुरत थी वो आखिरकार मिल गया। इस जीत में कई नेताओं की बड़ी भूमिका रही है और सभी उक्त नेताओं के निष्ठावान भी अपने-अपने चहेते नेताओं को जीत का श्रेय दे रहे है। पर कांग्रेस में एक कद्दावर नेता ऐसे भी है जो चुपचाप उपचुनाव में अपना काम करते रहे और जीत के बाद भी क्रेडिट लेने के लिए ज्यादा हाथ पाँव नहीं मारते दिखे। ये नेता है सोलन विधायक डॉ कर्नल धनीराम शांडिल। शांडिल अर्की उपचुनाव के लिए प्रभारी थे और पार्टी के स्टार प्रचारक भी। उपचुनाव में संजय अवस्थी को टिकट देने के बाद अर्की में खुलकर बगावत हुई, ब्लॉक कांग्रेस के कई पदाधिकारियों ने इस्तीफा दिया और भाजपा ने पूरी ताकत लगाईं, बावजूद इसके कांग्रेस को शानदार जीत मिली। इस जीत में शांडिल की भी बड़ी भूमिका है। जब राजेंद्र ठाकुर ने खुलकर संजय अवस्थी के खिलाफ मोर्चा संभाला तो शांडिल वो नेता है जो राजेंद्र ठाकुर को मनाने कुनिहार पहुंच गए। हालांकि ठाकुर माने नहीं लेकिन शांडिल ने पूरा प्रयास किया और मतदान के दिन तक ठाकुर के समर्थकों को भी साधने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सोलन निर्वाचन क्षेत्र के साथ लगते अर्की के कई ग्रामीण क्षेत्रों में भी शांडिल अच्छा प्रभाव रखते है और उक्त क्षेत्रों में भी इसका लाभ अवस्थी को मिला। प्रचार के बीच भाजपा के पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा के साथ शिमला में कर्नल शांडिल की मुलाकात को लेकर भी खूब चर्चे हुए। कर्नल धनीराम शांडिल जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में भी पार्टी के लिए निरंतर प्रचार करते दिखे। अपनी चिर परिचित शैली में कर्नल ने यहाँ मुद्दों की बात की और निसंदेह पार्टी को इसका लाभ भी मिला। कर्नल की खूबी ये है कि वे न तो हवा हवाई वादे करते है और न बिना तर्क के कोई मुद्दा उठाते है। अलबत्ता वे बहुत अच्छे वक्ता नहीं है लेकिन बदलते दौर की सियासत और जागरूक होते मतदाताओं के बीच शांडिल अच्छा प्रभाव छोड़ते है। मंडी संसदीय सीट के उपचुनाव में पार्टी प्रत्याशी प्रतिभा सिंह का कारगिल युद्ध को लेकर दिया गया एक बयान पार्टी की मुश्किलें बढ़ता दिख रहा था। हालांकि उन्होंने इस पर अपना स्पष्टीकरण दे दिया था, फिर भी विशेषकर सैनिक वोट पार्टी से नाराज़ न हो ये बड़ी चिंता थी। ऐसे में पार्टी के थिंक टैंक को याद आये कर्नल शांडिल। कर्नल ने प्रतिभा सिंह के समर्थन में कई जनसभाएं की और राजनीति में सेना के नाम के इस्तेमाल पर भाजपा पर जबरदस्त अटैक किया। कर्नल ने 1965 और 1971 के युद्ध में मिली जीत भी याद दिलाई और ये भी याद दिलाया कि कांग्रेस ने कभी इसके नाम पर वोट नहीं मांगे। वो बेदाग नाम जिसपर विरोधी भी कीचड़ नहीं उछाल पाएं डॉ कर्नल धनीराम शांडिल हिमाचल की सियासत का वो बेदाग़ नाम है जिस पर विरोधी भी कभी कीचड़ नहीं उछाल पाएं। वीरभद्र सरकार के खिलाफ वर्ष 2016 में भाजपा एक चार्जशीट लाई जिसमे कांग्रेस के मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप थे। तब भाजपा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह, बेटे विक्रमादित्य सिंह, प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू, 10 मंत्रियों, 6 सीपीएस और 10 बोर्ड-निगम-बैंकों के अध्यक्ष-उपाध्यक्षों समेत कुल 40 नेताओं और एक अफसर पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे। पर उस चार्जशीट में भी कर्नल धनीराम शांडिल का नाम नहीं था। यानी विपक्ष भी कभी उनकी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठा पाया। एक बात और कर्नल शांडिल की खूबी है, वो है उनकी गुटबाजी से दुरी। प्रदेश कांग्रेस में कई धड़े है, पर शांडिल किसी भी गुट में शामिल नहीं है।
जुब्बल-कोटखाई सीट पर कांग्रेस ने फिर परचम लहराया और एक बार फिर रोहित ठाकुर का दमखम दिखा। रोहित ठाकुर 6293 मतों से विजयी हुए हैं। मुकाबला निर्दलीय प्रत्याशी और भाजपा के बागी चेतन बरागटा के साथ था। चेतन के साथ सहानुभूति भी थी और उनका चुनाव प्रबंधन भी शानदार था लेकिन रोहित की क्षेत्र में लगतार सक्रियता और जमीनी पकड़ के तिलिस्म को चेतन भेद नहीं पाएं। जानकार मान कर चल रहे थे कि जीत हार का अंतर नजदीकी होगा लेकिन 6293 वोट का अंतर रोहित का असल दम बताता है। उपचुनाव में जहाँ भाजपा और चेतन एक दूसरे पर आरोप -प्रत्यारोप लगाने में उलझे रहे वहीं रोहित ख़ामोशी के साथ जनसम्पर्क में जुटे रहे। भाजपा की कोशिश शुरू से जमानत बचाने से ज्यादा नहीं दिखी तो चेतन का फोकस भी कुछ हद तक भाजपा को काउंटर करने का रहा। दोनों की लड़ाई ने रोहित की राह आसान कर दी। 2017 के विधानसभा चुनाव में रोहित ठाकुर नजदीकी मुकाबले में हार गए थे। तब मुकाबला खुद नरेंद्र बरागटा से था, भाजपा भी एकजुट थी और कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर भी थी। सो नतीजा रोहित के विरुद्ध में गया। पर उपचुनाव में बंटे हुए प्रतिद्वंदी रोहित के आगे नहीं टिके। 2003 में पहला विधानसभा चुनाव लड़ने वाले रोहित का ये पांचवा चुनाव था और तीसरी बार उन्हें जीत मिली। अपने पहले चुनाव से अब तक जनता ने उन्हें चाहे विधानसभा भेजा हो या नहीं, रोहित ठाकुर हमेशा क्षेत्र में सक्रिय रहे है। इसी सक्रियता और मजबूत पकड़ का इनाम उन्हें मिला है। 2022 में यदि कांग्रेस की सत्ता वापसी होती है और रोहित फिर जीत दर्ज करने में कामयाब रहे तो ये तय है कि उन्हें सरकार में कोई महत्वपूर्ण भूमिका मिलेगी। पर अगले विधानसभा चुनाव की आचार संहिता लगने में एक वर्ष से भी कम वक्त है और उम्मीदें ज्यादा, सो रोहित को डे वन से मैदान में डटना होगा। इस उपचुनाव में बेशक रोहित ठाकुर ने शानदार जीत दर्ज की है लेकिन निर्दलीय उम्मीदवार चेतन बरागटा हारने के बावजूद सबका दिल जरूर जीत गए। जुब्बल-कोटखाई में कुल 56,612 मत पड़े जिनमें से कांग्रेस प्रत्याशी रोहित ठाकुर ने 29,955 मत हासिल किए और चेतन बरागटा को 23662 मत पड़े। पर यक़ीनन तौर पर 20 दिन में जिस तरह से चेतन ने चुनाव लड़ा वो हैरान करने वाला है, विशेषकर उनका चुनाव प्रबंधन। बाकायदा वॉर रूम बनाया गया, कार्यकर्ताओं की पूरी ब्रिगेड तैयार की गई, जिम्मेदारियों का निर्धारण हुआ और रैलियों व चुनाव आयोजनों के लिए बेहतर क्राउड मैनेजमेंट भी दिखा। चेतन को बतौर निर्दलीय प्रत्याशी जितने मत प्राप्त हुए वो आज से पहले किसी भी निर्दलीय प्रत्याशी को नहीं मिले। चेतन अभी से 2022 के लिए ऐलान कर चुके है और जिस सहजता के साथ उन्होंने अपनी हार स्वीकार की है वो भी तारीफ के काबिल है। अलबत्ता चेतन के लिए चुनावी राजनीति की शुरुआत हार के साथ हुई हो लेकिन इतना तय है कि चेतन अब थमने वाले नहीं है।
जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में जो हुआ वो भाजपा को अर्से तक याद रहेगा। ऐसी करारी हार भुलाई भी नहीं जा सकती। सत्तासीन भाजपा के लिए भी ये हार झटका भी है और सबक भी। इससे बुरी स्थिति क्या होगी कि भाजपा उपचुनाव में अपनी जमानत तक नहीं बचा पाई है। भाजपा प्रत्याशी के मतों का आंकड़ा 2644 में सीमट कर रह गया जो किसी राष्ट्रीय पार्टी के उम्मीदवार की ओर से लिए गए अब तक सबसे कम मतों का रिकॉर्ड है। जिस सीट पर भाजपा का कब्जा था वहां भाजपा की इतनी बुरी हालत होगी ये तो उन नेताओं ने भी नहीं सोचा होगा जिनकी मनमानी ने पार्टी की लुटिया डुबाई। दरअसल उपचुनाव में भाजपा टिकट आवंटन के बाद से ही अपने कार्यकर्ताओं की नाराजगी झेल रही थी। टिकट आवंटन के बाद मानों जुब्बल कोटखाई में भाजपा का पूरा संगठन ही ध्वस्त हो गया। जब अपना कार्यकर्ता ही साथ नहीं था तो नतीजा कैसे अनुकूल आता ? खुद मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री सुरेश भारद्वाज ने पूरा दमखम लगाया लेकिन इन कार्यक्रमों में जनता तो दूर की बात पार्टी कार्यकर्ता तक नहीं पहुंच रहे थे। कैबिनेट मंत्री अनुराग ठाकुर के कार्यक्रम के लिए भी आसपास के क्षेत्रों से लोग पहुंचे लेकिन स्थानीय लोग वहां भी नहीं दिखे। पार्टी की स्थिति का अंदाजा इसी से लगा लीजिये कि टिकट आवंटन से प्रचार बंद होने तक भाजपा में निष्कासन का दौर ही चलता रहा। अंत तक पार्टी अपने ही कार्यकर्ताओं को निष्कासित करती रही। जिला शिमला के एकमात्र मंत्री सुरेश भारद्वाज को भाजपा ने जुब्बल-कोटखाई क्षेत्र में चुनाव प्रभारी बनाया था। चुनाव प्रचार की पूरी कमान सुरेश भारद्वाज के हाथों में रही। पर भारद्वाज पूरी तरह बेअसर रहे। चेतन का टिकट काटने के बाद कार्यकर्ताओं में खूब रोष था और चेतन के समर्थक तो इसका जिम्मेदार मंत्री को ही बताते रहे। हालांकि भाजपा में टिकट का निर्णय पार्टी आलाकमान करता है और चेतन का टिकट काटने का तर्क परिवारवाद पर लगाम लगाना बताया गया पर समर्थक ऐसा नहीं मानते। दरअसल अतीत में स्व नरेंद्र बरागटा और सुरेश भारद्वाज के बीच का मतभेद कई मौकों पर सामने आता रहा, जिसके चलते बरागटा परिवार के समर्थकों की धारणा है कि चेतन के टिकट की राह भारद्वाज ने ही मुश्किल की। कारण जो भी हो लेकिन उपचुनाव में भाजपा की खूब किरकिरी हुई। करारी हार, उम्मीद से बदतर रहा प्रदर्शन जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में भाजपा मात्र 2644 मतों में सीमट कर रह गई। जबकि भाजपा को जमानत बचाने के लिए करीब 9414 मत चाहिए थे। भाजपा प्रत्याशी नीलम जमानत बचाने के लिए आवश्यक मतों के एक तिहाई वोट भी नहीं ले सकीं। हालांकि ऐसा नहीं है कि नीलम की जमीनी पकड़ नहीं है या निजी तौर पर उन्हें लेकर लोगों में कोई रोष हो लेकिन भाजपा की खराब रणनीति ने उनकी भी फजीहत करवाई। माना जा रहा था कि नीलम की जमानत बचना मुश्किल होगा लेकिन इतनी बुरी स्थिति तो विश्लेषकों ने भी नहीं सोची होगी। जब अनुराग स्वीकार है तो चेतन क्यों नहीं ? परिवारवाद के जिस अजब तर्क के नाम पर भाजपा ने चेतन का टिकट काटा वो न जनता को हजम हुआ और न भाजपा कार्यकर्ताओं को। जो व्यक्ति करीब डेढ़ दशक से पार्टी में सक्रिय हो, लम्बे वक्त से पार्टी के प्रदेश आईटी सेल का प्रमुख हो, परिवारवाद के नाम पर उसका टिकट काटे जाना समझ से परे है। चेतन पैराशूटी नेता नहीं है जो अपने पिता के निधन के बाद टिकट लेने आ गए, वो निरंतर पार्टी में सक्रिय थे। एक आम कार्यकर्त्ता की तरह ही अपने कई वर्ष पार्टी को दे चुके है। अगर उनके टिकट की राह में परिवारवाद रोड़ा था तो पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के पुत्र अनुराग ठाकुर भी तो वर्तमान में केंद्रीय मंत्री है। समर्थक तो उन्हें भावी मुख्यमंत्री तक मानते है। जब अनुराग स्वीकार है तो चेतन क्यों नहीं ? अब ठेके कौन देगा माना जा रहा है कि भाजपा की स्थिति बदतर करने में बड़े नेताओं के बयानों ने भी खासी भूमिका अदा की है। जुब्बल कोटखाई में प्रचार के दौरान मंत्री सुरेश भारद्वाज का एक बयान भी खूब चर्चा में रहा। भारद्वाज का ठेकेदारों को लेकर दिया विवादित बयान सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। एक जनसभा में भारद्वाज इस वीडियो में कहते नजर आये कि यहां विकास के हर काम और ठेके भाजपा प्रत्याशी नीलम सरैईक और भाजपा सरकार के माध्यम से ही मिलेंगे। बहुत से ठेकेदार सोचते हैं कि वे उधर से आ जाएंगे और उनका चलता रहेगा। वैसे ठेके नहीं मिलेंगे।
फतेहपुर उपचुनाव में हार के साथ ही मंत्री बिक्रम ठाकुर के चुनाव प्रबंधन की पोल फिर खुल गई। एक बार फिर मंत्री बिक्रम सिंह ठाकुर चुनावी इम्तिहान में फेल हो गए। अभी तो पालमपुर नगर निगम में हार की टीस भी कम नहीं हुई थी और फतेहपुर ने फिर बड़ा झटका दे दिया। बढ़ती महंगाई, भीतरघात और जमीनी स्तर पर कार्यकर्तओं की नाराजगी के बीच बलदेव ठाकुर की नैय्या पार लगाने के लिए मैदान में डटे प्रभारी बिक्रम ठाकुर के लिए ये उपचुनाव किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। फिर भी उम्मीद थी कि मंत्री जी के प्रबंधन का कमाल यहाँ दिखेगा, पर ऐसा हुआ नहीं। रणनीतिक तौर पर भी भाजपा पुरे चुनाव में पिछड़ी दिखी। बड़े नेताओं के आयोजनों से आम जन की दुरी और नाराज दिख रहे कार्यकर्ता पहले ही हार के संकेत दे रहे थे, और हुआ भी ऐसा ही। जयराम सरकार में बिक्रम ठाकुर वो चेहरा है जिनका कद और पद लगातार बढ़ा है। 2019 में जयराम कैबिनेट के कुछ मंत्रियों का डिमोशन हुआ,पर बिक्रम ठाकुर को उद्योग मंत्रालय के साथ- साथ परिवहन जैसा अहम महकमा भी दे दिया गया। फिर उन्हें पालमपुर नगर निगम चुनाव की ज़िम्मेदारी सौंपी गई जिसमें भाजपा बुरी तरह परास्त हुई। इस हार के बाद अब फतहपुर उपचुनाव की ज़िम्मेदारी भी बिक्रम सिंह ठाकुर को दी गई थी जहाँ वे फिर नाकामयाब रहे है। कांगड़ा जैसे बेहद महत्वपूर्ण ज़िले में मिली इन दो हारों की कसक जरूर भाजपाई खेमे में होगी। जाहिर है फतेहपुर के बाद अब पार्टी आलाकमान भी विस्तृत विश्लेषण करेगा। ऐस में ये मंत्री बिक्रम सिंह के सियासी बहीखाते में जुड़ी एक और हार उनके लिए परेशानी का कारण है। वन मंत्री राकेश पठानिया फतेहपुर उपचुनाव में सह प्रभारी थे। कभी कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर के खिलाफ बयान को लेकर तो कभी सभी को मास्क पहनने वाले डंगर बताकर पठानिया लगातार चर्चा में रहे और अब हार को लेकर चर्चा में है। नूरपुर के साथ लगते क्षेत्रों में उनके प्रभाव से भाजपा को बड़ी आस थी पर वे भी बलदेव को जीत नहीं दिला सके। यहाँ जीत मिलती तो निसंदेह पठानिया का असर भी बढ़ता, पर ये हार कई सवाल छोड़ गई। एक सवाल ये भी है कि क्या भाजपा के बड़े चेहरे अति आत्मविश्वास से ग्रस्त है ? कांग्रेस के बनिस्पत फीका जमीनी प्रचार फतेहपुर में कांग्रेस ने पूर्व विधायक स्व सुजान सिंह पठानिया के पुत्र भवानी पठानिया को टिकट दिया था। भाजपा के हाथ में परिवारवाद एक बड़ा मुद्दा था लेकिन खुद से ही झूझती दिखी पार्टी आक्रामक तरीके से मतदातों के बीच इस मुद्दे को लेकर नहीं पहुंची। किसी तरह रैलियों में क्राउड मैनेजमेंट कर पार्टी जीत की उम्मीद में थी लेकिन जमीनी स्तर पर पार्टी प्रचार कांग्रेस के बनिस्पत फीका ही दिखा। कांग्रेस के कई नेता भवानी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे, बावजूद इसके भाजपा इस स्थिति का लाभ उठाने में कामयाब नहीं रही। कांगड़ा के मतदाता नामों का लिहाज नहीं करते 2017 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सरकार के बड़े बड़े चेहरे कांगड़ा में धराशाई हुए थे। इनमें सुधीर शर्मा और स्व. जीएस बाली भी थे। कांगड़ा के मतदाताओं ने कभी बड़े नामों का लिहाज नहीं किया है। जिस कांगड़ा में कभी खुद मुख्यमंत्री रहते हुए शांता कुमार चुनाव हार सकते है वहां भाजपा की दूसरी पंक्ति के नेताओं का अति आत्मविश्वास समझ से परे है। फिलहाल कांगड़ा से बिक्रम सिंह ठाकुर, राकेश पठानिया और सरवीण चौधरी मंत्री है जबकि विपिन सिंह परमार विधानसभा अध्यक्ष है। बावजूद इसके पहले नगर निगम चुनाव में भाजपा को झटका लगा और अब फतेहपुर उपचुनाव में भी। वर्ष 2017 में इसी कांगड़ा ने भाजपा पर भरपूर प्यार बरसाया था, अगर कांगड़ा की हवा बदली तो 2022 में भाजपा की राह वहां मुश्किल होगी।
रतन सिंह पाल के साथ-साथ अर्की निर्वाचन क्षेत्र में वरिष्ठ भाजपा नेता डॉ राजीव बिंदल की साख भी दांव पर लगी थी। दरअसल बिंदल अर्की में भाजपा के प्रभारी थे, पर अर्की में बिंदल का जादू नहीं चला। संगठनात्मक कार्यक्रमों में भी पार्टी की कमजोरी खुलकर सामने आई। जिस 'बिंदल मैनेजमेंट' का राग उनके समर्थक गाते थे वो फिर एक बार फ्लॉप सिद्ध हुआ। इससे पहले बिंदल सोलन नगर निगम चुनाव में भी बिंदल प्रभारी थे पर नतीजा पार्टी के पक्ष में नहीं रहा था। सोलन बिंदल का गृह क्षेत्र था बावजूद इसके तब न सिर्फ भाजपा हारी बल्कि बिंदल के कई करीबियों को भी जनता ने नकार दिया। अब अर्की में भी बिंदल बेअसर रहे। अर्की में चुनाव प्रचार के दौरान हुए कार्यक्रमों में प्रबंधन की खामियां लगातार उजागर हुई। नामांकन के दिन केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर अर्की पहुंचे थे। तब अनुराग के स्वागत के लिए काफी संख्या में उनके समर्थक और चाहवान विभिन्न क्षेत्रों से अर्की पहुंचे थे सो कार्यक्रम जैसे-तैसे ठीक ठाक हुआ। किन्तु अनुराग के दूसरे दौरे में भाजपा के चुनाव प्रबंधन की पोल खुल गई। उसी दिन देवभूमि क्षत्रिय संगठन की कुहिनार में रैली थी जिसमें काफी संख्या में लोग पहुंचे जबकि अनुराग के कार्यक्रम में तुलनात्मक तौर पर काफी कम लोग थे। यानी डॉ राजीव बिंदल की अगुवाई में भाजपा के चुनाव प्रबंधक केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के कार्यक्रमों में इतनी भीड़ भी नहीं जुटा पाए जितनी एक नए संगठन ने एकत्र कर ली। इसके बाद 25 अक्टूबर को मुख्यमंत्री के कुनिहार में आयोजित कार्यक्रम में उचित प्रबंध करना भाजपा के लिए नाक का सवाल था। पर हकीकत ये है कि चप्पे -चप्पे पर पोस्टर बैनर की भरमार होने के बावजूद पुरे प्रचार अभियान में भाजपा आम जनता से कनेक्ट करने में नाकामयाब रही। साथ ही पार्टी के आम कार्यकर्त्ता की बॉडी लैंग्वेज भी वैसी नहीं थी जिसके लिए भाजपा जानी जाती है। स्वास्थ्य घोटाले के बाद इस्तीफा, अब हाशिये पर ! डॉ राजीव बिंदल लम्बे वक्त से पार्टी के कद्दावर नेता रहे है। वर्ष 2000 में हुए सोलन उपचुनाव को जीतकर बिंदल पहली बार विधानसभा पहुंचे थे और इसके बाद 2003 और 2007 में भी सोलन निर्वाचन क्षेत्र से जीते। 2012 में जब सोलन सीट आरक्षित हो गई तो बिंदल ने नाहन का रुख किया और वहां जीतकर अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया। 2017 में बिंदल दूसरी बार नाहन से जीते और एक वक्त पर प्रो धूमल के हारने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार भी माना जा रहा था। पर समय के फेर में मुख्यमंत्री की रेस में शामिल बिंदल मंत्री तक नहीं बने। उन्हें विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया। जैसे तैसे 2019 के अंत में बिंदल प्रदेश अध्यक्ष बनने में कामयाब रहे लेकिन कोरोना काल में हुए स्वास्थ्य घोटाले की वजह से 2020 में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। तब बिंदल ने इसे नैतिकता के आधार पर दिया गया इस्तीफा बताया था और बाद में उन्हें क्लीन चिट भी मिल गई। पर इसके बाद से बिंदल एक किस्म से हाशिए पर दिख रहे है, न उन्हें मंत्री पद मिल रहा है और न ही संगठन में कोई अहम् भूमिका। समर्थकों को आस, परिवर्तन हो तो शायद कुछ बेहतर हो ! डॉ राजीव बिंदल के समर्थक निरंतर इसी आस में है कि या तो बिंदल को कबिनेट में एंट्री मिल जाएं या फिर संगठन में कोई बड़ी भूमिका। पर ऐसा हो नहीं रहा। अब प्रदेश में हुए चार उपचुनाव में भाजपा को करारी शिकस्त मिली है जिसके बाद सरकार संगठन में फेरबदल के कयास है। बिंदल समर्थक इसी उम्मीद में है कि इस बारे डॉ बिंदल को भी कहीं बेहतर स्थान मिलेगा पर ये नहीं भुलाया जा सकता कि सोलन नगर निगम चुनाव और अर्की उपचुनाव की हार भी बिंदल के खाते में है। जिला संगठन में बदलाव की दरकार अर्की में भाजपा के संगठन की बात करें तो यहाँ संगठन में बदलाव की दरकार है। अर्की मंडल के पदाधिकारी इस उपचुनाव में जमीनी स्तर पर प्रभाव छोड़ने में नाकामयाब रहे है। न सिर्फ अर्की बल्कि भाजपा के जिला संगठन का भी ऐसा ही हाल है। पिछले कई सालों में सोलन जिला में भाजपा का संगठन कभी इतना कमजोर नहीं दिखा है। अमूमन ये ही हाल जिला भाजयुमो का है। जो भाजयुमो युवा शक्ति के सहारे पार्टी के आयोजनों में जोश भरता था वो भी अब फीका सा दिख रहा है। यूँ तो भाजयुमो का वन बूथ ट्वेंटी यूथ कार्यक्रम हर माह जारी है लेकिन सवाल ये है कि क्या यह अभियान केवल युवाओं को कागजों में जोड़ना मात्र ही साबित हो रहा है। फिलवक्त जिला सोलन में मिल रही हार के बाद संगठन में फेरबदल की जरुरत को भाजपा नकार नहीं सकती।
फतेहपुर में बीते चार चुनाव में चार चेहरे बदल चुकी भाजपा अब लगातार चार चुनाव हार चुकी है। 2009 के उपचुनाव से शुरू हुआ हार का ये सिलसिला 2021 के उपचुनाव में भी कायम रहा। कांगड़ा जिला से होकर ही शिमला की गद्दी का रास्ता जाता है, ऐसे में सत्ता के इस सेमीफाइनल में ये हार पार्टी के लिए करारा झटका है। इस जीत ने जहाँ कांग्रेस के नेताओं-कार्यकर्ताओं में ऊर्जा भर दी है, वहीँ भाजपा अब सकते में है। यहाँ जयराम सरकार के दो कैबिनेट मंत्रियों की साख भी दांव पर थी, बिक्रम सिंह ठाकुर और राकेश पठानिया। पर ये दोनों ही मंत्री भाजपा की नैया पार नहीं लगा सके। विशेषकर बिक्रम ठाकुर के लिए तो ये बड़ा झटका है, बिक्रम ठाकुर ही यहाँ चुनाव प्रभारी थे। इससे पहले ठाकुर पालमपुर नगर निगम चुनाव में भी प्रभारी थे लेकिन वहां भी भाजपा को करारी शिकस्त मिली थी। फतेहपुर उपचुनाव में भाजपा ने पूरी ताकत झोंकी, पर न तो मुख्यमंत्री के दौरे भाजपा की हार टाल सके और न ही कैबिनेट मंत्री अनुराग ठाकुर की रैलियां काम आईं। हिमाचल प्रभारी अनिवाश राय खन्ना के जीत के दावे भी नतीजे के बाद हवा हवाई सिद्ध हुए। इसमें कोई संशय नहीं है कि इस चुनाव में टिकट आवंटन से लेकर नतीजे आने तक हर मोर्चे पर भाजपा की सांगठनिक योजना भी धराशायी हुई। दरअसल इस वर्ष फरवरी में पूर्व विधायक सुजान सिंह पठानिया का निधन हुआ था और उसके बाद से ही भाजपा उपचुनाव के लिए एक्शन में थी। लगातार मुख्यमंत्री और संगठन की विभिन्न इकाइयों के आयोजन हो रहे थे। गौर करने लायक बात ये है कि इन सभी आयोजनों में पार्टी पूर्व में प्रत्याशी रहे कृपाल परमार को आगे रखकर चलती दिखी। जिस तरह की तवज्जो कृपाल को दी जा रही थी उससे मोटे तौर पर ये तय माना जा रहा था कि कृपाल ही चेहरा होंगे। पर अंतिम समय में पार्टी ने बलदेव ठाकुर को टिकट दिया। नतीजन कृपाल के समर्थन में कई प्राधिकारियों ने इस्तीफे दिए, कई नाराज़ हुए। हालांकि बाहरी तौर पर मुख्यमंत्री ने कृपाल को मना लिया लेकिन इस स्थिति को ठीक से पार्टी मैनेज नहीं कर पाई। पार्टी के एक तबके ने प्रचार नहीं किया और भीतरघात से भी इंकार नहीं किया जा सकता। लगातार तीसरी बार हार के साथ ही भाजपा प्रत्याशी बलदेव ठाकुर के राजनीतिक भविष्य भी सवाल उठने लगने है। इससे बलदेव 2012 में पार्टी प्रत्याशी थे और 2017 में बतौर बागी चुनाव लड़े थे। हार की हैट्रिक बना चुके बलदेव के लिए आगे की राह आसान नहीं होनी। यहाँ दिलचस्प बात ये भी है की 2017 के चुनाव में बलदेव की बगावत ने पार्टी की लुटिया डुबाई थी, तब पार्टी ने उन्हें निष्कासित भी किया था। बावजूद इसके खुद को पार्टी विथ डिफरेंस एंड डिसिप्लिन कहने वाली भाजपा ने बलदेव को टिकट दिया। दोनों साथ थे तो मजबूत थे ! फतेहपुर क्षेत्र में डॉ राजन सुशांत एक समय में भाजपा के तेज तर्रार नेता माने जाते थे। दोनों साथ थे तो मजबूत थे, पर जब से दोनों की राह जुदा हुई है, दोनों का हाल खराब है। स्व सुजान सिंह पठानिया को 2007 के विधानसभा चुनाव में हारने वाले नेता भी डॉ राजन सुशांत ही थे। इस उपचुनाव में भी डॉ राजन सुशांत करीब 13 हजार वोट ले गए और भाजपा की हार का कारण बने। पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार राजन सुशांत के प्रदर्शन में ख़ासा सुधार दिखा। हालांकि उनकी इस हार के बाद उनकी पार्टी 'हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी' के भविष्य पर भी संशय की स्थिति है।
3219 वोट से कांग्रेस प्रत्याशी संजय अवस्थी अर्की उपचुनाव जीतने में कामयाब रहे। उन्हें राजेंद्र ठाकुर की बगावत से भी झूझना पड़ा और भीतरघात से भी इंकार नहीं किया जा सकता, इस पर संजय अवस्थी ने चुनाव भी बेहद कमजोर तरीके से लड़ा। ऐसा लचर चुनाव प्रबंधन कम ही देखने को मिलता है, बावजूद इसके अवस्थी जीत गए। इसमें कोई संदेह नहीं है की अगर अवस्थी ने मजबूती से ये चुनाव लड़ा होता तो उनकी जीत का अंतर कहीं ज्यादा होता। पर जीत तो आखिर जीत है। वहीं भाजपा के लिए शायद ये हार पचाना अधिक मुश्किल नहीं रहा होगा क्योंकि जमीनी स्थिति कभी भाजपा के पक्ष में दिखी ही नहीं। बल्कि कांग्रेस की कमजोरी की वजह से पार्टी का प्रदर्शन अनुमान से बेहतर ही रहा है। दरअसल पार्टी प्रत्याशी रतन पाल के खिलाफ पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के एक गुट खुलकर मुखालफत करता रहा है जिसकी अगुवाई पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा करते रहे। हालांकि चुनाव से पहले गोविन्द राम शर्मा को मना लिया गया लेकिन तब तक उनके समर्थकों में रतन पाल विरोधी माहौल चरम पर था। ये लोग भाजपा के साथ होने का तो दावा करते रहे लेकिन रतन पाल इन्हे मंजूर नहीं थे। 2017 में जयराम राज आने के बाद से अर्की में भाजपा ने सिर्फ रतन पाल को ही तव्वज्जो दी और जमीनी पकड़ रखने वाले कई मजबूत नेता दरकिनार कर दिए गए। इस पर रतन पाल से पार्टी का एक बड़ा तबका कभी खुश नहीं दिखा, इनमें आम कार्यकर्त्ता भी शामिल है। जब कार्यकर्त्ता ही रतन पाल के पक्ष में एकजुट नहीं था तो जीत सिर्फ चमत्कार से ही हो सकती थी। इस जमीनी स्थिति से पार्टी यदि वाकिफ नहीं थी तो ये संगठन की बड़ी नाकामयाबी है। और यदि इससे वाकिफ होने के बावजूद उचित कदम नहीं उठाये गए तो बड़ा सवाल ये है कि क्या पार्टी चुनाव हारने के लिए लड़ रही थी ? जिला परिषद चुनाव के बाद लामबंद हुए रतन पाल विरोधी रतन सिंह पाल के खिलाफ अर्की में इस साल की शुरुआत से ही खुलकर विरोध के स्वर उठने लगे थे। तब जिला परिषद् चुनाव में पार्टी के दो वरिष्ठ नेताओं के टिकट काटे गए। कुनिहार वार्ड से अमर सिंह ठाकुर और डुमहेर वार्ड से आशा परिहार का टिकट काटा गया। इन्होंने इसके पीछे रतन पाल का हाथ बताया। इन दोनों नेताओं ने चुनाव लड़ा भी और जीता भी। जिला परिषद् पर कब्जे के लिए भाजपा को इन दोनों की जरुरत पड़ी और दोनों ने पार्टी का साथ भी दिया। पर अर्की में जमीनी स्तिथि नहीं बदली। अर्की नगर पंचायत चुनाव में भी पार्टी को करारी हार झेलनी पड़ी थी। जब अनदेखी से आहत गोविंद राम ने खोला मोर्चा ! 1993 से 2003 तक भाजपा की लगातार तीन शिकस्त के बाद लगातार दो बार पार्टी को जीत दिलाने वाले पूर्व विधायक गोविन्द राम शर्मा का 2017 में टिकट काटा गया था। उस चुनाव में गोविंदराम शर्मा पूरी तरह पार्टी के लिए प्रचार करते दिखे थे और भाजपा एकजुट थी। तब रतन पाल तो चुनाव हार गए लेकिन प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी। उम्मीद थी गोविन्द राम को या किसी बोर्ड निगम में ज़िम्मेदारी मिलेगी या संगठन में अहम दायित्व मिलेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नतीजन उनके समर्थकों की नाराजगी बढ़ती रही और इस वर्ष पंचायत चुनाव के बाद उन्होंने खुलकर मोर्चा खोल दिया। 2022 में नोटा भी बड़ी चुनौती ! अर्की उपचुनाव में 1626 लोगों ने नोटा का इस्तेमाल किया, जबकि 2017 में ये आंकड़ा 530 था। सवर्ण आयोग के गठन की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे देवभूमि क्षत्रिय संगठन ने नोटा दबाने का आग्रह किया था जिसके बाद इसकी संख्या में करीब तीन गुना बढ़ोतरी हुई। यदि मुकाबला नजदीकी होता तो ये जीत हार का कारण बन सकता था। माहिर मानते है कि इसमें से अधिक हिस्सा सत्ता के विरोध में जा सकता था। ऐसे में 2022 में नोटा को सभी प्रत्याशियों को ध्यान में रखना होगा। 2022 में नहीं होगी गलती की गुंजाइश ! संजय अवस्थी ने 2012 में पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा था और नजदीकी मुकाबले में हार गए थे। पर उसके बाद से ही अवस्थी लगातार अर्की में सक्रीय थे। नौ साल की ये मेहनत ही अवस्थी को बचा गई अन्यथा जिस लचर तरीके से कांग्रेस ने ये उपचुनाव लड़ा है वो चौकाने वाला रहा। बंटी हुई भाजपा और रतन पाल को लेकर पार्टी के एक तबके में विरोध ने भी उनकी स्थिति बेहतर की। अगर 2022 में भाजपा इन गलतियों से सबक लेकर लड़ती है तो कांग्रेस को भी मजबूती से चुनाव लड़ना होगा। तब गलती की शायद कोई गुंजाइश नहीं रहे। कांग्रेस को जहाँ में रखना होगा कि जीत का जो अंतर आठ से दस हज़ार का हो सकता था वो महज तीन हज़ार ही रहा है। क्या नया चेहरा लाना ही विकल्प है ? अर्की में भाजपा की वर्तमान स्थिति बेहद पेचीदा है। रत्न पाल और गोविन्द राम, ये दोनों ही चेहरे आगे भी क्या पार्टी को जीत दिला सकते है इस पर अभी से मंथन करना होगा। ये तय है कि दोनों के चलते पार्टी बंट चुकी है और इस स्थिति में 2022 में भी परिणाम अनुकूल आना मुश्किल होगा। ऐसे में मुमकिन है कि कोई नया चेहरा लाकर पार्टी सबको एक साथ ला सकती है? दो चुनाव हारने के बाद रतन पाल पर फिर दांव खेलना मुश्किल ही लगता है। बाकी सियासत में सब संभव है।
'बुलंदी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है, बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है'...मुनव्वर राणा का शेर मंडी में भाजपा की स्थिति पर सटीक बैठता है। 2014 में जो मंडी करीब चालीस हज़ार के अंतर से भाजपा की हुई थी, 2019 में चार लाख के अंतर से भाजपा की हुई। इस बीच 2017 भी आया जहाँ भाजपा ने जिला मंडी की दस में से नौ सीटें जीती और संसदीय क्षेत्र की 17 में से 13। इस साल हुए पंचायत और शहरी निकाय चुनाव में भी नगर निगम मंडी सहित अधिकांश क्षेत्रों में भाजपा का ही डंका बजा। पर 2021 जाते जाते भाजपा को आइना दिखा गया। मुख्यमंत्री लगातार कहते रहे की मंडी हमारी थी है और रहेगी लेकिन मंडी वालों ने सारा भ्रम तोड़ दिया। मंडी लोकसभा उपचुनाव में पूरा दमखम दिखाने के बावजूद भी मुख्यमंत्री भाजपा को जीत नहीं दिलवा पाए। राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नारों के साथ मैदान में उतरी भाजपा इस दफे चूक गई। ये हार बड़ी इसलिए है क्योंकि मंडी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का गढ़ है। दो मंत्री रामलाल मारकंडा और गोविन्द सिंह ठाकुर भी इसी संसदीय क्षेत्र से आते है। भरपूर संसाधन और ज़बरदस्त प्रचार प्रसार के बावजूद भी भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा। अंतर बेशक कम रहा हो लेकिन भाजपा की इस हार की आवाज दिल्ली तक गुंजी है और अब गहन चिंतन मंथन के बाद समीक्षा भी दिल्ली दरबार में ही होगी। मंडी संसदीय हलके के 17 निर्वाचन क्षेत्रों में से कई जगह पार्टी के विधायक पार्टी की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे। 9 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस को बढ़त मिली। जिला मंडी के 9 में से आठ विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा को बढ़त मिली पर नाचन में कांग्रेस आगे रही। जिला कुल्लू कि सभी चार, शिमला की एक, चम्बा की एक, लाहौल स्पीति और किन्नौर में कांग्रेस को लीड मिली। सुंदरनगर, बल्ह, करसोग विधानसभा क्षेत्र में भाजपा को लीड तो मिली लेकिन अपेक्षा से कम। यहाँ भाजपाई विधायक अपनी जमीनी पकड़ साबित नहीं कर पाए। विशेषकर सुंदरनगर विधायक राकेश जम्वाल से भाजपा अच्छी लीड की उम्मीद कर रही थी। विनोद कुमार, कर्नल इंद्र सिंह ठाकुर, जवाहर ठाकुर जैसे कई विधायक उपचुनाव में अपना दमखम नहीं दिखा पाए। जबकि मंडी सदर से यानि अनिल शर्मा के गढ़ से ब्रिगेडियर को 3 हजार से अधिक मतों की बढ़त प्राप्त हुई। भाजपा के विधायक ही नहीं शिक्षा मंत्री गोविंद ठाकुर व तकनीकी शिक्षा मंत्री डॉ. रामलाल मार्कंडेय अपने-अपने हलके व गृह जिले में भाजपा की साख नहीं बचा पाए। दोनों के हलकों व जिलों में कांग्रेस प्रत्याशी को बढ़त मिली। लाहुल स्पीति के विधायक एवं तकनीकी शिक्षा मंत्री डॉ रामलाल मार्कडेंय ने जिला परिषद के चुनाव में भाजपा को मिली हार से भी कोई सबक नहीं सीखा। प्रतिभा सिंह को मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर के गढ़ मनाली में भी 1841 मत अधिक प्राप्त हुए है। मंडी संसदीय सीट पर चुनाव के लिए भाजपा ने मंत्री महेन्दर सिंह को चुनाव प्रभारी बनाया था। पर लग रहा था मानो मंत्री जी को प्रचार प्रसार में बोलने के बजाए चुप रहने के लिए कहा गया था। दरअसल बीते कुछ समय में मंत्री जी के कई बयानों से भाजपा को काफी नुक्सान झेलना पड़ा है। शायद इसीलिए मंत्री प्रचार प्रसार से दूर दूर नज़र आए। तो भाजपा के टिकट पर लड़ेंगे राणा जोगिंद्र नगर में निर्दलीय विधायक प्रकाश राणा भी भाजपा के साथ ही है और उनके क्षेत्र में भाजपा को अच्छी लीड मिली है। यहाँ सात हज़ार से अधिक की लीड लेकर राणा ने अपनी काबिलियत सिद्ध की है। संभावित है कि विधानसभा चुनाव से पूर्व राणा भाजपा में शामिल हो और अगली बार भाजपा टिकट पर चुनाव लड़े। विधानसभा क्षेत्र भाजपा कांग्रेस अंतर भरमौर 5893 21150 5257 लाहौल स्पिति 5588 7734 2147 मनाली 21251 23092 1841 कुल्लू 21778 25675 3897 बंजार 19713 21591 1878 आनी 20922 27965 7043 रामपुर 11552 31507 19555 किन्नौर 12566 17543 4977 नाचन 24422 26933 2511 करसोग 20643 19230 1413 सुंदरनगर 23761 21849 1912 सराज 38394 18735 21659 द्रंग 26352 23731 2621 जोगिंद्रनगर 27993 20849 7144 मंडी 22073 18827 3246 बल्ह 22875 21919 956 सरकाघाट 21109 19260 1849
लोकसभा के नतीजे सामने आने के बाद स्पष्ट हो गया की मंडी सबकी है और सबकी रहेगी। जिस तरह मुख्यमंत्री के गढ़ को कांग्रेस प्रत्याशी प्रतिभा सिंह ने भेदा है मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर का 'मंडी हमारी है, हमारी थी और हमारी ही रहेगी' का नारा भी हवा हवाई हो गया। मंडी लोकसभा का उपचुनाव जीतकर पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह ने ज़बरदस्त वापसी की है। इस जीत से प्रदेश की राजनीति में प्रतिभा सिंह का कद और भी बढ़ गया है। विक्रमादित्य सिंह की गिनती भी अब प्रदेश के बड़े नेताओं में होने लगी है। स्पष्ट है कि वीरभद्र के जाने के बावजूद भी होली लॉज के तिलिस्म में कोई कमी नहीं आएगी। होली लॉज अब भी प्रदेश की सियासत की धुरी बना रहेगा। सिर्फ वीरभद्र परिवार ही नहीं इस जीत के बाद मंडी लोकसभा में लगभग हाशिये पर जा चुकी कांग्रेस भी मानों दोबारा जीवित हो उठी है। संगठन और कार्यकर्ताओं में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ है।भाजपा के लिए ये हार जितनी बड़ी है उतनी ही बड़ी ये जीत कांग्रेस को मिली है। पर इसमें कोई संशय नहीं है कि यदि यहाँ उम्मीदवार प्रतिभा सिंह नहीं होती तो नतीजा भी संभवतः अलग होता। यानि मोटे तौर पर ये जीत प्रतिभा सिंह की जीत है, होली लॉज की जीत है। कारगिल युद्ध पर दिए गए बयान को छोड़ दिया जाएं तो जिस तरह उन्होंने इस चुनाव को लड़ा है वो भी काबिल ए तारीफ है। प्रतिभा सिंह ने वीरभद्र सिंह द्वारा किये गए विकास कार्यों के साथ- साथ महंगाई और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों को मुख्य तौर पर उठाया और सीधे जनता से कनेक्ट करने में कामयाब रही। इस जंग में उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह का सबसे बड़ी भूमिका रही। खास बात ये है कि मां - बेटे ने एकसाथ प्रचार न करके अलग -अलग मोर्चा संभाला और इस दोतरफा सियासी आक्रमण के आगे भाजपा परास्त हुई। दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के गढ़ रहे रामपुर और जनजातीय क्षेत्रों से प्रतिभा सिंह को मिली बढ़त ने भी कांग्रेस की जीत की राह आसान कर दी। रामपुर के लोगों ने बंपर वोटिंग करते हुए प्रतिभा सिंह को 20000 मतों की बढ़त देकर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के गृह विधानसभा क्षेत्र सराज से भाजपा को मिली लीड को न्यूट्रलाइज कर दिया। किन्नौर जिले से करीब 5000, लाहौल स्पीति से 2100 और भरमौर से कांग्रेस को 4100 की लीड प्रतिभा को मिली। बाकी की कसर कुल्लू जिले के कुल्लू, मनाली, बंजार और आनी विधानसभा क्षेत्र ने पूरी कर दी। यहां से कांग्रेस को चौदह हजार से ज्यादा की बढ़त मिली जो ब्रिगेडियर कुशल चंद ठाकुर कवर नहीं कर पाए। सियासी क्षितिज पर बिखेरी काबिलियत की चमक पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के निधन के उपरांत सबकी निगाहें विक्रमादित्य सिंह पर टिकी थी और आलोचकों का मानना था कि विक्रमादित्य के लिए अकेले दम पर खुद को साबित करना मुश्किल होने वाला है। कहा जा रहा था की वीरभद्र विरोधी गुट उन्हें टिकने नहीं देगा और अपनों की महत्वकांक्षाएं उनके सियासी कद को बौना ही रखेगी। पर जिस तरह विक्रमादित्य सिंह ने सियासी क्षितिज पर अपनी काबिलियत की चमक बिखेरी है वो कई माहिरों को भी हैरान कर रही है। लोगों से सीधा संवाद उन्हें लोकप्रिय बना रहा है, खासतौर से सोशल मीडिया का उन्होंने बेहद उम्दा इस्तेमाल किया है। पर सियासत महाठगिनी है और विक्रमादित्य सिंह का असल इम्तिहान अभी बाकी है। अपनी ही अलग तरह की सियासत कर रहे विक्रमादित्य के हर कदम पर इस वक्त हर सियासी अपने बेगाने की नजर होगी। उनकी जरा सी चूक का इंतज़ार कई विरोधियों को होगा। पर उन्हें हल्के में लेने की गलती शायद ही कोई कर रहा हो।